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रविवार, जून 13, 2010

कहानी श्रृंखला - 4

पंजाबी कहानी
मरण मिट्टी
0 जसवीर भुल्लर
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’

मूसलाधार बारिश हो रही थी और रात घुप्प अंधेरी थी। घलप्प......घलप्प। जंगल बूट पानी से भर गए। बारिश की बौछारें स्टील हेलमेट पर से बहती हुई मेरी गर्दन पर गिर रही थीं। मेरी वर्दी भींग गई थी। बरसाती निचुड़ रही थी, परंतु मैंने अपनी राईफल को अभी तक बचाए रखा था। जंग के दौरान हथियार से बढ़कर कोई और करीबी दोस्त नहीं होता।
हम पहाड़ की तंग पगडंडी पर चले जा रहे थे। हमारे बाईं ओर पहाड़ की बुलंदी थी और दाईं ओर बारूदी सुरंगों की ढलान। हमारी गश्त दुश्मन के इलाके की छान-बीन कर रही थी।
बादल बार-बार गरज रहे थे। बिजली की चमक से का़यनात पल भर के लिए रौशन हो उठती थी। पहाड़ी नाले शोर मचाने लगे थे।
कायनात के शोर में पदचापें धीमी हो गई थीं। मात्र एक सिपाही का संशय ही जानता है कि जब कान छोटी-छोटी पदचापों को सुन पाने में असमर्थ हों तो मौत सैनिक के बहुत करीब आ चुकी होती है।
हम असावधान नहीं थे, परंतु समय की भयानकता में चल रहे थे। भयानकता न तो बारिश की थी, न ही काली अंधेरी रात की, न उस जंगल की, जिसकी झाड़ियों में जानवरों का क्रंदन सिमटा हुआ था। भयानकता इस जंग की थी जो मूसलाधार बारिश में भी जारी थी। भयानकता उस खा़मोशी की थी जो सीने के अंधेरे में सल्तनत का़यम कर बैठ गई थी।
हवा की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। हथियारों से लैस अग्नि-प्रेत इधर-उधर दौड़ रहे थे, चीख-पुकार मचा रहे थे। उनके सर नहीं थे, परंतु वे आदमीनुमा थे। मैं उन्हें पहचानने की कोशिश रहा था।
अजीब सा तिलिस्म था। जब भी किसी को पहचानने की नौबत आती थी तो उसके सीने पर एक तगमा लटकने लग जाता था। आंखें चौंधिया जाती थीं।
मैं भी पागल हवा का अंश था। यह जंग मेरी नहीं थी, परंतु मैं लड़ रहा था। मुझे लड़ने की तनख्वाह मिलती थी। मैं थोड़ा-थोड़ा करके खत्म हो रहा था। इस ख़त्म होने की मुझे पेंशन भी मिलेगी।
उस वक्त हुक्म की गर्म सलाख से हम दागे जा चुके थे। अगले ही पल हमने मोर्चे की ओर कूच करना था।
मेरे पास आज था, सिर्फ आज। मैं सैनिक था, मेरे पास कल नहीं था। मैं आज का छोटे से छोटा क्षण नीरू के साथ जीना चाहता था। फिर पता नहीं कोई क्षण मिले, न मिले। परंतु उस दिन हमारे कमरे में हम अकेले नहीं थे, आने वाले दिनों का अंधेरा कमरे में था। उस वक्त वॉश-वेसिन में पड़े बर्तनों पर धूप का एक टुकड़ा पसरा हुआ था। मैंने नीरू की आवाज़ के तिड़के चेहरे को उस धूप में लपेट कर अपने आलिंगन में ले लिया था। इस जंग में मैं जंग को भी मार देना चाहता हूं, तुम्हारे लिए नीरू।
वह मासूम सी सहमी-सहमी मेरे साथ लेटी रही और फिर नाखून से मेरी कमीज़ के बटनों पर लकीरें खींचने लगी - ‘अब मुझे तुम मिल गए हो तो जंग नहीं चाहिए थी। और भी बहुत कुछ है जो जंग से भी कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है। मसलन तुम, हम दोनों का बनने वाला घर, हम दोनों के होने वाले बच्चे।’
मैं यह सोच-सोच कर लहू-लुहान हो गया था कि जंग मुझ पर से गुज़रेगी और बुढापा नीरू को जकड़ लेगा। अगले मोर्चे में गोली मुझे लगेगी और सैंकड़ों-कोसों दूर इंतज़ार कर रही नीरू ज़ख्मी हो जाएगी।
बादलों की गड़गड़ाहट से बिजली चमकी और बारिश और तेज़ हो गई।
तंग पगडंडी घुमावदार थी।
मुझे पहले कंपकंपी शुरू हुई और फिर दांत बजने लगे। पाँव कुछ इस तरह सुन्न हो गए मानो धरती पर कभी गरमाहट थी ही नहीं। परंतु, मेरे पास फिर भी कुछ गरमाहट शेष थी। कुछ स्मृतियां थीं, छोटे बच्चों के खिलौने - कुछ साबुत, कुछ आधे-अधूरे। चलना जारी रखने के लिए इतना ही पर्याप्त था। बहुत था मेरे लिए।
उस दिन नीरू के साथ वक्त कुछ इस तरह बीता था मानो वक्त नाम की कोई चीज़ ही न हो। अब मैं वक्त से बदला ले रहा था। अब मैं बीत चुके को भी बीतने नहीं दे रहा था। मैं बार-बार वक्त के उन्हीं बिखरे टुकड़ों को सामने ले आ रहा था, गर्म गोलियां बारिश में भींग रहीं थीं, लहू में ठंडी हो रहीं थीं। तपिश से पिघल रही रबड़ की तरह मैं अपने भीतर सिमट रहा था।
अलविदा की शाम फौजियों की गहमा-गहमी से रेलवे प्लेटफार्म चारे के खेत की तरह हरा-भरा लग रहा था। नीरू चाहती थी कि मैं न जाऊँ, परंतु मुझे मालूम था कि जाने के सिवा कोई और चारा न था। फौजियों का जंग पर जाना ज़रूरी होता है। फौजियों के सम्मान के लिए केवल जंग होती है। जंग उनकी शक्ति होती है। जंग उनकी मर्यादा होती है। जंग उनकी शान होती है और जंग ही उनकी मौत होती है।
नीरू ने कहा था, ‘यह मैला सा बैग हम दोनों के बीच क्यों पड़ा हुआ है?’
मैंने किट बैग उठा कर एक तरफ रख दिया।
अब चलते वक्त तुम मुझे दोनों बाँहों में भर कर प्यार करना। मुझे किसी से कोई शर्म नहीं। कोई डर नहीं। वह निराश हो गई थी। ‘फिर तो पता नहीं तुम कब आओगे और शायद.... ’
‘तुम मुझे बहला रहे हो प्रिय!’ वह मुस्कराई और आँखें भर आईं। ‘जंग में जाने वाले नहीं लौटते। वे साबुत लौटें हों तो भी साबुत नहीं होते। मुझे पता है, मैंने अपने पापा को देख रखा है।’
उस वक्त मुझे उसकी बातें समझ नहीं आती थीं। सैनिकों को अर्थ की ज़रूरत नहीं होती। मेरा लापरवाह रहना ही वाज़िब था।
गाड़ी छूटने वाली थी। वह मेरी बाँहों में सरक आई थी। मैं उसके आँसुओं में घुल रहा था। उसकी उदासी से मेरी अपनी आँखें भर आई थीं। गाड़ी चल पड़ी थी। मेरे आँसुओं के धुंधलके में मात्र नीरू का ही हाथ नहीं हिल रहा था। वहाँ हाथों का हजूम था। प्लेटफार्म पर कोई मनुष्य नहीं दिखता था, सिर्फ हाथ ही दिखते थे।
तेज़ हवा से फसल लहरा रही थी, हाथों की फसल ! गाड़ी तेज़ हो रही थी।
मेरी आँखों का समंदर प्लेटफार्म पर बिछ गया। अब एक समंदर था और असंख्य हाथ। वे हाथ समंदर में डूब रहे थे। वे हाथ बचाव के लिए दुहाई दे रहे थे। मैंने आँखें मलीं। दरअसल हाथ हिल नहीं रहे थे। हाथ में फैले हुए थे। दुआ के लिए या भीख के लिए फैले हुए हाथों की विनती कौन सुनता है?
अब तो न ही दिनों की गिनती याद रही थी और न ही मरने वालों की ही। जिस उद्देश्य को निश्चित कर मौत की पगडंडी पर चल पड़े थे, उस पगडंडी का कोई सिरा कहीं ज़िंदगी से भी जुड़ता था कि नहीं ? मैं नहीं जानता था, पर मुझे अवश्य यह पता था कि अपने होने या न होने का अंतर दरिया जितना चौड़ा था। इसीलिए पगडंडी की फिसलन से बच रहे थे। नाप-तौल कर पांव धर रहे थे। पाँवों को राह नहीं सूझ रही थी। बिजली चमकती भी थी तो रास्ता दिखाकर आँखों पर अंधेरे की पट्टी बाँध देती थी।
मुझसे अगला सिपाही सामने को झुका और फिर मुँह के बल गिर पड़ा। शायद लगातार गिर रही पानी की धारा से पगडंडी का वह हिस्सा बह गया था। मैं उसे संभालने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ा तो मेरे पाँवों तले से भी ज़मीन फिसल गई। मैं अगले सिपाही के साथ ही ढलान की तरफ लुढ़क गया। मेरे पीछे आ रहे सैनिक शायद ठिठक कर खड़े हो गए थे। मेरे साथी के टुकड़े शायद माईन फील्ड़ में बिखर गए थे। शायद वह किसी पत्थर या झाड़ी के साथ अटका रहा गया था।
मुझे कुछ पता नहीं था।
मेरे गिरते ही कई छोटे-बड़े पत्थर ढलान की तरफ लुढक़ने लगे थे। पत्थरों के दबाव से मेरे आगे-आगे कई बारूदी सुरंगे फटी थीं। आदमियों ने मेरे मरने का सामान किया था और पत्थरों ने मुझे बचा लिया था। मेरे इस भ्रम की उम्र ज़्यादा लंबी नहीं थी। अचानक मेरे आँखों के सामने प्रकाश का एक गुंबद फटा और घुप्प अंधेरा छा गया।
उस क्षण से पहले मुझे पता ही नहीं था कि कोई प्रकाश इतना अंधेरा भी कर सकता है।
यह अंधेरा पसरे हुए घने अंधेरे से भिन्न था, पर अंधियारा दरिया था। मैं गोते खा रहा था। यह अंधेरा मुझे निगल रहा था। मैं दरिया में डूब रहा था। पहले एक छोटी सी मछली मेरी तरफ आई और फिर धीरे-धीरे कुछ मछलियों ने मुझे घेर लिया। मैं चीख रहा था, परंतु मेरी आवाज़ गले में घुटी हुई थी। मछलियां पल-पल मेरी तरफ बढ़ती ही आ रही थीं। वे धीरे-धीरे मुझे कुतर रही थीं। उनके दाँत आरी की तरह थे। आरियों से मेरे अंग काटे जा रहे थे।
मछलियां मुझे गहरे पानी की तरफ खींच रही थीं। मैं नीचे ही नीचे जा रहा था। अंधेरे पानी में, जहां मेरी कब्र थी। अंधेरे की कब्र।
मैं ख़ामोश पड़ा था। मुझ पर मिट्टी गिर रही थी। उस मिट्टी के नीचे मेरा बदन दबा जा रहा था और अब अंधेरा मेरे ज़ेहन की ओर बढ़ रहा था।
इस कब्र में मैं पता नहीं कितनी देर तक पड़ा रहा था। मैं शायद मर गया था। परंतु, सोच रहा था। जो इंसान सोच रहा हो वह ज़िंदा होता है।
अंधेरे की मिट्टी झर रही थी। मैं प्रकाश की तरफ लौट रहा था। मैं ज़ेहन की भयावहता से गुज़रा था। मेरे बदन का अंग-अंग दुख रहा था। अंगों से दर्द जंगली बूटी की तरह फूट रहा था। इससे पहले कि दर्द की फसल मेरे बदन पर उग आए, मैं सिगरेट पीना चाहता था। आँखें बंद कर, धीरे-धीरे जैसे उम्र को पीया जाता है।
सिगरेट के बारे में सोचते ही सिगरेट की तलब और बढ़ गई थी, परंतु मुझसे हिला नहीं जा रहा था। मुझे उन्होंने पीड़ा में चिन रखा था। सिगरेट की डिबिया शायद मेरी जेब में ही थी। मैंने पूरी ताकत लगा कर अपनी एक बाँह को मुक्त किया परंतु मेरी बाँह कहाँ थी? मैंने दूसरे हाथ से जेब टटोलने की कोशिश की, पर मेरा हाथ कहाँ था? मैं पूरी ताकत लगा कर चीखा, ‘मेरी बाँहें कहाँ हैं?’
मेरा जिस्म पट्टियों में लिपटा हुआ था। वे आरी से मेरी बाँहों को चीरते रहे थे, जैसे लकड़ी चीरी जाती है, परंतु कोई तो कानून होगा? उन्हें इंसान की बाँहें काटते समय पूछना तो चाहिए। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं कि आदमी की बाँहें चीर डालें। बाँहें तो व्यक्ति की निजी होती हैं। उसकी ज़रूरत होती हैं।
मैं एक बार फिर पूरी ताकत लगा कर चीखा, ‘मेरी बाँहें कहाँ हैं?’
मेरी चीख के जवाब में अस्पताल की दीवारों से कुछ रेत झर गई पर ख़ामोशी उसी तरह छाई रही। शायद मेरी आवाज़ अभी मेरे भीतर ही चीखें मार रही थी। मेरी आवाज़ का अभी मुझ से बाहर कोई वजूद नहीं था।
‘देख नीरू ! मुझे इन्होंने क्या कर दिया है। देख नीरू ! इन्होंने मेरी दोनों बाँहें ही काट डाली हैं, देख, दो मजबूत बाजुओं की जगह अब दो ठूंठ ही रह गए हैं। तुम थी तो मुझे भगवान की भी कोई ज़रूरत नहीं थी नीरु ! अब तुम मुझे बहुत दूर नज़र आ रही हो नीरू ! अब तो मुझे हाथ फैला कर भगवान से दुआ करने की ज़रूरत पड़ेगी, परंतु दुआ के लिए मेरे पास हाथ ही नहीं रहे नीरू !’
मैं हाँफ गया था। मैंने करवट बदलने की असफल कोशिश में होंठ भींचे। ज़ख्मों में दर्द का एक और उबाल उठा और सर से पाँवों तक फैल गया। जिस्म के बेपनाह दर्द पर बेहोशी के बादल मंडराने लगे।
कहीं से निकल कर एक मोटा चूहा मेरे ऊपर चढ़ आया। उसके तीखे नाखून मेरे माँस में चुभ रहे थे। यह चूहा बिलकुल वैसा था, जैसे मोर्चे में होते थे। वे चूहे संभाल-संभाल कर रखी गई हमारी पूरियों को कुतर देते थे, शकरपारे खा जाते थे। वे हमारे अनाज के साथ खेलते थे। इतने पर तृप्ति न होती तो वे हमें कुतरने लग जाते थे। इस चूहे को भी शायद ताजे लहू की ख़बर लग गई थी। वह खड़ा हो कर बार-बार जिस्म को सूंघता था और फिर चल पड़ता था। वह मेरी दाहिनी बाँह के कटे हुए हिस्से पर चढ़ गया। उसने बाँह पर बंधी पट्टियों और बहे लहू को सूंघा और फिर दाँतों से पट्टियों को कुतरने लगा। वह कुतरता जा रहा था। मेरे पास हाथ नहीं थे। मैं चूहे को कैसे भगाऊं ? मैं चीख रहा था, परंतु मेरी आवाज़ किसी तक नहीं पहुंच रही थी। मैंने सिर हिला-हिला कर साथ वाली चारपाई वाले ज़ख्मी को सजग करने की कोशिश की।. अब कोई फर्क़ नहीं पड़ता था कि साथ वाली चारपाई वाला ज़ख्मी अपने देश का था या दुश्मन का। अब वह केवल एक ज़ख्मी सिपाही था। अब वह दुश्मन नहीं था। दुश्मन हमारा सांझा था। दुश्मन यह मोटा चूहा था। चूहे का कोई मुल्क नहीं होता। वह मुझे कुतरने के बाद उस पर जा चढ़ेगा। उसे कुतरेगा। उसे अपनी ख़ुराक के लिए माँस चाहिए था, लहू चाहिए था। कहने को तो हम दोनों ही उसे अपना चूहा कह सकते थे, खा-खा कर पला हुआ चूहा।
शायद मेरा ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाना किसी ने देख लिया था। पूरा कमरा शोर से गूंज उठा था। चूहे ने एकदम कान खड़े किए और भाग कर बिल में जा घुसा।
चूहे ज़िंदा आदमी को कुतरने से नहीं डरते। वे शोर से बहुत डरते हैं।
शोर बहुत हो गया था। इसीलिए चूहे ने अपनी लड़ाई बंद कर दी थी। चूहा बहुत समझदार जीव है। शोर थम जाने के बाद वह फिर बिल से निकल आएगा। वह फिर इंसानों को कुतरना शुरू कर देगा।
मैं पसीने-पसीने हो गया था। दौड़ता हुआ डॉक्टर और घबराई हुई नर्स आगे-पीछे वॉर्ड में दाखिल हुए। डॉक्टर कुतरी हुई पट्टी को देखते ही सहज हो गया। उसने ज़ख्म को दबा कर टांकों को परखा।
डॉक्टर ने जल्दी-डल्दी नर्स की ट्रे से सिरिंज उठाई, तुम लड़ाई में पता नहीं कितने दिन जगते रहे हो। तुम्हें अभी सोना चाहिए। उसने टीका लगा कर सिरिंज वापस रख दी. ‘तुम फिक़्र मत करो! सब ठीक हो जाएगा। ज़ख्म ठीक हो जाने के बाद जल्दी ही हम तुम्हें लकड़ी की बाँहें लगा देंगे।’
‘लकड़ी की बाँहें !’ मेरे ज़ख्मों में टीस उठी। मेरी कटी बाँहों के दो हिस्से कांपे।
‘हाँ, लकड़ी की बाँहें! तकरीबन असली जैसी ही होंगी।’ मेरी सोच की कड़ियों को पसीना आ गया। ‘मैं लकड़ी के हाथों में नीरू का चेहरा लेकर महसूस कैसे कर पाऊंगा भला? क्या मेरे जज़्बातों की झनझनाहट भी लकड़ी के हाथों की मार्फत उस तक पहुंच सकेगी? लकड़ी के हाथों से क्या मैं नीरू को सचमुच ही स्पर्श कर पाऊंगा?’
मेरे हर प्रश्न का जवाब शायद न में ही था। सोना ही मेरे लिए बेहतर था। नींद जिस्म में फैल कर मेरे माथे तक पहुंच रही थी। डॉक्टर के होंठ कांपते दिख रहे थे। वह शायद मुल्क क़े अगले सूत्री कार्यक्रम में किसी बड़े कारखाने के लगाए जाने की जानकारी दे रहा था। वह कारखाना बड़े पैमाने पर लकड़ी की बाँहें तैयार किया करेगा। लकड़ी की टाँगे तैयार किया करेगा और लकड़ी के अनेक अंग। शायद धीरे-धीरे सभी व्यक्ति लकड़ी के बनकर कर लौटेंगे। वैसे व्यक्ति के हाड़-माँस का भी अपना एक विशेष महत्व रहेगा। व्यक्ति के हाड़-माँस को पूर्ण तौर पर एक बढ़िया खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा।
डॉक्टर पता नहीं क्या कह रहा था। शायद कुछ नहीं बोल रहा, मैं ही सुन रहा था। मेरी आँखें मुंदती जा रही थी परंतु मेरी नींद की तासीर भी अलौकिक थी। मैं सपष्ट देख रहा था। मैं स्पष्ट सुन रहा था।
बायां!.......दायां!.........बायां!
बायां!.......दायां!.........बायां!
देखते-देखते कवायद कर रही टाँगें-बाँहें लकड़ी की हो गईं। मेरे भीतर की ख़ामोशी की भयानकता चीखें मारने लगी। मेरी आँखों में मानों लकड़ी का बुरादा उड़-उड़ कर पड़ने लगा। मैं वहां से भाग उठा। वे मेरी आँखें अँधी करने पर तुले हुए थे। मुझे उनसे बचना चाहिए था, परंतु मैं भाग कर कहीं न जा सकता था। मैं कान फाड़ू आवाज़ों में घिरा हुआ था, आवाज़ों के चक्रब्यूह को तोड़ूं तो मुक्त हो जाऊं। चारों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतों के खंडहर थे। ये आवाज़ें शायद खंडहरों से आ रही थीं।
छक्क....कर्र.....छक्क.....कर्र. मैंने दीवार की उखड़ी ईंटों पर से भीतर झांका। दो आरे बड़े-बड़े शहतीरों से लकड़ियों के टुकड़े काट रहे थे। लगातार लकड़ियों के टुकड़ों में से अंगों की आकृति उभर रही थी। अधखुले हाथ तराशे जा रहे थे। लकड़ी की टांगों के ढेर बन रहे थे. बांहें बनाई जा रही थीं।
कर्र.....छक्क!......कर्र.....छक्क!.....कर्र.....
लकड़ी के इंसान बाँहें फैलाए लंबे-लंबे डग भरते कारखाने से बाहर आ रहे थे। एक औरत पागलों की भाँति इधर-उधर दौड़ रही थी। वह लकड़ी के इंसानों को रोक-रोक कर पहचानने की कोशिश कर रही थी। अचानक वह एक लकड़ी की टांग से लिपट कर रोने लगी और उसके साथ दूर तक घिसटती चली गई।
अचानक दूसरी तरफ से लोहे के इंसान चिंघाड़ने ल। घमासान युद्द शुरू हो गया। लकड़ी के इंसान टूटने लगे। और लोहे के आदमी चपटे होने शुरू हो गए।
मैंने ज़ोर-ज़ोर से चीखा। आदमी टूट-टूट कर मुझ पर ही गिरने लगे। चपटे हो-हो कर मुझे अपने ही नीचे दबाते जा रहे थे। मेरा दम घुट रहा था। मैंने लाशों के ढेर के नीचे से निकलने के लिए पूरा ज़ोर लगाया। दर्द से मेरी चीखें निकल गईं।
मैंने शायद अपने ज़ख्मों के टांके तोड़ लिए थे। मैं लहू के छप्पड़ मे सराबोर था। अब शायद नर्स फिर भागी-भागी आएगी। डॉक्टर शायद बेहोशी का एक टीका और लगा देगा। शायद ज़ख्मों पर फिर टांके लगेंगे।
पता नहीं मेरा कितना लहू निचुड़ गया था। मैं होश में आया भी तो पीला ज़र्द चेहरा लेकर लौटूंगा। अपने जिस्म से गिर रही मिट्टी को संभालने के लिए मैं लहू की एक-एक बूंद के लिए तरसूंगा।
जंग के लिए जाते वक्त मैं होठों पर बिच्छु धर के ले गया था और अब अपनी साँसों के नीले बदन से सहमा हुआ था। यह मेरा अपना गुज़रा वक्त था। जो मुझसे मुंह नहीं मोड़ रहा था।
मेरे पांवों में लिज़लिज़ी सी एक गली उलझी हुई थी। गली का सिरा अंधेरे समंदर में डूबा हुआ था। मैंने गली को पहचानने की कोशिश की। मेरी पहचान लड़खड़ा रही थी। यह शायद मेरे बचपन की गली थी जिससे आँखें चुरा कर गुज़रने की पीड़ा मैं खुद झेल रहा था। मैंने खड़े होकर पैर झाड़े और चल पड़ा। मेरे ढीले हुए फौजी बूट फिर दहशतज़दा ख़ामोशी के सीने पर खड़प्प-खड़प्प करने लगे।
‘देख कुछ भी नहीं बदला !’
मैं दहल उठा। मेरे कानों ने शब्द सुने थे परंतु पीठ पीछे कोई नहीं था, बस अंधेरे का एक काला सा धब्बा था।
सचमुच ही कुछ नहीं बदला था। बस एकदम भीतर से मेरा कुछ हिस्सा मर गया था। बदला कुछ नहीं था। बस वक्त का एक टुकड़ा छिन गया था। बदला कुछ नहीं था, बस कुछ अंगों का बोझ शरीर से घट गया था। अगर कुछ बदला भी था तो बस इतना कि जहां गुल्ली-डंडा खेला करते थे उस मैदान की हरियाली गायब थी। शहर की सुनसान फिज़ा पर खंडहरों की परछाई थी।
अपने साबुत पाँवों से ज़ख्मी रूह को घसीटते हुए मैं बंद दरवाज़े के सामने पहुंच कर रुक गया था, परंतु मैं कॉल-बेल नहीं बजा सकता था। मेरी बाँहों की लंबाई कम पड़ गई थी। अभी उन्होंने मेरी कटी बाँहों को लकड़ी के हाथ नहीं लगाए थे। मैंने बेबसी में अपना सर दरवाज़े पर दे मारा। कील से मेरे माथे पर गूमड़ सा बन गया था।
बंद दरवाज़े की ओट में पता नहीं कितनी चिंताओं का बोझ था कि डर से दरवाज़ा खुल गया। हवा की उमस मेरे मुंह पर आ लगी मेरी साँसें बदहवास हो गईं।
मेरे आने का कोई अर्थ नहीं था। नीरू दरवाज़े के भीतर खड़ी थी, खड़ी ही रही। अगर उस वक्त वह माँ होती तो मुझे अपनी ममता की छांव में लपेट लेती, अगर प्रेयसी होती तो मैं उसके मोह में पिघल जाता। अगर वह बच्चा होती तो मैं उसकी बातों में खुद-ब-खुद तोतला हो जाता, परंतु वह एक बदनसीब रूह थी। बहुत देर तक बर्फ बनी खड़ी रही और फिर डयोढ़ी के अंधेरे से मुख़ातिब होकर बोली, ‘तुम आ गए हो ?’
मैंने कांप कर उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों की गहराई में भी बर्फ जमी हुई थी। मेरे आने से वह बर्फ पिघल भी सकती थी, पर मैं आया ही कहां था? मैं तो अभी भी उन्हीं अंधेरों में था जहां कई बदनसीब रूहों की धमाचौकड़ी थी।
‘जंग ख़त्म हो गई?’
‘जंग!’ मेरी ख़ामोशी को झुरझुरी सी आ गई। मैं ज़ेहन के उसी समंदर में गोते खाने लगा जहां तट की रेत पर दूर तक खोपड़ियां बिखरी हुई थीं, जैसे खुले मुंह वाली सीपियां होती हैं, जैसे फेंके हुए नारियल हों।
‘जंग ख़त्म हो गई?’
अपने विचारों की तंद्रा से निकल मैं पूरे ज़ोर से चीखा, ‘मेरी जंग तो अभी शुरू हुई है नीरू !’
कोने में सहमे हुए कबूतर डर कर पंख फड़फड़ाने लगे।


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साभार
छपते-छपते (कोलकाता), दीपावली विशेषांक, 1998

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