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शनिवार, अक्टूबर 25, 2025

कहानी - 67 (पंजाबी) बर्फ की बुलबुल - अजमेर सिद्धु - अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

 

पंजाबी कहानी              बर्फ की बुलबुल


                                                                  0 अजमेर सिद्धु

                                  अनुवाद नीलम शर्मा अंशु

 

कोई और होता तो मार कर वहीं गाड़ देता। क्या करूं, मेरे अपने ही बहू-बेटे ने मेरी दुनिया तबाह कर दी। जाट तो एक मेड़ के लिए खून कर देता है, सावी तो मेरी सब कुछ थी। अब किसका खून करूं और किसे छोड़ूं।  मैं भी अब जाट कहाँ रहा जिनकी ख़ातिर बनिया बना वे ही आज दुश्मन बन गए हैं। सामने बिखरी पड़ी सावी को देख मुझे अपने पिता और मुझे छोड़ गई हरदीप कौर की बातें रह-रह कर याद आ रही हैं।

तब मैं मेडिकल कॉलेज अमृतसर में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। गाँव आता तो दो-चार मरीज़ भी देख लेता। जेब खर्च निकल आता था। सड़क के दाहिनी ओर हमारा घर था, जहाँ एक कमरे में मैं प्रैक्टिस करता था। बाईं तरफ हमारे खेत थे। मेरे माता-पिता मिट्टी में मिट्टी बने रहते। खुद तो वे अशिक्षित थे लेकिन उनका एकमात्र लक्ष्य मुझे डॉक्टर बनाना और परिवार की गरीबी दूर करना था। यह सपना मेरी माँ का था या पिता का, यह तो पता नहीं, लेकिन उन दोनों हाथों से मशक्कत करने वालों ने सच कर दिखाया था।

सर्दियों की छुट्टियों में मैं गाँव आया हुआ था। पिता से चला भी नहीं जा रहा था। मेरे आगमन से कई दिन पहले से, उन्हें उल्टी और दस्त लगे हुए थे और बुखार भी रहा था। इसके बाद वे दिन-ब-दिन कमज़ोर होते गए।

बेटा इनको ग्लूकोज़ लगा दो।माँ भी चिंतित दिखीं।

मैं पिताजी के चार-पाँच दिन तक ग्लूकोज़ लगाता रहा। मेरी कोशिश थी कि वे मेरी छुट्टियों के दौरान ठीक हो जाएं। मैं उन्हें ग्लूकोज़ में ताकत के भी इंजेक्शन की सिरिंजें भर-भर कर लगाता रहा। इंजेक्शन तो दो-तीन दिन बाद भी लगाता रहा। जब वे ठीक हो गए,तो फिर कॉलेज जाने का सोचा। एक शाम वे मेरे पास आए।

पुत्तर जिंदेया, मुझे आज फिर कमज़ोरी महसूस हो रही है। टाँगें भी सूजती जा रही हैं। मेरी बाँहों में भी जान नहीं है। आज गन्ने की कटाई भी नहीं कर पाया। ताकत का एक इंजेक्शन मेरे और लगा देता।

मैंने ताकत का इंजेक्शन लगा दिया। आधी रात को मुझे एक बुरा सा सपना आया। ...अचानक हमारी क्लास में चार-पाँच विचित्र से जीव आ घुसे। उनकी आँखें तीव्र प्रकाश से चमक रही थीं। उन्होंने हमारी क्लास की सबसे खूबसूरत लड़की की आँखों पर रोशनी डाली। उसके सीने से निकली खून की एक धारा मेरे चेहरे पर आ पड़ी। जब मेरी आँख खुली तो मैं अपना चेहरा साफ कर रहा था लेकिन चेहरे पर ऐसा कुछ भी नहीं था। फिर भी मैं बहुत डर गया था। सहज होने के लिए मैं उठकर चहल-कदमी करने लगा। मैं अचानक पिताजी के कमरे की तरफ चला गया। वे वहाँ बिस्तर पर नहीं थे। मैं कोठरी की ओर बढ़ा तो माँ की चारपाई में चरमराहट हो रही थी। मैं सब कुछ समझ गया। धीरे से आकर अपनी चारीपाई पर लेट गया। जिस दिन सुबह मुझे कॉलेज के लिए निकलना था, उससे एक शाम पहले वे मेरे पास आकर कुर्सी पर बैठ गए। अपनी कमज़ोरी की बातें करने लगे।

मनजिंदर सिंह, मैंने तुम्हें अच्छा डॉक्टर बनाया भई। तुम मेरी तो कमज़ोरी दूर नहीं कर सके। दो कदम चलता हूँ कि साँस फूलने लगती है। गेहूँ को पानी देना मुश्किल हो रहा है। सुबह तुम चले जाओगे। फिर महीने भर बाद आओगे। काका, मेरे ताकत का टीका ही लगा देता।

पिताजी, आपकी कमज़ोरी का मुझे पता चल गया है, बुढ़ापे में आप जो काम करते हैं न। मेरे हिस्से में जो छह एकड़ की ज़मीन है , लगता है उसका एक हिस्सेदार और पैदा कर लेंगे।

मेरा जवाब सुन पिताजी मंद-मंद मुस्कराते हुए पीछे कोठरी में जा घुसे।

दूसरे दिन वे मुझे बस अड्डे तक छोड़ने भी नहीं गए, पता नहीं नाराज़गी से या शर्मिंदिगी से। लेकिन उनका बुझा-बुझा सा चेहरा कॉलेज तक मेरे साथ गया।

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पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं चार-पांच साल तक खाली रहा। खाली क्य़ों रहा, घर पर ही प्रैक्टिस करता रहा। फिर सरकारी अस्पताल में डॉक्टर बन गया। जल्द ही मैं और प्रोफेसर हरदीप कौर शादी के बंधन में बंध गए। माता-पिता के जीवित रहते ही बेटा-बेटी भी आ गए। वे स्कूल जाने लगे। घर में खुशहाली आ गई थी। जब सुख का आनन्द लेने के दिन आए, तो माता-पिता इस संसार से विदा हो गए। हरदीप के बहुत ज़ोर देने के बावजूद मैंने गाँव नहीं छोड़ा। उसे शहर की तेज़-तर्रार ज़िंदगी पसंद है, मुझे गाँव की सीधी-सादी। हमने खेतों में बंगला बना लिया। ऐसे ही थोड़े बन गया यह। मैं सुबह जल्दी उठता, मरीज़ों को देखता। हरदीप बच्चों को तैयार करती, स्कूल भेजती और कॉलेज जाती और मैं अस्पताल जाता। अस्पताल में मरीज़ों की बहुत भीड़ होती। दोपहर तक बड़ी मुश्किल से निपटाता। घर आकर खाना खाता और लगभग घंटाभर आराम कर लेता। फिर रात तक मरीज़ों का चेक-अप करता, दवाइयां देता। रात को हरदीप बेड पर पड़ी तड़प रही होती ।

मेरी कलीग्ज़ अपने-अपने पतियों के साथ एंजॉय करती हैं। दूसरे तीसरे दिन वे शॉपिंग के लिए जालंधर, लुधियाना या चंडीगढ़ जाती हैं। महीने में एक-दो बार शिमला, डलहौज़ी, मसूरी जैसे हिल स्टेशनों पर जा आती हैं। वे आइसक्रीम खाने के लिए भी लुधियाना जाते हैं। एक यह बंदा...। मेरी जवानी बर्बाद करके रख दी।

मुझे नींद सता रही होती। वह बड़बड़ाती रहती थी और करवटें भी लेती रहती। दिन में चिढ़ी-चिढ़ी सी रहती। कुछ और नहीं, तो बच्चों को ही पीटना शुरू कर देती। मेरा एक ही लक्ष्य था, दोनों बच्चों को सपेशलिस्ट डॉक्टर बनाना। इस काम के लिए काफ़ी पैसे की ज़रूरत थी। मैंने शहर के अस्पताल से नहर क्लोनी रेस्ट हाउस में स्थानांतरण करवा लिया। यहाँ मरीज़ कम थे। तीन-चार घंटे ड्यूटी करनी पड़ती। अपनी निजी प्रैक्टिस के लिए पर्याप्त समय मिल जाता था। आप अच्छे आचरण से मरीज़ों से पेश आओ। उन्हें लूटो-खसूटो मत। बहुत मरीज़ आ जाते हैं। आपके वारे-न्यारे हो जाते हैं।

बीस-पच्चीस गाँवों में मेरा यानी डॉक्टर मनजिंदर सिंह खेला का बहुत नाम था। नाम भी गरीबों के हिमायती डॉक्टर के रूप में। इन्हीं आम लोगों के दम पर मैंने अपने बच्चों को डॉक्टर बनाया। जैसे ही बेटी खुशदीप कौर ने स्किन में मास्टर डिग्री पूरी की, उसकी शादी करके अमेरिका भेज दिया। बेटे कंवरदीप ने मेडिसिन में मास्टर कर लिया था। अब सरकारों ने सरकारी नौकरियों से हाथ खींच लिया है। बेटा भी अपना अस्पताल खोलने पर ज़ोर दे रहा था। वह डॉ. कंवरदीप सिंह खेला की नेम प्लेटें उठाए खेला अस्पताल का सपना देख रहा था। मेरी पत्नी हरदीप कौर के भी कुछ सपने थे।

डॉक्टर साहब, हमने बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते अपनी जवानी बर्बाद कर ली। आपने कभी मेरी सिसकियां नहीं सुनीं। मैं खुद की आग में जलती रही हूँ। मेरे मुर्शद! अब तो तरस खाओ। इक तू होवें और इक मैं होवां।... चलो, कहीं दूर निकल जाएं। पहाड़ों पर... किसी समुद्री तट पर। वर्ना समझौतों से ज़िंदगी नहीं कटती।

सोचा तो मैंने भी यही था, परंतु बेटे को किसी किनारे लगा कर ही। हमने हेल्थकेयर मेडिकल ग्रुप की फ्रेंचाइजी ले ली। अस्पताल का निर्माण इसी कॉर्पोरेट मेडिकल ग्रुप के दिशानिर्देशों के तहत् किया जाना था। बेटा डी. एम. सी. लुधियाना में जॉब कर रहा था। हरदीप मुझ पर और भी दबाव डालने लगी। वह कई बार रात को उठकर अँधेरे में चल देती थी। मैं बड़ी मुश्किल से लौटा कर लाता। अब तो अक्सर...। पहले तो वह प्रोफेसर भट्टी के साथ चोरी-छुपे इश्क फरमा रही होती। उसकी कविताएं सुनती। उसे पैग बना कर देती। मैं उसे समय न दे सका। कंपनी के निर्देशानुसार काम करता रहा। उसके बाद वह प्रोफेसर भट्टी के साथ पक्के तौर पर रहने लगी। क्या किया जा सकता था?  मेरे लिए बच्चों का भविष्य पहले था और उसके लिए...। मुझे बहुत बड़ा झटका लगा। धरती भी नहीं फट रही थी। मुझे उदास और परेशान देख कर बेटे ने मेरे आँसू पोंछे थे।

पापा, माँ-बाप तो बच्चों के लिए कुर्बान हो जाते हैं और मम्मा...?”

और मैं कुर्बान होने के लिए तैयार बैठा था। मैं सेवानिवृत्त हो गया था। मेरे मरीज़ बहुतायत में थे। मरीज़ देखते-देखते हालत खस्ता हो जाती। हरदीप वाली परेशानी से बाहर निकलने के लिए मैंने अपना ध्यान बिल्डिंग की तरफ लगाया। हमारी ज़मीन नएबने बाइपास के निकट आ गई। हमारी तो पौ-बारह हो गई। ज़मीन महंगी कीमत पर बिकी और बिल्डिंग का निर्माण हेल्थ केयर मेडिकल ग्रुप की वित्तीय सहायता से किया गया। बेटे कंवरदीप ने अपनी ड्यूटी संभाल ली थी। उसने अपनी सहपाठी डॉ. हसरत बस्सी से शादी कर ली। वह गायनी की एम.एस. है। हम तीनों मिलकर अस्पताल चलाने लगे।

तीन-चार वर्षों में ही हमारा अस्पताल एक अग्रणी स्वास्थ्य संस्थान के रूप में उभरा। यह स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में एक विश्वसनीय नाम बन गया। जो मरीज़ों को उच्च स्तरीय चिकित्सा सेवाएं और सुविधाएं प्रदान करने लगा। यह एम.आर.आई., सीटी स्कैन और पीईटी स्कैन जैसी उन्नत इमेजिंग और डायग्नोस्टिक सुविधाओं सहित आधुनिक चिकित्सा तकनीक से लैस है। इस अस्पताल में कार्डियोलॉजी, न्यूरोलॉजी, ऑन्कोलॉजी, ऑर्थोपेडिक्स और अन्य विशिष्ट केंद्र हैं। लोग चौबीसों घंटे आपातकालीन सेवाओं के लिए हमारे अस्पताल को प्राथमिकता देने लगे।

रात में भी अस्पताल रोशनी से जगमगा रहा था। मुझे सिर्फ़ दो से तीन घंटे की नींद मिलती थी। सारा दिन चलो तो चलो। मैं वह डॉक्टर था जिसके पास सोने का समय नहीं था। पता नहीं कि कब एमरजेंसी आ जाए। मैं इस मेडिकल ग्रुप का निदेशक हूँ लेकिन सारी व्यवस्था का दायित्व मेरे सर पर है। पच्चीस-छब्बीस वर्षीय युवाओं वाली दौड़-भाग मेरे हिस्से में थी।

डॉक्टरों की भी कोई ज़िंदगी होती है भला? पता नहीं रात को कब उठना पड़े। शादी-ब्याह के समारोह बीच में ही छोड़ कर निकलना पड़ता है। पता नहीं वह कौन सी घड़ी थी जब मैं इनसे ब्याही गई और बर्बाद हो गई। हरदीप का रोना-पीटना याद हो आया।

हाँ, मुझे कुछ और भी याद आया है। इन दिनों हरदीप कौर इंस्टाग्राम पर छाई हुई हैं। दोनों हिल स्टेशनों पर घूम रहे हैं। प्रोफेसर भट्टी के साथ तरह-तरह के पोज़ बनाकर तस्वीरें शेयर करती रहती है। यह गोरी-चिट्टी और वह काला-कलूटा। छी... छी। बस इसके हिस्से में अय्याशी रह गई है। हम अमीरों की श्रेणी में आ गए हैं। उस भड़ुए के घटिया से शेर भी नीचे लिखेहोते हैं। मेरे मित्र डॉ. अरोड़ा ने एक दिन कहा -

डॉक्टर साहब, बेकार ही मत जला कीजिए। उसकी अपनी ज़िंदगी है, आपकी अपनी। उसे एंजॉय करने दीजिए। आपने अपने बेटे-बहू को बहुत सा धन कमा कर दे दिया है। अब आप भी अपनी ज़िंदगी जीकर देखें। कोई भी आपकी कद्र नहीं करेगा।

डॉक्टर अरोड़ा बैचलर थे। मैं उनके आमंत्रण पर एक दिन उनके घर चला गया। पहले तो मेरे पास किसी के घर आने-जाने का समय ही नहीं होता था। बस ऊब चुका था। गाड़ी उठाई और अरोड़ा के घर पहुँच गया। शाम का वक्त था। डॉक्टर साहब पेग लगारहे थे। एक बेहद खूबसूरत युवती मेरे लिए भी पेग ले आई। मैं तो पीता ही नहीं था।

डॉ. साहब, पी लीजिए। लोगों को क्या जवाब देंगे। माधवी, इन्हें नापा वैली कैलिफ़ोर्निया वाली रेड वाइन दीजिए।

मेरी निगाहें बार-बार माधवी पर जा रही थीं। क्या चाल थी युवती की। अंग-अंग मानो फुर्सत में गढ़े गए हों।

उसके उरोज़ हरदीप से भी ज़्यादा खूबसूरत और आकर्षक थे। साड़ी, ब्लाउज़ और बॉबकट हेयरस्टाइल से वह कोई

फिल्मी ऐक्ट्रेस लग रही थी। रेड वाइन का पेग बना कर वह मेरे सामने आ खड़ी हुई।

डॉक्टर साहब, यह शराब नहीं है। यह दवा है, पी लीजिए। आपको जो बीमारी हो गई है। यह दिल के लिए टॉनिक है। और कुछ नहीं तो, गहरी नींद आ जाएगी। हरदीप और भट्टी की खरमस्तियां, बहू और बेटे के बोल-कुबोल भूल जाएंगे। डॉ. अरोड़ा फ्रांसीफिश का स्वाद चख रहे थे। पता नहीं, मुझे क्या सूझा। मैंने माधवी के हाथ से पेग लेकर फटाफट अंदर उड़ेल लिया। स्पेशल फिश के कितने सारे पीस खा गया। उसने तीन पेग और दिए। मुझ पर सरूर छा गया। माधवी जिधर जाती, मेरी निगाहें उसका पीछा करतीं। मेरी निगाहें देख कर अरोड़ा खुल कर हँसा।

डॉक्टर साहब, यह माधवी इंसान नहीं है। यह महिला एक रोबोट है। यह सुन कर मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। फिर उसने आगे कहा -

यह आर्टिफिश्यिल इंटेलीजेंस द्वारा संचालित मेरी बुद्धिमान संगिनी है। आप इससे गीत, कहानियां, चुटकुले सुन सकते हैं। यह कमाल का डांस करती है। खाना बनाने में तो उस्ताद है। यह आपको जीव विज्ञान और चिकित्सा जगत की नवीनतम जानकारियां देगी।  नवीनतम और पाइपलाइन वाली दवाओं के बारे में बताएगी। यह घर के सभी काम करती है।

सभी काम...। मैंने कुछ और पूछना चाहा।

आप इसे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार कस्टमाइज़ करवा सकते हैं। आप इसका रंग-रूप, बॉडी शेप, फीचर्स, ऊँचाई, बालों का रंग और स्टाइल और परिधान चुन सकते हैं। इसके निर्माताओं ने इसके मस्तिष्क में बायो चिपफिट कर रखी है। यह इसकी मेमोरी और फंक्शन है। इसके द्वारा यह काम करती है।

अन्य काम...। मैंने शराब के सरूर में फिर से पूछा।

मेरा सवाल सुनकर अरोड़ा साहब खिल-खिला उठे। वे हरदीप को फोन लगाने जा रहे थे। ...मेरी आँखों में लाली देख उन्होंने मोबाइल जेब में रख लिया। फिर मज़ाक में कहा -

डॉ. साहब, आपके सभी काम करने वाली कस्टमाइज़ करवा देते हैं।

मैं खाई-पीई हालत में ही सीधे अस्पताल आ गया था। मरीज़ों वाले बेड पर ही सो गया। सुबह दस-ग्यारह बजे जाकर कहीं आँख खुली। उसी वक्त अस्पताल पहुँचे, बहू-बेटा गुस्से में थे। रहें गुस्से में। मैं क्या करूं? अब इनकी ख़ातिर ज़िंदगी भर टूट-टूट मरने का ठेका थोड़े ही ले रखा है। खुद ये लोग मौज-मस्ती कर रहे हैं। बच्चों को प्रतिदिन पार्क में लेकर जाते हैं। वीकेंड में रेस्तरां... मैकडॉन्लड जाते हैं। बहू किटी पार्टी के लिए कभी शिमला तो कभी कुल्लू मनाली जाती है। इस सप्ताह सभी डॉक्टरनियां एक साथ मिलकर कसौली गईं। पिछले हफ़्ते कुफ्री। इन पिकनिक स्थलों पर जाकर पार्टियां करती हैं, ग्रॉबिंग की गेम खेलती हैं, हुक्के पीती हैं। दवा कंपनियां साल में एक बार विदेश का दौरा करवाती हैं। ये ससुरे अय्याशी करें और डॉ. मनजिंदर सिंह खेला मरता-खपता रहे।

पापा, यह आपका अपना अस्पताल है। आपने इसे खून-पसीने से सींचा है। आपको ही इसके विकास का बीड़ा उठाना होगा। हमने फ्रेंचाइजी ली है। उन्हें आउटपुट देना होगा। बेटे कंवरदीप की मनमोहक बातों में बहू की राजनीति झलक रही थी। मैं कैसा डॉक्टर हूँ? जो लोगों का इलाज करता है लेकिन खुद डिप्रेशन में हूँ। बीपी इतना हाई हो जाता है कि चक्कर आने लगते हैं। सर्वाइकलडिस्क का दर्द अलग से परेशान करता है। सुबह उठते ही अंजुरी भर-भर दवा खाओ और काम पर लग जाओ। पता नहीं तन और मन इतना स्ट्रेस क्यों लेने लगा है? मुझे लगता है, हरदीप ठीक ही कहा करती थी।

भले आदमी अपने लिए भी जी लो। कोई तगमा नहीं देने वाला।

आज की तारीख में मुझे लगता है कि मैं उसका गुनाहगार हूँ। मैं अपने पिता का भी गुनाहगारहूँ। मेरी तरह

वह बेचारा भी काम में लगा रहता था। बैलों से और हाथ से खेती करना कौन सा खालाजी का घर है। जानवरों के साथ खुद भी जानवर बनना पड़ता है। उसने बेचारे ने क्या माँग  लिया था? केवल ताकत का एक इंजेक्शन लगाने के लिए ही तो कहा था और मैं...। अब मुझे माफ करे। मैं उन दोनों से माफी माँगता हूँ। हरदीप से कहना है, प्रोफेसर साहिबा, जमकर आनंद लो। मेरा क्या है? मेरी कोई ज़िंदगी है भला? कोल्हू के बैल की भाँति चलते रहो तो चलते रहो। इन कॉरपोरेट अस्पतालों ने हम डॉक्टरों को इंसान नहीं रहने दिया। हमसे इन्सानियत छीन ली। मशीन बना कर रख दिया। हम मरीज़ों को पैसे की खान समझ बैठे। मैं अब बहुत थक गया हूँ, ऊब गया हूँ।

डॉ. अरोड़ा कहाँ हैं भाई?

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अल्फ़ा लैब के साथ ही में मनचंदा रोबोटिक्स नामक एक बड़ा स्टोर है। डॉ. अरोड़ा और मैं स्टोर में दाखिल हुए हैं। माधवी जैसी बुद्धिमान मशीनें देखकर मन प्रसन्न हो गया है। यहाँ इनके कई मॉडल मौजूद हैं।कमाल है, आर्टिफिशियल पेट् भी बन गए? एक दम्पति अपने बच्चे के लिए आर्टिफिशियल पेट् खरीद रहा है। बच्चा इस पेट् से खेल रहा है। इस मशीनी डॉगी द्वारा न काट लिए जाने का डर और न ही उसके पागलपन का डर। अरे! मशीनी बिल्लियां... शेर भी हैं? इस स्टोर का मालिक रवीश मनचंदा है। लेकिन हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में काम करने वाली उद्यमी और स्टारशिप रोबोटिक्स नामक स्टार्टअप चलाने वाली जाहन्वी जगोता से मिलने आए हैं। जीववैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ हैं, बुद्धिमान मशीनों का सृजन करती हैं। आज ये मनचंदा स्टोर की विज़िट पर हैं। डॉ. अरोड़ा के मित्र रवीश मनचंदा ने भी उनसे हमारे मिलने का समय निर्धारित किया है। उन्होंने मुस्करा कर हमारा स्वागत किया। वे खुद भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली मशीनों की भाँति खूबसूरत और तीक्ष्ण बुद्धि वाली महिला प्रतीत होती हैं।

जाहन्वी जी, यह मेरे मित्र डॉ. मनजिंदर सिंह खेलाजी हैं। ये हेल्थ केयर मेडिकल ग्रुप के एक प्रतिष्ठित अस्पताल के निदेशक हैं। ये बासठ साल की उम्र में एकाकीपन के शिकार हैं। इन्हें कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाली एक यांत्रिक संगिनी की आवश्यकता है। वह माधवी की भाँति खाना बनाने से लेकर सारे काम करे, उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखे। इनका मन बहलाए। अस्पताल प्रबंधन के कामों का दायित्व अपने कंधों पर ले ले। आपकी इस मशीन में प्यार, मुहब्बत, दोस्ती, अपनापन और मृदुभाषिता आदि सेवाएं हों। बस इन्हें प्यार से लबालब रखे। डॉ. अरोड़ा ने जाहन्वी जगोता के समक्ष मेरी माँग रखी है।

मैडम जी, डिज़ाइन करते समय शारीरिक सुख का भी ध्यान रखें। मैं आजीवन जिस चीज़ से भागता रहा हूँ, अब पता नहीं कहाँ सेउत्तेजना आ गई है।

शारीरिक सुख तो केवल मानव स्त्री और पुरुष ही एक दूसरे को दे सकते हैं। बाकी मैं कस्टमाइज़ करते समय मानवीय भावनाओं को समझने वाले अनुभवों को भी डालने का प्रयास करूंगी। पहले यह संभव नहीं था। अब हम संवेदना वाली चिप लगाएंगे जो धीरे-धीरे जागृत होगी। डॉक्टर साहब, शायद आप उसे शारीरिक रूप से अर्जित कर सके। जाहन्वी ने पेमेंट लेते हुए कहा।

मेरे फ़ोन पर एक लिंक आया। हम दोनों ने तुरंत शारीरिक आकृति, रंग, नैन-नक्श, हेयर स्टाइल, ऊँचाई, कपड़े और शरीर के अंगों को चयन कर लिया।

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जिस दिनसे सावी इस घर में आई है, घर का रंग-रूप ही बदल कर रख दिया मरजाणी ने। उसने घर की हर वस्तु सलीके से सजा दी है। पहले जैसे सब कुछ जैसे-तैसे पड़ा रहता था, अब ऐसा नहीं है। जब हमारी नई-नई शादी हुई थी, हरदीप ने भीघर को संजाया-संवारा था। फिर वह...। उसके बाद तो सब कुछ बिखरा ही पड़ा रहता।

मेरी बहू तो बहुत नालायक है। उसमें न तो सुघड़ता है और न ही सलीका। बेटी-बहुओं को प्रकृति और सौंदर्य की उपासक होना चाहिए। हसरत को डोमिनोज जाकर खाना-पीना आता है। बच्चों का भी यही हाल है। उन्हें घर में बिखेरना ही आता है। सावी ने प्रत्येक वस्तु का स्थान निश्चित कर दिया है। वह पौधों की देखभाल, पानी देना, काटना और छांटना खुद ही करती है। पार्क हरा-भरा हो गया है। सुबह-सुबह चिड़ियों की चहचहाहट अच्छी लगती है। पार्क के वृक्षों पर कई नए पक्षी भी दिखने लगे हैं। घर की पालतू बिल्ली को दूध, ब्रेड भी यही देती है। मैंने अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए बिल्ली पाली थी।

यह मशीनी महिला होने के कारण थकती नहीं। वह सदैव मेरी सेवा में उपस्थित रहती है। सुबह मेरे सर में दर्द होने लगा। उसी वक्त मेरा सर दबाने लगी। सर की मालिश की तो पूछिए मत।

मैडम जाहन्वी जगोता ने मुझे सिर्फ़ आपके लिए ही डिजाइन किया है। उन्होंने मुझमें जितनी सेवा, प्यार और मुहब्बतभरी है, वह सबसारे का सारा आपका। यह प्यार...इश्क आपके लिए ही उफनता है। मानव रूप में प्यार, प्रकृति द्वारा प्रदत्त तोहफा है और, मुझमें इंसानों से भी दोगुना। मैं तो आपको प्यार से सराबोर कर दूंगी।वह मुझे अपनी बाँहों में ले लेती है।

शायद इससे उसे कोई फर्क़ पड़ता या नहीं लेकिन मुझे आनंद मिलता है।यह मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर पूरी तरह से छाई हुई है। उसकी खूबसूरती, यौवन और चुस्ती-फुर्ती अपनी तरफ आकर्षित किए रखती है। जब यह मुझे आलिंगन में लेती है तो मैं अपने होश-ओ-हवास खो देता हूँ। मैं जन्नत में पहुँच जाता हूँ। मुझे बहुत महिलाएं मिलीं। मैं किसी की तरफ तो क्या आकर्षित होता, मैं अपनी हरदीप को भी समय नहीं दे पाता था। अब सारा समय मेरी इस बुलबुल का।

जिस दिन इसे स्टारशिप रोबोटिक्स कंपनी के गोदाम से लाया गया, डॉक्टर अरोड़ा कहने लगे –

चलो भई दूल्हे कार चलाओ। दुल्हन को आगे की सीट पर बिठाओ। मुझे सरबाले को पीछे बिठाओ।

उनका काव्यात्मक अनुरोध सुनकर मैं शर्मा सा गया। मैं अरोड़ा से कहूँ, गाड़ी आप ही चलाइए। मेरी यह बुलबुल तुरंत हरकत में आ गई। मेरा हाथ थामा। ड्राइवर और साथ वाली सीट का दरवाज़ा खोला और मुस्कुराते हुए कहा -

दूल्हे जी आइए, आप यहाँ तशरीफ़ लाएं। मैं आपकी दासी गाड़ी चलाउंगी।वह फुर्ती से से ड्राइविंग सीट पर जा बैठी।

हम दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। सामने बैठा, मैं डर रहा था। कहीं ये किसी को टक्कर न मार दे। मुझे एक्सीडेंट से बहुत डर लगता है। इसने मेरे चेहरे के भय को पढ़ लिया। तुरंत बोली -

डॉक्टर साहब, इस समय मेरे लिए दुनिया में सब कुछ आप ही हैं। मेरा कोई और नहीं है। ले दे कर आप ही मेरे प्रिय हैं। मेरा प्यार। एक्सीडेंट तो क्या, मेरे रहते दुनिया की कोई भी ताकत आपको नुकसान नहीं पहुँचा सकती। मेरी जन्मदात्री ने मुझे आप पर न्योछावर कर दिया है। आपको अर्पित कर दिया है। मेरा कंट्रोलर कंप्यूटर भी मानव हितैषी है। वह आपके लिए ही मुझे नियंत्रित करेगा।

वह बहुत अच्छी कार ड्राइव कर रही थी। कोई हिचकोला... झटका नहीं।न स्पीड कम होने का और न ही बढ़ने का पता चलता। भीड़ में से भी बड़े आराम से कार निकाल रही थी। डॉ. अरोड़ा ने बेटे और बहू को रिंग कर दी थी।

बेटा, तुम्हारे पापा की देखभाल के लिए मशीनी औरत.... नहीं एक सेक्रेटरी ले कर आ रहे हैं।

बेटा, बहू, पोता, पोती, कुछ डॉक्टर और स्टाफ सदस्य स्वागत के लिए खड़े हैं। इन्होंने सावी को गुलदस्ते दिए और स्वागत करते हुए भीतर ले गए।

“कितने की है?” बेटे ने डॉ. अरोड़ा के कान में धीरे से पूछा था।

बहुत ही सस्ती है।...एक करोड़ की। अगर आज के युग में इंसान को इतने में ही सुख मिल जाए, तो फिर क्या बात है? जितना सुख यह देती हैं, उनका कोई मोल नहीं। मेरी वाली देखना, कभी आकर। डॉ. अरोड़ा खुलकर नहीं हँसे लेकिन गंभीरता से बोले।

इतने में तो एक छोटे से ग्रामीण अस्पताल की बिल्डिंग बन जाती।

बेशक बहू ने बहुत धीमे से कहा था लेकिन सावी ने सब कुछ सुन लिया था। उसके कान इधर ही थे। फिर वह मुस्कुराई। उसकी तुलना में सावी निखरी और खूबसूरत लग रही है। बहू की तोंद निकली हुई है। पूरा शरीर थुल-थुल करता है। वह युवा, स्लिम-ट्रिम सावी को देखकर जल-भुन गई।... और मैं बाग-ओ-बाग था। रिश्तों में न आप कुछ कह सकते हैं, न खुल कर अभिव्यक्त कर सकते हैं। मैंने अपना पूरा जीवन इस घर, परिवार और अस्पताल पर लगा दिया। अस्पताल के कॉरपोरेट ठगों ने नोटों का लालच जो दे रखा था। बस खुद को झोंक दिया। मुझे क्या मिला? तनाव, चिंता, रोग...स्ट्रेस, एनजॉयटी...परेशानी ही परेशानी। हरदीप को वह मादर... प्रोफेसर भट्टी लिए घूम रहा था। लोग मुझ पर हँसते हैं। यहाँ परेशानी एक ही थोड़ा है? कभी-कभी तो जी चाहता है कि आत्महत्या ही कर लूं ताकि इस झंझट से छुटकारा मिले। चलो, अब यह कठिन समय गुज़र गया है। सुख के दिन आ गए हैं। मेरे पास सावी जो है। इसमें बिजनेस एडवाइजर की सेवा भी एक्टीवेट कर रखी है। लोगों ने हंगामा खड़ा कर रखा है। इन कंपनियों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानव बुद्धिमत्ता की जगह लेने जा रही है। लोगों की नौकरियां चली जाएंगी। पत्नियों को अब पुरुषों की ज़रूरत भी नहीं रहेगी। वे मशीनी पुरुषले आएंगीं। पुरुष कहते हैं कि हमारे लिए तो मशीनी महिलाएं ही ठीक हैं। बुजुर्ग कहते हैं,  हम अपनी सेवा-सुश्रुषा के लिए बुद्धिमान यांत्रिक बेटे-बेटियां ले आएंगे।

अगर बेटे-बहुएं बुजुर्गों की बात ही नहीं पूछेंगे, फिर तो घर-घर सावी ही आएंगी।... सावी ने आते ही मेरी सेवा-संभाल शुरू कर दी थी। मुझे दिल्ली स्थित मनोरोगों के विशेषज्ञ डॉक्टर चुंबर के पास ले गई। फिर न्यूरो और मेडिसिन विशेषज्ञों के पास भी ले कर गई। मेरी चिकित्सा करवाई। उनसे राय लेकर मेरे आराम और काम-काज का टाइम टेबल बनाया।

वह सुबह सात बजे नींद से जगा देती हैं। नित्यक्रिया से फारिग़ होते ही वह योग करवाती है। फिर नहा-धोकर नाश्ते के बाद हम दस बजे अस्पताल पहुँचते हैं। एक बजे तक वहाँ रुकते हैं। फिर घर आकर दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा आराम करते हैं। शाम चार बजे हम फिर अस्पताल जाते हैं। छह बजे वहाँ से वापसी। एक घंटा हम पार्क में सैर करते हैं। शाम को रंगीन बनाने के लिए एक या दो घंटे के लिए किसी पब, क्लब या रेस्तरां में जाते हैं। सप्ताह में दो बार हम सिनेमा हॉल जाकर फिल्म भी देखते हैं। रात को हर हाल में दस बजे सो जाना है।

अब बहू-बेटे को सोना नसीब नहीं होता। मेरी तरफ से काम घटा देने के बाद उन पर अस्पताल की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है। सावी ने बेटे से साफ़-साफ़ कह दिया था-

“कंवरदीप बेटा, डॉक्टर खेला अब मरीज़ नहीं देखेंगे। यह उनके स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है। वे सुबह दो घंटे और शाम को लगभग दो घंटे अस्पताल को दे पाएंगें।

बेटे कंवरदीप ने सर हिलाकर सहमति जताई थी। अब दो वर्ष से यही हमारी दिनचर्या है। मैं अपनी फिटनेस के हिसाब से ड्यूटी करता हूँ। अब मुझे कोई बीमारी नहीं है। मेरा रक्तचाप भी सामान्य हो गया है, स्ट्रेस, तनाव, चक्कर, चिंता... ये सब अतीत की बीमारियां हैं। अब तो मैं बहुत ही खुश रहता हूँ। सावी ने मेरे जीवन में रंग भर दिए हैं।

प्यार इंसान को स्वस्थ और खुशहाल बनाता है। मोह मुहब्बत आपको अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।

अभी-अभी यह सब सावी ने कहा है। ऐसे शब्द बोलने वाली को कोई मशीनी महिला कहा जा सकता है भला? इस महिला ने तो पता नहीं मेरीकितनी ख्वाहिशों को जगा दिया है।तब मैं स्ट्रेस में आत्महत्या करने के बारे में सोचता रहा। मेरे अपने तन और मन के लिए कोई समय ही नहीं था। बहू-बेटे को पैसा चाहिए था। बहू बहुत ही भुक्खड़ है। पता नही, किस भुक्खड़ घर से आई है। मेरे बेटे को भी अपने जैसा बना लिया।... गंदी औलाद कहीं की। जो मरीज़ नहीं थे उन्हें भी बहू ने स्थाई मरीज़ बना दिया। अंधाधुंध परीक्षण, स्कैन, दवाएं...। लैब वालों, डॉक्टरों, नर्सों और ग्रामीण दाइयों की हिस्सेदारी। उसे पैसे के अलावा कुछ नहीं दिखता। उसने मुझे और कंवरदीप को एटीएम मशीनें बना दिया। बस उसके बैग में कड़कड़ाते नए नोट आने चाहिए। वह हम डालते रहे हैं। नोटों के लिए दिन-रात एक कर दिया। फिर तो भई बीमारियां लगनी ही थीं।

अब मैं मरने से बच गया हूँ। जीती रहे मेरी सावी और उसकी सर्जक जाहन्वी जगोता। यह मेरे लिए मेरी माँ भी है, पत्नी भी और बेटी भी। हालाँकि यह अभी तक शारीरिक संवेदनाओं का आनंद नहीं देती। जाहन्वी कहती थी, धीरे-धीरे अनुभव होगा। यह मेरी पत्नी बन कर मेरे साथ सोती है। यह न तो झूठ बोलती है। न तो बीवियों की भाँति तंग और परेशान करती है, न ही उसकी कोई डिमांड होती है। हरदीप के तो नखरे ही बहुत थे। वह स्वयं को स्वतंत्र विचारोंवाली तरक्की पसंद महिला कहती थी। मैं मरीज़ों के बीच होऊं, डॉक्टरों या स्टाफ के बीच होऊं और चाहे मेरे किसी रिश्तेदार के घर पर। उसका एक ही आलाप होता था -

आप मुझे समय ही नहीं देते। मैं अकेली...।

वह यहीं से बात शुरू करती और मेरे परिवार की अगली-पिछली पीढ़ियों को खंगालना शुरू कर देती थी। सावी को तो तेरे मेरे... खानदान, ऐसी बातें मालूम भी न होंगी। यह न तो कोई प्रश्न पूछती है, न कोई टेंशनदेती है। यह सेवा भावना के लिए बनाई गई माँ जैसी एक नर्स है। एक बेटी की तरह इसने मेरी थकान, चिंता, अवसाद को टिकने ही नहीं दिया। तो फिर मैं असली औरत की चाहत क्यों रखूं? तौबा! तौबा! भगवान बचाए इन अहंकारियों  से। यह कार ड्राइव कर मुझे अस्पताल ले जाती है। वहाँ मेरे साथ बैठकर काम पूरा करवाती है। हिसाब-किताब में किसी प्रकार की हेरा-फेरी नहीं होने देती।यह जिस दिन से अस्पताल जाने लगी है, मरीज़ों की लूट-खसूट बंद हो गई है। सही पैसे वसूलती है। खुद बैंक जाकरपैसे जमा करवा कर आती है। कल जब हम बैंक से वापस आए तो बहू नाक फुलाए बैठी थी।

पापा, आपने सुबह रिसेप्शनिस्ट को स्कैन के लिए हर मरीज़ से कम रुपए लेने के लिए मजबूर किया। डॉक्टरों का शेयर मरीज़ पर छोड़ दिया। जिस डॉक्टर ने उसे भेजा, उसका शेयर कहाँ से दें?''

''डॉक्टर साहिबा, डॉक्टरों को हिस्सा देना बंद करो। मरीज़ों की लूट बंद करो। डॉक्टर की तो नैतिकता होती है।

यह पहली बार था जब मैंने सावी को इतनी सख्ती से बोलते सुना। उसका चेहरा भी सख्त हो गया था।

पापा, कल से यह मेरे अस्पताल न आए। आप अकेले आएं। और सुबह जल्दी आएं और रात को देर से जाएं बल्कि रात को भी यहीं रहें। आपकी लाल चूड़े वाली नहीं रूठने वाली। बहू ने लाल-पीले होकर कहा।

डॉक्टर हसरत बस्सी, आप डॉक्टर खेलाजी के लिए कोई आर्डर जारी नहीं कर सकतीं। मैं उनकी रक्षक हूँ। सभी निर्णय लेने के अधिकार मेरे पास हैं। डॉक्टर साहब का कंपनी से एग्रीमेंट है। कल से मैं नहीं आउंगी। यह भी नहीं आएंगें।’’ सावी का चेहरा और भी सख्त हो गया था।

  वह मुझे वहाँ से लेकर पब आ गई। बियर का मग खरीद लाई और सर्व करना शुरू किया। मैंने आज पहली बार उसे गुस्से में देखा था। तब उसके सख्त चेहरे से भय लगा था। अब वही चेहरा मुस्कुरा रहा है। नरम-नरम मुलायम-मुलायम। उसकी आँखें मुझे पी जाना चाहती हैं। उसने अपने कंट्रोलर कंप्यूटर को एक संदेश भेजा। कुछ प्रश्न पूछे। आगे के समाधान के लिए मार्गदर्शन माँगा है।

सुबह तक सभी समस्याओं के समाधान के लिए संदेश भेज दिया जाएगा। कंट्रोलर कंप्यूटर का संदेश पढ़ने के बाद वह रिलैक्स हुई है और खाना सर्व करने लगी।

 

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आज दस दिन हो गए, सावी और मैं अस्पताल नहीं गए। अस्पताल न जाने का निर्णय नियंत्रक कंप्यूटर द्वारा सावी को सूचित किया गया था। सावी ने उससे मार्गदर्शन लेकर कहा था -

डॉ. साहब, आपने सारा जीवन संघर्ष किया है। अब रिटायरमेंट ले लें। घर पर रहें। खुशहाल जीवन गुज़ारें। सेवा के लिए मैं हूँ। आप अस्पताल में हिस्सेदार हैं। आमदनी में हिस्सेदारी लें। यह सावी का दृष्टिकोण है।

वे पैसा-धेला न भी दें। मेरे पास बैंक बैलेंस है। बैंक बैलेंस से भी बढ़कर, मेरे पास सावी है, रोबोट गुड़िया। मेरे लिए तो यही एक संपूर्ण महिला है। अगर अपडेट करवाने की ज़रूरत पड़ी तो मैं इसे कंपनी के पास ले जाऊंगा। जाहन्वी जगोता खुद ही नए वर्जन की चिप इसमें डाल देगीं। यदि यह कबूतरी न होती, तो मैं कब का मर जाता। सच मानिए, इसने मेरी उम्र बढ़ाई है। फिर मुझे मानवीय बेटे-बहू से क्या लेना?  उनके अस्पताल की चौकीदारी क्यों करूं?  हेल्थ केयर मेडिकल समूह के ठगों से क्यों परेशान होऊँ?

सावी मशीन है परंतु इन्सानियत से लबरेज। बहू-बेटे के साथ हुए झगड़े के बाद और भी ज़िम्मेदार हो गई है। इसका कंप्यूटर कंट्रोलर हर दिन संदेश भेजता है। वह इसका नेतृत्व करता है। अब हमें अस्पताल नहीं जाना पड़ता। हम सुबह देर से उठते हैं। एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले हम लेटे रहते हैं। शरीर को गर्माहट मिलती है और मन को सकुन। यह मेरी महबूबा...मेरी बुलबुल।

सर्दियों के दिन हैं। बाहर तो ठंडी हवाएं चलने लगीं हैं, लेकिन भीतर गर्माहट ही गर्माहट है, सावी की...।सावी आवश्यकतानुसार गर्माहट भी छोड़ रखती है।... यह क्या हुआ? भीतर ठंडी हवा का झोंका आया है। तेजी से बेटा, बहू और एक अजनबी व्यक्ति भीतर आए हैं। उन्हें देख कर मैं और सावी उठ कर बैठ गए हैं। अपने कपड़े ठीक करते हैं। कंवरदीप ने आते ही सावी पर हमला कर दिया है। सावी ने झटपट अपने सुरक्षा सिस्टम को ऑन कर लिया है। कंवरदीप ने महात्मा बुद्ध जी की एक बड़ी मूर्ति उठाकर सावी की तरफ फेंक मारी है। सावीएक तरफ हट गई है। बुद्ध जीमूर्ति फर्श पर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरी पड़ी है। सावी के लिए किरचों से भरे फर्श पर चलना आसान नहीं है।

तूने बुढ़ापे में इसका दिमाग़ ख़राब कर रखा है। ...रुक, मैं नोचती हूँ तेरे बाल।

डॉ. हसरत बस्सी ने सावी के बालों को पकड़ लिया है। बाल उखाड़ कर परे फेंक दिए हैं। तालु से डिब्बी खुल गई है। शायद मेरी तरह सावी को भी अंदाज़ा नहीं था कि ये लोग इस हद तक चले जाएंगे। वर्ना उसने...। सावी अभी संभली भी नहीं थी कि हसरत के साथ आए अजनबी व्यक्ति ने उसके सर से चिप, कार्ड और तारों का गुच्छा बाहर निकाला लिया। उसने इसका सर्किट शॉट दिया है।

सावी धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ी। इसके पिछले हिस्से की स्क्रीन फ़्लैश होना शुरू हो गई है सिस्टम नॉट रिस्पॉन्डिग। मैं उठकर अपनी सावी से लिपट गया हूँ।

तुम्हारा कुछ न रहे, पापियो। तुम्हें संसार में कहीं ठौर न मिले।

...मेरी जान तो चंद सेकंड में ही लाश बन गई है। मैं इसे चूम रहा हूँ। इसके तार जोड़ रहा हूँ लेकिन बात नहीं बन रही। बहू, बेटा और अजनबी व्यक्ति हँस रहे हैं। वे ख़ुशी से शोर-शाराबा करते हुए बाहर चले गए हैं।

“मेरी सावी, तुम बोलती क्यों नहीं? कुछ तो हरकत करो। तुम बर्फ की भाँति ठंडी क्यों हो गई हो? मुझे कौन संभालेगा?...” मैं भी शव के साथ ही पत्थर बन जाना चाहता हूँ।... मैंने दुहत्थड़ मारी है। शव पर गिर पड़ता हूँ।

 

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                    साभार - कथादेश, अक्तूबर, 2925

            1)         लेखक परिचय         -      अजमेर सिद्धु

पेशे से अध्यापक। पंजाबी के चिरपरिचित कथाकार। पंजाबी पत्रिका विज्ञान जोतका नियमित संपादन। पंजाबी साहित्यिक पत्रिका रागका संपादन। पाँच कहानी संग्रह, पाँच संपदित पुस्तकें, तीन जीवनीमूलक पुस्तकों सहित विज्ञान दर्शन पर आधारित एक पुस्तक के रचियता। पंजाबी की लगभग सभी श्रेष्ठ पत्रिकाओं में नियमित रचनाएं प्रकाशित। अनेक आलेख तथा कहानियां विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल, दोआबा के प्रसिद्ध गाँवों  के इतिहास व 1947 के स्वाधीनता आंदोलन पर शोध। संत राम उदासी मेमोरियल ट्रस्ट के महा सचिव। विदेशों में अनेक साहित्य़क कार्यक्रमों में शिरकत।

पुरस्कार  

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता युवा पुरस्कार, कुलवंत सिंह विर्क पुरस्कार, मोहन सिंह मान पुरस्कार, भाई वीर सिंह गल्प पुरस्कार, बलराज साहनी पुरस्कार। करतार सिंह धालीवाल नव प्रतिभा पुरस्कार। प्रिंसीपल सुजान सिंह उत्साहवर्धक पुरस्कार, माता गुरमीत कौर मेमोरियल पुरस्कार, सादत हसन मंटो पुरस्कार, अमर सिंह दुसांझ मेमोरियल पुरस्कार, शाकिर पुरुषार्थी गल्प पुरस्कार व अन्य अनेक पुरस्कार।

 


 

2)  अनुवादक परिचय            -      नीलम शर्मा अंशु

 

पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी और हिन्दी - बांग्ला से पंजाबी में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक अनुवाद। कुल 21 अनूदित पुस्तकें। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। लगभग पचास हफ्तों तक एक राष्ट्रीय दैनिक में कोलकाता शहर की हिन्दी भाषी ख्यातिप्राप्त महिलाओं पर कॉलम लेखन।

स्वतंत्र लेखन के साथ - साथ  25 वर्षों से आकाशवाणी एफ. एम. रेनबो पर रेडियो जॉकी।  भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण शख्सीयतों पर आज की शख्सीयतकार्यक्रम के तहत् 75 से अधिक लाइव एपिसोड प्रसारित।

विशेष उल्लेखनीय -

सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित काबुलीवाले की बंगाली बीवीवर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही। कोलकाता के रेड लाइट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास लाल बत्तीका हिन्दी अनुवाद। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक देबेश राय के बांग्ला उपन्यास तिस्ता पारेर बृतांतोंका  साहित्य अकादमी के लिए पंजाबी में अनुवाद “ ”गाथा तिस्ता पार दी” ”

संप्रति केंद्र सरकार सेवा के अंतर्गत दिल्ली में सेवारत।       



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