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सोमवार, नवंबर 10, 2025

कहानी - 68 पंजाबी - स्याह सफेद - चंदन नेगी अनु. नीलम शर्मा अंशु

 पंजाबी कहानी

                            स्याह सफेद 

                                                    0    चंदन नेगी 

                                        अनु. नीलम शर्मा 'अंशु'


'आंटी जी, पहचाना नहीं?'

         एक दुबली-पतली लम्बी-सी युवती शहर का बड़ा चौक पार करते हुए जैबरा लाइन्स पर मेरे            सामने आ खड़ी हुई। यादों के पुलिंदों को पलटते हुए कुछ विशेष सफलता नहीं मिली।


'मैं राखी, अस्पताल में आपके साथ वाले कमरे में...'

'ओह... हां... राखी।' मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया। मेरी निगाहों ने उसे सिर से लेकर पांव तक ताड़ा।

मैले, पुराने बेमेल से कपड़े, सांवला रंग, मुरझाया सा चेहरा, कलाइयां और कान सूने-सूने से।

'यहीं रहती हैं आप?' कहकर उसने एक लम्बी सांस ली और उसकी पलकें भीग गयी।

इस युवती के बारे में सोचते हुए मेरे माथे पर दोगुनी लकीरें उभर आयीं। भौंहों के बीच त्योरियों ने माथे को सिकोड़ दिया। भीतर उठा तूफान दिमाग़ की नसों पर जमी धूल उड़ा ले गया। आंखों के समक्ष एक गोरी-चिट्टी, मोटी आंखों वाली आभूषणों से लदी सजी-संवरी, झिलमिलाता लाल सूट पहने एक लड़की उदास सी अस्पताल के बिस्तर पर बैठी याद हो आयी ।

ऑप्रेशन के बाद मैं ज़रा चलने-फिरने लगी थी। डॉक्टर ने स्टैंड के सहारे अस्पताल - के बरामदे में टहलने के लिए कहा था। उस दिन कमरे से बाहर निकली तो पूरा बरामदा लोगों से भरा पड़ा था। लोगों की काना-फूसी, पदचाप, मीडिया वालों का जमघट। सोचा, शायद मेरे साथ वाले कमरे में कोई वी.आई.पी. या कोई मंत्री अपने अंतिम समय पर है, तभी टी.वी. चैनल वाले आगे हो-होकर एक-दूसरे से पहले यह खबर अपने चैनल पर देना चाहते हैं। अस्पताल के बड़े सर्जन भी डॉक्टरों की पूरी टीम के साथ कमरा नम्बर 30 में घुसे थे।

अपने कमरा नम्बर 31 के बाहर मैं भी वॉकर के सहारे दीवार से टेक लगाकर खड़ी हो गयी। कुछ समझ नहीं आया कि अस्पताल में इतनी गहमा-गहमी क्यों है, इतनी दौड़-धूप क्यों मची हुई है। टी.वी. चलाकर अपने बेड पर लेट जाती हूं। न्यूज़ चैनल से समाचार आ रहा है, 'पंजाब के अस्पताल में करिश्मा...। ईश्वर के रंग में भंग-विज्ञान का चमत्कार। डॉक्टर बने भगवान। एक युवक का ऑप्रेशन कर युवती बना दिया, यह कहानी रात आठ बजे के समाचारों में सुनिए।' तभी इतनी भीड़ है। मैं बड़बड़ायी।

रात आठ बजे हर टी.वी. चैनल की खास खबर दो-दो बार सुनायी गयी। 'आज जब पंजाब भ्रूण-हत्या में सबसे पहले नम्बर पर है, कन्याओं के लोथड़ों से कुएं भर जाते हैं, जहां माता-पिता ही कोख में कन्याओं के हत्यारे हैं, वहां एक लड़के ने लड़की बनने का साहस किया है। पंजाब में इस अस्पताल के डॉक्टरों का यह पहला सफल प्रयास है। हम इस लड़की के माता-पिता और डॉक्टरों को हार्दिक बधाई देते हुए माताओं से बेटियों के हत्यारे न बनने की अपील करते हैं।' उस लड़की का चेहरा भी दिखा, जो अभी तक बेहोश थी। तभी सुबह मीडिया की इतनी भीड़ थी, मैंने सोचा।

चार-पांच दिन गुज़र गये। मैं नयी बनी युवती से मिलने के लिए बेचैन हो रही थी। उसे देखने आने वाले लोगों की भीड़ घटी तो मैं भी नर्स का हाथ थामे उसे देखने चली गयी। यह आर्टीफिशियल गहनों, अधूरे मेकअप, लाल ज़री वाले सूट में सजी-संवरी सी बेड पर छुई मुई सी बनकर इस तरह बैठी हुई थी, मानो बारात के आने का इन्तज़ार कर रही हो।

नर्स के साथ होने के कारण उसने मुझे डॉक्टर समझ लिया था। 'पता है मुझे बड़े डॉक्टर साहब ने बताया है कि मैं कुछ देर बाद शादी कर सकती हूं, मैं संतान को जन्म नहीं दे सकती, बैठते वक्त बहुत तकलीफ होती है, मेरा तन भी लड़कियों जैसा हो जाएगा।' कहते हुए उसने लाल दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया।

'बहुत बड़ा कदम उठाया तुमने।' मैंने उसके चेहरे के हाव-भावों को परखते हुए कहा।

वह शमति हुए मुस्करायी, 'बहुत दर्द है डॉक्टर साहब ।' 'तुम्हें लड़की बनने का शौक कहां से जगा?'

'जी सुन्दर-सुन्दर कपड़े, ज़ेवर, मेकअप मुझे शुरू से ही बहुत अच्छा लगता था। खेलता भी मैं लड़कियों के साथ था। लड़कियां रोझड़ा (घोड़े जैसा एक जंगली जानवर) कहकर छेड़ा करतीं। मां सात पर्दों में छुपाकर रखती।' कहकर उसने अपनी आंखें बड़े ही अजीब ढंग से सिकोड़ीं और अजीब तरह से ठहाका मारकर हँसी। 'लड़कियों की टोली के पास जाता तो वे अपने खेल गुड्डी-गुड्डे का ब्याह, घर-घर, गेंद-गीटे सब बंद कर देतीं। कहतीं, 'जा, लड़कों के साथ जाकर खेल, हमारे बीच आ धमकता है।' होंठ दबाकर वह चुप हो गयी।

'मैं उस गोरी युवती का चेहरा निहारती रही, जिसके बालों की लटें उसकी गर्दन पर झूल रही थीं। मां को सुविधा थी, घर का ज्यादातर काम-काज मैं निपटा देता था। पिता चाहते कि स्कूल से लौटकर उनके साथ दुकान पर बैठूं। प्लस टू के बाद भी चेहरे पर न दाढ़ी, न मूंछ थी। पापा के बूट मेरे माप आने लगे थे, परन्तु मैंने उस तरह के बूटों में कभी पांव न डाला, मां की चप्पलें ही घसीटता रहा। पापा बहुत तड़पते, मां को बुरा-भला कहते, 'बगल में घुसाये रखती है लड़के को। बाल कितने लम्बे रख छोड़े हैं, कपड़े भी लाल, पीले, नीले पहनता है।'

बेइन्तहा खुश वह लड़की बार-बार अपने माथे पर सजे मांग-टीके को संवारते हुए अपनी कमीज़ के गले में नज़र डालते हुए बोली, 'रक्खे से मैंने अपना नाम राखी रख लिया है। मैंने साइबर कैफे में दाखिला लिया था, अब मां बहुत उदास और पापा बहुत खुश थे।' 'साइबर कैफे के हमारे गुरुजी (कानों को छूकर) मुझे घूरते

मेरी चाल को ताइते, मेरे हाथों को निहारते, मेरे उठने-बैठने के सलीके को ताइते रहते। मैं भी झिझकता रहा था। किसी न किसी आवाज, गहनों से लदे । एक दिन वे चार-पांच किन्नरों को लेकर बहाने से वे रोज मेरे सामने कुर्सी पर आ बैठते। मोरी-भारी रोबदार तरह से झटके दिए अगर ये हमारे जैसे लोग इसी तरह पुपते रहे. आ गये और मेरी कमीज का कॉलर पकड़ मुझे झिंझोड़ा अच्छी हमारी बेल कैसे बढ़ेगी? हमारे कौन सा संतान पैदा होनी * जिनके सहारे यह उम्र गुजारनी है। ले चलो अपने घर बेटा। साइबर कैफे के भीतर-बाहर लोग जमा हो गये। मुझे उन लोगों मे घेर लिया। वे लम्बे-लम्बे हाथ हिलाते हुए मेरे मां-बाप को गालियां देने लगे, जिन्होंने मुझे छुपा रखा था। गुरुजी ने मुझे मजबूत बांहों से जकड़ लिया और ऐसे घसीटा जा रहा था, जैसे मैंने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो। हमारे साथ लोगों का जमघट जलूस के रूप में हंसी-ठिठोली करते चल रहा था।

'गली में पहुंचे। घरों के जंगले, दरवाजे, खिड़कियों में सिर ही सिर दिख रहे थे। गली वाले भी हैरान-परेशान कि किन्नरों ने रक्खे को क्यों पकड़ रखा है। क्यों घसीट रहे हैं? छोटा-सा था, माता-पिता अपना घर-बार छोड़कर नये शहर में आ बसे थे। मैं रो रहा था। मां किन्नरों को घर का दरवाज़ा खोलते देख छाती पीटने लगी। मैंने तो सात पदों में रखकर पाला है, मेरा इकलौता बच्चा... नहीं, नहीं ये नहीं नाचेगा तुम लोगों के साथ घर-घर जाकर, दर-दर पर। पढ़-लिखकर अब किसी लायक बना है, नहीं जाने दूंगी मैं। मां मुझे सीने से लिपटाकर खून के आंसू रोयी। पापा भी बहुत तड़पे थे। पहली बार उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भींचा था। मैं फूट-फूट कर रो रहा था।'

'मैंने तो साइबर कैफे में इसकी चाल से पहचान लिया था। हम अपनी औलाद लेकर जाएंगे, चाहे थाने जाओ या कचहरी।' किन्नर गुरु ने ज़ोर से ताली मारकर कहा था और उठकर नाचने लगी। उसके साथी भी एड़ियों से तबले की धा धिक घा ताल से ताल मिलाकर नाचने लगे और एड़ियां लाल सुर्ख हो गयी। मैं मां की तरफ बढ़ना चाहता था।

'शाम को किन्नरों ने खूब जश्न मनाया। अपने इष्ट देव की पूजा-अर्चना की। तरह-तरह के व्यंजन बने। ब्यूटीशियन आयी, मेरी भौंहें तराशी, लम्बी चोटी की विग मेरे सिर पर लगायी, नयी दुल्हन की तरह मेरा श्रृंगार किया। नाच-गाने, बेसुरे गीतों की लय-ताल के साथ सारा दिन ढोलकी बजती रही। मैं सारी रात रोता रहा। ये कैसे लोग हैं, ये कैसे ज़िन्दगी? ये कैसी योनि?' वह थोड़ी देर चुप रही, अब भी उसकी आंखें छलक रही थीं।

अपना चेहरा और आंखें पोंछकर वह फिर बताने लगी, 'अब लड़कियों की पोशाक बहुत बुरी लगती, मेकअप का पलेथन रगड़-रगड़ कर पोंछती थी। कमर मटका-मटकाकर चलने, हाथ नचा-नचाकर बातें करने, नाज-ओ-अदा से चलने की आदत को अब नकारता था। नाचने के लिए जाने से दो-दो घंटे पहले चेहरे पर पाउडर और लाली पोतते थे. जैसे किसी फिल्म की शूटिंग के लिए जाना हो।

'दोस्त विपिन के साथ कभी-कभी मुलाकात हो जाती थी। मेरा हुलिया देखकर वह बहुत तड़पता था। मैं भी विपिन की भांति इस साइबर कैफे में काम पर लग जाता। मैंने अपने गुरुजी से बहुत मिन्नतें कीं, पर वे टस से मस न हुए। तू तो रब की नियामत है, जो उसने हमारी झोली में डाली है। न गुरु माना और न नौकरी मिली। मालिक ने कहा, हमें अपने कैफे में दिन भर का तमाशा नहीं करवाना।

'एक दिन विपिन बहुत ही उदास था। उसकी संतोष को ससुराल भेज दिया गया था। हम दो दिन पहले ही उस घर में नाच कर आये थे। नयी दुल्हिन बहुत उदास थी, दुपट्टे के छोर में आंसू सहेज लेती। उसने मुझे नहीं पहचाना था।

'विपिन ने कहा, यार तू लड़की बन जा, मैं तुझसे शादी कर लूंगा, हम दोनों एक साथ रहेंगे, उसने मिन्नतें करते हुए मेरे हाथ पकड़ लिए, यहां से किसी बड़े शहर भाग जाएंगे।

'मेरे नसीब यार, कैसे लड़की बन जाऊं? कैसे यहां से भागेंगे? गुरुजी का शिकंजा बहुत सख्त है। भगवान भी हमारे लिए अन्यायी बन जाता है। विपिन ने इंटरनेट, गूगल सब छान मारे। मैं भी नयी उम्मीद की डोर थामे जीने लगी थी। सुनहरे भविष्य की प्रकाशमयी डोर से बंधने लगी। विपिन को जेंडर बदलवाने के लिए बाहरी देशों में हो रहे ऑपरेशनों के बारे में पूरी जानकारी मिल गयी थी। दिक्कतें बहुत थीं, रुपये कहां से लाएं? किन्नरों के चंगुल से कैसे निकलें? अचानक गुरुजी का देहांत हो गया, उनको दफनाने के समय मैं वहां से भाग निकला।

'इस अस्पताल के बड़े डॉक्टर साहब के बारे में लोगों से बड़ी तारीफें सुनी थीं। डॉक्टर साहब भी हैरान थे कि मुझ पर क्या पागलपन सवार है। बोले, अभी ये ऑपरेशन भारत में शुरू नहीं हुए। इसकी इजाज़त के लिए कचहरियों के भी धक्के खाने पड़ेंगे। आप कचहरी से इजाज़त लेकर आइए, हम ऐसे ऑपरेशन की जानकारी जुटाते हैं, अच्छी तरह स्टडी करके ही ऐसे केस में हाथ डालेंगे। शायद उस वक्त डॉक्टर को अपने अस्पताल की प्रतिष्ठा का भी ख्याल आया हो।

'पूरा एक साल लग गया कचहरी में धक्के खाते। कचहरी में भी तो एक नया और अजीब मुद्दा उठा था, सृष्टिकर्ता ईश्वर को चुनौती देनी थी, ईश्वर के रंग में भंग डालना था और देखिए अब मैं आपके सामने आपकी बेटी के रूप में बैठी हूं।'
'तुम्हारे विपिन ने तुम्हारा जीवन सुधार दिया है। आजकल ऐसे अच्छे दोस्त किस्मत से मिलते हैं। बस और कुछ दिनों की ही तो बात है, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी, फिर माता-पिता के पास जाकर उनकी सेवा करना।' कहते हुए नर्स का हाथ पकड़ कर मैं कुर्सी से उठी।

उसने मेरे आंखों में आंखें डालकर कहा, 'एक बात बताइए डॉक्टर साहब...' उसने अपना चेहरा घुटनों पर रखा और दुपट्टे के कोने को उंगलियों पर लपेटने लगी।

'हां कहो', मैंने उसका चेहरा निहारा।

'मेरी सुहागरात... कितने दिनों के बाद?' मेरा हाथ पकड़े खड़ी नर्स का चेहरा सुर्ख हो गया।

'मुझसे भी कल इसने यही बात पूछी थी। मैं क्या जवाब देती? कहकर नर्स ने शर्म से न झुका लीं।

इस महानगरी के चौक का ज़ेबरा क्रॉसिंग पार करते हुए वह मुझे फिर एक दिन मिल गयी थी। 'सुनाओ तुम्हारा विपिन क्या करता है।'

'उसका नाम मत लीजिए, करता है खाक' और उसने गन्दी से मर्दाना गाली दी।

'उसने मुझे फिर कभी अपनी शक्ल नहीं दिखायी। खैर उस योनि से तो मुक्ति मिली। सामने चार नम्बर बंगले के बच्चे सम्भालती हूं, उसकी आवाज़ मेरी पीठ से टकरायी और वह आंखें पोंछते हुए तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गयी।


                                                    ******

                                                               परिचय - चंदन नेगी 


26 जून, 1937 - 05 नवंबर, 2025) अविभाजित हिंदुस्तान के पेशावर में जन्मी चन्दन नेगी जी के अब तक छह उपन्यास, दस कहानी संग्रह तथा अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद की बीस पुस्तकें प्रकाशित ।

अहिन्दी भाषी राष्ट्रीय सम्मान भारत सरकार, पंजाबी अकादमी दिल्ली का शिरोमणि सम्मान और भाषा विभाग पंजाब का शिरोमणि साहित्य सम्मान सहित कई सम्मानों/पुरस्कारों से विभूषित।

                   साभार  - सामयिक सरस्वती, अप्रैल-सितंबर 2018 


शनिवार, अक्टूबर 25, 2025

कहानी-68 (पंजाबी) क्वींस लैंड - आगाज़बीर - अनुवाद–नीलम शर्मा ‘अंशु’

 

पंजाबी कहानी                          

                      क्वींस लैंड 0   आगाज़बीर

 

                                 अनुवाद  नीलम शर्मा अंशु


ज़िंदगी के वे पल मैं कभी भी नहीं भूल सकती, जिन पलों में दु:ख सहकर भी मैं चट्टान बन खड़ी रही। इस आशा और विश्वास से कि एक दिन मैं रानी ज़रूर बनूंगी।

रानी..... किन सोच-विचारों में खो गई?’

सरबो अगर मुझे न झिंझोड़ती तो ख़यालों में मैं चांपातौला ही घूमती रहती।

तेरा बंगाल तो अब पीछे छूटता जा रहा है......खींच ले तस्वीरें...... जो खींचनी है। सरबो बोलती रही। शिवा मोबाइल पर रिश्तेदारों की तस्वीरें खींचता रहा और मैंने आँखों के कैमरे से सामने खड़े पूरे परिवार को एकदम भीतर गहरे तक संजो लिया था। इस तरह देखने से मेरी रूह को शांति मिलती गई। मेरी आँखें तब तक निहारती रहीं, जब तक उनके चेहरों के अक्स मेरी आँखों से ओझल न हो गए।

ट्रेन बंगाल के गंगारामपुर स्टेशन को पीछे छोड़ती हुई पंजाब को आलिंगन में लेने के लिए विरहन की भाँति भागी जा रही थी।

इंजन का हॉर्न मेरी तरह रो-रो कर अपने शहर से विदा ले रहा था। अपनों से बिछड़ने का दर्द मशीनें भी बताती हैं, पर कोई समझने वाला भी तो हो।

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बारह साल का अंतराल कम नहीं होता। वक्त की सुइयों पर अपनों से मिलने का समय ही नहीं लिखा गया। अपनों से मिलने के लिए तड़पती रह गई। जब मैंने बंगाल जाने के लिए सोचा था, सब कुछ होने के बावजूद उड़ान ही न भर सकी। सभी सूखी लकड़ी की भाँति तिड़-तिड़ करके जल उठे। उनसे मेरा बंगाल जाना सहा न गया।

लो, अब कौन सा राजकुमार ढूँढने जा रही हो अपने लिए? अजमेर कौर की सयानी बात सुन कर सभी बूढ़ियां हँस पड़ी थीं। किसी ने भी हामी न भरी। स्कूल में चल रहे आँगनबाड़ी केंद्र में जहाँ मैं हेल्पर हूँ, गाँव की सभी बूढ़ियों का जमघट लगा ही रहता है। जब मेरी बंगाल जाने की बात उनके कानों तक  पहुँची तो वे ज्ञान देने लगीं। सबने अपने मन की कही। इधर धन्न कौर अपना राग अलापने लगी, जिसमें उसका अपना स्वार्थ छुपा हुआ था – रानी, जब बंगाल जाओगी न ..... मेरे चमकौर पुत्तर के लिए भी कोई अपने जैसी ला देना.... तेरी पूरी आवभगत करूंगी। मेरी बात याद रखना। रंग-रूप की चिंता मत करना। बस बेटी, जीते जी बहू का मुँह देख जाऊँ।  मैं हूँ-हाँ करती रही। धन्न कौर मन में उम्मीदें लिए घर की ओर चल दी।

कुछ अहसासों ने भी ठंडक दी।

जल कौर ईश्वरीय रूह की भाँति ज्ञान देते हुए कहने लगीं, अरी रानी..... मैं तो अपनों से मिलने पाकिस्तान हो आई.... तुझसे बंगाल नहीं जाया जाता। जा परे... लोग तो परों से डारें बनाते हैं और बनाते रहेंगे। तड़प और भय दोनों बारी-बारी से दिमाग में चलते रहे मेरे।

तुम्हारा बंगाल तो कंगाल है.... और मैंने एक बार कह दिया...... नहीं जाना तो बस नहीं जाना। सास के शब्दों ने मेरी उभरती सोच पर प्रहार किया। मैंने अनुमान लगाया कि गाँव की बुढियों ने उसके कान कुछ ज़्यादा ही भर दिए थे। उसे अपने बेटे के साथ निभाए रिश्ते पर तनिक भी भरोसा नहीं था। उसे डर था कि कहीं रानी दुबारा बंगाल चली गई तो फिर शायद लौटे ही नहीं। अपने बेटे का हँसता-खेलता घर देखना हर माँ की हसरत होती है।

मैं नौकरी करते हुए डरते हुए चलते-फिरते सोचती रहती। उन दिनों  मेरे चेहरे पर ख़ामोशी पसरी रहती। ख़ामोशी सभी ने देखी, परंतु ख़ामोशी को पढ़ा सिर्फ़ मेरे पापा जी ने (ससुर साहब)। फकीर बन दिलासा दी उन्होंने।

मैं अपनी बेटियों का माथे पर हाथ रखे इंतज़ार किया करता हूँ ...अगर वे दो-चार महीने फेरा न मारें तो..... तुम्हें तो भई आए.... बारह बरस हो गए। मैं जानता हूँ सब कुछ, मैं खुद ही समझा दूंगा...., तू जा सबसे मिल आ। तू वैसी नहीं है.... जैसा सभी सोचते हैं तुम्हारे बारे में। और जिंदर को भी कहूंगा.... भई जाने दो रानी को। ससुर जी के उत्साह के कारण मैं पंखों के बिना उड़ने लगी। अपनी धरती के सपने दिन में ही आने लगे।

बनते-बिगड़ते विचारों को सौ हाथियों जितना बल उस समय मिला, जब शिवा स्कूल से आया और किताबें चारपाई पर रख कस कर आलिंगन कर बेटे का फर्ज़ निभा गया, मम्मी.... मैँ जाऊंगा तुम्हारे साथ। लगा जैसे मेरे स्तनों में दूध उतर आया हो। मैंने महसूस किया कि श्रवण पुत्तर ज़रूर ऐसा ही रहा होगा, जो मेरे साथ जा रहा है। यह बोझ मेरे दिल पर था कि अपनी जन्मभूमि के परिवार को देख कैसा महसूस करेगा?

शिवा के कारण मुझे जिंदर को मनाना और भी सहज हो गया। मान तो वह गया भी था, बिना किसी विरोध के। सरबो जो मेरे साथ हेल्पर का काम करती है, वह भी साथ चलने के लिये तैयार थी।  स्कूल मास्टरों द्वारा दी गई राशि और संभाल कर रखे नोटों से मेरे हाथ गुलाबी-गुलाबी दिखने लगे।

अपनों को याद करते हुए, सपने बुनती दिन में कितनी ही बार मैं बंगाल जा आती। कभी बाबा सड़कों पर भीख माँगता आँखों के समक्ष आ खड़ा होता। माँ का चेहरा तो भुलाए न भूलता। माँ अंधी हुई दर-दर भटकती नज़र आती। खुले धवल केश, फटी-पुरानी साड़ी, न पाँवों में चप्पल। मैरी आँखों के समक्ष अकल्पित काल दिखाई देता। यह सोच कर मैं घर का काम करते हुए डर कर रुक जाती। डर शरीर को थर-थर कंपा देता।

अंतत: सामान बाँध लिया था और उस दिन जब बंगाल की माटी जा चूमी तो कितने ही दफ़न सपने साकार हो उठे। चलते-बैठते हर शै में अपनी अतीत दिखाई देता।

....और पुराने ज़ख्म नासूर बन कर टीसने लगे। चांपातौला में सेठ मानिक दास की दुकान की तरफ ख़ास तौर से गई। वह मेरी तरफ ललचाई और ग्राहकी नज़रों से आँखें गड़ाए ताकता रहा था। मेरे तन-मन में बारह सालों से बदले की आग ज्वाला बन चुकी थी। न चाहते हुए भी मैंने कहा, सेठ यह लो तुम्हारा उधार। मानिक दास तराजू में पड़े चावलों पर पारखी नज़र दौड़ाता है।

सेठ.... चावल तो बेशक दो किलो और रख ले... पर इसके बदले मेरी....। मेरी लुटी इज़्ज़त लौटा दे जैसे शब्द मेरे सीने के भीतर दफ़न हो कर रह गए। मेरी निगाहों की भाषा सेठ समझ गया था। पहले-पहले तो शायद पंजाबी सूट में देख मुझे घुमक्कड़ पंजाबन ही समझता रहा।  जब मैंने बांग्ला में अपना नाम अनिमा बताया तो उसके चेहरे का रंग बदल गया। मैंने महसूस किया कि उसे अतीत में मेरे जिस्म को नोचने वाले दृश्य याद हो आए होंगे। उसकी जीभ तालू से चिपक गई। वह दोनों हाथ जोड़े, किए जुल्म की माफ़ी माँग रहा था। इस इन्साफ की कचहरी में मैंने हार जाना ही बेहतर समझा। पाँच किलो के बजाय सात किलो चावल तौल में रख मैं भार मुक्त हो गई।  

 

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इधर ट्रेन कलकत्ते से पंजाब की तरफ बढ़ रही थी। मेरी तंद्रा मुझे पीछे की तरफ खींचे जा रही थी। बेशक कलकत्ते से रवाना होते ही बाहर का शोर थम गया था परंतु मेरे मन के भीतर का तूफान अभी भी निरंतर जारी था।

हफ्ता-दस दिन चाँपातौला (मायके) रह आई थी। उसका नक्शा दिल-ओ-दिमाग पर छाया हुआ था।

मेरी नज़र सामने खिड़की वाली सीट पर बैठे शिवा की जेब पर पड़ी। उसकी जेब में रखा पाँच सौ का नोट सितारे की भाँति चमक रहा था। नोट से भी ज़्यादा कीमती इसमें छुपा मोह और दुलार था।

माता-पिता के बाद अगर बच्चों से कोई दिल से प्यार करता है तो यकीनन वे दादा-दादी हैं।

शिवा मेरे पहले पति भार्गव की इकलौती संतान थी। उसकी दादी अपने अंश को देखने के लिए दौड़ी चली आई। औलाद की खुशबू दादी तक पहुँच गई थी। सास तो मुझे सासों की तरह ही मिली  - न मोह न उमंग। उभरी हुई त्योरियां तनी रहीं मेरी तरफ। मुझे शक की निगाहों से उसने सर से पाँव तक देखा। परंतु उसे देख अपने मृत बेटे भार्गव का अक्स उसमें ढूँढने लगी। वह शिवा के अंगों को इस तरह चूमने और छूने में मशगूल थी जैसे गाए अपने नव जन्मे बछड़े को जीभ से चाटती है।

शिवा को तकते उसकी आँखों में चमक आ गई और चेहरे पर लाली छा गई। चलने के लिए मानो लाठी मिल गई हो। डूबती कश्ती को मानो तिनके का सहारा मिल गया हो।

 बिलकुल ही भार्गव.... वही आँखें... वही नाक... और माथा.... ज़रा भी अंतर नहीं। बोलता भी बिलकुल भार्गव की तरह है। पत्थर दिल और मोम बन पिघल रही थी। दादी का पोते के प्रति जोश और प्यार देखने वाला था।

दादी-पोते का मिलन देखने जुटी भीड़ गुम-सुम हो गई। चारों तरफ माहौल ग़मगीन हो गया।

उसके मुँह से पहली बार मेरे लिए आत्मीयतापूर्ण दो शब्द निकले, आमि तोर रिन कोनो दिन शोध दीते पारबो न। तुई आमार छेलेर ओंतिम सृति के जे भाबे आगले रेखेछिश।” (मैं तुम्हारा ऋण कभी नहीं चुका सकती। तुमने जिस तरह मेरे बेटे की अंतिम निशानी को सहेज कर रखा है।) आँखों से टपकते आँसू और चेहरे की खुशी इस बात के साक्षी थे।

चौल ओनिमा ग्रामे जाई, जेखाने तुई भार्गोव के बिये कोरे एशेछिलिश (चल अनिमा गाँव चलें, जहाँ तुम भार्गव से ब्याह कर आई थी।) आज भी तुझे तेरा वही घर.... पुकारता है। बस, अब तू न मत करना। सास ससुराल के गाँव जाने के लिए ज़ोर डाल रही थी।

अपना नाम अनिमा सुन कर पहले तो चौंक सी गई थी। मैंने ठान लिया था कि रानी से अनिमा नहीं बनना है। वह मेरे सामने झोली फैलाए खड़ी थी। आज बाज़ी मेरे हाथ में थी चाहूं तो मैं ठोकर मार सकती थी और चाहूं तो स्वीकार कर पुरानी राह पर चल सकती थी। मैं सीमा और मर्यादा को लाँघ न सकी। भारी भीड़ और उस जमावड़े में सास का निरादर न कर सकी।

माँ गो जाके बिये कोरे एशेछिलाम, सेई एई संसार थेके बिदाई नियेछे आर गिये कोरबो की? (माँ... जिससे ब्याह कर आई थी, वही तो इस संसार से विदा हो गया, अब क्या करूं जाकर) रोके हुए आँसू बह निकले। आसमानी बिजली की भाँति टीस तन के आर-पार हो, पुराने ज़ख्म फिर हरे हो गए। रुलाई फूट पड़ी और मुझे लगा मानो अभी भी मैं विधवा ही घूम रही हूँ।

एक बार फिर सोच ले। सास ने मिन्नत सी की।

लालची सास और शराबी भार्गव के तेवर मैं देख चुकी थी, वे मेरे मन-मस्तक की दीवार से बहुत पहले ही उतर गए थे।

समय के साथ-साथ तन के निशान तो मिट जाते हैं परंत मन पर पड़े निशान हमेशा गहरे और हरे ही रहते हैं। मैं कह कर मुँह घुमा लिया।


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माँ बंगाली कितने अच्छे होते हैं न। शिवा ने स्वाभाविक तौर पर नहीं कहा था। उसे सप्ताह भर के दौरान मिला प्यार बोल रहा था। वह अपनी ददिहाल और ननिहाल जो देख आया था।

शिवा के लिए बंगाल रोमांचपूर्ण और स्वर्ग समान था, परंतु मेरे जीवन में सदैव नरक रहा। न जी सकी... न मर सकी.... बस वक्त की दी सज़ाएं भोगती रही... खुशी की एक लकीर भी न बन सकी।

न बचपन अच्छा गुज़रा न यौवन। सोचा था शादी के बाद ख्वाब पूरे करूंगी परंतु ब्याह करवा के मिला शराबी पति। हर रोज़ भार्गव शराब पीकर क्लेश करता, ऊपर से सास दहेज के लिए कहती। उसकी दहेज में साइकिल की माँग मैं कभी पूरी नहीं कर पाई। उसने मेरे चरित्र पर संदेह किया। भार्गव से भी कई बार पिटवाया। वह मज़दूरी करने के लिए मजबूर करती। भाँति-भाँति के दोषारोपण करती। मज़दूरी का यहाँ मिलता भी कुछ नहीं था। पसेरी आलू एक दिहाड़ी के या दो किलो चावल जिसे बेचकर मुश्किल से शिवा के लायक दूध का जुगाड़ हो पाता।

शराबी भार्गव मुझे बिना बात रोज़ धुन देता। पेट में मारी उसकी लातें नन्हें जीव की मौत का कारण बनीं, जिस कारण मैं चार बरसों तक औलाद का मुँह देखने को तरसती रही।

निर्मोही भार्गव को दो ही चीज़ें प्यारी थीं, एक शराब और दूसरी देह जिसका उसने भरपूर इस्तेमाल किया।

जब शिवा ने इस दुनिया में कदम रखा, चारों तरफ खुशी का माहौल था। इस खुशी के माहौल में अंधा हो वह शराब पीता रहा। उस दिन मैं नहा कर आई तो मेरी माँ ने मेरी चूड़ियां एक-एक कर तोड़ डालीं। मैं पल भर में ही शराब से टुन्न भार्गव की विधवा बन गई, जो चिरनिद्रा में विलीन हो गया और सास के घर का द्वार मेरे लिए बंद हो गया।

पुल से ट्रेन खड़खड़ाती हुई गुज़री तो मेरी तंद्रा भंग हुई और आँखों से पानी खुद-ब-खुद बहने लगा। सरबो और शिवा की नज़र बचा कर आँखों से झरते आँसुओं को पोंछती रही।

अतीत ने ज़ख्म ही इतने दिए थे कि एक को भरती तो दूसरा खुद–ब-खुद टीसने लगता।

साथ देने वाले संगी साथी कोई न रहा। सब अपने जीवन में मस्त थे।

पुरुष की तलाश तो हर औरत को होती है परंतु मैंने लगाम कभी ढीली नहीं छोड़ी। ऐसी भटकन का मैं भी शिकार हो गई।

दीनानाथ से मुलाक़ात हुई। उसे मुझमें और मुझे उसमें एक अजीब सी शै नज़र आती, उसका मेरे तन-मन से सच्चा साथ रहा। हम ज़माने की बंदिशों को तोड़ने की कश्मकश में थे। मैं खुद-ब-खुद उसकी तरफ दौड़ी जाती। हमारा प्यार बाल्टी में गिरती दूध की धाराओं की भाँति आनंदमय और अनूठा था। यह भी सच है कि मुहब्बत में विछोह और पीड़ा लाज़िमी हैं। मैं पगली थी जिसने रानी बनने के सपने संजो लिए थे। न मैं दीनानाथ के खेत की मालकिन बनी और न ही उसकी माँ की बहू।

मुझे आख़िर औरत होने की सज़ा भुगतनी पड़ी। हमारा प्यार रेत के भाँति मुट्ठी से फिसल गया, जब दीनानाथ की माँ ने प्यार की राह में एक ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच दी, जिसे मैं पार न कर सकी।

उसने अपने बेटे से दूर जाने के लिए आँचल फैला लिया और मेरे संजोए सपने तहस-नहस हो गए। मैं उसके जीवन से ऐसे दूर हो गई जैसे मुर्दे से आत्मा।

अपनों से मिलने की तड़प की तरंग सदा उठती रही। जब बंगाल आई तो तरंग दीनानाथ के लिए भी उठी थी। दिल से रूहानी हूक भी निकली।

मैंने दीनानाथ के खेत-खलिहान निहारे और दूर से ही अलविदा कह आई। खेतों में चंद्रा, हिमानी, राशी, नीलिमा जैसी लड़कियां चलती-फिरती दिखीं।

यह आवाज़ मेरी रूह से निकली थी, दीनानाथ..... बेशक में सबसे मिल कर जा रही हूँ, परंतु तुम्हारे बिना मेरी तीर्थ यात्रा अभी अधूरी है।


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ट्रेन दिल्ली पहुँची, बुरा हाल, शोर, जल्दबाज़ी, आवाज़ें ही आवाज़ें। यह भूख भी बहुत भयंकर है, न जीने देती है न मरने। कश्मकश के इस माहौल में सरबो साथ लाई रोटी और शिवा ब्रेड खा रहा था।

अनिमा... रोटी खाओगी! सरबो ने जान-बूझकर शरारत से मुझे रानी की बदले अनिमा कह कर पुकारा।

नहीं..... अभी नहीं.... तुम लोग खाओ। गुज़रे काले दिनों को याद मेरी भूख मर गई थी।

बारह साल पहले पंजाब से बंगाल का हज़ारों मील का सफ़र इसी भूख ने तय करवाया था, मुझे अपनी माटी से तोड़ा था। मुझे अच्छी तरह याद है चारों तरफ मौत का साया था, जब बंगाल में बाढ़ जैसे हालात बने और पानी जान के लिए आफत बना। भुखमरी, बीमारियां फैलीं, बच्चे और जानवर तड़प-तड़प कर मर रहे थे। रोने-पीटने का सिलसिला थमा नहीं।

उस दिन कानों को अपरिचित आवाज़ सुनाई दी। इस आवाज़ ने सबका ध्यान खींचा। सभी टकटकी लगाए आसमान की तरफ देखने लगे।

हेलिकॉप्टर निकट आता गया। इसी हैलिकॉप्टर के ज़रिए पहुँचे सरदारों ने हमें खाना खिलाया। कई दिनों का राशन भी दिया। पता चला कि यह राशन पंजाब से आया है। सबने पंजाबियों का शुक्रिया अदा किया और दिल से दुआएं दीं। मेरा दु:खी हृद्य उस दिन से पंजाब जाने के लिए उतावला हो उठा।

जब बाढ़ का प्रकोप थमा, मैं ढाबे पर बर्तन मांजने लगी। ढाबे का मालिक मेहनताना भी न देता। जूठा और बासी खाने को मिलता। उसके सामने मिन्नतें करती। बेबस, मजबूर और अनचाहे मोड़ पर खड़ी थी, जहाँ न जीया जा सकता था और न ही मरा। अपनी औलाद की ख़ातिर मैं हर काम खुशी से करती। क़िस्मत अपना खेल खेलती रही।

अरी लौंडिया, पंजाब जाएगी क्या ? रानी बना कर रखेंगे। ट्रक ड्राइवर दर्शी ने मेरे सामने पेशकश रखी थी और मेरे उदास दिल ने एकदम हामी भर दी थी। यहाँ से मन उड़ने को चाह रहा था, भले ही आगे मौत मिले। शिवा को ले पंजाब चली आई। पंजाब आकर बुढ़लाढा उतारा और जिस्म के मालिक बदल गए। मेरी डोर किसी और को थमा वह लंबी यात्रा का पाथी बन भाग गया।  गाय-भैंसों की तरह बिकते-बिकाते अंतत: जिंदर मिल गया।

जब जिंदर ने मेरे घर-परिवार के बारे पूछा मैंने कुछ न बताया, चुप ही रही। मेरा नाम पूछा तो मैंने बेझिझक कहा, रानी....।

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ट्रेन दिल्ली से टोहाणा, जींद आदि शहरों को लांघती पंजाब से मिलने के लिए अंगड़ाइयां लेती आगे बढ़ती जा रही थी परंतु मेरी तंद्रा पीछे लौटती जा रही थी।

इन्हीं दिनों में मैं गुलाबी नोटों से माँ-बाबा के लिए नई और शानदार झोंपड़ी बनवा आई थी। पूरे गाँव में ऐसी झोंपड़ी नहीं बनी थी, सबने तारीफ़ की। कितनी ही देर तक बाबा सूखी आँखों से आँसू बहाता रहा, उसे इलाज के लिए पैसे दिए और लगभग दस दिनों में सारे काम निपट गए थे। बेटे और बेटी का फर्ज़ निभा आई थी। अड़ोसियों-पड़ोसिय़ों ने मुझे वीरन-बेटी माना।

गाँव की दूसरी लड़कियां साथ पंजाब ले जाने के लिए मेरी मिन्नतें करती रही। मुझे धन्न कौर याद आई, जो अपने बेटे के लिए बहू लाने के लिए कह रही थी, पर मेरा मन नहीं माना।

मैं सभी को मन से ढांढस और भरोसा दिलाती रही। उम्मीद की किरण जगा आई थी कि सबको जल्दी ही अगली फेरी में पंजाब लेकर जाऊँगी, ताकि ये लड़कियां मानिक दास जैसों की हवस का शिकार न बनें।  काम करके राजकुमारियां बनें और समय की रानी कहलाएं।


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           साभार - साहित्य अमृत - अक्तूबर, 2025




 




                   (1)     लेखक परिचय - आगाज़बीर  

जन्म 4 जुलाई, 1982.  पंजाब यूनिवर्सिटी पटियाला से शिक्षा। बठिंडा में निवासरत। पंजाबी के चर्चित युवा कथाकार। निरंतर सृजनरत व साहित्यिक गतिविधियों में प्रमुखता से सक्रिय। कहानियां प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित व चर्चित। एक कहानी संग्रह तथा दो बाल कथा संग्रह पंजाबी में प्रकाशित। पेशे से अध्यापक। 

(2) अनुवादक परिचय  


नीलम शर्मा
अंशु

 

पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद। कुल 21 अनूदित पुस्तकें। अनेक लेखसाक्षात्कारअनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। लगभग पचास हफ्तों तक एक राष्ट्रीय दैनिक में कोलकाता शहर की हिन्दी भाषी ख्यातिप्राप्त महिलाओं पर कॉलम लेखन।

स्वतंत्र लेखन के साथ - साथ  25 वर्षों से आकाशवाणी एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी।  भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सीयतों पर आज की शख्सीयत’ कार्यक्रम के तहत् 75 से अधिक लाइव एपिसोड प्रसारित।


विशेष उल्लेखनीय -

सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित काबुलीवाले की बंगाली बीवीवर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। कोलकाता के रेड लाइट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास लाल बत्ती’ का हिन्दी अनुवाद। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक देबेश राय के बांग्ला उपन्यास तिस्ता पारेर बृतांतों’ का  साहित्य अकादमी के लिए पंजाबी में अनुवाद “ ”गाथा तिस्ता पार दी” ”

संप्रति – केंद्र सरकार सेवा के अंतर्गत दिल्ली में सेवारत।

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