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मंगलवार, दिसंबर 28, 2010

कहानी श्रृंखला - 11 / माई लभ्भो : इलियास घुम्मण

पाकिस्तानी पंजाबी कहानी




माई लभ्भो

:    इलियास घुम्मण


लाहौर शहर से निकल कर कार रावी के पुल पर चढ़ी तो सभी का रंग पीला पड़ गया। ड्राईवर की सीट पर बैठे मेरे बड़े भाई साहब ने डोल रहे अपने शरीर को संभाला और सामने वाले शीशे से आगे की ओर देखते हुए कहा, तुम्हारी यह हरकत कहीं हम सबको ले न डूबे।

मैं भाई साहब के साथ वाली सीट पर बैठा था, यह बात सुनकर मुझसे कोई जवाब देते न बना। मेरा पूरा ध्यान तो पीछे वालों की ओर था। उन तक भले ही आवाज़ न पहुँची हो परंतु उन्होंने भाई साहब के लहज़े में मौजूद डर को ज़रूर महसूस कर लिया होगा।                                                                                                                                                                                            


पुल की दूसरी तरफ सारी गाड़ियों को रोक-रोक कर जांच करती पुलिस की टोलियां हमें दूर से ही दिख गई थीं। हमारी कार भी वहां पहुँच कर धीमी हुई तो उधर से पुलिस वाला बड़ी जल्दी से इधर आया। हम सबकी तो मानो साँस ही थम गई थी। संतरी ने पहले हम दोनों भाईयों के चेहरे बारी-बारी से देखे फिर क़दमों में पड़ी चीज़ों की ओर नज़र दौड़ाई और फिर..... वह कार की पिछली सीट की तरफ गया। परंतु, अचानक एक झटके से उसने अपना सिर पीछे खींचा और हमें छोड़कर पीछे आ खड़ी हुई वैन की तरफ बढ़ गया। पुल से कुछ आगे जाकर बड़ी कठिनाई से रोकी हुई हमारी हंसी फूट पड़ी। हंसते हुए मैंने पीछे की तरफ नज़र दौड़ाई। तन पर हरा चोला, सिर पर सजाई लंबी सफेद टोपी और सीने तक झूल रही सफेद दाढ़ी वाली ये हस्ती.....किसी बड़ी मसज़िद का इमाम ही हो सकता था। अभी तक अपनी उंगलियों से फटाफट माला फेरने वाला वह व्यक्ति चाचा गुरदयाल सिंह था और उसके साथ पहरेदार महिलाओं की भाँति नाक तक दुपट्टे से मुँह ढके बैठी उसकी बेटी मनप्रीत कौर थी।

इन बाप-बेटी से हमारी मुलाकात बस यूँ ही हो गई थी। ये दोनों बैसाखी के  अवसर पर भारतीय जत्थे के साथ पाकिस्तान आए थे। मनप्रीत कौर गवर्नमेंट  कॉलेज, अमृतसर में पढ़ती थी। इस लिए जब यह जत्था लाहौर पहुंचा तो पंजाब के बहुत बड़े और पुराने अस्पताल को देखने के लिए उसका मन मचल उठा। म्युनिसिपल अस्पताल में घूमते हुए एक वॉर्ड के सामने लिखे डॉक्टरों के नामों में मनप्रीत ने एक डॉक्टर  के  नाम के साथ घुम्मण लिखा देखा तो उसे बड़ी हैरानी हुई। इस लिए कि वह खुद भी उसी बिरादरी से थी। उसके पिता ने उसे समझाया कि मुसलमानों में भी यह गोत्र है, बल्कि इस गोत्र वालों के वंशज तो इघर ही हैं।

वॉर्ड में जाकर ये बाप-बेटी उस डॉक्टर से मिले, उसने इन्हें पूरा अस्पताल दिखाया और अच्छी आवभगत भी की। वह डॉक्टर मेरा बड़ा भाई था। बाद में भाई साहब के माध्यम से मैं इन दोनों से मिला। लाहौर की सैर करके मनप्रीत तो खुश हो गई थी पर बातों ही बातों में मुझे यह पता चला कि बुजुर्ग गुरदयाल सिंह भी अपने मन में एक पुरानी हसरत छुपाए हुए है। वह इधर ही जन्मा और पला-बढा था और स्यालकोट जिले के एक गांव राजगढ़ को देखना चाहता था। यही गाँव उसकी और उसके बुजुर्गों की जन्मभूमि थी।

चाचा गुरदयाल की यह ख़्वाहिश पूरी करने के लिए भाई साहब और मैंने जी तोड़ कोशिश की परंतु इस काम के लिए हम सरकार से इजाज़त  ले सके। दूसरी तरफ पाकिस्तान आकर भी अपना गाँव देख पाने का कोई उपाय होता  देख गुरदयाल सिंह की परेशानी बढ़ती जा रही थी। अब वह आहें भर कर कहता, साँसों का कोई भरोसा नहीं।  हो सकता है यह मेरा पाकिस्तान का अंतिम सफ़र हो.....जैसे भी हो मुझे मेरा गाँव दिखा दो।

चाचा गुरदयाल सिंह की परेशानी देख कर मैं खो सा गया। भाई साहब हंसते हुए बोले, ‘जब भी तुम गुप्प हो जाते होतुम ज़रूर उस मसले का समाधान निकाल लेते हो।’ परंतु उस कठिनाई का समाधान आसान नहीं था। वह मार्शल ला का ज़माना था।  जत्थे के साथ आए यात्रियों को अपने यात्रा वाले शहर से बाहर जाने से सख़्ती से रोका जाता था। फिर उन दिनों तो कुछ ऐसी घटनाएं भी घटी थी कि ये सख़्ती कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई थी। किसी तरह बात बनती न देख मैंने ही चाचा गुरदयाल सिंह को मौलवी का स्वांग रचने की सलाह दी थी और इस काम के लिए अपेक्षित वस्तुएं मुझे दाता के दरबार के साथ वाले गली-बाज़ारों से मिल गई थीं। उस दिन सुबह उठ कर चाचा गुरदयाल ने रोज़ की भाँति दाढ़ी पर न तो जाली लगाई थी और न ही उसके बालों को नियंत्रित करने के लिए कोई और विधि अपनाई थीबल्कि स्नान के बाद वह अपनी धवल दाढ़ी पर कंघी फिरा-फिराकर उसे मौलवियों जैसी बनाने की कोशिश करता रहा। फिर उस परिधान में तो बूढ़े सिक्ख के चेहरे पर अजब सा नूर नज़र आने लगा था। भाई साहब उन्हें देख कर चकित रह गए और बोले, ‘चाचा जी ! अब बेशक आप किसी भी मसज़िद में जाकर जुम्मे की ख़ुतबा अदा कर आएंकोई नहीं रोकेगा आप को।

न दिनों आज की तुलना में मौलवियों की शान बहुत थी। फौजी जरनैल अपनी सरकार की मजबूती के लिए मज़हब और मज़हबी प्रतिनिधियों का बड़ी सूझ-बूझ से इस्तेमाल कर रहा था। कोई नूरानी चेहरा ‘मज़लिस-ए शूरा में नज़र आता था और कई ज़कात और ऊशर कमेटियों के चेयरमैन बने फिरते थे। सरकारी महकमों के क़ारिंदे तो पहले ही लंबी दाढ़ी वालों के दीद किया करते थे। फिर तो वे यूं ही उनसे ख़ौफ खाने लगे।  रावी पुल वाला पुलिसवाला भी चाचा गुरदयाल सिंह को कोई ज़ालिम किस्म का मुल्ला समझ कर ही बिना और कोई पूछताछ किए पीछे हट गया था।

रावी पुल से आगे का सफ़र तय करने में लगभग दो घंटे लग गए और इस दौरान किसी ने भी हमारा रास्ता नहीं रोका। गाँव राजगढ़ हम दोनों भाईयों ने पहली बार देखा था। वहां हमें पहचानने वाला भी कोई नहीं था। बल्कि जब हम गाँव पहुँचे तो गाँववासियों ने हमें भी कार से उतरे बूढ़े मौलवी के परिवार के सदस्य ही समझा होगा। एक मौलवी को सपरिवार राजगढ़ में प्रवेश करते देख उन्होंने हमारी तरफ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया।  परंतु जब किसी के घर जाने की बजाय हम लोग गाँव की गलियों में ही घूमते रहे तो देखने वाली आँखों में हमें कुछ उत्सुकता सी नज़र आने लगी।

चाचा गुरदयाल सिंह जितने शौक से राजगढ़ आया थाअपने पुश्तैनी घर के न मिलने पर निराश होता नज़र आया। कई बार वह बुदबुदा चुका था, ‘यह कैसे हो सकता है कि मुझे अपने घर का रास्ता ही नहीं मिल रहा।’ राजगढ़ की गलियों में घूमते हुए हमें चाचा ने यह भी बताया था कि गाँव के जिस मुहल्ले में उनका घर थावह सारा मुहल्ला ही अजनबी सा लग रहा है। फिर वह खुद को ही उलाहना देते हुए बोला, ‘बेशक इस मुहल्ले का पूरे का पूरा नक्शा बदल गया है पर फिर भी मुझे अपने घर की पहचान तो होनी चाहिए थी।

शायद इसी बात से शर्मसार महसूस करके चाचा गुरदयाल सिंह अब हम सबसे और ख़ास तौर से अपनी बेटी से भी आँखें मिलाने से क़तरा रहा था। उसके मौलवी वाले स्वांग का भांडा फूटने के डर से हम खुल कर गाँव वालों से कुछ पूछ भी नहीं पा रहे थे।

यह अंतिम कोशिश हैइस बार भी मुझे मेरा घर न मिला तो फिर लौट चलेंगे...... मैं समझूंगा उसे दोबारा देख पाना मेरी क़िस्मत में ही नहीं था।’ एक बार फिर बीच वाले मुहल्ले की गलियों में घुसते हुए चाचा गुरदयाल ने कहा।  हम सभी भी पांव घसीटते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिए।

अब हम जिस गली में जा रहे थेवह आगे से बंद थी।  पहले भी हम कई बार गुरदयाल सिंह के साथ इस गली में जाकर बीच में से ही लौट आए थे।  हमें शक था कि सामने से बंद नज़र आती इस गली में आगे जाकर कोई फायदा नहीं होगा।  इस बार हम पीछे लौटने लगे तो चाचा गुरदयाल सिंह कुछ देर के लिए रुकने का इशारा कर गली को बंद कर रही दीवार की तरफ चल दिया।

इस दीवार के साथ तंग सा रास्ता निकलता है। आप वहीं ठहरोमैं आगे से देखकर अभी आता हूं।’ बंद गली के अंत में पहुंचकर चाचा गुरदयाल ने हमारी तरफ मुंह करके आवाज़ दी। ‘यहां क्या मिलेगा डैडी ?  मैं तो कहती हूं..... दूर से आती कुर्लाहट ने मनप्रीत कौर के वाक्य को पूरा न होने दिया।

पहले बंद गली और फिर उसकी अंतिम दीवार के पास से निकलते तंग रास्ते में ज़ोर-ज़ोर से दौड़ते हुए गुरदयाल सिंह के पीछे-पीछे पहुँचने वाला पहला व्यक्ति मैं ही था परंतु दूसरों ने भी वहाँ पहुंचने में ज़्यादा देर नहीं की।  हम सब की साँस फूल रही थी और अचानक की इस दौड़ा-दौड़ी में दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं। हमारे सामने का नज़ारा भी कोई कम होश उड़ाने वाला नहीं था। चाचा गुरदयाल सिंह एक मकान के दरवाज़े के सामने खड़ा था। वह उस दरवाज़े के कभी एक हिस्से को और कभी दूसरे को आलिंगन में ले-ले  कर चूम रहा था। सर से टोपी गिर जाने के बाद मुट्ठी भर बालों का जूड़ा उसके सिर पर सीधा खड़ा ऐसे लग रहा था मानों किसी गुरूद्वारे का निशान साहब हो। उसकी आँखों से निरंतर बह रही जलधारा उसकी धवल दाढ़ी को भिगो रही थीउसके मुँह से जो दर्दनाक विलाप निकल रहा थाऐसे बोल मैंने पहले कभी नहीं सुने थे। ‘मुझे मेरा घर मिल गया है लोगो! सौगंध गुरू कीमैं इसी घर में जन्मा थामैंने सब कुछ पहचान लिया है। ये दरवाज़ा हमने चाँदी बढ़ई से बनवाया थाइसके ऊपर लगी कीलें मेरी माँ ने अपने हाथों से लगाई। ये कुंडी मेरे पिताजी स्यालकोट से लाए थेआह.... ।

चाचा गुरदयाल सिंह एक-एक चीज़ को हाथ लगा-लगा कर देखता और पहचान कर  अपनी आँखों और होठों से लगाता।  वह ज़ार-ज़ार रोता खुद से ही बातें किए जा रहा था।  अब इस तंग गली में गाँव के लोग इकट्ठे होना शुरू हो गए थे। पता नहीं कैसे पूरे राजगढ़ में बड़ी तेज़ी से यह ख़बर फैलती जा रही थी कि एक बुजुर्ग सिक्ख एक पुराने दरवाज़े को गले लगाकर विलाप कर रहा है।

                                
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विभाजन से पहलेबीच वाले मुहल्ले में ज़्यादा आबादी हिंदु-सिक्खों की ही थी....’  यह बात गाँव का एक बुजुर्ग बाशिंदा बता रहा था।  उस वक्त हम गाँव के नंबरदार चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर के खुले-डुले आँगन में पेड़ों की छाया में बैठे थे।  परंतु ये खुला आँगन भी वहां उमड़ आए जनसमूह के लिए छोटा पड़ रहा था। वह व्यक्ति बता रहा था, ‘फ़सादों में यहाँ के लोगों ने बाहर से आए लुटेरों को रोक दिया था पर वे ज़्यादा दिनों तक उन्हें न रोक सके। फिर लूटमार तो जो हुईसो हुई उन ज़ालिमों ने इस मुहल्ले के अनेकों मकान जला कर राख कर दिए। अब यहाँ जो घर दिख रहे हैं उनमें से बहुत से बाद में ही बनाए गए थे.....पहले वाले मकानों को ढहा कर। यहाँ की कई गलियां भी असली जगह से हट कर बनाई गई थीं। इस लिए बीच वाले मुहल्ले का मौजूदा रूप इसके पुराने रूप से बिलकुल अलग है।

चाचा गुरदयाल सिंह के मकान के विषय में बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इस मकान का काफी हिस्सा जलने से बच गया था और बाद में उधर से मुहाज़िर होकर आए दो भाईयों ने इसे अलॉट करवा लिया था। इन दोनों भाईयों में बनती नहीं थी। शुरूआती दिनों में ही दोनों में झगड़े शुरू हो गए जो बढ़ते ही चले गए। फिर तो बात यहाँ तक पहुंच गई कि बड़े भाई ने इस मकान के निर्मित पिछले हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और मकान का बाहरी दरवाज़ा ही उखड़वा कर अपनी तरफ रास्ता निकलवा कर वहाँ लगवा लिया।  छोटा भाई उससे भी तेज़ निकला। लूटमार में ढह गए किसी दूसरे मकान की ईंटे लाकर इस घर के खुले आँगन में कमरे डलवा लिए। फिर अपनी जगह को और खुली करने के लिए उसने रातो-रात गली को भी साथ मिला लिया। उस वक्त हर तरफ छीना-झपटी का दौर चल रहा थाकिसी ने भी उसे गली पर कब्ज़ा करने से नहीं रोका। उसने आराम से गली की दूसरी तरफ अपने मकान का दरवाज़ा रख लिया।  परंतु उसके इस काम से बीच वाले मुहल्ले में से गुज़रते इस पुराने रास्ते ने हमेशा-हमेशा के लिए बंद गली का रूप अख्तियार कर लिया।’ राजगढ़ का वह वृद्ध बाशिंदा अभी बोल ही रहा था पर मेरा ध्यान कोई घंटा भर पहले की न भूलने वाली बातों की तरफ चला गया था। जब हम विलाप कर रहे चाचा गुरदयाल सिंह को बंद गली में से सहारा देकर बाहर निकाल लाए थेतब सूरज शिखर पर पहुंच गया थादोपहरी का यह वह वक्त था जब खेतों की तरफ फेरी मारने वाले बड़े-बुजुर्ग घरों को लौट रहे थे। खेतों में काम करने वाले नौजवान भी खाना खाने  गाँव में पहुँच चुके थे। कुछ मांए-बहनें और गृहणियां खाना लेकर कुओं और डेरों की ओर जा रही थीं। इस लिए जब हम गाँव की बड़ी गली में आए तो अब काफ़ी लोग आ जा रहे थे। चाचा गुरदयाल अपना चोला उतार कर अपने असली पहरावे में आ चुका था और अभी तक अपनी ही रौ में इस गाँव से जुड़ी अपनी यादें ऊँचे स्वर में ताज़ा कर रहा था। वह अपने जिन पुराने यारों और बचपन के साथियों का नाम ले - लेकर विलाप कर रहा था हो सकता है उन में से भी कुछ उस समय गली में मौजूद रहे हों। इसी लिए तो वहाँ खड़े कई बूढ़े हाथों से डंगोरिया छूटी और कई माईयों के हाथों से खाने की पोटलियां छूट कर गिर पड़ींमैं उनकी गिनती न कर सका। फिर कितने आलिंगन हुएकिस-किस की आँखें भींगीकितनों की रुलाई फूट पड़ीमैं उनका हिसाब न रख सका।

अब चाचा गुरदयाल सिंह को सहारा देने की हमें कोई ज़रूरत नहीं रही थी क्योंकि इस काम के लिए उसके अपने गाँव वालों की अनगिनत बांहें आ मिली थीं। वे सभीहमें एक बड़े जलूस के रूप में चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर ले गए। गाँव के उस बूढ़े नंबरदार ने भी चाचा का गर्मजोशी से स्वागत किया। राजगढ़ वाले मुझे और भाई साहब को भी गाँव के पुराने बाशिंदे ‘दयाल सिंह घुम्मण’ के ही दाढ़ी और बाल कटाए मोने बेटे समझ रहे थे।  इस लिए चाचा गुरदयाल सिंह से शरमा रहीं उसकी हमउम्र औरतें हमें ही प्यार से सर दुलार-दुलार कर शौक पूरा कर रही थीं। हम भी बनावटी सिक्ख बनकर मुफ्त में मिल रहे इस दुलार को तोहफा समझ कर कबूल कर रहे थे पर बेचारी मनप्रीत का बुरा हाल था। बुजुर्ग औरतों के साथ-साथ गाँव की युवतियां और बच्चियों ने उसके गिर्द भीड़ जुटा रखी थी। वह बेचारी समझ नहीं पा रही थी कि गाँव वालों के अपनत्व भरे इस जज़्बे के आवेग का किस तरह जवाब दे ? मुहब्बत की उन्मुक्त बारिश में भीग रही वह नन्हीं सी जान बेहाल हो रही थी। 
      
प्यारसलाम और आलिंगनों से जब कुछ फुर्सत मिली तो पुरानी बातें छिड़ गईं।  चाचा गुरदयाल सिंह ने अपनी आपबीती सुनाई तो गाँव वाले जगबीती सुनाने लगे। सभी इन बातों में मशगूल थे कि उस बड़े घर के बाहरी दरवाज़े के पास खड़ी एक अधेड़ उम्र की महिला को मैंने इशारा कर अपने पास बुलाते पाया। हैरानी हुई कि पास आने की बजाय वह मुझे अपने पास क्यों बुला रही है ?

मैं उठ कर उसकी तरफ जाने लगा तो गाँव की एक अन्य महिला यह कहते हुए मेरे साथ चल पड़ीयह तो पागल है।  इसी गाँव के एक हिंदु ख़ानदान से है। सुना है बंटवारे के दौरान सरहद की तरफ जा रहे क़ाफिले में से इसे उठा लिया गया था। फिर पता नहीं कहाँ-कहाँ बिकती रही। अब गाँव में वापिस आए भी इसे अठारह साल हो गए हैं। यह किसी शहर की गलियों में भटकती फिर रही थी कि हमारे गाँव का एक विधुर इसे यहाँ ले आया। पहले तो उसने कुछ दिन ऐसे ही इसे अपने घर रख छोड़ा फिर लोगों के कहने पर मुसलमान बनाकर इससे निकाह कर लिया। गाँव में इसका नाम पड़ गया ‘माई लभ्भो।’ कभी तो ये यहाँ के एक खाते-पीते घर की पढ़ी-लिखी लड़की थी पर अब तो यह बिलकुल ही पागल है। रोज़ शाम को मुंडेर पर बैठकरपूरब की ओर मुँह करके हवाओं से बातें करती रहती है...

लगातार बोलती जा रही वह महिला अभी और भी बहुत कुछ कहना चाहती थी परंतु धीरे-धीरे चलते हुए हम अब माई लभ्भो के बिलकुल पास पहुंच गए थेइस लिए वह चुपचाप पीछे लौट गई। मैंने सोचा था कि माई लभ्भो को चाचा गुरदयाल सिंह से मिलवाऊंगाउसके बारे सुनकर मुझे ख़याल आया था कि चाचा उसे ज़रूर पहचान लेंगे।  परंतु मेरे साथ भीतर आने की बजाय माई लभ्भो ने मेरी बाँह कस कर पकड़ ली और खींचती हुई मुझे अपने घर ले गई। उसकी छोटी सी झोंपड़ी भी उसी बंद गली में थी।  अभी तक उसने ऐसी कोई हरक़त नहीं की थी जिससे उसकी दिमागी हालत पर शक किया जा सके।

 ‘तू दियाले घुम्मण का ही पुत्तर है न ?’ मुझे चारपाई पर बिठाकर और खुद भी बैठते हुए उसने मुझसे पहला सवाल किया।  ‘हांमेरा पिता घुम्मण ही है,’ मैंने सोचकर जवाब दिया।    
 ‘खाना खाओगे ?’
 ‘क्यों ?’

बस ऐसे ही। अच्छा! समझ गईतू मेरे हाथ का पका खाना नहीं खाना चाहताउन लोगों ने मुझे अपनी तरफ से मुसलमान जो बना लिया था न.......’  यह कहकर वह पहली बार पागलों की भांति हंसी और फिर एकदम खामोश हो गई। अब उसकी गर्दन तन गई थी और अहंकार भरे लहज़े में बोली, ‘मुंडिया ! मुझे ऐसी वैसी जनानी मत समझना। ये जो अब यहाँ चौधरी बने फिरते हैंये कभी मेरे पिताजी के गोदामों में बोरे ढोया करते थे।’ यह बताते हुए उसकी आवाज़ में बेहद कड़वाहट भर गई थी। उसने मेरी बाँह पकड़ कर ज़ोर से झकझोरी और कहने लगी, ‘तू समझता है मेरे हाथ लगने से रोटी भ्रष्ट हो जाएगीतुझे क्या पता कि हमारे परिवार वाले भी छूआछात में कितना विश्वास रखते थे ?  किसी भ्रष्ट से खाने वाली चीज़ लेना तो दूर की बात हैमेरी माँ तो जब मंदिर जाती थीउनकी परछाई पर भी जब किसी मुल्ले का पैर पड़ जाता था तो वे घर वापिस आकर दुबारा स्नान करके ही पूजा करने जाती थीं।’ इतना कहकर उसकी आँखों में दु:ख के साए गहराने लगे और अब जब वह बोली तो उसकी आवाज़ पीड़ा से सराबोर थीपरंतु मेरे माता-पिता को क्या पता था कि उनकी लाडली बेटी को कितने मुस्लिम घरों की रोटी खानी पड़ेगी ?’

 वह बच्चों की भाँति हिचकियां ले-लेकर रो रही थीफिर रोते-रोते ही बोली, ‘हमारे बुजुर्गों ने इनसे खाना-पीना अलग कर रखा थाइन्होंने तो उनसे देश ही अलग कर लिया’ ये सुनकर तो मैं तड़प उठा था।  जो कहता है कि माई लभ्भो पागल हैवह खुद पागल होगा... मैं सोच रहा था।

झट से बीच में ही रोना छोडकर माई लभ्भो ने अपने आँसू पोंछ लिए और फिर मैंने उसे ये कहते सुना। ‘खाना खाने को जी नहीं चाहता तो चल मैं तुझे अपने कुएं पर ले चलती हूँ। तू खुद हमारी भैंस दुहकर उसका दूध पी लेना... मुसलमानों के हाथों चारा खाकर भैंसें तो मुसलमान नहीं हो जातीं।’ पगली की ये बातें तो मुझे भी पागल किए जा रही थीं।

 माई लभ्भो के घर से खाना खाकर मैं वापिस चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर पहुँचा तो यह देखकर खुश हो गया कि वहाँ अब हर तरफ हंसी के ठहाके गूंज रहे थे। वहाँ एकत्रित लोग हंसने-बोलने के साथ-साथ कुछ न कुछ खा-पी रहे थे। दरअसल वे सभी औरतें जो खाने लेकर कुएंडेरों पर जाने के लिए घर से निकली थींउन्होंने संदेसे भेजकर गाँव से नज़दीक की ज़मीनों में काम कर रहे अपने क़रीबी रिश्तेदारों को भी वहीं  बुला लिया था।  उन औरतों की इच्छा थी कि गुरदयाल सिंह या उसके परिवार में से कोई भी उनके खाने में से थोड़ा-बहुत ज़रूर खाए। उनकी देखा-देखी गाँव की अन्य औरतें भी अपने घरों से खाने-पीने की वस्तुएं ले आई थीं। चौधरी मुहम्मद हुसैन के घर वाले भी इस सेवा में शामिल हो चुके थे। भला दो-तीन मेहमान इतने लोगों में कैसे पूरे आ सकते थेइतने खानों में से वे सिर्फ़ एक-एक कौर ही लेकर लोगों को खुश कर रहे थे। मैंने देखा कि ख़ास तौर से जिसके खाने को चाचा गुरदयाल सिंह हाथ लगाताउसे लाने वाली महिला का चेहरे पर ऐसा संतोष झलकता था मानो बरसों बाद किसी बहन को उसका बिछुड़ा भाई अचानक आ मिला हो।

राजगढ़ से लौटने से पहले चाचा गुरदयाल सिंह ने एक बार फिर अपना पुश्तैनी घर देखने की इच्छा व्यक्त की तो इस बार पूरा गांव ही उसके साथ चल दिया। वहाँ पहुँचकर घर की कुछ पुरानी चीज़ें पहचान कर चाचा गुरदयाल सिंह फिर से भावुक होने लगा परंतु अब अपने आस-पास इतने सारे भाई-बहनों और भतीजे-भतीजियों के होते हुए उसने खुद पर काबू पाए रखा। उस घर में मुहाजिर होकर आ बसे दोनों भाई और उनके बाल-बच्चे भी बड़े अदब से चाचा से मिले। उन दोनों भाईयों के बारे में बताई गई बातें सच ही होंगी परंतु उस वक्त मुझे वे दोनों सीधे-सादे हल चलाने वाले किसान ही लगे बल्कि जब वे चाचा गुरदयाल सिंह से जिला होशियारपुर के उस गाँव के बारे बड़ी गर्मज़ोशी से पूछने लगे जिसे छोड़कर उन्हें यहाँ आना पड़ा था तो मुझे सफेद बालों वाले उन भाईयों पर तरस सा आने लगा।

राजगढ़ की गलियों में चाचा गुरदयाल सिंह के साथ घूमते-फिरते हुए कई बार मेरा जी चाहा कि मैं उन्हें माई लभ्भो के बारे बताऊं पर हर बार माई लभ्भो के समक्ष खाई सौगंध मेरा मुँह बंद कर देती थी।  वह शायद अपनी इस हालत से कितनी शर्मिंदा थी कि कि बहुत चाहते हुए भी वह गुरदयाल सिंह या किसी भी पुराने परिचित के समक्ष खुद को ज़ाहिर नहीं करना चाहती थी। इसी बात की उसने मुझसे क़सम ले ली थी।

वापसी के समय शाम हो रही थीवे लोग हमें विदा करने के लिए गाँव से बाहर तक आए। मैं तो भाई साहब के साथ कार में आ बैठा था पर चाचा गुरदयाल सिंह और मनप्रीत कौर अभी भी लोगों से घिरे हुए थे। चाचा का तो इन सबके साथ पुराना रिश्ता था पर हमने हैरान होकर देखा कि मनप्रीत कौर भी अपनी नई बनी सहेलियों से आलिंगनबद्ध हो रही थी। उनमें से बहुत सी लड़कियों ने अपने माथे पर बिंदियां सजा रखी थीं।
      
 मनप्रीत ने पता नहीं कब अपने पर्स में से ये बिंदियां निकाल-निकाल कर उनमें बाँट दी थीं। ये गर्मजोशी वाला अपनत्व देखते हुए मेरा ध्यान कहीं और चला गया था और मेरे मन पर उदासी सी छा गई। 

भाई साहब ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा, ‘गाँव आकर चाचा गुरदयाल सिंह जितना खुश नज़र आ रहा है मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में किसी आदमी को इतना खुश नही देखा.....।’ उस वक्त भाई साहब की नज़र मुझ पर पड़ी और मुझे देखकर हैरान हुए और बोले, ‘तुझे फिर वही चुप सी लग गई हैबता अब क्या बात है ?’

 ‘नहीं कोई बात नहीं।’ ये  कहकर मैंने भाई साहब का सवाल टाल दिया पर सच तो यह है कि चाचा गुरदयाल सिंह को उसका गांव दिखा कर मिली खुशी के बीच जो नया आघात मेरे सीने पर लगा थाउससे अब धीरे-धीरे रक्त रिसने लगा था। चाचा गुरदयाल सिंह का पुरसकुन चेहरा देख-देख कर मैं हिंदु माता-पिता की ज़बरदस्ती उठाई गई उस बेटी के बारे सोचने लगाजिसे अब उसके असली वारिस भी भुला चुके होंगे। वह जो अब ‘माई लभ्भो’ बन कर बंद गली के भीतर जीवन गुज़ार रही है और रोज़ शाम को मुंडेर पर बैठकर पूरब की ओर जाती हवाओं से बातें करती रहती है। मेरी सोच की सुई यहाँ आकर थम गई थी कि उसके मन को कैसे तसल्ली मिलेगी ?


अनुवाद - नीलम शर्मा  'अंशु'


साभार – , नवंबर 2004  संपादन  – डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय


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लेखक परिचय

इलियास घुम्म
  

जन्म  25 अगस्त 1961, गुजरांवाला (पाकिस्तान) जिले के गाँव चक्क सत्तियां में। लाहौर इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कंपनी में एक्जीक्युटिव इंजीनियर। राडार, विज्ञान, हिसाब-किताब, इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर आदि विभिन्न विषयों पर विज्ञान संबंधी पुस्तकों के साथ-साथ दो लघु उपन्यास, दो बाल उपन्यास, लोक कथाएं12 कथा संग्रह और 5 धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित। सहर (मासिक), रवेल (मासिक), मीटी (द्विमासिक), सोहणी धरती (वार्षिक), साहित (वार्षिक) आदि पत्रिकाओं का संपादन।

विशेष उल्लेखनीय -  पाकिस्तान पंजाब में सिक्ख धर्म से संबंधित गुरुद्वारों, जन्म स्थानों और निशानियों पर आधारित पाँच शोधात्मक ग्रंथों का लेखन।  साहित्यिक लेखन एवं शोधपरक लेखन  की विशिष्ट उपलब्धियों के लिए भारत और पाकिस्तान सहित विश्व स्तर पर 56 पुरस्कारों से सम्मानित।        

संपर्क – 24, अमीर रोड, बिलालगंज, लाहौर – 54000. पाकिस्तान।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आभार इस रचना के लिए आपके माध्‍यम से सुन्‍दर कहानी पढ़ने को मिली। अच्‍छा रहता आप अगर आप लेखक का मेल आईडी भी देती। फिर भी आपका आभार और रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी ! अपने ब्‍लोग पर शेयर बटन लगाए ताकि रचनाये शेयर की जा सके।

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  2. मुझे हमेंशा से ही भारत- पकिस्थान के इतिहास ने आकर्शित किया है.इस कहानी को पढकर एक अजीब से दर्द का अहसास होता है.आखिर क्यों भारत और पाकिस्थान बने?

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  3. धन्यवाद रौशन जी !

    यह एक सच्ची कहानी है। लेखक से दूरभाष पर वार्तालाप से पता चला था कि उस चाचा का निधन हो गया है और उनकी बेटी आजकल विदेश में हैं। लेखक का ईमेल आई.डी मेरे पास भी उपलब्ध नहीं है। इसकी अनुवाद प्रक्रिया के दौरान पता नहीं माई लभ्भो के लिए कितनी बार आँखें नम हो आईँ।

    और शुक्रिया संतोष जी। जब भी अमृतसर जाना हो पाता है मैं इलियास घुम्मन जी को फोन कर कहती हूँ कि आपके पड़ोस से बोल रही हूँ। जब-जब वाघा बॉर्डर और अटारी स्टेशन पर जाना हुआ तो मन में यही कसक उठती थी कि महज़ कुछ कि.मी. की दूरी पासपोर्ट और वीज़ाओं की दूरियों में तब्दील हो चुकी है।

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  4. नीलम जी, बहुत ही मार्मिक और दिल को छू लेने वाली कहानी है घुम्मण जी की और आपने बहुत ही सुन्दर, जीवंत अनुवाद किया है। घुम्मण जी की एक कहानी का मैं भी हिंदी अनुवाद कर चुका हूँ…वह एक सुलझे हुए पंजाबी लेखक हैं…उनकी कहानियां हमें प्रभावित करती हैं… ऐसी शाहकार कहानियां हिन्दी के पाठकों के समक्ष आनी ही चाहिएं…इसे पढ़ते हुम मुझे पंजाबी के युवा कथाकार तलविंदर सिंह की कहानी 'खुशबू' जिसका मेरे द्वारा किया गय अनुवाद समकालीन भारतीय साहित्य में छपा था, याद आती रही। उस कहानी में पाकिस्तान से एक लेखिका इधर अमृतसर के पास अपने गांव वाले घर को देखने की इच्छा रखकर अपने लेखक मित्र के संग अपना गांव और अपना घर देखती है… वह भी बहुत मार्मिक और हृदयस्पर्शी कहानी है… ऐसी कहानियां आदमी के भीतर मर रही संवेदनाओं को जिन्दा रखने की कोशिश करती हैं… इतनी खूबसूरत कहानी पढ़वाने के लिए आपका धन्यवाद…
    सुभाष नीरव
    08447252120

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