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शनिवार, जनवरी 27, 2018

कहानी श्रृंखला -17 (पंजाबी) / कपास की ढेरियां - परवेज संधु

पंजाबी कहानी


कपास की ढेरियां

                                                                       0  परवेज संधु

                   पंजाबी से अनुवाद नीलम शर्मा अंशु



अक्सर ही रात के अंधेरे में सारा घर जब  गहरी नींद के आगोश में होता है तब मेरे भीतर मेरा गाँव जाग रहा होता है। मेरा गाँव, गाँव की गलियां.......खेत....पगडंडियां.... गाँव का गुरुद्वारा.....गाँव के घर चौबारे..... और उन घरों के चौबारों में बसते वे लोग जिनसे बिछुड़े युगों बीत गए हैं परंतु फिर भी गाँव मेरी रूह के किसी कोने में ज्यों का त्यों ही बसता है। इतने बरसों में वो पहले वाला हेरवा नहीं रहा परंतु फिर भी मेरे दिल में गाँव अभी भी धड़कता है। वहाँ रहते लोग, रिश्तेदार, दोस्त, सहेलियां कभी-कभार धड़कन बनकर साँसों में आ बसते हैं।
      छोटा सा गाँव। एक छोर से आवाज़ दो तो दूसरे छोर में सुनाई दे जाए। एक ही गुरुद्वारा..... हर इतवार को गुरुद्वारे के रास्ते में रंग-बिरंगे दुपट्टे उड़ते नज़र आते। हँसते-खेलते लोगों को मानों  हर  इतवार का मेले की भाँति इंतज़ार रहता। बचपन में हर गहरे रंग से मुहब्बत हो जाती है परंतु हल्के
रंगों की उदासी के रहस्य को समझने की परिपक्वता नहीं होती। ऊँचे चौबारों में रहने वाले बच्चों को कच्ची कोठरियों में बसते बचपन के दर्द का अहसास नहीं होता। बचपन क्या जाने भला बुढापे की डंगोरी की मजबूरी को परंतु कुछ तो था जो तब भी मेरे भीतर सुलगता था जब मेरा बचपन उस गाँव की राहों पर बेखौफ़ दौड़ता फिरता था।
गाँव में एक ही गुरुद्वारा था परंतु एक ही गाँव में दो शमशान थे।
ज़िंदा व्यक्ति एक ही गाँव में रहते हैं और मरने के बाद अलग शमशान में क्यों जाते हैं? एक शमशान में गाँव के सिर्फ़ एक वर्ग के लोगों की अर्थी जाती है और दूसरे में गाँव के दूसरे वर्ग और मृत पशुओं को क्यों ले जाया जाता है?     
जब से मेरे बालमन ने अपने आस-पास को समझना शुरू किया था, इन बातों के सवाल-जवाब रूपी झंझावात मेरे भीतर उठने लगे थे और मुझे आज भी याद है कि गाँव के बड़े शमशान के पास से गुज़रते वक्त मेरा दम निकल जाता था परंतु गाँव के बाहर वाले शमशान से मुझे कभी भय नहीं लगा था । परंतु वहाँ से गुज़रते वक्त कुछ सवाल मेरे भीतर ज़रूर उठते.... इस शमशान को हड्डरोड़ी क्यों कहते हैं ? हर बार मेरे भीतर से सवाल उठता......इन सवालों के बारे सोचते वक्त मैं शायद डर नाम की चीज़ को भूल जाती थी।
शायद इन सवालों का बीज-वपन मेरे भीतर मेरे बापू ने किया था। जाति-धर्मों को न मान कर हर गरीब ज़रूरतमंद के साथ खड़े होना मेरे बापू के असंख्य गुणों में से एक बड़ा गुण यह भी था। यह मेरा बापू ही था जो सुबह-सुबह खेत जाते वक्त अपने कामगारों को बुलाने जाता तो उनके घरों पर चाय पी लेता था और कई बार इस बात का बतंगड़ बना कर हमारे पड़ोसी ब्राह्मण परिवार की बुजुर्ग महिला मेरे बापू से लड़ने आ जाती और मेरा बापू हँस कर कह देता,
बुढ़िया! चाय मैंने पी है, पर पता नहीं तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होने लगता है।
और फिर बडबड़ाती हुई वह अपने घर जा घुसती। उस वक्त मुझे अपने बापू में किसी हीरो की छवि नज़र आती।
बचपन वाली बुद्धि धीरे-धीरे परिपक्व होती जा रही थी और उम्र के साथ-साथ ऐसे सवाल और भी सर उठाने लगे थे। इतना अंतर क्यों था ?  यह कभी समझ नहीं आया....बचपन चला गया परंतु गाँव की नुहार नहीं बदली। गाँव छोड़े युगों बीत गए।
सुना है अब गाँव बदल गया है। गाँव के लोग बदल गए हैं।

गाँव कैसे बदला होगा ?  वहाँ के लोग कैसे बदले होंगे ?
शायद वहाँ के हर अमीर-गरीब घरों की छतों के रंग एक से होंगे  ?  
या फिर गाँव के शमशान में जाति-पाति, धर्म नहीं देखे जाते होंगे ?     
या फिर शायद मेरे गाँव की कपास चुनने वाली औरतों के बच्चे भारी, फूलदार, मंहगी और गर्माहट वाली रजाईयों में सोते होंगे।
अक्सर बेतुके सवालों के जवाब अपने भीतर ढूंढती मैं बचपन की यादों में खो जाती हूँ जब मेरी माँ गरीब औरतों के झुंड के साथ कपास चुनने जाया करती थी। माँ की वे साथिनें सारा दिन सहेलियों की भाँति हँसती, खेलती, गीत गाती माँ के साथ पीठ पर झोले लटकाए कपास चुना करतीं। और दिन के अंत में अपने-अपने झोले की कपास को माँ के आँगन में ढेर करके खुद दूर जा बैठतीं। यही औरतें जो सारा दिन मेरी माँ के साथ मिलकर हँसती और मज़ाक करतीं परंतु दिन के आखिर में दूर ऐसे क्यों बैठ जाती हैं मानों वे मेरी माँ को जानती तक न हों। अपने दुपट्टों की बुक्कलों को संभालती चुपचाप कभी वे माँ को तकती और कभी कपास को घूरतीं।......और मेरी बचकानी नज़र को यह अच्छा न लगता।
मेरी माँ हर झोले की कपास के दो-दो हिस्से बना देती। देखत-देखते हर झोले में से दूध सी सफेद कपास का एक बड़ा ढेर बन जाता और एक छोटी सी ढेरी कपास चुनने वाली के झोले में डाल दी जाती। बड़ा ढेर मेरी माँ के आँगन में रखा रहता। वे औरतें जो सारा दिन माँ के साथ मेहनत करतीं, पसीने से तरबतर होतीं वे कपास की छोटी सी ढेरी उठा कर माँ को दुआएं देती हुईं अपनी-अपनी राह चल पड़तीं और मुझे कपास की ढेरी के पीछे बैठी मेरी माँ बहुत ही बेईमान लगती।

यह अंतर मुझे समझ न आता......और मेरी माँ को मेरे सवालों के जवाब कभी न सूझते।
और आज मेरे गाँव वाले कह रहे हैं कि गाँव बहुत बदल गया है.......जब गाँव के बदलाव के बारे सोचती हूँ तो लगता है शायद अब कपास की ढेरियां बराबर हो गई हों पर अब भी जब बरसों बाद गाँव जाती हूँ तो कुछ नए सवाल और दर्द सूटकेस में भर कर ले आती हूँ। मेरा गाँव अभी भी ज्यों का त्यों ही है। गाँव में प्रवेश करते ही अभी भी मेरा सर हड्डारोड़ी के सामने ही झुकता है। हर मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे और गाँव के शमशान जहाँ हमारे गाँव के बड़े बुजुर्ग बसते हैं उस जगह शीश झुकाकर गुज़रना मेरे बापू ने ही मुझे सिखाया था जो इतने बरसों बात भी मैं नहीं भूली। गाँव में प्रवेश करते ही यह पहली जगह है जिससे मेरा सामना होता है.....जहाँ अभी भी एक तरफ पशुओं के पिंजरों को गिद्धों ने घेर रखा होता है और थोड़ी दूर किसी इन्सान की बुझी चिता की राख।
मैँ इस गाँव की बेटी हूँ ?
जहाँ इन्सानों, भैंसों, कटुओं, बैलों का एक ही शमशान में दाह संस्कार किया जाता है और मैं वहाँ से गुज़रते वक्त शर्मसार ज़रूर महसूस करती हूं। कहते हैं गाँव के गुरुद्वारे का अहाता संगमरमर का बना दिया गया है।
  
 मुझे कुछ बदलाव नहीं दिखता। कुछ बेबस चेहरे, कुछ मजबूर नक्श मेरी रूह के कोनों में बस जाते हैं। उन लोगों का तंगहाल जीवन देख भरे मन से गाँव से लौट आती हूँ। कुछ ऐसे ही लोग मेरी रूह में तब तक लुकाछिपी खेलते रहते हैं जब तक वे मेरे अक्षरों में नहीं ढल जाते।
      वे लोग बचपन में भी वहीं थे। उनके घुटन भरे जीवन भी वहीं थे परंतु तब इन सब बातों को सोचने की मेरे पास बुद्धि नहीं थी.... तब कपास की छोटी-छोटी ढेरियों के पीछे का कड़वे सच की समझ नहीं थी। बचपन में जिन चीज़ों का अहसास भी नहीं होता, बड़े होने पर उन्हीं बातों के अर्थ बदल जाते हैं। बड़ों की जिन बातों पर तब हंसी आ जाया करती थी, उन बातों के अर्थ अब समझ में आते हैं और फिर दिल कहीं गहरी उदासी में डूब जाता है।

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      इस बार गाँव गई तो लौटते वक्त कितना ही बोझ साथ उठा लाई। माँ के साथ कपास चुनती वे औरतें याद आईं....कपास की छोटी-बड़ी ढेरियां कई बार मेरे आँखों के समक्ष आकर खिलखिला कर हंसी और कई बार उदास हो गईं। वैसे गाँव में कुछ तो बदला था। कच्चे घर पक्के घरों में तब्दील हो गए थे।  लोगों ने अपने घरों के लोहे के गेट और भी बड़े कर लिए थे।
      बड़ी-बड़ी कारों और कोठियों को देख कर एक पल के लिए तो लगा कि मानो अब इस गाँव में सभी बराबर होंगे... अधिक नहीं तो कुछ तो बदला होगा। कितने ही दिनों तक सोचती रही थी।
      गाँव में बहुत से नए चेहरे देख मुझे अपना चेहरा बेगाना सा जान पड़ा। नई पीढ़ी के लिए मैं कोई पुरानी सी ख़बर थी। गाँव की वे गलियां जहाँ मैं बिना नागा दौड़ती-फिरती रहती थी.... पड़ोसियों के द्वार जो कभी मेरे लिए बंद नहीं हुए थे अब मेरे हाथों की दस्तक से दहल जाते। कुछ पिंजर बने उम्रदार बुजुर्गों के काँपते हाथों ने जब मेरा सर सहलाया था तो मेरा रो पड़ने को जी चाहा था। और उन्हीं पुराने चेहरों में से एक बचपन के कुछ भोले-भाले नक्श मेरे सामने आ खड़े हुए और एक पल के लिए मुझे वह सारा गाँव अपना सा लगने लगा।.... वे नक्श थे रानी के, मेरी बचपन की सहेली... हमारे गाँव के राजा की बिटिया रानी.....वह नन्हीं सी बच्ची जिसके साथ मैं पता नहीं कितनी बार गलियों, आँगन में खेली होऊंगी। एक-दूसरे के साथ घर-घर खेलते हुए कितनी बार लड़े होंगे.....
      रानी ने मुझे गले से लगा लिया, बरसों की बिछुड़ी। बचपन की कुछ बातें सांझा कीं। बहुत कुछ भूला हुआ याद किया।
      रानी की माँ को हम चाची कहा करते थे। साँवली सी रंगत वाली इस चाची के सर पर मटमैला सा दुपट्टा होता, अधढका सा चेहरा, आधा घूंघट, दुपट्टे का एक कोना सख़्ती से होठों में भींचा हुआ। कई बार पुराने सूट के साथ रंगीला दुपट्टा लेकर मुहल्ले के घरों के दरवाज़े खटखटा कर वह गाँव के ब्याह-शादियों और सगाई के दिनों में लोगों को निमंत्रण देती।
मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी चाची को पास से चुपचाप गुज़रते देखा हो। जिधर से गुज़रती दुपट्टा संवारती आने-जाने वालों के दुआएं देती।
      अरी बिट्टो, तू राजा के घर जाए......रब तुझे झोलियां भर-भर दे, दूधों नहाए पूतों फले।‘’
और अगर कोई परदेस से लौटी मिल जाती तो उसकी आशीष भी बदल जाती।
      नी तू सुंदर देश की रानी, तू सुंदर-सुंदर पोशाकें पहने, वाहगुरु तुझे ढेरों दे... बिटिया जाते वक्त अपना ये पुराना सूट इस गरीबड़ी को देते जाना, रब तुझे सुखी रखे।
      और पता नहीं क्या-क्या कहती वह अपना काम करते जाती जैसे उसके भीतर आशीषों का भंडार हो। मैं और रानी एक साथ खेलते। तब अमीरी और गरीबी का पता नहीं था परंतु इतना ज़रूर पता था कि रानी के पास वैसी फ्रॉकें नहीं थी जैसी बाकी बच्चों के पास होतीं। उसकी चोटियां बाकी लड़कियों की भाँति सुंदर रंगीन रिबनों से न गूंथी होतीं। और ब्याह-शादियों पर जब मेरे जैसे बच्चे सुंदर पोशाकें पहन कर खेलते तो रानी अपनी माँ के साथ शादी वाले घर में बर्तन मांज रही होती या अपनी माँ का हाथ बंटा रही होती।
      और रानी का पिता रिश्तेदारों को दिन-बार के संदेसे देकर आता। शादी-सगाई वाले दिनों में वह गुलाबी पगड़ी बांधे साइकिल पर दसूती कढ़ाई वाला सफेद झोला लटकाए चलता-फिरता अक्सर नज़र आता। हम बच्चों के लिए वह चाचा था परंतु गाँव वालों का वह राजा था उसकी शक्ल-सूरत या रहन-सहन किताबों वाले राजाओं से नहीं मिलता था परंतु सारा गाँव उसे राजा ही कहता था। मुझे यह अंतर कभी समझ नहीं आया था कि वह किस रियासत का राजा था।
      यह अंतर क्यों था ? तब इतनी समझ नहीं थी। इतना ज़रूर पता था कि कुछ तो है जो ठीक नहीं था। ब्याह-शादियों में कुछ लोग बाहर आँगन में नीचे बैठ कर खाना क्यों खाते हैं ? उनके बर्तन क्यों अलग हैं रानी की माँ जैसी औरतें सारा दिन घरों में काम करती हैं परंतु दिन के अंत में घर की मालकिन कड़छी थामें पतीले के पास खड़ी होती है और उनके बच्चों के चेहरों पर एक अजीब सी मासूमियत होती। वे अपने हमउम्र बच्चों की तरफ बेचारगी से देखते....उनकी सुंदर पोशाकों को देखते। यह एक अंतर था जो मुझे तब अखरता था। मैं अपनी माँ से अक्सर सवाल पूछा करती जिनके जवाब मेरी माँ को कभी पता न होते।
ज़िंदगी तब बहुत ही छोटी थी बचपन की भाँति। और बचपन कब आया और कब चला गया पता ही नहीं चला। सालों बीत गए, गाँव की यादों के साथ गाँव के लोग भी आते और चले जाते। जब भी गाँव जाती तो मेरे साथ की लड़कियों में से कोई न कोई मायके आई मिल जाती। बाकियों से मिलने की आकांक्षा लिए मैं खुद से दुबारा मिलने का वादा कर गाँव से लौट आती।
और इस बार मेरे सामने रानी आ गई अचानक ही.....।
गाँव के गुरुद्वारे की रसोई में सुबह-सुबह प्रवेश किया तो अचानक मेरी आँखें खुली की खुली रह गईँ। वही नक्श, सर पर मैला सा दुपट्टा, वही साँवला रंग, वही बेबसी चेहरे पर.....मुझे पल भर के  लिए लगा मानो चाची साक्षात् मेरे सामने आ गई हो परंतु यह चाची नहीं थी, यह मेरे बचपन की सहेली रानी थी, हमारे गाँव के राजा की बेटी जिसका नाम रानी था।....वह दूर से दौड़ी आई और मेरे करीब आकर रुक गई....मानो मुझे आलिंगन में लेने से झिझक रही हो।
मैंने आगे बढ़कर उसे आलिंगन में ले लिया और मेरे मुँह से माय गॉड निकल गया।
रानी की आँखों में आँसू थे।
बहन पहचान लिया ? बहना आँखें तरस गई थीं तुझे देखने को, जिस दिन से पता चला कि बहन आई है उसी दिन से सोच रही हूँ कि इस बार बहन से ज़रूर मिलूंगी।
मुझे लगा मानो मेरे सामने रानी नहीं कोई बुजुर्ग महिला खड़ी हो। यह वह रानी नहीं थी जिसके साथ मैं बचपन में खेला करती थी....यह तो कोई मेहनत-मशक्कत से टूट चुकी और मजबूरियों के टोकरों से दबी हुई उम्र से पहले ही बूढ़ी हो गई कोई औरत थी जिसे मैं पहली बार देख रही थी। और अखंड-पाठ के तीन दिनों में हम दोनों ने बहुत कुछ सांझा कर लिया। जब कभी मैं रसोई घर में जाती वह दौड़ कर मेरे लिए पीढ़ा ले आती और लंगर वाला साफ-सुथरी थाल एक बार फिर से पोंछ देती।  मेरे साथ बातें करते-करते दुपट्टे के छोर से अपने चेहरे के पसीने को पोछती और बातें करते-करते सलवार का पहुँचा ऊँचा करके टाँग और टखने को खुजलाने लगती। ..... उसमें एक भी वह बात नहीं थी जो उस उम्र की औरतों में होनी चाहिए। मेरे सामने मानों कोई बुजुर्ग महिला घूम-फिर रही हो जिसे मैंने कहीं देखा था परंतु कभी जाना नहीं था।
और एक दिन मैंने हिम्मत करके उससे उसकी ज़िंदगी के बारे पूछ ही लिया। उसने बताया कि वह शादीशुदा है और उसके बच्चे भी हैं।  एक जवान हो रही बेटी है जो पढ़ने में बहुत ही होशियार है और बेटी की बातें करते वक्त उसका चेहरा दमक उठा।
बहन मेरी बिटिया पढ़ाई में बहुत अच्छी है। मैं सोचती हूँ कि मेरा तो जो बनना था बन गया, आगे बेटी की ज़िंदगी बन जाए....हमारी तो आधी गुज़र गई ऐसे ही......पहले माँ यही करती थी अब मैं ससुराल से आ जाती हूँ जब कभी गाँव में कोई ब्याह-शादी होती है.....अभी पिछले हफ्ते आई तो अमुक की शादी थी। मैंने सोचा माँ से भी मिल आती हूँ और ब्याह भी निपटा लूं....बस तुम जैसे भाई-बहनों के सहारे ज़िंदगी कट जाएगी। जीती-बसती रहो तुम सुंदर मुल्क की रानी....रब तुझे झोलियां भर-भर कर इतना दे कि तू संभालते-संभालते थक जाए.... बहन एक बात और...... और उसकी आवाज़ पहले से धीमी हो गई थी।
गुरुद्वारे वालो ने हमारा नेग तय कर रखा है, बहन कुछ नहीं बनता इतने से.....पर क्या करें कोई नहीं सुनता.... मेरी बहन जाते वक्त कुछ ज़रूर दे जाना.... किसी से कहना मत, कमेटी वाले गुस्सा करते हैं अगर हम किसी से कुछ माँग लें तो या फिर अगला अपनी मर्ज़ी से कुछ दे जाए तो।
मैं हैरान थी।  गुरुद्वारे की दो मंजिलें और बन गई थीं। संगमरमर के फर्श के साथ सरोवर का फर्श भी गहरे नीले पत्थर का बना लिया गया था। घर वालों ने बताया था कि करोड़ों के हिसाब से गुरुद्वारे का पैसा बैंक में रखा है। आखिरी मंज़िल पर एक लाइब्रेरी भी बना दी गई थी जिस में धार्मिक किताबें भी पढ़ने को मिलती हैं। मैं सोच रही थी कि हमारे गुरु नानक ने तो मानुष की जात सभै एको पहचानबो की बात घर-घर पहुँचाई थी परंतु फिर भी यह विभाजन क्यों ?
और अचानक मुझे महसूस हुआ यह रानी नहीं थी.....यह चाची का कोई नया रूप मेरे सामने था... वही नक्श....वही आवाज़...वही दुआएं। और मैं उसके मुँह की तरफ देखते हुए उदास हो गई थी। मुझ से पाँच-सात साल छोटी लड़की किसी बुजुर्ग की भाँति मुझे आशीषें दे रही थी। यह हमारे गाँव के राजा की बेटी है....इसे तो राजकुमारियों की भाँति होना चाहिए था.... इस लड़की का बचपन भी लोगों की उतरन पहन-पहन कर गुज़रा....जवानी भी और आने वाले दिनों की तस्वीर भी इसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी....।
ज़िंदगी ऐसी नहीं होनी चाहिए थी......।
मेरा मन उदास हो गया था। और मैं सोच रही थी कि गाँव नहीं बदला था....गाँव के लोग नहीं बदले....और ये लोग किस बदलाव की बात करते हैं ? गाँव के बाहर बने प्रवासियों के बंगलों के बदलाव की बात करते हैं या अमीरों के चौबारों पर बनी रंग-बिरंगी पानी की टैंकियों की ?
और फिर रानी ने आस-पास की औरतों की तरफ देखा और पहले से भी धीमे स्वर में कहा,
और कुछ नहीं तो अपना ये पुराना सूट ही दे जाना, मेरी बेटी पहन लेगी, तुझे दुआएं देगी, जीती-बसती रहो बहन....बुढसुहागन हो.....बहन मेरा रोम-रोम तुझे आसीसें देगा..... सुंदर देस की रानी रब तुझे बहुत दे।
पता नहीं अचानक मेरे मुँह से कैसे निकल गया....
हाय रानी तू तो बिलकुल चाची की तरह बातें करने लगी है.....ये बातें तूने कैसे सीख लीं ?
रानी ने दुपट्टे के छोर से आँखों की नमी पोंछी।
बहन ये पापी पेट सब कुछ सिखा देता है......
और एक आह उसके सीने से निकल कर मेरी रूह को चीर कर निकल गई।
अब जब कभी भी रात के अंधेरे में मेरे इस देश की दुनिया बेसुध सो रही होती है तो मेरे ज़ेहन में गाँव के लोग जीते-जागते मेरे साथ लुका-छिपी खेल रहे होते हैं और आँगन में बैठी मेरी माँ कपास की छोटी-बड़ी ढेरियां बना रही होती....पता नहीं मुझे क्यों लगता रहता है कि मेरी माँ के हिस्से की कपास वाला ढेरी पहले से भी ज़्यादा ऊँची हो गई है और रानी के हिस्से की ढेरी सिकुड़ कर छोटी सी हो गई लगती है......।




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साभार - कथादेश (मासिक) अगस्त, 2017





लेखक परिचय 




 परवेज संधु - 

1978 से अमरीका में निवास।  मुट्ठी भर सुपने, टाहणीओं टुट्टे, कोड ब्लयु नामक तीन पंजाबी कहानी संग्रह प्रकाशित। 12 वर्ष की आयू में प्रथम कहानी प्रकाशित।




 नीलम शर्मा अंशु- हिन्दी से पंजाबी,  पंजाबी, बांग्ला से हिन्दी में अनेक साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन। लंबे समय तक आकाशवाणी कोलकाता के एफ. एम. से बतौर रेडियो जॉकी जुड़े रहने के बाद अब आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो इंडिया में रेडियो जॉकी। संप्रति केंद्रीय सरकार सेवा, दिल्ली में कार्यरत।      
सम्पर्क rjneelamsharma@gmail.com

गुरुवार, जनवरी 25, 2018

कहानी श्रृंखला -16 (पंजाबी) बाजी - एजाज़

पंजाबी कहानी (पश्चिमी पंजाब - पाकिस्तान से)।


बाजी

                                 एजाज़


                           अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु



तब मेरी उम्र पाँच या सात बरस रही होगी जब पहली बार अम्मी मुझे बाजी के पास पढ़ने के लिए उनके घर छोड़ने गई थीं।

     उसका नाम तो कुलसुम था परंतु छोटे-बड़े सभी उसे बाजी ही कहते थे। हम ही नहीं बल्कि आस-पास की सभी छोटी, बड़ी, अधेड़, युवा, शादीशुदा औरतें  सबकी वह बाजी ही थी। शायद इसी कारण कई बड़ी उम्र के विवाह योग्य लड़के-लड़कियाँ ही नहीं बलकि कई शादीशुदा भी उसे बाजी ही कहा करते थे। वह उस दौर में हमारे गाँव की एकमात्र ऐसी लड़की थी जो भी बी. ए. तक शिक्षित थी। हालांकि तब हमारे इधर लड़कियों को बिलकुल भी स्कूल नहीं भेजा जाता था।

     हम से चार-पाँच साल पहले जब अभी गाँवमें सरकारी स्कूल नहीं खुला था, गाँव के सभी बच्चे साथ वाले गाँव के स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। उस वक्त जिस भी बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाया जाता उसे ट्यूशन पढ़ाने का जिम्मा बाजी पर ही होता। वे एक साथ दो-दो काम करतीं। सुबह घर आए बच्चों को वह कुरान मज़ीद का सबक देतीं। जो लड़कियां स्कूल न जातीं उन्हें वे पक्की रोटी, दस बीबीयों की कहानी, अहदनामा, नूरनामा तथा अन्य छोटी-मोटी मज़हबी किताबें पढ़ातीं। शाम को फिर ट्यूशन पढ़ने आए बच्चों को स्कूल का होम वर्क करवाती, उनके सबक सुनती, उन्हें हिदायतें देती न थकतीं।

     बाजी के शागिर्द कम ही फेल होते। इसीलिए गाँव में बाजी के गुणों और शिक्षित होने की चर्चा ज़्यादा थी।

माँ प्यार से मेरे बालों में हाथ फिराते हुए कह रही थीं – देख बेटी, मेरा एकमात्र बेटा है यह। मैँ इसे तुम्हारे पास छोड़न आई हूँ, इसे अच्छी तरह पढ़ाना। तुम्हारी जो भी फीस होगी, मैं इलाही मुहर दूंगी। रब करे यह  पढ़-लिख कर बड़ा अफसर बने, ताकि इसके पिता को राहत की साँस मिल सके। वह बेचारा अकेला कब तक.....

     आंटी, आप इसकी बिलकुल भी फिक्र न करें। मैँ आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगी। बाजी ने अम्मी की बात बीच में काटते हुए कहा।

     देखो बहन मुमताज़, यह तो बच्चों पर बहुत मेहनत करती है, अब आगे बच्चे पर भी निर्भर करता है कि वह कितनी जल्दी इसकी बात को समझता है। इसने कौन सा कुछ घोलकर पिलाना होता है। मेरा बेड़ा बेटा मीराह तो पढ़ाई में चलता ही नहीं था परंतु जब से मैंने इसे इधर भेजना शुरु किया है अब तो गणित क्या अंग्रेजी भी फर्र-फर्र पढ़-लिख लेता है। मेरी हमउम्र अपनी भतीजी सदरा और छोटे बेटे वलीद की ख़ैर-ख़बर लेने आई नासिर की अम्मी मेरी माँ को बाजी की खूबियां गिनवाने लगीं।

          इतने में ही बाजी की छोटी बहन नीलम चाय और बिस्कुट ट्रे में लिए हमारी तरफ बढ़ी। बाजी ने बड़े दुलार से मेरा दायां गाल थपथपा कर मुझे एक बिस्कुट थमाते हुए सदरा के पास बोरे पर बैठने का इशारा किया।

     धीरे-धीरे मेरा बाजी के घर आना-जाना रोज़ का नियम बन गया। अब मैं पढ़ाई में पहले से तेज़ और सबक जल्दी याद कर लेता था। धीरे-धीरे मेरी गिनती बाजी के चहेते और काबिल शागिर्दों में होने लगी।

     पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा में मेरी प्रथम श्रेणी पर रहने का सारा श्रेय बाजी को दिया जा रहा था। माँ उसकी तारीफें करते न थकती। वह बाजी को दुआएं देतीं। उसकी काबिलियत का गुणगान करते न थकती। मेरी हर कक्षा का परिणाम बढ़िया आने पर माँ मिठाई का एक डिब्बा और एक सूट बाजी को ज़रूर देती। इसकी शायद एक वजह यह भी थी कि माँ जानती थी कि इस तरह बाजी मेरे लाडले को और भी ध्यान ओर विशेष जतन से पढ़ाएगी।

     यहीं पर अपना स्कूली सबक रटते और याद करते हुए मैंने एक सबक और पढ़ा। वही सबक जिसे पढ़ते समय कैश के हाथों पर उसके उस्ताद ने छड़ियां मारी थीं। और उसकी मार के निशान मासूम लीला के तन पर पड़े थे। इस बारे में बात करते हुए हमारे गाँव का कॉमरेड चमन लाल कहा करता – यह तो वह सबक है बीबा जो इन्सान को कब्र की दीवारों तक याद रहता है। इसी ने मौजू जाट के पुत्र धीदो को झंग के सियालों की बेटी हीर के कारण राँझा बनने पर मजबूर कर दिया था। तभी तो फिर वह कान पड़वा कर जोगी बन गया था। इसमें सफल होने वालों की संख्या बिलकुल ही न के बराबर है जबकि असफल होने वालों की तादाद गिनने लायक भी नहीं। आपने ठीक अंदाज़ा लगाया है मैंने अपने अल्हड़ प्यार का सबक भी बाजी के घर पर ही रटा था।
     यहाँ पता नहीं कब, किस तरह, किस वक्त मेरी आँखें चार हुईं और मैं ज़िंदगी भर के लिए ज़ख्मी हो कर रह गया। मुझे सदरा पहले दिन से ही भा गई थी। उसकी गोल-मटोल आँखें, छोटे-छेटे हाथ, खूबसूरत होंठ, तीखी सी नाक, सेब जैसे लाल गाल। उसके बारे तो मैँ निश्चित नहीं हूँ कि क्या मैं भी उसे अच्छा लगता था या नहीं।

     जबकि मुझे उसकी एक-एक अदा, एक-एक हरकत, एक-एक शरारत बहुत अच्छी लगती थी तभी तो मैं रोज उसे अपने बोरे पर बैठने देता था। वह अपनी कॉपी-पेंसिल लिखने-पढ़ने के लिए दे दिया करती थी। मैं भी अगर घर से खाने की कोई चाज़ लेकर जाता तो बाक़ियों से छुपा कर उसे भी दे दिया करता।

सदरा पढ़ने में होशियार नहीं थी। इसलिए बाजी ने उसे मेरे पास एक बोरे पर बैठने को कहा और मुझे उसे रोज़ एक सबक याद करवाने की ताक़ीद की। मेरे बहुत परिश्रम के बाद भी जब उसे सबक याद न होता तो मैं शर्मिंदा हो जाता। पता नहीं क्यों मुझे उसकी पिटाई होते देख रोना आ जाता। बाज़ी मुझे समझातीं, लो इसमें तुम्हारा क्या कसूर है झल्ला कहीं का....

     अपनी काबिलियत और मामूली से हाज़िर दिमागी के चलते ज़रा विशेष और चहेते शागिर्दों में से एक होने के कारण बाजी मुझे छुट्टी के बाद घर के काम-काज के लिए रोक लिया करती थीं। मेरे हाथों चाचा शौक़ी की दुकान से सौदा-सुल्फ़ मंगवा लेना या कभी-कभार अपनी दोस्त माछियों की लड़की समीरा से डायजेस्ट या अन्य किताबें मंगवाना। बाजी की छोटी बहन नीलम भी अक्सर बाहर से मुझसे कुछ न कुछ मंगवाने को उतावली रहती। वह मुझे इमली, सब्ज़ी या फिर सुर्खी पाउडर के लिए पैसे थमा देती। मैं उनके सारे काम बड़े शौंक से जल्दी-जल्दी कर देता ताकि मैं उनके दिलों में और भी विशेष जगह बना सकूं। उनका विश्वास और ज़्यादा जीत सकूं।

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एक दिन बाजी के घर में जश्न का माहौल था। सर्दियों की छुट्टियों के बाद करीब आठ-दस दिनों बाद वहाँ पढ़ने जा रहा था। इस दौरान मैं अपनी माँ के साथ ननिहाल गया हुआ था परंतु लौटने पर तो वहाँ दस दिनों में दुनिया ही बदल गई थी। मैं बाजी के घर में काफ़ी बदलाव देख रहा था। उनके पूरे घर की लिपाई की गई थी, बाहरी दरवाज़ा जिसे दीमक लगी थी, अब उसकी जगह नया दरवाजा घर की शोभा में चार-चाँद लगा रहा था। खुरे की दीवार की जो ईंटे ढह गई थीँ, उनकी भी मरम्मत कर दी गई थी। मवेशी जो अमूमन बाहर गली में बंधें रहते थे, आज बाहर नही दिखाई दे रहे थे। पहले भी ईद या शबृ-ए बरात आदि त्योहारों पर उन्हें अपने ताऊ की हवेली में बाँध देते थे। आँगन में ही नहीं बाहर बाज़ार में भी दरवाज़े के सामने साफ-सफाई थी । मुझे कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी कि यह बदलाव किस लिए किया गया था। मैं इधर-उधर नज़र दौड़ा रहा था। मुझे ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों में से कोई भी नज़र नहीं आ रहा था। मुझे आँगन में इस तरह हैरान खड़ा देख रसोई में काम कर रही बाज़ी की छोटी बहन नीलम ने तुरंत कहा – बाबू आज आप सबकी छुट्टी है। तुम्हें किसी ने बताया नहीं आज हमारे घर कुछ ख़ास मेहमान आने वाले हैं।
                                                                   छुट्टी शब्द सुनते ही मानो मुझ में जान आ गई हो। मैं बाजी से मिले बिना ही घर लौट आया।

     उसी दिन शाम को पूरे इलाके में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई थी कि आज शाहकोट से जो ख़ास मेहमान बाजी को देखने आए थे, वे उसकी छोटी बहन नीलम की हथेली पर शगुन धर गए हैं। मेहमानों के बारे में यह भी बताया जा रहा था कि वे बड़े अमीर और शरीफ लोग हैं तभी तो बाजी के पिता ने इतना शरीफ़ रिश्ता हाथ से निकल जाने के डर से उनके कहे की लाज रख ली। और बाजी की जगह नीलम का हाथ उनके लड़के के हाथ में देने की ठानी।

     यूं जो मंगनी बाजी की होना थी, वह होते-होते रह गई और नीलम बाजी मार ले गई।
     हम सभी हैरान थे कि यह क्या हुआ ? उन्होंने मंगनी के साथ दिन भी तय कर लिया था। मेरी माँ बाजी के लिए बहुत फ़िक्रमंद दिखाई दे रही थी। उसे उसकी सारी जमा पूंजी जो उसने इस गाँव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर या फिर लोगों के कपड़े सिल कर इकट्और घुल-मिल जाने वाले गुणों की मालिक बाजी आए दिन चिड़-चिड़ी, मुँहफट और बड़बोली क्यों होती जा रही थी। नीलम की शादी के बाद पहले तो काफ़ी दिनों तक उसने ट्यूशन पढ़ाना छोड़ रखा था। फिर मुहल्ले की कुछ औरतों के कहने पर, जिनमें मेरी माँ भी शामिल थीं, वह फिर से हमें पढ़ाने लगी।

     हम आए दिन बाजी के सर के सफेद बालों की संख्या बढ़ते देख रहे थे। जब कि उसकी आँखों के गिर्द बन रहे घेरे और काले, गहरे होते जा रहे थे। मानो वह दिन-रात अपनी बहन नीलम के विरह की आग की तपिश में जल रही हो।

     बाजी के चेहरे पर जहाँ आठों पहर हल्की सी मुस्कान और रौनक सजी  रहती थी, अब उनकी जगह माथे पर त्योरी, बेरौनक और उक्ताहट रोज़ का नियम बन गई थी। बाजी जिसने कभी किसी बच्चे को सबक न आने पर कान पकड़ाने के सिवा कभी हाथ तक नहीं लगाया था, अब वह बच्चों के प्यार से समझाने की बजाय खा जाने वाली निगाहों से देखती रहती। वह रोज़ किसी न किसी को पीट देती रही है। बाजी बच्चों की छोटी-छोटी हरकतों और शरारतों से आग की लपटों की भाँति दहकती रहती।

     एक दिन जब मैं अपने पास बैठी सदरा के पैर पर अपने हाथ में पकड़े तिनके से शरारत कर रहा था और वह मस्त होती हुई अपने में सिमटती जा रही थी। मेरे दिल में उसे छूने की ख्वाहिश जगी तो मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में ले प्यार करने लगा। बाजी ने मुझे उसका हाथ चूमते देख लिया।। इस से पहले कि वह मुझसे कोई पूछ-ताछ करती, उसने मुझे पीटना शुरू कर दिया।  उस दिन के बाद सदरा अपना अलग बोरा लाकर बाजी के पास ही बैठने लगी। मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि काश मैंने ऐसा न किया होता तो शायद सदरा उस तरह मुझसे अलग होकर न बैठती। भीतर ही भीतर कहीं टीस सी उठती और मैं कुढ़ने लगता। मैंने कभी सोचा भी न था कि वह इस तरह बाजी के पास बैठा करेगी और मैं उसके पास बैठने के लिए, उससे कोई बात करने के लिए भी इतना तरस जाऊंगा।

     नीलम के जाने के बाद कुछ भी पहले जैसा न था। बलकि धीरे-धीरे कितना कुछ बदल गया था। इस बदलाव में बाजी के सर के सफेद बालों की बढ़ रही संख्या के अलावा उसकी तबीयत में चिड़चिड़ापन, कड़वाहट और बैरौनकी भी शामिल थी। दूसरी तरफ मेरे और सदरा के जुस्सों के उतार-चढ़ाव में भी आश्चर्यजनक बदलाव हो रहा था।
     सदरा बाजी की निकटता और शफ़कत का भरपूर फ़ायदा उठा कर पहले से अधिक लायक, हाज़िर दिमाग, तेज और होशियार होती चली जा रही थी जबकि मैं आए दिन और भी नालायक, सुस्त और भुलक्कड़ बनता जा रहा था। मैं यूं ही हर वक्त सदरा के सीने में उठ रहे तूफान के बारे घंटों सोचता रहता था कि आख़िर आजकल वह क्या खा रही है जिस कारण वह हर दिन और तेज़, चुस्त, चालाक, शोख और खूबसूरत होती जा रही थी। मैं जब भी उसकी तरफ प्यार भरी निगाहों से निहारता, वह नाक-भौं सिकोड़ती मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरा करती। वह मुझे इस तरह लगातार घूरते हुए मुँह में बड़बड़ाती रहती। एक-दो बार बाजी ने मेरी हरकत पर गौर करते हुए कुछ न कहा, परंतु जब उसे मैं पीछे हटता न दिखा तो उसने मुझे आड़े हाथों लिया -  क्या बिटर-बिटर ताकते रहते हो उसकी तरफ, बेशर्म कहीं के। कैसे आँखे फाड़-फाड़ कर देखता है। मेरे बेइज्ज़ती पर सदरा मन ही मन खुश हो रही होती, शायद वह भी यही चाहती थी कि बाजी मुझे इस तरह देखने पर डांटे क्योंकि अब मैं न तो बाजी के किसी काम का रह गया था और  न ही सदरा के। अब मैं बाजी के चहेते शागिर्दों में नहीं रहा था और न ही बाजी मुझे छुट्टी के बाद घर के कामों के लिए रोकती थी।

     पहले-पहल मुझे लगा कि मैं लड़का हूँ और सदरा लड़की, शायद इसी लिए बाजी अब उसे ज़्यादा और मुझे कम पसंद करने लगी है। परंतु कभी-कभी मुझे अपने और सदरा के जिस्मों में बढ़ रहे बदलावों को लेकर तरह-तरह के ख़याल आते रहे हैं।

उन दिनों गर्मियों की छुट्टियों में मैं ननिहाल जाने के लिए माँ के कहने पर बाजी को बताने गया था। उनके घर जाते समय सदरा को भी उधर जाते देखा। मैं कुछ देर के ले बाहर गली में रीछ का तमाशा धेकने के लिए रुक गया था परंतु तुरंत ही मैं वहाँ से बाजी के घर चला गया। उनके आँगन में मुझे कोई प्राणी नज़र नहीं आया तो मैं बाजी के कमरे की तरफ बढ़ा। मैं असमंजस में था कि अभी तो मैंने सदरा को इधर आते देखा था, और अब वह किधर गायब हो गई थी। वह मुझे अभी दुबारा नज़र नहीं आई थी। मैं चुप-चाप आगे बढ़ा तो मुझे बरामदे में बाजी के कमरे में से खुसर-पुसर की आवाज़ सुनाई दी, ज़रा पास गया तो मुझे किसी के सिसकने, आह भरने की आवाज़ सुनाई दी। मैं वहीं खड़ा हो गया।

     आगे बढ़ कर मैंने उस कमरे की खिड़की से सटकर झिर्रियों में भीतर देखने की ठानी। यह देखने के बाद एक मुँहज़ोर साँप मेरे भीतर फुफकारता हुआ मुझे दिनों-दिन आवारगी, पागलपन और नालायकी के बहाव में बहाए लिए जा रहा था।


साभार - वांग्मय (अलीगढ़ से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका, जनवरी-मार्च - 2018)।
संपादक - डॉ. एम. फ़िरोज़ अहमद


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 लेखक परिचय 

एजाज़  - जन्म 25 फरवरी 1990 खरड़ियां वाला लायलपुर (फ़ैसलाबाद) पाकिस्तान में। जन्मजात शायर। छोटी उम्र में ही साहित्य जगत को तीन पुस्तकें भेंट। उनकी रचनाएं दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं। अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित। सरकारी डिग्री कालेज गुज्जरखान रावलपिंडी में प्रोफेसर। ऑनलाइन पत्र अनहद के साथ-साथ पंजाबी में प्रकाशित पत्र कुकनुस का संपादन-प्रकाशन।


 नीलम शर्मा अंशु हिन्दी से पंजाबी,  पंजाबी, बांग्ला से हिन्दी में अनेक साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन। आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो इंडिया में रेडियो जॉकी।

 विशेष उल्लेखनीय -

सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित काबुलीवाले की बंगाली बीवी वर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। कोलकाता के रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास लाल बत्ती का हिन्दी अनुवाद।
संप्रति  केंद्रीय सरकार सेवा, दिल्ली में कार्यरत। 


    
 

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