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शनिवार, जुलाई 31, 2010

कविता श्रृंखला - 3 / श्री शंकर पात्र ( बांग्ला )


श्री शंकर पात्र


अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'





1)


आज की सहस्त्र कुंतियां






आज की सहस्त्र कुंतियां
पुरुष का स्नेह चाहती हैं
मन की तृप्ति के लिए नहीं,
पेट की ज्वाला के लिए ।
पार्क के बगल में खड़ी है नमिता
सिनेमा हॉल के सामने कावेरी
इस शताब्दी की कोई वधु, कोई कुमारी।


तृप्ति नहीं
आशा नहीं
कावेरी के संग ज़िंदा हूँ
रात के अंधेरे में टटोल कर देखती हूँ
शबरी का तकिया भीग गया है
कुमारी जननी रो रही है
सांत्वना की भाषा नहीं आती
तभी तो आँखें मूंदे पड़ी हूँ
मैं उसकी वैध जननी।


कुंती एक बार रोई थी ज़िंदगी में
सूर्य के अवैध प्रणय को मिटा देने के लिए
आज की सहस्त्र कुंतियां बार-बार रोती हैं
फिर भी खड़ी रहती हैं
पुरुष का स्नेह चाहती हैं
मन की तृप्ति के लिए नहीं,
पेट की ज्वाला के लिए ।





2)


माँ बनना कठिन है.....


बहुत कुछ तो सुना था
वसंत के आगमन से पूर्व
वसंत में फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं
सपने हक़ीकत में बदलते हैं
बहुत दिनों के बाद जब वसंत आया
तब क्या हुआ.....

वसंत की रात को फूल डरता है
दाँत होठों को चबा जाना चाहते हैं
फाल्गुनी रातों में कालबैसाखी के तूफान में
पंखुड़ियां बिखर जाती हैं
बाईस वर्षीया विधवा युवती की भाँति
तन आज कुछ देना चाहता है, कुछ पाना चाहता है

सीधे रास्ते से कुछ नहीं होने वाला
इसलिए चोर रास्ते पर चलती जाती है
खाना न मिलने पर ज़हर खाती है
कभी-कभी विद्रोही मन
कह उठता है
ज़हर नहीं खाना मांगो
चुरा लो, छीन लो
लेकिन सोच कर क्या फ़ायदा
सपने कभी हक़ीकत नहीं बनते।


जो फूल अच्छा लगता है
क्या उसे पाना चाहते हो ?
तो उड़ते-उड़ते
फटाक से एक बार बैठ जाओ
फल लगेंगे, फूल सूख जाएंगे
पिता बनना क्या सहज़ नहीं है ?
लेकिन माँ बनना कठिन है
फिर भी माँ बनती हैं
माँ बनना पड़ता है।


शनिवार, जुलाई 24, 2010


कहानी श्रृंखला – 8पंजाबी कहानी
पठान की बेटी

सुजान सिंह


ग़फूर पठान जब भी शाम को अपनी झोपड़ी में आता तो उन झोंपड़ियों में रहने वाले बच्चे ‘काबुलीवाला’ - ‘काबुलीवाला’ कहते हुए अपनी झोंपड़ियों में जा छुपते। एक छोटा सा सिक्ख लड़का बेखौफ वहाँ खड़ा रहता और उसके थैले, ढीली-ढाली पोशाक, उसके सर के पटे और पगड़ी की तरफ देखता रहता। गफ़ूर को वह बच्चा बहुत प्यारा लगता था। एक दिन उसने लड़के से पठानी लहज़े वाली हिंदुस्तानी ज़बान में पूछा - ‘तुमको हमसे डर नहीं लगती बाबा ?’

बच्चे ने मुस्कराकर सिर हिला दिया। ग़फूर के सुर्ख चेहरे पर और भी लाली दौड़ गई। उसने बड़ी कोमलता और प्यार भरे जज़्बे से अपनी दोनों बाँहें बच्चे की तरफ बढ़ाई। बच्चा पठान की टाँगों से लिपट गया। ग़फूर ने उसे बाँहों से पकड़ कर अपने सर से ऊपर उठा लिया और इधर-उधर हिलाते हुए प्यार करने लगा। सामने वाली झोंपड़ी से बच्चे की बहन बाहर निकली, जो लगभग आठ साल की होगी। भाई से पठान को दुलार करते देख वह भी पास आ खड़ी हुई। पठान बड़ी ज़ोर-ज़ोर से खिल-खिलाकर हँस रहा था और वीरो का भाई अजमेर पाँवों की ठोकर से पठान की पगड़ी गिराना चाहता था। अंतत: एक ठोकर से उसकी पगड़ी नीचे जा गिरी। ग़फूर ज़ोर से हँसा और अजमेर को नीचे उतार कर बोला - ‘बाबा, तुम जीता!’
जब पठान ने वीरो को अपने पास खड़ी देखा तो उसने अजमेर से पूछा - ‘क्या ये तुम्हारा बहिन है ?’


अजमेर ने होंठ भींचकर मुस्कराते हुए कहा - ‘हूं...!’
काबुलीवाले ने एक हाथ से वीरो और दूसरे हाथ से अजमेर को कमर से पकड़ लिया और ज़ोर से चक्कर लगाने लगा। बच्चे खिल-खिलाकर हँसते थे और ग़फूर ज़ोर-ज़ोर से हूं.....ऊं.....हूं.....ऊं....... करता जाता था। इस हूं....ऊं...... को सुनकर छोटी बेटी को गोद में उठाए उनकी माँ तेज़ी से बाहर निकली और अपने बच्चों को ग़फूर से हिलोरें लेते देख डर सी गई पर पंजाबियों सा हौंसला करके बोली - ‘वे अजमेर ! अरी वीरो !’

ग़फूर वहीं का वहीं खड़ा हो गया और बच्चों की माँ की चढ़ी हुई त्यौरी और तनी हुई आँखें देख कर उसने दोनों को उतार दिया और खुद बड़ी मुश्किल से गिरते-गिरते बचा। तेजो ने बच्चों को डांटते हुए कहा - ‘आ लेने दो आज तुम्हारे बापू को।’

वीरो तो झट से भीतर जा घुसी परंतु अजमेर डटकर खड़ा हो गया और फौजियों की तरह कमर पर हाथ रखकर बोला - ‘आ लेने दो फिर।’

तेजो ने आगे बढ़कर अजमेर को बाँह से पकड़ लिया और उसे घसीटते-घसीटते अपनी झोंपड़ी में ले गई। ग़फूर काफी देर तक अजमेर का रोना-धोना सुनता रहा। अंतत: वह अपनी झोंपड़ी में गया और अपने झोले से शीशा निकालकर अपना मुँह देखने लगा। उस दिन उसने खाना भी नहीं बनाया और ऐसे ही सो गया।

किसी को पता नहीं था कि ग़फूर क्या काम करता है। कोई कहता कि हींग, जीरा और सालब बेचता है। कोई कहता कि इससे बचकर रहना, ये लोग बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। झोंपड़ियों में ओड़िया, बंगाली, बिहारी मज़दूर रहते थे। किसी-किसी का ही परिवार साथ रहता था। उनके बच्चे तो बच्चे, वे खुद भी पठानों से डरते थे। झोंपड़ियों के आमने-सामने की कतारों के सिरे पर अजमेर और पठान के घर थे। अजमेर का पिता रिजर्व में आया हुआ फौजी था और पास की ही मिल में चौकीदार का काम करता था।

तेजो ने आते ही अपने पति के खूब कान भरे। दिन चढ़ते ही अजमेर के बापू ने ग़फूर की झोंपड़ी का टीन का दरवाज़ा खटखटाया। कुछ देर बाद ग़फूर नंगे सिर, आँखें मलता हुए बाहर निकला और उसे सामने देख कर कहने लगा -‘क्या बात है सरदार?’
वीरो के बापू ने टूटी-फूटी हिंदुस्तानी ज़बान में कहा - ‘देख भाई, तू मुसलमान है खान, और हम सिक्ख। तू हमारे बच्चों के साथ..... ’

‘सिक्ख है कि मुसलमान, बच्चा तो सबका एक है, सरदार! खुदा तो सबका एक है।’
जमादार ने गर्म होते हुए कहा - ‘एक-वेक कोई नहीं। तू हमारे बच्चों के साथ मत खेला कर। अगर तू पठान है तो मैं सिक्ख हूं।’

पठान ने अपने क़ौमी स्वभाव के विपरीत और भी नरमी से कहा - ‘सब बच्चा हमसे डरती है, तेरा बच्चा हमसे नहीं डरती। हमको वो अच्छा लगी थी। तुम अपना बच्चों को मना कर दो हमारा पास आने को। हम किसी को नहीं बुलाती। हम तो इधर अकेला रहती।’

‘बस-बस, फैसला हो गया।’ जमादार ने कहा।

बच्चे अक्सर नज़र बचाकर ग़फूर के सामने आते थे, पर ग़फूर उन्हें त्योरियां दिखाते हुए यह कह कर भगा देता कि तुम्हारा बापू मारेगा। फिर भी कई बार ग़फूर का दिल पसीज जाता था और वह उन्हें चोरी-छिपे काबुल का सरधा या कंधार का अनार दे देता था और कहता कि चोरी-चोरी खाकर घर जाना। बच्चे भी ऐसा ही करते।

वीरो तथा अजमेर से छोटी और गोद वाली लड़की से बड़ी एक बेटी और थी तेजो की। वह घर से बहुत कम निकलती थी। छोटी बेटी के पैदा होने से पहले वह बड़ी दुलारी थी। अब मां का ध्यान नई बच्ची की तरफ होने के कारण वह अनजाने ही प्यार की कमी महसूस करती थी। अक्सर मामूली सी बात पर ही रो पड़ती और ज़िद किया करती थी। तेजो उसे डांटा करती थी। वह रोती तो उसे और ज़्यादा मार पड़ती। बच्ची के प्रति तेजो की उपेक्षा देख वीरो और अजमेर भी उसे पीट लिया करते थे और जब वह रोती तो ‘ऐसे ही रोये जाती है’ कहकर वे उसे तेजो से और पिटवा दिया करते। लड़की उपेक्षित सी हो गई और अपने बचाव के लिए उसने झोंपड़ी से बाहर घूमना-फिरना शुरू कर दिया। बड़े भाई-बहन फिर भी उसका पीछा न छोड़ते। ग़फूर रोज़ यह सब देखता था, पर कुछ कह नहीं पाता था। बड़े बच्चों के लिए उसके दिल से प्यार घटता गया और ज़ालिमों को छोड़ मजलूम के प्रति उसके मन में हमदर्दी बढ़ने लगी। बहुत दिनों तक पंजाबियों के बीच रहने के कारण वह काफी हद तक उनकी भाषा भी समझ लेता था और छोटी लड़की को तेजो द्वारा दी जाने वाली गालियां सुन कर दुखी भी होता था। इन्हीं दिनों किसी कारण दो महीनों के लिए जमादार की नौकरी भी छूट गई थी। फिर तो लड़की की शामत ही आ गई। जो भी आए, उसे ही पीटे। तेजो कहा करती - ‘ये कंबख्त रोती रहती थी इसलिए हमारी नौकरी भी गई।’ महीने की तनख्वाह से बमुश्किल रोटी की गुज़र होती थी। बड़ी मुसीबत आन पड़ी। मजलूम की रहम ने ग़फूर के दिल में रहम का जज़्बा पैदा किया। उसने एक दिन जमादार को बुलाया और कहा - ‘सरदार, तू मेरा भाई है। मैं जानती तुम तंगी में है। मैं तेरा मदद करना चाहती, तुम न नहीं बोलती।’ सरदार खामोश था और ग़फूर ने पंद्रह रुपए उसकी हथेली पर रख दिए। घर में ज़रूरत थी, पठान से मदद नहीं लेना चाहता था दिल, परंतु फिर भी उसने पंद्रह रुपए रख लिए। सोचा, नौकरी लग जाएगी तो सूद समेत लौटा देगा। जाते वक्त जमादार को फिर बुलाकर अपनों की तरह कंधे पर हाथ रखकर ग़फूर ने कहा - ‘सरदार, तुम्हारी घरवाली और दोनों बड़ा बच्चा छोटा लड़की को मिल कर मारता रहता है, नादान बेकसूर है। उसको मत मारो। हमको बड़ा तकलीफ होता है। देखो, वह बहुत कमज़ोर है, मर जाएगा।’ काफी देर तक पठान की विनती भरी आँखें जमादार को याद रहीं। उसने तेजो से कहा कि वह लड़की को न मारा करे परंतु तेजो और बच्चों की तो आदत बन चुकी थी। जब सरदार को नई जगह से पहली तनख्वाह मिली तो पहले वह ग़फूर की कोठरी में आया। पंद्रह रुपए के साथ-साथ पठान का सूद भी गिनकर उसने पांच रुपए का नोट और थमा दिया। ग़फूर नोट देख कर हैरान हुआ और बोला - ‘सरदार, ये क्या ?’

सरदार ने कहा - ‘तुम्हारा रुपया और सूद।’
‘हम मुसलमान पठान है सरदार!’ पठान ने रोष से कहा। ‘हम सूद को हराम समझता।’
ग़फूर का तमतमाया चेहरा देखकर जमादार ने कहा - ‘मुझे पता नहीं था कि कोई पठान सूद भी नहीं लेता, अच्छा हुआ पता चल गया। पर यह लो अपने रुपए।’
यह तो मदद था। ग़फूर ने चेहरे पर मुस्कान बिखेर कर कहा - ‘बच्चा सबका एक है सरदार।’

जमादार ने उसकी एक न सुनी और रुपए ज़बरदस्ती उसे देकर घर आया। दरवाज़े पर छोटी बेटी रो रही थी। वीरो और अजमेर उसे तंग कर रहे थे। और तेजो बिना देखे रसोई से उसे गालियां दे रही थी। जमादार ने अजमेर को डपट लगाई, वीरो को एक तमाचा जड़ा और लड़की को गोद में उठाए मुँह पोछता हुआ रसोई के पास पहुंचा। कुछ कहना ही चाहता था कि तेजो की नज़र उस पर पड़ी और बोली - ‘आई बड़ी लाडली! खसम नूं खाणी को गोद उठा लिया। सारा-सारा दिन रोती रहती है मनहूस।’

जमादार ने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई और वह मुँह फुलाकर एक कोने में जा बैठी।
तेजो ज़िद से लड़की को और मारने लगी। लड़की ज़िद्दी और ढीठ बन गई। ग़फूर लड़की की शामत आते रोज़ देखता था। उसे अकेली धूप में गिरती-पड़ती देख उसका दिल दहल जाता था।

पठान की आँखों में आँसू आ गए। वह दबे पाँव बाहर निकल कर फल की दुकान की ओर बढ़ा। उसने वहाँ से तीन किस्म के फल खरीद कर बच्ची को थमाए। लड़की हड़बड़ाई हुई कभी एक को दाँत से काटती तो कभी दूसरे को। ग़फूर की आह निकल गई। उसने सोचा, इसकी माँ, बड़े भाई-बहन और सरदार इसे मार कर दम लेंगे। इसे बचाना चाहिए। उसने झोले वाली थैली टटोली, दो की चिल्लर थी। सोचा भागकर कोठरी से पैसे ले आऊं। वहां तो मेरे पास हज़ार से ज़्यादा रुपए हैं। पर फिर सोचा, लड़की को बचाने का मौका छिन जाएगा। उसकी माँ शोर मचा देगी, हो सकता है सरदार के साथ झमेला हो जाए। वह घर न लौटा। उसने एक मुसलमान का तांगा पकड़ा और स्टेशन पहुँचकर कहीं की टिकट कटाई।

उधर शोर मच गया, ‘काबुलीवाला लड़की को उठा ले गया।’
कोई बोला, ‘देखा, सरदार डरता नहीं था।’ किसी ने कहा, ‘पठान मौका तलाश रहा था, ले उड़ा।’ तरह-तरह की बातों से सरदार के मन में ग़फूर के प्रति कड़वाहट भर गई। थाने रपट लिखवाई गई। तेजो रो-रो कर बेहाल हो रही थी और पठान के बच्चों को बददुआएं दे रही थी। पुलिस हैरान थी कि पठान इतना रुपया और कोठरी का दरवाज़ा खुला छोड़कर क्यों भागा ?

पूरे एक महीने के बाद जमादार को शिनाख्त के लिए थाने बुलाया गया। लड़की हथकड़ियों में जकड़े ग़फूर की गोद में थी। पिता की आवाज़ सुनकर लड़की ने एक बार पिता की तरफ देख मुँह मोड़ लिया। तेजो की भी एक न चली। लड़की बेहद सेहतमंद लग रही थी और पठान कमज़ोर। जमादार, तेजो और अन्य पड़ोसियों ने शिनाख्त की। पठान टुकुर-टुकुर उनकी तरफ ताक रहा था। आख़िर जब पुलिस पठान से लडकी लेकर जमादार को देने लगी तो लड़की की चीखें और पठान के विलाप से कमरा गूंज उठा।

पठान कह रहा था - ‘ज़ालिम को बच्ची नहीं देने का। बचाओ! बचाओ! ये लोग मार डालेगा। मेरा बेटी को, ये जालिम.....कसाई।’

थानेदार कड़क कर बोला, ‘तो तू इसको बचाने के लिए उठा कर ले गया था?’ चारों तरफ हंसी का ठहाका गूंज उठा। कोई कह रहा था, ‘शैदाई है।’ कोई कह रहा था, ‘बनता है।’ परंतु ग़फूर रोए जा रहा था।



अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’


साभार – राष्ट्रीय महानगर(दीपावली विशेषांक), कोलकाता, 2004

रविवार, जुलाई 18, 2010

कहानी श्रृंखला – 7

पंजाबी कहानी

रक्तपात
     

 कुलदीप सिंह बेदी



वह उस दिन जब मिली तो बहुत उदास थी। अभी कुछ दिन पहले ही उसकी सगाई हुई थी। सगाई तो मेरी भी हो चुकी थी। यह उसे भली-भाँति मालूम था। जब कभी भी मैं उसके घर जाता तो उसकी माँ मुझे कहती- ‘कोई लड़का ढूंढ़ों इसके लिए भी।’ मैं पूछ बैठता, ‘लड़का कैसा होना चाहिए?’ तो माँ के बोलने से पहले ही वह बोल उठती, ‘कोई प्रोफेसर, डॉक्टर या वकील।’ कई बार ऐसी बातें होती रहतीं। मैं जब उसके घर से निकलता तो मुझे लगता कि न तो मैं प्रोफेसर हूँ, न डाक्टर, न ही वकील। मुझे याद है जब वह चंडीगढ़ में कोई कोर्स कर रही थी, तो मैं उसके बहुत कहने पर एक बार वहाँ उससे मिलने गया था। उसकी सहेलियों ने उसकी तरफ शरारत भरी निगाहों से देखा था और उसने मेरी तरफ देख कहा था, ‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं।’
‘क्या कह रही थीं लड़कियां ?’
‘लड़कियां तो कुछ न कुछ कहती रहती हैं।’
‘फिर भी ?’
‘कह रही थीं- तूने अच्छा मोर्चा मारा है। जैसी खुद ऊंची-लंबी हो, वैसा ही....।’
‘हां, तो फिर तुमने कहा नहीं कि तुम्हें तो किसी प्रोफेसर, डाक्टर या वकील की ज़रूरत है।’
‘आपको बातें बनानी तो बहुत आ गई हैं। मुझे तो आप बहुत पंसद हैं परंतु क्या करूं। मेरे पिता और चाचा नहीं मानेंगे। मम्मी को सब मालूम है कि मैं आपको कितना चाहती हूँ, लेकिन वे अकेली भला क्या कर सकती हैं?’
और फिर उस दिन शाम को जब रॉक गार्डन घूमने जाने के लिए तैयार हुए तो उसकी रूम मेट ने उसे आलिंगन में लेकर कहा था - ‘ला काला टीका लगा दूं। इतनी सुंदर जोड़ी को मेरी ही नज़र लग जाएगी।’ उस वक्त पता नहीं क्यों उसकी आँखें भर आईं थीं। बाहर निकले तो उसने कहा, ‘ओह हो, आपने हील वाले जूते क्यों पहन रखें हैं? रुकिए, मैं भी हील वाले सैंडिल पहन कर आती हूँ।’ और वह दौड़ कर कमरे में चली गई।

शायद उसकी इसी आदत ने उसे कैरियरिस्ट बना दिया था। हील वाले सैंडिल पहन कर जब वह मेरे साथ रॉक गार्डेन में घूम रही थी तो बहुत खुश नज़र आ रही थी। उसने बताया, ‘अब कोर्स ख़त्म होने में लगभग तीन महीने रह गए हैं, फिर लुधियाना लौट जाना है। फिर जल्दी-जल्दी मिला करेंगे।’

अगले दिन सुबह मुझे लौटना था। मैंने जब उससे साथ चलने का आग्रह किया तो वह बिना हील हुज्जत के राजी हो गई। रूम मेट को एक दिन की अर्ज़ी थमाई। उस दिन शनिवार था और अगले दिन छुट्टी थी। बड़े चाव से वह तैयार हो रही थी। रूम मेट कहने लगी, ‘बड़ा चाव है, मानो मुकलावे जा रही हो।’
‘चुप! इस तरह शोर नहीं करते। रवि के साथ कौन सा रोज़-रोज़ इस तरह जाने का मौका मिलता है।’

हम बस स्टैंड की ओर जा रहे थे। ‘कभी मैं तुम्हें इसी तरह ले जाऊँगा।’ रिक्शा में बैठे हुए उसने मेरे कंधे पर हाथ रख लिया, ‘अब भी तो ले ही जा रहे हैं।’
‘नहीं, इस तरह जाने और उस तरह जाने में बहुत फ़र्क है, उस वक्त तुमने गुलाबी पोशाक पहन रखी होगी। बाँहों में लाल चूड़ा, सजा-संवरा चेहरा और आँखों में एक अजीब सी प्यास।’
‘बस कीजिए! काफ़ी प्यारी कविता है यह।

वह ख़ामोश हो गई और फिर कहीं दूर देखते हुए कहा, ‘सिर्फ़ दिखावे वाली वस्तुओं की ही कमी है। मेरा दिल तो आपका हो चुका है। मुझे तो अब भी यही महसूस होता है कि हम शादी-शुदा हैं। सामाजिक मान्यता नहीं मिली तो न सही।’ फिर उसके बाद मेरा तबादला पठानकोट हो गया।

एक दिन मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। नीली जीन्स पहने और काला चश्मा। मुस्कान बिखेरते हुए बोली, ‘उड़ गए न होश! यदि आज्ञा हो तो अंदर आ जाऊं!’
मैं चुपचाप उसे देखता रहा, वह झट-पट अंदर चली आई। पीछे-पीछे मैं। ‘एक गिलास पानी तो पिला दीजिए।’ चश्मा उतारते हुए उसने कहा।
‘तुम कैसे.....?’
‘क्यों? मैं नहीं आ सकती?’ सैंडिल उतार कर वह चारपाई पर सिकुड़ गई। उसने बताया कि वह यहां एक कैंप पर आई है। मैंने चाय बनाई। हमने मिलकर चाय पी। वह जाने के लिए उठते हुए बोली चलती हूं, ‘कैंप में सात बजे से पहले पहुंचना चाहिए। हाज़िरी लगती है।’
और उसका यह कैंप सात दिनों तक चला। दोपहर या शाम को कुछ समय के लिए वह मेरे पास आ जाती। अंतिम दिन वह कैंप से विदा होकर सुबह नौ बजे ही घर आ गई। कंधे पर उसका एयर-बैग था।
‘आज दफ्तर न जाएं, कोई फिल्म देखते हैं।’
उसने मुझसे आग्रह किया। जब भी वह ऐसा कुछ कहती तो मैं आज्ञाकारी की भाँति चुपचाप तैयार हो जाता। किनारा फिल्म देखते हुए वह सुबक-सुबक कर रो रही थी। शायद मेरा भी अंत ऐसा ही होगा।

फ़िल्म देखने के पश्चात् हमने ढाबे में खाना खाया। शाम को हम दोनो शापिंग करते रहे। वह छोटी-मोटी चीज़ें खरीदती रही। मैं उसके साथ चलता रहा। अचानक मोहन मिल गया। ‘भाभी है?’ उसने सवाल दागा। वह सर झुकाए आगे निकल गई।
घर लौटते वक्त वह फिर सुबक रही थी। मुझे समझ नहीं आता कि मैं आपके साथ क्यों घूमती हूँ। आपके यार दोस्त भी भला क्या सोचते होंगे। उसने कहा।
‘सोचना क्या है। मोहन अभी ही कह रहा था, माल तो अच्छा है, काबू कर ले।’
‘मुझे पुरुषों की यही बात पसंद नहीं। लड़की देखी नहीं कि उस पर कब्जा कर लेना चाहते हैं।’
रात को हम एक ही कमरे में थे। मेरे पास एक ही चारपाई थी। एक बिस्तर नीचे लगा दिया। वह नीचे वाले बिस्तर पर लेट गई। मैंने उसे चारपाई पर लेटने को कहा। पर उसने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है?’ अंतत: मैंने कहा, ‘इस तरह हम दोनों ही नहीं सो पाएंगे। आ जाओ, चारपाई पर लेट जाओ।’
‘तुम्हारा क्या ख़याल है, मेरे दिल में खोट हो तो क्या मैं नीचे नहीं आ सकता?’
‘मुझे मालूम है, आप इतने बुरे नहीं।’
‘आ जाओ यहां।’ वह धीरे से उठकर मेरे साथ लेट गई।
‘अब क्यों आई हो?’
‘मेरे दिल ने कहा है कि आप ऐसा-वैसा कुछ नहीं कर सकते। आप एक वफादार दोस्त हैं।’

अब फिर उसने करवट बदल ली थी। मुझे याद है कि उस रात न तो वह सोई थी, न मैं। बस हम दानों की चिताएं अलग-अलग जल रही थीं। एक दीवार ऐसी थी जिसे हम चाहते हुए भी न लाँघ सके थे। जब सुबह उसने विदा ली तो उसकी आँखें अंगारों की भाँति सुलग रही थीं। फिर काफ़ी अरसे तक वह मुझसे नहीं मिल सकी। इस दौरान मुझे ख़बरें मिलती रही कि उसकी माँ उसके लिए कोई लड़का तलाश रही है। इस बार तीन साल बाद वह फिर कैंप पर पठानकोट आई थी। दफ्तर से मैं लौट रहा था कि उसने रिक्शा रोक कर आवाज़ दी। रिक्शा वाले को पैसे देकर उसने छोड़ दिया। मैंने उसे मुबारकबाद दी और उसने मुझे। उस वक्त मुझे अहसास हुआ कि ऐसे मौकों पर मुखौटे कितने ज़रूरी हो जाते हैं। फिर भी उसकी मुस्कराहट का जवाब मैंने मुस्कान से ही दिया। उसकी इस, मुस्कराहट ने मेरे शरीर में पल भर के लिए सिहरन सी पैदा कर दी थी। उसका एयर-बैग उसके कंधे पर था।
‘तुम बेहद खुश हो न। बड़े अच्छे लड़के से तुम्हारी सगाई हुई है! ’
‘सुना है आपको भी अच्छी लड़की मिल गई है।’ उसने मुस्करा कर कहा।
‘यह अंगूठी सगाई की है?’ अब हम कमरे में बैठे थे। अंगूठी देखने के बहाने उसने मेरा हाथ थाम लिया।
‘हाँ।’ मैंने उसके गंदुमी चेहरे को निहारते हुए कहा।
‘मुझे भी उन्होंने सगाई की अंगूठी भेजी है।’ मुझे सर से पाँव तक देखते हुए उसने कहा। ‘पर अंगूठी पहनने से मेरी अंगुली पर छाले पड़ गए हैं।’
‘सच्ची?’ छाले देखने के बहाने मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी पतली-पतली उंगलियों को मैं चूमना चाहता था। पर मुझे ऐसा महसूस हुआ मानो अंगूठी मुझे अंगूठा दिखा रही हो। फिर मैं उसकी अंगुलियों को अपने हाथों से सहलाने लगा। वह कितनी ही देर तक शून्य दृष्टि से मुझे देखती रही।
‘आपकी मंगेतर कैसी है?’ कुछ देर बाद वातावरण की ख़ामोशी तोड़ते करते हुए उसने कहा।
‘सांवली सी है, परंतु उसका कद मुझसे बहुत छोटा है।’ उसकी तरफ देखते हुए मैंने कहा।
‘तुम्हारा मंगेतर कैसा है?’
‘उसका कद भी छोटा है।’

फिर अचानक मुझे गुज़रे पलों की याद हो आई। जब वह कहा करती थी, ‘रवि जब हम साथ-साथ चलते हैं तो लोग हमें बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखते हैं।’
कई बार तो वह कहा करती थी, ‘आपके साथ चलने का तो मज़ा ही आ जाता है। लोग कहते तो हैं कि कितनी सुंदर जोड़ी है।’
अचानक पता नहीं उसे क्या सूझा कि कहने लगी, ‘हम क्यों न ऐसा करें, आप अपनी मंगेतर की शादी मेरे मंगेतर से.....।’
‘तो?’
‘हां फिर,फिर....!’ मोती जैसे चमकीले दाँतों से वह अपना निचला होंठ काटती रही और एक दीर्घ निश्वास लेकर ख़ामोश हो गई।
‘इन्सान की हर ख़्वहिश पूरी नहीं होती!’
‘आईए। कहीं बाहर चलें यहां तो आज दम घुट रहा है।’

हम दोनों कॉफी हाउस में जा बैठे। मद्धम रोशनियां मानो किसी का मातम कर रही थीं। ‘शादी पर आएंगे न?’ वह मानो मुझे घर आने का निमंत्रण दे रही थी।
‘देखूंगा।’
‘क्या देखूंगा ?’
‘यही कि मैं गया तो लोग क्या कहेंगे?’
‘यदि आप नहीं गए तो लोग क्या चुप रहेंगे?’
‘तुम्हारी डोली विदा होते मुझसे नहीं देखी जाएगी।’
‘कोई मुश्किल नहीं देखने में। आप डोली को अर्थी समझ लीजिएगा बस!’ जब उसने यह बात कही तो उसकी आंखें छलछला आईं थीं।
‘आज मेरे साथ बाजार चलिए।’ वह अचानक उठ खड़ी हुई।
‘अब हम कब तक यूं एक दूसरे से मिलते रहेंगे?’
‘शायद आज अंतिम बार।’ उसने बुझे स्वर में कहा।
‘अंतिम बार, पर ऐसा तो तुम कई बार कह चुकी हो।’
‘आपको पता नहीं, आज क्या है?’
‘करवाचौथ!’
‘तो?’
‘मैंने आज व्रत रखा है। इसलिए इतनी दूर से चलकर आपके पास आई हूँ।’

हम बाज़ार की तरफ चल पड़े। बाज़ार में करवाचौथ क़ी काफी गहमा- गहमी थी।
‘मुझे चूड़ियां खरीद दीजिए।’ अचानक वह एक दुकान के सामने रुक गई।
‘चूड़ियां?’
हां, चूड़ियां!’
‘ये सुहाग का प्रतीक होती हैं।’
‘परंतु मैं... मैं कैसे खरीद दूं? यह मेरा हक नहीं।’ मैंने उसकी दुबली पतली कलाइयों को देखा।
‘क्यों? आज तो आप ही को लेकर देंगे। अगली बार पता नहीं...।’ उसका स्वर भर्रा गया था। शायद इसलिए वह आगे कुछ न बोल पाई।
‘देखिए तो कौन सी फबेगी मुझ पर?’
‘तुम खुद ही देख लो।’
‘नहीं, ये चूड़ियां तो आपकी पसंद की ही पहनूंगी।’ मैंने हरे रंग की चूड़ियों की तरफ इशारा किया। उसने वही पहन लीं।
‘पैसे दे दीजिए।’ उसने बीवी की भाँति आदेश दिया और मैंने एक आज्ञाकारी पति की भाँति पैसे निकाल कर पकड़ा दिए।
‘आज ऐसा महसूस हो रहा है, मानो मेरी शादी हो चुकी हो। यदि मैं आने वाले दिनों को याद न करूं तो मैं आज कितनी खुश हूँ।’
एक बाग में प्रेवश करते हुए उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। बीती यादों के प्रतीक मेरी आँखों के समक्ष उजागर हो गए। फिर हम बाग में एक बेंच पर बैठ गए। उसने अपना सिर मेरी गोद में रख दिया और लेट गई। मानो आज वह बीती बातों को दफ़न कर देना चाहती हो। ‘काश! ज़िंदगी आज की रात में ही ख़त्म हो जाती।’
‘परंतु ऐसा तो कभी नहीं होता।’
‘यह भटकन... अब और कितने जन्मों तक चलेगी?’ वह अजंता-अलोरा की टूटी मूर्तियों की भाँति पड़ी-पड़ी बुदबुदा रही थी। और मैं अंधेरे में से कुछ तलाशने की कोशिश कर रहा था। अचानक वृक्षों की ओट से चाँद दिखाई दिया। वह उठ बैठी।
‘चाँद निकल आया है। अब मुझे अर्घ्य देना है।’
फिर हम बाज़ार की रोशनियों से गुज़र रहे थे। उसने हलवाई की दुकान से कच्चा दूध लिया और चाँद को अर्घ्य दिया। शांत वातावरण में हम भी ख़ामोश चल रहे थे। माल रोड भी सुनसान थी। फिर एक ऐसा दोराहा आया, जहां हमें एक दूसरे से अलग होना था। वह मेरे गले से लिपट गई और सुबक-सुबक कर रोने लगी। मिट्टी बना मेरा हाथ उसकी पीठ सहला रहा था। कुछ क्षणों के पश्चात् मैंने खुद को उसके आलिंगन से मुक्त किया और चुपचाप पुल की तरफ बढ़ गया। पुल पर पहुंच कर मैंने पीछे मुड़कर देखा। वह बिजली के खंभे से लगकर अभी भी सिसक रही थी। अगले ही पल उसने चूड़ियों वाली कलाइयां बिजली के खंभे पर दे मारी। चूड़ियों के टूटने की आवाज़ मेरे कानों से टकराई। टूटी चूड़ियां मानो मेरे दिल को लहूलुहान कर गईं। अब मैं पुल की ढलान से उतर रहा था और वह अपनी टांगे घसीटते हुए दूसरे पुल पर चढ़ रही थी।


अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
साभारअक्षर भारत, नई दिल्ली, 18 नवंबर, 1996

शनिवार, जुलाई 10, 2010

कहानी श्रृंखला - 6


पाकिस्तानी पंजाबी कहानी
बलात्कार

० तौकीर चुगताई


भोर की नमाज़ के वक्त सारे नमाज़ी हैरान रह गए, जब मसज़िद में लगभग तीस वर्षीया एक औरत को देखा। वह मौलवी साहब के समक्ष एक मसला रखना चाहती थी। पहले तो सबने उससे कहा कि अब वह घर जाए और सुबह आकर आराम से अपना मसला बयां करे, परंतु वह नहीं मानी और कहने लगी, ‘मैं तो अभी पूछ कर जाऊंगी।’


छोटे से गाँव की इस पुरानी मसज़िद में उस दिन बड़ी भीड़ थी, क्योंकि दो दिन बाद ईद की छुट्टियां होने वाली थीं और शहर में काम करने वाले बाबू, फौजी, मज़दूर तथा दूसरे छोटे-मोटे काम करने वाले लोग छुट्टी पर गाँव आए हुए थे।

एक साठ वर्षीय व्यक्ति ने उसे डाँट कर कहा - ‘बीबी, तुझे कहा न, सुबह आना। और आधी रात को घर से निकल कर मसज़िदों में जा घुसना औरतों के लिए अच्छा नहीं होता। तुम जाकर गाय, भैंस दुहो और लस्सी रिड़को। इस वक्त घरों से मथनियों की घूं-घूं की आवाज़ें आती अच्छी लगती हैं।’

‘मथनियों की घूं-घूं और लस्सी तभी अच्छी लगती है जब मन खुश हो, चाचा। जब दिल ही अपने ठिकाने पर न हो तो ताजा दूध भी फिटा हुआ लगता है। और मटके में झाग ही झाग रह जाती है, मक्खन नहीं बनता।’

‘ये नहीं मानेगी, चलो भाईयो। हम नमाज़ पढें, समय गुजरता जा रहा है। पता नहीं कौन है। हमारी इबादत खराब करने आ पहुँची है।’

‘फकीरे की घर वाली है जी।’ किसी एक ने कहा।
‘कौन फकीरा ?’
‘सुल्तान तांगे वाले का पुत्तर।’
‘वह तो शहर में रहता है न ?’
‘किसी दफ्तर में मुलाजिम है जी। पूरी बारह जमातें पढ़ा है। उसके पिता ने तांगा चला-चला कर उसे पढ़ाया था।’
‘और ये काकी, मेरा मतलब है कि उसकी घरवाली कौन है? अपने गाँव की तो लगती नहीं।’
‘हाँजी, लाहौर की है, और उसकी मौसी की लड़की है। वहीं लाहौर में पली-बढ़ी है, पढ़ी-लिखी है।’
‘हाँ, वह तो दिखता ही है, तभी तो नंगे सिर मसज़िद में आ घुसी है।’
‘परंतु फकीरे को तो कभी नहीं देखा मसज़िद में।’
‘नहीं जी, वह तो नमाज़ ही नहीं पढ़ता। कभी-कभार साल भर बाद ईद की नमाज़ पढ़ लेता है।’
‘सुअर का बच्चा।’ बुजुर्ग के मुँह से निकला।
‘नहीं चाचा, ऐसा मत कहो। मुसलमान सूअर का नाम नहीं लेते। सूअर का नाम लेने पर जीभ नष्ट हो जाती है।’

‘फकीरे का नाम लेना और सूअर का नाम लेना एक बराबर है। जो नमाज़ ही न पढ़े वह सूअर से कम तो नहीं।’
‘पता नहीं जी, मैं क्या कह सकता हूँ कभी-कभी तो मुझसे भी नमाज़ चूक जाती है।’
नमाज़ खत्म होने के बाद सभी परवीन के इर्द-गिर्द जमा हो गए। हर तरफ से सवालों की बौछार होने लगी।
‘मुझे मौलवी साहब से बात करनी है, आप सभी अपने-अपने घर जाएं। क्यों मुझे मामला बनाने पर तुले हुए हैं? मुझे उनसे एक सवाल करना है। पढ़े-लिखे इन्सान हैं, कुछ न कुछ तो ज़रूर बताएंगे।’ सभी व्यक्ति एक-एक कर खिसक गए और रास्ते में एक दूसरे से अटकलें लगाते रहे।

थोड़ी देर बाद मौलवी साहब भी बाहर आ गए और बोले - ‘हाँ बेटी, तुम किसी मसले के बारे में बात करना चाहती थी? क्या मसला है तुम्हारा?’

‘बात ये है मौलवी साहब कि...... ’
‘नहीं-नहीं। ऐसे नहीं ठहरो, मैं हुजरे (मसज़िद के साथ वाली कोठरी) का दरवाजा़ खोलता हूँ। आराम से बैठकर बात करते हैं।’ मौलवी ने कहा।

‘जी नहीं। मुझे हुजरे से डर लगता है।’
‘अरे मूर्ख कहीं की, डर किस बात का? वहाँ कोई जिन्न-भूत है क्या ... चलो, आओ।’
मौलवी साहब ने हुजरे का दरवाज़ा खोला और वह भीतर आ गई। हुजरे में नारीयल की रस्सी से बुनी चारपाई पड़ी थी। एक आले में सरसों के तेल का दीया जल रहा था। सामने वाली दीवार पर लकड़ी की चार कीलियां गड़ी हुई थीं, जिन पर मौलवी साहब के मैले कपड़े टंगे थे, दूसरे आले में सुरमा, शीशा और कंघी पड़े थे। मौलवी साहब ने सिर से पगड़ी उतारी और कीली पर टांग दी। और दोनों हाथों से सिर खुजलाते हुए चारपाई पर बैठ गए, फिर बोले - ‘हाँ, अब बताओ।’

दरवाज़े के साथ लगी चौकी पर बैठ कर उसने कहा - ‘जाना तो मुझे थाने चाहिए था, परंतु थाना बहुत दूर है। और जो केस मुझे थाने में ले जाना था, वह ख़त्म नहीं होता बल्कि दुगना हो जाता। मुझे कानून पर ऐतबार नहीं रहा। थाने वाले रिश्वत खा-खा कर कानून की ऐसी-तैसी कर रहे हैं.....’

‘मसला क्या है, तुम बताओ तो सही। मैं तुम्हें ठीक-ठाक हल बताऊंगा तुम्हारे मसले का।’
‘मेरे साथ बलात्कार हुआ है....’
‘क्या.....?’
मौलवी साहब मशीन की तरह चारपाई से उठ खड़े हुए और थूक गटकते हुए कहा - ‘किसने किया?’
‘फकीरे ने मौलवी साहब!’
‘पर वह तो तेरा शौहर है।’

‘हाँ, मौलवी साहब। इसी बात का तो रोना है। उसने आज रात मुझसे बलात्कार किया है और पिछले कई सालों से कर रहा है।’
मौलवी साहब ने इधर-उधर देखा और काँपती आवाज़ में कहा - ‘शायद तेरा दिमाग काम नहीं कर रहा या तू बीमार है।’
‘मेरा दिमाग भी ठीक है और मैं भी ठीक हूँ परंतु मेरे साथ शायद ठीक नहीं हो रहा।’
‘बीबी ! जब कानून और मज़हब मिल कर दूसरों की किस्मत का फैसला करते हैं तो उन्हें मिल-जुल कर रहना चाहिए। वे जो भी काम करते हैं, रब्ब और कानून की मर्जी़ से करते हैं. और तू जिसे बलात्कार कह रही है, वह बलात्कार नही। औरत तो मर्द की खेती होती है...’
‘और खेत में नमी हो या न हो उसमें हल चलाते जाओ.....’

‘हाँ, इसलिए कि वह मर्द की मल्की़यत होती है, किसी दूसरे की जायदाद नहीं होती। और आदमी जब अपनी जायदाद पर हल चलाता है तो वह गलत नहीं करता। फकीरे ने भी कोई बुरा नहीं किया। और जब तुम्हारा ब्याह हुआ था उस वक्त तुम दोनों के माता-पिता की मर्जी़ के साथ-साथ तुम दोनों की मर्जी़ भी शामिल थी।’

‘इसी बात का तो रोना है मौलवी साहब ! मेरी मर्जी़ नहीं थी.....’
‘तौबा-तौबा। अगर नहीं थी तो अब जब इतने साल गुज़र गए तो और भी गुज़र जाएंगे। माता-पिता की इज्ज़त भी कोई चीज़ होती है....’

‘मौलवी साहब! मैं आपकी तक़रीर और मशवरे सुनने नहीं आई। वह तो मैं रोज़ ही लाउड स्पीकर पर सुनती हूँ। मुझे मसले का हल बताएं।’
‘इस वक्त तो मसले का हल यही है कि तू यहाँ से निकल जा। तू तो सारे गाँव को खराब करेगी।’

परवीन चुपचाप उठ कर मसज़िद से बाहर आ गई। पौ फट रही थी और चिड़ियां चहचहाने लगी थीं। वह जब घर पहुँची तो फकीरा तब तक सो रहा था।

इतने में उसके कानों में मौलवी चरागदीन की आवाज़ आई। यूं लगता था कि बैटरी चालित लाउड स्पीकर की आवाज़ आज पहले से मानो काफी़ बढ़ गई हो।

‘मैं मौलवी चरागदीन वल्द मौलवी बागदीन खुदा का नाम लेकर सब लोगों से विनती करता हूं कि वे फकीरे सुल्ताने तांगे वाले के घर पास इकट्ठे हों और उसकी घरवाली परवीन लाहौरन को अपने गाँव से बाहर निकाल दे। मेरे भाईयो, परवीन एक गुनाहगार और बदकार बल्कि बदचलन औरत है और अगर वह कुछ दिन और हमारे गाँव में रह गई तो सबकी मां-बहनें भी ठीक नहीं रहेंगी।’

देखते ही देखते पूरा गाँव फकीरे के दरवाज़े पर इकट्ठा हो गया। लड़कियां, लड़के, बूढ़े और जवान। फकीरा शोर सुनकर एक दम से जग गया और आँखें मलते-मलते बाहर आकर लोगों से पूछने लगा - ‘क्या हुआ?’



मौलवी साहब जो अभी-अभी मसज़िद से दौड़े-दौड़े आकर भीड़ में आ शामिल हुए थे, बोले - ‘मैं बताता हूँ कि क्या हुआ। तेरी घर वाली कहती है कि तूने उसके साथ बलात्कार किया है और पिछले कई सालों से करता आ रहा है।’


‘उसका तो दिमाग खराब है मौलवी साहब। यह बात तो वह मुझे कई बार कह चुकी है। इसमें भला बिगड़ने की क्या बात है?’


‘वाह भई, वाह फकीरे ! हम कानून और मज़हब के साथ मज़ाक होता देखते रहें और कुछ न कहें। हम परवीन को गाँव से निकाल कर ही छोड़ेंगे।’


इससे पहले कि फकीरा कोई जवाब देता, भीड़ आगे बढ़कर परवीन को आँगन से बाहर खींच लाई और घर का सामान भी उठा-उठा कर बाहर फेंकना शुरू कर दिया।


एक आदमी बीच में ही बोल उठा - ‘फकीरे को भी गाँव से बाहर निकालो। ये अपनी घर वाली की तरफदारी कर रहा है।’ और पगलाई भीड़ ने फकीरे को धक्के मारने शुरू कर दिए। परवीन रो रही थी - ‘ हाँ, मैं अब भी यही कहूंगी मौलवी साहब! मेरे साथ बलात्कार हुआ, और होता रहा। जब कोई मन को न भाए, तो उसका स्पर्श करना भी बलात्कार ही होता है। फकीरा पिछले काफी समय से मेरे साथ बलात्कार रह रहा है। आँखों से, हाथों से, मुँह से, साँसों से और बातों से .......बलात्कार....’


भीड़ आगे बढ़ी और दोनों को धक्के मारते हुए गाँव से बाहर ले आई। पक्की सड़क पर आकर सभी रुक गए। फकीरा और परवीन मुजरिमों की तरह खड़े थे। दूसरी तरफ गाँव की औरतें भी इकट्ठी हो गई थीं। मर्दों में से किसी ने कहा - ‘अब जाते क्यों नहीं हो। दफा हो जाओ न।’

परवीन
ने मौलवी की ओर देखा, फिर औरतों की ओर और अंत में फकीरे की ओर। फकीरे ने नज़रें झुका लीं।

परवीन आगे बढ़ी और सड़क के पास जा कर उस तरफ खड़ी हो गई जिधर लाहौर की बसें जाती थीं और फकीरा उस तरफ चल दिया जिधर शहर था।


मौलवी साहब ने कहा - ‘चलो भाई, सब अपने-अपने घरों को चलें। और सभी गाँव की और चल दिए। औरतों के समूह में से एक बुजुर्ग औरत ने धीरे-धीरे रोते हुए कहा - ‘मौलवी बेचारा क्या जाने, हममें से कितनी ऐसी हैं, जिनके साथ रोज बलात्कार होता है, परंतु वे कहें किससे ...... ?’


अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'

साभार - जनसत्ता, दीपावली विशेषांक, 2005

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रविवार, जुलाई 04, 2010

कविता श्रृंखला – 2 /सुभाष शर्मा, (चंडीगढ़) ( पंजाबी )


शिखंडी

 

० सुभाष शर्मा, (चंडीगढ़)


तूने तो यह रूप धरा था
अपने साथ हुए
तिरस्कार का बदला लेने के लिए
और पूर्ण पुरुष न होते हुए भी
इतिहास में
अपना नाम
अंकित कर दिया था।
और वह कर गुज़रे थे
जो कि पूर्ण पुरुष भी
न कर सकते थे।



इतिहास के
उस महान योद्धा की
मौत का कारण
बने थे
जिसे शायद
इतिहास के तथाकथित योद्धा
नहीं मार सकते थे।
अगर तुम न होते
तो शायद –
इतिहास के पन्ने
कुछ और ही होते।
इतिहास भी कुछ और
तथा युद्ध का परिणाम भी।
सब्र की भी इंतेहा थी
बदला लेने के लिए।
जन्म जन्मांतर तक भी
नहीं थे भूले
अपने साथ हुई उस नाइंसाफ़ी को।
आज भी इतिहास
याद करता है तुझे
और तेरे कारनामे को।


परंतु आज -
तुम्हारे हमनस्ल बहुसंख्या में हैं।
यहां तक कि
पूर्ण पुरुष भी
तुम्हारी शक्ल धारण कर
अधूरे बन गए हैं।


परंतु,
न ही वे
हो सकते हैं तुम्हारे वंशज
और न ही तुम्हारे जांनशीं
क्योंकि
उन में
न तो है तुम्हारे जैसा साहस।
न ही सब्र
और न ही जन्म जन्मांतर तक
लड़ सकने का हौंसला -
अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी के विरुद्ध
लड़ने के लिए।


अगर उनके पास कुछ है
तो वह है –
एक नपुंसकता।
एक बुजदिली।
अपने साथ हो रही
ज़्यादतियों को सहने की
नाइंसाफ़ी को बर्दाश्त करने की
ख़ामोश रह कर सब कुछ सहने की
और घुट कर मर जाने की भी।


अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
कहानी श्रृंखला – 5

पंजाबी कहानी

सुनहरी जिल्द


० नानक सिंह


अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’



‘क्यों जी, आप सुनहरी जिल्दें भी लगाते हैं ?’ ख़ैरदीन दफ्तरी, जो जिल्दों की पुश्तें लगा रहा था, ग्राहक की बात सुनकर बोला - ‘हाँ जी, जैसी आप कहें।’
ग्राहक एक अधेड़ सिक्ख था। दुकान के तख़्त पर बैठ कर उसने बड़े जतन से किताब पर लिपटे रुमालों को खोलना शुरू किया। पाँच-छह रुमाल खोलने के बाद एक किताब निकाली। दफ्तरी की दुकान में जितने भी क़ारीगर काम कर रहे थे, सभी किताब को देखकर हँसने लगे। एक ने तो धीमे से स्वर में कह भी दिया - ‘फूस का झोंपड़ा और हाथी दाँत का परनाला।’किताब जगह-जगह से सारी खुली हुई थी। उसके धुआँ रंगी पृष्ठ हाथ लगते ही भुर-भुराते जा रहे थे। जिल्द की जगह वाले कोने मुड़े हुए थे। यूं लगता था कभी ये चमड़े की जिल्द के रूप में थे।दफ्तरी ने किताब हाथ में ली और उलट-पलट कर देखी। देखते ही टुकुर-टुकुर ग्राहक के मुँह की ओर देखने लगा। यह एक हस्तलिखित क़ुरान शरीफ़ था।दफ्तरी ने कहा - ‘बन जाएगी सरदार जी!’ फिर संकोच से पूछा- ‘सरदार जी, कुरान शरीफ़ आपका अपना है? लिखावट तो बहुत सुंदर है।’‘नहीं, यह मेरी बेटी का है।’ ‘अच्छा? चीज़ तो सरदार जी बड़ी अच्छी है पर पृष्ठ बड़े ख़स्ताहाल से हो गए हैं। अगर छपा हुआ लेकर बंधवाते तो बेहतर होता।’‘आप ठीक कहते हैं परंतु लड़की का इससे लगाव है, यह उसके पिता की निशानी है।’दफ्तरी को हैरानी के साथ-साथ शक़ भी होने लगा, ‘मेरी लड़की’ और फिर ‘उसके पिता की निशानी’ वाली बात उसकी समझ में नही आई। उसने फिर पूछा - ‘तो आपकी रिश्तेदारी में से है ?’‘हाँ----नहीं, नहीं मेरी अपनी लड़की है। हाँ, बताईए कब तक दे देंगे ? मुझे यह जल्दी चाहिए। आज से चौथे दिन लड़की की शादी है और मुझे यह शादी पर देना है।’‘अरे हाँ, एक काम और कीजिएगा, जिल्द पर सुनहरी अक्षरों में ‘बीबी ज़ैना’ लिख दीजिएगा। पैसों की कोई फ़िक्र मत करें, जो कहेंगे दूंगा।’ज्यों-ज्यों दफ्तरी इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करता, त्यों-त्यों यह और उलझती जाती। इस अनोखे वार्तालाप से उसके साथियों के काम में भी विराम लग गया।


करम सिंह ने जब देखा कि सभी की जिज्ञासा बढ़ रही है तो उन्होंने खुलासा किया - आज से पाँच साल पहले की बात है, जब इस शहर में हिंदु-मुसलमानों के बीच बड़ा भारी फ़साद हुआ था, उन दिनों मैं कपड़े की दुकान करता था। परिवार में दो ही प्राणी थे, मैं और मेरी पत्नी।

दोपहर को सारे शहर में शोर मच गया। मेरे पाँवों तले से ज़मीन खिसक गई। फ़साद वहाँ से शुरू हुआ, जिस मुहल्ले में मेरा घर था और यह मुहल्ला लगभग मुसलमानों का ही था। दुकान बंद करके मैं जल्दी-जल्दी घर की ओर भागा। रास्ते में लोगों की टोलियां दगड़-दगड़ करती फिर रही थीं।

मैं घर पहुँचा, पर दरवाज़े पर ताला लगा देख मुझे तसल्ली हो गई कि पत्नी सतवंत कौर अपनी मौसी के घर चली गई है। उसकी मौसी का घर खत्रियों के मुहल्ले में था। उसकी सूझ-बूझ की मन ही मन सराहना करते हुए मैं भी उधर ही चल दिया। मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई, जब मुझे पता चला कि सतवंत कौर वहाँ नहीं पहुँची। मैं सर थामे वहीं बैठ गया।हमारे सारे दिन की भाग-दौड़ का कोई परिणाम न निकला। इधर पल-पल फ़साद बढ़ते जा रहे थे। कई मुहल्ले फूँके गए, कई दुकानें लूटी गईं और कई निर्दोषों का खून बहाया गया।

थक-हार कर मैं घर गया। अच्छा-ख़ासा अंधेरा हो गया था। सारी गली सुनसान थी। बीच-बीच में पैदल और सवार सिपाहियों की पदचाप सुनाई दे रही थी। इस समय सेवा समिति का एक स्वयं-सेवक मेरे घर आया। उसने मुझे बताया कि मेरी पत्नी सरकारी अस्पताल में मेरा इंतज़ार कर रही है।

मुझे सुनकर खुशी हुई, परंतु थोड़ा सा सहम भी गया। कई तरह की बातें सोचता-सोचता मैं अस्पताल पहुँचा। वहाँ जाकर मैंने जो देखा, उससे मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। एक वृध्द मुसलमान सर से पाँव तक पट्टियों से बंधा बेहोश पड़ा था और सतवंत कौर उसके पास बैठी ऑंसू बहाते हुए उसके मुँह में दूध डालने की कोशिश कर रही थी।

मुझे देखते ही वह मेरे गले आ लगी। हैरानी से उसे देखते हुए मैंने दिलासा दी। मेरा मंतव्य समझ कर वह बोली - ‘यदि ये न होते तो....’ इससे आगे वह कुछ न कह पाई।

अंतत: उसने बैठकर अपनी आप-बीती सुनाई - फ़साद की ख़बर सुनते ही मैं सारे गहने और नकदी वगैरह छोटे से ट्रंक में डाल, बगल में दबाए मौसी के घर की ओर चल पड़ी। रास्ते में गुंडों की एक टोली को मैंने अपनी ओर आते देखा। उनसे बचाव के लिए मैं घबरा कर इधर-उधर ताकने लगी। जब मुझे भागने का कोई रास्ता न मिला तो मैं इस बूढ़े हलवाई की दुकान पर जा खड़ी हुई। मेरे पीछे ही गुंडों की टोली आ पहुँची। मेरा ट्रंक देखकर वे समझ गए थे कि इसमें अच्छा-ख़ासा माल है।

इस बाबा का भगवान भला करे। इसने मुझे पिछले कमरे में घुसा दिया और स्वयं गुंडों का मुकाबला करने के लिए दुकान पर डट गया। इसने उन लोगों को बहुत समझाया, परंतु उनका यही कहना था कि ट्रंक हमारे हवाले कर दो तो हम चले जाते हैं।

अंतत: जब वे न माने, तो इसने उबलते दूध के प्याले भर-भर कर उन पर फेंकने शुरू किए। एक बार तो वे भाग खड़े हुए परंतु जब उन्होंने देखा कि दूध की कड़ाही खाली हो गई है तो वे फिर लौट आए।

दूसरी बार उसने चूल्हे से आग और गर्म राख निकाल-निकाल कर उन परफेंकनी शुरू की। कईयों का मुँह, सर और कपड़े झुलस गए, परंतु इससे उनका जोश और भी बढ़ गया। जब चूल्हा भी खाली हो गया और बाबे के पास और कोई हथियार न रहा तो वे सभी दुकान पर आ चढ़े और ‘क़ाफ़िर, क़ाफ़िर’ कह कर बेचारे को आड़े हाथों लिया और मार-मार कर कचूमर निकाल दिया बेचारे का।

फिर वे गुंडे मेरी ओर बढ़े, परंतु मैंने भीतर से कुंडी लगा ली थी, उन्हें दरवाज़ा तोड़ने में काफ़ी समय लगा। इतने में ‘पुलिस आ गई’ का शोर मच गया और सभी जिधर रास्ता मिला भाग गए।

बाबा लहुलुहान हुआ पड़ा था। सेवा समिति वालों ने उसे स्ट्रेचर पर डाला। मैं भी अपना ट्रंक उठाए बाबे के साथ ही यहाँ अस्पताल चली आई। दिन में कई बार सेवा समिति वाले आपको घर और दुकान पर ढूँढने गए, परंतु आपका कुछ पता नहीं चला। सतवंत कौर की बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैंने बेहोश पड़े बाबा के पाँवों पर श्रध्दापूर्वक कई बार माथा टेका।

दूसरे दिन सुबह बाबा को होश आया। उसके मुँह से पहला वाक्य निकला - ‘ज़ैना! पुत्तर तू कहाँ है ?’

थोड़ी देर बाद उसकी चेतना पूरी तरह लौट आई और खुद-ब-खुद सारी बात उसे समझ आ गई। हम दोनों उसके पाँवों पर सर रख कर उसका शुक्रिया अदा करने लगे। बाबा ने प्यार से हमें रोकते हुए कहा - ‘सरदार जी! मैंने आप पर कोई अहसान नहीं किया। जैसी मेरी ज़ैना बिटिया वैसी ही ये परंतु सरदार जी अल्लाह के वास्ते उसे यहाँ ले आईए। अकेली मर जाएगी। यदि बेचारी की माँ ज़िंदा होती तो भी वह किसी तरह मेरे बाद पल जाती। अब कौन उसे....।’ कहते-कहते बाबा रोने लगा।

उसके बताए पते से जाकर हम ज़ैना को ले आए। वह उस समय दस साल की रही होगी, बेहद भोली-भाली। चाहे रो-रोकर वह बेहाल हुई पड़ी थी, परंतु पिता के गले से लग कर उसका आधा दु:ख समाप्त हो गया।

सवा महीना अस्पताल में रखने पर भी हमने जब बाबा की हालत में कोई सुधार न देखा तो हम उसे अपने घर ले आए। भीतरी चोटों ने उसकी कमर को नकारा कर दिया था। सीने की चोटें भी गंभीर थीं।

घर आकर ज़ैना हमारे साथ इस तरह घुल-मिल गई मानो हमारे घर पैदा र्हुई और परवरिश पाई हो। वह हमें बड़ी प्यारी लगती। सतवंत कौर को तो मानो कोई खज़ाना ही मिल गया हो। कभी हमारी भी तीन साल की एक बेटी थी, जिसे भगवान ने हमसे छीन लिया था। हमें यही लगता था कि भगवान ने हमारी खोई हुई वस्तु हमें लौटा दी है। हम पल भर के लिए भी ज़ैना को आँखों से ओझल न होने देते थे।
चारपाई पर पड़े-पड़े बाबा हमें ज़ैना से प्यार करते देखता था तो खुशी के मारे उसकी आँखों में आँसू आ जाते। बहुत से डॉक्टर बदले पर बाबा की हालत में कोई सुधार न हुआ। अचानक ही उसके सीने से खून आने लगा और उसकी हालत बिगड़ती ही गई। अंतत: एक रात वह ज़ैना का हाथ सतवंत के हाथ में दे शांति, तसल्ली और बेफिक्री से इस दुनिया से विदा हो गया।

दूसरे दिन एक सिक्ख के घर से मुसलमान का जनाज़ा पूरी तरह मुस्लिम रीति-रिवाज़ से निकलते देख सारा गली-मुहल्ला प्यार के आँसू बहा रहा था।उसी दिन से मैंने ज़ैना के लिए एक हाफ़िज़ मौलवी उस्ताद रख दिया जो दोनों वक्त आकर उसे क़ुरान शरीफ़ पढ़ाता था।

अब ज़ैना की उम्र पंद्रह वर्ष है और सारा क़ुरान शरीफ़ उसने इन पाँच बरसों में कंठस्थ कर लिया है। एक ख़ानदानी मुसलमान से उसकी सगाई हो चुकी है और आज से चौथे दिन उसका निक़ाह होने वाला है। शादी भले ही मुस्लिम शास्त्र के अनुसार होगी, परंतु बारात में हिंदु, सिक्ख, मुसलमान सभी आएंगे।

ज़ैना के दहेज़ की तैयारी में हमने कोई क़सर नहीं छोड़ी पर यह क़ुरान शरीफ़ ज़ैना को बहुत प्यारा है। इसी को उसका पिता पढ़ा करता था और इसी से ज़ैना ने तालीम हासिल की है। इसी लिए मैं इसे बढ़िया सी जिल्द बंधवाकर उसके दहेज़ में देना चाहता हूँ।

ख़ैरदीन दफ्तरी और उसके कर्मचारियों ने मानो पत्थर के बुत बन कर सारी बात सुनी। उन्होंने अदब से सर उठाया और आँसू पोंछे। किसी-किसी ने आहें भी भरीं और फिर अपने-अपने काम में जुट गए।

जिल्द समय पर बाँध देने की पक्की बात करके रुमालों को लपेट कर जेब में डालते हुए करम सिंह अपने रास्ते चल पड़ा।

०००००

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