पंजाबी कहानी
हिना
आपा
0 जमील अहमद पाल
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
‘के कोइसे आमार हातेर लेखा सुंदोर (किसने
कहा कि मेरी लिखावट सुंदर है?’हिना आपा ने खुश होकर पूछा।
मुझे
याद नहीं कि प्रतिउत्तर में क्या जवाब मिला। मुझे सिर्फ़ हिना आपा का लहज़ा और शक्ल
याद है।
हिना
आपा के घर पर एक नृत्य की महफिल होनी थी। इसके लिए वे कुछ दोस्तों को हस्तलिखित
निमंत्रण भेज रही थीं। वहीं किसी सहेली के भाई ने उनकी लिखावट देखकर तारीफ़ की थी।
बांग्ला
भाषा में ज और ज़ के बीच कोई अंतर नहीं है। हिना आपा भी ‘हिनापा’ बन गईं थीं लेकिन शुरू में मुझे नहीं
पता था कि उनका नाम क्या है?हिनापा... यह
भी कोई नाम हुआ भला?
मुझे
हिना आपा अच्छी लगती थीं। हैं भी बला की खूबसूरत। बंगाल अपने सौंदर्य और आकर्षण के
लिए प्रसिद्ध है लेकिन आम बंगालियों के सांवले रंग के विपरीत उनका रंग चंपई था।
चंपा के फूल जैसा रंग, सफ़ेद हिस्से में हल्का पीलापन। नीली
और हरी आँखें बंगाल की खाड़ी के पानी की भाँति थीं। वे वाकई बेहद खूबसूरत थीं। वे
मुझे भी अच्छी लगती थीं लेकिन मैं उन्हें छुप कर नहीं देखता था। छिप कर देखने की
कोई ज़रूरत भी नहीं थी। बारह साल का लड़का इतना युवा भी नहीं होता कि उसे छिपकर
किसी युवती को देखना पड़े। वैसे भी हिना आपा के दो भाई मेरे स्कूलफेलो थे। एक रोबी
(रवि) और
दूसरा कोबी(कवि)।
जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि बांग्ला में कई ध्वनियां नहीं हैं। इसमें ‘व’ की ध्वनि भी शामिल है। रवि मुझसे एक
कक्षा आगे और कवि एक कक्षा पीछे था और मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उनकी तरह
उनकी माँ की आँखें भी बिलौरी थीं।हमारे घर की ज़बान में उसे ख़ाला बिल्ली कहा जाता
था। बांग्ला में ‘ख़े’ भी नहीं होता। इसलिए ‘खाला अम्मा’। लोग उम्रदराज़ महिलाओं को ‘खल्लमां’ कह कर पुकारते थे।
हिना
आपा सुंदर होने के साथ-साथ गुणी भी बहुत थीं। उन्हें नृत्य भी
आता था। नृत्य और गायन बंगालियों की आत्मा में बसता है। उनके लोकगीत पंजाबी लोकगीत
जैसे भले ही न हो, परंतु बंगाली रसगुल्ले की भाँति मीठे
ज़रूर हैं। उमराव जान अदा उपन्यास की बड़ी नर्तकी की संस्कृति से ताल्लुक रखने
वाले एक व्यक्ति ने बहुत पहले बंगाली संस्कृति को ‘काफ़िरों तथा हिन्दुओं की संस्कृति’ कहा था।
नूरजहाँ
का गाया, फिल्म ‘दिलांदेसौदे’ का धमाल ‘लाल मेरी पत्त रखियो झूले लालण...’उन दिनों एकदम आया और हर तरफ छा गया।
कराची रडियो से, जिसकी रेंज ढाका तक थोड़ी बहुत पहुँचती
थी, रोज़ एक-दो
बार यह गीत प्रसारित होता। पंजाबी मौसिकी का जादू दुनिया के हर इंसान पर चलता
है। हिना आपा को भी यह गीत बहुत पसंद आया
और उन्होंने मुझसे फ़रमाइश की कि मैं उन्हें यह गीत लिख कर दूं। अगले दिन जब यह
गीत प्रसारित हुआ तो मैंने जल्दी-जल्दी लिख लिया। फिर बांग्ला लिपि में
साफ़-साफ़ लिख कर हिना आपा को दे दिया। बदले में मैंने
कुछ दिनों बाद हिना आपा के घर आयोजित लड़कियों का नृत्य कार्यक्रम देखा। माया तथा
अन्य दो-तीन लड़कियां साड़ियां पहन कर नाचने
लगीं तथा हिना आपा ने गाना शुरू किया-
‘दोलना दोलाए, दोलना
दोलाए, माटी रो खेलाए, एलोरे
राखाल राजा....
तोरा बाजा रे मादोल बाजा, तोदेर
एलो रे राखाल राजा।’
लड़कियों
ने बहुत सुंदर नृत्य प्रस्तुत किया। आधा गीत गाने के बाद अचानक हिना आपा ने परेशान
हो कर पूछा, ‘घुँघरू टा कोई?’(घुँघरू
कहाँ हैं) एकदम हँसी छिड़ गई। लड़कियां नृत्य से
पहले घुँघरू बाँधना भूल गईं थीं। फिर उन्होंने घुँघरू बाँध कर शुरू से नृत्य किया।
इस प्रकार मैंने वह नृत्य डेढ़ बार देखा।
उसी
माया को मैंने कुछ दिन बाद घर से बाहर घास वाले खुले मैदान में एक टाँग पर अपने
ध्यान में मग्न नृत्य करते हुए जाते देखा, जो
नाचने के साथ-साथ मेरी भाषा का लोकगीत भी गा रही थी –
‘लाठे दी चदर, उत्ते
सालीटी रौंग माहीया.....’
(लट्ठे दी चादर, उत्ते
सलेटी रांग माहीया...)
साल
भर हम तेज गाँव वाली कॉलोनी में रहे। फिर कुर्मी टोला आ गए। उसके बाद हिना आपा को
मैंने नहीं देखा। न ही उनके बारे में कुछ सुना। मुहल्लेदारी थी। क़रीबी संबंध नहीं
थे कि उनसे मिलने जाते। कुर्मी टोला में हमारा तीन कमरों का घर था। एक पूरा कमरा
हम तीन बड़े भाई-बहनों का था। मैं अब आठवीं में था। तेज
गाँव में हिना आपा के मुहल्ले के पास का बाज़ार ‘कोचू खेत’ था। मुमकिन हैकि कभी वहाँ अरबी के खेत
रहे होंगे, वहाँ तो बाज़ार था। वहाँ कुर्मी टोला
में हमारा निकटतम बाज़ार था ‘भालू घाट’। वहाँ की भाँति यहाँ भी निर्धन बंगाली
बच्चे थाली में दो-चार बैंगन रख कर, कभी
सब्जियों के पौधे दो पैसे प्रति पौधे के हिसाब से ज़मीन पर बैठ कर बेच रहे होते।
हर दो मिनट बाद कोई न कोई भिखारी आ जाता था।
हम ‘शाला पांइजाबी’ पहले भी संदिग्ध थे, यहाँ
और भी अधिक संदिग्ध हो गए। बाज़ार जाते तो दुकानदारों के साथ काम-काजी
संबंध होते हुए भी ऐसा लगता मानो हमें पसंद नहीं किया जा रहा है। कोई गुनाह समझ
में नहीं आता था। गुनाह बहुत बाद में पता लगा। वह यह कि हम अपनी भाषा छोड़ बैठे थे
और बंगालियों से भी उम्मीद लगाए बैठे थे कि हमारी तरह वे भी अपनी भाषा छोड़ देंगे... 21 फरवरी
आती तो सारा बंगाल, बंगाली शहीदों का दिवस मनाता। उस दिन
गली, बाज़ारों में कोई अन्य भाषा बोलने पर पाबंदी
होती। बांग्ला में बात करेंगे तो दुकानदार सामान देगा। उस दिन गली-बाज़ारों
में सभी नंगे पाँव होते।
नए
घर में मैंने छायादार आँगन में आलुओं के साथ-साथ
फूल गोभी का भी एक पौधा लाकर लगाया। कई माह गुज़र गए, मार्च
भी ख़त्म होने को आ रहा था परंतु गोभी में फूल नहीं लगा। छाँह में लगे पौधे पर फल
नहीं आया करते।
फिर
हवा आँधी में बदलने लगी। बंगाली नाराज़ थे। और हम नाराज़गी दूर करने की बजाय
उन्हें धमका रहे थे। मौसम ठंडा परंतु सियासी मौसम गर्म था। जगह-जगह
बंगाली दो-दो, चार-चार, छह-छह
की टोलियों में खड़े होकर बातें करते। बिहारी भी उसी तरह एकत्र होते। बाज़ार से सामान
लेकर लौटा, घर में घुसते समय बाहर चार-पाँच
पड़ोसी खड़े होकर पता नहीं क्या बात-चीत कर रहे थे। उनमें से एक का वाक्य
मेरे कानों में पड़ा। ‘ऐक्चुयली वी बेंगौलीज़ आर वेरी फूलिश
पीपल।’ आठवीं में पढ़ते हुए मुझे वह पूरा वाक्य समझ आ
गया। वह कह रहा था कि हकीकत में हम बंगाली बहुत बेवकूफ लोग हैं। मैंने घर आकर
अम्मी को फख़्र से बताया कि वह यह कह रहा था और इसका अर्थ यह है।
तेज़
आँधी चली तथा अब्बू जी.पी.आई.ए
की टिकट कटा कर हम सब को ‘वेस्ट’ में छोड़ गए। वे खुद वापस चले गए।
वहाँ फ़ौजी कार्रवाई ज़ोर-शोर से हो रही थी। उनके ख़त आते और
हालात का पता चलता। भालू घाट का छोटा सा बाज़ार जहाँ हम सामान तथा सब्ज़ी लेने
जाया करते थे बुलडोजर से समतल कर दिया गया था। हज़ारों लोग भाग गए थे। कइयों को
गोली मार दी गई थी। फिर युद्ध हुआ, युद्ध के बाद हार हुई। बंगाली अलग हो
गए। उन्होंने अपने गीत, दाल भात, गुरबत, नातें, कटहल, अनानस
तथा अन्य सब कुछ अलग कर लिया। हिना आपा भी भिन्न देश की वासी हो गईं। अब अगर कभी
वहाँ जाना हुआ तो पासपोर्ट और वीजे की ज़रूरत होगी।
अपने
पुश्तैनी शहर में मैंने आठवीं तक पढ़ाई की और फिर लाहौर आकर बाकी जीवन गुज़ारने
लगा।...
सब
कुछ मुझे भूल गया था। कंबख्त यहूदी साज़िश के कारण सब कुछ याद हो आया। आज खाली
बैठा था। इंटरनेट पर यूँ ही सर्च करते हुए एक पुरानी भूली-बिसरी
बांग्ला नात याद हो आई तो सुनने कामन हो आया। नेट पर रोमन में नात के शुरूआती शब्द
लिखे। एक क्लिक पर ही थोड़ी देर में कई गायकों की गाई नात सामने आ गई। सुना तो वही
ताज़गी थी। वही सुरूर छा गया, जो सातवीं कक्षा में हुआ करता था। फिर
सातवीं कक्षा के बांग्ला के उस्ताद मोहतरम आँखों के समक्ष आ गए। लंबे-लंबे
केश और चश्मे वाले, जिन्होंने क्लास में झूम-झूम
कर नात सुनाई थी –
‘त्रिभुवनेर प्रियो मुहम्मद(साहब), एलो
रे दुनियाए
आए रे शागोर, आकाश, बाताश, देखबे
जोदी आए... ’
(त्रिभुवन के प्रिय मुहम्मद साहब का
दुनिया में आगमन हुआ, आओ रे सागर, आकाश, हवा
आओ यदि देखना है।)
परंतु
कहाँ वह उस्ताद, कहाँ वह हिना आपा, कहाँ
वह सुंदर बांग्ला, कहाँ वे फूलिश पीपल बेंगॉलीज़...बीच
में पूरे पचास साल बिखरे पड़े थे।
वे
काले-काले, सुकड़े-सुकड़े, दाल
के साथ भात और ढेर सारी हल्दी डाल कर उंगलियों के पोर-पोर
जितनी मछलियां खाने वाले लोग जो दोपहर को गुसल के बाद ही खाना खाते थे और खाने के
बाद दोपहर को आराम ज़रूर करते थे। वे नमाज़ें पढ़ने वाले बंगाली, ज़
को ज बोलने वाले। वे जिनकी स्त्रियों को खलमां कह कर मैं पूछता रहता था कि फलां
चीज़ को बांग्ला में क्या कहते हैं। अपने हमउम्र या बड़ी उम्र के लोगों से मैं
बांग्ला में बात करता और सामने से हमेशा एक ही वाक्य सुनने को मिलता –‘तुमी तो सुंदोर बांग्ला बोलते पारो’(तुम
तो अच्छी बांग्ला बोल लेत हो)।
मैं
थोड़ा सा शरमा जाता और भीतर ही भीतर खुश भी हो जाता। आज तक समझ नहीं आया कि ‘सुंदोर बांग्ला’ से उनका मतलब क्या था। वे बांग्ला
भाषा को सुंदर कह रहे होते या बांग्ला बोलने के मेरे अंदाज़ को।
घर
के बाहर बरामदे मेंबैठी दस-बारह वर्षीया बंगाली लड़की मेज़ पर ऱखकर
भात खा रही थी, मेज़ की दूसरी तरफ दो लड़के बैठे थे।
खाने के साथ-साथ बातें भी कर रहे थे। सामने घर की चहारदीवारी
के पार खड़ा पंजाबी लड़का उन्हें बिट-बिट तक रहा था। वह कमीना या लालची नहीं
था, बस जिज्ञासावश देखे जा रहा था। बंगाली लड़की ने
लगातार तकते देखा तो उसे मुखातिब होकर कहा, ‘खाईबे?’
लड़का
शरमा गया। घबरा कर उसने न में सिर हिलाया और आगे बढ़ गया।
बाज़ार
में वह धोबी जो हमेशा कपड़े इस्तरी करते नज़र आता,उसकी
इस्तरी वाली मेज़ इस तरह रखी हुई थी कि दाहिनी तरफ से बाहर का नज़ारा भी देखता
रहता। रोज़ जब भी वह पंजाबी लड़का वहाँ से गुज़रता, वह
मुस्करा कर पूछता, ‘की खौबोर?’ लड़का शरमा जाता। की का अर्थ बांग्ला
में वही था जो पंजाबी में था। खौबोर को पंजाबी लड़के ने समझा कि शायद खाने के बारे
में पूछ रहा है। एक झिझक सी उसे महसूस होती। एक दिन जब धोबी ने ‘की खौबोर’ कहा तो लड़के ने हिम्मत करके कह दिया, ‘भात।’
‘भात?’ धोबी ने कहा और हँस पड़ा।
बाद
में पंजाबी लड़के को पता चला कि खौबोर का मतलब था, ख़बर, की
खौबोर यानी क्या हाल-चाल है?
और
मेरा सहपाठी अहसन, जो चश्मा लगाता था और बंगाली होकर भी
पंजाबियों की भाँति पंजाबी बोलता था। ‘ण’ की सारी खूबसूरती सहित। फ़ौजी का बेटा
था और पिता के पंजाब में तबादले के समय गुजरात के किसी स्कूल में पढ़ चुका था। उस
समय तो मेरे साथ पंजाबी बोल लेता था, बाद में कहाँ मौक़ा मिला होगा। उसे भी
पंजाबी उतनी ही याद रह गई होगी जितनी कि मुझे बांग्ला याद रह गई है। यदि जीवित
होगा तो अपने नाती-पोतों के साथ पंजाब की यादें शायद ताज़ा
करता हो। बताता होगा कि पंजाब में ऐसे लोग रहते हैं जो अपनी भाषा बोलना पसंद नहीं
करते। और उसके नाती-पोते दाँतों तले उंगली दबा कर सोचते
होंगे कि दादा/नाना
झूठ बोल रहा है। ऐसा भी कहीं हो सकता है? बंगालियों के घर बच्चों से और बंगाल के जलाशय मछलियों से भरे रहते
थे। जाल डाल कर मछलियां पकड़ना कितना रोचक काम था। और पंजाबी लड़के के लिए उससे भी
रोचक काम था मछलियां पकड़ते देखना। जाल वाला जाल फैला कर पानी में फेंकता। फिर एक-दो
मिनट इंतज़ार करता। फिर थोड़ा-थोड़ा करके जाल को बाहर खींचता। जाल
मछलियों से भरा निकलता। विभिन्न तरह की मछलियां, उछलती
हुई बाहर आतीं। कुछ छोटी, कुछ बड़ी। एक-दोझींगे
भी होते। कभी एक-आध मेंढक भी होता, जो
फुदक कर भाग जाता। कभी कोई कछुआ भी। मछलियां ऐसे उछलतीं मानो कोई वतन से दूर जाकर
वतन की याद में तडपता है। मछलियों को चुन-चुन
कर बाँस की टोकरी में डाल लिया जाता। फिर उनमें ढेर सारी हल्दी और मिर्च डालकर
सालन बनाया जाता। कभी मछली में मटर, सेम की फलियां, गोभी
तथा अन्य सब्ज़ियां भी डालते। बंगाली यह सालन भात और पानी जैसी मसूर की दाल के साथ
मज़े ले-ले कर खाते। मुट्ठी में मसल-मसल
कर गोले बना कर खाते। मुट्टी से बहती पतली दाल बाँह और कोहनी तक बहती।
इसी
बंगाल में रोज़े शुरू होने से एक दिन पहले माँ ने सेर भर चने की दाल साफ़ करके
डिब्बे में डाल कर दी, ‘जा इसे पिसवा ला।’
बेसन
तो आम मिल ही जाता था परंतु ख़ालिस चीज़ की सनक.....।
लड़का
कच्चे रास्ते पर चलते-चलते दो फर्लांग दूर गाँव जा पहुँचा।
दूर सुपारी और नारियल के पेड़ों की ओट में में, अस्त
होने की तैयारी करता सूरज, उदासी से उसे देख रहा था। पंजाब का यह
लडका यहाँ बंगाल में क्या कर रहा है?
टक्क
–
टक्क की रूमानी आवाज़ से चक्की चल रही थी। चक्की के सामने 20 चीज़ों
की कतार लगी हुई थी। थैले और बल्टियों में गेहूँ और चावल पिसाई के लिए रखे हुए थे।
लड़के ने कतार में सब से पीछे अपनादाल वाला डिब्बा रख दिया। चक्की वाले का ध्यान
कहीं और था। फिर उसकी नज़र पंजाबी लड़के पर पड़ी। उसने इशारे से उसे पास बुलाया।
‘तोमार टा कोई?’ (तुम्हारी
चीज़ कहाँ है) उसने पूछा।
‘ओई दीके।’ लड़के ने डिब्बे की तरफ इशारा किया।
‘आनो।’ (लाओ)
उसने लड़के से कहा।
लड़का
डिब्बा उठाकर चक्की वाले के पास गया और चक्की वाले ने दानों की पिसाई ख़त्म होते
ही उसका दाल वालाडिब्बा चक्की में उलट दिया। डेढ़ मिनट में दाल वाला डिब्बा गर्म
बेसन से भर गया। लड़के ने हाथ में पकड़ा हुआ एक आना...एक
पैसा और पाँच पैसे चक्की वाले को देने की कोशिश की।
‘नाई, जाओ।’चक्की वाले ने पिसाई लिए बिना लड़के को
भेज दिया।
पूरी
आधी सदी के बाद जब चक्की वाले के पैसे मुनाफे सहित बढ़ कर पता नहीं कितने हज़ार हो
गए होंगे, समझ नहीं आताउनकी अदायगी कैसे करूं?
बात
पैसों की नहीं,
उस निस्वार्थता की है जो चक्की वाले बंगाली ने
पंजाबी के साथ की।
वही
निर्धन बंगाली परंतु दिल से तृप्त बंगाली अब अच्छी स्थिति में हैं। उनके गीतों का
सोज़ और मिठास और भी बढ़ गई है। और वह नात, वह आज भी वैसा ही सरूर देती थी। ‘शाला पांइजाबी’
अब उनके लिए अतीत की एक दु:खद याद बन
कर रह गए थे।
हिना
आपा याद आईं तो वे तूफान भी याद हो आए जो उसके देश में हम पंजाबियों पर से गुज़रे
थे। उनका लीडर कहा करता था कि लाखों महिलाओं का बलात्कार हुआ। लाखों महिलाएं? उनसे सिर्फ़ चौबीस साल पहले विभाजन के वक्त मेरा पंजाब भी ऐसे तूफान
से गुज़रा था। पंजाबियों ने अपना बलात्कार खुद किया था। अपना बलात्कार खुद करने
वाले के लिए तो दूसरे का बलात्कार करना तो बहुत ही आसान होता है। तब भी गिनती
लाखों में थी। पंजाबियों को फिर भी अक्ल नहीं आई? उस वक्त मज़हब भिन्न, भाषा साझी थी। यहाँ भाषा भिन्न और
मज़हब साझा था। हम पंजाबियों ने कभी भी किसी साझेदारी का लिहाज़ नहीं किया?एक टाँग पर नाचती और लट्ठे की चादर
वाला गीत गाती माया, की
खौबोर पूछने वाला धोबी, पंजाबी
बोलने वाला सहपाठी अहसन, दाल
भात खाने वाली और खाईबे पूछने वाली लड़की, मछलियों से भरे जलाशय और सबसे बढ़ कर
हिना आपा... सब कुछ खो बैठे। ऐक्चुयली वी पंजाबीज़ आर वेरी फूलिश पीपल।
हिना
आपा भी क्या बलात्कार का शिकार हुईं बंगाली महिलाओं में शामिल होंगी? पता नहीं। उनका सौंदर्य तो फ़रिश्तों जैसा था। फ़रिश्ते का बलात्कार
तो नहीं हो सकता शायद? पिसाई
के पैसे न लेने वाले, ऐसी
आत्मविभोर कर देने वाली नात लिखने, गाने
और सुनने वाले लोगों पर फ़ौजी कार्रवाई हुई थी? हिना आपा जैसे सुंदर लिखावट वाली
लड़कियों ने क्या किया था जो उनके साथ ऐसे सलूक हुआ?
मैंने
सच्चे रब के समक्ष दुआ की कि हिना आपा को यह दिन न देखना पड़ा हो। इससे पहले ही वह
किसी ट्रैफिक हादसे में मारी गई हो, ढही
दीवार के नीचे दब गई हो। छत से गिर कर मर गई हो। किसी अन्य कारणवश ख़त्म हो गई हो।
बस बलात्कार से बच गई हो।
मुझे
नहीं पता कि पचास साल बाद की जाने वाली दुआ, गुज़रे ज़माने पर कैसे लागू हो सकती
है.....।
00000
लेखक परिचय
जमील अहमद पाल
जन्म 21 मार्च 1958 को लाला मूसा, जिला गुजरात, पंजाब, पाकिस्तान में। पिता की सरकारी नौकरी
के कारणउन्हें विभिन्न शहरों में रहने और अध्ययन का अवसर मिला। पाँचवीं से आठवीं
कक्षा तक उन्होंने ढाका शहर (पूर्वी पाकिस्तान/वर्तमान बांग्लादेश) में पढ़ाई की। उन
दिनों वहाँ बंगाली राष्ट्रवाद का आंदोलन ज़ोरों पर था। यहीं से जमील अहमद पाल को
अपनी मातृभाषा पंजाबी के लिए काम करने की प्रेरणा मिली।
1976 में इंटरमीडिएट के बाद उन्हें पाकिस्तान
रेलवे में नियुक्ति मिल गई। बाद में वे पंजाबी लेक्चरर बने। मार्च, 2018 में लाहौर के सरकारी शालीमार
कॉलेज से सेवानिवृत्ति। मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सवेर इंटरनेशनल’ का संपादन एवं प्रकाशन।
अब तक चार कहानी संग्रह, एक उपन्यास ‘अजब दिन अजब रात’और एक यात्रा वृतांत ‘लंदन,लाहौर वरगा ए’प्रकाशित। लेखन के लिए कई सम्मानोंसे
समादृत। पंजाबी भाषा की सेवा के लिए पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2022 में ‘तमगा इम्तियाज’ से
नवाजा। कहानी संग्रह ‘मैंडल
दा कानूमन ’के
लिए 2023 में अंतर्राष्ट्रीय ‘ढाहां’ पुरस्कार से सम्मानित।