पंजाबी कहानी
रबाबी
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सरघी
पंजाबी
से अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
हमेशा मुझे ऐसा लगता है...मानो पिछले जन्म में मैं ही मरदाना था... इस जन्म में मेरा नानक हमेशा मेरे अंग-संग है। माँ पूछती है, ‘तुम गुम-सुम क्यों रहते हो?’ मैं माँ को क्या बताऊं... मैं उस ख़ामोशी में अपने नानक के साथ वार्तालाप कर रहा होता हूँ। हर जगह, हर शै में मुझे वही तो नज़र आता है। उस दिन कथा करते हुए गुरुद्वारे में ‘भाई जी’ साखी ही तो सुना रहे थे। साखी सुनाते हुए उन्होंने कहा, ‘तब बाबा नानक मरदाने को आवाज़ देते हैं – मरदाने !’ साखी सुनते हुए मैं अपने नानक के पास ही तो पहुँच गया था। संगत चुपचाप कथा सुन रही थी और मैंने उस ख़ामोशी में ज़ोर से आवाज़ दे दी थी
– ‘हाँ, मेरे नानक !’ पूरी संगत हँसने लगी। उस पल मुझ पर वैराग्य तारी था। और उस दिन के बाद से सारा गाँव मुझे ‘मरदाना’ ही कहने लगा। घरवालों ने मेरा नाम रबाबजीत सिंह रखा था। पर अब यह नाम पीछे छूट गया था। जब लोग मुझे ‘मरदाना’ कह कर पुकारते तो मुझे सरूर सा आ जाता। मेरी बेचैनी को, मेरी बेहोशी को हर पल नानक की ज़रूरत थी और हर पल मेरा साईं ही मुझे जगाता। जब
भी जगता रबाब छेड़ लेता। शायद रबाब सुन कर मेरा नानक मुझे अपनी झलक दिखा दे। मेरी
माँ कहती, ‘तुझ पर बाबे नानक की कृपा है।’ माँ की बात सुनकर मेरी आँखें नम हो गई थीं। फिर बहुत ही स्नेह से कहती, ‘मरदाना भी डोम था और हम भी।’ उसकी बात सुनकर खुद को और भी अच्छा-अच्छा महसूस होने लगता। माँ से बाबे नानक
की साखियां सुनते-सुनते मैं सो जाता।
साखियां सुनाते-सुनाते ही माँ ने
एक दिन मुझे बताया था, ‘रबाब पुत्तर ! तुम्हें पता है जैसे
तुम्हारे भाई-बहन छुटपन में ही भगवान को प्यारे हो गए थे, उसी तरह मरदाने के भाई-बहन भी नहीं बचते थे।’ जब माँ मरदाने के जीवन की घटनाओं को मुझसे जोड़ती तो मैं आनंद से भर उठता। फिर
नानक नाम के सिवा यह पूरी दुनिया ही असत्य जान पड़ती।
टी. वी. पर ‘भाई मस्कीन जी’ की कथा चल रही थी। उस कथा के शब्द
दृश्य की भाँति मेरे सामने साकार होने लगे।
अनाज की तंगी देख कर मरदाने की
माँ ने कहा, ‘किसे कोठा, किसे पल्ला, हमें आस तेरी अल्लाह...।’
गुरु जी मुस्कुराए और बोले, ‘हम भी अल्लाह का आसरा देखते हैं...
और आपका आसरा भी अल्लाह है... हमें अल्लाह वालों की बहुत ज़रूरत है... अपना पुत्र
हमें दे दो।’
मरदाने की माँ ने कहा,
‘आप मेरे यजमान हैं...मेरा पुत्तर तो राग प्रेमी है। इस गवैये से आपका क्या
संवरेगा।’ तो धन्न गुरु सच्चे पातशाह जी ने
कहा, ‘इस राग प्रेमी से ही सब कुछ संवरेगा... हमें इसी के राग की ही ज़रूरत है। तो भक्तो, इस तरह धन्न गुरु नानक देव सच्चे पातशाह ज़ौहरी ने मरदाने जैसे हीरे को पहचान
लिया।
अनाज की तंगी से से याद आया...
मेरी माँ भी चाहती है कि मैं अब कोई नौकरी-चाकरी कर लूं...घर का स्वरूप संवार
दूं...तंगी झेल कर उसने मुझे पढ़ाया-लिखाया था। जहाँ पढ़ा था वह भी बाबे नानक का
विश्वविद्यालय था। बड़े–बड़े वृक्षों के नीचे रियाज़ करते
हुए... हर पल नानक को ही तो याद रखा था।
उसे याद करके जब मैं रबाब बजाता तो मुझे पर मेहर की बरसात हो जाती। अजीब
हालत थी मेरी...रबाब छेड़ते ही मैं नानक से जुड़ने लगता। शेल्फ पर रखी शील्डों को
देखता हूँ। ये सब मेरे साईं की ही तो देन हैं।
जब मैं रबाब बजाता...हॉल में ख़ामोशी छा जाती। मैडम की दी हुई हिदायतें भूलने
लगता। पहली घंटी...दूसरी घंटी.....तीसरी घंटी.... ओवर टाइम हो जाता। परंतु फिर भी
मेरे तार नानक से जुड़े रहते। मैं डिस्कवालिफाई हो जाता। मैडम मुझे डाँटती...
परंतु मुझसे कोई जवाब देते न बनता। फिर हर बार जब कहीं भी मेरी प्रस्तुति होती तो नानक से कह कर चलता कि,
‘मुझ पर मेहर करना साईंया... तुम्हारे इशारे पर ही रबाब बजेगी और बंद होगी।’ फिर उस साईं ने हर जगह मेरी लाज रखी थी।
मैं चाहता था.... नानक
विश्वविद्यालय का अंग बन जाऊँ...नौकरी के लिए साक्षात्कार भी दिया था। गोल्ड
मेडेलिस्ट था...असंख्य सर्टिफिकेट थे... शॉर्ट लिस्ट में पहला नंबर मेरा ही तो
था....जो भी प्रश्न पूछे गए थे... कहीं भी तो अटका नहीं था। अटक भी कैसे सकता
था... नानक रहबर था मेरा। पर नौकरी तो उसे मिली थी जो ‘हेड’ का क़रीबी था और मैं जो ‘नानक’ का क़रीबी था, पीछे रह गया था। ‘नानक’ हमेशा मुझे आश्रय देता था...
पर ‘नानक के विश्वविद्यालय’ ने मुझे आश्रय नहीं दिया था।
मन बहुत बोझिल था... घर लौट कर
मैंने नानक से शिकवा भी किया था। सिस्टम पर तंज़ कसे थे। आँखों से आँसू निकल गए
थे। मुझे यह बात बहुत परेशान करती कि नानक के नाम पर चल रहे विश्वविद्यालय में
कैसी अंधेर मची हुई थी। उसकी सोच पर चलने वाले लोग इस विद्यालय से खो गए थे। ऐसे
ही समय में मुझे नानक ने आवाज़ दी थी, ‘कूड़ निखुट्टे नानका उड़क सच रही। अर्थात् झूठ हार जाता है और अंत में सच ही
रह जाता है।’
नानक के शबद मेरा भरोसा बन गए थे।
रबाब मेरे सीने से लग गई थी। उसके सुरों ने मुझे एकसुर कर दिया था। काँपते होठों
से शबद निकलने लगते :
‘हुक्मै अंदर सब को बाहर हुक्म न कोई।।’
जो घटित हुआ था, सब स्वीकार कर लिया था। हे मेरे नानक ! यह तेरा हुक्म है तो फिर नाराज़गी
क्यों... मेरे नानक, तू किसी से नाराज़ होना नहीं
सिखाता....तू तो सब को ‘हुक्म दे रहा है।’ पर कुर्सियों पर बैठे ये जालिम ‘अहंकार’ के गर्द-गुब्बार में इतने गुम है
कि इन्हें तेरा ‘हुक्म’ ही सुनाई नहीं देता। नानक से बातें करके मुझे धीरज आ गया था।
पता नहीं किस वक्त मेरी आँख लग
गई... बंद आँखें भी तो नानक का ही दीदार कर रही थीं। नूर ही नूर था.... मैं स्पर्श
करना चाहता था... पर कर नहीं पाया था। दरवाज़ा खुलने लगता है... प्रकाश आता है...
शीश नवाता हूँ...उसी झुके शीश में लाखों तरंगे उत्पन्न हो गई थीं....आनंद उत्पन्न
होता है। मैंने उन पलों को महसूस किया था...परंतु बयां नहीं कर सकता था। वे
पल...मेरी चेतना में ठहर गए थे। एक आवाज़ सुनाई देती है,
‘रबाब ! उठो... नानक नगरी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।’
मैं सहसा उठ जाता हूँ...। यह
आवाज़ मेरे पीछे ही पड़ गई थी। मैं जहाँ भी जाता था....मुझे यही आवाज़ सुनाई देती
थी। मुझे याद आया, बाबा नानक ने मरदाने से कहा था- ‘मरदानिया! इंतज़ार करना... जब तक तुझे मैं नहीं बुलाता।’ अब जब मुझे बुलावा आया है तो मैं क्यों न जाऊँ।
कदम नानक नगरी की ओर चल पड़ते
हैं। सारा रास्ता मन उछल-कूद ही तो करता रहा था। घर से अभी कुछ कोस दूर ही गया
था... पर घर की याद सताने लगती है। जब घर से चला था... दरवाज़े पर खड़ी माँ ने
मुझे बहुत ध्यान से निहारा था। उसकी आँखें छलछला आईं थीं। अपने दिल पर पूरा नियंत्रण रखते हुए माँ सिर्फ़
इतना ही कह पाई थी, ‘नानक नगरी, तेरी झोली में सारी सौगातें डाले।’
‘नानक नगरी’ का ख़याल आते ही मैं नानक के आँगन में जा पहुँचता हूँ। उस वक्त को याद करता
हूँ जब बाबा नानक ने मरदाने से कहा था, ‘मरदानिया ! रबाब बजाई काई सिफ़त खुदाई दे दीदार दी करिए।’ मेरा हाथ रबाब पर चला गया... रहमतों की बौछार हो गई....। उस दाता ने दात जैसे
जज़्बात मेरी झोली में डाले थे। ये जो
रुबाइयां थी...उसकी रहमतों के ख़ज़ाने में से ही तो आईं थीं। बस रुक गई थी... किसी
ने कंधे से पकड़ कर मुझे झकझोरते हुए कहा, ‘नानक नगरी आ गई मित्तरा !’
‘अच्छा ! नानक नगरी आ गई... पर कोई ऐसी जगह तो बताओ
जहां नानक नहीं है।’ परंतु शायद उसे उतरने की जल्दी थी।
मुझे उसने जवाब नहीं दिया था। बस से उतर कर गहरी साँस छोड़ता हूँ...उस माटी को
अपने माथे से लगाता हूँ.....।
सड़क के दोनों तरफ लगे वृक्षों की
घनी छाया माँ जैसी लगती है। माँ याद आती है। मैं वृक्षों को फिर ध्यान से देखता
हूँ। वृक्ष मुझे नाते-रिश्तेदारों जैसे जान पड़ते हैं। घनी छाया देने वाले इन
वृक्षों के तनों पर कोई-कोई नाम लिखा नज़र आता है।
‘वाह रे बंदे ! तूने तो वृक्षों पर भी अपने नाम की
मुहरें लगा रखी हैं।’
घने वृक्षों में से नाते-रिश्तेदारों की आवाज़ सुनाई दी,
‘तुम परेशान मत हो भाई...तुम्हें हैरान और परेशान करने के लिए आगे और भी बहुत
कुछ है...!’
नानक नगरी के आस-पास को निहारते
हुए...नानक विद्यालय पहुँच जाता हूँ। इस धरती को नानक के श्रीचरणों का स्पर्श
प्राप्त है और वह स्पर्श मुझे बल प्रदान कर रहा था। मेरे मन के संशय दूर हो रहे
थे। मेरे भीतर कोई प्रकाश प्रज्ज्वलित हो रहा था। वह प्रकाश मेरे आगे-आगे चल पड़ा।
मैं उसका अनुसरण कर रहा था। जब तक इंटरव्यु होता रहा वह प्रकाश मेरे साथ ही रहा
था। कॉलेज की प्रबंधन समिति बेशक मेरे पक्ष में नहीं थी .... परंतु ‘वह’ खुद मेहरबान था... और नानक कॉलेज
ने मुझे पनाह दे दी थी। मेरी नियुक्ति संगीत के सहायक प्रोफेसर के तौर पर हो चुकी
थी। डॉ. बेदी विषय विशेषज्ञ के रूप में आए थे। उनका नाम याद आते ही साखी के बोल
सुनाई देते हैं, ‘मरदानिया! तू बेदियों का मरासी
है... औरों से माँगना नहीं’।
सबसे पहले माँ से ही खुशी साझी की
थी, ‘पुत्तर ! नानक नगरी ने ही तुझे न्याय देना था...। नानक की मेहर सदा तुझ पर बनी
रहे।’ इतना कह कर माँ की आवाज़ सिसकियों
में तब्दील हो गई थी। लगा था माँ को धीरज नहीं बंध रहा था।
***
ज़िंदगी रबाब की मधुर धुनों की ही
भाँति है। इस जीवन का पल-पल अच्छे कार्यों पर लगाना चाहिए। कक्षा में जाकर
विद्यार्थियों से सबसे पहले यही तो कहा था। उसी क्षण सेवादार प्रिंसीपल का संदेसा
लेकर आ गया था और मैं कक्षा समाप्त करने के बाद प्रिंसीपल के दफ्तर में गया था।
प्रिंसीपल ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था परंतु बुरे शब्द मेरे माथे पर फेंक
मारे थे। उसकी कुर्सी को ग़लतफ़हमी हो गई थी कि मैंने उसके हुक्म की अवमानना की
है। परंतु मैं तो उस वक्त पढ़ाने में इतना मग्न था कि बेल बजने पर भी मुझे पता
नहीं चला था कि पीरियड ख़त्म हो गया है। कॉलेज का प्रथम दिन था और प्रिंसीपल मुझ
पर बिगड़ गया था। मैंने बात आई-गई कर दी थी परंतु प्रिंसीपल के ऊँचे रुतबे से बात
आई-गई नहीं हुई थी। चार-पाँच दिनों के बाद उसने मुझे फिर बुलाया था। कक्षा शुरू ही
हुई थी कि सेवादार मुझे बुलाने आ गया था। मैं कक्षा छोड़नी नहीं चाहता था परंतु
मुझे छोड़नी पड़ी।
‘आज बड़ी जल्दी आ गए।’ ऊँचे ओहदे ने अहंकार की फुंकार छोड़ी।
‘जी हाँ, आना ही पड़ा।’ प्रिंसीपल के दफ्तर में प्रिंसीपल
अकेला नहीं था। उसके साथ कॉलेज का सेक्रेटरी भी था और डायरेक्टर भी।
‘हाँ बच्चा, तुम्हें गुरुवाला बनना पड़ेगा… इस कॉलेज में पढ़ाने के लिए।’
मैं घबरा गया....रोशनी मेरे
इर्द-गिर्द घूमने लगी....मुझमें साहस आ गया।
‘सेक्रेटरी साहब तुम्हें कुछ कह रहे हैं।’ प्रिंसीपल का रूखा स्वर सुनाई दिया।
वह रोशनी मेरे माथे को स्पर्श कर गई और मैंने बस इतना ही कहा,
‘मेरा नानक तो हर वक्त मेरे साथ है, आपको ग़लतफ़हमी है, मैं तो गुरुवाला ही हूँ।’
‘अपना व्याख्यान बंद करो। हमें दिखना चाहिए कि तुमने
अमृत छका है।’
‘प्रिंसीपल साहब मेरा नानक निरंतर अमृत ही तो छकाता
है... मेरे मन मस्तिषक पर जमी धूल उसके रंग में डूब कर ही तो उतर रही है...
दिन-रात उसके नाम की खुमारी ही छाई रहती है।’
‘अपनी फिलॉस्फी बंद करो।’ ऊँचा रुतबा ऊँचे स्वर में चीखा। मैं ख़ामोश था, अडोल था, शांत था और उस वक्त बस इतना ही कह
पाया था। यह मेरी फिलॉस्फी नहीं,... यह तो मेरा नानक कहता है -
‘सुच्चे इह न आखियै बहनि जि पिंडा धोए।
सुच्चे सोई नानका जिन मन वस्या सोई।’
‘तुम्हें पता है.... मैनेजमेंट का पद है तुम्हारा...
अगर तुमने अमृत न छका तो हम तुम्हें नौकरी से भी निकाल सकते हैं।’ कोने में बैठे डायरेक्टर साहब ने भी रुआब झाड़ा।
‘डायरेक्टर साहब ! जब ‘सरबंसदानी’ ने अमृत छकाया था तो उस वक्त हज़ारों की भीड़ में से पाँच शीश ही अर्पित हुए
थे। मेरे धड़ पर अभी वह शीश नहीं जो ‘सरबंसदानी’ के समक्ष अर्पित किया जा सके।’
वे सभी ख़ामोश थे। सूरज के आकार
का प्रकाश कमरे से बाहर निकलता है और मैं भी उस प्रकाश के पीछे-पीछे चल देता हूँ।
प्रिंसीपल के कमरे की तरफ देखा तो मुझे अंधेरा ही अंधेरा पसरा नज़र आता है।
उसके बाद प्रिंसीपल की निगाहें हमेशा मेरी निगहबानी करती रहतीं। मैं कहाँ जाता
हूँ, किसके पास बैठता हूँ। यह सब उसकी डायरी में दर्ज़ होता रहता। उसका हर संभव
प्रयास होता कि मैं अशांत होऊँ, बेचैन होऊँ, परंतु उसे नहीं पता था कि मेरे मालिक ने मुझे बेपरवाहियां बख्शी थी। हर वक्त
मैं आनंदित था, हर हाल में मैं आनंदित था। मेरा
नानक हर वक्त मेरे साथ था। फिर भय किस बात का.... फिर चिंता कैसी ?
कॉलेज के बड़े लॉन में प्रकृति के
साथ खोया बैठा था। हरियाली ही हरियाली... मैं हरी घास पर नंगे पाँव चलने लगता हूँ।
कबीर की आवाज़ गूंजती है... ‘यहाँ यहाँ डोलो सो परिक्रमा... जो
जो करो सो सेवा।’ उस आवाज़ का अनुसरण करते हुए मेरे
पाँव पूरे कॉलेज की परिक्रमा करने लगे हैं। मैं सभी कमरों को गौर से देखता हूँ। हर
कमरे के सामने नेम प्लेट और ओहदे लटक रहे हैं। बाहर जितना बड़ा ओहदा लटक रहा था
भीतर उतना ही घना अंधेरा पसरा पड़ा था। इतना अंधेरा देख मेरा दिल काँप उठा था।
बहुत निराश था, परंतु पाँव फिर भी चलना नहीं भूले थे। कॉलेज के बिलकुल दूसरे सिरे पर मुझे दूर
से ही एक कमरा आलोकित प्रतीत हुआ था। बेजान से पाँवों में मानो जान आ गई थी। मैं
जोश से भर कर उस कमरे के पास जाता हूँ। यह उस कॉलेज की लाइब्रेरी थी, लाइब्रेरी में चार थे। वे संवाद करते थे। शरारतें करते थे... परंतु साज़िश
नहीं करते थे। और मुझे पता ही न चला... कब
मैं उनका हिस्सा बन कर रह गया। अब वे पाँच थे।
हमारा हँसना... हमारा एक साथ बैठ
कर बातें करना प्रिंसीपल को चुभता था। कई चलते-फिरते कैमरे हमारी तस्वीरें खींच–खींच कर प्रिंसीपल को दिखाते रहते थे परंतु हमें कोई परवाह नहीं थी। हम पाँचों
में से एक की पेशी के लिए ‘छोटे बाबा जी’ आए थे। प्रिंसीपल जो सभी को कीड़े-मकौड़े समझता था, उनके सामने बड़ी मासूम भरी अदाकारी कर रहा था। पेशी करने वाला सारा कोरम पूरा
था...और प्रिंसीपल ने बहुत धीमे से स्वर में बात शुरू की।
‘मैडम जी, बात यह है कि आपके पढ़ाने को लेकर हमें कोई समस्या नहीं।’ मैडम बस मुस्कुराती हैं। प्रिंसीपल के कई चेहरे थे और हर चेहरे को मैडम अच्छी
तरह पहचानती थीं। कॉलेज में घटित हर बुरी घटना को वह अध्यापकों के सर मढ़ देता था
और अध्यापकों को सख़्त हिदायतें जारी करते हुए यह कहना भी नहीं भूलता था कि यह ‘बड़े बाबा जी’ का आदेश है।
और उस वक्त भी उस बाबा जी का आदेश
जारी करते हुए कहा था, ‘दास, बाबा जी के दिए आदेशानुसार आपसे कहना चाहता है कि आप कक्षा में धर्म के
विरुद्ध बोलती हैं।’
‘अच्छा... पर मैं वही कुछ बोलती हूँ जो हमारे गुरु साहेबान की बाणी कहती है।
गुरु नानक देव जी ने बाणी में फरमाया है – ‘किव सचियारा होईए किव कूड़े तुटै पालि।।’ मैं तो अपनी सामर्थ्यानुसार विद्यार्थियों को यही बताने की कोशिश करती हूँ कि
सत्यवादी कैसे बना जा सकता है, झूठ की दीवार कैसे तोड़ी जा सकती
है।’
छोटे बाबा जी शांत चित्त से मैडम
की बात सुन रहे थे ... पर प्रिंसीपल का रंग फक्क हो गया था। फिर भी विनम्रता से
वार करते हुए कहा, ‘बाबा जी कमरे में हैं सर ढक लीजिए।’
‘प्रिंसीपल साहब ! मुझे तो सिर्फ़ बाबा नानक का पता है... मेरे नानक को ढके या
झुके सर नहीं चाहिए....मेरे नानक को तो विचार करने वाल सर चाहिएं।’
मैडम अपनी बात ख़त्म कर कमरे से
बाहर आ गईं थीं और उच्च रुतबे वालों को झकझोर आईं थीं। परंतु फिर भी कॉलेज में
घटित घटनाएं मुझे उदास कर गईं थीं। मेरे नानक का 550वां जन्मोत्सव मनाया जाना
था...कॉलेज में छुट्टियां हो गईं थीं। उदासी के आलम में मैं बहन नानकी के द्वारे
चला गया था। मुझे याद हो आता है इन्हीं द्वार पर बाबा नानक और मरदाना फकीर बन खड़े
हो गए थे। बेबे नानकी की अवाज़ सुनाई देती है, ‘मेरे वीरा... मरदाना तो तुम्हारा हर समय का संगी-साथी है।’ कंधे पर रखी रबाब को हाथ लगाता हूँ तो मुझे फिरंदा याद आता है। अपने साईं के
लिए ‘रबाब’ मैं उसी से तो लेने गया था। बहन नानकी ने ही तो पैसे दिए थे। उस द्वार पर खड़ा
मैं एक कदम पीछे हट जाता हूँ। मेरे अगले कदम के फ़ासले पर मेरा नानक है।
मैं नानक के द्वारे चल देता हूँ।
उसके दर पर जाकर शीश नवाता हूँ तो सबसे पहले नज़र गुल्लक पर ही पड़ती है। आँखें
मुंद जाती है तो बाबे नानक का स्वर सुनाई देता है – ‘मरदानियां ! फेंक दो।’
पर बाबा जो वस्तु तुमने फेंकने के लिए कहा था, तुम्हारे नाम पर चल रहे द्वार पर सबसे पहले वही वस्तु तो पड़ी मिलती है। बाबा
सिर्फ़ मुस्कुराता है। हवा में बोल गूंजते हैं - ‘मरदाने आगे बढ़ कर देखो, ख़लकत बहुत रंग-तमाशे करती है।’ साईं के बोल मुझे अपने पीछे चला लेते हैं।
माइक पर घोषणा हो रही है –
‘साध संगत जी, नानक ने ‘तेरा तेरा’ दोहराया। आईए अपनी कमाई से कुछ
भेंट उस परमात्मा को अर्पित करें और अपने जीवन को सफल बनाएं। साध-संगत जी भेंट
तेरह रुपए से लेकर तेरह सौ तेरह हज़ार और उससे आगे आपकी श्रद्धा हो सकती है।
साध-संगत जी, पर भेंट के आगे ‘तेरह लगाना न भूलें।’ मैं ज़ोर-ज़ोर से हँस देता हूँ।
मेरा जी चाहता है कि माइक छीन लूं और कहूं, ‘मेरे नानक ने तेरह तेरह नहीं, तेरा तेरा कहना सिखाया था।’ बाबा अगर तुम इस दुनिया में फिर फेरा डालो, जितने नाराज़ तुम अपने लोगों से होगे...किसी और से नहीं। बाबा गुरुद्वारे बहुत
बढ़िया बन गए हैं....परंतु हम बहुत घटिया हो गए हैं। ‘मरदाने धीरज धरो, आगे बढ़ो।’
आगे वी आई पी लोग स्टेज संभाले
बैठे थे। बाबा बैठे हुए ये लोग तुम्हारे ‘द्वारे’ हैं परंतु राजसी भाग्य’ तलाश रहे हैं। माइक पर ‘मैं मैं’ कर चीख रहे हैं। जहाँ ‘मैं’ है वहाँ ‘तुम’ कैसे हो सकते हो। इनके लिए वी आई
पी टेंट हैं, वी आई पी लंगर लगे हुए हैं।
‘मरदाने इन चेहरों को गौर से देखो।’
मैं उन चेहरों को ध्यान से देखता
हूँ। उस वक्त तो एक मलिक भागो था ..... परंतु इस वी. आई. पी. लंगर में तो सभी मलिक
भागो बैठे थे। इनके हाथों की पूरियों में से न केवल खून ही रिस रहा था बलकि खून के
साथ माँस की बोटियां भी आ रही थीं।
उनके
चेहरे देख कर मुझे घबराहट होने लगती है। उनके स्टेज के गिर्द जमा भीड़ मुझे अशांत
कर देती है। ‘जुनैद’ याद आता है। वह मुझे समझाने लगता है, ‘भीड़ में ऐसे जाना है जैसे अकेले हो। जब अकेले हो तो ऐसे महसूस करना है...आप
हो ही नहीं...सिर्फ़ ‘वह’ है।’ आँखें मुंद जाती हैं। ‘मैं मैं’ की आवाज़ें कहीं दूर रह जाती हैं।
रबाब बजने लगती है साईं के शब्द गूंजने लगते हैं।
अंधी रयाती ज्ञान विहुणी भाहि भरे मुरदार।।
‘बाबा मनुष्य कितना भटक गया है... तुम्हारे दर पर आकर
उसे क्या करना था और वह क्या कर रहा है ? वह रब को हर जगह ढूँढता है – एक जगह छोड़ कर... वहाँ वह भूल कर
भी नहीं जाता... वहाँ से वह बच कर निकल जाता है’... और फिर रास्तों पर नूर ही नूर बिछ जाता है और मेरे पाँव उस नूर के पीछे चलने
लगते हैं... उस नूर के पद चिह्नों का अनुसरण करते हुए मैं ‘वेईं’ के किनारे पहुँच जाता हूँ...। यहाँ
ही तो मैं और मेरा नानक बैठे थे। मुझसे बिना कुछ कहे नदी में उतर गया था। मैं
पुकारता ही रह गया था। फिर मुझे लगा जैसे नदी की हर लहर से आवाज़ आ रही हो –
‘धीरज धरो मरदाने...’ फिर मेरा साईं चार दिनों बाद प्रकट
हुआ था। उसके चेहरे की ताब मुझसे सही नहीं जा रही थी। फिर उसका कहा एक-एक शब्द
बेशकीमती हो गया।
मैंने भी बाबे के साथ चार दिन
गुज़ारे थे। सारे संशय कहीं दूर चले गए थे। नया नकोर बन कॉलेज आया था। आज कॉलेज ने
करतारपुर का गलियारा देखने जाना था। बड़ा बैनर छपवाया गया था जो बता रहा था –
करतारपुर
तीर्थ यात्रा !
मुख्य संचालक – प्रिंसीपल करमजीत सिंह ढिल्लों
माइक थामें मैडम कानफाड़ू आवाज़
में बता रही थीं कि प्रिंसीपल ने कितनी ‘तीर्थ यात्राएं’ कीं और करवाई थीं। तीर्थ यात्राओं
को उसके तप, जप, पुण्य, दया के साथ जोड़ा जा रहा था।
प्रिंसीपल अपने कसीदे सुन कर खुश हो रहा था। कमाल की बात है – खुद ही कसीदे तैयार करवाएं जाते हैं और अपने किसी ख़ास ‘जी हुजुरिए’ से पढ़वाए जाते हैं। इस शोर-शराबे
से मन उक्ता जाता है। आँखें मुंद जाती हैं। बंद आँखों के समक्ष करोड़ों रास्ते
नज़र आने लगते हैं, जिन राहों पर मेरा साईं चलता ही जा
रहा था। उन रास्तों पर चल साईं प्रेम से भर जाता था। गुरु की बाणी मुझे समझाने
लगती है ‘मरदाने! जब मन प्रेम से सराबोर
हो... तो अंदरूनी तीर्थ में खुद–बखुद स्नान हो जाता है और ऐसे वक्त
में रबाब के स्वर विह्वल हो जाते हैं और मन खुद–ब-खुद कीर्तन करने लगता है।’
साईं के खयालों की ख़ुमारी मे खोया
मैं करतारपुर पहुँच जाता हूँ। करतारपुर का गलियारा खुल गया था परंतु साईं के
विचारों का गलियारा तो अभी भी बंद पड़ा था।
मैं उन राहों, उन जगहों को दूर तक निहार रहा था
जहाँ मेरा साईं हल चलाता रहा था, भैंसे चराता रहा था। मेरे कंधे पर
किसी ने हाथ रख दिया। मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो उस चेहरे पर नूर ही नूर था। वह
कोई परिश्रम की संतुष्टि से ओत-प्रोत रूह थी।
‘ये आपके खेत हैं ?’ मैंने उससे बस इतना ही पूछा था।
‘न भाई साहब! ये तो मेरे साईं के खेत हैं।... इन खेतों
के भीतर-बाहर मेरे साईं की बरकत है।’
बातें करते-करते हम साईं की मज़ार
के पास पहुँच गए थे। नतमस्तक होने के बाद जब आँखें खुलतीं तो आँखें मज़ार पर लिखें
अक्षरों पर गड़ीं रह जातीं। होंठ उन अक्षरों को पढ़ने लगते हैं।
मज़ार साहब
इस पवित्र स्थान पर मुस्लिम बिरादरी के लोगों ने गुरु नानक देव जी, महाराज की चादर और फूलों को दफनाया था।
‘सरदार जी, हमने संस्कार के वक्त चादर फाड़ ली थी।’
‘हाँ, एक चादर हमने सैंतालीस के समय फाड़
ली थी।’
‘सरदार जी, हम कितने ग़लत थे, वह जो सारी हयाती हमें इंसान बनाता
रहा हिंदुओं का गुरु और मुस्लिमों का पीर रहा और फिर हमने उस नानक को ही बाँट
लिया।’
‘भाई साहब, पानी में अगर लकीर खिंच भी जाए तो
यह आँखों का भ्रम ही तो है, पानी कभी दो भी होते हैं?’
‘सरदार जी, पानी दो नहीं होते...पर ये सरकारें कोई कसर नहीं छोड़तीं। ये जो बड़ी-बड़ी
तकरीरें कर रहे हैं... बड़े जालिम हैं, बहुत कुछ कर सकते हैं। आओ दोनों मिल कर इनसे कहें – इस तार-तार हुई चादर को इस मुबारक मौक़े पर सिल लें।’
मैं ख़ामोश था। वह भी चुप हो गया।
मेरी आँखों की बेबसी को देख उसने
कहा – ‘परंतु सिलना.... मेरे तुम्हारे वश
की बात नहीं।’
‘भाई साहब! ये लोग वोटों के लिए....अपने हाथों
बहुत-कुछ तार-तार कर सकते हैं...परंतु इनमें इतनी हिम्मत नहीं कि तार-तार हुई चादर
को सिल सकें।’
‘सरदार जी जितनी बड़ी कतरनें होती हैं, उतनी ही बड़ी इनती तकरीरें हो जाती हैं। फिर वे क्यों जोख़िम लें उन्हें सिलने
का।’
‘भाई साहब! इन क़तरनों से ही तो इनका कारोबार चलता
है।....’
‘सरदार जी! वैसे अपनेपन की एक जफ्फी से इनका सिंहासन
डोलने लगता है... डरपोक बहुत होते हैं ये सियासी लोग....।’
और फिर पता नहीं कैसे हमने
एक-दूसरे की तरफ देखा था कि खुद ही जफ्फी डल गई थी। नम आँखों से हम एक-दूसरे से
बिछुड़ गए थे।
मैं अपने विद्यार्थियों को साथ
लेकर नानक के खेतों की तरफ चल दिया। नानक के खेत लहरा रहे थे, झूम रहे थे।
अजब सा सकुन था... हम पता नहीं
किस दुनिया में पहुँच गए थे। कुदरत का नाद हमें आनंद दे रहा था। जब तंद्रा लौटी तो
मोबाइल की कॉल मुझे बहुत कठोर संदेसा दे गई थी। हम भागे-भागे बस के पास पहुँचे।
कुछ चेहरे हमें घूर रहे थे। कुछ चेहरे मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। साईं के घर जाकर
भी इनके चेहरे कितने षड़यंत्रकारी लग रहे थे। फिर कुछ लोगों ने इस ख़बर को पंख लगा
कर प्रिंसिपल को पता नहीं क्या-क्या बता दिया था।
वे ख़बरें मेरे माथे पर तोहमतों
की तरह आ लगीं थीं। जो, कुछ मेरे माथे मढ़ा गया था मैंने
उसके बारे में सपने में भी नहीं सोचा था।
‘तुम लड़कियों के लेकर कहाँ गए थे?’
प्रिंसीपल चिल्लाया।
मुझसे कुछ बोलते न बना।
‘हमें पहले भी तुम्हारी शिकायतें मिलीं हैं। अपने खाली
पीरियडों में तुम लड़कियों को पास बिठाए रखते हो।’ यह तोहमत सेक्रेटरी की थी।
मेरी जीभ को ताला लग गया था। मैं
बस इतना ही कह सका – ‘एक अध्यापक के लिए विद्यार्थी केवल
विद्यार्थी होते हैं, लड़की या लड़के नहीं।’
धर्मरहित मर्यादा में सजा श्वेत
वस्त्रधारी बोला, ‘बेटा! तुमने कॉलेज की मान-मर्यादा
को खंडित किया है... हमें तुम्हारी सेवाएं नहीं चाहिए। हाँ, सेमेस्टर समाप्त होने तक तुम्हें आना पड़ेगा।’
मैंने सबकी सुन ली थी... बहुत कुछ
कहना चाहता था... पर मेरे बोलने से पहले मेरे साईं के बोल मुझे समझा गए थे –
‘मंदा किसी न आखिए पढ़ अक्खर इहो बुझिए। मूरखे नाल न लुझिए।’
साईं के बोलों को पल्ले बाँध मैं
लाल-पीला सा कमरे सा निकल आया था। कमरे से बाहर निकलते ही एक कड़वा सा स्वर मेरे
कानों से टकराया – ‘ये छोटी जातियां अपनी औकात दिखा ही
जाती हैं।’
मेरे साईं। ये तगड़े पाले वाले लोग उन्हें दीन-हीन जातियां कहते हैं जिन लोगों
को तुम ताउम्र साथ लेकर चलते रहे। साईं मेहर करना इन पर।
***
कॉलेज से लौट आया हूँ, थका सा... हारा सा...। परंतु मेरी ‘मैं’ मुझसे मुनकर नहीं हैं। मैं अपनी ‘मैं’ के सम्मुख था।
‘ऐसी तोहमतों से ही घबरा गया ?’
‘परंतु ये तोहमतें कितनी सस्ती थीं... इन तोहमत लगाने
वालों क्या पता... मैं तो आज भी अपनी ‘अल्लाहरखी’ ढूँढता फिर रहा हूँ।’
‘पर एक बार इस धरती के ‘रहबरों’ को अपनी बेगुनाही का सबूत तो दे
जाता।’
‘कोशिश की थी... पर उनकी रियासतों की तरफ जाता हर
रास्ता अंधेरे से पटा पड़ा है। और मेरे पाँव उन रास्तों पर चल न सके… और वैसे भी जिन लोगों के जीवन में ऊँचे-सच्चे आदर्श नहीं होते वे छोटी-छोटी
चालों को ही आदर्श समझ बैठते हैं और मैं ऐसे चालबाजों के बाज़ार में भला कैसे बिक
जाऊँ?’
‘मरदाने! योद्धा बन…’
‘मैं भगौड़ा ही कब हूँ ? परंतु उन जालिमों ने मेरी रबाब के सुर ही छीन लिए थे। मेरे गीतों के सिरे ही
मुझसे सरक गए थे। मैं सब कुछ सह सकता था... परंतु मुझसे यह सहन नहीं हुआ।’
‘अगर तुम चल ही दिए हो तो यह तो बताते जाओ..... जाओगे
कहाँ ?’
‘मेरा नानक जहाँ मुझे ले जाएगा।’
इसके बाद मैंने आँखें बंद कर ली
थीं। बरसने को बेताब हो रहे आँसुओँ को भीतर ही जज़्ब कर लिया था... तो अपने साईं को बस इतना ही कह पाया –
‘मेरे नानक ! मेरे कटोरे को बड़ा कर दो.... मेरे रबाब को सुरों से भर दो।’ बंद आँखों को नानक मुस्कुराता दिखता है। मन को करार आता है।
नानक नगरी की सीमा पार कर उसकी माटी अपने माथे से स्पर्श करते हुए कहता हूँ –
‘मेरे नानक, तेरी नगरी बसी रहे।’
‘मरदाने! रबाब बजा।’
डरते-डरते रबाब के सुर छेड़ता
हूँ... आज बहुत दिनों के बाद रबाब सुर में थी... भूली-बिसरी धुनें रबाब पर बजे
लगीं और उन धुनों को सुन मेरी आँखों में रुके आँसू अविरल बहने लगे।
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