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रविवार, मई 30, 2010

कहानी श्रृंखला - 2
पाकिस्तानी पंजाबी कहानी

बेरी की छांव

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रूपांतर – नीलम शर्मा ‘अंशु’


उस बेरी की छांव नहीं थी ।
सर्दियों के दिन थे और दोपहर का वक्त ! सूर्य का प्रकाश उस बेरी की नंगी, सूखी टहनियों पर आकर बस यूं ही पलक सी झपकता था और उसके इर्द-गिर्द ज़मीन पर बिखर जाता था । उसी प्रकाश में खड़ा एक लड़का अख़बार पढ़ रहा था। सबसे पहले उसने उस अख़बार की मुख्य ख़बर पढ़ी और फिर दूसरी ख़बरों पर यूं ही नज़र दौड़ाता रहा जैसे कोई चलती रेलगाड़ी से बाहर का नज़ारा देखता है। नज़र कहीं टिक नहीं पाती। शायद इसलिए कि गाड़ी बहुत तेज़ चल रही होती है। और, फिर जब कोई छोटा सा स्टेशन आता है तो गाड़ी के पहियों की गति ज़रा धीमी होती है तो आदमी कुछ और तो नहीं बस उस स्टेशन का नाम ज़रूर पढ़ लेता है । इस सब में न तो ऑंखों का कसूर होता है और न ही दिल का । सारी बात तो गाड़ी के पहिए की होती है, जो न ऑंख होती है, न दिल। और कितनी अजीब बात है कि ऑंखों और दिल वाला व्यक्ति लोहे के छोटे से पुर्जे के सामने बेबस हो जाता है । जिसे दिल चाहता है, उसे ऑंख देख नहीं सकती और जहाँ ऑंख रुकना चाहती है वहाँ नज़र नहीं ठहरती। ये सब यंत्रों के खेल हैं और, आजकल कुछ ऐसे ही खेल खेले जाते हैं। दिल के खेल या तो आदमी भूल ही गया है, और यदि कोई खेलता भी है ते इस तरह जैसे कोई ऍंधा बगैर छड़ी के चल रहा हो ।
उस बेरी की छांव नहीं थी। और उसके नीचे एक लड़का अख़बार पढ़ रहा था। उसके हाथों में ख़बरों से भरा क़ागज़ का एक पुर्जा था और उसे ऐसा लग रहा था मानो वह क़ागज़ की रेलगाड़ी में बैठा हो। उसकी ऑंख किसी एक ख़बर पर नहीं ठहरती थी। शायद इसलिए कि वह बहुत कम समय में सारी ख़बरें पढ़ लेना चाहता था। कुछ लोगों की यह ख़्वाहिश होती है इधर दरिया में पाँव रखें और पलक झपकते ही दूसरे किनारे पर जा पहुंचें। दरिया भी पार कर लें और पोशाक भी न भीगे। ऐसे व्यक्तियों के हाथ न तो कोई सच्चा मोती आता है और न ही ख़ालिस पत्थर। उस वक्त उस लड़के की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। उसके हाथ में अख़बार था और वह एक भी ख़बर ठीक से नहीं पढ़ पाया था। क़ागज़ की इस रेलगाड़ी की रफ़तार कुछ धीमी हुई तो उस लड़के की नज़रों के सामने ख़बरों का एक छोटा सा स्टेशन आ खड़ा हुआ। गाड़ी चूँकि क़ागज़ की थी इसलिए उसे खड़ी करने में कोई मुश्किल नहीं आई। वह बड़े गौर से उस ख़बर को पढ़ने लगा। वह ख़बर पढ़ने में तल्लीन था कि एक लड़की चुपचाप उसके पास आ खड़ी हुई थी।
यह लड़की अकेली नहीं थी, इस दुनिया में उस जैसी अन्य लड़कियां भी रही होंगी । परंतु, जब कोई लड़की किसी लड़के के पास आ खड़ी हो, तो वह शेष सभी लड़कियों से भिन्न हो जाती है। और सच पूछें तो जब तक कोई व्यक्ति इस दुनिया से भिन्न न हो, उसका इस दुनिया से कोई रिश्ता नहीं होता। बारिश की बूँद यदि बादलों में ही रहे तो वह एक बेकार सी वस्तु है। वह बूँद तब बनती है, जब वह अलग होकर किसी सीप के मुँह में गिरती है। यह लड़की भी शेष दुनिया से अलग सी हो गई थी। और वह चाहती थी कि यह लड़का अपने दिल के दरवाज़े खोल दे और यह लड़की हाथों में मेंहदी लगाए, नाक में नथ, माथे पर झूमर और पाँवों में पाजेब पहन कर उसके दिल रुपी घर में घर कर ले। व्यक्ति का दिल भी तो सीप की तरह ही होता हे, जिसमें कोई दूसरा व्यक्ति बारिश की बूँद सा गिरता है और मोती बन जाता है। यह लड़की भी अन्य लड़कियों से अलग, मोती बनना चाहती थी । पत्थर बन कर तो हर कोई जी लेता है, परंतु मोती बनकर कोई विरला ही जीना चाहता है । इसीलिए यह लड़की दुनिया को छोड़ इस लड़के के पास आ खड़ी हुई। पहले तो वह ख़ामोश ख़ड़ी रही, फिर पता नहीं उसे क्या हुआ कि उसने उस लड़के के हाथों से अख़बार छीन लिया । लड़का बड़े प्यार से उसे देखने लगा। फिर धीमे से स्वर में बोला - ‘ख़ाक पता था।’ लड़की ऑंखें मटकाते हुए बोली, ‘तुमने तो मेरी तरफ देखा ही नहीं।’
‘मैंने तुम्हारी आहट सुन ली थी।’
‘तुम झूठ बोल रहे हो, आदमी के गीली मिट्टी पर चलने से क़दमों की आहट नहीं होती।’
लड़की के मुँह से सच्ची बात सुनकर वह भी ऑंखें झपकाने लगा।
लड़की प्यार से बोली - ‘हार गए न ?’
लड़के ने सिर हिलाकर हामी भरी। अचानक लड़की का रंग बदल गया । उसने नज़रें झुकाईं और शर्माते हुए रुऑंसी सी बोली - ‘तुम रोज़ ही मुझसे हारते हो । एक ही बार मुझे जीत क्यों नहीं लेते ? मुझे अपने घर ले चलो।’
यह कहकर लड़की उसकी तरफ यूँ देखने लगी मानो उसने हार मान ली हो। अब लड़के का रंग बदल गया। उसने नज़रें झुकाईं और कुछ अनमने से बोला-
‘मैंने तुम्हें पहले भी कहा था कि मैं तुम्हें घर नहीं ले जा सकता। मेरा कोई घर नहीं है और जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ वह लड़की आएगी जिसे मेरी माँ लाना चाहेगी। इसलिए कि मेरे पिता के घर में मेरी माँ भी इसी तरह आई थी।’
‘यदि ऐसी बात है तो तुम अपना घर बदल लो।’
लड़की ने उसे घूरते हुए कहा, और
फिर लड़का बोला - ‘मैं घर बदलना नहीं चाहता, घर बनाना चाहता हूँ।’
‘अकेले रहोगे तो घर कभी नहीं बनेगा।’
‘मैं अकेला नहीं हूँ, तुम मेरे साथ हो।’
‘तो फिर तुम मुझे अपने घर क्यों नहीं ले जाते ?’
‘मैं सब कुछ कर सकता हूँ, परंतु यह नहीं कर सकता। मैं पराए घर का कैदी हूँ।’
लड़के की यह बात सुनकर लड़की ने उसकी तरफ ऐसे देखा मानो कह रही हो -
‘एक बार फिर हार गए न ?’ अब लड़के का रंग बहुत ही बदल गया था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या बात करे। उसने उस लड़की के हाथों से अख़बार छीन लिया और ध्यान हटाने के लिए कहा - ‘मैंने एक अजीब ख़बर पढ़ी है, एक लड़के को एक लड़की बहुत अच्छी लगती थी, परंतु लड़की के माता-पिता उसकी शादी कहीं और करना चाहते थे। फिर पता है क्या हुआ? वह लड़का ज़बरदस्ती उस लड़की को भगा ले गया।’
उसका ख़्याल था, यह ख़बर सुनकर लड़की को बहुत अफ़सोस होगा और बाकी समय वे उस ख़बर की बातों में ही गुज़र देंगे परंतु, वह लड़की बोली - ‘ऐसी ख़बरें तो अख़बारों में रोज़ ही होती हैं।’
इतना कहकर वह लड़की चली गई और उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा । जबकि रोज़ जाते वक्त वह बार-बार उसे मुड़-मुड़ कर देखा करती थी।
उस बेरी की छांव नहीं थी।
सर्दियों के दिन थे, और शाम का वक्त। सूर्य का प्रकाश नहीं था इसलिए बेरी की नंगी, सूखी टहनियों की कोई परछाई भी नहीं थी । उस वक्त तो वह खुद एक परछाई लग रही थी । लड़का उस बेरी से सट कर खड़ा था । उसके अपने मन में कोई विचार नहीं था बल्कि विचारों के साये थे । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि दीवार से सट कर खड़े व्यक्ति को चाँद नज़र ही नहीं आता । दिल में दीवारें अधिक हों तो विचारों का चंद्रमा भी ओट में ही रहता है । बहुत कुछ सोचते हुए भी वह लड़का कुछ भी नहीं सोच रहा था । और वही लड़की एक बार फिर उसके पास आई । आज उसकी ऑंखों में सूर्योदय का प्रकाश था । वह बहुत खुश थी और यह खुशी उसे उसके दिल ने ही दी थी । लड़के के पास खड़ी होकर वह बड़े प्यार से देखने लगी और फिर धीमे से बोली -
‘आज मैंने एक अजीब ख़बर पढ़ी है।’
‘कौन सी ?’ लड़के ने प्यार से पूछा ।
एक लड़की को एक लड़का बहुत अच्छा लगता था पर उस लड़के के माता-पिता उसकी शादी किसी अन्य लड़की से करना चाहते थे और पता है फिर क्या हुआ? वह लड़की ज़बरदस्ती उस लड़के को लेकर भाग गई ।
उसका ख़्याल था यह ख़बर सुनकर रोज़ हारने वाला लड़का आज ज़रूर जीत जाएगा । परंतु वह लड़का खिल-खिलाकर हंस पड़ा और हंसते-हंसते बोला -
‘झूठ, ऐसा कैसे हो सकता है ? बिलकुल झूठ । भला कभी कोई लड़की भी किसी लड़के को भगा कर ले जा सकती है ?’ इतना कहकर वह लड़का फिर हंसने लगा ।
‘और यह भी नहीं हो सकता।’
लड़की ने अपने मन में सोचा और फिर वह ध्यान बंटाने के लिए बोली - ‘देखो, इस बेरी की छाया ही नहीं है।’ यह कहकर वह लड़की खिल-खिला कर हंस पड़ी । अब लड़का भी हंस रहा था, लड़की भी हंस रही थी । और, पास से गुज़र रहे एक तीसरे व्यक्ति ने देखा कि हंस रही लड़की की ऑंखों में ऑंसू थे ।
साभार - महानगर गार्जियन(कोलकाता) वार्षिक अंक - 2004

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