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मंगलवार, जनवरी 31, 2023

कहानी श्रृंखला - 34 पाकिस्तानी पंजाबी कहानी - दादी : एजाज़

 पाकिस्तानी पंजाबी कहानी                                                       

                                    दादी 

                          

                   0  एजाज़


 

अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु

 

दादी की मृत्यु मेरे लिए किसी बड़े हादसे से कम न थी। उनका मुझसे स्नेह ही बहुत था, वे पल भर के लिए भी मुझे न बिसारती। यदि मैं घड़ी भर के लिए भी उनसे दूर हो जाता तो वे ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें देना शुरू कर देतीं – वे जजू.... जाजिया वे....पता नहीं किस गुफा में जा घुसा है। आज आ लेने दो इसके बाप कंजर को.... अगर इसकी धुनाई न करवाई तो कहना। वे हाथ में लाठी थामें, नाक पर मोटे शीशे वाली ऐनक टिकाए, अपनी कमर के पीछे हाथ रखे, दाहिने, बाएं मुझे ढूँढती हुई, इधर-उधर घूम रही होतीं।

दादी का मुझसे लगाव ही बहुत था। वे ज़रा भी मुझे अपनी निगाहों से दूर न होने देतीं। वे हमेशा मुझे अपनी आँखों के सामने देखना पसंद करतीं। मैं, माँ, बापू और परिवार के अन्य सदस्य उनके गर्म स्वभाव, कसैलेपन से बहुत डरते थे।  पूरे मुहल्ले की लड़कियां, औरतें तथा मर्द उनके स्वभाव के कसैलेपन और कड़वाहट से बहुत भय खाते थे। उनमें से कई तो आते-जाते उन्हें सामने से आता देख उनसे कन्नी काटते और रास्ता बदल कर चले जाते थे।  गाँव की दूसरी बिरादरी के लोग उनका आदर-सत्कार करते न थकते। वे अपनी बेटियों की शादियों पर दादी की सेवाएं लेते रहे हैं।  वे पड़ोसी गाँव के सुनार को जिसकी ज़मानत देतीं रहीं हैं, वह तुरंत उनके हुक्म का पालन करता।  वे उनको आषाढ़ी और सावनी फसलों के उधार पर अंगूठी, कंठहार, हार, माला, बालियां, नथ, पाजेबें बना कर देता रहा है। वे नित किसी न किसी की शादी का सामान या अन्य घरेलू सामान वगैरह खरीदने शहर जाती रहतीं थीं।  वे घर पर होतीं तो उनकी सहेलियों का आना-जाना लगा रहता। वे उन लोगों के बीच बैठी खिलखिलाती रहतीं, फूली न समातीं। चाय-पानी से उनका सत्कार करतीं, कोई कसर न छोड़तीं।  इस दौरान अगर मेरी माँ या छोटी फूफी ज़रा सी भी ढिलाई दिखातीं या देर करतीं तो वे बड़बड़ाते हुए, उनकी अच्छी तरह ख़बर ज़रूर लेतीं-

ज़रा सा काम क्या कहो, इन कमजातों के पेट में दर्द होने लगता है। पहले तो दोपहर तक सोकर नहीं उठतीं, अगर उठ भी जाएं तो कंबख्त काम को हाथ तक नहीं लगातीं। इतनी देर में तो हम चक्की पर आटा पीस-पीस कर ड्रम भर लेते थे। अब की औरतें तो किसी काम की नहीं, सड़ियल, काम चोर, चुड़ेलें, निपूतीं।

माँ दादी से बहुत डरती थीं। वे समय पर उनके हुक्के का पानी बदलतीं, उसे ताज़ा करतीं, और रोटी-पानी का प्रबंध करतीं ताकि दादी का दिल जीत कर उनके दिल में और जगह बना सकें। पर दादी जैसे उनसे खुश नहीं थीं। वे हमेशा मंदा बोलतीं, टर-टर करतीं, फिजूल बोलती रहतीं। माँ मन ही मन चिढ़ते हुए घर के सारे काम जल्दी-जल्दी निपटातीं। दादी उनके हर काम में कमियां ढूँढने बैठ जातीं। उनकी यह आदत थी कि वे काम चोर और कमसिन लड़कियों को समझाने की भाँति हर कदम पर मेरी माँ की अगवाई करतीं। वे उसे सलाहें देतीं, नसीहतें देते न थकतीं। माँ, जो उस वक्त अभी उतनी अनुभवीं नहीं थीं, दादी के हर कहे पर अमल करतीं, उनके मुँह से निकले हर वाक्य को पूरा करने के लिए जी-जान एक कर देतीं थीं। वे दादी और उनके हर काम की तारीफें करते न थकतीं। कुछ इसलिए भी कि घर में अमन और सकुन बरकरार रह सके। माँ को मेरे पिता से बहुत से शिकवे, शिकायतें और उलाहने थे। बापू दुकान की सारी आमदनी माँ की हथेली पर ला रखता था। फिर दादी अपनी इच्छानुसार ईद, शबरात पर माँ को एकाध नया सूट भी सिलवा कर देती रहती हैं।  दादी की तरफ से घर में सुर्खी, पाउडर, नेल पॉलिश और दूसरे मेक-अप के सामान के इस्तेमाल की सख़्त मनाही थीं। जहाँ तक मुझे याद आता है, मेरा बापू दादी से चोरी-चोरी तिब्बत की क्रीम की डिबिया या घमौड़ियों वाला पाउडर ज़रूर ला दिया करता था।

माँ दादी से छुपा कर हमारे बदन पर पाउडर भी मल देती रही हैं, जिसकी ठंडक से हमें बहुत सकुन और आनंद मिलता रहा है। मैंने अपनी माँ को नेल पॉलिश या सुर्खी लगाते कभी नहीं देखा। शायद उन्हें यह सब पसंद नहीं था या फिर वे दादी से बहुत ख़ौफ़ खाती रही होंगी। परंतु माँ हर दूसरे-तीसरे दिन दाँतों पर छाल (एक प्रकार की दातुन) ज़रूर मलती रही हैं। वैसे भी दाँतों पर छाल मलने से दादी ने उन्हें कभी रोका नहीं था और न ही कपड़ों पर इत्र की खुशबू से टोका था।

 दादी का निधन मेरे लिए आश्चर्य था। उन्होंने मरते समय न तो कोई वसीयत लिखवाई, न अपनी ज़मीन-जायदाद के बंटवारे के बारे में कोई लिखित हुक्मनामा। दादी गुज़रीं जैसे रोज़ आम लोग मरते हैं और उनकी मृत्यु की ख़बर एक गाँव से दूसरे गाँव तक का सफ़र तय नहीं कर पाती है। वैसे भी उसे एक न एक दिन तो मरना ही थी, मर गई। उनके जनाज़े में शामिल होने वालों में गाँव के लोगों और हमारे कुछ रिशतेदारों के अलावा प्राइमरी स्कूल के उस्तादों, छात्रों, राहगीरों, किसानों और जाट ज़मींदारों की भारी संख्या थी।

दादी को गुज़रे सातवां दिन था। उनके भोग पर आए रिश्तेदार मेरी ख़राब सेहत के कारण काफ़ी परेशान दिख रहे थे। उनमें से एक बड़ी उम्र की महिला जिन्हें माँ मौसी कहती हैं, वे मेरी माँ को कब्रिस्तान से दादी की कब्र की मिट्टी लाकर पानी में घोलकर मुझे पिलाने की बात कह रही थीं। उन सभी को मेरी बहुत फिक्र हो रही थी। उनके अनुसार मैं दादी से लगातार सात दिन दूर रह कर उदास हो गया था, इसलिए मेरा बुखार पहले से ज़्यादा हो गया था। मैं रजाई में माँ की गोद में लेटा लगातार काँप रहा था। माँ दर्द से फटे जा रहे मेरे सर को लगातार दबा रही थीं। वे मेरे मुर्झाए चेहरे और पीले पड़ते जा रहे रंग को देख कर बहुत दु:खी  हो रही थीं। वे बार-बार अपने हाथ में पकड़े अंगोछे को पानी में भिगो कर कभी मेरे सूखे होठों पर और कभी मेरे माथे पर धीरे-धीरे फिराते हुए रब से मेरी सेहतयाबी की दुआएं माँग रही थीं।

दादी को गए पूरे बारह दिन हो गए थे। घर में सभी को पता था कि वे गुज़र चुकी हैं। हम खुद उन्हें मन भर मिट्टी के नीचे दफना कर आए थे परंतु हैरानी की बात यह थी कि वे मुझे अभी भी ज्यों की त्यों नज़र आ रही थीं। जब माँ चूल्हे के पास बैठी मेरे लिए जोशानदे का काढ़ा बना रही थी, दादी अडोल ही मेरी चारपाई की अदवायन वाली तरफ बैठ मेरे पैरों की मालिश कर रही थीं। मुझे उस वक्त मानों किसी ने चारपाई के साथ ही कील दिया था। मुझे लगातार पसीना आ रहा था। मैं अपनी माँ को आवाज़ देना चाह रहा था और मेरी आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। दादी लगातार मेरे पैरों की मालिश कर रहीं थी और मैं उनसे इस तरह ख़ौफ़ खा रहा था मानो वे कोई जिन्न, भूत, चुड़ैल या डायन हों।

      माँ समझ रही थीं कि मेरा बुखार ठीक हो रहा है। वे मेरे माथे से पसीना पोंछती, कब्रिस्तान से लाई मिट्टी ज़बरदस्ती मुझे पीने के लिए उकसा रही थीं। मैं, जो बालपन में मिट्टी या गाजनी (एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिससे लिखने वाली तख्ती पोती जाती है।) खाने का अभ्यस्त रहा हूँ, मुझे वह दादी की कब्र की मिट्टी घुला पानी पीना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे उबकाई आ रही थी, मन ख़राब हो रहा था। माँ मुझे शहद चटा रही थीं।

      मैं दादी की कब्र खोदे जाने के समय कब्रिस्तान में ही था। जब उन्हें मन भर मिट्टी में दफनाया जा रहा था, तब भी मैं वहीं था। मैंने खुद अपने छोटे-छोटे हाथों से उसकी कब्र पर दो-चार अंजुली मिट्टी डाली थी। हम सब हैरान थे कि दादी को कितनी सुंदर जगह मिली है। उनके कहे अनुसार उनकी कब्र उनके लाडले पुत्तर और दादा जी की कब्र के नज़दीक खोदी गई थी। मैं ही नहीं, मेरे दाहिने बाएं खड़े सभी जाने और अन्जाने व्यक्ति भी दादी को इतनी अच्छी जगह सुपुर्द-ए-ख़ाक करके बहुत निश्चिंत दिखाई दे रहे थे, जैसे उन्होंने अपने सर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया हो।

      दादी की कब्र से सिरहाने की तरफ उनका ख़ाविंद दफ़न था और उनके पैरों की तरफ मेरा छोटा चाचा।

      दादी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी कब्र की यह जगह निर्धारित कर ली थी, इसलिए उनके कहे अनुसार ही किया गया। शायद उन्हें अपनी मृत्यु की ख़बर पहले से ही थी, तभी तो उन्होंने पूरे चार साल पहले ही अपने लिए बढ़िया कफ़न खरीद रखा था। यही नहीं उन्होंने अपनी मृत्यु से काफ़ी पहले ही अपनी देह को नहलाने के लिए कान तिब्बत साबुन की एक डिबिया, कपूर की तीन छोटी-छोटी टिकियां और दो इत्र की शीशियां भी सहेज रखीं थीं।  कफ़न की कलमे वाली चादर भी उन्होंने ईरान-इराक की ज़ियारत पर गई अपनी एक सहेली से मंगवा रखी थी। उनका कहना था कि यह चादर उनकी सहेली ने इमाम हुसैन (रज़ी.) के रौज़े के पास की एक दुकान से उनके लिए खरीदी थी। उनकी अम्मा ज़ोहरा (रज़ी.) (हज़रत मुहम्मद की बेटी) में बेहद आस्था थी। इसीलिए तो वे हर जुम्मेरात को उनके नाम का नियाज़ देती रही हैं। अपनी मृत्यु से चार दिन पहले वे इस बाबत मेरी माँ से कह रही थीं कि उनके बाद कभी भी दस बीबियों की कहानी, मौला मुश्किल कुशा अली (रज़ी.) का चढ़ावा और ग्यरहवीं शरीफ़ का ख़त्म दिवाना न भूलें। दादी अपनी मृत्यु की रात घर की चाबियां और अपनी गुथली मेरी माँ को सौंपते हुए हिदायतें दे रहीं थीं –

अरी!  कहा-सुना माफ़ करना। आज से घर की चाबियां तुम्हारे हवाले। यह मेरी गुथली भी संभाल लेना।  पैणो की इस पर नज़र थी परंतु मैंने सीने से लगाए रखी है।  इस कंबख्त ने अस्पताल में मेरे बालियां उतार लीं। मेरी बेटी, तू उससे वे बालियां लेकर मुझे नहलाने वाली को दे देना। फिर वे मेरे बापू को नसीहतें देने लगीं :

      पुत्तर! मैं तुझसे कहती रही हूँ, तू ज़मीन अपने नाम करवा ले, परंतु तूने मेरी एक न सुनी। मेरे भोले पुत्तर देखना कल को तेरी बहनें तुझे जीने नहीं देंगी। ये अब ज़िंदगी भर तेरी जान खाती रहेंगी (वे अपनी बेटियों को कोसते हुए मेरे बापू से मुखातिब थीं) बच्चों का ख़याल रखना। बड़े को मारना-पीटना मत, मेरा अच्छा पुत्तर।

अम्मा कल को तुम्हारे पोते-पोतियों को ब्याहने के समय किससे रिश्ता जोड़े?” यह मेरी माँ की आवाज़ थी।

अरी! मेरी यह बात पल्ले बाँध लो, बेटियां फूफियों के घर न ब्याहना। बड़ी वाली के यहाँ तो बिलकुल नहीं। उसका हमारा मेल नहीं बनता। छोटी अगर रिश्ता दे तो ले लेना। उसे भी बेटी मत देना, बिलकुल नहीं। वे मेरी माँ को सख़्त हिदायत दे रहीं थीं।

हम सब खुश थे कि वे इतने दिनों बाद होश में थीं। वे पास बैठे सदस्यों को अच्छी तरह पहचान रहीं थीं। वे उनसे बातों में लगी हुई थीं। उन्होंने मुझे और छोटी को अपने पास बुलाया, हमारे सर पर प्यार देते हुए हमें समय पर स्कूल जाने और आपा रीशमे के पास सपारा पढ़ने जाने की हिदायत दी। फिर उन्होंने अपने खीसे में हाथ डाला, जिसमें हमेशा हम दोनों भाई-बहनों के खाने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर होता था। हम ही नहीं दादी भी फिक्रमंद थी, उनकी जेब बिलकुल खाली थी। एक क्षण के लिए उनको ऐसा लगा जैसे उनका दाना-पानी ख़त्म हो गया हो।

उस वक्त उनकी आँखों में बेबसी के आँसू थे।

दादी को पढ़ना-लिखना नहीं आता था, परंतु वे हम सभी को सुबह-सुबह नमाज़ पढ़ने के लिए ज़रूर उठा दिया करती थीं। हम उनकी अगवाई में आपा रीशमे के घर कुरआन मजीद पढ़ने के लिए एक अरसा जाते रहे हैं। वे रोज़ों के दौरान कमोबेश दस कुरआन शरीफ़ पढ़ कर अपने पुरखों की रूहों की बख्शती रही हैं। हम चकित हो जाते थे कि वे इतनी जल्दी पूरा कुरआन-ए पाक पढ़ कैसे लेती हैं। यह तो हमें बहुत बाद में जाकर पता चला कि उन्हें तो कुरआन पढ़ना भी नहीं आता था। वे उसकी हर पंक्ति पर बिस्मिल्लाह शरीफ़ का जप करते हुए उंगलियां फिराती जाती थीं। जब हमें उनकी इस बात का पता चला तो हम भी बीच-बीच में ऐसा ही करते। जब हमें अपना सपारा पूरा करना होता, हम दादी वाला तरीका अपनाते। इस तरह पहले-पहले न सिर्फ़ आपा रीशमे और हमारी अम्मी हमारे इस तरह जल्दी-जल्दी सपारा ख़त्म करने पर हैरान होती रही हैं, बल्कि वे अपनी इस हैरानी को आपस में एक-दूसरे से साझा भी करती रही हैं। उन्हें इस तरह अपने बारे में बातें करते सुन हम भी अपने आप में खुश हो जाते थे जैसे हमने कोई बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो।

उस रात में घबरा कर उठा, दादी मेरे सिरहाने खड़ी थी। तब, जब मैं जूती पैरों में डाल गुसल के लिए जा रहा था। वे ड्योढ़ी में भैंसों के पास खड़ी लगातार मुझे देख रहीं थीं। वे मुझे अपनी जेब से गिरियों वाले गुड़ की ढेली दिखा रही थीं।

दादी के सारे काम निराले थे। उन्हें गिनती बिना शक बीस तक ही आती थी, परंतु वे रुपए-पैसे के मामले में बड़ी हिसाबी-किताबी थीं। वे मर्दों की भाँति एक-एक रुपए का हिसाब-किताब रखती रही हैं।  उनकी जमा तफ़रीक हम सबकी समझ से परे हुआ करती थी। वे किलो को सेर, एकड़ को किल्ला, छाबे (रोटी रखने की छोटी टोकरी) को चंगेर, रोटी को फुल्का, सलवार को सुथ्थण, कमीज़ को झग्गा, कुश्ती को बीड़ी.... उनके सब सफ़री पैमाने उनके भाँति कई बरस पुराने थे – करम, मुरब्बे, कोह, मेल वगैरह वगैरह...।

दादी वैसे तो अपने कपड़ों को खुद ही टाँका-टांकी कर लेती रही हैं परंतु अपने नए कपड़े दर्जिन को सिलने के लिए देते समय वे बहुत चिंतित दिखाई देती रही हैं। वे मर्दों की भाँति अपनी कमीज़ के साइड में दोनों तरफ जेबें रखवाती रही हैं, जिनमें वे पैसा धेला, गुड़ की ढेली या सिगरेट की डिब्बी रखा करती थीं। उनका खीसा हर वक्त चनों, मखानों और टॉफियों से भरा रहता। वे अपनी गुथली और घर की चाबियां हमेशा अपने सीने से लगाए रखतीं।  इस तरह उनकी गुथली तक घर में किसी की पहुँच संभव ही नहीं थी।  दादी सिगरेट कम ही पीती थीं, बिलकुल न के बराबर। ज़्यादातर वे हुक्का ही पीती रही हैं। परंतु हाँ, किसी मजबूरी में जब हुक्का तपा हुआ न मिलता या मेरी माँ किसी दूसरे काम में व्यस्त होतीं तो वे बड़बड़ाते हुए अपनी साइड पॉकेट से सिगरेट की डिब्बी निकाल कर उसमें से एक सिगरेट सुलगा लेतीं। जब वे सिगरेट पी रही होतीं, मैं उनके पास कम ही जाता था। हाँ, हुक्का पीते वक्त मैं उनकी गोद में बैठा उनसे पहेलियां और कहानियां सुनता रहा हूँ। वे मुझे बादशाहों, राजाओ-महाराजाओं, शहज़ादियों, जिन्नों, भूतों, परियों, चुड़ैलों और जानवरों की कहानियां अक्सर ही सुनाती थीं।  उनकी कहानियां ख़त्म होने में नहीं आती थीं, जिन्हें सुनते-सुनते मैं अक्सर ही सो जाया करता था।  मेरा ही नहीं मेरी छोटी बहन का हाल भी कुछ ऐसा ही था।  इधर दादी रुक-रुक कर अपनी कहानी सुना रही होतीं, उधर हम नींद के आगोश में पड़े मज़ा ले रहे होते।

दादी ने अपनी मृत्यु पता नहीं खुद ही निश्चित कर ली थी या फिर उन्होंने वक्त के झरोखे से देख लिया था कि बस अब और नहीं।

रात आधी से ज़्यादा ही गुज़र चुकी थीं। मैं गुसल से आकर ड्योढ़ी की तरफ जा रहा था, जहाँ अभी भी दादी खड़ी थीं। वे गुड़ की ढेली मुझे दिखाते हुए अपने पीछे-पीछे चलने का इशारा कर रही थीं। मैं कुछ सोचे समझे बिना इधर-उधर देखते हुए तुरंत उनकी तरफ बढ़ रहा था। तब, जब में आँगन में सोए सदस्यों की तरफ अंतिम निगाह मार रहा था, वे सभी आँगन में दूर छप्पर के नीचे बंधे जानवरों की भाँति गहरी नींद सो रहे थे जिनमें हमारे दोनों भैंसें, चारों बकरियां और बड़ी ईद की कुर्बानी के लिए पला भेड़ का बच्चा भी शामिल था। जबकि बाहरी दरवाज़े के पास अपनी टाँगों में सर दिए गुच्छा-मुच्छा सा हो सिकुड़ा पड़ा हमारा पालतू कुत्ता उस वक्त दरवाज़े के कुंडी की ज़रा सी आवाज़ से जग गया था। उसने अचानक उठते हुए पहले ज़रा गुस्से से एक सरसरी नज़र मेरी तरफ मारी। जब उसे इस बात का पुष्टि हो गई कि मैं कोई अजनबी नहीं, बल्कि  घर का ही हूँ तो वह खामोश रहा। मुझे पहचानने के बाद पहले तो वह वहीं खामोश पड़ा रहा, फिर कुछ देर बाद वह अपने पैरों से धरती खुरचने लगा। आधी रात को उसके पास से होते हुए मैंने बाहरी दरवाज़ा खुला छोड़ घर की दहलीज़ लांघी तो वह भी धीरे-धीरे मेरे पीछे-पीछे हो लिया।

दादी मेरे आगे-आगे तेज़ कदमों से बाहर खेतों की तरफ जा रही थी। मैंने उन्हें इससे पहले कभी इतनी तीव्र गति से चलते नहीं देखा था क्योंकि वे इतनी भारी और मोटी थीं कि उनसे जल्दी-जल्दी नहीं चला जाता था। वे हमेशा धीमे-धीमे मध्यम चाल से आस-पास के घरों में आया-जाया करती थीं। गाँव से निकलते ही वे कब्रिस्तान वाली पगडंडी पर हो लीं। मैं जो दिन के वक्त भी उधर से कम ही निकलता था, आधी रात को घुप्प अंधेरे में निश्चिंत हो कर दादी के एक इशारे पर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था।  मेरा सारा डर शायद दादी की अगवाई के कारण हवा हो गया था। वे अभी भी मुझसे अच्छे-खासे फासले पर थीं। घर से निकलने से लेकर जाटों के खाल वाली पगडंडी पर हमारा यह फासला उसी तरह बरकरार रहा। मैं दौड़ कर भी अपने और दादी के बीच की इस दूरी को कम नहीं कर पा रहा था। फिर पता नहीं इस ख़ामोशी में एक खंगूरे की आवाज़ ने हमारे बीच की इस दूरी को और भी बढ़ा दिया।

 मैंने दूर से अपने हाथों में लालटेन पकड़े एक साये को अडोल अपनी तरफ बढ़ता देखा। ख़ौफ़ की एक लहर तुरंत मुझ पर हावी हो रही थी। मैं पसीने से तरबतर होता जा रहा था। मैं चीख कर उलटे कदमों से वहाँ से भागने ही वाला था कि उस विशाल साये ने आगे बढ़ कर मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। मैं जिस व्यक्ति से डर रहा था, वह हमारे ही मुहल्ले के जाटों का लड़का था। उसके पूछने पर मैं उसे बता रहा था कि मैं आधी रात को अपनी दादी के साथ इधर आया हूँ। वह मेरी उंगली की सीध में देख रहा था, जहाँ अंधेरा ही अंधेरा था, या फिर खाल के पास लंबं-लंबे नीलगिरी और कीकर के पेड़ों के बीच में फैला हमारे गाँव के पासवाला कब्रिस्तान नज़र आ रहा था। मुझे यह बात समझ नहीं आ रही थी कि दादी जो कुछ देर पहले मेरी अगवाई कर रही थी, अब वे वहाँ कहीं नहीं थीं। अब वे कहाँ थीं यही तो मुझे समझ नहीं आ रहा था। मुझे उनकी यह चाल बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। वे पहले भी मेरे आस-पास दूसरों की मौजूदगी होने पर गायब हो जाती रही हैं। वे अपनी मृत्यु के बाद घर में केवल मुझे ही दिखाई दे रही थीं। मै जब भी उनकी मौजूदगी के बारे में किसी को बताता था वे इसे मेरा वहम मान कर टाल देते रहे हैं। मैं उनके इस रवैये से यकीनन नाखुश ही नहीं निराश भी था।

मेरे घर पहुँचने पर बापू जाटों के लड़के का धन्यवाद करते हुए मेरी माँ को डाँट रहा था। वह उसे बेसुध गहरी नींद सोई को जगा कर जो-सो बोल रहा था –

न... अगर लड़के को कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता? कुतिया बुढ़िया कहीं की..... पता नहीं किस बदकिस्मती से यह मेरे भाग्य में लिखी गई। इतना बेसुध होकर सोती है बेशक छत गिर पड़े, इसकी आँख नहीं खुलती। कमजात औरत।

बापू बड़बड़ाता हुआ मेरी माँ को लगातार कोसे जा रहा था और माँ मेरे सर के बालों में हाथ फिराते हुए बार-बार मेरा माथा चूम रही थी।

 

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        लेखक परिचय

  एजाज़



जन्म – 25 फरवरी, 1990 लायलपुर के खरड़ियावालां (पाकिस्तान) में। 

शायरी के तीन संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन लघु उपन्यास प्रकाशित 

ऐसे युवा लेखक जो ऩज़्मों और कहानी दोनों विधाओं में पारंगत हैं।

 

उनकी रचनाएं पूरबी और पश्चिमी दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं।मसूद खद्दरपोश अवार्ड, महिकां अदबी अवार्ड, 

राबा बीबी पंजाबी शायरी अवार्ड, बज्म मूला शाह अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।  

पंजाबी पत्रिका कुकनुस तथा ऑनलाइन पंजाबी पत्रिका अनहद का संपादन। 

 

संप्रति - सरकारी डिग्री कॉलेज गुज्जरखान, रावलपिंडी में पंजाबी के प्रोफेसर।

संपर्क – ijazali4060@gmail.com


                          साभार - अभिनव इमरोज़ (मासिक) दिल्ली, दिसंबर, 2022

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