सुस्वागतम्

"संस्कृति सेतु" पर पधारने हेतु आपका आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु'

शनिवार, जुलाई 01, 2017

कहानी श्रृंखला -15 (पाकिस्तानी पंजाबी कहानी - आवाज़ें - एजाज़

श्री एजाज़ रचित यह कहानी अक्षर पर्व पत्रिका के मई 2017  अंक में प्रकाशित हुई है।




आवाज़ें

                                   एजाज़

                                   अनुवाद - नीलम शर्मा अंशु


पहली आवाज़ –

हम रिफ्यूज़ी हैं परंतु यहाँ इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं है। यहाँ हम खुशहाल जीवन गुज़ारने आए थे। तब हमें यह थोड़े ही पता था कि यहाँ तो हमसे भी बदतर हालात है।

हम वापिस जा नहीं सकते, कम से कम मैं तो नहीं जा सकती। वैसे भी मैं अकेली कैसे लौट सकती हूँ। मुझे अपने घर से बाहर निकलने की मनाही थी, मैं दूसरी लड़कियों की भाँति कभी घर से बाहर नहीं निकली थी। हम तीनों बहनें आँगन में स्टापू, गीटे या किकली खेल लिया करते थे, मन बहला लिया करते थे। मुझे सबसे बड़ी होने के कारण माँ चशमे से पीने के पानी भरने के लिए रोज़ अपने साथ ले जाया करती थी। चशमे से घर तक का रास्ता, इससे ज़्यादा मुझे कुछ याद नहीं।


दूसरी आवाज़ –

यह किसी के साथ कोई बात नहीं करती। इसी तरह सहमी-सहमी, गुम-सुम और डरी-डरी रहती है हर पल। हम इसके मुँह से चीखें, विलाप या रूदन ही सुना है। अब यह बिलकुल ही न के बराबर बोलती है, मानो गूंगी हो। बड़ी गुणवाण महिला थी जी यह... घर को संभालने-सहेजने वाली। इसका शौहर यहाँ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था, बहुत ही शरीफ और सीधा-साधा व्यक्ति था वह। हँसमुख और मिलनसार। पिछले तीन बरसों में मैंने कभी उसके माथे पर त्योरी नहीं देखी थी। न ही गुस्से में उसे किसी के साथ ऊँची आवाज़ में बात करते सुना था।

इनके दो बेटे थे। छोटा इंजीनियरिंग कर रहा थ और बड़ा कहीं जॉब करता था। इन्होंने बड़े बेटे की शादी तय कर दी थी। इस शहर का तो आपको पता ही है, यहाँ हालत ख़राब होने में कौन सा वक्त लगता है। बस हम तो तड़-तड़ चलती गोलियों की आवाज़ें सुन इधर भागे....

प्रोफेसर साहब की लाश दरवाज़े में पड़ी थी। इनके दोनों बेटे अपने-अपने कमरों में चिरनिद्रा में विलीन पड़े थे। यह शायद वॉशरूम में थी या बेड के नीचे। यह बच गई। तब से इसकी यही हालत है। यह किसी के साथ बात कम ही करती है। मुँह से कुछ बोलती ही नहीं। बस चुपचाप सुनती रहती है। इनका मकान मालिक कहता है कि यह झंग के पास के किसी गाँव से है। इनका पंजाबी होने ने ही इन्हें मरवाया है।


तीसरी आवाज़ –

मेरा नाम मुहम्मद नसीर है। मैं लियारी से हूँ। मैं यहाँ भुट्टे बेचता हूँ। मैं पठान तो नहीं हूँ परंतु यहाँ ज़्यादातर लोग मुझे पठान ही समझते हैं। शुरु-शुरु में आप भी धोखा खा गए थे,है न, हा हा हा हा...... अक्सर ऐसा ही होता है। शायद इसलिए कि मैं खुद भी ऐसा हुलिया बनाए रखता हूँ। सलवार, कमीज़, वास्कट, पिशौरी टोपी और गुरगाबी। मैं यह पोशाक किसी को धोखे में रखने के लिए नहीं पहनता। यह मुझे बचपन से ही बहुत पसंद है इसलिए।


चौथी आवाज़ –

भाई साहब, यहाँ कोई भी सेफ नहीं है। हम यहाँ खुलकर अपनी भाषा भी नहीं बोल सकते। यहाँ पंजाबियों को न तो भाई लोग पसंद करते हैं और न ही पठान। यहाँ हर मुहल्ले में उनके अनेक मुखबिर हैं। आपकी एक-एक गतिविधि नोट करते हैं। कब जगते हैं, आपके सोने, काम-काज पर जाने-आने सब पर इनकी नज़र है।

यहाँ सेटल होने से पहले ही मेरे एन. जी. ओ. वालों ने  मुझे ताकीद की थी, अगर तुम्हें यहाँ रहना है, तब तो तुम्हें अपनी भाषा त्यागनी पड़ेगी। यहाँ पंजाबी का झंडा उठाए फिरने से बात नहीं बनेगी। यह पंजाब नहीं है, कराँची है भाई कराँची।


पाँचवी आवाज़ –

यहाँ हम रेहड़ी लगाने वालों को भी हफ्ता देना पड़ता है। भाई के साले रोज़ चक्कर लगाते हैं इधर का और पल-छिन में उड़ा ले जाते हैं हमारे दिन भर की कमाई। यहाँ लोगों ने दुकानों के सामने लोहे के केबिननुमा छज्जे बनवा रखे हैं। हम तो कैदी बन कर गए हैं बंद मकानों के भीतर। कुछ पता नहीं कि घर से निकलने के बाद वापिस लौटेंगे भी या नहीं।





(2)



पहली आवाज़ - 

नहीं....नहीं.....मैं नहीं छोड़ सकती, यह शहर। यहाँ मेरा शौहर दफ़न है। मेरी छोटी बेटी की कब्र भी यहाँ ही है। मैं किस तरह छोड़ सकती हूँ यह जगहजहाँ मेरे प्यारे सोये हुए हैं,  वैसे भी वहाँ कौन सा सकुन है?  वैसे मैं अब वापिस भी किसके लिए लौटूं ? माँ-बाप और छोटों को तो उड़ा दिया। दुश्मनों ने एक ही हमले में भी..... पहाड़ की चोटी पर बड़ी ही रीझ और शौक से बनाया इतना सुंदर घर मिनटों-सेकेंडों में जल कर ख़ाक हो गया। अब  आप यह बताएं कि मैं किस लिए वापिस जाऊँ?


दूसरी आवाज़ –

मुझे लग रहा है कि इसे ये बातें सुनकर गुस्सा चढ़ा रहता है और यह मुसल्सल दाँत पीसती रहती है। आगे भी जब यह गुस्से में हो तो इसी तरह दाँत पीसती रहती है लगातार। मुहल्ले के बच्चों के लिए तो यह एक खिलौना है। वे इसे छेड़ते हैं और आगे से ये जवाब देती है -
                    हमारी मुट्ठी में कितने दाने ?
                    किसने खाए......चिड़िया ने।
                    चिड़िया कहाँ बैठे.......पीपल पर।
पीपल किसने काटा ....... लोहार ने ।
लोहार की झोली में क्या......... टल्लियां।
ठाँय-ठाँय बंदूकां चल्लियां।
ठाँय-ठाँय बंदूकां चल्लियां।



तीसरी आवाज़

ये पठानों को अपना विरोधी समझते हैं। इन्हें लगता है कि मुल्क़ में आए दिन होने वाले बम धमाकों में इन्हीं का हाथ है। ये देशद्रोही हैं। इन्हें किसी की चढ़ी-उतरी से कोई मतलब नहीं। जितने नशीले पदार्थ यहाँ लियारी में बिकते हैं, यह सब इनकी देन है। मतलब के समय ये इंडियन्स के साथ भी साँठ-गाँठ कर लेते हैं। रोज़ नए से नया असलहा, पोस्त, चरस, भाँग, शराब ये ही बॉर्डर से इधर-उधर करते हैं। यहाँ कोई भी गड़बड़ी हो जाए, पुलसिए मुझे ज़रूर पक़ड़ेंगे। पहले-पहल तो बहुत मुश्किल होती थी, अब तो आदत हो गई है।

इधर अब ज़रा तब्दीली ज़रूर है कि एक-आध रात हवालात में गुज़ारने के बाद मेरी जान छूट ही जाती है क्योंकि शिनाख़्त कार्ड में मेरे पिता का नाम देखने के बाद कुछ ले-दे कर छुटकारा मिल जाता है। अब तो थाने वाले मेरे राज़दार रहो गए हैं। वे थोड़ी देर पूछ-पड़ताल के बाद खुद ही छोड़ देते हैं।


चौथी आवाज़ –

न जी न..... यह शहर अगर एक अलग सूबा बन गया तो क़यामत आ जाएगी। ये तो अभी ही जीने नहीं देते। जब पूरे सूबे में इनका ही राज हुआ तब तो रब जाने क्या क़यामत हो। ये तो इलेक्शन वाले दिन मृतकों, क़ैदियों और नाबालिगों के वोट डालने से नहीं झिझकते। अपने लीडर को खुद ही मरवा कर, फिर रोने-पीटने लगते हैं। अगर सूबा बन गया तो इस शहर पर क़यामत आ जाएगी.....क़यामत। फिर तो इन्हीं का राज होगा।


पांचवी आवाज़ –

हफ्ता लेने वाले हमारे पैसों से ही असलहा खरीद कर हमीं पर चला देते हैं। दु:ख तो इस बात का है कि ये मारते किसे हैं ? पता नहीं कौन से दुश्मन हैं जो इन्हें बढ़ावा देकर आगे कर देते हैं और खुद पीछे बैठ कर तमाशा देखते हैं। कितने अफ़सोस की बात है, मारने वाले भी मुसल्ले और मरने वाले भी.......अगर आज जिन्नाह ज़िंदा होता तो फूट-फूट कर रोता…… गधो, मैंने इसलिए यह मुल्क़ अंग्रेजों से आज़ाद नहीं करवाया था कि आप लोग आपस में ही लड़-लड़  मरते रहो।



(3)



पहली आवाज़ –

मुश्किलें तो बहुत हैं परंतु अब करें तो क्या करें ? वापिस लौटने की तो इच्छा नहीं है। यहाँ टिके रहने में वजूद है। बच्चे स्कूल जाते हैं तो बाद में चैन नहीं पड़ता। रब जाने सही सलामत घर लौट भी सकेंगे या नहीं...... मैं अक्सर सोचती हूँ। अगर मुझे कपड़े सिलने न  आते तो मैंतो मर ही जाती। साथ ही तीनों छोटे बच्चों कि भी भूखा मारती। यह तो शुक्र है कि मेरी स्वर्गवासी माँ मुझे हरेक घरेलू काम सिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी जो किसी भी गृहिणी के लिए सीखना ज़रूरी है।


दूसरी आवाज़ –

ठहरो.... मैं इसे बाहर छोड़ आऊं। यह न हो कि वह हमारी बातों से तंग आ कर बच्चों की भाँति हमारी भी पिटाई न कर दे। गुस्से में यह उलटी-सीधी हरकतें करती है। कई बार तो टट्टी-पेशाब भी कपड़ों में ही कर लेती है। फिर कपड़े उतार कर नग्न ही गली में घूमती रहती है। कभी-कभी जब ख़ामोशी का दौर टूटता है तो बहुत गंद बकती है, गालियां देते नहीं थकती, मुहल्ले के बच्चे, बड़े भी डरते हैं इससे। सॉरी, मैं इसे छोड़ कर आता हूँ। फिर हम खुल कर बातें करेंगे।



तीसरी आवाज़ –

मुझे मछलियों से बहुत सड़ांध आती है। यह बदबू भीतर तक समा जाती है। इस पार से मैंने अपना खानदानी पेशा छोड़कर ये भुट्टे बेचने का काम शुरु किया। इसमें मुश्किलें तो बहुत हैं। दिक्कतें तो मछलियाँ पकड़ने वाले काम में भी बहुत होती हैं। कितना अजीब सा लगता है कि आप शैदाईयों की तरह सारा-सारा दिन जाल फेंकते रहो, कब कोई मछली आपके हत्थे चढ़े और फिर........ भुट्टे जैसे- तैसे बिक ही जाते हैं। मछली बेचना जोखिम भरा काम है। इसमें जो बड़े व्यवसायी हमसे जुड़े हैं वे बहुत घपले करते हैं और जगह-जगह डंडी मारते हैं साले। ये सभी बाहर-भीतर एक जैसे हैं।



चौथी आवाज़ –

यहाँ किसी को मौत का डर नहीं है। यह तो एक होनी है जो  होकर रहेगी। यहाँ जिसका ज़ोर चलता है वही प्रधान है। आज आप हैं, कल कोई और है। सरकार अब यहाँ क्य़ा क्या करे?  जब यहाँ के लोग ही अमन नहीं चाहते।


अंतिम आवाज़ –

न जी न.....यह बात तो झूठ है कि यहाँ के बाशिंदे अमन नहीं चाहते। अमन तो सभी चाहते हैं परंतु यहाँ अमन इसी बात में है कि आप दिन-रात मेहनत करके कमाएं और फिर अपना सारा रुपया-पैसा हफ्ते की भेंट चढ़ा दे। यहाँ जीने का भी टैक्स चुकाना पड़ रहा है लोगों को। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको हथियार उठाना पड़ेगा। अब आप अगर हथियार नहीं उठाएंगे तो मुफ्त में बेगुनाह किसी दूसरे के हाथों मारे जाएंगे और अगर उठाएंगे तो रेंजर्स और पुलिस आपको नहीं छोड़ेगी।


0    0     0


आवाज़ें हैं कि आती जा रही हैं। पिता माँ को डाँट कर खुश हो रहा है, फूफी रसोई में बैठी रो रही है, दादी चापराई पर पड़ी बार-बार खाँसे जा रही  है। कोई बाहर का दरवाज़ा खोल रहा है, मुंडेर पर पखेरू उड़ान भर रहे हैं, तेजी से जा रही रेल की आवाज़ भी शामिल हो गई है। धीरे-धीरे कुछ अन्य आवाज़ें भी सर उठा रही हैं।




                               ०००००


लेखक परिचय
    एजाज़



जन्म 25 फरवरी 1990 खरड़ियां वाला लायलपुर (फ़ैसलाबाद) पाकिस्तान में। जन्मजात शायर। छोटी उम्र में ही साहित्य जगत को तीन पुस्तकें भेंट। उनकी रचनाएं दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं। अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित। सरकारी डिग्री कालेज गुजरखान रावलपिंडी में प्रोफेसर। ऑनलाइन पत्र अनहद के साथ-साथ पंजाबी में प्रकाशित पत्र कुकनुस का संपादन-प्रकाशन।






                                               अनुवादक परिचय 
   
    नीलम शर्मा अंशु


हिन्दी से पंजाबी,  पंजाबी, बांग्ला से हिन्दी में अनेक साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन। आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो इंडिया में रेडियो जॉकी।

 विशेष उल्लेखनीय -

सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित काबुलीवाले की बंगाली बीवी वर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। कोलकाता के रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास लाल बत्ती का हिन्दी अनुवाद। 

संप्रति केंद्रीय सरकार सेवा, दिल्ली में कार्यरत।   


                         साभार - अक्षर पर्व, मई 2017 

                                               





बुधवार, जून 07, 2017

कहानी श्रृंखला -14    

पाकिस्तानी पंजाबी कहानी    


माँस, मिट्टी और माया     


  ०   ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल


  अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु


प्रस्तुत कहानी भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिक नया ज्ञानोदय, जून 2017 में प्रकाशित।
                                   
     

माँस – नाखून से अलग हो चुके के लिए भी उसका लहू जोश क्यों मारता है?
      मिट्टी – जहाँ फिर कभी नहीं लौटना, ख़्वाबों में वहाँ क्यों घूमते रहते हो?
      माया – सुख सुविधाएं देती है तो फिर दु:ख भी क्यों देती हैं?
      यह सोचते हुए अख़्तर बीते दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ कहीं दूर निकल जाता है। यहाँ लंदन में आज से कई कई बरस पहले उसे अपने पिता की मृत्यु की ख़बर पूरे सात दिनों बाद मिली थी। परिवार वाले इस दुविधा में थे कि परदेस में रह रहे बेटे को इस बारे में बताया जाए या नहीं। बहुतों का विचार था कि इस बारे में उसे नहीं बताना चाहिए। परदेसियों का दिल बहुत भावुक होता है। कहीं यह दु:ख वह दिल को न लगा बैठे और कुछ लोगों का विचार था कि उससे कुछ नहीं छुपाया जाना चाहिए। पता तो उसे चलेगा ही, आज नहीं तो कल सही। तो, बेहतर यही है कि जो बात छुपाए नहीं छुपेगी वह बता ही देनी चाहिए पर एकदम सीधे नहीं। पहले बताया गया कि बूढ़ा बीमार है, फिर सख़्त बीमारी का समाचार मिला और उसके बाद मृत्यु का। इस प्रकार उसे पहले से ही कोई सदमा सहने के लिए तैयार रखा गया था।
एक ऐसी घटना जो कई दिन पहले घटित हो चुकी थी, परंतु कई दिनों के बाद बताया गया और मृत्यु की वास्तविक तारीख का पता और भी कई दिनों बाद चला। उसने कैलेंडर देख कर हिसाब लगाया कि भला उस दिन वह कहाँ था और क्या कर रहा था ?  दस अप्रैल, सोमवार जब उसका सारा परिवार मृत्यु शय्या पर पड़े पिता के पास बैठा हुआ था ठीक उसी वक्त वह खुद वर्कशॉप में ड्यूटी पर हाज़िर था। उस दिन उसका काम में मन नहीं लग रहा था। यह उसे आज भी याद है। सारा दिन एक नामालूम सी उदासी सी छाई रही थी। जब दिल बे-सबब अचानक ही उदास हो जाए तो यही समझा जाता है कि कोई बहुत शिद्दत से याद कर रहा है।
      अपने छोटे बेटे को पास न देख कर मरणासन्न पिता ने उसे याद किया था। शायद इसी लिए उस दिन वह उदास रहा था। कई दिनों बाद अख़्तर ने सोचा और फिर यह जानने के लिए अपने भाई को फोन किया कि पिता के अंतिम वाक्य क्या थे ? और उधर जब  भाई ने बताया कि  अंतिम समय में पिता ने तुम्हारा नाम लिया थातो कई दिनों तक रोक रखे आँसुओं का सैलाब आँखों से बह निकला था। उसने कई बार रोना चाहा था परंतु आँसू पलकों तक आ लौट जाते रहे। वह चाहता था कि कोई ऐसा महरम मिले जिसके साथ वह अपना दु:ख सांझा कर सके। किसी के गले लग कर रोए परंतु ऐसा कोई मिला नहीं था और अंतत: दीवार पर नज़र आ रहे अपने ही साये को दूसरा प्राणी मानकर उससे अपना दु:ख सांझा कर लिया और दीवार से सर टिका कर तब तक रोता रहा जब तक दिल का बोझ हल्का न हो गया। इसके अलावा और चारा भी क्या था ? इस परदेस में खुद के अलावा अपना और था भी कौन ? एकाकीपन के इस अहसास ने बाद में उसे कैथी से विवाह के लिए मजबूर किया। उसका दिल कहता कि दु:ख-सुख में भागीदार यहाँ कोई तो अपना हो।
      शोक के दिनों में अपने पिता को याद करते हुए अख़्तर ने वे दिन याद किए जब वह अभी दस बरस का ही था और उसके पाँव पर किसी साँप ने डस लिया था। घाव हो जाने के कारण वह कई महीनों तक चल-फिर न पाया। तब उसका पिता उसे कंधे पर बिठा कर इलाके के मांदरी के पास मरहम पट्टी करवाने के लिए पैदल ले जाता रहा। उनके पास उन दिनों कोई वाहन नहीं था।
      एक दिन बारिश में उन्हें जाते देख रहमे ने उसके पिता से कहा था, नूरे के यहाँ से साइकिल माँग लिया करो, रास्ता लंबा है और बेटा किशोर वय का।
      भला औलाद का भी कोई बोझ होता है रहमिया?’ रास्ते के कीचड़ में से कदम बढ़ाते हुए उसके पिता ने थके स्वर में कहा।
      उसके पिता को शरीकों से साइकिल माँगना अच्छा न लगता। बचपन से अवचेतन मन में घर कर गई इस घटना ने ही उसे अपने खानदान के बेहतर भविष्य की उम्मीद में युवावस्था में इंग्लैंड आने के लिए प्रेरित किया था।
      लंदन आकर जब उसने कुछ समय बाद कार खरीदने के लिए अपने भाई को रुपए भेजे तो उसके समक्ष घर के लिए वाहन खरीदने की आवश्यकता नहीं बल्कि पिता का अपना आत्म-सम्मान था। अपने पिता के कार में बैठे होने की कल्पना मात्र से ही उसका मन खुशी से झूम उठता। बाद में यह अफसोस खुशी से कहीं ज़्यादा बढ़ गया कि वह खुद तो पिता के कंधों पर सवार होकर घूमता रहा परंतु अंतिम समय में उसके जनाज़े को कांधा न दे सका।
      कैथरीन से शादी करते समय अख़्तर ने सोचा था कि उसका एकाकीपन समाप्त हो जाएगा। वह गोरी मेम तीन कमरों के एक फ्लैट में उसके साथ ही रहने लगी। संतान होने से पहले तक यह साथ सोश्यल कॉंन्ट्रैक्ट सा महसूस होता रहा। यह विवाह रिवायती सांझेदारी की बजाय उसे सामाजिक बंधन सा प्रतीत होता। शायद इसलिए भी कि ये रीति-रिवाजों के बिना ही रचाया गया था। विवाह एक निजी कार्य होते हुए भी तो पूर्णत: सामाजिक होता है। मर्यादा के पुष्प चुनने वाला कार्य। यह जिस्मों के मिलन का इजाज़तनामा ही नहीं होता बल्कि एक रिश्ते की शुरूआत भी होती है, जिससे कई और रिश्ते जन्म लेते हैं। यहाँ लंदन में जेठानी, बहू, ननद, भाभी जैसे ये सभी रिश्ते ही नदारद थे। शायद इस लिए भी कभी-कभी अख़्तर कैथी से आनंद नहीं बलकि बेचैनी सी महसूस करता। कैथरीन कई बार उसे अपनी बीवी नहीं बल्कि बेगानी औरत सी मालूम होती। उसने कैथरीन को कुलसुम कहना शुरू किया तो उसके दोस्त राजू ने कहा – तुम्हारा अपनी बीवी को देसी नाम से पुकारना अपनी तरफ से बेतुअल्की को मजबूत रिश्ते में बदलने की असंभव कोशिश है। यह रहस्योद्घाटन अख़्तर के लिए अजीब था। फिर बच्चे हो गए तो ये बेगानगी कम हो गई। कैथी बीवी के अलावा अब उसके बच्चों की माँ भी थी। यूँ एक रिश्ता बढ़ गया परंतु एकाकीपन ख़त्म न हुआ।
      बच्चों के बारे में भी कई बार ऐसा महसूस करता मानो उन्होंने ग़लत जगह जन्म ले लिया हो, कोयल के बच्चे कौवे के घोंसले में होने की भाँति। वह पिंकी, बॉबी और माणी के बारे में सोचता कि काश ये बच्चे उसके फूफी की बेटी से पैदा हुए होते, जो उसकी मंगेतर भी रही थी परंतु विलायत से उसके न लौटने के कारण अपने मौसी के बेटे से ब्याह दी गई थी।
      लंदन में जब उसका दिल उदास होता है, वह अपनी पुरानी अलबम निकाल कर बैठ जाता है जिसमें खानदान के सभी लोगों की तस्वीरें मौजूद हैं। बाद में अलबम में से कुछ तस्वीरें निकाल कर उसने फ्रेम करवा कर ड्रॉइंग रूम की दीवारों पर टांग दी थीं। इन तस्वीरों की मौजूदगी से ड्रॉइंग रूम में प्रवेश करते ही एकाकीपन का अहसास घर कर जाता है। अपनी बीवी और बच्चों को अलबम में मौजूद सभी तस्वीरों के साथ उनका रिश्ता कई बार बताया है परंतु इन अजनबी और बेजान शक्लों के साथ कोई रिश्ता क्यों और कैसे निभाया जा सकता है, वे नहीं जानते।
            उसकी कोशिशों के बावजूद उसके बीवी-बच्चे किसी भी तरह का कोई जुड़ाव या नातेदारी इन तस्वीरों वाले लोगों के साथ ज़ाहिर न कर सके। वे तो सिर्फ़ उससे प्यार करते हैं और उसके अलावा किसी अन्य रिश्ते से परिचित ही नहीं। अख़्तर अपनी बीवी कैथरीन और बच्चों को कई बार ड्रॉइंग रूम में टंगी तस्वीरों का मज़ाक उड़ाते देख चुका है। यह मज़ाक तस्वीरों का नहीं बल्कि उसके पुरखों का है, यह वह जानता है। शायद इस मज़ाक का सबब बन रही बेतुअल्लकी ने मिट्टी और मर्यादा की अजनबीयत से जन्म लिया है।
      बीवी और बच्चों को वह एक बार पंजाब भी ले गया था। अपनी तरफ से बेगानगी की हदें ख़त्म करने की यह उसकी नाकाम कोशिश थी। लंदन से लाहौर के बीच का फ़ासला तो उसने पाट दिया था परंतु दो पीढ़ियों के बीच मौजूद वक्त की खाई को वह कैसे भरता ?  वह खानदान के जीवित लोगों के साथ ही अपनी बीवी और नन्हें-मुन्ने बच्चों का परिचय करवा पाया था। मर चुके लोग अजनबी ही रह गए थे। ज़िंदा लोगों का मुर्दों के साथ क्या रिश्ता होता है, बच्चे नहीं जाना करते। इसलिए वापिस आकर भी ड्रॉइंग रूम में टंगी तस्वीरें उनके लिए अजनबी ही रही थीं। बाद में अख़्तर ने इस जन्मज़ात अजनबीयत और बेगानगी को बच्चों और अपना मुकद्दर मान कर कबूल कर लिया था।
            एकाकीपन के इन्हीं दिनों में उसका राजू से परिचय हुआ। अख़्तर जिस वर्कशॉप में काम करता था, राजू वहां टैक्सी रिपेयर करवाने आया था। राजू भी उसकी भाँति उखड़ा हुआ और एकाकीपन का शिकार था। पहली ही मुलाक़ात में वे दोस्त बन गए। राजू यहाँ लंदन में टैक्सी ड्राइवर था।
यार, सारा दिन अंग्रेजी बोल-बोल कर मुँह थक जाता है, अपनी भाषा तो साले अंग्रेजों को गाली देने के काम ही आती है, यहाँ तो अपनी ज़बान सुनने को भी तरस जाते हैँ। राजू को अर्से बाद कोई हमज़बां मिला था।
अपनी भाषा बोलने वाले जो लोग यहाँ हैं भी उनके पास मिल बैठने का वक़्त नहीं होता। वक़्त का बहाव यहाँ बहुत तेज़ है, जो दो घड़ी किसी के पास बैठना है उतनी देर में पाउंड कमाए जा सकते हैं। परदेस में अक्सर यही सोच होती है।
हाँ यार, अपनी भाषा से लगाव बहुत दु:खद होता है। अख़्तर ने आह भरते हुए कहा और फिर विभाजन के बाद लाहौर में रह गए एक गोरे साईमन का किस्सा सुनाने लगा।
उसका असली नाम साईमन था परंतु बच्चे उसे सांई मन्ना कहते थे। बिखरी हुई दाढ़ी और बढ़े हुए बालों वाला वह एक बूढ़ा अंग्रेज था। उसे यह नाम इतना जंचा कि लोगों को भी फिर सांई मन्ना ही याद रहा। विभाजन के बाद अकेला छूट गया साईमन वृक्षों के साथ अंग्रेजी बोलता रहता। वह किसी एक पेड़ के सामने जा खड़ा होता और बातें करने लगता। कभी धीमे स्वर में मानो सरगोशियां कर रहा हो तो कभी बहुत ऊँचे स्वर में बोलता मानो सामने कोई बहरा हो। उसे पता नहीं था कि पेड़ बहरे नहीं होते बल्कि गूंगे भी होते हैं। जब उसे सामने वाले का हुंगारा न मिलता तो वह पेड़ों के गले लग रोने लगता। पेड़ न तो सुनते थे और न ही बोलते थे और लोग सुनते थे परंतु बोलते नहीं थे। आम लोगों को साईमन की भाषा समझ नहीं आती थी जिन्हें उसकी भाषा आती थी उनके पास साईमन के साथ बैठकर उसकी भाषा में बात करने की फुर्सत नहीं थी।
पेड़ों के साथ बातें करने और उन्हें आलिंगन कर रोने के कारण साईमन को पागलखाने में भर्ती करवा दिया गया था। उसका इलाज पागलखाने में लगाए जाने वाले टीके नहीं बल्कि उसके साथ बोले जाने वाले दो मीठे बोल थे। यह किसी को नहीं सूझा। पागलखाने में तमाशा बनने लगा। सभी पागल मिल कर साईमन के गिर्द घेरा डाल लेते और उसे छेड़ते। वह अंग्रेजी में गालियां देता, पागल और भी ज़्यादा छेड़ते। साईमन चीखता और अपना सर पीट लेता। यह देख उसे घेरे खड़े पागल तालियां बजाने लगते, ज़ोर-ज़ोर से हँसते। कभी साईमन एकदम अकड़ कर खड़ा हो जाता और पागलों पर हुक्म चलाने लगता। पागल उसे सैल्यूट करने की बजाए यहां बजाओ जैसे इशारे करने लगते और वह ज़मीं पर बैठकर सर घुटनों में दे रोने लगता। यह तमाशा पागलों की कुशलक्षेम जानने आए रिश्तेदार भी देखते।  साईमन जो पागल नहीं भी था तो अब पागल हो गया था।
अन्य गोरों की भांति वह अपने देश क्यों नहीं लौट गया?’  राजू ने पूछा तो अख़्तर ने बताया, सैंतालीस के बाद जब अंग्रेज हिंद-पाक से जा रहे थे, साईमन को भी उन्होंने साथ ले जाना चाहा परंतु उसने इन्कार कर दिया। साईमन का कहना था कि लाहौर के गोरा कब्रिस्तान में उसकी पत्नी डायना और दो बच्चे एलिज़ाबेथ और बेंजामिन दफ़न हैं। वह यहाँ से नहीं जाएगा। मिट्टी और माँस का यह अजीब रिश्ता है। जहाँ आपका नाड़ू (नाभि नाल) दबा हो, वह भूमि आपको अपने शरीर का अंग प्रतीत होती है और जहाँ आपके प्रियजनों के शरीर दफ़न हों वह ख़ाक और धरती शरीर से भी आगे रूह का कोई हिस्सा प्रतीत होती है। इन्सान का ज़मीर माटी से है और रूह ज़मीर का ही दूसरा हिस्सा है परंतु जगह-जगह घूमने वाले व्यक्ति के मन से मिट्टी का मोह कभी का ख़त्म हो जाता है क्योंकि उन्हें माटी से नहीं, धन से प्यार होता है। यह आख़िरी बात कहते हुए अख़्तर के ध्यान में साईमन नहीं बलकि यहाँ लंदन में रहता एक दोस्त मनशा था।
ले भाई, याद रखना अगर मैं यहीँ मर गया तो मेरी लाश मेरे घरवालों तक पहुंचा देना। राजू ने अख़्तर को वसीयत की।
अख़्तर ने राजू की तरफ़ देखा। होठों पर मुस्कान के बावजूद आँखों में गहरी उदासी थी।
शादी के बाद कुछ समय तक पंजाब जाते वक्त अख़्तर ने कैथी को साथ ले जाना चाहा परंतु पाँव भारी होने के कारण डॉक्टर ने कैथी को सफ़र की मनाही की। पंजाब जाकर अख़्तर ने देखा कि गाँव में नियाई से नहर तक सारा रकबा उन लोगों ने ख़रीद लिया था। ऊँचा और खूबसूरत बंगला बनवा लिया गया था। घर वालों ने उसे लंदन लौट कर जल्दी ही और रुपए भाजने की ताकीद की ताकि नहर के पार वाला मुरब्बा खरीदा जा सके परंतु अपनी माटी में रह रहे रिश्तेदारों में से किसी ने भी उसके उस दु:ख और संताप के बारे में भी कुछ नहीं पूछा जिसे वह परदेस में रहकर दूसरी माटी पर भोग रहा था । तीन महीनों बाद लंदन लौटा तो कैथी के साथ अपने खेतों, फसलों, रुतों के रंगों और रिश्तेदारों के बारे में करने के लिए ढेरों बातें थीं परंतु कैथी ने इन सबमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
दूसरी बार जब  वह पंजाब गया तो कैथी और बच्चों को भी साथ ले गया। पिंकी तब सात बरस की थी और माणी अभी चलना सीख ही रहा था और बॉबी अभी गोद में था। कैथी और बच्चों से मिल कर सभी बहुत खुश हुए। पिंकी के बारे यह कहा  गया कि इसकी शक्ल अपनी फूफी के साथ मिलती है और बॉबी अपने मरहूम दादा पर गया है। हैरानी तो अख़्तर को तब हुई जब उसकी अपनी फूफी जो काफ़ी उम्रदराज़ थी और लगभग अंधी सी हो चुकी थी, ने माणी को गोद में लेकर उसके चेहरे को टटोल कर माणी की शक्ल उसके परदादा के साथ मिलती बताई। माणी को उसके अलग स्वभाव के कारण यहाँ सारे घर वाले उसे पक्का अंग्रेज कहते। वह किसी की गोदी में कम ही ठहरता था परंतु इस अंधी माई की गोद में सकुन से खेलता रहा। अख़्तर ने यह बात फूफी से कही तो फूफी ने कहा – अपने खून को खून पहचान ही लेता है।
इस निकटता और सांझेदारी के रहस्य को अख़्तर न जान सका परंतु पिछली पीढ़ी के साथ शक्लों के सामंजस्य से उसने यह परिणाम निकाला कि रिश्तों में कोई दूरी नहीं। यह अपनी जगह की सीमा से पार एक तुअल्लक होता है।
बरसों बाद जब अख़्तर को अपनी औलाद में शक्लों की समानता से भिन्न कोई गुण अपने पुरखों वाला नज़र नहीं आया तो उसने सोचा कि खानदान से जुड़े रहने के लिए बदन में दौड़ रहे लहू की सांझेदारी ही ज़रूरी नहीं होती बल्कि मिट्टी की सांझेदारी भी शायद ज़रूरी होती है।
उसे तयशुदा शेडयूल से पहले ही लंदन लौटना पड़ा था, बच्चों को पंजाब का मौसम रास नहीं आया था। उनकी माटी जो पराई थी, तो फिर मौसम भी पराया लगना ही था। लंदन में बच्चों के चेक-अप के दौरान डॉक्टर ने जब अख़्तर से कहा दिया कि चिंता वाली कोई बात नहीं, बस यूं ही ज़रा डस्ट अलर्जी हो गई थी तो अख़्तर बड़बड़ाया – यही तो असली चिंता है। अंग्रेज डॉक्टर उसकी बात समझ नहीं पाया था।
फिर राजू को बच्चों की इस बीमारी के बारे में बताते हुए अख़्तर पहले तो हँसा और फिर रोने लगा। हँसा वह इसलिए कि माटी से जन्में लोगों के बच्चों को भला धूल से क्या अलर्जी हो सकती है और रोया इसलिए कि अगली पीढ़ी का माटी और माँस से सदियों पुराना रिश्ता टूट रहा है बल्कि माटी और माँस को एक-दूसरे से ज़िद हो गई है। इसे वे माया का सितम कहें या करम, राजू और अख़्तर कोई फैसला न कर सके।
मनशे ने सुना तो वह बहुत खुश हुआ। उसने कहा – मुबारक हो। यह बीमारी नहीं है, पुरखों की बेख़बरी को लाँघ कर ऊँची संस्कृति की तरफ उठते बच्चों का पहला क़दम और उनकी कैमिस्ट्री बदल रही है।
शैतान का पुत्तर अख़्तर ने मन ही मन मनशे के मुँह पर थूक दिया था। मर्यादा का गद्दार और पुरखों का मज़ाक उड़ाने वाला मनशा उसे कभी भी पसंद नहीं आया था। एक ऐसा व्यक्ति जो न तो अपने खून को पहचान सका और न ही अपनी माटी की क़द्र  कर सका।  जो बहुत ही गर्व के साथ बताता कि अरब में एक बूढ़े बद्दू की बीवी ने एक बच्चा तुम्हारे मनशे यार का भी जना था।
पराये बर्तन में जामन लगाते हुए तुझे लाज नहीं आई?’ राजू ने एक बार उससे पूछा था।
नहीं बिलकुल नहीं और न ही मैंने कभी अरबों के बीच पल रहे अपने उस बच्चे के बारे में सोचा है। मनशे ने बेफ़िक्री से कहा था।
साउथ अफ्रीका की एक नीग्रो युवती ने मनशे से निक़ाह किया था। बाद में तीन बच्चियों और उस नीग्रो युवती को छोड़ खुद इंग्लैंड आ गया और फिर कभी उनकी ख़बर तक नहीं ली। मनशा अक्सर कहता, यह मिट्टी का मोह, मर्यादा क्या है मैं नहीं जानता मुझे तो बस मिट्टी, माँस और माया का पता है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में भी आदमी को पुरानी सीमा-रेखाओं में कैद नहीं रहना चाहिए।
अख़्तर और राजू मनशे को देख सोचते कि आदमी इतना बेफिक्र कैसे हो सकता है क्योंकि मनशे ने न कभी अपनी औलाद की परवाह की थी और न ही पीछे मौजूद खानदान की। वह जो भी कमाता, शराब या कोठों पर खर्च कर देता।
दुनिया कितनी भी ग्लोबल हो जाए यह ग्लोबलाइजेशन बाज़ार और माल तक ही सीमित रहेगा। अख़्तर ने राजू को समझाया। व्यक्ति अपनी अपनी संस्कृति, रहतल, बोली और व्यवहार में कभी ग्लोबल नहीं हो सकता। हर व्यक्ति की अपनी माटी होती है और हर माटी की अपनी मर्यादा और एक अलग वियोग। राजू देख, गाँव की छोटी सी बात हमारे लिए कितनी बड़ी ख़बर होती है। हम फोन पर यहाँ तक क्यों पूछ लेते हैं कि बूरी भैंस ने इस बार कट्टा जना या कट्टी। हमें यह जानने की बेसब्री क्यों होती है कि रोही(चिकनी मिट्टी) वाले निचले खेत में इस बार कौन सी फसल रोपी गई। आम के मौसम में हमें उस पर बौर लगने का इंतज़ार क्यों रहता है जिसे कभी अपने हाथों से रोपा होता है ?’ राजू के पास इन बातों का जवाब नहीं था। वह तो खुद यह सोच रहा था कि इंग्लैंड के एक ही तरह के मौसम में रहते हुए भी वह साल का देसी हिसाब क्यों नहीं भूला ? पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र और जन्म घुट्टी में मिले ऋतुओं के इस लेखे-जोखे को तो वह शायद परलोक में भी नहीं भूले। अख़्तर का गला भर्रा गया और राजू की आँखें नम हो गईं थीं।
राजू महीने में एक सप्ताहांत पर अख़्तर के घर ज़रूर आता। वह बच्चों से मिल कर अपना दु:ख दूर करता। राजू हर बार बच्चों के लिए कोई उपहार ज़रूर लाता था। एक बार वह पिंकी के लिए क्रोशिया सेट, धागों के गुच्छे और कशीदाकारी की कोई गाईड लेकर आया। उसने कहा कि यह उम्र पिंकी के सीखने की है। और फिर प्यार और गर्व से पिंकी के सर को पलोसते हुए कहा, हमारी बिटिया, अब मेज़पोश की झालरें काढ़ कर दिखाएगी। पिंकी ने तब भी नाक-भौं सिकोड़ी थी और दुबारा इन चीज़ों को हाथ भी न लगाया था।  माणी को उसने खूबसूरत रंगीन बांसुरी दी, परंतु माणी ने ज़िद करके अगली बार छोटी गिटार मंगवा ली। बॉबी को राजू ने बंदे दा पुत्तर बनाने का पूरा ज़ोर लगा दिया। बॉबी ऊधम मचाने, अड्डेबाजी करना और अपनी कलाई मुँह से जोड़ कर सीटी मारनी सीख गया था। राजू को बॉबी से मोह था और बॉबी को भी अपने अंकल से बहुत लगाव था। बॉबी अपने राज अंकल से लोक कथाएं सुनता। राजू और अख़्तर उसें पंजाब की लोक कहानियां सुनाते। इन कहानियों में पशुओं, जानवरों और वृक्षों के जब इन्सानों की भाँति बातें करते देखता तो अक्ल का पुतला बॉबी इन कहानियों को मानने से इन्कार करते हुए झूठ-झूठ कह कर शोर मचाने लगता। राजू और अख़्तर सफाई देते कि एक युग था जब वृक्ष, पशु और जानवर इन्सानों की भाँति ही बोला करते थे और इन्सान उनकी बातों को समझता था। आप मेरे युग की कहानी सुनाईए कहकर बॉबी चिल्लाता।
      जहां व्यक्ति व्यक्ति से बात नहीं करता, ऐसे मूक युग की वे क्या कहानी सुनाते, इसलिए वे चुप्पी मार जाते।
पशुओं और जानवरों के बीच किसी पशु बोली का वजूद तो मैं आज भी स्वीकार करता हूँ, परंतु इतिहास के किसी भी वर्ग में वृक्षों द्वारा बातें करने के विषय में मुझे इन्कार है। अख़्तर ने एक दिन राजू को अलग से बताया कि अगर वृक्ष बातें करते तो साईमन कभी पागल न हुआ होता।
फिर राजू एक सड़क दुर्घटना में मारा गया। उसकी वसीयत के अनुसार उसका शव उसके गाँव भेज दिया गया। साथ ही उसके द्वारा कमाई गई एक बड़ी राशि का बैंक ड्राफ्ट भी।  छनकती माया से भरी पोटली और सड़ गए मुर्दा माँस की पोटली एक ही हाथों से लेते हुए राजू के माता-पिता को कितना अजीब सा महसूस हुआ होगा। अख़्तर यह आज भी सोचता है। उसे राजू, मनशा और साईमन अक्सर याद आते हैं। राजू जिसने अपनी माटी को संवारने के लिए एक बेगानी धरती पर रहने का कष्ट झेला। राजू की अपने खानदान के प्रति कुर्बानी याद करके अख़्तर की आँखें नम हो जातीं। मनशा जो अपने खानदान, बच्चों और पत्नी को छोड़ आया था और साईमन जिसने अपने मृत बच्चों और बीवी के लिए अपना वतन त्याग दिया था।  अख़्तर के दिमाग में इन तीनों के अलग-अलग चित्र हैं।  राजू उसे दया से भरपूर कोई भगत या सन्यासी सा प्रतीत होता है। मनशा शैतान का एक रूप, घमंड और हवस का पुतला और साईमन मासूम चेहरा, पाक मुहब्बत का कोई बुत। पर कई सालों बाद अख़्तर ने जब मनशे को एडस् का शिकार होने के बारे सुना तो वह बहुत उदास हो गया था।
अख़्तर ने कई बार चाहा था कि पंजाब लौट जाए, परंतु कैथरीन ने उसका साथ नहीं दिया। वह अपना वतन छोड़ कर जाने को तैयार न हुई। उसकी युवा संतान ने भी कभी पीछे लौट जाने की ख्वाहिश ज़ाहिर नहीं की थी। संतान के मोह में वह भी नहीं गया। पिछली फेरी में अपनी माँ के निधन पर अख़्तर जब पंजाब जा रहा था तो उसने कुछ दिनों के लिए ही सही कैथरीन और बच्चों को साथ चलने के लिए कहा था परंतु उनकी इच्छा न देख उसने उन्हें मजबूर नहीं किया और वह अकेला ही चला गया था। इस बार उसने गाँव के स्कूल में हैंड पंप लगवाया। नियाईं वाली दो बीघा ज़मीन में बाग लगाने की नसीहत की।  माँ तथा पिता की कब्र के सिरहाने अपने हाथों से बेरी के पौधे लगाए।  दोनों कब्रों के पायताने से दो अंजुरी भर कर मिट्टी उठाई और उन्हीं कदमों से आँसू बहाता हुआ लंदन लौट आया। वह दो अंजुरी मिट्टी अब उसके बेडरूम के कार्नस पर पड़े एक गमले में रखी है। गमला खाली है, उसमें कोई पौधा नहीं रोपा। फिर भी फसलों के दोनों मौसम में इसके भीतर पंजाब के खेतों की मेढ़ों पर उगने वाले पौधे खुद ही उग आते हैं।
गमले की इस मिट्टी के बारे में अख़्तर ने वसीयत कर रखी है कि जब उसकी मृत्यु हो तो उसे कब्र में दफनाने से पहले यह मिट्टी नीचे बिखेर दी जाए। वह चाहता है कि मरने के बाद कम से कम मेरी देह को अपनी माटी पर होने का अहसास तो रहे।
पिछले दो सालों से उसका भाई अपने बेटे के लिए स्पॉन्सर वीज़ा भेजने के लिए कह रहा है, परंतु अख़्तर का दिल नहीं मानता। उसके भाई की यह भी इच्छा है कि बेटे को इंग्लैंड बुला कर पिंकी के साथ उसका निक़ाह पढ़वा दिया जाए। भाई की तरफ से वीज़ा भेजने का तकाज़ा बढ़ने पर अख़्तर ने भाई को फोन के बजाए ख़त द्वारा जवाब देना मुनासिब समझा। उसने कहा – मैं नहीं चाहता कि अपनी माटी और माँस से दूर रहने का संताप मेरे बाद भी कोई भोगे... मेरी औलाद ने हमेशा के लिए इंग्लैंड में रहने के फ़ैसला कर लिया है.... वीज़ा मैं नहीं भेजूंगा, मेरे हिस्से की जायदाद अपने बेटे के नाम कर दो। रही पिंकी के साथ उसके ब्याह की बात तो मैं पिंकी पर अपनी मर्ज़ी नहीं थोप सकता... यह इंग्लैंड है और अगर पंजाब भी होता तो मैं पिंकी की ख़्वाहिश का सम्मान करता।
अख़्तर जब खत पोस्ट करने जा रहा था तो रास्ते में उसने खुद से कई सवाल किए –
उसका यहाँ आना तक़दीर का सितम था या करम ?
दौलत कमाने का नशा क्या उसके लिए कोई सज़ा थी ?
उसने ये सारी तकलीफें क्यों सहीं ?
और क्या उसका जीवन बेकार गया ?
इन सभी सवालों का उसके पास एक ही जवाब था –
अपने लिए तो हर कोई जीता है। उसे खुद पर फख़्र है कि वह खानदान के लिए जिया।
अब अपने वतन वापस न जाने के फैसले पर अख़्तर को कोई अफसोस नहीं था।
किसी की ख़ातिर इतना जीवन गुज़र गया, वहीं वह किसी की ख़ातिर मर भी तो सकता है। यह सोचते हुए उदास सा वह मुस्करा उठा और इस वक्त उसे साईमन याद हो आया।
                    --------

            साभार - नया ज्ञानोदय, जून 2017



                                                                  

                           (1)    लेखक परिचय 
 
ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल

पाकिस्तान के पंजाबी रचनाकारों की चौथी पीढ़ी के लेखकों में महत्वपूर्ण लेखक। पूर्बी पंजाब (भारत) में भी बेहद लोकप्रिय। पाकिस्तान के सियालकोट में निवास।
संपर्क kahani.kaar@yahoo.com
                                               

                     

योगदान देने वाला व्यक्ति