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शुक्रवार, जून 04, 2010


कहानी श्रृंखला - 3


पंजाबी कहानी

दुविधा



दलीप कौर टिवाणा

अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

वह सोच रही थी आज मैं पिता जी को सब कुछ बता ही दूंगी फिर उनसे माफी मांग लूंगी परंतु जब उसके पिता सामने होते तो उसके मुंह से एक शब्द भी न निकलता। कई बार उसने सब कुछ बता देने का पक्का निश्चय किया परंतु बताने का उसमें हौंसला न था क्योंकि उसे डर था कि कहीं पिताजी नाराज़ हो जाएं, शायद..... वह मन ही मन बहुत पछताती। बहुत दुखी होती परंतु अब क्या हो सकता था। दादी कब की गुज़र चुकी थी। उसके अंतिम शब्द, ‘जीती! अपने पिता को एक खत लिख दे बेटा ! अब मैं नहीं बचूंगी।’ रह-रह कर याद आते।
उसे अपनी माँ पर बहुत ही गुस्सा आता, जो हमेशा उसकी दादी को डाँटती, ‘यह कहाँ मरेगी। सब को मार कर मरेगी, पता नहीं कौन से काले कौए खाकर पैदा हुई होगी। पहले भी कई बार काम छुड़वा कर बुलवा चुकी है। न मरती है न, चारपाई छोड़ती है।’
जीती ने सोचा - पिताजी काम छोड़ कर आएंगे तो पाँच रुपए दिहाड़ी के जाएंगे और ऊपर से आने-जाने का किराया अलग। चलो ख़त क्या लिखना है। दादी तो यूं ही कहती रहती है कि अब नहीं बचूंगी मैं।
यूं तो दादी उसे बहुत प्रिय थी और जब उसकी मां कहीं गई होती तो चुपके से वह खोये की पिन्नी भी दादी को दे जाती। उसके पिताजी ने उसे बताया था कि वृद्धावस्था में बच्चों जैसा मन हो जाता है, परंतु उसकी मां कहा करती, ‘बुढ़िया ने खाकर अब कौन सा कोल्हू जोतना है? चारपाई ही तोड़ेगी।’ जीती को दादी पर बहुत तरस आता। तभी तो मां से चोरी-छिपे वह कभी-कभी दादी को चूरी कूट देती, कभी दाल में रोटी चूर कर दे देती, कपड़े धो देती और गोंद भिगो कर कनपटियों पर लगा देती। पर उसकी मां उससे कहती - ‘इस बुढ़िया ने मेरा बहुत लहू पीया है। हर तीसरे दिन तुम्हारे पिता को सिखा-पढ़ा कर मुझसे लड़वा देती। क्या मजाल थी जो मैं बगैर पूछे भिखारी को भीख भी दे देती। छाछ को भी ताला लगा कर रखती। अगर ज़रा साफ-सुथरे कपड़े पहन लेती तो कहती - अरी कहां भागना है पोशाकें पहन कर। मैं घर का सारा काम करती परंतु इसका नखरा कभी सीधा न होता। फिर भी मुझे बुरी, भुक्खड़ घर की, हराम का खाने वाली आदि सौ-सौ तरह की बातें कहती।’
यह सुनकर जीती को दादी बुरी लगने लगती। वह दादी के कई आवाज़ें देने पर भी न बोलती। यदि दादी किसी बात में दखल देती तो वह अकड़ कर कहती- ‘दादी ! तुम्हें कुछ पता तो है नहीं, बेकार ही चिड़चिड़ करे जाती हो, चुप करके बैठी रहा करो।’ पर कुछ देर बाद ही वह सब कुछ भूल जाती। उसे दादी के कांपते हाथों पर बड़ी दया आती। वह सोचती, पता नहीं आने वाले दिनों में दादी रहे न रहे और वह दादी के पास बैठ कर उससे लाड करने लगती। पर दादी कहती, ‘जा बेटी, कोई काम कर तेरी मां डांटेगी।’
जब जीती को मां डांटती तो दादी कहती, ‘बस कर बहू, क्यों बच्ची के पीछे हाथ धोकर पड़ी हो।’
‘तुम्हीं ने तो इसे सर पर चढ़ा रखा है, अम्मा। जब भी थोड़ा सा कुछ कहती हूं तो तुम हिमायती बन जाती हो।’
जब उसकी माँ फेरीवाले से कुछ न लेकर देती तो वह रोनी सूरत बना कर दादी के पास जाती तो दादी उसकी माँ से कहती, ‘गर्म पानी से घर नहीं जला करते। बच्ची का जी चाहता है, ले दो क्या मांगती है।’ उसकी मां डपट कर कहती, ‘अम्मा, तूने इसे सर चढ़ा रखा है। जो भी बात मुंह से निकले, मज़ाल है उसे भूल जाए, चाहे सर काट दो।’ पर दादी जीती का पक्ष लेकर कहती, ‘बच्चे का जी करता है। इससे कोई कमी नहीं आने वाली। भगवान की कृपा से उसका पिता राज़ी रहे कमाने वाला ।’
और जब दादी उसका पक्ष लेती तो उसे दादी बहुत ही अच्छी लगती पर जब वह उसे तीज के मेले में जाने से रोकती और कहती, ‘न बेटी ज़माना ख़राब है। इज्ज़त का क्या मोल है। कहते हैं कई जगह तीज के मेलों में डाकू आ गए हैं। इधर मोगे के पास क्या तो नाम है गांव का.....बस बेटी, घर पर ही राम-राम करो। क्या लेना है तीज में जाकर।’ इस पर जीती को बहुत गुस्सा आता और वह सोचती, ‘लोगों की तो बेटियां ही नहीं जो जाती हैं। मुझे ही कोई खा जाएगा।’
दादी की और एक बात जीती को अच्छी नहीं लगती थी। वह यह कि जब भी जीती कोई नया कपड़ा पहनती तो दादी डांट देती, ‘कपड़े पहनने को बहुत दिन पड़े हैं। अक्ल का काम किया करो, बुजुर्गों का कहना मानना चाहिए।’ वह सोचती - ‘दादी जब जवान थी तो खुद चाहे नित नई-नई पोशाकें बदलती हो। अब मुझे ऐसा कह रही है।’ अब दादी छह महीनों से बिस्तर पर पड़ी थी और दिन-ब-दिन हालत बिगड़ती जा रही थी। इसलिए पिछली बार जब उसके पिता काम पर जाने लगे तो जीती से कहा था, ‘तेरी माँ को तो मैं जानता हूं जीती। दादी का तुम ख़याल रखना। पता नहीं कितने दिनों की मेहमान है। उसे कोई तकलीफ न हो और मुझे उसकी हालत के बारे में ख़त लिखती रहना।’
दादी बीमार क्या हुई थी कि वह हमेशा खीझ कर बोलती और कहती - ‘अरे! तुम लोग कहाँ मर गई हो मुझे पानी तो दे जाओ।’ पानी पीकर दो मिनट बाद फिर आवाज़ देने लगती, ‘अरे तुझे काम की पड़ी है, इधर मैं प्यास से मरी जा रही हूँ।’ पर पानी का घूंट भी न पीती और कहती, ‘मैंने कब मांगा पानी, मेरे सर में डालना है क्या ?’
कभी दादी रोने-कराहने लगती और कभी अच्छी-भली बातें करने लगती। जीती की माँ कहती, ‘इसके प्राण जल्दी कैसे निकलेंगे ? इसने कौन सा कम दु:ख दिए हैं। छह महीने हो गए चारपाई पर पड़े एड़ियां रगड़ते हुए। अच्छे कर्मो वाले देखते ही देखते अपनी राह पकड़ चलते बनते हैं। एक दिन भी किसी से मुंह में पानी नहीं डलवाते। इसने पता नहीं और कब तक नर्क-स्वर्ग भोगना है।’
सचमुच ही दादी के प्राण पता नहीं किस कोने में अटके पड़े थे। जीती हाल पूछ-पूछ कर, सर दबा-दबा कर, गोलियां दे-दे कर ऊब गई थी। अब तो उसकी खाँसी से भी नफरत होती। उसके बदबूदार कपड़े धोने को भी जी न चाहता। और अब उसे बिश्नो पंडिताइन की बातें - ‘बेटा! माँ-बाप तो रुत-रुत का मेवा हैं, बार-बार नहीं मिलते। जिसके घर वृद्ध माता-पिता हैं, उन्हें तीर्थ पर जाने की क्या ज़रू रत है’ आदि भी अच्छी न लगतीं।
दादी की तबीयत कई बार बिगड़ी और जीती ने कई बार ख़त लिख कर अपने पिता को बुलवाया था पर दादी हर बार बच जाती और इसीलिए अब जब दादी ने कहा, ‘बेटी, अपने पिता को खत डाल दे, अब मैं नहीं बचूंगी।’ तो उसने ज्यादा ध्यान न दिया और उसकी माँ ने भी कहा, ‘बेकार ही काम छुड़वा देती है। चंगी-भली तो है। बेकार ही खत मत लिखना।’ और जीती ने ख़त न लिखा।
दो-तीन दिन बाद एक दिन शाम को दादी ने पूछा - ‘अरी, तूने ख़त डाला भी है या नहीं ? मैं तो अब नहीं बचने वाली। रात को सपने में मुझे तेरा दादा दिखा था। मुर्दा देखना अच्छा नहीं होता।’
‘लो तुम्हें क्या होगा दादी, तू तो अच्छी भली है। मैंने सोचा पिता जी का काम क्यों छुड़वाया जाए और माँ भी ऐसा ही कह रही थी और ख़त तो मैंने डाला ही नहीं।’
‘तूने ख़त नहीं डाला ?’ कहकर दादी ने परेशान होकर जीती की तरफ ताका। फिर दादी कुछ न बोली। उस शाम दादी ने चाय भी नहीं पी, गोली भी नहीं ली। आधी रात को उसने जगाया और पानी मांगा और तड़के वह मर गई।

दादी गुज़र गई। जीती बहुत ही रोई। उसे बार-बार ख़याल आता, पता नहीं अंतिम समय में दादी का पिता जी से मिलने को कितना जी चाहा होगा। मैंने ख़त क्यों नहीं डाला? उसे अपनी माँ पर भी गुस्सा आता जो कहा करती थी कि यह कहाँ मरेगी? परंतु अब क्या हो सकता था? वह सोचती, मेरी दादी कितनी अच्छी थी। बेचारी सारा दिन कभी चरखा काता करती, कभी अटेरती, कभी झाड़ू लगाती, कभी बर्तन मांजती। ‘दादी! अब तुम कहाँ लौट कर आओगी? दादी, मुझे माफ क़र दे। मैंने तुम्हारे कहने पर भी पिता जी को ख़त नहीं डाला. दादी मैं बहुत बुरी हूँ।’
जब किसी वृद्धा को वह देखती, उसे अपनी दादी याद आ जाती और वह सोचती, ‘अगर मेरी दादी आ जाए तो मैं कभी खीझ कर नहीं बोलूंगी। माँ को भी उसके साथ न लड़ने दूंगी। मैं बहुत ही सेवा करूंगी।’ उसे बहुत पश्चाताप होता कि दादी के ज़िंदा रहते उसे यह खयाल क्यों नहीं आया कि दादी तो अब बस कुछ सालों की मेहमान है। किनारे खड़े वृक्ष की तरह। दादी उसे अब बहुत याद आती। दादी की छड़ी उसने संभाल कर रखी थी। दादी की मूँगों की माला को वह कई बार संदूक से निकाल कर देखती। दादी का घाघरा भी उसने जमादारनी को नहीं दिया था। दादी की मृत्यु का समाचार सुन कर उसके पिता आ गए थे। वे बहुत ही रोए थे। जीती को खुद पर बहुत गुस्सा आया कि उसने क्यों ख़त नहीं डाला। वह सोचती मैं आज पिताजी को ज़रूर बता दूंगी कि दादी ने ख़त डालने के लिए कहा था परंतु फिर सोचती, वे दु:खी होंगे कि मेरी माँ मुझसे मिलने के लिए तड़पते हुए मर गई। और फिर क्या पता, मुझसे वे नाराज़ हो जाएं कि मैंने ख़त क्यों नहीं लिखा? नहीं, भले ही वे कितना ही नाराज़ क्यों न हों, मैं उन्हें ज़रूर बता दूंगी, वह सोचती परंतु अपने पिता के सामने एक शब्द भी न बोल पाती।
जीती के पिता के आगमन की बात सुन कर पड़ोसी आए। एक वृध्दा जिसका दादी के साथ उठना-बैठना था, कहने लगी, ‘अरे बेटा, वह बस यही कहा करती थी कि बस एक बार बचन सिंह आ जाए, फिर बेशक उसी वक्त मर जाऊं ।’ जीती का पिता दहाड़ मार कर रो उठा। जीती के अपने अंदर तपिश सी महसूस हुई।
‘बेटा माता-पिता तो रुत-रुत का मेवा होते हैं, कमाई तो सारी उम्र करनी है। यदि कोई समझे तो माता-पिता सचमुच तीरथ होते हैं।’ एक पड़ोसन ने कहा।
‘क्या मालूम था कि इतनी जल्दी गुज़र जाएगी, नहीं तो मैं घर से बाहर कदम ही क्यों रखता? मैंने सोचा जीती बहुत ख़याल रखती है। मैं दो-चार दिन लगा ही आऊं।’
जीती को मानो किसी ने लहूलुहान कर दिया हो। उसका चेहरा उतर गया और वह बताते-बताते रह गई कि दादी ने.....
‘जीती पुत्तर, माँ आख़िरी वक्त में बहुत तड़पी होगी?’
‘नहीं पिताजी।’ जीती ने घबरा कर कहा।
जब भी वह पिता के चेहरे की तरफ देखती, उसे दया आ जाती। वह सोचती, ‘काश! मैंने ख़त डाल ही दिया होता।’
उसका पिता दादी की छोटी-छोटी चीज़ें ढूँढते रहता। दादी का अटेरन, उसकी अफीम की डिबिया, उसके हाथ का कड़ा, उसके कानों की मुरकियों को वह संभाल-संभाल रखता।
‘जीती, मां ने जाते वक्त कुछ कहा भी होगा?’ पिता ने कई बार पूछा।
जीती के दिल ने कहना चाहा कि वह आपको बुलाते-बुलाते गुज़र गई और मैंने ख़त भी नहीं लिखा, परंतु शब्द उसके गले में ही अटक गए और उसने इन्कार में सर हिला दिया।
‘जीती, कहीं तुम भी अपनी माँ की तरह घुड़कती तो नहीं थी?’ पिता ने पूछा।
‘पिताजी मैं...... ’ फिर वह रोने लगी।
‘बस चुप हो जा बेटी, मैंने तो ऐसे ही पूछा था। मुझे मालूम है, तू तो माँ का मुझसे भी ज़्यादा ध्यान रखती थी।’ पिता ने जीती को दुलारते हुए कहा।
जीती का मानो कलेजा चीर दिया गया हो। उसने सोचा, ‘नहीं.....नहीं.....मैं ज़रूर बता दूंगी।’
‘पिता जी, दादी......’ आगे वह कुछ भी न कह पाई। ‘रो मत जीती, कौन सा किसी के वश की बात है।’ पिता ने सोचा दादी को याद कर के रो रही है।
जीती का अंतर्मन लहूलुहान हो रहा था। गुनाह के अहसास से उसका दम घुट रहा था। दादी की सूरत उसकी ऑंखों के समक्ष से न हटती और वह निर्णय करती कि आज पिता जी को ज़रूर बता देगी परंतु रोज़ ही बताते-बताते वह रुक जाती।
उसकी माँ खीझ कर कहती, ‘बूढ़े-बुढ़ियां क्या ज़िंदगी भर बैठे रहते हैं? उसने एक दिन तो मरना ही था। काफी उम्र भोग ली थी उसने। देखो तो क्या पाखंड कर रही है। सारा दिन बुत्त बनी रहती है। न कोई काम करती है, न काज।’
माँ पर उसे बहुत ही गुस्सा आता और वह सोचती, उसने ही तो मुझे ख़त नहीं डालने दिया था। परंतु अब क्या हो सकता था।
‘पिता जी...’
‘हां बेटी....’
‘दादी क्यों मर गई?’ वह हमेशा बताते-बताते बात टाल जाती। वह मन ही मन बहुत दुखी थी। बहुत......
‘पिताजी दादी.... ’
‘बस पुत्तर, तू दादी को ज़्यादा याद मत किया कर। अब कौन सा वह लौट आएगी...’ उसके पिता बीच में ही टोक कर कहते।
वह चुप हो जाती और सोचती कि मैं कैसे बताऊं कि दादी.... आगे उसे शब्द न मिलते और वह रो कर कहती, ‘दादी तू क्यों चली गई, तूने क्यों मुझे ख़त लिखने के लिए कहा था? ’


साभार - वैचारिकी संकलन, मई 1997

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