पंजाबी कहानी
स्याह सफेद
0 चंदन नेगी
अनु. नीलम शर्मा 'अंशु'
'आंटी जी, पहचाना नहीं?'
एक दुबली-पतली लम्बी-सी युवती शहर का बड़ा चौक पार करते हुए जैबरा लाइन्स पर मेरे सामने आ खड़ी हुई। यादों के पुलिंदों को पलटते हुए कुछ विशेष सफलता नहीं मिली।
'मैं राखी, अस्पताल में आपके साथ वाले कमरे में...''ओह... हां... राखी।' मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया। मेरी निगाहों ने उसे सिर से लेकर पांव तक ताड़ा।मैले, पुराने बेमेल से कपड़े, सांवला रंग, मुरझाया सा चेहरा, कलाइयां और कान सूने-सूने से।'यहीं रहती हैं आप?' कहकर उसने एक लम्बी सांस ली और उसकी पलकें भीग गयी।इस युवती के बारे में सोचते हुए मेरे माथे पर दोगुनी लकीरें उभर आयीं। भौंहों के बीच त्योरियों ने माथे को सिकोड़ दिया। भीतर उठा तूफान दिमाग़ की नसों पर जमी धूल उड़ा ले गया। आंखों के समक्ष एक गोरी-चिट्टी, मोटी आंखों वाली आभूषणों से लदी सजी-संवरी, झिलमिलाता लाल सूट पहने एक लड़की उदास सी अस्पताल के बिस्तर पर बैठी याद हो आयी ।ऑप्रेशन के बाद मैं ज़रा चलने-फिरने लगी थी। डॉक्टर ने स्टैंड के सहारे अस्पताल - के बरामदे में टहलने के लिए कहा था। उस दिन कमरे से बाहर निकली तो पूरा बरामदा लोगों से भरा पड़ा था। लोगों की काना-फूसी, पदचाप, मीडिया वालों का जमघट। सोचा, शायद मेरे साथ वाले कमरे में कोई वी.आई.पी. या कोई मंत्री अपने अंतिम समय पर है, तभी टी.वी. चैनल वाले आगे हो-होकर एक-दूसरे से पहले यह खबर अपने चैनल पर देना चाहते हैं। अस्पताल के बड़े सर्जन भी डॉक्टरों की पूरी टीम के साथ कमरा नम्बर 30 में घुसे थे।अपने कमरा नम्बर 31 के बाहर मैं भी वॉकर के सहारे दीवार से टेक लगाकर खड़ी हो गयी। कुछ समझ नहीं आया कि अस्पताल में इतनी गहमा-गहमी क्यों है, इतनी दौड़-धूप क्यों मची हुई है। टी.वी. चलाकर अपने बेड पर लेट जाती हूं। न्यूज़ चैनल से समाचार आ रहा है, 'पंजाब के अस्पताल में करिश्मा...। ईश्वर के रंग में भंग-विज्ञान का चमत्कार। डॉक्टर बने भगवान। एक युवक का ऑप्रेशन कर युवती बना दिया, यह कहानी रात आठ बजे के समाचारों में सुनिए।' तभी इतनी भीड़ है। मैं बड़बड़ायी।रात आठ बजे हर टी.वी. चैनल की खास खबर दो-दो बार सुनायी गयी। 'आज जब पंजाब भ्रूण-हत्या में सबसे पहले नम्बर पर है, कन्याओं के लोथड़ों से कुएं भर जाते हैं, जहां माता-पिता ही कोख में कन्याओं के हत्यारे हैं, वहां एक लड़के ने लड़की बनने का साहस किया है। पंजाब में इस अस्पताल के डॉक्टरों का यह पहला सफल प्रयास है। हम इस लड़की के माता-पिता और डॉक्टरों को हार्दिक बधाई देते हुए माताओं से बेटियों के हत्यारे न बनने की अपील करते हैं।' उस लड़की का चेहरा भी दिखा, जो अभी तक बेहोश थी। तभी सुबह मीडिया की इतनी भीड़ थी, मैंने सोचा।चार-पांच दिन गुज़र गये। मैं नयी बनी युवती से मिलने के लिए बेचैन हो रही थी। उसे देखने आने वाले लोगों की भीड़ घटी तो मैं भी नर्स का हाथ थामे उसे देखने चली गयी। यह आर्टीफिशियल गहनों, अधूरे मेकअप, लाल ज़री वाले सूट में सजी-संवरी सी बेड पर छुई मुई सी बनकर इस तरह बैठी हुई थी, मानो बारात के आने का इन्तज़ार कर रही हो।नर्स के साथ होने के कारण उसने मुझे डॉक्टर समझ लिया था। 'पता है मुझे बड़े डॉक्टर साहब ने बताया है कि मैं कुछ देर बाद शादी कर सकती हूं, मैं संतान को जन्म नहीं दे सकती, बैठते वक्त बहुत तकलीफ होती है, मेरा तन भी लड़कियों जैसा हो जाएगा।' कहते हुए उसने लाल दुपट्टे से अपना चेहरा ढक लिया।'बहुत बड़ा कदम उठाया तुमने।' मैंने उसके चेहरे के हाव-भावों को परखते हुए कहा।वह शमति हुए मुस्करायी, 'बहुत दर्द है डॉक्टर साहब ।' 'तुम्हें लड़की बनने का शौक कहां से जगा?''जी सुन्दर-सुन्दर कपड़े, ज़ेवर, मेकअप मुझे शुरू से ही बहुत अच्छा लगता था। खेलता भी मैं लड़कियों के साथ था। लड़कियां रोझड़ा (घोड़े जैसा एक जंगली जानवर) कहकर छेड़ा करतीं। मां सात पर्दों में छुपाकर रखती।' कहकर उसने अपनी आंखें बड़े ही अजीब ढंग से सिकोड़ीं और अजीब तरह से ठहाका मारकर हँसी। 'लड़कियों की टोली के पास जाता तो वे अपने खेल गुड्डी-गुड्डे का ब्याह, घर-घर, गेंद-गीटे सब बंद कर देतीं। कहतीं, 'जा, लड़कों के साथ जाकर खेल, हमारे बीच आ धमकता है।' होंठ दबाकर वह चुप हो गयी।'मैं उस गोरी युवती का चेहरा निहारती रही, जिसके बालों की लटें उसकी गर्दन पर झूल रही थीं। मां को सुविधा थी, घर का ज्यादातर काम-काज मैं निपटा देता था। पिता चाहते कि स्कूल से लौटकर उनके साथ दुकान पर बैठूं। प्लस टू के बाद भी चेहरे पर न दाढ़ी, न मूंछ थी। पापा के बूट मेरे माप आने लगे थे, परन्तु मैंने उस तरह के बूटों में कभी पांव न डाला, मां की चप्पलें ही घसीटता रहा। पापा बहुत तड़पते, मां को बुरा-भला कहते, 'बगल में घुसाये रखती है लड़के को। बाल कितने लम्बे रख छोड़े हैं, कपड़े भी लाल, पीले, नीले पहनता है।'बेइन्तहा खुश वह लड़की बार-बार अपने माथे पर सजे मांग-टीके को संवारते हुए अपनी कमीज़ के गले में नज़र डालते हुए बोली, 'रक्खे से मैंने अपना नाम राखी रख लिया है। मैंने साइबर कैफे में दाखिला लिया था, अब मां बहुत उदास और पापा बहुत खुश थे।' 'साइबर कैफे के हमारे गुरुजी (कानों को छूकर) मुझे घूरतेमेरी चाल को ताइते, मेरे हाथों को निहारते, मेरे उठने-बैठने के सलीके को ताइते रहते। मैं भी झिझकता रहा था। किसी न किसी आवाज, गहनों से लदे । एक दिन वे चार-पांच किन्नरों को लेकर बहाने से वे रोज मेरे सामने कुर्सी पर आ बैठते। मोरी-भारी रोबदार तरह से झटके दिए अगर ये हमारे जैसे लोग इसी तरह पुपते रहे. आ गये और मेरी कमीज का कॉलर पकड़ मुझे झिंझोड़ा अच्छी हमारी बेल कैसे बढ़ेगी? हमारे कौन सा संतान पैदा होनी * जिनके सहारे यह उम्र गुजारनी है। ले चलो अपने घर बेटा। साइबर कैफे के भीतर-बाहर लोग जमा हो गये। मुझे उन लोगों मे घेर लिया। वे लम्बे-लम्बे हाथ हिलाते हुए मेरे मां-बाप को गालियां देने लगे, जिन्होंने मुझे छुपा रखा था। गुरुजी ने मुझे मजबूत बांहों से जकड़ लिया और ऐसे घसीटा जा रहा था, जैसे मैंने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो। हमारे साथ लोगों का जमघट जलूस के रूप में हंसी-ठिठोली करते चल रहा था।'गली में पहुंचे। घरों के जंगले, दरवाजे, खिड़कियों में सिर ही सिर दिख रहे थे। गली वाले भी हैरान-परेशान कि किन्नरों ने रक्खे को क्यों पकड़ रखा है। क्यों घसीट रहे हैं? छोटा-सा था, माता-पिता अपना घर-बार छोड़कर नये शहर में आ बसे थे। मैं रो रहा था। मां किन्नरों को घर का दरवाज़ा खोलते देख छाती पीटने लगी। मैंने तो सात पदों में रखकर पाला है, मेरा इकलौता बच्चा... नहीं, नहीं ये नहीं नाचेगा तुम लोगों के साथ घर-घर जाकर, दर-दर पर। पढ़-लिखकर अब किसी लायक बना है, नहीं जाने दूंगी मैं। मां मुझे सीने से लिपटाकर खून के आंसू रोयी। पापा भी बहुत तड़पे थे। पहली बार उन्होंने मुझे अपनी बांहों में भींचा था। मैं फूट-फूट कर रो रहा था।''मैंने तो साइबर कैफे में इसकी चाल से पहचान लिया था। हम अपनी औलाद लेकर जाएंगे, चाहे थाने जाओ या कचहरी।' किन्नर गुरु ने ज़ोर से ताली मारकर कहा था और उठकर नाचने लगी। उसके साथी भी एड़ियों से तबले की धा धिक घा ताल से ताल मिलाकर नाचने लगे और एड़ियां लाल सुर्ख हो गयी। मैं मां की तरफ बढ़ना चाहता था।'शाम को किन्नरों ने खूब जश्न मनाया। अपने इष्ट देव की पूजा-अर्चना की। तरह-तरह के व्यंजन बने। ब्यूटीशियन आयी, मेरी भौंहें तराशी, लम्बी चोटी की विग मेरे सिर पर लगायी, नयी दुल्हन की तरह मेरा श्रृंगार किया। नाच-गाने, बेसुरे गीतों की लय-ताल के साथ सारा दिन ढोलकी बजती रही। मैं सारी रात रोता रहा। ये कैसे लोग हैं, ये कैसे ज़िन्दगी? ये कैसी योनि?' वह थोड़ी देर चुप रही, अब भी उसकी आंखें छलक रही थीं।अपना चेहरा और आंखें पोंछकर वह फिर बताने लगी, 'अब लड़कियों की पोशाक बहुत बुरी लगती, मेकअप का पलेथन रगड़-रगड़ कर पोंछती थी। कमर मटका-मटकाकर चलने, हाथ नचा-नचाकर बातें करने, नाज-ओ-अदा से चलने की आदत को अब नकारता था। नाचने के लिए जाने से दो-दो घंटे पहले चेहरे पर पाउडर और लाली पोतते थे. जैसे किसी फिल्म की शूटिंग के लिए जाना हो।'दोस्त विपिन के साथ कभी-कभी मुलाकात हो जाती थी। मेरा हुलिया देखकर वह बहुत तड़पता था। मैं भी विपिन की भांति इस साइबर कैफे में काम पर लग जाता। मैंने अपने गुरुजी से बहुत मिन्नतें कीं, पर वे टस से मस न हुए। तू तो रब की नियामत है, जो उसने हमारी झोली में डाली है। न गुरु माना और न नौकरी मिली। मालिक ने कहा, हमें अपने कैफे में दिन भर का तमाशा नहीं करवाना।'एक दिन विपिन बहुत ही उदास था। उसकी संतोष को ससुराल भेज दिया गया था। हम दो दिन पहले ही उस घर में नाच कर आये थे। नयी दुल्हिन बहुत उदास थी, दुपट्टे के छोर में आंसू सहेज लेती। उसने मुझे नहीं पहचाना था।'विपिन ने कहा, यार तू लड़की बन जा, मैं तुझसे शादी कर लूंगा, हम दोनों एक साथ रहेंगे, उसने मिन्नतें करते हुए मेरे हाथ पकड़ लिए, यहां से किसी बड़े शहर भाग जाएंगे।'मेरे नसीब यार, कैसे लड़की बन जाऊं? कैसे यहां से भागेंगे? गुरुजी का शिकंजा बहुत सख्त है। भगवान भी हमारे लिए अन्यायी बन जाता है। विपिन ने इंटरनेट, गूगल सब छान मारे। मैं भी नयी उम्मीद की डोर थामे जीने लगी थी। सुनहरे भविष्य की प्रकाशमयी डोर से बंधने लगी। विपिन को जेंडर बदलवाने के लिए बाहरी देशों में हो रहे ऑपरेशनों के बारे में पूरी जानकारी मिल गयी थी। दिक्कतें बहुत थीं, रुपये कहां से लाएं? किन्नरों के चंगुल से कैसे निकलें? अचानक गुरुजी का देहांत हो गया, उनको दफनाने के समय मैं वहां से भाग निकला।'इस अस्पताल के बड़े डॉक्टर साहब के बारे में लोगों से बड़ी तारीफें सुनी थीं। डॉक्टर साहब भी हैरान थे कि मुझ पर क्या पागलपन सवार है। बोले, अभी ये ऑपरेशन भारत में शुरू नहीं हुए। इसकी इजाज़त के लिए कचहरियों के भी धक्के खाने पड़ेंगे। आप कचहरी से इजाज़त लेकर आइए, हम ऐसे ऑपरेशन की जानकारी जुटाते हैं, अच्छी तरह स्टडी करके ही ऐसे केस में हाथ डालेंगे। शायद उस वक्त डॉक्टर को अपने अस्पताल की प्रतिष्ठा का भी ख्याल आया हो।'पूरा एक साल लग गया कचहरी में धक्के खाते। कचहरी में भी तो एक नया और अजीब मुद्दा उठा था, सृष्टिकर्ता ईश्वर को चुनौती देनी थी, ईश्वर के रंग में भंग डालना था और देखिए अब मैं आपके सामने आपकी बेटी के रूप में बैठी हूं।''तुम्हारे विपिन ने तुम्हारा जीवन सुधार दिया है। आजकल ऐसे अच्छे दोस्त किस्मत से मिलते हैं। बस और कुछ दिनों की ही तो बात है, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी, फिर माता-पिता के पास जाकर उनकी सेवा करना।' कहते हुए नर्स का हाथ पकड़ कर मैं कुर्सी से उठी।उसने मेरे आंखों में आंखें डालकर कहा, 'एक बात बताइए डॉक्टर साहब...' उसने अपना चेहरा घुटनों पर रखा और दुपट्टे के कोने को उंगलियों पर लपेटने लगी।'हां कहो', मैंने उसका चेहरा निहारा।'मेरी सुहागरात... कितने दिनों के बाद?' मेरा हाथ पकड़े खड़ी नर्स का चेहरा सुर्ख हो गया।'मुझसे भी कल इसने यही बात पूछी थी। मैं क्या जवाब देती? कहकर नर्स ने शर्म से न झुका लीं।इस महानगरी के चौक का ज़ेबरा क्रॉसिंग पार करते हुए वह मुझे फिर एक दिन मिल गयी थी। 'सुनाओ तुम्हारा विपिन क्या करता है।''उसका नाम मत लीजिए, करता है खाक' और उसने गन्दी से मर्दाना गाली दी।'उसने मुझे फिर कभी अपनी शक्ल नहीं दिखायी। खैर उस योनि से तो मुक्ति मिली। सामने चार नम्बर बंगले के बच्चे सम्भालती हूं, उसकी आवाज़ मेरी पीठ से टकरायी और वह आंखें पोंछते हुए तेज़-तेज़ कदमों से आगे बढ़ गयी।
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परिचय - चंदन नेगी
अहिन्दी भाषी राष्ट्रीय सम्मान भारत सरकार, पंजाबी अकादमी दिल्ली का शिरोमणि सम्मान और भाषा विभाग पंजाब का शिरोमणि साहित्य सम्मान सहित कई सम्मानों/पुरस्कारों से विभूषित।
साभार - सामयिक सरस्वती, अप्रैल-सितंबर 2018

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