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शुक्रवार, मई 28, 2010

दोस्तो, संस्कृति सेतु में प्रस्तुत है प्रथम रचना। बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा रचित कहानी - वन कुसुम का स्पर्श।

बांग्ला कहानी
वनकुसुम का स्पर्श

0 समीरण गुहा
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’


बनगाँव से दत्तफूलिया की बस में चढ़ते ही सृंजय की नज़र पड़ी युवती पर। सांवले रंग और खुले लंबे बालों वाली ये लड़की बहुत खूबसूरत है, ऐसा भी नहीं है। यहाँ तक कि उसे खूबसूरत भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी सफेद नग वाला लौंग जिसके नाक में श्वेत कमल की भांति खिल रहा है, उसे श्रीमयी अवश्य कहा जा सकता है। सृंजय से नज़रें चार होते ही युवती ने नज़रें झुका लीं। बाहर की तरफ जो देखना शुरू किया तो फिर इधर नहीं देखा। बड़ी शर्मीली है। दरअसल उसके चेहरे में स्निग्धता के साथ-साथ निर्जनता का सम्मिश्रण है। श्रीमयी मानो सचमुच एक निर्जन द्वीप की रहने वाली हो। परिणामस्वरूप वह लोगों से भरी बस में भी अकेली है।
ऊबड़-खाबड़ रास्ते से बस दत्तफुलिया की तरफ दौड़ी चली जा रही थी। सृंजय उतनी दूर नहीं जाएगा। वे लोग नीलडुगरी में उतर जाएंगे. वहाँ से वैन रिक्शा में सवार होकर सीधे विभूतिभूषण अभ्यारण्य जाएंगे। अरण्य में तीन दिन गुज़ारने के लिए वे लोग कलकत्ते से दौड़े आए हैं। उसके साथ और तीन दोस्त हैं - अमिताभ, अरुण, बीरेन। अमिताभ को छोड़ बाकी सभी छात्र हैं. दीनबंधु कॉलेज गड़िया में बी. एस. सी. के छात्र हैं। लगभग पांच महीने पूर्व अमिताभ को एक नौकरी मिल गई है, वही ज़ोर-ज़बरदस्ती अपने बचपन के दोस्तों को विभूतिभूषण अभ्यारण्य ले जा रहा है।
श्रीमयी तो सृंजय की तरफ देख ही नहीं रही है, गोद में किताबें रखे, बाहर की तरफ निहार रही है। या फिर प्रकृति ही उसे निहार रही है। उत्तर दिशा की हवा उसके रूखे बालों से अठखेलियां कर रही है। गड्ढे को लांघते हुए बस के उछलते ही श्रीमयी ने गोद में रखी किताबों को संभालते हुए सरसरी नज़र से पल भर के लिए सृंजय की ऑंखों की तरफ देखा। उसके बाद मानो वह युवती फिर कहीं खो गईं या उसने खुद को ही समेट लिया। पल भर के दृष्टिपात के उस ज्वार में बह जाने के बावजूद सृंजय ने सोचा कि उसकी नज़रों में इतनी उदासी क्यों ? क्या वह कोई विषाद की देवी है ?
नीलडुगरी, नहीं नलडुगरी पर बस के रुकते ही धक्कमपेल करते हुए काफी लोग उतर पड़े। अमिताभ, बीरेन चिल्ला उठे - सामान ठीक से उतार लिया तो? सृंजय का ध्यान उधर नहीं था। उसने देखा, उनके साथ-साथ वह श्रीमयी भी बस से उतर रही है। और उतरते ही कुछ ग्रामीणों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए इस घर के आंगन, उस घर के बागान, बांस बागान बीच से जाती पगडंडी से होते हुए एक पोखरी के किनारे से जाते हुए कहां अदृश्य हो गई, पता ही नहीं चला। दरअसल पोखरी के किनारे के आम बागान की घनी छाया में ढक जाने के कारण वह दिखाई नहीं दी। सृंजय तब भी उधर ही देख रहा था।
अमिताभ ने ज़रा बेचैन होकर पूछा, तू तब से क्या देखे जा रहा है ?
सृंजय ने उत्तर दिया – विषणता।
ओए, दो कविताएं लिख कर और दो काव्य संकलन छपवा कर तू ऐसा कोई बड़ा कवि नहीं बन गया है। पहेलियां बुझाना छोड़। अमिताभ ने हैरानी से पूछा - तू, क्या किसी लड़की को देख रहा था ?
मैं एक श्वेत कमल के देख रहा था।
मतलब तू अब कविता गढ़ रहा है, गढ़ता रह। रात को तेरी कविता पर काफ़ी विचार-विमर्श करेंगे। बीरेन की तरफ देखते हुए अमिताभ बोल उठा, अरे वो देख कई वैन रिक्शाएं खड़ी हैं। एक से बात कर लो।
विभूतिभूषण अभ्यारण्य के दो मंज़िले गेस्ट हाउस के दो कमरों में रहने का बंदोबस्त चारों दोस्तों ने पहले से कर रखा था। यहाँ बावर्ची भी है। हाथ में पैसे थमा देने पर सब्जी वगैरह भी वही लोग ले आते हैं। अत: खाने - पीने की कोई समस्या न होने के कारण सृंजय, अमिताभ, अरुण और वीरेन अरण्य के पास आकर अरण्मयी सांस लेने लगे. पारमादन में अरण्य के भीतर एक और अरण्य है। उस घने जंगल के आकाश को बड़े और पुराने वृक्षों ने अपने फैलाव से ढक दिया था। साल, महुआ, अर्जुन, शीशम, अशोक, कदम, सेमल, ऑंवले, कृष्णचूड़ा और राधाचूड़ा की भरमार थी।
छायादार वृक्षों का जमावड़ा था। लोहे की जाली से घिरे भीतरी जंगल में हिरणों का झुंड निश्चिंत होकर विचर रहा था।
अभ्यारण्य से सटी हुई इच्छामती नदी बहती चली जा रही है। हरे रंग के पानी से लबालब। नदी के घाट पर बनी पक्की सीढ़ियों पर चारों दोस्त खामोश बैठे थे। पीले गेंदा फूलों की तरह उस पार के सरसों के खेतों में ढलती शाम की सिंदूरी आभा बिखरी हुई थी। घाट पर कई नौकाएं बंधी थी। लहरों के बीच एक छोटी सी भुटभुटी थी जो बताशे लूटने जैसा शोर करते हुए बढ़ती चली जा रही थी। सृंजय किन्हीं ख़यालों में डूबा हुआ था कि अचानक बोल उठा - विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय और इच्छामती नदी - दोनों को परस्पर अलग कर नहीं सोचा जा सकता।
इसी बीच एक सोलह वर्षीय किशोर नौका से उतर कर चारों दोस्तों के सामने आ खड़ा हुआ। उसकी विनती थी कि बाबू लोग अगर ज़रा नौका भ्रमण कर लें तो उसे दो पैसे मिल जाएं। आज उसकी नौका को कोई सवारी नही मिली, परिणाम-स्वरूप उसे खाली हाथ घर लौटना पड़ेगा।
अरुण ने पूछा - क्या नाम है तुम्हारा ?
हाराण !
पढ़ते हो ?
चार जमातें पढ़ कर ये नौका चला रहा हूं।
तुम कैसे माझी हो, मेरा मतलब है, हमें तुम डुबो तो दोगे न ?
हँसते ही हाराण के चमचमाते दाँत दिखे। सरलता से कह बैठा - अब तक तो कोई मरा नही, हाँ आप लोगों की आयू कम हो तो अलग बात है।
चारों दोस्तों के ठहाकों से इच्छामती के तट गूंज उठे। बीरेन बार-बार कहने लगा - बड़ी अच्छी बात कही है लड़के ने। सिर हिलाकर तारीफ़ की अमिताभ और अरूण ने। सृंजय सहज ही किसी को 'तू' नहीं कह पाता । मुग्ध हो उसने कहा - हाराण, तुम्हारा घर कहाँ है ?
उस दियारा गाँव में। सोलह वर्षीय किशोर ने पेड़ों की छाया और अस्पष्ट कुहासे में लिपटे नदी के उस पार फूस, ताल के पत्तों, टाली की छत यानी घास-फूस, मिट्टी से बने घरों की तरफ इशारा करते हुए कहा। कल तड़के चले आईए हमारे गाँव, खजूर का रस पीने को मिलेगा। फिर आपको नीलकूठी घुमा लाऊंगा। नील साहब के दो सौ साल पुराने उस मकान के दरवाज़े-खड़कियों को गाँव वालों ने खाली कर दिया है। अब केवल ढाँचा ही बचा है। और साहब का नाच-घर भी है। आप लोग चलेंगे न ?
अवश्य! अमिताभ ने दोस्तों की तरफ देख निश्चिंत स्वर में कहा - मांझी और गाइड, ऐसा कंबीनेशन आज के ज़माने में कहाँ मिलेगा ? तुम सुबह नौका लेकर चले आना।
रात को खाना खा चुकने के बाद दूसरी मंज़िल के बरामदे में आ बैठे सभी दोस्त। जैसी ठंड पड़ रही है उस ठंड में खुले बरामदे में कितनी देर बैठकर वे बातें कर पाएंगे ? यद्यपि उन्होंने शाल, स्वेटर, मफलर पहन रखे हैं फिर भी हवा की ठन्डक महसूस हो रही है। उधर वाले कमरे में एक भद्र पुरुष अपनी पत्नी और बेटी के साथ ठहरे हुए हैं। जंगल की निर्जनता और प्रकृति के मनोरम वातावरण में उन्नीस वर्षीया युवती एक साथ चार युवकों को देख बेवजह खुद को महत्वपूर्ण मान घमंड के आवरण में सिमटी नहीं रही। वह चंचलता से उनके सामने घूमने लगी।
सृंजय ने टिप्पणी की - चंचल फोड़िंग।
तुरंत अरुण बोल उठा - तुमने फोड़िंग क्यों कहा, तितली भी तो कह सकते थे।
तितली में चंचलता होते हुए भी एक स्थिरता होती है। इस युवती में बहुत व्यग्रता है इसलिए वह फोड़िंग है।
पल भर में जिसकी यह उपलब्धि हो, वह बड़ा कवि हुए बिना रह ही नहीं सकता। अमिताभ बोल उठा - भई सृंजय, हम तुम्हारे गुणों से मुग्ध हो गए। बीरेन ने सिर्फ़ इतना कहा - बेटा जितने भी बड़े कवि क्यों न बन जाओ, भविष्य में हम तीनों को अगर न पहचान पाए.......
संजय ने सहजता से मुस्कराते हुए जवाब दिया - मैं तो खुद को ही नहीं पहचानता - तुम लोगों को कैसे पहचानूंगा ?
रात धीरे-धीरे गहरा रही थी। विशाल आकार वाले पेड़ मानो थोड़-थोड़ा करके अंधेरा हटा रहे हों। अंधेरा इतना गहरा हो सकता है यहाँ आए बगैर कभी अहसास ही नहीं हो पाता। आश्चर्य की यह तस्वीर भी देखने को न मिलती। वृक्षों के बीच-बीच में से नज़र आ रहे आकाश के तारे अंधेरे में और भी चमकीले तथा कोमल नज़र आ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो नीली रौशनी वाले टूनी बल्बों से किसी ने पूरे वनांचल के उत्सव के लिए सजा दिया हो। अमिताभ, अरुण, बीरेन, सृंजय न सोकर तारों की चादर तले बैठ प्रकृति के प्रति बार-बार कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे।
रात के गहरे अंधेरे और तारों का मेला देखने के बाद उन्होंने घने कुहासे की एक अद्भुत प्राचीर देखी। मानो बादल ज़मीं पर आकर अठखेलियां कर रहे हों। धीमे-धीमे क़दमों से वे इच्छामती के किनारे आ खड़े हुए लेकिन नदी नौका, उस पार का दियारा गाँव कुछ भी दिखाई नहीं देता। प्रकृति मानो श्वेत वस्त्रों में लिपटी हो। इस कुहासे में भी हाराण ठीक समय पर आ हाज़िर हुआ। लेकिन अमिताभ, अरुण, बीरेन, सृंजय में से कोई भी उस वक्त नौका पर सवार होने को तैयार नहीं था। अरुण ने तो कह ही दिया, चार हाथ दूर की चीज़ें दिखाई नहीं देती। ऐसे स्थिति में नौका कभी भी उलट सकती है। ज़रा कुहासा कुछ कम हो।
आप लोगों को तो बस, नौका के उलट जाने की पड़ी है। किशोर मांझीं बहुत ही निराश था। फिर भी नम्र स्वर में कहा - चोर लोगों को लेकर पानी में तैरूंगा, क्या मुझे इतनी भी बुध्दि नहीं है। ठीक है कुहासा ज़रा कम हो जाए।
आधे घंटे बाद जब वे लोग दियारा गाँव के घाट पर उतरे तो धीरे-धीरे जब प्रकृति के श्वेत आवरण की चादर हटी तभी मानो सुबह हुई। गाँव के रास्ते पर आगे-आगे चल रहा था हाराण। उसके पीछे -पीछे सृंजय और उसके साथी। रास्ते पर बैलगाड़ी के पहियों के निशान कलकत्ते की सड़कों पर बिछी ट्राम लाईनों की भाँति लग रहे थे। चारों तरफ खेतों में हरा और पीला यौवन फैला हुआ था। रास्ते पर साईकिलों और बैलगाड़ियों पर लोगों की आवाजाही शुरू हो गई थी। बैलों के गले में घंटियों की रुन-झुन, बकरियों की मैं– मैं, पास के घरों में कपड़ों के बुने जाने की आवाज़ - फिर भी लग रहा था मानो दियारा गाँव निर्जनता की तस्वीर हो।
इधर-उधर बाँसों का झुरमुट, फूलों के पौधे हैं। मानो सभी परस्पर गले मिलते हुए एक दूसरे में समा जाना चाहते हों। उससे भी सुंदर है वनकुसुम की झाड़ी। लेकिन वनकुसुम की उस छोटी सी झाड़ी के पास सारे ऑंगन को गोबर मिले पानी से बुहार रही कौन है? वह तो श्रीमयी है।
श्रीमयी के आंगन में हाराण के पीछे-पीछे अमिताभ और उसके साथियों के आ खड़े होते ही बीस वर्षीया युवती झुककर जो काम कर रही थी उसे बंद कर दिया। साड़ी को उसने कमर में खोंस रखा था। लक्ष्मी जी जैसे खूबसूरत दोनों पाँव गोबर पानी से भीगे हुए थे। परंतु सृंजय को लगा मानो श्रीमयी के पाँव ओस से भीगे हुए हैं। सारे शरीर में सुबह के कुहासे को लपेटे एक अटल शिखा की भाँति खड़ी थी। ज़रा सा हँस कर हाराण ने कहा - मेरी दीदी, उदासी।
आप बनगाँव के कालेज में पढ़ती हैं। सृंजय के सवाल के जवाब में हाराण ने ही उत्तर दिया – हाँ। हमारे घर में पढ़ाई-लिखाई में सभी टांय-टांय फिस्स होते हुए भी दीदी बनगाँव कालेज में बारहवीं में पढ़ती है। हम आठ भाई-बहनों में सिर्फ़ दीदी ही...........
तुम चुप भी होगे। हाराण को डांट लगाई उदासी ने। लेकिन डांट भी इतनी ख़ामोशी भरी हो सकता है यह पहली बार महसूस किया सृंजय ने। हाँ, अमिताभ, बीरेन, अरुण सभी ने हैरान होकर अपने दोस्त से पूछा - ये बनगाँव कालेज में पढ़ती हैं तुम कैसे जानते हो ?
मुस्कराते हुए दबे स्वर में सृंजय ने हवा में तैरते हुए कहा - कवि अनुमान से बहुत कुछ जान लेते हैं।
आप कवि हैं ? उदासी की आवाज़ और ऑंखों में शर्म का ज्वार था। युवती दरअसल लज्जा की लता थी।
थोड़ा-बहुत लिख लेता हूँ लेकिन हम लोग यहा खजूर का रस पीने आए थे। क्या आप हाथ में झाड़ू थामे हमारा रास्ता रोके खड़ी रहेंगी ?
उदासी शर्मीली है, बहुत ही शर्मीली। लेकिन अपने इन बीस वर्षो के जीवन में भले ही दरिद्रता और अभावों में जीवन गुज़ारा हो लेकिन ऐसी नाजुक स्थिति का सामना पहले कभी नहीं करना पड़ा। परिणामस्वरूप झाड़ू वहीं फेंक वनकुसुम की झाड़ियों के बगल से वह तेजी से भाग गई।
टूटे-फूटे घरों के ऑंगनों में उदासी के छोटे-छोटे भाई-बहनों में कोई नंग-धड़ंग घूम रहा था तो कोई गुड़ियों से खेलते हुए कलाई की कटोरी से मूड़ी खाने में जुटे थे। दो जने जिनकी उम्र छह-सात वर्ष होगी सुबह-सुबह ही आपस में मार पीट कर रहे थे और नोच-खसोट रहे थे। आठ भाई-बहनों के अतिरिक्त माता-पिता, नानी और बुआ को मिलाकर कुल 12 सदस्य थे परिवार में। नानी बैठकर कलमी साग में से घास-फूस चुनकर साग की गुच्छियां बना रही थी। और बुआ अपने में मग्न होकर नारियल के पत्तों से सीखें निकाल रही थी। उदासी के पिता का नाम है अनंत। उसकी शारीरिक बनावट ही अभावों की कहानी कहती नज़र आ रही है। दरअसल जन्म से ही अभावों से जूझते-जूझते अब अनंत की हालत जर्जर मकान जैसी हो गई है।
आंगन के एक कोने में बैठ उदासी की माँ मेघमाला खजूर के रस को उबाल रही थी। चारों तरफ हवा में मीठी-मीठी सी सुगंध फैली हुई थी। मेघमाला के आस-पास पड़े कलश खाली होने का इंतज़ार कर रहे हैं। खाली होने के बाद वे फिर पेड़ों पर लटकने के लिए चले जाएंगे।
अनंत ने दो गिलास और दो कलश चारों दोस्तों के सामने रखते हुए हंसकर कहा - पीजिए, जितना जी चाहे। इसमें एक बूँद भी पानी नहीं है। इसका स्वाद ही अलग है।
सचमुच इसका स्वाद ही विशुध्द है। हाँ, सर्दियों की इस ठंड में कलश के इस रस को निगलना संभव नहीं है। दो घूंट भरते ही माघ महीने की ठंड सर में जाकर जम गई। वे धीरे-धीरे पीते रहे।
इसी बीच उदासी माँ के पास आकर रस उबालने के काम में हाथ बंटाने के लिए आ बैठी। ये काम ख़त्म होते ही ऑंगन में जो धान का पहाड़ सा जमा पड़ा है, उसमें हाथ लगाना होगा। उनके पास बैल नहीं हैं। अत: चकरी की तरह घूम-घूम कर पैरों से रौंदने का सवाल ही नहीं उठता। वह काम भी हाथों से करना होगा। इसके बाद इच्छामती नदी में डुबकी लगा भुनी हुई मछली या कलमी या गीम साग के साथ पांता भात खाकर बनगाँव कालेज के लिए निकलना होगा। हाँ, और ज्यादा पढ़ाई संभव नहीं होगी। उनकी इतनी हैसियत नहीं है। ये पढ़ाई भी कैसे चल पा रही है यह उदासी अच्छी तरह ही जानती है। पिता के लिए उसे बहुत दु:ख होता है। खटते-खटते ही ख़त्म होते जा रहे हैं। किसी भी दिन, किसी भी पल मुँह के बल गिर पड़ेंगे। फिर भी ---- फिर भी पिता का अंतर्मन कितना सजीव है। अभावग्रस्त होते हुए भी अभाव के निराकरण का दीप जलाकर कहेंगे- मेरी बड़ी बिटिया बारहवीं में पढ़ती है, मुझे किस बात की कमी है। जो लोग अनपढ़ हैं अभाव तो उन्हें है।
अनन्त ने एक बार पूछा, बाबू जी क्या और एक कलसी लगेगी ?
नहीं, नहीं और नहीं। इसे ही ख़त्म नहीं कर पा रहे हैं। हाँ, परितृप्त स्वर में बीरेन ने कहा - ये जो आपने पिलाया, ऐसा ज़िंदगी में कभी नहीं चखा।
हमारे कलकत्ते के टालीगंज, गड़िया, गड़ियाहाट में बैठ बाबाजी के छोटे से गिलास में हम लोग जो रस पीते हैं वह जैसा फीका होता है वैसा ही बेस्वाद भी। अचानक याद आ जाने की भंगिमा में अरुण ने पूछा - अच्छा, ये एक कलसी आप कितने रुपयों में बेचते हैं ?
जी पंद्रह रुपए में।
बहुत ही कम है। अमिताभ ने सपाट स्वर में कहा - कलकत्ते में दो नंबरी चीज़ देकर लाट साहब लोग इससे भी ज्यादा पैसे लेते हैं। वहाँ सभी व्यापारी लुटेरे हैं। मैं आपको कलकत्ते ले चलूंगा, आप वहाँ खजूर का रस बेचिएगा।
क्या, रस पीते ही तुझे नशा हो गया ? सृंजय ने मुस्करा कर कहा- मैं भी सोच रहा हूं कि यहीं रह जाऊं। इस इच्छामती के तट पर। दियारा गाँव में।
लगता है तूने तो चढ़ा रखी है। ठहाका लगा कर हँस पड़ा अमिताभ। बोला - तेरे प्रकाशक, संपादक हैं न - तुम यहाँ पड़े रहोगे।
धीमा सा स्वर सुनाई दिया - दो दिन।
कौन ? कौन बोला ?
हाराण ने ही उत्तर दिया - दीदी की आवाज़ थी।
सर्दियों के दिन पलक झपकते ही छू-मंतर हो जाते हैं। दोपहर के बाद शाम होते न होते ही सूक्ष्म एक छाया का आवरण सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लेता है। वृक्षों के साये धीरे-धीरे और लंबे होते जाते हैं। सृंजय और उसके साथी अब इच्छामती के हरे पानी में तैर रहे हैं। वे नीलकोठी देखने गए थे। वहां दो घंटे गुज़ारने के बाद अब वे अभ्यारण्य की ओर जा रहे हैं। इच्छामती के दाहिने किनारे पर घने और हरे वनांचल हैं। हरियाली की ही कई तरह की बहार है। दोनों ऑंखें स्निग्धता से भर उठती हैं। नदी के बीचो-बीच कुछ कुछ दूरी पर मछली पकड़ने के लिए बाँसों के त्रिभुज बिछाए हुए हैं। वहां से ठीक-ठाक गुज़ार कर हाराण ने परमादन के घाट पर नौका को भिड़ा कर हँस पड़ा, देखिए आप में से कोई पानी में तो नहीं गिर पड़ा ? मेरी नौका लेकिन नहीं पलटी।
गेस्ट हाउस के लॉन में उन्नीस वर्षीया युवती तितली की भाँति घूम रही थी। उसे देखते ही अमिताभ कह उठा - सृंजय तेरी फोड़िंग बहुत फड़फड़ा रही है।
उसे माफ कर दे।
अरुण ने हैरानी के स्वर में कहा, दरअसल लड़की इतनी दुबली है कि फूँक मारते ही उड़ जाए। वर्ना इस जंगल में उसकी तरफ देखने को जी नहीं चाहता, सोच सकते हो।
वन भ्रमण समाप्त हुआ। अब कलकत्ते लौटने की बारी है। दोपहर के नहा-धोकर खाने के बाद तुरंत निकल पड़ना होगा। सृंजय और उसके साथी आज एक बार फिर उदासी के घर गए थे। चारों दोस्त घर ले जाने के लिए दो-तीन किलो नए गुड़ की पाटली खरीद लाए थे। उदासी से सुगंधित गुड़ लेते समय सृंजय ने अत्यंत सहजता और अपनेपन से उसके हाथ का स्पर्श कर लिया था। उसने शर्म से ऑंखें झुका लेने के बावजूद हाथ को छुड़ाने की कोशिश नहीं की थी। शायद ये खामोशी ही उसकी तरफ से अंतिम तोहफा था। हाँ, लौटते समय उदासी कहीं आस-पास भी नहीं थी। नदी तट की तरफ जाते समय सृंजय ने बार-बार मुड़कर देखा था। तभी अचानक उदासी पर नज़र पड़ी थी। वनकुसुम की झाड़ियों की ओट से वह उसे ही देखे जा रही थी।
फिर कभी दियारा गाँव में उदासी के घर जाना नहीं हो पाया। कलकत्ते लौट कर कैसे और कितनी व्यस्तताओं में समय निकल गया इसका भी हिसाब नहीं रखा जा सका। सृंजय अब लगभग कवि के तौर पर प्रतिष्ठित हो चुका है। बड़े अख़बार के दफ्तर में नौकरी करता है। उस दिन रात आठ बजे दफ्तर से निकल कर थके कदमों से चलते हुए एसप्लानेड के मोड़ पर आ खड़ा हुआ सृंजय। मेट्रो रेल के स्टेशन के फुटपाथ की कम रौशनी में एक युवती खड़ी थी। वैसे ध्यान देने जैसी कोई बात नहीं थी। लेकिन नई कविता लिखने की ललक में सृंजय कभी भी आस-पास के वातावरण-परिस्थितियों की उपेक्षा नहीं करता। छब्बीस-सताईस वर्षीया उस युवती के मुँह की तरफ देख कुछ कदम आगे बढ़ जाने के बावजूद वह फिर पीछे लौटा। तुम उदासी हो न ?
चलना चाहेंगे आप ? (आपनी की बोसबेन ?)
उदासी तुम दियारा छोड़ यहाँ क्यों ?
आप यहां पड़े हुए हैं ख्याति (नाम) के लिए, और मैं पेट की ख़ातिर। एक दिन मैंने तुम्हारे हाथ को स्पर्श किया था....
अब छूने पर पैसे लगेंगे।
यह सुनकर काफी चोट पहुंची सृंजय को। क्या उसकी ऑंखे भर आई हैं ? कातर स्वर में उसने कहा, उदासी लज्जा के पहले वाले आभूषण तुम फिर धारण कर लो।
उदासी ने जवाब दिया, आप सबने मेरे वो आभूषण तोड़ दिए हैं।
पलक झपकते ही एक व्यक्ति के पता नहीं क्या इशारा करते ही उदासी उसके साथ चली गई। चैत्र की सुनसान दोपहर की भाँति सृंजय का हृदय खालीपन सा महसूस करने लगा। उदासीन हवा मानो उसके साथ खेल रही हो। हाहाकार के उस खेल में सृंजय अब लगभग गतिहीन है। शून्य निगाहों से वह उदासी को जाते देखता रहा। देखते-देखते सोचा, उस युवती को उसने सिर्फ़ स्पर्श किया था, उसका मान नहीं रखा था।


सभार – दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़, 2007

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