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शनिवार, अप्रैल 15, 2023

कहानी श्रृंखला - 38 (बांग्ला कहानी) - जो मरने के लिए ज़िंदा थे - मनोरंजन ब्यापारी अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

 साभार - वर्तमान साहित्य पत्रिका, फरवरी, 2023

 

              जो मरने के लिए ज़िंदा थे

 

                                   0 मनोरंजन ब्यापारी

 

            अनुवाद नीलम शर्मा अंशु


शाम गहराने पर पियाली स्टेशन से सियालदह जाने वाली ट्रेन में दोनों सवार हुए थे। बैठने लायक कोई सीट खाली नहीं थी, अत: दरवाज़े के पास फर्श पर गमछा बिछाकर बैठ गया था रघु। साड़ी में धूल-मिट्टी लग जाने के भय से खड़ी ही रही बाताशी। गोद के बच्चे को रघु की गोद में दे दिया था। पियाली से सियालदह तक लगभग एक घंटे का वक्त लगता है। वे लोग इस समय आते हैं और अंतिम ट्रेन से लौट जाते हैं। सियालदह पहुँचने पर रघु की गोद से बच्चे को अपनी गोद में लेते हुए रघु से पूछा बाताशी ने, उठ सकोगे ?’


हाँ, कहा रघु ने। उसके पास एक लाठी है, उसी के सहारे चलता-फिरता, उठता-    बैठता है। परंतु अब उठते समय सर कैसे चकरा सा गया है। थोड़ी देर बाद तबीयत      कुछ ठीक लगने पर वह बाताशी का एक हाथ पकड़ नीचे उतरा ट्रेन से।

पहले रघु अच्छा-खासा हृष्ट-पुष्ट जवान व्यक्ति था, राज मिस्त्री के साथ हेल्पर का काम करता था। काम से दूर न भागने की आदत के कारण कभी भी काम से छुट्टी नहीं करता था। देखा जाए तो मेहनत-मशक्कत से उसकी गृहस्थी ठीक-ठाक चल रही थी। दिन में न भी हो तो, रोज रात को चूल्हा ज़रूर जलता था। अपने परिश्रम से नारकेल बागान के पास खाल के किनारे एक झोंपड़ी भी बना ली थी। इससे महीने के घर भाड़े की समस्या से मुक्ति मिल गई थी। तब बाताशी गृहवधु थी। बस्ती के रामपद बानतला की तरफ से माल लाकर बस्ती की औरतों को दिया करती थी। एक किलो मोतियों की माला गूँथने पर चालीस रुपए मजदूरी मिलती थी। कोई महिला दिन में एक किलो तो कोई दो किलो की माला बना लेती थी। गृहस्थी का काम निपटा कर जितना समय मिल पाता, बैठ कर बाताशी भी वही माला गूँथा करती। घर बैठे ही दो पैसे कमा लेती थी। उस सुखद गृहस्थी में अचानक आग लग गई। एक दिन सर पर ईंटे लिए बाँस की सीढ़ी पर चढ़ते समय पता नहीं कैसे रघु का पाँव फिसल गया। पहले रघु नीचे गिर पड़ा और फिर वे ईंटें उसके बाईं टाँग पर गिर पड़ीं। ईंटों की चोट से टाँग चार-पाँच टुकड़ों में टूट गई। डॉक्टर ने घुटने के काफ़ी ऊपर तक टाँग काट दी। अब कटी टाँग लेकर वह पहले की भाँति मेहनत-मशक्कत नहीं कर पाता। एकमात्र कमाऊ व्यक्ति के बेरोजगार हो जाने पर गृहस्थी भला कैसे चले ? माला गूँथने की मामूली सी कमाई से भला क्या होता है। रोज जो एक बार चूल्हा जलता था वह भी बंद हो गया। शुरू हुआ रोज के अनाहार का सिलसिला। इसके अलावा, अस्पताल से लौटने पर रघु में नित्य के बुखार और सर्दी-खाँसी की समस्या दिखाई देने लगी। तबीयत में किसी भी कीमत पर कोई सुधार नहीं हो रहा था। ऐसी विकट परिस्थिति में आजकल की औरतें जो करती हैं, बाताशी भी कहीं वैसा ही कुछ तो नहीं कर बैठेगी ? यह डर जितना रघु को सता रहा था, उतना बाकियों के दिल को भी – सब कुछ छोड़-छोड़ कर भाग तो नहीं जाएगी न ?


औरतों के दिल की बात औरतें ही अच्छी तरह समझ सकती हैं। एक दिन बस्ती की परित्यक्ता गुलाबो ने बाताशी से कहा था –  धर - पकड़ कर नहीं लाई गई हो, माँ काली को साक्षी मान कर ब्याह रचाया था। उसके नाम का सिंदूर तुम्हारी माँग में है। मुसीबत के समय उसे छोड़ जाने पर महापाप लगेगा। टूटा-फूटा चाहे जैसा हो, तेरे बिस्तर पर तो पड़ा है। औरतें तो लता की भाँति होती हैं। अकेले बढ़ नहीं पातीं। उन्हें एक मचान की ज़रूरत होती है। मर्द होता है वह मचान, वह सहारा। बहन, उसकी अनदेखी मत करना। आज है, जब नहीं रहेगा तब समझोगी कि क्या खो दिया। जब तब संभव हुआ मेहनत-मशक्कत करके तुम्हारा भरण-पोषण किया उसने। अब वह बिस्तर पर पड़ गया है, उसके मुँह में चार दाने अन्न के डाल कर उसे बचाए रखना तुम्हारा दायित्व है। भगवान पुण्य देगा।


असहाय से स्वर में कहा था बाताशी ने, कहीं गई नहीं, किसी को जानती नहीं। कहाँ जाकर क्या काम करूं बहन। एक गृहस्थी चलाना क्या इतना आसान है ?’


मैं भी पहले तुम्हारी तरह सोचती थी। मुझे छोड़ जब वह भाग गया था, बड़ी मुसीबत में घिर गई थी। दो - दो बच्चे, उन्हें कैसे पालूं-पोसूं ?  तब मुझे एक और अभागन ने राह दिखाई। बोली – औरत बन कर पैदा हुई हो और अपना मोल नहीं मालूम?  घर से बाहर निकल, देखोगी उस जैसे सौ मर्द क़दमों में आ गिरेंगे। वे रुपए देंगें, मुहब्बत भी। उसकी बात मान मैंने घर से बाहर क़दम रखा। आज देखो, चिंगड़ी मछली खाती हूँ। मैं कहती हूँ कि, दस लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे – वह सब परवाह करना छोड़ दे। लोगों की बात पर कान देने की क्या ज़रूरत ? मेरे साथ चल। तुझे दिखा दूंगी, सिखा दूंगी कि कैसे रोजगार उपार्जन किया जाता है।


भूख बहुत बड़ी दुश्मन है। वह सबसे पहले तो इन्सान की सोचने-समझने-विवेक-बुद्धि, अन्याय बोध सब खा जाती है। पेट की ज्वाला अजगर की भाँति असह्य हो उठने लगी तो बाताशी ने रघु से कहा, गुलाबो मुझे काम पर साथ ले जाएगी। तुम अगर हाँ कहो तो मैं चली जाऊँ।


काम पर जाने की अनुमति न होकर मानो आत्महत्या की अनुमति माँग रही हो बाताशी। जिसके सिवा अब और कोई चारा नहीं। रघु को चाहती है बाताशी। उसे मंझधार में छोड़ कर नहीं जा सकती। कोई दूसरी औरत होती तो कब का ऐसा कर चुकी होती। यहाँ पत्नी द्वारा पति को और पति द्वारा पत्नी को छोड़ कर चले जाना कोई नई बात नहीं। बाताशी ऐसा करना नहीं चाहती, रघु के साथ ही जीना चाहती है। निरुपाय रघु ने एक बार बाताशी को देखा था और एक बार कमरे की टूटी छत को। हर साल कुछ पत्ते और लकड़ियां लाकर छत पर बिछा देता था। इस बार ऐसा नहीं हो पाया। टूटी छत के झरोखे से आकाश दिखाई देता है। तब रूंधे स्वर से कहा था, लंगड़ा हो कर पड़ा हूँ, मैं और क्या कहूँ? जैसे भी हो सके करो।


उस दिन से बाताशी कमाऊ महिला बन गई। पहले दिन गुलाबो के साथ आकर उसकी आँखें चौंधिया उठी थीं। चारों तरफ सिर्फ़ और सिर्फ़ औरतें ही औरतें। एक सौ, दो सौ नहीं, कई – कई हज़ार।  कोई मुँह पर क्रीम, पाउडर लगाए, हाथों में काँच की चूड़ियां पहने घूम रही है, कोई बिजली के खंभे, वहाँ खड़ी गाड़ियों से टेक लगाए खड़ी हैं। सब उस जैसी ही काली-काली सी, दु:खी – दु:खी शक्लें। गुलाबो ने कहा था, इस जगह का नाम है हाड़काटा गली।


जो महिला उस दिन तक बाबू के घर में बर्तन माँजा करती थी, जो बाज़ार से सब्जियां खरीदने जाती थी, जो किसी छोटे से कारखाने में काम करती थी, वे सभी लाईन में लगी दिखती हैं।


दस-बारह दिनों में बाताशी की झिझक ख़त्म हो गई थी। राह चलते अगर कोई उसकी तरफ निगाह डालता तो उन निगाहों को परखने की जाँच सीख ली थी उसने। इशारों से जवाब देकर समझाना सीख लिया था कि जो समझ रहे हो मैं वही हूँ, सस्ती और सहज उपलब्ध। डरो मत, क़रीब आओ, मोल-भाव करो। और अगर मोल-भाव जम जाए तो चलो मेरे पीछे-पीछे। यहाँ घंटे के हिसाब से कमरा किराए पर मिलता है। उस कमरे में अपना दिया दाम वसूल कर लो।


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लगभग डेढ़ साल पहले आई है बाताशी इस पेशे में। किसी दिन एक सौ, तो किसी दिन दो सौ और किसी दिन बिलकुल खाली – कुल मिलाकर महीने में अच्छी कमाई ही हो जा रही थी। जिससे माँड़-भात खाकर गुज़र हो जाती। बीच में गर्भ ठहर जाने पर, ज़रा असुविधा में पड़ गई थी। आय कुछ थी नहीं। बच्चे के जन्म के बाद अब फिर से बाताशी लाइट पोस्ट के साथ टेक लगाकर खड़ी हो पा रही है। एक-आध ग्राहक मिल रहे हैं। पर गोद में बच्चा रहने पर एक भी पैसा नहीं कमा पाएगी। कोई पास नहीं फटकेगा। एक ने कहा था, क्या जाऊँ तेरे कमरे में, गोद में बच्चा रहने पर तू माँ-माँ सी दिखती है। तन-मन में भूख-प्यास नहीं लगती।


इसी लिए गोद में बच्चा उठाए बहुत दिन खाली हाथ लौटना पड़ा था बाताशी को। वह एक त्योहार का दिन था। बहुतों ने बहुत-बहुत रुपए कमाए थे। सिर्फ़ उसकी ही एक पैसे की भी कमाई नहीं हुई थी।


बच्चा बहुत छोटा था, उसे घंटे-घंटे बाद दूध पिलाना पड़ता था। ज़्यादा देर दूध न मिलने पर सीना सूख जाएगा। अन्ना मौसी ने कहा है, ऐसी हालत में बच्चा मर भी सकता है।  


बाताशी के स्तनों में दूध बहुत है। उसे समझ नहीं आता कि भरपेट खाने को नहीं मिलता फिर भी स्तनों में इतना दूध कहाँ से आता है।


और बहुत देर तक स्तनपान न करवा पाने से वे ईंट की भाँति सख्त हो जाते थे, और दुखने लगते। खुले नल की भाँति वह दूध ब्लाउज-छाती सब कुछ भिगो देता।


बच्चे के जन्म के बाद पहले बार जिस दिन काम पर आई थी बाताशी, तो थोड़ी देर तक तो वह ठीक-ठाक थी, फिर लगा था कि स्तन भारी हो गए हैं, वजनी हो रहे हैं। फिर पीड़ा से टेढ़े होने शुरू हो गए। वह सीधी होकर खड़ी भी नहीं हो पा रही थी।


क्या हुआ बाताशी ?’ जानना चाहा था गुलाबो ने। बाताशी ने उसे अपनी समस्या बताई थी। चिंतित स्वर में कहा था गुलाबो ने, ऐसे तबीयत ख़राब हुई तो कैसे करोगी। आज बाज़ार अच्छा चल रहा है।


मैं तो बोहनी भी नहीं कर पाई।

उस तरह कातर होकर बैठी रहोगी तो कौन आएगा तेरे पास। बाबू लोग हँस-मुख औरत पसंद करते हैं। मन का दुख मन के भीतर छुपा कर हँस-हँस कर बातें करनी पड़ती हैं। जिसकी सूरत पर शोक छाया हो, कोई क्यों आएगा उसके पास ?’


तब लगभग साढ़े सात बज रहे थे। कुछ दुकाने बंद हो गई थीं। गली के कोने-कोने में अंधेरा पसर गया था।  साधारण लोगों का चलना-फिरना भी इस रास्ते में बंद हो चुका था। इस वक्त जो आ रहे हैं वे भगवान हैं। आज आ भी रहे हैं बहुत संख्या में। घंटे वाले किराए के कमरे के सामने लाइन लग गई है। जैसे सुलभ शौचालय के सामने लगती है। ये ग्राहक हैं। दोनों आँखों से भूख छलछला रही है। चाट कर, चबा कर, चूस कर निगल  जाने की लालसा लिए। जितने पैसे खर्च करेंगे सोलह आने वसूल कर लेंगे।


जहाँ सब लोग पेशाब करते हैं उस अंधेरे से कोने में खड़ी गुलाबो उसे बुला रही है, इधर आ ज़रा।

क्या करोगी ?’

आ न, बताती हूँ।

गुलाबो के पास जाने पर बाताशी से कहा, ‘’खोलो तो स्तन दोनों।

यहाँ ?’

कुछ नहीं होता। खोल।


गुलाबो के कहे अनुसार ब्लाउज हटा कर फूले हुए दोनों स्तन उघाड़ दिए बाताशी ने। आँचल से ढक कर उसमें शिशु की भाँति मुँह लगा कर दूध खींच-खींच कर निकाल दिया गुलाबो ने। दस-बारह बार ऐसे करने पर दर्द और वजन दोनों घट जाने पर बाताशी को राहत महसूस हुई। उसने कहा, बस रहने दो। तब गुलाबो ने पूछा, बातासी तेरे पास जो लोग आते हैं कोई स्तन में मुँह लगाना नहीं चाहता ?’


चाहते क्यों नहीं। बाताशी ने कहा, मैं ही किसी को छूने नहीं देती। एक जन ने तो बीस रुपए ज़्यादा देने चाहे थे। उसके मुँह पर सीधे कह दिया, जो करने आया है वही कर। छाती में हाथ नहीं लगाना। यह दूध मेरी बच्ची पीती है। तेरे इन दस-बीस रुपयों के लिए उसे अपवित्र नहीं करूंगी।


उस दिन के उस दर्द की याद और खाली हाथ लौटने की तकलीफ ने बाताशी को बाध्य किया बच्चे को साथ लाने के लिए। रघु से कहा, तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। मैं जहाँ खड़ी रहती हूँ उसके उलटी तरफ के फुटपाथ पर उसे गोद में लिए तुम बैठे रहना। मैं एक – एक करके आदमी निपटाउंगी और झट से आकर दूध पिला कर चली जाऊंगी। कर नहीं पाओगे ?’ किए बिना और उपाय भी क्या है? बाताशी काम पर न जाए तो घर में चूल्हा नहीं जलता। सब को भूखे रहना पड़ता है। भूख बहुत बड़ी तकलीफ है। सर हिलाता है रघु, कर सकूंगा।


उस दिन से बाताशी के पीछे-पीछे आता है रघु। शाम से रात दस बजे तक बैठा रहता है उस पार के फुटपाथ पर। बहुत ही असहनीय पीड़ादायक प्रतीक्षा है। इस पार से देखता है रघु उस पार खड़ी बाताशी को। विभिन्न आयु वर्ग के लोग उसके सामने आकर खड़े होते हैं। मोल-भाव करके फिर उसके पीछे-पीछे चले जाते हैं। कभी एक घंटे बाद तो कभी थोड़ी और देर बाद लौट आती है बाताशी। इस पार आकर आँचल से ढक कर बच्चे के मुँह में स्तन डाल देती है और रघु को पकड़ा देती है उस वक्त मिले रुपए। कभी कहती, इस साले ने दम कर दिया। रुपए दिए अस्सी और जो अत्याचार किया सो अलग। फिर कभी कहती, यह आदमी बहुत अच्छा है।  दिल में दया-माया है, कोई ख़राब व्यवहार नहीं किया। मैंने सौ कहे थे, बीस रुपए खुद ही ज़्यादा दे दिए।


बाताशी की कही बातें, दिए हुए रुपए, सब कुछ मानो रघु के सीने पर साँप के फन की भाँति लोटते हैं। सहा भी नहीं जाता, कहा भी नहीं जाता। ऐसी एक गहन पीड़ा उसे कुतर-कुतर कर खा रही है। बाताशी का पकाया भात-तरकारी उसके गले से उतरना नहीं चाहता। मानो ग्रास का हर कौर उसे धिक्कारता हो – मर, तू मर। तेरे जैसे इन्सान का ज़िंदा रहना बेकार है।


अब ट्रेन से उतर कर वे गेट की तरफ बढ़ते हैं। गेट पर टिकट चेकर है। चेहरे पर पाउडर की मोटी परत, हाथों में काँच की चूड़ियां, गाँव से आई ऐसी ज़रूरतमंद औरतों से वे टिकट नहीं माँगते। बगैर टिकट के यात्री जानते हुए भी जाने देते हैं।


वे प्लेटफॉर्म से बाहर निकल आते हैं। सामने की तरफ चलते रहते हैं। फ्लाईओवर के नीचे से कोले मार्केट के सामने वाला रास्ता पकड़ धीरे-धीरे पहुँच जाते हैं बऊबाज़ार के मोड़ पर। मोड़ लाँघते ही दाहिनी तरफ वह कुख्यात हाड़काटा गली है। गली में तो हज़ारों हैं, कुछ लड़कियां तो गली से निकल कर मुख्य सड़क पर आ खड़ी हुई हैं। यहाँ से ग्राहक को पकड़ कर ले जाएंगी गली के भीतर के भाड़े वाले कमरे में।


बाताशी अपनी गोद के बच्चे को रघु के पास छोड़ सड़क पार कर उस पार चली जाती है। बहुतों के साथ वह भी खड़ी हो जाती है। सभी की तरह वह भी करुण और कातर निगाहों से इधर-उधर देखती है। कौन उसे देख रहा है, कौन उसे पसंद कर रहा है, कौन उसे कुछ समय के लिए सुख के बदले में कुछ रुपए देगा – उसे तलाशती है।


ऐसे समय में रघु का दम बंद हो आता है। रुलाई फूट-फूट आने को होती है। तब वह ध्यान बंटाने की कोशिश में बार-बार बीड़ी सुलगाता है।


रोशनियों से नहा उठा है कोलकाता महानगर। इस रोशनी के नीचे जो भयावह अंधेरा है वह किसी को नज़र नहीं आता। बगल में आभूषणों की दुकानों पर लाखों-करोड़ों के आभूषण बिक्री के लिए शोकेस में सजे रखे हैं। और उन दुकानों के सामने घूम-फिर रही हैं, जिनके पास अपने तन के सिवाए बेचने के लिए कुछ भी नहीं है।


आज बाज़ार बहुत मंदा है। बाताशी की तो बात अलग है, जो देखने-सुनने में ज़रा अच्छी हैं उन्हें भी ग्राहक नहीं मिल रहे हैं। लड़कियों की समझ में नहीं आ रहा कि आखिर सब को हो क्या गया ?  कोई इधर आ क्यों नहीं रहा ?  क्या सभी चरित्रवान, पत्नीव्रती ब्रह्मचारी बन गए ?  लोग ऐसे हो गए तो फिर हम क्या खाएंगे ?  कैसे जीएंगे ?

बहुत देर तक ऐसे ही समय गुज़र जाने के बाद अचानक देखा गया कि एक साथ आठ-दस ग्राहक आठ-दस लड़कियों के सामने जा खड़े हुए। एक बाताशी के सामने भी। उससे पूछा, चलोगी ?’


इस सवाल के लिए सम्मतिसूचक रूप में जो कहना होता है वही कहा बाताशी ने, हाँ। इस पेशे का नियम है कि ग्राहक भगवान है, वह लंगड़ा, लूला, काना, टेढ़ा – जैसा भी हो उसे न कहने पर लक्ष्मी नाराज़ होती हैं। इन्सान नहीं, रूप-गुण नहीं, तुम उसके रुपए देखो। देखने में सुंदर, मनभावन हो तो उपभोग करो। नहीं तो कुछ समय तक आँखें बंद किए पड़े रहो। उसे जो करना है, करके विदा होने दो।


अब समझ में नहीं आया बाताशी को कि क्या सभी लड़कियों से एक साथ यह सवाल किया गया था ?


क्या सबने एक साथ हाँ कहा ?  देखा उन सभी लोगों ने अब एक साथ सभी लड़कियों का हाथ पकड़ रखा था। बातासी को महसूस हुआ कि उसके हाथ को मानो किसी सड़सी जैसे कठोर लौहयंत्र ने थाम रखा था। उस हाथ के दबाव से शिराओं-उपशिराओं में रक्त प्रवाह मानो थमने को था। हाँ, बस कुछ समय के लिए।  उसके बाद ही एक जाली वाली काली पुलिस वैन आगे की तरफ बढ़ आई। और लड़कियों को थाम रखे उन हाथों ने निर्दयता से खींच-धूह कर वैन में चढ़ा लिया। उसके बाद ही कोई चीख उठा था – रेड पड़ गई है। रे ड ड ड....।


      जो लड़कियां तब भी खाली थीं, वे दिशाहीन होकर जिधर मौका मिला भागने लगीं। चारों तरफ दौड़-भाग शुरू हो गई। उसी दौरान उस पुलिस वैन के भीतर से बाताशी का तीक्ष्ण कंठ स्वर उभर आया, बाबू तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। मुझे छोड़ दो। मेरा बच्चा है, दूध न मिलने पर छाती सूखने पर मर जाएगा।


परंतु उस रूदन से वैन में बैठे पत्थर दिल लोगों के दिल नहीं पसीजे। बाताशी को लिए वैन तीव्र गति से दौड़ चली सामने की ओर। इस आकस्मिक घटना से उस पार बैठा रघु विह्वल हो उठा। क्या करे कुछ नहीं सूझ रहा था। जब तक तंद्रा लौटी वह लंगड़ाते हुए वैन के पीछे-पीछे दौड़ चला।


लेकिन तब तब वैन बहुत दूर जा चुकी थी।

किसी ने रघु से पूछा, वैन में कौन है ?’

रघु बोला, मेरी बेटी की माँ।

उसने कहा, उस वैन के पीछे भाग कर क्या होगा ? लगभग पाँच सौ रुपए लेकर थाने चले जाओ, छुड़ा लाओ।

इतने रुपए कहाँ से लाऊँ ?’

कल सुबह उन्हें कोर्ट में पेश करेंगे, जुर्माना न दे सकने पर पंद्रह दिनों बाद सीधे छूट कर घर आ जाएंगी। टेन्शन लेकर कोई फायदा नहीं।


बहुत देर तक वहाँ असहाय की भाँति खड़े रहने के बाद धीरे-धीरे लंगड़ाते, घिसटते हुए स्टेशन की तरफ आया था रघु। लेकिन वह घर नहीं लौटा। कहाँ गया कोई नहीं जानता। हाँ, अगले दिन समाचार पत्र से पता चला कि सियालदह से दूर रेल से कट कर एक अज्ञात व्यक्ति मर गया है। और, स्टेशन पर एक आठ – नौ माह की परित्यक्ता बच्ची मिली है।

 

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                      लेखक परिचय / मनोरंजन ब्यापारी

       बांग्ला भाषा में दलित साहित्य के अग्रणी लेखक। किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा के बगैर साधारण रिक्शा चालक से लेखक तक का सफ़र तय किया है उन्होंने। आत्मकथात्मक जीवनी चंडाल जीवन, जे कौथा इत्तिवृत्ते नेई, छन्नो छाड़ा सहित लगभग दर्जन भर उपन्यासों और सौ से अधिक कहानियों, अनेक निबंधों के रचियता। कोलकाता में निवास। 2021 से बलागढ़ (बंगाल) से तृणमूल कांग्रेस के विधायक 


पुरस्कार  –   

2014 में बांग्ला अकादमी के सुप्रभा मजुमदार पुरस्कार।  

2015 में शर्मिला घोष स्मृति साहित्य पुरस्कार।                   


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कहानी श्रृंखला - 37 (पंजाबी कहानी) - धूप - अंजना शिवदीप अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’


 

                 धूप



         0 अंजना शिवदीप

   

  अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'



 

कमरे में धूप जल रही थी। पूरा कमरा खुशबू से भर गया। सुगंध चंदन जैसी थी। भीनी-भीनी सुगंध अच्छी लगती है लेकिन जब केवल सुगंध ही सुगंध हो तो कभी-कभी सिर दर्द हो जाता है।

यहाँ तक ​​कि ओम प्रकाश के सिर में भी दर्द हो रहा था। कई दिनों से ओम प्रकाश को ऐसा लग रहा था कि उनके सिर में धूप से जैसे कुछ हो रहा हो। दिमाग पर कुछ तारी होने लगता है। वास्तव में लेकिन मामला कुछ और ही है। वे नहीं समझते या समझना नहीं चाहते। दिमाग में क्रोध के सिवा कुछ नहीं मिलता। जब उनकी पत्नी विद्यावती स्नान के बाद पूजा करने बैठती हैं और...... जब वे धूप जलाती हैं... बस! यहीं से सिर दर्द शुरू होता है। यानी दिमाग पर कुछ तारी होने लगता है।

ओम प्रकाश नास्तिक भी नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे भगवान की पूजा करना बुरा समझते हैं। वे स्वयं सुबह-शाम भगवान के सामने नतमस्तक होते हैं लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि आप दीन-दुनिया को भूलकर भगवान के ही हो जाएं। विद्यावती ने तो मोह-माया के सभी बंधनों को तोड़ दिया और भगवान की हो गईं। भगवान की हो गईं मतलब... दुनिया से विदा नहीं हो गईं... लेकिन ओम प्रकाश सोचते हैं कि वह उनके लिए तो मर चुकी हैं। करीब डेढ़ महीने पहले मुहल्ले की महिलाओं के साथ हरिद्वार गई थीं। बस जब से वहाँ से लौटी हैं, मानों बदल ही गई हैं। हरिद्वार से लौटने के बाद संभवत: यह दूसरा दिन था जब रात में ओम प्रकाश कमरे में आए तो वे कमरे में नहीं थीं। वे बेटे और बहू के कमरे में गए तो उन्होंने उन्हें खिड़की से खाना खाते देखा। मतलब...विद्यावती उनके कमरे में भी नहीं थी।

ओम प्रकाश किचन में गए तो किचन बंद था। आगे जाकर देखा कि घर में बने ठाकुर जी के कमरे अर्थात् मंदिर की लाइट जल रही थी। आगे बढ़े तो देखा कि विद्यवती शॉल ओढ़े बैठीं माला जपने में मग्न थीं।

 

"विद्या ... ओ विद्या ..." उन्होंने कमरे के बाहर से ही उसे आवाज़ दी।

"हाँ ... वे मुँह से जाप करती रहीं और ज़रा क्रोधित निगाहों से उनकी ओर देखा।

"बहुत देर हो चुकी है ... चलो ... सुबह मुझे पेंशन लेने भी जाना है ..."

उसके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए ओम प्रकाश टकटकी लगाए उसके चेहरे की ओर देखते रहे।

"तो सो जाईए जाकर... मुझे अभी 32 माला का और जाप करना है...और अब मैं यहीं सोया करूंगी...ठाकुर जी के चरणों में..."। उसके दोनों हाथ श्रद्धा से जुड़ गए तथा आंखें मुंद गईं।

"जब पीठ लकड़ी की तरह अकड़ जाएगी न, तब पता चलेगा ब़ड़ी संतनी को।"

ओम प्रकाश बड़बड़ाते हुए कमरे में आकर अकेले ही सो गए। इस घटना के एक हफ्ते बाद भी जब विद्यवाती कमरे में न लौटीं और ठाकुर जी के चरणों में ही सोती रहीं, तो ओम प्रकाश के धैर्य का बांध टूट गया। एक रात फिर वे विद्यावती को समझाने गए।

"विद्या... भई कोई नाराजगी है..?  उन्होंने वहीं बगल में चटाई पर बैठते हुए कहा।

"किस बात की ...?"  उसने बस इतना ही कहा।

"अरे... तुमने तो प्यार तोड़ ही दिया... मेरा नहीं काम चलता तुम्हारे बिना..."।

    ओम प्रकाश ने उसका हाथ पकड़कर थोड़ा सा दबाया और उनकी आँखों में वासना की चमक दिखाई दी। लेकिन... विद्यावती ने बिजली के झटके की तरह ओम प्रकाश का हाथ झटक दिया... गुस्से से भर कर बोली..

"अरे ! ठाकुर जी के सामने क्या जो-सो बोले जा रहे हैं...., ज़िंदगी भर यही सब तो किया है है। उम्र का आखिरी पड़ाव है। नाम जप कर अपना परलोक नहीं सुधारा जाता.....। क्या रखा है बुढ़ापे में इन सब कामों में.... " गुस्से में उनकी नाक मेंढक की तरह फूल रही थी।

ओम प्रकाश एकदम सन्न रह गए। फिर ज़रा संभल कर बोले - "उमर को भला क्या हो गया ? विदेशों में तो लोग इस उम्र में शादी करते हैं। बड़ी मुश्किल से तो मुक्त हुए हैं ज़िम्मेदारियों से... अब जाकर कहीं चैन मिला है... और आदमी और एक घोड़ा कभी बूढ़े होते हैं भला….'

"आप मत होईए बूढ़े... मैं तो हो गई हूँ... बस.... मुझे नहीं पसंद यह सब... और विदेशों की क्या नकल करनी ? उन्हें क्या पता धरम-करम के बारे में... बस मेरी एक बात सुन लीजिए.. मैंने गृहस्थ जीवन छोड़ दिया.... "

      उसने अपने सामने पड़े तांबे के लोटे से एक मुट्ठी में पानी भरकर अपने हाथ की उंगली पर डाला और फिर हाथ सीधा करके छोड़ दिया।

ओम प्रकाश अवाक रह गए। वह निष्प्राण से उठे और कमरे में आ गए। बस उन्हें अपने आप पर क्रोध आ रहा था कि कुछ किया क्यों नहीं? लेकिन कर भी क्या सकते थे?

विद्यावती ठाकुर जी के कमरे में घुसी रहती थी। कभी-कभी तो एक-दो दिन तक ओम प्रकाश से सामना भी नहीं होता था। ओम प्रकाश जी को भी अब उसके माथे लगना पसंद नहीं था।

ज्यों-ज्यों दिन गुज़रते जा रहे थे, त्यों-त्यों समस्या बढ़ती जा रही थी। ओम प्रकाश को लगता कि वे अब सारी-सारी रात जगते ही रहते थे या फिर वे सारी रात सोते ही नहीं थे।  वे जब भी सोने लगते उन्हे लगता कि........विद्यावती उनके साथ लेटी हैं।....उन्हें लगता कि वे विद्यावती के साथ आलिंगनबद्ध हैं.... उन्हें लगता कि वे विद्यावती के साथ......

"पर  यह क्या?" आँखें खुलती हैं... विद्यावती तो उनके कमरे में ही नहीं है... उनके तन में तन से मिलन की तीव्र इच्छा मरती हुई मछली की भाँति तड़पती है।

वे एक टक छत को देखने लगते हैं। उनका ध्यान एक छिपकली की ओर जाता है जो टक - टक की आवाज़ करते हुए अपनी पूँछ हिला रही है। वह कई बार आवाज़ करती है। तभी एक और छिपकली के टक-टक करने की आवाज़ आई। दूसरी छिपकली भी पहले वाली की तरह अपनी पूँछ हिला रही है। दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के पास आईं... और एक-दूसरे से लिपट गईं... ओम प्रकाश को समझ ही नहीं आया कि कुछ ही पलों में उनके सामने प्रेम-क्रीड़ा होने लगी। उन्हें लगा कि छिपकलियां बड़ी हो गई हैं और सारी छत पर फैल गई हैं। वे उनके सभी अंगों को करीब से देख सकते थे। नर छिपकली के अंग धीरे-धीरे उन्हें पुरुष के अंगों में और मादा छिपकली के अंग स्त्री के अंगों में बदलते प्रतीत हुए। एक पुरुष और एक महिला छत पर काम-क्रीड़ा कर रहे थे। वे एकाएक उठे। क्या वे सो रहे थे या जग रहे थे?

बस इसी तरह उन्हें कभी मक्खियां तो कभी कबूतर प्रेम-कलोल करते दीखते।

सुबह होते ही विद्यावती टन-टन करके घंटियां बजाने लगतीं। कभी-कभी भजन गाने लगतीं :

    हरि मोहे अपना बना लो

    हरि मोहे अंग लगा लो

 ओम प्रकाश उनके भजन सुनकर और भी बेचैन हो जाते थे।

 'अंग लगा लो'

'अंग लगा लो'

'अंग लगा लो'

उनके कानों में बार-बार गूंजता रहा है 'अंग लगाना'....... मतलब.. अंग लगाना'......मतलब..   फिर वे मुस्कुरा देते... फिर उन्हें वह दिन याद आता जब उन्होंने पहली बार विद्यावती को ''अंग लगाया' था।


    फिर कितनी ही बार उनके मन में उस रात का ख्याल आता। लेकिन कभी-कभी जब वे 'हरि मोहे अंग लगा लो' सुनते तो उत्तेजित हो जाते... एक आग सी लग जाती.... मानो विद्यावती किसी 'हरि से विनती कर रहो हो कि मुझे अंग लगा लो'... कोई हरि विद्यावती को अंग लगाए और वे खुद उसे अंग लगाने के लिए तरसते रहें..... इस हरि का तो..... वे दाँत पीसते रहते।

ओम प्रकाश अब खोए खोए रहते। बाहर से ऐसा ही लगता था परंतु लगता मानो उनके भीतर किसी और ही दुनिया का द्वार खुल गया हो। जिसमें एक भूखा मन-तन भटक रहा था... जो खुद ही आत्मसंतुष्ट होता था और अपने चारों ओर का स्वयं ही आनंद ले रहा था।

ओम प्रकाश सुबह-सुबह ही टहलने के लिए घर से निकल जाते थे। वे रास्ते में पार्क में पत्थर की ठंडी बेंच पर बैठ जाते। सामने बनी पग़डंडियों पर कितने ही लोग सैर करते.... कितनी औरतें... खूबसूरत... मोटी... पतली... काली... नाज़ुक सी....

वे हर महिला को नीचे से ऊपर तक देखते.... पीठ पीछे से उन्हें सैर करते देखते..... जॉगिंग करते समय ऊपर-नीचे होते शरीर को देखते..... ब्रा की हुकों को देखते....पैटींज़ से बनती 'वी' को देखते... उससे आगे तक सोच-सोच कर देख लेते। कईयों से तो कल्पना में काम-क्रीड़ा कर लेते। फिर 'वी' 'विक्टरी'  बन कर उनके दिमाग में फैल जाती.... वे वहाँ तब तक बैठे रहते थे जब तक वहाँ महिलाओं की आवाजाही कम न हो जाती....घर लौटते तो विद्यवती मंदिर में बैठ कोई कथा कर रही होतीं।

बहू रसोई में नाश्ता बना रही थी और कई बार बेटा उसके साथ चुहल कर रहा होता....।

ओम प्रकाश चोर निगाहों से देखते.... कभी-कभी वह लड़के के बजाय खुद को देखता है।

कमरे में लेटे-लेटे बेचैन हो जाता....कई बार बेटे की जगह खुद को देखते....

कमरे में पड़े वे बेचैन हो जाते... कई बार खुद ही खुद से क्रीड़ा कर लेते.... परंतु स्त्री जैसी संतुष्टि न होती.... वे उठ कर बाहर निकल जाते।

जब पूरे घर में धूप की खुशबू फैलती तो ओम प्रकाश के सिर में कुछ होने लगता। उनका सिर फटने लगता। वे बाहर निकल जाते। उन्हें लगता जितनी जल्दी वे धूप की खुशबू से दूर चलें जाएं.... तो ही उन्हें चैन मिलेगी।

बाहर मोड़ मुड़ते ही दीवार पर एक बड़ा सा पोस्टर लगा हुआ था जिसमें लिखा था 'प्यासी जवानी'......एक अर्धनग्न स्त्री......और एक पुरुष उसके होठों पर झुका हुआ। ओम प्रकाश ने देखा... तो उन्हें लगा जैसे वे खुद पोस्टर में घुस गए हों.... उन्होंने स्त्री के होठों पर झुके पुरुष को उठा कर फेंक मारा... अब उनकी बारी थी.... वे थे और वह स्त्री...। वह स्त्री और वे थे। बस......

टन....टन....टन....कोई साइकिल वाला घंटी बजा रहा था। ओम प्रकाश को अहसास हुआ कि वे सड़क के बीचो-बीच में खड़े हैं। वे थोड़ा शर्मिंदा सा हो गए और सड़क के किनारे हो लिए।

ओम प्रकाश का मन और भी बेचैन हो गया। उनके मन में विचार आया, "क्यों न किसी स्त्री के पास जाया जाए। दो-चार सौ की क्या बात है..? जेब में पांच सौ रुपये हैं... लेकिन.. जिस रास्ते पर कभी चले नहीं, उसकी ख़बर भी क्या लेनी.... और इस तरह जाना कोई अच्छी बात है..? कोई देखेगा तो क्या कहेगा.. इस उम्र में.. कोई क्या सोचेगा... नहीं....।'' विचार जैसे आया था वैसे ही लौट गया। फिर... फिर... क्या करें...?.

बच्चों का एक समूह उनके सामने 'हो-हो' करता आ रहा है.. उनके सामने..  एक दूसरे के साथ पीठ सटाए कुत्ता-कुतिया हैं। बच्चे पत्थर मार रहे हैं। कुत्ता-कुतिया पीठ सटाए बड़ी मुश्किल से दौड़ पा रहे हैं... चूं चूं सी कर रहे हैं। .... ओम प्रकाश को लगा कि बच्चों को ऐसा करने से रोकना चाहिए... इन पलों का लुत्फ उठाने वाले जानवरों को परेशान नहीं करना चाहिए.... परंतु इससे पहले कि वे कुछ करते या कहते....कुत्ता-कुतिया तथा बच्चे कब आए और कब जलूस की झाँकी की भांति गुज़र गए.... वे खड़े सोचते रह गए।

ओम प्रकाश घर लौट आए। विद्यावती मंदिर धो रही हैं। वे कमरे में आकर लेट गए। एक तपिश सी पाँव से सिर तक... कभी सिर से पाँव तक फैल रही है और पैरों के बीच जैसे भाप बनने लगती है.... झाडू की आवाज लगातार आ रही है...साथ ही विद्यावती के भजन गाने की आवाज भी...

'आओ, मेरी सखियो मेरी सेज सजा दो

मुझे श्याम-सुंदर की दुल्हन बना दो'

"श्याम-सुंदर"

"श्याम-सुंदर"

"श्याम-सुंदर"

 

"श्याम-सुंदर" यह शब्द ओम प्रकाश के सिर में हथौड़े की तरह बज रहा है।

'सेज सजा दो.........'। ओम प्रकाश को लगता है मानो कमरे में सेज सजा रखी है,  सेज पर दुल्हन बैठी है... दुल्हन... नहीं, यह तो विद्यावती है... और कोई आदमी उसके पास बैठा है... कौन.....? ... क्या वह खुद है ...? नहीं... शायद... यब श्याम सुंदर है?  श्याम सुंदर? नहीं... यह तो..... हरि है। हरि नहीं.... श्याम सुंदर...’ ओम प्रकाश को लगा जैसे वे 'पोस्टर' में घुस गए थे..... और महिला के होठों पर झुके हुए आदमी को उन्होंने उठा कर परे फेंक मारा था... उसी तरह एक धक्का उन्होंने श्याम सुंदर को दिया... नहीं ... हरि को दिया। ... हरि.. तेरी बहन की ... श्याम सुंदर तेरी माँ को... तेरी को...

ओम प्रकाश जोर-जोर से चिल्ला रहा है। गालियां दे रहा है। विद्यावती और बहू से संभाला नहीं जा रहा। बेटे को ख़बर दी गई और डॉक्टर को बुलाया गया।

"ओम प्रकाश को दिमागी दौरा पड़ा था।" ऐसा ही कहा था डॉक्टर ने। उन्हें इंजेक्शन दे कर बेहोश कर दिया गया था। पूरी रात बीत गई और अगले दिन सुबह सात बजे होश आया तो उन्होंने अपनी आँखें खोलीं... उनकी नाक से खुशबू का झोंक टकराया...

... धूप.... धूप...। ओम प्रकाश को लगा जैसे वे खुद एक धूप हों...और जल रहे हों...।

... विद्यावती ने उन्हें जलाकर ठाकुर जी के चरणों में रख दिया हो... न वे जल सकते हैं और न ही लपटों की भाँति मचल सकते हैं.... बस सुलग सकते हैं....उनका गला भर्रा गया। उनकी आँखों में आँसू आ गए... आँसुओं में से उन्हें धुँधला सा दिख रहा था।

"ठीक हैं.. ओम प्रकाश जी...?" डॉक्टर ने कुर्सी को उनकी चारपाई के पास खींच कर पूछा।

"मुझे बुझा दीजिए..." ओम प्रकाश की रुलाई फूट पड़ी। मानो भीतर कोई गुब्बार हो और आंखों से लगातार आँसू छलक रहे थे।

"बुझा दीजिए...?" क्या कह रहे हैं... ओम प्रकाश जी..?  डॉक्टर ने हैरान होकर पूछा।

"मैं ... मैं धूप हूँ... बुझाईए.....मुझे बुझा दीजिए ! धूप मैं..! .. बुझान... मुझे बुझाना ...! चीखते-चिल्लाते उन्होंने सारे शरीर पर ऐसे हाथ मारना शुरू कर दिया जैसे आग लग गई हो।

डॉक्टर ने बेटे की तरफ सिर फेर कर इशारा किया।

" अस्पताल ले जाएं..."

"या फिर शॉक लगवा लें... डॉक्टर अपनी कुर्सी से उठ गया।

"मुझे बुझाओ... मैं धूप हूँ... हाय.... हाय....मुझे बुझाओ... मैं धूप हूँ...!"

ओम प्रकाश अपने कपड़े फाड़ने लगे।

उसी शाम बेटे ने उन्हें मानसिक अस्पताल में दाखिल करवाया, जहाँ से मरीज़ बमुश्किल ही ठीक होकर लौटते हैं।

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                                                   लेखक परिचय

                      अंजना शिवदीप

 

    जन्म – 01 जुलाई 1976. शिक्षा - एम. ए. पंजाबी, एम. फिल। लेखन के संग-संग स्कूल     में अध्यापन। बहुचर्चित कहानी धूप अलग-अलग कहानी संग्रहों में संकलित और बेहद        सराही गई।  समलैंगिकता पर आधारित कहानी संग्रह रूह दी कोई जूह नहीं हुंदी का        संपादन। निरंतर  विभिन्न पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।



                साभार - परिंदे पत्रिका, दिसंबर-मार्च, 2023


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