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मंगलवार, जनवरी 31, 2023

कहानी श्रृंखला - 35 पाकिस्तानी पंजाबी कहानी - पुरखों से गिले शिकवे - एजाज़

 

पाकिस्तानी पंजाबी कहानी


                               पुरखों से गिले शिकवे


                                     

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  अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु

 


                दरवाज़े का पल्ला खुलते ही ताज़ी हवा का झोंका कमरे में आ जाता है। लोड शेडिंग के कारण कमरे में फैले अंधेरे और घुटन से ज़रा सी राहत मिलती है और वह दरवाज़े के अधखुले पल्लों से भीतर दाखिल हो रहे प्रकाश को आलिंगन में ले लेता है। सूर्य किरणों से आलिंगनबद्ध होते कमरे के होठों पर मुस्कान सी खिल जाती है। इसी दौरान एक अधेड़ महिला के मेंहदी रचे हाथ आगे बढ़ कर गली में खुलती खिड़की का पर्दा हटा कर खिड़की को खोल देते हैं। प्रकाश की कुछ किरणें खिड़की के बाहर गली में खुलती खिड़की के जालीदार पल्लों के छोटे-छोटे सुराखों से होकर सामने दीवार के पास रखी कुर्सी से होते हुए कमरे में रखी चारपाई के एक छोर से अंतिम छोर तक रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ती हैं। कमरे में इधर-उधर पड़ी वस्तुओं को मानो आँखें मिल जाती हैं।

सफेद रंग का जो पर्दा इस वक्त खिड़की के सामने लटक रहा है, उस पर कुछ नीले, पीले, हरे और भूरे रंग के पक्षियों की कुछ तस्वीरें और पेड़ बने हुए हैं। उन पक्षियों में से कुछ अपने पर खोल कर इधर-उधर उड़ान भर रहे हैं, कुछ पेड़ों की रुंड-मुंड टहनियों पर बैठे उड़ रहे पक्षियों को हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं।

कमरे में दीवार के साथ पड़ी पेटी के ऊपर दो बड़े-बड़े संदूक रखे हुए हैं जिनमें से एक पर 786 और दूसरे पर फौजी मकसूद अहमद लिखा हुआ है। उन दोनों बड़े संदूकों को ताले लगे हैं, जिन पर तेल  की मोटी तह जमी है। उनमें से एक संदूक पर काला और दूसरे पर खाकी रंग फिरा हुआ है। उन पर लिखी गई लिखावट सफेद रंग में और उन दोनों की कुंडियों से रंग उतरा हुआ है। उनके हैंडलों पर जंग की तह जमी दिखाई दे रही है।

पहली नज़र में कमरे की पिछली दीवार पर पुराने ज़माने का एक क्लॉक दिख रहा है जो काफ़ी समय से 12 बजा रहा है। और उसकी सुइयां पता नहीं कब से 12 पर रुकी हुई हैं। क्लॉक के दाहिने-बाएं दो काले रंग की सीनरियां टंगी हैं, जिनमें से दाहिने वाली पर या अल्लाह और दूसरी तरफ वाली पर या मुहम्मद लिखा है। उन दोनों सीनरियों क किनारों पर सितारों और मोतियों का सुंदर बॉर्डर बना हुआ है जिस में कहीं-कहीं फूल और पंछी बने हुए हैं। परे दूसरी दीवार पर कुछ सूफी बुजुर्गों की तस्वीरें लटकी दिख रही हैं। उनमें एक तस्वीर वह भी है जिस पर सूफी बुजुर्ग का चित्र बना हुआ है। उसके नीचे एक  महिला और एक बच्चा अपने दोनों हाथ फैला कर आसमां की तरफ देखते हुए दुआ माँग रहे हैं। इस तस्वीर के निचले हिस्से में दो अलग-अलग इबारतें लिखी हुई हैं :


लो ग्यारहवें वाले का नाम और डूबी हुई तर जाएगी

 

             पीरों के पैर, या गौस – ए – आज़म दस्तगीर

 

कमरे में जहाँ पेटी के सामने चारपाई पड़ी है, यह उनकी मृत्यु शैय्या थी। उन्होंने अंतिम दिन इसी कमरे में गुज़ारे, वहीं उन्होंने प्राण त्यागे थे।

वह..... सामने जहाँ काले रंग का टीन का पीपा रखा है, ठीक आज से चार सप्ताह पहले वहाँ चारपाई के अदवायन वाली तरफ एक बालटा रखा था, जिसके तले को गंदे-मंदे पानी ने ढक रखा था। इस बालटे के किनारों पर दो पैबंद लगे थे। इस चारपाई पर जो बुजुर्ग महिला लेटी थीं उनकी बाईं टाँग पर पलस्तर चढ़ा था और वे सबसे बेखब़र लगातार छत की तरफ ऐसे निहार रहीं थीं मानो वहाँ बैठा कोई शख्स उन्हें अपनी तरफ पुकार रहा हो। उनका अधखुला मुँह तथा हैरत से खुली आँखें देख कर देखने वाला ठिठक जाता कि क्या यह वही महिला है जिसने अपने शौहर की मृत्यु के बाद किसी को अपने सामने आँख नहीं उठाने दी थी। उसने महिला होकर भी मर्दों सा जीवन गुज़ारा।

साथ वाले कमरे से किसी बच्चे को रोने का स्वर सुनाई दे रहा था। बाहर हवेली में बंधे पशुओं से से कोई कट्टी (भैंस का मादा बच्चा) चिल्ला रही थी। भीतर चारपाई के गिर्द बैठी महिलाओं की अवाज़ें बीच-बीच में गड्ड-मड्ड हो रही थीं। उनमें से ज़्यादातर महिलाएं सूरा यामीन (यह सूरा कुरान का दिल माना जाता है, मुसलमानों का यकीन है कि जब कभी किसी मरने वाले व्यक्ति के प्राण न निकल रहे हों, तब इसकी तलावत की जाती है) की तलावत कर रही थीं जबकि एक तरफ बैठी दो हमउम्र औरतें सामने चारपाई की तरफ देखते हुए आपस में बातों में मशगूल थीं। चारपाई पर लेटी बुजुर्ग महिला की आँखें काफ़ी समय से छत पर गड़ी हुई थीं। वे सबसे बेखब़र चुप, गुमसुम, बेजान और लाचार सी पड़ी थीं।

कुछ सप्ताह पहले इसी कमरे में वह बुजुर्ग महिला जिनका अब कोई अस्तित्व नहीं है, कपड़े बदल रही थीं। कपड़े बदलते समय अचानक उन्हें कमरे की दीवारों पर दाहिने बाएं खून के छींटे दिखाई दिए। उनके सफेद दुपट्टे पर लहू रंगे दो हाथों की छाप थी। उन्हें किसी के बिना वजह खिलखिला कर हँसने और बाहर गली में खिड़की के पास किसी के होने का आभास हुआ। वे टकटकी लगाकर लगातार खिड़की से बाहर देख रहीं थीं, जहाँ कुछ क्षण पहले उन्हें किसी के साये का आभास हुआ था। वे हैरत भरी निगाहों से इधर-उधर देख रहीं थीं, अब वहाँ कोई भी नहीं था। यहीँ उन्हें ख़याल आया कि हो सकता है जिस साये की झलक उन्हें बाहर गली में दिखाई दी थी, यह सारी उसकी चाल हो। एकदम वे चीख उठीं - खून.......खून।

       उनकी चीख सुनते ही वह अधेड़ महिला जो थोड़ी देर पहले इस कमरे में आई थी, जिसने अभी कुछ क्षण पहले गली में खलुती खिड़की से पर्दा सरकाया था, वह एक छोटे बच्चे को गोद में लिए भीतर आई।

       क्या हुआ अम्मा?”

        खून.....खून।

       कहाँ.... कहाँ है खून?”

       वो... वो उस दीवार पर.... तुम्हें खून के छींटे नहीं दिखाई दे रहे? ये मेरे दुपट्टे पर खून सने हाथों की छाप वे अपना दुपट्टा उसे दिखाती हैं।

        परंतु अम्मा वहाँ तो किसी तरह का कोई हाथ नहीं, न ही दीवार पर कहीं खून के छींटें दिख रहे हैं। दीवार भी तुम्हारे सर के दुपट्टे की भाँति बिल्कुल साफ़ है। उसने उन्हें तसल्ली दी।

अरी, पता नहीं क्या हो गया तुम्हारी अक्ल को, मुझे तो अभी भी दिख रहे हैं खून के छींटे, देखो तुम। वे उंगली के इशारे से उसका ध्यान एक बार फिर दीवार की तरफ दिलाती है, जहाँ उन्हें खून के छींटे अभी भी दिख रहे थे।

      अम्मा कुछ भी नहीं है वहाँ, वहाँ खून के छींटे हैं ही नहीं। यह बस वैसे ही तुम्हारा वहम है।

       न.... क्या मतलब है तुम्हारा। अब मैं बुढ़ापे में झूठ बोलूंगी तुमसे?”

वह नाराज़गी का दिखावा करते हुए बड़-बड़ाते हुए आँगन में चारपाई पर आ बैठती है।

       रब जाने भीतर ही भीतर उनके दिमाग में एक ही वक्त में क्या कुछ चल रहा है। एक दुनिया उनके साथ साँस ले रही है, कुछ पंछी झाड़ियों में फंसे लगातार फडफड़ा रहे हैं। कुछ लोग वीरान और अनजान जगहों पर खड़े उसकी तरफ बाहें बढ़ाकर उन्हें अपनी तरफ बुलाते हुए इशारे करते हैं। वे चकित हैं कि वे चलती हैं तो वे सारे प्राणी भी उनके साथ चलते हैं।। इस दौरान अगर वे क्षण भर के लिए कहीं खड़ी हो जाती हैं तो वे भी वहीं पर रुक जाते हैं। उन में से कईयों के चेहरे उनके ज़ेहन में उतरे हुए हैं। सफेद बालों वाली बुजुर्ग औरत की शक्ल उनकी दादी से मिलती-जुलती है। उनमें से जिस व्यक्ति ने अपने सर पर बड़ा सा पग्गड़ बाँध रखा है, उसकी बड़ी-बड़ी मूँछे देख कर उन्हें अपने ससुर जी की याद हो आई थी। जबकि इस बड़े पग्गड़ वाले व्यक्ति और उनके ससुर की तस्वीर में उन्हें एक वाजिब फर्क़ ऩज़र आता है। इस व्यक्ति के दाहिने गाल पर मस्से का निशान दूर से स्पष्ट दिखाई दे रहा है, जबकि उनके ससुर जी के गाल पर ऐसा कोई भी निशान नहीं था।

       साँस लेते समय उनका सीना लगातार ऊपर नीचे हो रहा है। वे अपनी रगों में दौड़ रहे लहू और दिल की धड़कन को लगातार सुन रही हैं, जैसे कहीं किसी झाड़ी में कोई घायल पंछी तड़प रहा हो।

       अम्मा.... आपने बुलाया मुझे?” यह उनकी बहू की आवाज़ है।

       कुछ चाहिए तो बताईए। वह पूछती है।

       वे अपनी आँखें खोल कर ऊपर छत की तरफ देखते हुए आह भरती हैं। चारपाई पर झुकी महिला का चेहरा पहचानने की कोशिश में इधर-उधर आँखें घुमाती हैं।

       लाइए.... मैं आपके सर के नीचे एक और तकिया रख दूं। वह खुद ही आगे बढ़ कर उसके सर के गिर्द बाँह लपेटते हुए दूसरे हाथ से उनके सर के नीचे तकिया रख देती है। वह उनकी आँखों से कींचड़ को साफ़ करने के बाद अपना दाहिना हाथ पानी से भिगो कर उनके चेहरे पर फिराती है।

       क्या आपने मुझे बुलाया था?” वह पूछती है।

कुछ देर जवाब का इंतज़ार कर वह फिर से अपने दैनिक कार्यों में मशगूल हो जाती है।

उनके साथ पहले भी ऐसा ही होता रहा है। वे सोए-सोए पता नहीं क्या-क्या बड़बड़ाती रहती हैं। कोई राज़ है जो उन पर नहीं खुलता है, कोई शै उनके भीतर से बाहर निकलना चाहती है। एक फोड़ा है जो न फूटता है न रिसता है। भीतर ही भीतर कोई रोग है, जो घुन लगी लकड़ी की भाँति खाए जा रहा है।  सुबह-शाम, रात-दिन, एकांत उनकी हड्डियों को निचोड़े रखता है। इस दौरान उन्हें कई गुज़रे मंज़र अपनी आँखों के सामने नाचते दिखाई देते हैं। उनका बचपन, तरुणाई और बुढ़ापा घेर लेता है। कब के गुज़र चुके रिश्तेदार रोज़ मिलने आते हैं। वे अपने साथ लंबे सफ़र पर ले जाने की बात कहते हैं।

क..क..क्या.... अब मेरी बारी है?” वे पास बैठे अपने बेटे से पूछती हैं।

क्या कह रही हो अम्मा तुम.... मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आता। किसकी बारी की बात कर रही हो तुम?”

वे रोज़ मुझे लेने आते हैं। वे मुझे अपने साथ ले जाना चाहते हैं।

वे मुझे इशारों से अपने पास बुलाते हैं। वे बताती हैं।

ऐसे ही वहम है तुम्हारा। रात को कोई सपना देखा होगा तुमने।

थोड़ी ख़ामोशी के बाद.....

तुम अम्मा को अकेली मत छोड़ा करो...। वह परे बरामदे में रो रहे बच्चे को बहला रही अपनी बीवी से मुखातिब होता है।

आपा को बुला लेते हैं। मुझे घर का काम-काज भी करना होता है। आप आपा को फोन कीजिए। वह सुझाव देती है। मर्द कमरे से निकल कर घर से बाहर निकल जाता है।

 

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मैं तब पाँचवी में पढ़ती थी जब ब्याह कर इस घर में आई। मेरी शादी अचानक ही हुई। न मेंहदी, न ढोलकी बजी, न सखियों ने गीत छेड़े, न कोई सेहरा बाँध कर आया। न ही कुछ और। मैं अपने अब्बा जी के स्वाभिमान की बलि चढ़ी थी। पिछले दिनों मेरी बड़ी बहन के साथ जो घटित हुआ, उसने अब्बू को हिला कर रख दिया था। अब वे बाहर कम ही निकलते, घर में ही पड़े रहते, एकदम ख़ामोशी ओढ़ ली थी।

       आपा अगर ऐसा न करती तो शायद अभी कुछ और समय तक मेरी शादी की घटना न घटित होती। मेरी पढ़ाई-लिखाई अधूरी रह गई। उस बचकानी उम्र में मुझे थोड़े ही पता था शादी-ब्याह क्या बला है? मैं खुश होकर लाल जोड़ा पहन रही थी कि मेरी फूफी मुझे लेने आई हैं। फूफी के साथ उनका बड़ा दामाद, उनका जेठ, फूफी की बड़ी बेटी, छोटा बेटा सफ़दर और बड़ा बेटा (मेरा शौहर) भी थे।

       आपा की शादी मेरी सतियाने वाली मौसी के बेटे ख़ादिम से हुई थी। उनके दो बच्चे थे। ख़ादिम आपा की रोज़ मार-कुटाई करता रहा है। वह रोज़ पता नहीं कहाँ से भाँग पीकर आता था और फिर आपा को कमरे में ले जाकर धुनाई करता था। मैं भीतर आपा के रोने की आवाज़ें सुनकर मौसी की गोद में दुबक जाती थी, जहाँ मुझसे पहले ही आपा के दोनों बच्चे दुबके होते थे। मौसी आगे बढ़कर आपा को छुड़ा नहीं पाती थीं क्योंकि उनमें जान ही कितनी थी। वे रसोई में बैठी बड़बड़ती रहतीं –

       वे कुत्ते.... बस भी कर, तभी छोड़ेगा जब मर जाएगी। आ गया कमीना आज फिर पता नहीं कहाँ से सूअर का मूत पीकर। एक दिन का काम हो तो भी ठीक है। अरे मुए! छोड़ दे, छोड़ दे लड़की को मरजाणिया।

       उनकी एक भी बात का ख़ादिम पर कोई असर न होता, इस तरह उसे और गुस्सा चढ़ता। वह आपा को और पीटता। आपे से बाहर हो जाता। कई बार वह आपा को चोटी से पकड़ बाहर आँगन में धक्का दे देता। शुरू-शुरू में आस-पड़ोस से कोई न कोई आकर आपा को छ़ुड़ा देता। फिर तो जैसे सभी को साँप सूँघ गया हो। अगर मौसी ज़रा भी ऊँचा बोल उठतीं या आपा को छुड़ाने के लिए आगे बढ़तीं, वह उन्हें भी धक्का देकर परे फेंक देता। वे बेचारी सारी-सारी रात चूल्हे के पास बैठकर बूढ़ी हड्डियों की सिकाई करती रहतीं।

       माँ मुझे लेने गई तो हमें विदा करते समय आपा फूट-फूट कर रो पड़ी – माँ! मुझे भी यहाँ से ले चलो।

       लो पगली कहीं की..... अरी, क्या हो गया तेरी अक्ल को? कैसे बच्चों की भाँति फूट-फूट कर रो रही है। बेटी, औरत का असली घर तो वही होता है जहाँ वह ब्याह कर आती है। अब तू पीछे की फिक्र छोड़ दे बाबा। मैं ख़ादिम से कह दूंगी। वह ईद शबरात पर चक्कर लगा जाया करेगा, तू भी साथ आ जाया करना। तुझे पता तो है कि वह मेरी कोई बात नहीं टालता। मैं उसे कह दूंगी, तू इस तरह दिल छोटा मत कर मेरी बेटी।

       मैं खुद इस हक में थी कि आपा हमारे साथ ही चले परंतु पता नहीं क्यों मैं जो कहना चाह रही थी वह मेरे होठों पर आते-आते कहीं दम तोड़ गया था। मुझे आपा की फिक्र हो रही थी। मैं उसे अकेली रोते छोड़ जा रही थी। रह-रह कर मेरे कानों में उसकी चीखें, कुर्लाहट और रूदन शोर मचा रहे थे।

       उसके कुछ दिनों बाद हमें ख़बर मिली कि आपा वहाँ नहीं थी। हमारे लिए हैरानी की बात थी कि आपा वहाँ नहीं है तो कहाँ हैं? हमारे आँगन में खड़ीं बिरादरी की औरतें भाँति-भाँति की बातें कर रही थीं। माँ अपना सर पीट रही थीं-

       अरी, तू पैदा होते ही क्यों न मर गई। मेरे दूध को कलंकित कर दिया। कुतिया कम से कम मेरा तो ख़याल किया होता। सबसे लड़-झगड़ कर तेरी पसंद से शादी की थी। हाय, यह सुनने से पहले मैं मर क्यों न गई। हाय रब्बा, मुझे उठा ले। मुझे ज़मीन अपने में समा क्यों नहीं लेती?”

       मैं, गोगी और सीमा माँ की यह हालत देख कर डर गईं थीं। हम तीनों लगातार रोए जा रही थीं कि माँ को क्या हो गया। माँ की हालत हमसे देखी नहीं जा रही थी।

       होनी को शायद हमारा ही घर मिला था। कुछ दिनों के बाद फिर ऐसी ही एक और घटना घटी, जिसके बाद अब्बा जी ख़ामोश होकर बैठ गए। मेरे और गोगी के स्कूल जाने पर पाबंदी लग गई। अब हमारे खाने-पीने और उठने-बैठने पर दादी कड़ी  निगरानी करने लगीं। इस दौरान मेरी अध्यापिकाओं ने कई बार कई लड़कियों को हमारे घर भेजा कि मुझे स्कूल आना चाहिए। मैं पढ़ाई में दूसरी लड़कियों से अच्छी थी। शायद इसीलिए बार-बार लड़कियों को हमारे घर भेज रही थीं। परंतु अब्बा नहीं माने। इस दौरान दूसरों के कहने पर उन्होंने कई बार अपनी रज़ामंदी ज़ाहिर की परंतु चाचा बीच में  टपक पड़ा –

न हमें कौन सा लड़कियों से नौकरी करवानी है। जितना पढ़-लिख लिया काफ़ी है। आगे देखा नहीं बड़ी ने क्य़ा गुल खिलाया है? इसी दौरान एक-डेढ़ महीने बाद आपा पता नहीं कहाँ से धक्के-ठोकरें खाकर घर आ पहुँची। उसके अगले दिन अब्बा घर आई मेरी अध्यापिका के कहने पर मुझे तथा गोगी को स्कूल भेजने के लिए राज़ी हो गए। परंतु उनकी यह रज़ामंदी ज़्यादा दिन नहीं चली। बड़ी फूफी के कहने पर अब्बा मुझे उनके साथ विदा करने को राज़ी हो गए। तब अभी मैं लाल जोड़ा पहनकर चाची से मेक-अप करवाने बैठी ही थी कि अब्बा जी रोते-रोते मेरे पास आए और अपनी पगड़ी उतार कर मेरे कदमें में रख मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। रोते हुए वो मुझसे मुख़ातिब थे – पुत्तर, मेरी इज़्ज़त तेरे हाथ है, मेरी लाज रखना। मैं मजबूर हूँ बेटी। मैं और कर भी क्या सकता हूँ? बहन दर पर आई बैठी है, साथ में शौहर भी है उसका। तुम्हारे चाचा भी यही चाहते हैं, इन्कार मत करना।

       मैं बच्ची ज़रूर थी परंतु अब्बा का इस तरह सर से पगड़ी उतार कर मेरे कदमें में रख कर यह सब कहना, मैं बुझ गई थी। माँ रो रही थी। वे अब्बा, मेरी फूफी और चाचाओं को गालियां देती, उलटा-सुलटा बोले जा रही थीं। बददुआएं दे रही थीं जिन्होंने अब्बा जी को इतना मजबूर कर दिया था कि वे मुझसे तीन गुना बड़ी उम्र वाले फूफी के बड़े बेटे के साथ मुझे विदा कर रहे थे, जिसे देखकर मैं आकर रजाई में जा छुपती थी और आपा उसे काल डैमूं कह कर चिढ़ाती थीं।

       गोगी, माँ और सीमा लगातार रोए जा रहीं थीं। उस वक्त साथ वाले कमरे में वही काला डैमूं मेरा दूल्हा बना बैठा था। और इधर चाची के कमरे में सभी औरतें मुझे लाल जोड़ा पहनाकर एक दूसरे से सलाह में मशगूल थीं।

       अम्मा की पहले दिने से ही मेरे साथ बनी नहीं। मैं पूरे मुहल्ले और आँगन की दूसरी औरतों की भाँति उन्हें अम्मा ही कहती रही हूँ। वे कुछ तीखे स्वभाव की थीं, हर वक्त मुँह फुलाए चारपाई पर बैठी रहने वाली और स्वाभिमानी महिला। हमारे होते वे काम-काज को कम ही हाथ लगातीं। इस बारे वे खुद ही कहतीं –

       ज़िंदगी भर कम काम किया? अब यह नहीं संभालेगी तो क्या कोई बाहर वाला आकर संभालेगा? पहले बेटियां कर लेती थीं, अब बहू आ गई है। वे किसी दूसरे के सामने मेरी बुराई नहीं करती थीं बल्कि तारीफें करते न थकतीं। इस बात से मैं खुश भी थी, परंतु मेरी क्या मजाल कि उनके साथ यह खुशी साझा कर सकूं।

                अम्मा जी भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं। इसलिए मेरे अब्बा ही नहीं बाकी रिश्तेदार भी उनका कहा नहीं टालते थे। मेरा उनसे दोहरा रिश्ता था। एक तो वे मेरी फूफी थीं, दूसरे सासू। पहले रिश्ते में उनकी शख्सीयत की परतें मुझ पर कम ही खुली थीं क्योंकि वे हमारे यहाँ कम ही आया करती थीं। वेसे भी मेरी माँ उन्हें पसंद नहीं थीं। इसलिए वे हम माँ बेटियों की तुलना में अब्बा जी से ही ज़्यादा बात-चीत करती थीं। युवावस्था में शौहर के निधन के बाद जिस तरह मेहनत-मज़दूरी कर अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण किया, उसके लिए सभी रिश्तेदार उनकी सराहना और इज़्ज़त करते थे। वे दूसरों की तुलना में ज़्यादा बड़बोली थीं। मेरी छोटी फूफी मेरी शादी के बाद यहाँ आती-जाती रहीं हैं और उनके रूखेपन के विषय में कुछ यूं बताती थीं – अरे, ज़िंदगी में उसने बहुत दु:ख सहे हैं इसलिए उसके मुँह पर हमेशा गुस्सा और रोब तारी रहता है। देखो... अगर वह तुम्हें थोड़ा भी आलतू-फालतू कुछ कह दे तो जलते-भुनते मत रहना। एक कान से सुनना और दूसरे से निकाल देना। ऐसे ही पागलों की भाँति आठों पहर टर्राते रहना उसकी पुरानी आदत है।

अम्मा किसी से दब कर रहने वाली महिला नहीं थीं। उनके स्वभाव में मर्दानापन ज़्यादा था। वे औरतों की पोशाक कम ही पहनतीं। मेरे इस घर में आने से काफ़ी पहले वे गाँव में एक अजीब-ओ-गरीब चलते-फिरते बैंक के रूप में मशहूर थीं। पूरे मुहल्ले की औरतें उनके पास अपना रुपया-पैसा, बालियां, छल्ले, ज़रूरी सामान या खाने-पीने की वस्तुएं रख जाया करती थीं। कई तो कब्रिस्तान या किसी की मय्यत या शादी-ब्याह पर जाते समय अपने बच्चों को उनके पास छोड़ जाया करती थीं। उनका ऐसा बर्ताव देख कर कई बड़े घरों के ज्ञानी-ध्यानी लोग भी अपनी बेटियों के रिश्ते के बारे में उनसे सलाह-मश्वरा किया करते थे। वे सुबह ही गली में चारपाई डाल बैठ जाती थीं। उनकी निगाहें गली से गुज़र रहे हरेक की निगाहबानी करतीं। उनकी सहेलियां भी वहीं आ बैठतीं। वे घर आए किसी भी रिश्तेदार को खाली हाथ न जाने देती। वे मुझे उनके लिए चावल से बने लड्डू, घर में बनाई गई सेवइयां, लहसुन या कुछ और बाँध कर देने को कहतीं। वे गाँव की नई-पुरानी ख़बरों की एक दुकान थीं। उनके सीने में पता नहीं कितने घरों के राज़ दफ़न थे। जिस दिन वे बहुत थक जातीं या बीमार होतीं, नाइन को बुला भेजतीं। वह आते ही उनके पेट की मालिश करती, सर में तेल लगातीं, टाँगे और पैर दबाती। जाते वक्त उसे कुछ न कुछ ज़रूर देतीं।

अम्मा गुणों की खान थीं। दूध दुहना, औटाना, जमाना और मथना मैंने उन्हीं से सीखा। यही नहीं रोटी पकाना, चक्की पर आटा पीसना, कपास बीनना, सेवई बटना, स्वेटर बुनना जैसे कई काम भी मुझे उन्होंने सिखाए। एक तरफ जहाँ वे मुझे इतने सारे घरेलू काम सिखा रही थीं, वहीं मुझ पर ख़ासा रोब भी जमातीं, अक्सर डांटती रही हैं। कदम-कदम पर कई कामों से मुझे टोकतीं, यह नहीं खाना, यह नहीं पीना, ऐसे नहीं वैसे, उस तरह नहीं इस तरह। मैं कोई काम कर रही होती, उसमें अपनी टाँग ज़रूर अड़ातीं। मेरे हर काम में नुक्स निकालतीं।

पूरे मुहल्ले की औरतों में से अगर किसी को डॉक्टर, हकीम या किसी पीर-फकीर के डेरे पर हाज़िरी देने जाना होता, उन्हें ही साथ लेकर जातीं। लोगों को उन पर अपनों से भी ज़्यादा ऐतबार था। उनकी भी यही कोशिश होती कि वे लोगों के ऐतबार पर खरी उतरें। वे न तो किसी के साथ कोई ठगी करती थीं और न ही दूसरे को अपने साथ चतुराई करने देती। अगर किसी ने गलती से ऐसा कर दिया तो वे उसकी अच्छी ख़बर लेतीं। इसका अर्थ होता कि आगे से उस महिला का हमारे घर आना-जाना हमेशा के लिए बंद। कईयों को तो वे बिना सूद, बगैर किसी मुनाफे के कर्ज़ भी दे देतीं। इस मामले में वे इतनी कट्टर थीं कि वे जितने रुपए उधार देतीं तय वक्त वादे के मुताबिक ज़बरदस्ती वसूल भी कर लेततींत। उनका सारा हिसाब-किताब मौखिक ही होता था परंतु जो रुपए वे बिरादरी के लड़के-लड़कियों के शादी-ब्याह के निमंत्रण पर देतीं रहीं है उसे कॉपी पर लिखवाना न भूलतीं बल्कि बाद में घर आकर मुझसे कॉपी पर ज़रूर लिखवा लेतीं। 

मुझे अपने मायके जाना होता तो मेरी क्या मजाल कि मैं उनसे पूछे बिना ही चली जाऊँ। अगर कहीं मैं चली भी जाती तो वे मेरे शौहर से झगड़तीं, उसे डराए, धमकाए रखतीं। वापसी में उनकी नज़र उस पोटली पर होती जिसे देकर मेरी माँ मुझे विदा करतीं। अगर उसमें उनके लिए कुछ विशेष न होता तो वे बड़बड़ाते हुए बाहर निकल जातीं।

       जिस दिन वे मुझसे नाराज़ होतीं, खाना खाने से इन्कार कर देतीं। गुस्से में पता नहीं क्या बोलती रहतीं। इस दौरान अगर मैं या मेरा शौहर उन्हें खाने के लिए मना भी लेते तो वे कटोरी उठा कर दीवार पर फेंक मारतीं कि इस में नमक तेज़ था, मिर्च तो डाली ही नहीं।

       शुरू-शुरू में उनके इस आचरण से मैं जल्दी ही परेशान हो जाती, फिर मैं उनके इस स्वभाव की अभ्यस्त हो गई।

       मुझे अम्मा से हमेशा इस बात की शिक़ायत रही कि उन्होंने कभी भी मुझे दिल में वह जगह नहीं दी, जिससे मैं यह अंदाज़ा लगा सकती कि मैं उनकी मनभाती बहू हूँ भी या नहीं। वे हमेशा मुझ पर रोब झाड़तीं, मुझे दुखी करतीं। उनके इस आचरण से मैं अक्सर छुप-छुपा कर रो लेती रही हूँ परंतु इस बारे में मैंने किसी से पूछा ही नहीं कि वे मुझे पसंद भी करती हैं या नहीं।

       मेरी छोटी फूफी अम्मा की एक-एक गतिविधि से परिचित थीं। वे जब भी हमारे यहाँ आतीं, मेरा हौंसला बढ़ातीं। इस तरह मेरा भी हौंसला बढ़ता और मैं गुस्से में कही उनकी बातों को अनसुना कर देती। इस तरह चुप्पी के बाद वे खुद ही मुझे बुला लेतीं या फिर हुक्का देने के लिए कह देतीं। अपनी मृत्यु से कुछ पहले जब वे छत से गिरीं तो टाँग टूट गई। इस दौरान अपनी सेवा-सुश्रुषा देख एक दिन मुझे कहा –

       अरी, कहा-सुना माफ़ करना। मैं तुम्हें यूं ही डांटती रही हूँ। मेरी बेटी, मेरी यह बात पल्ले बाँध लेना, बच्चों को हमेशा डरा-धमका कर रखना चाहिए, नहीं तो वे बिगड़ जाते हैं।

       मैं हैरान थी कि मुझसे बात करते समय उनकी आँखें नम हो आई थीं। जब मैं उन्हें नित्यकर्म करवा कर चारपाई पर लिटा रही थी, उन्होंने स्वभाविक रूप से मेरा हाथ पकड़ लिया।

       मैंने उनके सामने सर झुकाया तो मेरे सर पर हाथ रखने से पहले ही दुपट्टे का पल्लू मुँह में दे आँखें बंद कर लीं। मैंने भी ख़ामोशी में ही अपनी भलाई समझी या फिर उस वक्त चुप रहना हम दोनों की मजबूरी थी।  


                                   
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                                       साभार - अक्षरा (मासिक) भोपाल, जनवरी, 2023

 

                                         

       

                          लेखक परिचय

          एजाज़



  जन्म – 25 फरवरी, 1990 लायलपुर के खरड़ियावालां (पाकिस्तान) में।   शायरी के तीन संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन लघु उपन्यास प्रकाशित    ऐसे युवा लेखक जो ऩज़्मों और कहानी दोनों विधाओं में पारंगत हैं।

  उनकी रचनाएं पूरबी और पश्चिमी दोनों पंजाबों में पढ़ी     और सराही जाती हैं। मसूद खद्दरपोश अवार्ड, महिकां                                    अदबी अवार्ड, राबा बीबी पंजाबी शायरी अवार्ड, बज्म                                     मूला शाह अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।

पंजाबी पत्रिका कुकनुस तथा ऑनलाइन पंजाबी पत्रिका अनहद का संपादन। 

 

संप्रति - सरकारी डिग्री कॉलेज गुज्जरखान, रावलपिंडी में पंजाबी के प्रोफेसर।

संपर्क – ijazali4060@gmail.com




कहानी श्रृंखला - 34 पाकिस्तानी पंजाबी कहानी - दादी : एजाज़

 पाकिस्तानी पंजाबी कहानी                                                       

                                    दादी 

                          

                   0  एजाज़


 

अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु

 

दादी की मृत्यु मेरे लिए किसी बड़े हादसे से कम न थी। उनका मुझसे स्नेह ही बहुत था, वे पल भर के लिए भी मुझे न बिसारती। यदि मैं घड़ी भर के लिए भी उनसे दूर हो जाता तो वे ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें देना शुरू कर देतीं – वे जजू.... जाजिया वे....पता नहीं किस गुफा में जा घुसा है। आज आ लेने दो इसके बाप कंजर को.... अगर इसकी धुनाई न करवाई तो कहना। वे हाथ में लाठी थामें, नाक पर मोटे शीशे वाली ऐनक टिकाए, अपनी कमर के पीछे हाथ रखे, दाहिने, बाएं मुझे ढूँढती हुई, इधर-उधर घूम रही होतीं।

दादी का मुझसे लगाव ही बहुत था। वे ज़रा भी मुझे अपनी निगाहों से दूर न होने देतीं। वे हमेशा मुझे अपनी आँखों के सामने देखना पसंद करतीं। मैं, माँ, बापू और परिवार के अन्य सदस्य उनके गर्म स्वभाव, कसैलेपन से बहुत डरते थे।  पूरे मुहल्ले की लड़कियां, औरतें तथा मर्द उनके स्वभाव के कसैलेपन और कड़वाहट से बहुत भय खाते थे। उनमें से कई तो आते-जाते उन्हें सामने से आता देख उनसे कन्नी काटते और रास्ता बदल कर चले जाते थे।  गाँव की दूसरी बिरादरी के लोग उनका आदर-सत्कार करते न थकते। वे अपनी बेटियों की शादियों पर दादी की सेवाएं लेते रहे हैं।  वे पड़ोसी गाँव के सुनार को जिसकी ज़मानत देतीं रहीं हैं, वह तुरंत उनके हुक्म का पालन करता।  वे उनको आषाढ़ी और सावनी फसलों के उधार पर अंगूठी, कंठहार, हार, माला, बालियां, नथ, पाजेबें बना कर देता रहा है। वे नित किसी न किसी की शादी का सामान या अन्य घरेलू सामान वगैरह खरीदने शहर जाती रहतीं थीं।  वे घर पर होतीं तो उनकी सहेलियों का आना-जाना लगा रहता। वे उन लोगों के बीच बैठी खिलखिलाती रहतीं, फूली न समातीं। चाय-पानी से उनका सत्कार करतीं, कोई कसर न छोड़तीं।  इस दौरान अगर मेरी माँ या छोटी फूफी ज़रा सी भी ढिलाई दिखातीं या देर करतीं तो वे बड़बड़ाते हुए, उनकी अच्छी तरह ख़बर ज़रूर लेतीं-

ज़रा सा काम क्या कहो, इन कमजातों के पेट में दर्द होने लगता है। पहले तो दोपहर तक सोकर नहीं उठतीं, अगर उठ भी जाएं तो कंबख्त काम को हाथ तक नहीं लगातीं। इतनी देर में तो हम चक्की पर आटा पीस-पीस कर ड्रम भर लेते थे। अब की औरतें तो किसी काम की नहीं, सड़ियल, काम चोर, चुड़ेलें, निपूतीं।

माँ दादी से बहुत डरती थीं। वे समय पर उनके हुक्के का पानी बदलतीं, उसे ताज़ा करतीं, और रोटी-पानी का प्रबंध करतीं ताकि दादी का दिल जीत कर उनके दिल में और जगह बना सकें। पर दादी जैसे उनसे खुश नहीं थीं। वे हमेशा मंदा बोलतीं, टर-टर करतीं, फिजूल बोलती रहतीं। माँ मन ही मन चिढ़ते हुए घर के सारे काम जल्दी-जल्दी निपटातीं। दादी उनके हर काम में कमियां ढूँढने बैठ जातीं। उनकी यह आदत थी कि वे काम चोर और कमसिन लड़कियों को समझाने की भाँति हर कदम पर मेरी माँ की अगवाई करतीं। वे उसे सलाहें देतीं, नसीहतें देते न थकतीं। माँ, जो उस वक्त अभी उतनी अनुभवीं नहीं थीं, दादी के हर कहे पर अमल करतीं, उनके मुँह से निकले हर वाक्य को पूरा करने के लिए जी-जान एक कर देतीं थीं। वे दादी और उनके हर काम की तारीफें करते न थकतीं। कुछ इसलिए भी कि घर में अमन और सकुन बरकरार रह सके। माँ को मेरे पिता से बहुत से शिकवे, शिकायतें और उलाहने थे। बापू दुकान की सारी आमदनी माँ की हथेली पर ला रखता था। फिर दादी अपनी इच्छानुसार ईद, शबरात पर माँ को एकाध नया सूट भी सिलवा कर देती रहती हैं।  दादी की तरफ से घर में सुर्खी, पाउडर, नेल पॉलिश और दूसरे मेक-अप के सामान के इस्तेमाल की सख़्त मनाही थीं। जहाँ तक मुझे याद आता है, मेरा बापू दादी से चोरी-चोरी तिब्बत की क्रीम की डिबिया या घमौड़ियों वाला पाउडर ज़रूर ला दिया करता था।

माँ दादी से छुपा कर हमारे बदन पर पाउडर भी मल देती रही हैं, जिसकी ठंडक से हमें बहुत सकुन और आनंद मिलता रहा है। मैंने अपनी माँ को नेल पॉलिश या सुर्खी लगाते कभी नहीं देखा। शायद उन्हें यह सब पसंद नहीं था या फिर वे दादी से बहुत ख़ौफ़ खाती रही होंगी। परंतु माँ हर दूसरे-तीसरे दिन दाँतों पर छाल (एक प्रकार की दातुन) ज़रूर मलती रही हैं। वैसे भी दाँतों पर छाल मलने से दादी ने उन्हें कभी रोका नहीं था और न ही कपड़ों पर इत्र की खुशबू से टोका था।

 दादी का निधन मेरे लिए आश्चर्य था। उन्होंने मरते समय न तो कोई वसीयत लिखवाई, न अपनी ज़मीन-जायदाद के बंटवारे के बारे में कोई लिखित हुक्मनामा। दादी गुज़रीं जैसे रोज़ आम लोग मरते हैं और उनकी मृत्यु की ख़बर एक गाँव से दूसरे गाँव तक का सफ़र तय नहीं कर पाती है। वैसे भी उसे एक न एक दिन तो मरना ही थी, मर गई। उनके जनाज़े में शामिल होने वालों में गाँव के लोगों और हमारे कुछ रिशतेदारों के अलावा प्राइमरी स्कूल के उस्तादों, छात्रों, राहगीरों, किसानों और जाट ज़मींदारों की भारी संख्या थी।

दादी को गुज़रे सातवां दिन था। उनके भोग पर आए रिश्तेदार मेरी ख़राब सेहत के कारण काफ़ी परेशान दिख रहे थे। उनमें से एक बड़ी उम्र की महिला जिन्हें माँ मौसी कहती हैं, वे मेरी माँ को कब्रिस्तान से दादी की कब्र की मिट्टी लाकर पानी में घोलकर मुझे पिलाने की बात कह रही थीं। उन सभी को मेरी बहुत फिक्र हो रही थी। उनके अनुसार मैं दादी से लगातार सात दिन दूर रह कर उदास हो गया था, इसलिए मेरा बुखार पहले से ज़्यादा हो गया था। मैं रजाई में माँ की गोद में लेटा लगातार काँप रहा था। माँ दर्द से फटे जा रहे मेरे सर को लगातार दबा रही थीं। वे मेरे मुर्झाए चेहरे और पीले पड़ते जा रहे रंग को देख कर बहुत दु:खी  हो रही थीं। वे बार-बार अपने हाथ में पकड़े अंगोछे को पानी में भिगो कर कभी मेरे सूखे होठों पर और कभी मेरे माथे पर धीरे-धीरे फिराते हुए रब से मेरी सेहतयाबी की दुआएं माँग रही थीं।

दादी को गए पूरे बारह दिन हो गए थे। घर में सभी को पता था कि वे गुज़र चुकी हैं। हम खुद उन्हें मन भर मिट्टी के नीचे दफना कर आए थे परंतु हैरानी की बात यह थी कि वे मुझे अभी भी ज्यों की त्यों नज़र आ रही थीं। जब माँ चूल्हे के पास बैठी मेरे लिए जोशानदे का काढ़ा बना रही थी, दादी अडोल ही मेरी चारपाई की अदवायन वाली तरफ बैठ मेरे पैरों की मालिश कर रही थीं। मुझे उस वक्त मानों किसी ने चारपाई के साथ ही कील दिया था। मुझे लगातार पसीना आ रहा था। मैं अपनी माँ को आवाज़ देना चाह रहा था और मेरी आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। दादी लगातार मेरे पैरों की मालिश कर रहीं थी और मैं उनसे इस तरह ख़ौफ़ खा रहा था मानो वे कोई जिन्न, भूत, चुड़ैल या डायन हों।

      माँ समझ रही थीं कि मेरा बुखार ठीक हो रहा है। वे मेरे माथे से पसीना पोंछती, कब्रिस्तान से लाई मिट्टी ज़बरदस्ती मुझे पीने के लिए उकसा रही थीं। मैं, जो बालपन में मिट्टी या गाजनी (एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिससे लिखने वाली तख्ती पोती जाती है।) खाने का अभ्यस्त रहा हूँ, मुझे वह दादी की कब्र की मिट्टी घुला पानी पीना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे उबकाई आ रही थी, मन ख़राब हो रहा था। माँ मुझे शहद चटा रही थीं।

      मैं दादी की कब्र खोदे जाने के समय कब्रिस्तान में ही था। जब उन्हें मन भर मिट्टी में दफनाया जा रहा था, तब भी मैं वहीं था। मैंने खुद अपने छोटे-छोटे हाथों से उसकी कब्र पर दो-चार अंजुली मिट्टी डाली थी। हम सब हैरान थे कि दादी को कितनी सुंदर जगह मिली है। उनके कहे अनुसार उनकी कब्र उनके लाडले पुत्तर और दादा जी की कब्र के नज़दीक खोदी गई थी। मैं ही नहीं, मेरे दाहिने बाएं खड़े सभी जाने और अन्जाने व्यक्ति भी दादी को इतनी अच्छी जगह सुपुर्द-ए-ख़ाक करके बहुत निश्चिंत दिखाई दे रहे थे, जैसे उन्होंने अपने सर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया हो।

      दादी की कब्र से सिरहाने की तरफ उनका ख़ाविंद दफ़न था और उनके पैरों की तरफ मेरा छोटा चाचा।

      दादी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी कब्र की यह जगह निर्धारित कर ली थी, इसलिए उनके कहे अनुसार ही किया गया। शायद उन्हें अपनी मृत्यु की ख़बर पहले से ही थी, तभी तो उन्होंने पूरे चार साल पहले ही अपने लिए बढ़िया कफ़न खरीद रखा था। यही नहीं उन्होंने अपनी मृत्यु से काफ़ी पहले ही अपनी देह को नहलाने के लिए कान तिब्बत साबुन की एक डिबिया, कपूर की तीन छोटी-छोटी टिकियां और दो इत्र की शीशियां भी सहेज रखीं थीं।  कफ़न की कलमे वाली चादर भी उन्होंने ईरान-इराक की ज़ियारत पर गई अपनी एक सहेली से मंगवा रखी थी। उनका कहना था कि यह चादर उनकी सहेली ने इमाम हुसैन (रज़ी.) के रौज़े के पास की एक दुकान से उनके लिए खरीदी थी। उनकी अम्मा ज़ोहरा (रज़ी.) (हज़रत मुहम्मद की बेटी) में बेहद आस्था थी। इसीलिए तो वे हर जुम्मेरात को उनके नाम का नियाज़ देती रही हैं। अपनी मृत्यु से चार दिन पहले वे इस बाबत मेरी माँ से कह रही थीं कि उनके बाद कभी भी दस बीबियों की कहानी, मौला मुश्किल कुशा अली (रज़ी.) का चढ़ावा और ग्यरहवीं शरीफ़ का ख़त्म दिवाना न भूलें। दादी अपनी मृत्यु की रात घर की चाबियां और अपनी गुथली मेरी माँ को सौंपते हुए हिदायतें दे रहीं थीं –

अरी!  कहा-सुना माफ़ करना। आज से घर की चाबियां तुम्हारे हवाले। यह मेरी गुथली भी संभाल लेना।  पैणो की इस पर नज़र थी परंतु मैंने सीने से लगाए रखी है।  इस कंबख्त ने अस्पताल में मेरे बालियां उतार लीं। मेरी बेटी, तू उससे वे बालियां लेकर मुझे नहलाने वाली को दे देना। फिर वे मेरे बापू को नसीहतें देने लगीं :

      पुत्तर! मैं तुझसे कहती रही हूँ, तू ज़मीन अपने नाम करवा ले, परंतु तूने मेरी एक न सुनी। मेरे भोले पुत्तर देखना कल को तेरी बहनें तुझे जीने नहीं देंगी। ये अब ज़िंदगी भर तेरी जान खाती रहेंगी (वे अपनी बेटियों को कोसते हुए मेरे बापू से मुखातिब थीं) बच्चों का ख़याल रखना। बड़े को मारना-पीटना मत, मेरा अच्छा पुत्तर।

अम्मा कल को तुम्हारे पोते-पोतियों को ब्याहने के समय किससे रिश्ता जोड़े?” यह मेरी माँ की आवाज़ थी।

अरी! मेरी यह बात पल्ले बाँध लो, बेटियां फूफियों के घर न ब्याहना। बड़ी वाली के यहाँ तो बिलकुल नहीं। उसका हमारा मेल नहीं बनता। छोटी अगर रिश्ता दे तो ले लेना। उसे भी बेटी मत देना, बिलकुल नहीं। वे मेरी माँ को सख़्त हिदायत दे रहीं थीं।

हम सब खुश थे कि वे इतने दिनों बाद होश में थीं। वे पास बैठे सदस्यों को अच्छी तरह पहचान रहीं थीं। वे उनसे बातों में लगी हुई थीं। उन्होंने मुझे और छोटी को अपने पास बुलाया, हमारे सर पर प्यार देते हुए हमें समय पर स्कूल जाने और आपा रीशमे के पास सपारा पढ़ने जाने की हिदायत दी। फिर उन्होंने अपने खीसे में हाथ डाला, जिसमें हमेशा हम दोनों भाई-बहनों के खाने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर होता था। हम ही नहीं दादी भी फिक्रमंद थी, उनकी जेब बिलकुल खाली थी। एक क्षण के लिए उनको ऐसा लगा जैसे उनका दाना-पानी ख़त्म हो गया हो।

उस वक्त उनकी आँखों में बेबसी के आँसू थे।

दादी को पढ़ना-लिखना नहीं आता था, परंतु वे हम सभी को सुबह-सुबह नमाज़ पढ़ने के लिए ज़रूर उठा दिया करती थीं। हम उनकी अगवाई में आपा रीशमे के घर कुरआन मजीद पढ़ने के लिए एक अरसा जाते रहे हैं। वे रोज़ों के दौरान कमोबेश दस कुरआन शरीफ़ पढ़ कर अपने पुरखों की रूहों की बख्शती रही हैं। हम चकित हो जाते थे कि वे इतनी जल्दी पूरा कुरआन-ए पाक पढ़ कैसे लेती हैं। यह तो हमें बहुत बाद में जाकर पता चला कि उन्हें तो कुरआन पढ़ना भी नहीं आता था। वे उसकी हर पंक्ति पर बिस्मिल्लाह शरीफ़ का जप करते हुए उंगलियां फिराती जाती थीं। जब हमें उनकी इस बात का पता चला तो हम भी बीच-बीच में ऐसा ही करते। जब हमें अपना सपारा पूरा करना होता, हम दादी वाला तरीका अपनाते। इस तरह पहले-पहले न सिर्फ़ आपा रीशमे और हमारी अम्मी हमारे इस तरह जल्दी-जल्दी सपारा ख़त्म करने पर हैरान होती रही हैं, बल्कि वे अपनी इस हैरानी को आपस में एक-दूसरे से साझा भी करती रही हैं। उन्हें इस तरह अपने बारे में बातें करते सुन हम भी अपने आप में खुश हो जाते थे जैसे हमने कोई बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो।

उस रात में घबरा कर उठा, दादी मेरे सिरहाने खड़ी थी। तब, जब मैं जूती पैरों में डाल गुसल के लिए जा रहा था। वे ड्योढ़ी में भैंसों के पास खड़ी लगातार मुझे देख रहीं थीं। वे मुझे अपनी जेब से गिरियों वाले गुड़ की ढेली दिखा रही थीं।

दादी के सारे काम निराले थे। उन्हें गिनती बिना शक बीस तक ही आती थी, परंतु वे रुपए-पैसे के मामले में बड़ी हिसाबी-किताबी थीं। वे मर्दों की भाँति एक-एक रुपए का हिसाब-किताब रखती रही हैं।  उनकी जमा तफ़रीक हम सबकी समझ से परे हुआ करती थी। वे किलो को सेर, एकड़ को किल्ला, छाबे (रोटी रखने की छोटी टोकरी) को चंगेर, रोटी को फुल्का, सलवार को सुथ्थण, कमीज़ को झग्गा, कुश्ती को बीड़ी.... उनके सब सफ़री पैमाने उनके भाँति कई बरस पुराने थे – करम, मुरब्बे, कोह, मेल वगैरह वगैरह...।

दादी वैसे तो अपने कपड़ों को खुद ही टाँका-टांकी कर लेती रही हैं परंतु अपने नए कपड़े दर्जिन को सिलने के लिए देते समय वे बहुत चिंतित दिखाई देती रही हैं। वे मर्दों की भाँति अपनी कमीज़ के साइड में दोनों तरफ जेबें रखवाती रही हैं, जिनमें वे पैसा धेला, गुड़ की ढेली या सिगरेट की डिब्बी रखा करती थीं। उनका खीसा हर वक्त चनों, मखानों और टॉफियों से भरा रहता। वे अपनी गुथली और घर की चाबियां हमेशा अपने सीने से लगाए रखतीं।  इस तरह उनकी गुथली तक घर में किसी की पहुँच संभव ही नहीं थी।  दादी सिगरेट कम ही पीती थीं, बिलकुल न के बराबर। ज़्यादातर वे हुक्का ही पीती रही हैं। परंतु हाँ, किसी मजबूरी में जब हुक्का तपा हुआ न मिलता या मेरी माँ किसी दूसरे काम में व्यस्त होतीं तो वे बड़बड़ाते हुए अपनी साइड पॉकेट से सिगरेट की डिब्बी निकाल कर उसमें से एक सिगरेट सुलगा लेतीं। जब वे सिगरेट पी रही होतीं, मैं उनके पास कम ही जाता था। हाँ, हुक्का पीते वक्त मैं उनकी गोद में बैठा उनसे पहेलियां और कहानियां सुनता रहा हूँ। वे मुझे बादशाहों, राजाओ-महाराजाओं, शहज़ादियों, जिन्नों, भूतों, परियों, चुड़ैलों और जानवरों की कहानियां अक्सर ही सुनाती थीं।  उनकी कहानियां ख़त्म होने में नहीं आती थीं, जिन्हें सुनते-सुनते मैं अक्सर ही सो जाया करता था।  मेरा ही नहीं मेरी छोटी बहन का हाल भी कुछ ऐसा ही था।  इधर दादी रुक-रुक कर अपनी कहानी सुना रही होतीं, उधर हम नींद के आगोश में पड़े मज़ा ले रहे होते।

दादी ने अपनी मृत्यु पता नहीं खुद ही निश्चित कर ली थी या फिर उन्होंने वक्त के झरोखे से देख लिया था कि बस अब और नहीं।

रात आधी से ज़्यादा ही गुज़र चुकी थीं। मैं गुसल से आकर ड्योढ़ी की तरफ जा रहा था, जहाँ अभी भी दादी खड़ी थीं। वे गुड़ की ढेली मुझे दिखाते हुए अपने पीछे-पीछे चलने का इशारा कर रही थीं। मैं कुछ सोचे समझे बिना इधर-उधर देखते हुए तुरंत उनकी तरफ बढ़ रहा था। तब, जब में आँगन में सोए सदस्यों की तरफ अंतिम निगाह मार रहा था, वे सभी आँगन में दूर छप्पर के नीचे बंधे जानवरों की भाँति गहरी नींद सो रहे थे जिनमें हमारे दोनों भैंसें, चारों बकरियां और बड़ी ईद की कुर्बानी के लिए पला भेड़ का बच्चा भी शामिल था। जबकि बाहरी दरवाज़े के पास अपनी टाँगों में सर दिए गुच्छा-मुच्छा सा हो सिकुड़ा पड़ा हमारा पालतू कुत्ता उस वक्त दरवाज़े के कुंडी की ज़रा सी आवाज़ से जग गया था। उसने अचानक उठते हुए पहले ज़रा गुस्से से एक सरसरी नज़र मेरी तरफ मारी। जब उसे इस बात का पुष्टि हो गई कि मैं कोई अजनबी नहीं, बल्कि  घर का ही हूँ तो वह खामोश रहा। मुझे पहचानने के बाद पहले तो वह वहीं खामोश पड़ा रहा, फिर कुछ देर बाद वह अपने पैरों से धरती खुरचने लगा। आधी रात को उसके पास से होते हुए मैंने बाहरी दरवाज़ा खुला छोड़ घर की दहलीज़ लांघी तो वह भी धीरे-धीरे मेरे पीछे-पीछे हो लिया।

दादी मेरे आगे-आगे तेज़ कदमों से बाहर खेतों की तरफ जा रही थी। मैंने उन्हें इससे पहले कभी इतनी तीव्र गति से चलते नहीं देखा था क्योंकि वे इतनी भारी और मोटी थीं कि उनसे जल्दी-जल्दी नहीं चला जाता था। वे हमेशा धीमे-धीमे मध्यम चाल से आस-पास के घरों में आया-जाया करती थीं। गाँव से निकलते ही वे कब्रिस्तान वाली पगडंडी पर हो लीं। मैं जो दिन के वक्त भी उधर से कम ही निकलता था, आधी रात को घुप्प अंधेरे में निश्चिंत हो कर दादी के एक इशारे पर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था।  मेरा सारा डर शायद दादी की अगवाई के कारण हवा हो गया था। वे अभी भी मुझसे अच्छे-खासे फासले पर थीं। घर से निकलने से लेकर जाटों के खाल वाली पगडंडी पर हमारा यह फासला उसी तरह बरकरार रहा। मैं दौड़ कर भी अपने और दादी के बीच की इस दूरी को कम नहीं कर पा रहा था। फिर पता नहीं इस ख़ामोशी में एक खंगूरे की आवाज़ ने हमारे बीच की इस दूरी को और भी बढ़ा दिया।

 मैंने दूर से अपने हाथों में लालटेन पकड़े एक साये को अडोल अपनी तरफ बढ़ता देखा। ख़ौफ़ की एक लहर तुरंत मुझ पर हावी हो रही थी। मैं पसीने से तरबतर होता जा रहा था। मैं चीख कर उलटे कदमों से वहाँ से भागने ही वाला था कि उस विशाल साये ने आगे बढ़ कर मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। मैं जिस व्यक्ति से डर रहा था, वह हमारे ही मुहल्ले के जाटों का लड़का था। उसके पूछने पर मैं उसे बता रहा था कि मैं आधी रात को अपनी दादी के साथ इधर आया हूँ। वह मेरी उंगली की सीध में देख रहा था, जहाँ अंधेरा ही अंधेरा था, या फिर खाल के पास लंबं-लंबे नीलगिरी और कीकर के पेड़ों के बीच में फैला हमारे गाँव के पासवाला कब्रिस्तान नज़र आ रहा था। मुझे यह बात समझ नहीं आ रही थी कि दादी जो कुछ देर पहले मेरी अगवाई कर रही थी, अब वे वहाँ कहीं नहीं थीं। अब वे कहाँ थीं यही तो मुझे समझ नहीं आ रहा था। मुझे उनकी यह चाल बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। वे पहले भी मेरे आस-पास दूसरों की मौजूदगी होने पर गायब हो जाती रही हैं। वे अपनी मृत्यु के बाद घर में केवल मुझे ही दिखाई दे रही थीं। मै जब भी उनकी मौजूदगी के बारे में किसी को बताता था वे इसे मेरा वहम मान कर टाल देते रहे हैं। मैं उनके इस रवैये से यकीनन नाखुश ही नहीं निराश भी था।

मेरे घर पहुँचने पर बापू जाटों के लड़के का धन्यवाद करते हुए मेरी माँ को डाँट रहा था। वह उसे बेसुध गहरी नींद सोई को जगा कर जो-सो बोल रहा था –

न... अगर लड़के को कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता? कुतिया बुढ़िया कहीं की..... पता नहीं किस बदकिस्मती से यह मेरे भाग्य में लिखी गई। इतना बेसुध होकर सोती है बेशक छत गिर पड़े, इसकी आँख नहीं खुलती। कमजात औरत।

बापू बड़बड़ाता हुआ मेरी माँ को लगातार कोसे जा रहा था और माँ मेरे सर के बालों में हाथ फिराते हुए बार-बार मेरा माथा चूम रही थी।

 

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        लेखक परिचय

  एजाज़



जन्म – 25 फरवरी, 1990 लायलपुर के खरड़ियावालां (पाकिस्तान) में। 

शायरी के तीन संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन लघु उपन्यास प्रकाशित 

ऐसे युवा लेखक जो ऩज़्मों और कहानी दोनों विधाओं में पारंगत हैं।

 

उनकी रचनाएं पूरबी और पश्चिमी दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं।मसूद खद्दरपोश अवार्ड, महिकां अदबी अवार्ड, 

राबा बीबी पंजाबी शायरी अवार्ड, बज्म मूला शाह अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।  

पंजाबी पत्रिका कुकनुस तथा ऑनलाइन पंजाबी पत्रिका अनहद का संपादन। 

 

संप्रति - सरकारी डिग्री कॉलेज गुज्जरखान, रावलपिंडी में पंजाबी के प्रोफेसर।

संपर्क – ijazali4060@gmail.com


                          साभार - अभिनव इमरोज़ (मासिक) दिल्ली, दिसंबर, 2022

                                 ----                                                                                                                                                                  

                                         
                                                                                                                                                                                                                       
                                                                                                                                    
                                                                                                                            
                                                                                          


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