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मंगलवार, दिसंबर 28, 2010

कहानी श्रृंखला - 11 / माई लभ्भो : इलियास घुम्मण

पाकिस्तानी पंजाबी कहानी




माई लभ्भो

:    इलियास घुम्मण


लाहौर शहर से निकल कर कार रावी के पुल पर चढ़ी तो सभी का रंग पीला पड़ गया। ड्राईवर की सीट पर बैठे मेरे बड़े भाई साहब ने डोल रहे अपने शरीर को संभाला और सामने वाले शीशे से आगे की ओर देखते हुए कहा, तुम्हारी यह हरकत कहीं हम सबको ले न डूबे।

मैं भाई साहब के साथ वाली सीट पर बैठा था, यह बात सुनकर मुझसे कोई जवाब देते न बना। मेरा पूरा ध्यान तो पीछे वालों की ओर था। उन तक भले ही आवाज़ न पहुँची हो परंतु उन्होंने भाई साहब के लहज़े में मौजूद डर को ज़रूर महसूस कर लिया होगा।                                                                                                                                                                                            


पुल की दूसरी तरफ सारी गाड़ियों को रोक-रोक कर जांच करती पुलिस की टोलियां हमें दूर से ही दिख गई थीं। हमारी कार भी वहां पहुँच कर धीमी हुई तो उधर से पुलिस वाला बड़ी जल्दी से इधर आया। हम सबकी तो मानो साँस ही थम गई थी। संतरी ने पहले हम दोनों भाईयों के चेहरे बारी-बारी से देखे फिर क़दमों में पड़ी चीज़ों की ओर नज़र दौड़ाई और फिर..... वह कार की पिछली सीट की तरफ गया। परंतु, अचानक एक झटके से उसने अपना सिर पीछे खींचा और हमें छोड़कर पीछे आ खड़ी हुई वैन की तरफ बढ़ गया। पुल से कुछ आगे जाकर बड़ी कठिनाई से रोकी हुई हमारी हंसी फूट पड़ी। हंसते हुए मैंने पीछे की तरफ नज़र दौड़ाई। तन पर हरा चोला, सिर पर सजाई लंबी सफेद टोपी और सीने तक झूल रही सफेद दाढ़ी वाली ये हस्ती.....किसी बड़ी मसज़िद का इमाम ही हो सकता था। अभी तक अपनी उंगलियों से फटाफट माला फेरने वाला वह व्यक्ति चाचा गुरदयाल सिंह था और उसके साथ पहरेदार महिलाओं की भाँति नाक तक दुपट्टे से मुँह ढके बैठी उसकी बेटी मनप्रीत कौर थी।

इन बाप-बेटी से हमारी मुलाकात बस यूँ ही हो गई थी। ये दोनों बैसाखी के  अवसर पर भारतीय जत्थे के साथ पाकिस्तान आए थे। मनप्रीत कौर गवर्नमेंट  कॉलेज, अमृतसर में पढ़ती थी। इस लिए जब यह जत्था लाहौर पहुंचा तो पंजाब के बहुत बड़े और पुराने अस्पताल को देखने के लिए उसका मन मचल उठा। म्युनिसिपल अस्पताल में घूमते हुए एक वॉर्ड के सामने लिखे डॉक्टरों के नामों में मनप्रीत ने एक डॉक्टर  के  नाम के साथ घुम्मण लिखा देखा तो उसे बड़ी हैरानी हुई। इस लिए कि वह खुद भी उसी बिरादरी से थी। उसके पिता ने उसे समझाया कि मुसलमानों में भी यह गोत्र है, बल्कि इस गोत्र वालों के वंशज तो इघर ही हैं।

वॉर्ड में जाकर ये बाप-बेटी उस डॉक्टर से मिले, उसने इन्हें पूरा अस्पताल दिखाया और अच्छी आवभगत भी की। वह डॉक्टर मेरा बड़ा भाई था। बाद में भाई साहब के माध्यम से मैं इन दोनों से मिला। लाहौर की सैर करके मनप्रीत तो खुश हो गई थी पर बातों ही बातों में मुझे यह पता चला कि बुजुर्ग गुरदयाल सिंह भी अपने मन में एक पुरानी हसरत छुपाए हुए है। वह इधर ही जन्मा और पला-बढा था और स्यालकोट जिले के एक गांव राजगढ़ को देखना चाहता था। यही गाँव उसकी और उसके बुजुर्गों की जन्मभूमि थी।

चाचा गुरदयाल की यह ख़्वाहिश पूरी करने के लिए भाई साहब और मैंने जी तोड़ कोशिश की परंतु इस काम के लिए हम सरकार से इजाज़त  ले सके। दूसरी तरफ पाकिस्तान आकर भी अपना गाँव देख पाने का कोई उपाय होता  देख गुरदयाल सिंह की परेशानी बढ़ती जा रही थी। अब वह आहें भर कर कहता, साँसों का कोई भरोसा नहीं।  हो सकता है यह मेरा पाकिस्तान का अंतिम सफ़र हो.....जैसे भी हो मुझे मेरा गाँव दिखा दो।

चाचा गुरदयाल सिंह की परेशानी देख कर मैं खो सा गया। भाई साहब हंसते हुए बोले, ‘जब भी तुम गुप्प हो जाते होतुम ज़रूर उस मसले का समाधान निकाल लेते हो।’ परंतु उस कठिनाई का समाधान आसान नहीं था। वह मार्शल ला का ज़माना था।  जत्थे के साथ आए यात्रियों को अपने यात्रा वाले शहर से बाहर जाने से सख़्ती से रोका जाता था। फिर उन दिनों तो कुछ ऐसी घटनाएं भी घटी थी कि ये सख़्ती कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई थी। किसी तरह बात बनती न देख मैंने ही चाचा गुरदयाल सिंह को मौलवी का स्वांग रचने की सलाह दी थी और इस काम के लिए अपेक्षित वस्तुएं मुझे दाता के दरबार के साथ वाले गली-बाज़ारों से मिल गई थीं। उस दिन सुबह उठ कर चाचा गुरदयाल ने रोज़ की भाँति दाढ़ी पर न तो जाली लगाई थी और न ही उसके बालों को नियंत्रित करने के लिए कोई और विधि अपनाई थीबल्कि स्नान के बाद वह अपनी धवल दाढ़ी पर कंघी फिरा-फिराकर उसे मौलवियों जैसी बनाने की कोशिश करता रहा। फिर उस परिधान में तो बूढ़े सिक्ख के चेहरे पर अजब सा नूर नज़र आने लगा था। भाई साहब उन्हें देख कर चकित रह गए और बोले, ‘चाचा जी ! अब बेशक आप किसी भी मसज़िद में जाकर जुम्मे की ख़ुतबा अदा कर आएंकोई नहीं रोकेगा आप को।

न दिनों आज की तुलना में मौलवियों की शान बहुत थी। फौजी जरनैल अपनी सरकार की मजबूती के लिए मज़हब और मज़हबी प्रतिनिधियों का बड़ी सूझ-बूझ से इस्तेमाल कर रहा था। कोई नूरानी चेहरा ‘मज़लिस-ए शूरा में नज़र आता था और कई ज़कात और ऊशर कमेटियों के चेयरमैन बने फिरते थे। सरकारी महकमों के क़ारिंदे तो पहले ही लंबी दाढ़ी वालों के दीद किया करते थे। फिर तो वे यूं ही उनसे ख़ौफ खाने लगे।  रावी पुल वाला पुलिसवाला भी चाचा गुरदयाल सिंह को कोई ज़ालिम किस्म का मुल्ला समझ कर ही बिना और कोई पूछताछ किए पीछे हट गया था।

रावी पुल से आगे का सफ़र तय करने में लगभग दो घंटे लग गए और इस दौरान किसी ने भी हमारा रास्ता नहीं रोका। गाँव राजगढ़ हम दोनों भाईयों ने पहली बार देखा था। वहां हमें पहचानने वाला भी कोई नहीं था। बल्कि जब हम गाँव पहुँचे तो गाँववासियों ने हमें भी कार से उतरे बूढ़े मौलवी के परिवार के सदस्य ही समझा होगा। एक मौलवी को सपरिवार राजगढ़ में प्रवेश करते देख उन्होंने हमारी तरफ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया।  परंतु जब किसी के घर जाने की बजाय हम लोग गाँव की गलियों में ही घूमते रहे तो देखने वाली आँखों में हमें कुछ उत्सुकता सी नज़र आने लगी।

चाचा गुरदयाल सिंह जितने शौक से राजगढ़ आया थाअपने पुश्तैनी घर के न मिलने पर निराश होता नज़र आया। कई बार वह बुदबुदा चुका था, ‘यह कैसे हो सकता है कि मुझे अपने घर का रास्ता ही नहीं मिल रहा।’ राजगढ़ की गलियों में घूमते हुए हमें चाचा ने यह भी बताया था कि गाँव के जिस मुहल्ले में उनका घर थावह सारा मुहल्ला ही अजनबी सा लग रहा है। फिर वह खुद को ही उलाहना देते हुए बोला, ‘बेशक इस मुहल्ले का पूरे का पूरा नक्शा बदल गया है पर फिर भी मुझे अपने घर की पहचान तो होनी चाहिए थी।

शायद इसी बात से शर्मसार महसूस करके चाचा गुरदयाल सिंह अब हम सबसे और ख़ास तौर से अपनी बेटी से भी आँखें मिलाने से क़तरा रहा था। उसके मौलवी वाले स्वांग का भांडा फूटने के डर से हम खुल कर गाँव वालों से कुछ पूछ भी नहीं पा रहे थे।

यह अंतिम कोशिश हैइस बार भी मुझे मेरा घर न मिला तो फिर लौट चलेंगे...... मैं समझूंगा उसे दोबारा देख पाना मेरी क़िस्मत में ही नहीं था।’ एक बार फिर बीच वाले मुहल्ले की गलियों में घुसते हुए चाचा गुरदयाल ने कहा।  हम सभी भी पांव घसीटते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिए।

अब हम जिस गली में जा रहे थेवह आगे से बंद थी।  पहले भी हम कई बार गुरदयाल सिंह के साथ इस गली में जाकर बीच में से ही लौट आए थे।  हमें शक था कि सामने से बंद नज़र आती इस गली में आगे जाकर कोई फायदा नहीं होगा।  इस बार हम पीछे लौटने लगे तो चाचा गुरदयाल सिंह कुछ देर के लिए रुकने का इशारा कर गली को बंद कर रही दीवार की तरफ चल दिया।

इस दीवार के साथ तंग सा रास्ता निकलता है। आप वहीं ठहरोमैं आगे से देखकर अभी आता हूं।’ बंद गली के अंत में पहुंचकर चाचा गुरदयाल ने हमारी तरफ मुंह करके आवाज़ दी। ‘यहां क्या मिलेगा डैडी ?  मैं तो कहती हूं..... दूर से आती कुर्लाहट ने मनप्रीत कौर के वाक्य को पूरा न होने दिया।

पहले बंद गली और फिर उसकी अंतिम दीवार के पास से निकलते तंग रास्ते में ज़ोर-ज़ोर से दौड़ते हुए गुरदयाल सिंह के पीछे-पीछे पहुँचने वाला पहला व्यक्ति मैं ही था परंतु दूसरों ने भी वहाँ पहुंचने में ज़्यादा देर नहीं की।  हम सब की साँस फूल रही थी और अचानक की इस दौड़ा-दौड़ी में दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं। हमारे सामने का नज़ारा भी कोई कम होश उड़ाने वाला नहीं था। चाचा गुरदयाल सिंह एक मकान के दरवाज़े के सामने खड़ा था। वह उस दरवाज़े के कभी एक हिस्से को और कभी दूसरे को आलिंगन में ले-ले  कर चूम रहा था। सर से टोपी गिर जाने के बाद मुट्ठी भर बालों का जूड़ा उसके सिर पर सीधा खड़ा ऐसे लग रहा था मानों किसी गुरूद्वारे का निशान साहब हो। उसकी आँखों से निरंतर बह रही जलधारा उसकी धवल दाढ़ी को भिगो रही थीउसके मुँह से जो दर्दनाक विलाप निकल रहा थाऐसे बोल मैंने पहले कभी नहीं सुने थे। ‘मुझे मेरा घर मिल गया है लोगो! सौगंध गुरू कीमैं इसी घर में जन्मा थामैंने सब कुछ पहचान लिया है। ये दरवाज़ा हमने चाँदी बढ़ई से बनवाया थाइसके ऊपर लगी कीलें मेरी माँ ने अपने हाथों से लगाई। ये कुंडी मेरे पिताजी स्यालकोट से लाए थेआह.... ।

चाचा गुरदयाल सिंह एक-एक चीज़ को हाथ लगा-लगा कर देखता और पहचान कर  अपनी आँखों और होठों से लगाता।  वह ज़ार-ज़ार रोता खुद से ही बातें किए जा रहा था।  अब इस तंग गली में गाँव के लोग इकट्ठे होना शुरू हो गए थे। पता नहीं कैसे पूरे राजगढ़ में बड़ी तेज़ी से यह ख़बर फैलती जा रही थी कि एक बुजुर्ग सिक्ख एक पुराने दरवाज़े को गले लगाकर विलाप कर रहा है।

                                
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विभाजन से पहलेबीच वाले मुहल्ले में ज़्यादा आबादी हिंदु-सिक्खों की ही थी....’  यह बात गाँव का एक बुजुर्ग बाशिंदा बता रहा था।  उस वक्त हम गाँव के नंबरदार चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर के खुले-डुले आँगन में पेड़ों की छाया में बैठे थे।  परंतु ये खुला आँगन भी वहां उमड़ आए जनसमूह के लिए छोटा पड़ रहा था। वह व्यक्ति बता रहा था, ‘फ़सादों में यहाँ के लोगों ने बाहर से आए लुटेरों को रोक दिया था पर वे ज़्यादा दिनों तक उन्हें न रोक सके। फिर लूटमार तो जो हुईसो हुई उन ज़ालिमों ने इस मुहल्ले के अनेकों मकान जला कर राख कर दिए। अब यहाँ जो घर दिख रहे हैं उनमें से बहुत से बाद में ही बनाए गए थे.....पहले वाले मकानों को ढहा कर। यहाँ की कई गलियां भी असली जगह से हट कर बनाई गई थीं। इस लिए बीच वाले मुहल्ले का मौजूदा रूप इसके पुराने रूप से बिलकुल अलग है।

चाचा गुरदयाल सिंह के मकान के विषय में बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इस मकान का काफी हिस्सा जलने से बच गया था और बाद में उधर से मुहाज़िर होकर आए दो भाईयों ने इसे अलॉट करवा लिया था। इन दोनों भाईयों में बनती नहीं थी। शुरूआती दिनों में ही दोनों में झगड़े शुरू हो गए जो बढ़ते ही चले गए। फिर तो बात यहाँ तक पहुंच गई कि बड़े भाई ने इस मकान के निर्मित पिछले हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और मकान का बाहरी दरवाज़ा ही उखड़वा कर अपनी तरफ रास्ता निकलवा कर वहाँ लगवा लिया।  छोटा भाई उससे भी तेज़ निकला। लूटमार में ढह गए किसी दूसरे मकान की ईंटे लाकर इस घर के खुले आँगन में कमरे डलवा लिए। फिर अपनी जगह को और खुली करने के लिए उसने रातो-रात गली को भी साथ मिला लिया। उस वक्त हर तरफ छीना-झपटी का दौर चल रहा थाकिसी ने भी उसे गली पर कब्ज़ा करने से नहीं रोका। उसने आराम से गली की दूसरी तरफ अपने मकान का दरवाज़ा रख लिया।  परंतु उसके इस काम से बीच वाले मुहल्ले में से गुज़रते इस पुराने रास्ते ने हमेशा-हमेशा के लिए बंद गली का रूप अख्तियार कर लिया।’ राजगढ़ का वह वृद्ध बाशिंदा अभी बोल ही रहा था पर मेरा ध्यान कोई घंटा भर पहले की न भूलने वाली बातों की तरफ चला गया था। जब हम विलाप कर रहे चाचा गुरदयाल सिंह को बंद गली में से सहारा देकर बाहर निकाल लाए थेतब सूरज शिखर पर पहुंच गया थादोपहरी का यह वह वक्त था जब खेतों की तरफ फेरी मारने वाले बड़े-बुजुर्ग घरों को लौट रहे थे। खेतों में काम करने वाले नौजवान भी खाना खाने  गाँव में पहुँच चुके थे। कुछ मांए-बहनें और गृहणियां खाना लेकर कुओं और डेरों की ओर जा रही थीं। इस लिए जब हम गाँव की बड़ी गली में आए तो अब काफ़ी लोग आ जा रहे थे। चाचा गुरदयाल अपना चोला उतार कर अपने असली पहरावे में आ चुका था और अभी तक अपनी ही रौ में इस गाँव से जुड़ी अपनी यादें ऊँचे स्वर में ताज़ा कर रहा था। वह अपने जिन पुराने यारों और बचपन के साथियों का नाम ले - लेकर विलाप कर रहा था हो सकता है उन में से भी कुछ उस समय गली में मौजूद रहे हों। इसी लिए तो वहाँ खड़े कई बूढ़े हाथों से डंगोरिया छूटी और कई माईयों के हाथों से खाने की पोटलियां छूट कर गिर पड़ींमैं उनकी गिनती न कर सका। फिर कितने आलिंगन हुएकिस-किस की आँखें भींगीकितनों की रुलाई फूट पड़ीमैं उनका हिसाब न रख सका।

अब चाचा गुरदयाल सिंह को सहारा देने की हमें कोई ज़रूरत नहीं रही थी क्योंकि इस काम के लिए उसके अपने गाँव वालों की अनगिनत बांहें आ मिली थीं। वे सभीहमें एक बड़े जलूस के रूप में चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर ले गए। गाँव के उस बूढ़े नंबरदार ने भी चाचा का गर्मजोशी से स्वागत किया। राजगढ़ वाले मुझे और भाई साहब को भी गाँव के पुराने बाशिंदे ‘दयाल सिंह घुम्मण’ के ही दाढ़ी और बाल कटाए मोने बेटे समझ रहे थे।  इस लिए चाचा गुरदयाल सिंह से शरमा रहीं उसकी हमउम्र औरतें हमें ही प्यार से सर दुलार-दुलार कर शौक पूरा कर रही थीं। हम भी बनावटी सिक्ख बनकर मुफ्त में मिल रहे इस दुलार को तोहफा समझ कर कबूल कर रहे थे पर बेचारी मनप्रीत का बुरा हाल था। बुजुर्ग औरतों के साथ-साथ गाँव की युवतियां और बच्चियों ने उसके गिर्द भीड़ जुटा रखी थी। वह बेचारी समझ नहीं पा रही थी कि गाँव वालों के अपनत्व भरे इस जज़्बे के आवेग का किस तरह जवाब दे ? मुहब्बत की उन्मुक्त बारिश में भीग रही वह नन्हीं सी जान बेहाल हो रही थी। 
      
प्यारसलाम और आलिंगनों से जब कुछ फुर्सत मिली तो पुरानी बातें छिड़ गईं।  चाचा गुरदयाल सिंह ने अपनी आपबीती सुनाई तो गाँव वाले जगबीती सुनाने लगे। सभी इन बातों में मशगूल थे कि उस बड़े घर के बाहरी दरवाज़े के पास खड़ी एक अधेड़ उम्र की महिला को मैंने इशारा कर अपने पास बुलाते पाया। हैरानी हुई कि पास आने की बजाय वह मुझे अपने पास क्यों बुला रही है ?

मैं उठ कर उसकी तरफ जाने लगा तो गाँव की एक अन्य महिला यह कहते हुए मेरे साथ चल पड़ीयह तो पागल है।  इसी गाँव के एक हिंदु ख़ानदान से है। सुना है बंटवारे के दौरान सरहद की तरफ जा रहे क़ाफिले में से इसे उठा लिया गया था। फिर पता नहीं कहाँ-कहाँ बिकती रही। अब गाँव में वापिस आए भी इसे अठारह साल हो गए हैं। यह किसी शहर की गलियों में भटकती फिर रही थी कि हमारे गाँव का एक विधुर इसे यहाँ ले आया। पहले तो उसने कुछ दिन ऐसे ही इसे अपने घर रख छोड़ा फिर लोगों के कहने पर मुसलमान बनाकर इससे निकाह कर लिया। गाँव में इसका नाम पड़ गया ‘माई लभ्भो।’ कभी तो ये यहाँ के एक खाते-पीते घर की पढ़ी-लिखी लड़की थी पर अब तो यह बिलकुल ही पागल है। रोज़ शाम को मुंडेर पर बैठकरपूरब की ओर मुँह करके हवाओं से बातें करती रहती है...

लगातार बोलती जा रही वह महिला अभी और भी बहुत कुछ कहना चाहती थी परंतु धीरे-धीरे चलते हुए हम अब माई लभ्भो के बिलकुल पास पहुंच गए थेइस लिए वह चुपचाप पीछे लौट गई। मैंने सोचा था कि माई लभ्भो को चाचा गुरदयाल सिंह से मिलवाऊंगाउसके बारे सुनकर मुझे ख़याल आया था कि चाचा उसे ज़रूर पहचान लेंगे।  परंतु मेरे साथ भीतर आने की बजाय माई लभ्भो ने मेरी बाँह कस कर पकड़ ली और खींचती हुई मुझे अपने घर ले गई। उसकी छोटी सी झोंपड़ी भी उसी बंद गली में थी।  अभी तक उसने ऐसी कोई हरक़त नहीं की थी जिससे उसकी दिमागी हालत पर शक किया जा सके।

 ‘तू दियाले घुम्मण का ही पुत्तर है न ?’ मुझे चारपाई पर बिठाकर और खुद भी बैठते हुए उसने मुझसे पहला सवाल किया।  ‘हांमेरा पिता घुम्मण ही है,’ मैंने सोचकर जवाब दिया।    
 ‘खाना खाओगे ?’
 ‘क्यों ?’

बस ऐसे ही। अच्छा! समझ गईतू मेरे हाथ का पका खाना नहीं खाना चाहताउन लोगों ने मुझे अपनी तरफ से मुसलमान जो बना लिया था न.......’  यह कहकर वह पहली बार पागलों की भांति हंसी और फिर एकदम खामोश हो गई। अब उसकी गर्दन तन गई थी और अहंकार भरे लहज़े में बोली, ‘मुंडिया ! मुझे ऐसी वैसी जनानी मत समझना। ये जो अब यहाँ चौधरी बने फिरते हैंये कभी मेरे पिताजी के गोदामों में बोरे ढोया करते थे।’ यह बताते हुए उसकी आवाज़ में बेहद कड़वाहट भर गई थी। उसने मेरी बाँह पकड़ कर ज़ोर से झकझोरी और कहने लगी, ‘तू समझता है मेरे हाथ लगने से रोटी भ्रष्ट हो जाएगीतुझे क्या पता कि हमारे परिवार वाले भी छूआछात में कितना विश्वास रखते थे ?  किसी भ्रष्ट से खाने वाली चीज़ लेना तो दूर की बात हैमेरी माँ तो जब मंदिर जाती थीउनकी परछाई पर भी जब किसी मुल्ले का पैर पड़ जाता था तो वे घर वापिस आकर दुबारा स्नान करके ही पूजा करने जाती थीं।’ इतना कहकर उसकी आँखों में दु:ख के साए गहराने लगे और अब जब वह बोली तो उसकी आवाज़ पीड़ा से सराबोर थीपरंतु मेरे माता-पिता को क्या पता था कि उनकी लाडली बेटी को कितने मुस्लिम घरों की रोटी खानी पड़ेगी ?’

 वह बच्चों की भाँति हिचकियां ले-लेकर रो रही थीफिर रोते-रोते ही बोली, ‘हमारे बुजुर्गों ने इनसे खाना-पीना अलग कर रखा थाइन्होंने तो उनसे देश ही अलग कर लिया’ ये सुनकर तो मैं तड़प उठा था।  जो कहता है कि माई लभ्भो पागल हैवह खुद पागल होगा... मैं सोच रहा था।

झट से बीच में ही रोना छोडकर माई लभ्भो ने अपने आँसू पोंछ लिए और फिर मैंने उसे ये कहते सुना। ‘खाना खाने को जी नहीं चाहता तो चल मैं तुझे अपने कुएं पर ले चलती हूँ। तू खुद हमारी भैंस दुहकर उसका दूध पी लेना... मुसलमानों के हाथों चारा खाकर भैंसें तो मुसलमान नहीं हो जातीं।’ पगली की ये बातें तो मुझे भी पागल किए जा रही थीं।

 माई लभ्भो के घर से खाना खाकर मैं वापिस चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर पहुँचा तो यह देखकर खुश हो गया कि वहाँ अब हर तरफ हंसी के ठहाके गूंज रहे थे। वहाँ एकत्रित लोग हंसने-बोलने के साथ-साथ कुछ न कुछ खा-पी रहे थे। दरअसल वे सभी औरतें जो खाने लेकर कुएंडेरों पर जाने के लिए घर से निकली थींउन्होंने संदेसे भेजकर गाँव से नज़दीक की ज़मीनों में काम कर रहे अपने क़रीबी रिश्तेदारों को भी वहीं  बुला लिया था।  उन औरतों की इच्छा थी कि गुरदयाल सिंह या उसके परिवार में से कोई भी उनके खाने में से थोड़ा-बहुत ज़रूर खाए। उनकी देखा-देखी गाँव की अन्य औरतें भी अपने घरों से खाने-पीने की वस्तुएं ले आई थीं। चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर वाले भी इस सेवा में शामिल हो चुके थे। भला दो-तीन मेहमान इतने लोगों में कैसे पूरे आ सकते थेइतने खानों में से वे सिर्फ़ एक-एक कौर ही लेकर लोगों को खुश कर रहे थे। मैंने देखा कि ख़ास तौर से जिसके खाने को चाचा गुरदयाल सिंह हाथ लगाताउसे लाने वाली महिला का चेहरे पर ऐसा संतोष झलकता था मानो बरसों बाद किसी बहन को उसका बिछुड़ा भाई अचानक आ मिला हो।

राजगढ़ से लौटने से पहले चाचा गुरदयाल सिंह ने एक बार फिर अपना पुश्तैनी घर देखने की इच्छा व्यक्त की तो इस बार पूरा गांव ही उसके साथ चल दिया। वहाँ पहुँचकर घर की कुछ पुरानी चीज़ें पहचान कर चाचा गुरदयाल सिंह फिर से भावुक होने लगा परंतु अब अपने आस-पास इतने सारे भाई-बहनों और भतीजे-भतीजियों के होते हुए उसने खुद पर काबू पाए रखा। उस घर में मुहाजिर होकर आ बसे दोनों भाई और उनके बाल-बच्चे भी बड़े अदब से चाचा से मिले। उन दोनों भाईयों के बारे में बताई गई बातें सच ही होंगी परंतु उस वक्त मुझे वे दोनों सीधे-सादे हल चलाने वाले किसान ही लगे बल्कि जब वे चाचा गुरदयाल सिंह से जिला होशियारपुर के उस गाँव के बारे बड़ी गर्मज़ोशी से पूछने लगे जिसे छोड़कर उन्हें यहाँ आना पड़ा था तो मुझे सफेद बालों वाले उन भाईयों पर तरस सा आने लगा।

राजगढ़ की गलियों में चाचा गुरदयाल सिंह के साथ घूमते-फिरते हुए कई बार मेरा जी चाहा कि मैं उन्हें माई लभ्भो के बारे बताऊं पर हर बार माई लभ्भो के समक्ष खाई सौगंध मेरा मुँह बंद कर देती थी।  वह शायद अपनी इस हालत से कितनी शर्मिंदा थी कि कि बहुत चाहते हुए भी वह गुरदयाल सिंह या किसी भी पुराने परिचित के समक्ष खुद को ज़ाहिर नहीं करना चाहती थी। इसी बात की उसने मुझसे क़सम ले ली थी।

वापसी के समय शाम हो रही थीवे लोग हमें विदा करने के लिए गाँव से बाहर तक आए। मैं तो भाई साहब के साथ कार में आ बैठा था पर चाचा गुरदयाल सिंह और मनप्रीत कौर अभी भी लोगों से घिरे हुए थे। चाचा का तो इन सबके साथ पुराना रिश्ता था पर हमने हैरान होकर देखा कि मनप्रीत कौर भी अपनी नई बनी सहेलियों से आलिंगनबद्ध हो रही थी। उनमें से बहुत सी लड़कियों ने अपने माथे पर बिंदियां सजा रखी थीं।
      
 मनप्रीत ने पता नहीं कब अपने पर्स में से ये बिंदियां निकाल-निकाल कर उनमें बाँट दी थीं। ये गर्मजोशी वाला अपनत्व देखते हुए मेरा ध्यान कहीं और चला गया था और मेरे मन पर उदासी सी छा गई। 

भाई साहब ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा, ‘गाँव आकर चाचा गुरदयाल सिंह जितना खुश नज़र आ रहा है मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में किसी आदमी को इतना खुश नही देखा.....।’ उस वक्त भाई साहब की नज़र मुझ पर पड़ी और मुझे देखकर हैरान हुए और बोले, ‘तुझे फिर वही चुप सी लग गई हैबता अब क्या बात है ?’

 ‘नहीं कोई बात नहीं।’ ये  कहकर मैंने भाई साहब का सवाल टाल दिया पर सच तो यह है कि चाचा गुरदयाल सिंह को उसका गांव दिखा कर मिली खुशी के बीच जो नया आघात मेरे सीने पर लगा थाउससे अब धीरे-धीरे रक्त रिसने लगा था। चाचा गुरदयाल सिंह का पुरसकुन चेहरा देख-देख कर मैं हिंदु माता-पिता की ज़बरदस्ती उठाई गई उस बेटी के बारे सोचने लगाजिसे अब उसके असली वारिस भी भुला चुके होंगे। वह जो अब ‘माई लभ्भो’ बन कर बंद गली के भीतर जीवन गुज़ार रही है और रोज़ शाम को मुंडेर पर बैठकर पूरब की ओर जाती हवाओं से बातें करती रहती है। मेरी सोच की सुई यहाँ आकर थम गई थी कि उसके मन को कैसे तसल्ली मिलेगी ?


अनुवाद - नीलम शर्मा  'अंशु'


साभार – , नवंबर 2004  संपादन  – डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय


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लेखक परिचय

इलियास घुम्म
  

जन्म  25 अगस्त 1961, गुजरांवाला (पाकिस्तान) जिले के गाँव चक्क सत्तियां में। लाहौर इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कंपनी में एक्जीक्युटिव इंजीनियर। राडार, विज्ञान, हिसाब-किताब, इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर आदि विभिन्न विषयों पर विज्ञान संबंधी पुस्तकों के साथ-साथ दो लघु उपन्यास, दो बाल उपन्यास, लोक कथाएं12 कथा संग्रह और 5 धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित। सहर (मासिक), रवेल (मासिक), मीटी (द्विमासिक), सोहणी धरती (वार्षिक), साहित (वार्षिक) आदि पत्रिकाओं का संपादन।

विशेष उल्लेखनीय -  पाकिस्तान पंजाब में सिक्ख धर्म से संबंधित गुरुद्वारों, जन्म स्थानों और निशानियों पर आधारित पाँच शोधात्मक ग्रंथों का लेखन।  साहित्यिक लेखन एवं शोधपरक लेखन  की विशिष्ट उपलब्धियों के लिए भारत और पाकिस्तान सहित विश्व स्तर पर 56 पुरस्कारों से सम्मानित।        

संपर्क – 24, अमीर रोड, बिलालगंज, लाहौर – 54000. पाकिस्तान।

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

कहानी श्रृंखला - 10 / रजाई वीना वर्मा

                  रजाई
वीना वर्मा
          
           वह मुँह सर लपेटे पड़ी थी। सुबह के ग्यारह बज गए थे। दिन पूरा चढ आया था, परंतु उसने मुँह से रजाई नहीं उतारी थी। उसकी पुत्रवधु कैथी कई बार आकर रजाई हटा कर देख गई थी कि कहीं बुढ़िया मर तो नहीं गई परंतु उसकी साँस चलती देख वह फिर उसके मुँह पर रजाई दे देती। सुबह लगभग नौ बजे वह उसे जगा कर चाय के लिए पूछ गई थी परंतु हर बार हरबंस कौर ने इन्कार में सर हिलाया और करवट बदल ली।

            कैथी की नई-नई शादी हुई थी, उसके पुत्र सतवीर के साथ। घर की साफ-सफाई करते-करते एक दिन वह हरबंस कौर के कमरे में आ गई। हरबंस कौर गुरु द्वारे गई हुई थी। कैथी ने कमरा साफ किया और अपनी सास का पुराना बिस्तर हटाकर नया बिछा दिया। उसकी फटी-पुरानी, तार-तार हो चुकी रजाई को कूड़ा फेकंने वाले काले बैग में डाल कर रख दिया। हरबंस कौर वापिस आई तो अपने कमरे का नया रूप देखकर बिफर पड़ी।
         
          ‘मी नो रजाई?  वह बहू की तरफ मुड़ी।

          येस मॉम, यू डोंट नीड दैट रैग एनी मोर। दैट वॉज़ टू ओल्ड आई ब्रॉट दिस न्यु ब्लैंकेट फॉर यू। कैथी ने पलंग पर पड़ा गर्म कंबल हाथों में लेकर सास को दिखाया।

         नो कंबल......मी रजाई,’  वह बच्चों की तरह बिलख उठी।

          वॉट हैपेंड?.... वॉय आर यू क्राइंग...?  कैथी घबरा गई।

             नो-नो......मी रजाई,’  वह रोते हुए बाहर चली गई। कैथी घबराई सी उसके पीछे दौड़ी।

            हरबंस कौर घर के सामने पड़े कूड़े वाले बैग से अपनी रजाई निकाल लाई। पलंग पर पड़ा कंबल उसने तह करके कारपेट पर रख दिया। कैथी ने हरबंस कौर की इस हरकत से खुद को अपमानित सा महसूस किया और गुस्से में उसने रजाई हरबंस के हाथ से खींची।
  
            दिस इज़ वेरी डर्टी.....नॉट गुड फॉर योर हेल्थ.... हरबंस कौर ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया।
  
            वे पुत्तर! मेरी रजाई.....  हरबंस कौर सतवीर को देख बिलखी। सतवीर से माँ की ऑंखों में ऑंसू नहीं देखे गए।
  
            हाऊ यू डेयरड?’  उसने कैथी के सुनहरे बाल अपने हाथों में लेकर खींचे और पूरे ज़ोर से दो तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए।

             वॉटस् रॉन्ग विद यू?  कैथी हक्की-बक्की रह गई।

            डोंट ट्रीट माई मदर लाइक ए शिट्ट। यू बिच !’  अपनी माँ को ज़मीन से उठाते हुए वह नफरत से कैथी को देख रहा था।

            आई वॉज़ जस्ट क्लीनिंग हर रूम। कैथी की भूरी आँखों में आँसुओं के बादल उमड़ आए।
    
            डोंट टच हर थिंग्स। लेट हर लिव ऐज़ शी लाइकस् 
            हाऊ शी कैन लिव इन सच ए डर्टी रूम? ऐंड हाऊ वी कैन लिव विद हर....? वह अभी बात समाप्त भी नहीं कर पाई थी कि सतवीर ने उसके बाल ज़ोर से पकड़ कर फिर से खींचे।

            देन् गो टू हेल्। आई एम गोइंग टू लिव विद माई मदर इन दिस डर्टी प्लेस। यू गेट लौस्ट । उसने फिर तमाचे के लिए हाथ उठाया पर हरबंस कौर ने अपने कमज़ोर हाथों से उसकी बाँह पकड़ ली।
  
            न वे पुत्तर, अंग्रेजी में मत लड़ो। मेरी समझ में कुछ नहीं आता । बहू को कुछ मत कह। वह सतवीर को कमरे से बाहर ले जाने लगी।
  
            मैंने इसे कुछ नहीं कहा माँ। मैंने उसे सिर्फ इतना ही कहा है कि अगर इस घर में रहना है तो मेरी माँ की रेसपेक्ट कर । उसने माँ को बताया।

            मुझे नहीं ज़रूरत रसेक्ट की। बस बेटा, मेरे रूम को मत छेड़े......मेरी चीज़ों..... इसे समझा दे अंग्रेजी में कि मेरी कोई भी चीज़ बाहर न फेंके....और मैं कुछ नहीं माँगती तुम लोगों से। वह दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी।

आज के बाद ये तुम्हारे रूम में नॉक करके आएगी माँ....तुमसे इजाज़त
लेकर.... आई विल टीच हर हाऊ टू बिहेव।  वह गुस्से से बोला।

         नहीं, पुत्तर लड़ो मत। बहू को मत मारना। इस बेचारी का क्या कसूर है। मुझे ही बात समझ नहीं आती। उसने बेटे को समझाया।

             कैथी चुपचाप अपने कमरे में चली गई। उस दिन से वह कभी बिना पूछे उसके कमरे में नहीं आई। पूछ कर आती, उसका कमरा साफ क़रती, कपड़े धो देती। उसे नहला-धुला देती, उसकी पसंद का खाना बना देती परंतु उसके कमरे की किसी भी चीज़ को वह बिना पूछे हाथ न लगाती।   

            काफी समझदार लड़की थी कैथी। सतवीर ने उससे प्रेम विवाह किया था। जिस फर्म में सतवीर इंजीनियर था, वह वहाँ क्लर्क का काम करती थी। कैथी और सतवीर की दोस्ती प्यार में बदली और दोनों ने शादी का फैसला कर लिया।

            मैं पहले अपनी माँ से बात करूंगा। सतवीर ने उससे कहा था।

     कैथी हँस पड़ी, 'शादी तुम्हें करनी है या तुम्हारी माँ को?

            शट-अप। कैथी मेरा ख़याल है कि तुम बहुत समझदार लड़की हो। इन छोटी-छोटी बातों के कारण अपने संबंधों को ख़राब नहीं करोगी। मैंने दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान से प्यार किया है और वह है मेरी माँ। अगर तुमने कहीं भी उस प्यार में बाधक बनने की कोशिश की तो हमारे रिश्ते का वह आख़िरी दिन होगा। और, यकीन करो, मैं मज़ाक नहीं कर रहा। उसने संज़ीदगी से कहा।

            अगर तुम्हारी माँ ने मुझे नापसंद कर दिया तो !  कैथी के गुलाबी होंठ काँपे।

            यू डोंट वरी ! मेरी माँ, मेरी रग-रग से परिचित है। तुम्हें खाली हाथ नहीं लौटाएगी। सतवीर ने उसके गाल थपथपाए।

            हरबंस कौर ने जब कैथी को देखा तो उसे कुलदीप सिंह की दूसरी पत्नी यानी अपनी सौतन याद आ गई। कैथी ही क्या, उसे तो हर अंग्रेज महिला अपनी सौतन जैसी लगती थी, जो उससे उस के पति को छीन ले गई थी। उसकी मिन्नतों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उसे और उसके बच्चों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था, उस गोरी मेम ने। अत: हरबंस कौर का दिल हर गोरी मेम से डरता था और सतवीर के साथ कैथी को देख वह दहल गई थी। परंतु, बेटे के चेहरे पर दमक रही खुशी को वह उड़नछू नहीं करना चाहती थी। अत: उसने खुद को समझाया।

          लड़की तो मुझे पसंद है बेटा, बस इसे इतना कह दो कि भई, मुझे अंग्रेजी में गाली-गलौज़ न दे। जो बात करनी है, पंजाबी में ही करे। उसने शर्त रखी।

            पर माँ, यह तो पंजाबी जानती ही नहीं। सतवीर मुस्कराया।
   
            नहीं जानती तो सिखा दे। नहीं तो यह तुझसे अपनी बात कह दिया करे और तू ट्रांसफारम करके मुझे बता दिया करना जैसे तेरे बापू जी बताया करते थे, पर घर में कलह-क्लेश न हो। हरबंस कौर बात करते हुए कहीं खो सी गई।

            कैथी की सतवीर से शादी हो गई। कैथी ने आकर घर का हुलिया ही बदल डाला। पुराने पेपर, कारपेट, सोफे, पलंग और यहाँ तक कि रसोई का सामान भी बदल दिया। अगर नहीं बदला तो हरबंस कौर का कमरा।

            इस कमरे में हरबंस कौर की दुनिया बसी हुई थी।  वह जब भी इस कमरे में आकर लेटती, उसकी जीवनगाथा उसके समक्ष फिल्म की तरह घूम जाती। बीस साल पहले वह इस घर में आई थी। बिन बुलाए। उस घर में ही क्यों, वह तो इस मुल्क में ही बिन बुलाए आई थी। दो नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ। सात साल का बेटा और पाँच साल के बेटी। उसका पति कुलदीप सिंह उससे करीब पाँच साल पहले यहाँ आया था। बेटी अभी गर्भ में ही थी। कुलदीप सिंह ने तो अपनी बेटी का मुँह भी नहीं देखा था।

            जाते ही तुझे राहदारी भेजूंगा। तुम बच्चों को लेकर आ जाना। यह कहकर वह शिप में सवार हो लिया था। परंतु, जाने के बाद उसने न तो उन्हें राहदारी ही भेजी और न ही बुलाया। शुरू-शुरू में अपने माँ-बाप को ख़त लिखता रहा। फिर धीरे-धीरे यह सिलसिला भी थम गया।

            जब तक हरबंस कौर के माता-पिता ज़िंदा रहे, तब तक वह चार महीने मायके तो छह महीने ससुराल में गुज़ारती रही। परंतु, माता-पिता की मृत्यु के बाद तो भाई-भाभियों ने घर के दरवाज़े बंद कर लिए। देवर-जेठ ताने देने लगे। हार कर उसके ससुर ने उसके पति के हिस्से की ज़मीन बेचकर, टिकट कटवा कर उसे इंग्लैंड भेज दिया और अपने किसी दोस्त को, जो कई सालों से इंग्लैंड में रह रहा था, ख़त लिखा कि वह हरबंस कौर और बच्चों को एयरपोर्ट से रिसीव कर कुलदीप सिंह के पास पहुंचा दे। जब बीवी-बच्चों को सामने देखेगा तो खुद ही अपनी जिम्मदारी संभालेगा। बूढ़े बाप ने सोचा था।

            ससुर के दोस्त ने हरबंस कौर को एयरपोर्ट से रिसीव किया और कुलदीप के घर पहुंचा दिया। परंतु, वहां तो कुछ और ही किस्सा था। कुलदीप सिंह किसी मेम के साथ शादी रचाए बैठा था। हरबंस कौर को सामने देखकर तो उसके होश-हवास ही उड़ गए।

            तू यहाँ क्या करने आई है?  उसने घबरा कर कहा।

            और मैं कहाँ जाऊँ ? उसने मासूमियत से कहा।

            तू यहाँ नहीं रह सकती वापिस चली जा। कुलदीप सिंह ने हुक्म दिया।
वापिस किसके पास जाऊँ? माँ-बाप मेरे रहे नहीं। तुम्हारे भाई मुझे देखकर राजी नहीं। तो मैं बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँ? बापू जी ने कहा कि भई खुद ही संभालेगा अपने परिवार को। हरबंस कौर ने दो शब्दों में अपनी कथा सुनी डाली।

            पर मेरा तो यहाँ और भी परिवार है। मैंने तो शादी कर ली थी विलायत आकर। इतने ठंडे मुल्क में अकेले आदमी का काम नहीं चलता। मेरी पत्नी गोरी है, दो बच्चे हैं। उसने ऐसे कहा जैसे कोई दर पर आए फक़ीर से कहे कि भई हम तो खा-पी चुके, तू रास्ता देख ।

            हरबंस कौर को समझ न आई कि क्या करे, उसे उम्मीद नहीं थी कि नौबत यहाँ तक पहुँच जाएगी।

            तू वापिस चली जा, तेरे जाने का खर्चा मैं दे देता हूँ।  उसे ख़ामोश देख कुलदीप सिंह ने कहा।

            अब कहाँ लौटूं मैं। यहीं रह लेती हूँ। लोग दो-दो शादियां कर ही लेते हैं। उसने रोते हुए कहा।

            कुलदीप सिंह ख़ामोश हो गया।

            शाम को उसकी दूसरी पत्नी काम से लौट आई। कुलदीप सिंह ने उसे समझाने की कोशिश की कि यह उसकी पहली पत्नी है और बाप ने ज़बरदस्ती उसके पास भेज दिया है। वह जल्दी ही इन्हें वापिस हिंदुस्तान भेज देगा। पर गोरी मेम के तो मानो तन-बदन में आग लग गई हो। उसने कुलदीप सहित सबका सामान उठा कर बाहर फेंक दिया।

            या तो ये रहेगी या मैं! उसने दो टूक फैसला सुनाया।

          मैं तुम्हारे बर्तन साफ क़रती रहूंगी, खाना बना दिया करूंगी। हरबंस कौर ने गोरी के पैर पकड़े।

            गोरी ने उसे अंग्रेजी में कई बातें कहीं जो उसके पल्ले न पड़ी।

          इसे कह दो मैं नौकरानी बन कर रहूँगी, कभी अपना बराबरी का हक नहीं माँगूगी। हरबंस कौर ने अपने पति से विनती की।

            यह तो तेरा नाम भी नहीं सुनना चाहती, तेरे साथ-साथ मुझे भी घर से निकालने पर तुली हुई है। उसने नफ़रत से कहा।

            फिर बहुत देर तक कुलदीप मेम के साथ अंग्रेजी में तू-तू, मैं-मैं करता रहा और अंतत: यही फैसला  हुआ कि कुलदीप दो-चार दिनों में ही उसे हिंदुस्तान भेज देगा।

            उसी वक्त उसने हरबंस कौर और बच्चों को साथ लिया और अपने किसी दोस्त के खाली पड़े मकान में उन्हें छोड़ गया, यह कहकर कि कल आकर बात करेगा। हरबंस कौर ने भी पति पर ज़्यादा ज़ोर डालना उचित नहीं समझा। चलो अगर जवानी में ग़लती कर बैठा तो क्या हुआ। अगर वह उसे भी अलग मकान लेकर दे दे और कभी-कभी चक्कर लगा जाया करे तो उसके लिए यही काफ़ी है।

            परंतु कुलदीप सिंह न तो दूसरे दिन सुबह आया और न ही तीसरे दिन। घर में न तो दीया, न बत्ती, न पानी, न आग। ठंड से बच्चों की तो कुल्फी ज़म गई। भूखे-प्यासे वे दो दिन माँ से चिपटे रहे। रात को ओढ़ने के लिए न कोई कपड़ा न लत्ता। ठंड से काँपते-काँपते, बच्चों को ऑंचल में ले उसने रात गुज़ार दी।

            बाहर बर्फ ग़िरनी शुरू हो गई थी। हरबंस कौर कुलदीप सिंह का इंतज़ार करते-करते थक गई थी। उसे तो यह भी मालूम नहीं थी कि वह रह कहाँ रही है। उसका पति कहाँ है? तीसरी रात जब ठंड ने कहर ढाना शुरू किया तो वह उठी और बगल वाले पड़ोसी का दरवाज़ा जा खटखटाया।

            किसी अधेड़ से पंजाबी सिक्ख ने दरवाज़ा खोला।
   
            क्या बात है? कौन है भाई? सामने एक अजनबी औरत को देख वह हैरान हुआ।

            जी मैं.... आपके साथ वाले मकान में दो दिन पहले आई हूँ। मेरा पति छोड़ गया था मुझे यहाँ। मेरे साथ ये छोटे-छोटे दो बच्चे हैं। ठंड के मारे सारी रात नहीं सोये। अगर आपके पास कोई फालतू रजाई पड़ी हो तो दो दिनों के लिए उधार दे दीजिए, वाहेगुरू आपका भला करेगा। वह हाथ जोड़ कर बोली।

            साथ वाले घर में? वह हैरान हुआ। साथ वाले घर में तो दस साल हो गए कोई पंछी तक नहीं फड़का, तू कहाँ से आ गई?

           पता नहीं जी इनका बाप छोड़ गया।  उसने बेबसी से सर हिलाया।
     
            और लौट कर नहीं आया!...हूँ...!! मकान मालिक ने कहा।

            आसमान से बर्फ ग़िरकर बच्चों के सर पर पड़ रही थी और वे अपनी माँ की टाँगों से लिपटे नाक सुड़क रहे थे।

            आ जाओ, आ जाओ भीतर। रास्ता देते हुए उसने कहा।

            हरबंस कौर झिझकती हुई भीतर आ गई। पड़ोसी का घर भट्ठी की तरह गर्म था। भीतर आते ही उनकी कंपकंपी दूर हो गई।

            आ जाओ, बैठ जाओ। वह उन्हें सिटिंग रूम में ले आया जहां गैस का हीटर चूल्हे की तरह जल रहा था।

            दोनों बच्चे दौड़कर हीटर के गिर्द बैठकर हाथ सेकने लगे। हरबंस कौर दरवाज़े में ही एक तरफ खड़ी रही।

            आ जाओ भई, बैठ जाओ तुम भी। पड़ोसी ने पास पड़े पुराने सोफे की तरफ इशारा किया।

            वह सिकुड़ती हुई सी कुर्सी पर जा बैठी।

            पड़ोसी अपनी रसोई में गया और बिस्कुटों के पैकेट लाकर बच्चों के हाथ में थमा दिए। बच्चों ने एक बार माँ की तरफ देखा और दूसरे ही पल बिस्कुटों पर टूट पड़े। पता नहीं कितने दिनों के भूखे थे वे। वह फिर रसोई में गया और केतली भरकर चाय बना लाया। हरबंस कौर इन्कार न कर सकी। उसने खुद उठकर बच्चों को प्यालों में चाय डाल कर दी।

            तू भी पी ले। उसने कहा।
नहीं, मेरी तो कोई बात नहीं, बच्चे भूखे हैं। उसने कहा। पर उसके पेट में भूख के कारण ऐंठन हो रही थी, जो सामने चाय देख कर और तेज़ हो गई थी।
    
            कोई बात नहीं तू भी ले ले, और बना लेंगे। पड़ोसी ने उसे प्याले में चाय डाल कर दी। चाय का पहला घूंट अंदर जाते ही हरबंस कौर को लगा मानो उसमें फिर से प्राणों का संचार हो गया हो. उसने बची हुई चाय भी पी ली।

            मैं देखता हूँ भीतर अगर कुछ मिल जाए. रजाई तो नहीं होगी कोई फालतू। हाँ, एक पुराना कंबल पड़ा है मेरी नौकरी के वक्त का, अगर तुझे पसंद आए तो। वह भीतर गया और हाथ में एक कंबल लेकर लौट आया।
   
            हीटर चलता है तुम्हारे घर में? उसने पूछा।
  
            हीटर क्या? वह समझ नहीं पाई।

            ये ऐसी अंगीठी। पड़ोसी ने गैस फायर की तरफ इशारा किया।

            नहीं, वहाँ न तो पानी है रसोई में और न ही बिजली। कंबल पकड़ते हुए उसने कहा।

            तो क्या तू बच्चों को मारना चाहती है? पड़ोसी ने हैरानी भरे गुस्से से कहा।

            और फिर क्या करूं मैं अब?  फिर बच्चों की तरफ जो थोड़ी सी गर्माहट पाकर नीचे ही सो गए थे, देख कर कहा - लो, ये तो सो भी गए।

            अच्छा? सो भी गए? भूखे थे मासूम। गर्माहट मिलते ही सो गए। उसने हरबंस के हाथों से कंबल लेकर बच्चों को ओढ़ा दिया।

            मैं अब इन्हें उठा कर ले जाऊँ ? हरबंस कौर ने खुद से ही कहा।
   
            पडे रहने दो, मुश्किल से तो सोये हैं बेचारे। वहाँ ठंड में जाकर बीमार हो जाएंगे। पड़ोसी ने सहानूभूति से बच्चों के सर पर हाथ फेरा।

            और फिर हरबंस कौर भी बच्चों के पास ही बैठ गई। पड़ोसी जाकर दूसरे कमरे से अपनी रजाई उठा लाया और ज़मीन पर रख दी।

            ये लो तुम भी ओढ़ लो। उसने हरबंस कौर से कहा।

            पर रजाई तो एक ही है आपके पास। उठते हुए उसने कहा।
     
            कोई बात नहीं, मैं भी यहीं रात काट लूंगा। मिल कर समय गुज़ार लेंगे। कहकर उसने तकिया नीचे फेंका।

            हरबंस कौर रजाई के आधे हिस्से में अपने पाँव ढके बैठी थी और आधे हिस्से में पड़ोसी के पाँव थे।

            मेरा नाम फौजी करनैल सिंह है। अकेला ही रहता हूँ यहाँ। फरीदकोट का रहने वाला हूँ। पड़ोसी ने अपना परिचय दिया।

            हरबंस कौर ने अपनी कहानी रो-रो कर फौजी करनैल सिंह को सुनाई।
      
            अगर तू मुझे न भी बताती, तो भी मैं समझ गया था तुम्हारे दर्द को। फौजी ने ठंडी आह भरी। जो आदमी तीस बत्तीस साल की युवा पत्नी और बच्चों को रात के अंधेरे में अकेल छोड़ कर भाग गया, उसके लौट आने की उम्मीद छोड़ दे। खुद को संभाल।

            हरबंस कौर पत्थर का बुत्त बनी उसकी बातें सुनती रही। रात आधी से ज़्यादा गुज़र गई थी।

कई दिनों की थकी हुई थी वह। पता नहीं कब बैठे-बैठ उसकी ऑंख लग
गई थी।

             सुबह काफी देर से ऑंख खुली। शर्म के मारे उसका पीला रंग लाल हो गया था। जब उसने देखा कि वह फौजी की बाँह पर सर रखे सोये पड़ी थी। एक ही रजाई में दोनों गुच्छा-मुच्छा हुए पड़े थे। और दोनों बच्चे निश्चिंत, बेफिक्र सोये पड़े थे। मानों जंग लड़कर थक गए हों। वह हौले से उठी कि कहीं फौजी जाग न जाए। पर शायद वह पहले से ही जाग रहा था।
  
            मैं तुम्हारे जगने का ही इंतज़ार कर रहा था बंसो! मैंने सोचा बड़ी मुश्किल से ऑंख लगी है, क्यों जगाऊँ ? वह अधजगा सा बोला।

            हरबंस का जिस्म काँप रहा था। वह सारी रात किसी पराए मर्द की बाँहों में सोयी रही थी। फौजी से नज़रें नहीं मिला पा रही थी वह। काँपती हुई टाँगों से उठी और सर पर दुपट्टा ले दोनों बच्चों को जगाने लगी।
  
            उन्हें सोने दे बंसो। खुद ही जग जाएंगे। चल, मैं तुझे रसोई में जाकर अंग्रेजी चूल्हा जलाना सिखा देता हूँ। उठते हुए उसने कहा।

            दोनों रसोई में चले गए। फौजी ने उसे रसोई के सामान के इस्तेमाल का तरीका सिखाया और फिर दोनों मिलकर चाय बनाने लगे।

           मैं तो जी सिर्फ़ रजाई मांगने आई थी। वह सर झुकाए खड़ी थी।

            कोई बात नहीं, तेरे साथ दो छोटे-छोटे मासूम बच्चे हैं। इन्हें कहाँ ठंड में लिए फिरोगी? जब तक तेरा कुछ बन नहीं जाता, यहीं रहती जाओ। फौजी यह कहकर बच्चों के पास जा बैठा।

            फौजी ने हरबंस कौर के उन काग़ज़ों को उलट-पलट कर देखा जो  वह अपने साथ लाई थी तथा उनमें से कुलदीप सिंह का पता ढूँढा। हरबंस कौर तथा बच्चों को घर पर छोड़ कर वह अकेला ही कुलदीप सिंह से बात करने चला गया।

            हरबंस कौर शाम तक दरवाज़े पर नज़रें टिकाए बैठी रही कि कब फौजी कुलदीप सिंह को लेकर लौटता है। रात हो गई और फौजी अकेला ही लौटा।
  
            वे तो मकान छोड़ कर कहीं और चले गए। फौजी ने मरियल से स्वर में कहा।

            कहीं और ? हरबंस कौर का स्वर डूब सा गया।
कुछ पता नहीं चला। मैं आज सारा दिन सड़कों पर ढूँढता-फिरता रहा, कोई ख़बर नहीं मिली। वह सोफे पर पैर समेट कर बैठ गया।

         अब हमारा क्या होगा? हरबंस कौर ने माथा ठोकते हुए कहा। फौजी ख़ामोश रहा।
   
            हाय वे रब्बा! किन पापों की सज़ा दी तूने। वह सर पटकने लगी और बच्चे भी उसके साथ रोने लगे। मैं पैदा होते ही क्यों न मर गई मेरे रब्बा! हाय! पैदा होते ही मेरा गला घोंट दिया होता मेरी माँए। वह विलाप कर रही थी।

            , रो मत, मेरा दिल घबराता है। फौजी जो ज़िंदगी भर तोप और बंदूकें चलाता रहा तथा बम-बारूदों से खेलता रहा था, एक औरत का विलाप न सह सका। उसने बच्चों को गोद में उठा लिया।
  
            चल उठ, बच्चों को कुछ खाने-पीने को दे। इनका क्या कसूर है? वह उठकर रसोई में चला गया।

            हरबंस कौर बहुत देर तक बैठी रोती रही। फौजी ने बच्चों को खिलाया-पिलाया और कल की तरह ही वे हीटर के पास ही सो गए।

            अगर ये बच्चे न होते, ते मैं किसी कुएँ में डूब मरती। मर्द खुद तो आज़ाद हो जाता है पर औरत को बच्चों के साथ बाँध देता है, जैसे गाँवों में किसी पशु के पाँवों में रस्सी डाल देते हैं ताकि वह कहीं जा न सके।

            वक्त गुज़रना शुरू  हो गया। फौजी ने दौड़-भाग करके हरबंस कौर तथा बच्चों को सोश्यल स्क्युरिटी के पैसे मंजूर करवा दिए। बाहर किसी कारखाने से वह उसे बिजली के प्लग जोड़ने का काम ला देता और वह घर बैठे-बैठे हफ्ते में दस-बीस पौंड कमा लेती। बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। बेशक उसका ग़म कम नहीं हुआ था पर बच्चों की ख़ातिर उसने खुद को संभाल लिया था। घर से वह कम ही निकलती थी। घर से बाहर क्या हो रहा है उसे पता पता नहीं था। दुनिया कहाँ बसती है उससे बेखबर हो गई थी वह।

          अगर तुम कहो तो मैं एक बात कहूं ? बंसो का स्वर गंभीर था।

            हाँ-हाँ, कहो। फौजी ने सर ऊपर उठाया।

            तुम मुझ पर चादर डाल लो उसने पहली बार फौजी की ऑंखों में ऑंखें डाली। सोफे पर बैठे फौजी को झटका सा लगा।

            वैसे भी तो हम इकट्ठे सोते हैं एक रजाई में। फौजी हैरान था कि बंसो आज कैसे लक्ष्मण-रेखा लाँघ गई। उसने गौर से बंसो को देखा, पीला सोने जैसा रंग, गदराया बदन और आग सी तपती ऑंखें। फौजी को लगा जैसे बंसो पर भरपूर यौवन उमड़ आया हो।

            वह बहुत देर तक शून्य निगाहों से बंसो को देखता रहा।

            बंसो, चादर तो मैं तुझ पर उसी रात डाल देता, जब तू किसी दुधमुँहे शिशु की तरह मेरी बाँह पर सर रखे सोयी थी, परंतु मैं इस काबिल नहीं। फौजी का चेहरा पत्थर की तरह सपाट था। भावना-शून्य!

            क्यों तुझे क्या हुआ है? बंसो ने सवालिया नज़रों से उसे देखा।

            जब मैं बर्मा की लड़ाई में गया था, उस समय दुश्मन का गोली मेरी बेतरतीब जगह पर लगी थी। डॉक्टरों ने मेरा ऑप्रेशन कर गोली तो निकालनी ही थी पर.... मैं औरत के काबिल न रहा। सगाई तो मेरी भी हो चुकी थी लड़ाई पर जाने से पहले। मेरे ससुराल वाले इंतज़ार कर रहे थे कि कब लड़का लौटे तो शादी हो। परंतु जब मैं वापिस ही नहीं गया तो उन्होंने लड़की की शादी कहीं और कर दी। जाकर करता भी क्या? मेरे सालों ने बहुत संदेशे भेजे कि साले जिस दिन हिंदुस्तान आओगे, मार डालेंगे तुझे। तूने हमारी बहन के साथ दगा किया है। मैंने सोचा, सालो मर चुके को अब क्या मारोगे? जिसे किस्मत ने ही मार दिया! बस बंसो, फिर मैं वापस नहीं गया। इंग्लैंड की सरकार ने मुझे यहाँ रहने की इजाज़त दे दी। बस, तब से अकेला ही यहाँ हूँ। करनैल सिंह ने लंबी आह भरी।

            हरबंस कौर सर झुकाए उसकी बातें सुनती रही।   
तूने कहा कि मैं तुझ पर चादर डाल लूं। जब तू पहली रात मेरे साथ सोई थी, तो मैंने तुझे इसलिए नहीं बख्शा था कि मैं कोई देवता था। शास्त्रों में लिखा है कि औरत अग्नि है, साक्षात् अग्नि की पुत्री। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को जलाकर भस्म कर देती है। मैं सारी रात आग को दामन में लिए पड़ा रहा। ताप मुझे भी लगा, मेरे अंग भी जले, पर इस आग को बुझाने के लिए पानी का कोई चश्मा मेरे पास नहीं था। कुछ तो उम्र का फर्क है और कुछ मेरी मजबूरी।

            हरबंस ने देखा फौजी की साँस फूल गई थी।

            तू जवान औरत है बंसो। जवान औरत हवा की तरह जहाँ से गुज़रती है, वहाँ की खुशबू तथा बदबू उसके साथ हो लेती है। और लोग औरत को कसूरवार मानते हैं। सीता मईया जैसी बदनाम हो गई हैं जो ज़िंदगी भर पति के साथ जंगलों में धक्के खाती रहीं। फिर भी घर से निर्वासित की गईं। मर्द शुरू से ही औरत को इस्तेमाल करके छोड़ता रहा है। तुझ अकेली के साथ ही ऐसा नहीं हुआ। फौजी उसे सांत्वना दे रहा था।
  
            पर......पर.....   बंसो ने कुछ कहना चाहा।

            मुझे मालूम है तेरी उम्र में हर औरत पुरू ष का साथ चाहती है। कोई अच्छा सा आदमी ढूँढकर बंसो में तेरा ब्याह कर दूंगा। पर पहले डायवोर्स तो हो। तेरे तो आदमी का ही पता नहीं।

            मुझे नहीं ज़रूरत डगोर्स की। ऐसे आदमी तो मरे से भी गए गुज़रे होते हैं। मरे हुए का तो औरत सारी उम्र शोक मनाती है, पर ऐसे कंबख्तों का तो दो दिनों में ही स्यापा निपटा देती है। बंसो के दिल में अपने पति के लिए नफरत ही नफरत थी। 

          अगर तुम्हारी यही राय है तो मैं ढूंढता हूँ कोई आदमी। फौजी ने सोफे से उठ खड़े होते हुए कहा।
           
पर मैंने तो जी तुम्हारी बात की थी। वह फिर सवाल बन कर उसके सामने खड़ी हो गई।
           
फौजी ख़ामोश रहा।
        
          मुझे किसी और आदमी की ज़रूरत नहीं है जी। न ही अंगों की घिसड़न को प्यार कहते हैं। जिस तरह तूने मुझे और मेरे बच्चों को सहारा दिया, संभाला है, मेरा जी चाहता है कि मैं तेरे चरण धो-धो कर पीयूं। मुझे किसी मर्द की जरूरत नहीं। उसी गर्माहट की ज़रूरत थी जो तुम्हारे पास थी। सिर्फ  तुम्हारे पास। मैं तो सिर्फ रजाई मांगने आई थी। कई बार सोचती हूँ कि गर्माहट रजाई की थी या, तुम्हारी? पहले भी तो तीस साल रजाईयों में ही सोती रही हूँ। बंसो का स्वर नम हो गया था। दरअसल चादर डालने की बात तो मैंने इसलिए कही थी कि बच्चे तुम्हें बापू जी तो कह सकेंगे।
   
            तू अपने बच्चों को बता कि हमारा क्या रिश्ता है। गोरों को देख, एक मात्र अपने सगे बाप को छोड़ कर किसी को बाप नहीं कहते ये। सबका नाम लेकर पुकारते हैं। अपने यहाँ के लोग तो फिजूल ही रिश्तों को मथने बैठ जाते हैं। रातों-रात रिश्ते बन गए, सुबह होने तक टूट गए। मैंने रिश्तों को घिसते देखा है, सहकते देखा, टूटते देखा और मरते भी देखा है। रिश्तों के बिना हम क्यों नहीं जी सकते। किसी का भाई नालायक हो वह बाहर धरम भाई बना लेगी, कि मेरा भाई है। बच्चे भी मामा जी, मामा जी करते रहते हैं और मामा भले ही माँ का यार हो।  पर लोगों के सामने तो भाई बना लिया न! बेकार की ड्रामेबाजी। सीधे कहो कि भई मेरा दोस्त है, मेरा मीत है। शर्मिंदगी किस बात की ? फौजी का नज़रिया अलग था।

            उस दिन के बाद इस विषय पर उनमें कोई बात नहीं हुई। बच्चों ने जब एक-दो बार फौजी को अंकल जी कहकर पुकारा तो बंसो ने डांट दिया।

            नहीं! अंकल जी नहीं, बापू जी कहा करो। और बच्चे उस दिन से फौजी को बापू कहने लगे।
            लोग बाहर क्या बातें बनाते हैं, बंसो ने कानों में कड़वा तेल डाल लिया। मानो इन लोगों का कोई अस्तित्व ही न हो। वह रूह के साथ जीने लगी। फौजी ने उसे गुरूमुखी पढ़नी सिखा दी। वह अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनती और फौजी के ईंटों के मकान को उसने घर में बदल दिया।

            फौजी कई बार कहता, बंसो, अकेले आदमी का जीना भी कोई जीना है। अगर औरत न हो तो आदमी कीड़े पड़कर मर जाए भगवान ने औरत को माँ बना कर भेजा है जो ताउम्र उसकी देखभाल करती है, कभी माँ बनकर, कभी बहन बन कर तो कभी बीवी बनकर। परंतु अहसान-फरामोश आदमी इस बेजुबान पर ज़ुल्म करता है।

            घर में रोज़ नई चीज़ें आतीं, शॉपिंग की जाती, पर बंसो और फौजी की रजाई सांझी ही रही।

            बच्चे बड़े हो गए हैं बंसो। तू एक रजाई और खरीद ला। एक रात फौजी ने सरसरी तौर पर कहा।

            गुजारा तो हो ही रहा है, क्यों फिजूल खर्च करना है। बंसो ने कहा तो फौजी समझ गया।
            बंसो की लड़की सतरह साल की थी, जब फौजी ने अपने एक दोस्त के बेटे के साथ उसकी शादी कर दी। लड़की अपने घर राज करती थी। कभी-कभी पति के साथ आकर माँ से मिल जाती। और उसका बेटा सतवीर यूनिवर्सिटी तक पढ़ा। बाहर तो वह सिर्फ क़िताबी ज्ञान के लिए जाता था परंतु ज़िंदगी के अन्य तौर-तरीके उसे फौजी ने सिखा। सतवीर माँ की पूजा करता था। उसे याद था कि किस तरह उसकी माँ ने कष्ट सहे थे। फौजी उनका सगा बाप नहीं है, उसे मालूम था, परंतु उसे कभी भी अपनी माँ से इस बात शिकायत नहीं थी। बल्कि उसे तो अपनी माँ पर गर्व था, जो इतनी दिलेरी से सामाज का सामना कर रही थी।

            एक दिन सुबह सैर करने गए फौजी को दिल का दौरा पड़ा और वह फिर न उठा। अस्पताल में कई दिन उसका इलाज भी चलता रहा और अंतत: वह भगवान को प्यारा हो गया। बंसो के लिए दुनिया अंधेरी हो गई। उस पर दूसरी बार आसमान टूट पड़ा था। एक ही तो सहारा था, वह भी जाता रहा। फौजी के साथ दिल और आत्मा की सांझेदारी थी। वह तो सगी माँ के साथ भी नहीं थी। वह रो-रो कर पागल हो गई। घर बैठी सारा दिन विलाप करती रही।

            एक दिन फौजी का वकील आया और कुछ कागज़-पत्तर उसे थमा कर चला गया। शाम को सतवीर घर आया तो उसने कागज़ देखे। यह वसीयतनामा था।
फौजी अपना घर और बैंक में पड़ा सारा रुपया बंसो के नाम कर गया था।

          वे मैं तेरा देना जीते-जी न दे सकी, तू मरते-मरते भी अहसानों का बोझ मेरे सर पर धर गया, मैं कहाँ लौटाऊंगी? मैं तो सिर्फ अपने बच्चों को ढंकने के लिए रजाई माँगने आई थी। तू घर-बार मेरे नाम कर गया। हाय... अपने बच्चों के लिए दाना चुगने आई चिड़िया को तूने घोंसला बना दिया। तुझे परम धाम में जगह मिले। वसीयतें लिखने वाले अगली दरगाह में भी तेरी लेखनी चले। मेरे दिल के महरमा, मुझे भी साथ ले जाता। तेरे बगैर मैं किसी लायक नहीं...हाय। वह मुँह में आँचल ठूँस विलाप करने लगी।

            सतवीर का कलेजा मुँह को आ रहा था। माँ ने अपने रूदन से अपनी व्यथा अपने नौजवान बेटे को सुना दी थी। उसने अपनी माँ को आलिंगन में ले लिया। रोया तो वह भी बहुत परंतु दिल कड़ा करके बोला, बस कर माँ, बापू जी की आत्मा को दु:ख पहुँचेगा।

            बंसो बेटे के सीने पर सर रखकर हिचकियां ले-लेकर रोई। उसे लगा सतवीर और उसका दु:ख एक था।अंतर सिर्फ ऌतना था कि वह प्रत्यक्ष में रो रही थी और सतवीर मन ही मन।

            कई बरस गुज़र गए। बरस क्या, उम्र ही बीत चली पर बंसो का ग़म न घटा। सतवीर ने बहुत कोशिश की कि किसी तरह माँ का मन बहलाया जाए, परंतु बंसो के ग़म का कोई दारू नहीं था। धीरे-धीरे वह दुनिया से विमुख होती चली गई। जीने की लालसा ख़त्म हो गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया। फौजी के बाद उसकी दुनिया वीरान हो गई थी।

            रसोई में जाना छोड़ दिया था उसने। भूख गायब हो गई थी। सतवीर अपना अंग्रेजी खाना खुद ही बना कर खा लेता, माँ को कम ही तकलीफ देता।

          श्रवण पुत्र है अपने बाप जैसा। वह मन ही मन सतवीर की तुलना फौजी से करती और भूल जाती कि सतवीर का बापू तो कुलदीप था।

            सतवीर की शादी के बाद घर में थोड़ी रौनक बढ़ी थी, पर बंसो के लिए अपना कमरा ही स्वर्ग था। वह मुँह पर रजाई लिए दिन भर फौजी के बारे सोचती रहती। यह रजाई उन दोनों के बीच एक ऐसा पुल था, जो दोनों को जोड़ता था। उसे लगता जैसे आज भी वह फौजी की बाँहों में सोयी पड़ी हो। फौजी के जिस्म की महक और स्पर्श उसके रोम-रोम में बसे हुए थे।
     
            आज जब बारह बज गए और बंसो न उठी, तो कैथी की चिंता बढ़ गई। उसने दिल कड़ा किया और बंसो के मुंह से रजाई हटाई।

            बंसो ने ऑंखें खोलीं। कैथी पलंग से दूर खड़ी मुस्करा रही थी।

          जैस?  बंसो ने धीमे से पूछा। मानो कह रही हो कि वह बार-बार आकर उसे क्यों तंग करती है?

            कैथी ने रजाई थोड़ा परे सरका कर पलंग पर बैठने के लिए थोड़ी सी जगह बनाई और फिर उसके माथे पर हाथ फेरते हुए बोली - आई नो मॉम् योर ब्वॉय फ्रेंड गेव यू दिस क्विलट। सतवीर टोल्ड मी दैट ही लव्ड यू सो मच ऐंड सो यू डिड। कैथी ने सोचा कि शायद यही सास के दिल में प्रवेश करने का रास्ता है।

            बंसो काफी देर तक ख़ामोश रही। कैथी ने फिर अपने शब्द दोहराए।
    
         अगर मुझे अंग्रेजी आती होती तो बहू मैं तुझे बताती कि तेरी नज़रों में वह मेरा बूई फ्रेंड था पर मेरे लिए धरती पर भगवान था। जिस रजाई को देख तुम नाक-भौं सिकोड़ती हो, वह उस भगवान की गोद है। और जब कोई ईश्वर की गोद की गर्माहट का सुख प्राप्त कर ले तो फिर उसके लिए अन्य सारे रिश्ते ठंडे हो जाते हैं। बंसो ने वकीलों की तरह उंगली हिला कर बहू को डांट पिलाई। कैथी को बेशक बात समझ नहीं आई पर बंसो को लगा मानो उसने सभी अंग्रेजी बोलने वालों से बदला ले लिया हो।


अनुवाद - नीलम शर्मा अंशु

साभार - छपते-छपते, दीपावली विशेषांक, कोलकाता, 1999

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