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शनिवार, जून 26, 2010

काबुलीवाले की बंगाली बीवी (फ्लैश बैक- 3)

(लेकिन दीदी आजकल आप हैं कहाँ ?)

इस आलेख से पहले आप काबुलीवाले..... की फ्लैश बैक-1 व 2 के तहत् दो समीक्षाएं पढ़ ही चुके हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि अब अचानक इतने सालों बाद इन समीक्षाओं की क्या तुक ?

दरअसल यह सब लिखने का ख़याल इसलिए भी आया क्योंकि पिछले कुछ महीनों पहले मुझे बड़ी शिद्दत से उनकी तलाश थी। उनका जो पुराना पता था, वह फ्लैट बदल चुका है। एक ही शहर में रहते हुए न ही बांगला साहित्यिक मित्रों तथा न ही उनके बांगला प्रकाशक से मुझे उनका संपर्क सूत्र उपलब्ध हो पाया।

और उन दिनों कहाँ तो वे इतनी लाईम लाईट में थी कि हिन्दी अनुवाद आने से लगभग साल भर पहले बांगला भाषी मित्रों के माध्यम से प्रस्ताव आया था कि यह किताब बांगला में खूब बिक रही है। इसे पढ़ कर देखिए। किताब को मैंने सरसरी तौर पर पढ़ा परंतु अनुवाद का मन नहीं बना। लेकिन डेढ़-दो वर्षों बाद अचानक जब तालिबान सक्रिय हो गए तो नज़ारा ही बदल गया। लेखिका को लोगों ने हाथों-हाथ लिया था। क्या प्रिंट और क्या इलैक्टॉनिक मीडिया। तब सोचा चलो अनुवाद कर ही लिया जाए। लेखिका को तलाशा गया, बात की गई मगर उनके रिकॉर्ड की सुई एक ही बात अटकी रही – आमाके तिरिश हाजार टाका दिते हौबे (अर्थात् मुझे तीस हजार रुपए दीजिए)। ख़ैर उन्हें कौन समझाए कि कहाँ तो अनुवादक अपने पारिश्रमिक की मांग करे और कहां वे हैं कि उन्हें भुगतान करने का राग अलापे जा रहीं हैं। उन्हें समझाया गया कि पहले अनुवाद की अनुमति तो दें, अनुवाद होगा, प्रकाशक तलाशा जाएगा, वह प्रकाशन के लिए राज़ी होगा तब तो पैसे की बात आती है। लेकिन वे यही कहती रहीं मुझे बांगला वाले इतना दे रहे हैं, अमुक चैनल वाले इतना दे रहे हैं। खैर, उनसे अनुमति मिलने के बाद मैंने राजकमल प्रकाशन के प्रबंधक महोदय से फोन पर बात की और मार्केट की फीड बैक तथा संभावनाओं को देखकर वे तैयार हो गए। कहाँ मोहतरमा एक किताब यानी काबुलीवाले.... के लिए तीस हज़ार अग्रिम की माँग कर रही थीं और कहाँ प्रकाशक ने उनकी तीनों किताबों का अनुबंध कर लिया। यकीन मानिए ऑफिस से दो हफ्ते की अर्जित छुट्टी लेकर मैंने दिन-रात अनुवाद करके काबुलीवाले..... को पूरा किया। मार्केट में इसकी क्रेज देखते हुए प्रकाशक की तरफ से भी दबाव था कि जल्दी ख़त्म करें। सोचिए सुबह शाम जब इन्सान अपने इष्ट देव की पूजा-आराधना करता है तब मैं तालिबान..... का पाठ कर रही होती तड़के तीन-चार बजे। बाद की सीरीज़ की दोनों किताबों में मुझे उतना मजा़ नहीं आया क्योंकि उनमें ज्यादातर पुनरावृति वाले विवरण ही थे। वैसे मैं प्रोफेशनल अनुवादक हूं, लेकिन इतनी भी नहीं कि पैसों की ख़ातिर कोई भी काम हाथ में ले लो। मैं अपनी आत्म-संतुष्टि और पसंद के आधार पर पुस्तकों का चयन करती हूं। यह पहला ऐसा काम था जो बाज़ार की माँग और संभावनाओं को देखते हुए मैंने हाथ में लिया था। ख़ैर ऑफिस से छुट्टी लेकर घर बैठ इस किताब पर काम कर रही थी और सिर्फ़ तीन पृष्ठ बाकी थे, लेकिन शाम को एफ. एम. की ड्यूटी पर परफॉर्म करने जाना था, सो तीन बजे तक घर से निकलना था सोचा रात को आकर पूरा कर लूंगी। बीच में ही एक लेखक तथा उपक्रम के अधिकारी महोदय का फोन आ गया, उन्होंने आवश्यक कार्य की दुहाई देकर जल्दी से जल्दी मिलने की बात कही। चूँकि मैं छुट्टी पर थी और उस दिन तो मुझे रेडियो के काम से निकलना ही था तो सोचा जाते-जाते उनसे मिलते हुए रेडियो स्टेशन चली जाऊँगी। लिहाज़ा वे तीन पृष्ठ मुझे बीच में ही छोड़ने पड़े। उनसे मिलने का तकाज़ा न होता तो संभवत: अपने निकलने के शेडयूल तक मैं उनकों पूरा कर ही लेती।

जब उनसे मिली तो जो कार्य बताया गया वह उतना महत्वपूर्ण नहीं था जिस हिसाब से तकाज़ा किया गया था। हार कर मुझे कहना ही पड़ा कि इतना आवश्यक काम तो यह नहीं था जितना आवश्यक काम मैं घर पर छोड़ कर आई हूँ। उल्लेखनीय है कि कलकत्ते के साहित्यिक जगत में किसी को कानों-कान ख़बर नहीं थी कि मैं उस किताब पर काम कर रही हूँ। उन्होंने पूछा, ऐसा कौन सा काम कर रही हैं आप? सोचा अब तो काम लगभग पूरा हो चुका है अब बताने से क्या फर्क़ पड़ता है। मैंने बता दिया कि बांगला की अमुक किताब का काम कर रही हूं। छूटते ही उन्होंने कहा, आप कैसे कर रही है, यह सब करने का ठेका तो हमारी मैडम (उनके अधीन कार्यरत हिन्दी अनुवादक) ने ले रखा है। बस फिर क्या था उन्हें तो मौका मिल गया होगा मैडम को सुनाने के लिए कि अरे, आप क्या सोचती हैं, शहर में और भी लोग है काम करने वाले। इन बातों का पता मुझे बाद में चला। (ख़ैर, आज की तारीख़ में दोनों ही इस दुनिया में नहीं रहे)। यकीन मानिए अगले दिन लेखिका का फोन आता है कि मुझे किसी का फोन आया था, कहा गया कि हमने इस किताब का अनुवाद कर लिया है, आप सिर्फ़ अनुवाद की अनुमति दे दें। और वे मुझे इसके लिए और भी ज्यादा पैसे ऑफर कर रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि दीदी सोच लीजिए, आप मुझे लिखित अनुमति दे चुकी है, इन लोगों ने आपकी अनुमति के बगैर ही अनुवाद पूरा भी कर लिया ? बाद में मुझे दोष मत दीजिएगा, ज्यादा पैसे के लिए आप कुछ भी कर लेंगी? यानी उस हॉट केक को भुनाने के लिए लोग तिकड़में भिड़ाने लगे और माज़रा मेरी समझ में आ गया कि मार्केट में इसकी भनक कैसे और कहाँ से लगी। मैंने अपने प्रकाशक को बताया और उन्होंने मुझे जल्द से जल्द काम ख़त्म कर डिसपैच करने को कहा, साथ ही यह भी कहा लेखिका को हम एडवांस दे चुके हैं, ऐसी स्थिति में वे किसी और से अनुबंध नहीं कर सकतीं, आप बेफिक्र रहिए। तब से मैंने सबक लिया कि चुपचाप काम करो, किसी को कुछ मत बताओ। अब जब भी कोई मिलता है और रस्मी तौर पर पूछा जाता है कि आजकल क्या हो रहा है, किस पर काम कर रही हैं, जवाब में कहती हूं बस, कुछ खास नहीं। और ...... फिर किताब के प्रकाशन के बाद कोलकाता पुस्तक मेले में उसकी हिन्दी बेस्ट सेलर के तौर पर खूब बिक्री हुई।

और जिन दिनों उनकी मीडिया में बहुत पूछ थी मैंने घर बैठे-बैठे देखा कि वे चैनेल्स पर साक्षात्कार दे रही थीं, गोद में हिन्दी अनुवाद रखा हुआ था, परंतु उन्होंने एक बार भी अनुवादक का नाम नहीं लिया कि अमुक ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। मिलने पर मैंने उनसे कहा कि दीदी आप तो मीडिया वालों से ऐसे बात कर रही थीं मानो किताब सीधे हिन्दी में लिखी गई हो, आपने मेरा नाम एक बार भी लेना ज़रूरी नही समझा। तो, उन्होंने कहा – भूल होए गेछे, सॉरी।

फिर दैनिक ट्रिब्यून में अचानक इसकी समीक्षा देखी। समीक्षक मेरे परिचित नहीं थे, लेकिन उन्होंने समीक्षा में अनुवादक का ईमनादारी से जि़क्र किया था। समीक्षा के बाद मैंने ट्रिब्यून के दफ्तर से उनका (रतन चंद्र रत्नेश जी) संपर्क सूत्र प्राप्त कर उनसे संपर्क किया जो आज भी क़ायम है। फिर अचानक हंस में समीक्षा पर नज़र पड़ी। दो पृष्टों की लंबी चौड़ी सारगर्भित समीक्षा थी परंतु दो पन्नों के इतने बड़े आलेख में अनुवाद या अनुवादक पर टिप्पणी करने की ज़रूरत महसूस नहीं की गई। मैडम दूर्वा जी से जब मैंने पत्र में शिकायत करते हुए अपनी बात पहुंचाई तो उन्होंने जो जवाबी लॉलीपॉप थमाया वो कुल मिलाकर इस प्रकार था कि – नीलम जी आपका अनुवाद इतना बढ़िया था कि पढ़ते वक्त आदमी को महसूस ही नहीं होता कि वह अनूदित रचना है। मुझसे जो चूक हुई, उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ।

समीक्षा सारी दुनिया के सामने से ग़ुज़री और चूक जो हुई उसे कोई न जान पाया।

यानी अनुवाद कार्य या अनुवादक को गंभीरता से लेने की आवश्यकता कोई नहीं समझता। अक्सर लोग कह देते हैं, छोड़िए न अनुवाद में क्या रखा है। अपनी कविता या कहानी लिखिए। मानो अनुवाद कार्य दोयम दर्जे का काम हो। दूसरों की संतान का लालन-पालन करने समान लेकिन साहब माता देवकी ने भगवान कृष्ण को सिर्फ़ जन्म दिया था, उनकी बाल लीलाओं के रसास्वादन का मौका तो मैय्या यशोदा को ही मिला।

ख़ैर, अनुवाद कार्य के दौरान एक दिन किसी मुलाक़ात में मैंने लेखिका से पूछा था कि क्या हिंदुस्तान लौट कर जांबाज को ढूँढा आपने ? तो उन्होंने बताया कि जांबाज के साथ ही रह रही हूँ। यह फ्लैट उसी ने लेकर दिया है। वही तो खर्चा दे रहा है। मैंने पूछा था, जो व्यक्ति आपको धोखे से एक अजनबी देश में अजनबी लोगों के बीच छोड़कर भाग आया और अपनी कोशिशों से इतनी मशक्कतों के बाद आप देश लौटती हैं और फिर से उसी आदमी के साथ एक ही छत के नीचे कैसे रह पाती हैं? कम से कम मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती। जवाब में उन्होंने कहा था, मेरे पांवों तले अपनी ज़मीन भी नहीं है, मुझे तो उस पर ही निर्भर रहना है। लौटकर सबसे पहले मेरे सामने खुद को स्टैंड करने का सवाल था, मायका तो मेरा रहा नहीं, वहां तो ठौर मिलने से रहा, कौन सा मुंह लेकर जाऊँगी। ख़ैर, हो सकता है उनका नज़रिया या जवाब सही हो, पर मेरे गले नहीं उतरा। वैसे उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी, कोई और युवती होती तो सिसक-सिसक कर, एडियां रगड़-रगड़ वहीं मर-खप जाती, हिंदुस्तान शायद ही लौट पाती।

उपन्यास पर फिल्म भी बनी, एस्केप फ्राम तालिबान। मनीषा कोईराला ने सुष्मिता की भूमिका निभाई। पुस्तक और फिल्म के कथानक में कोई तारतम्य नहीं दिखा। फिल्म सक्सेसफुल भी नहीं रही।


- नीलम शर्मा ‘अंशु’

पुस्तक समीक्षा

काबुलीवाले की बंगाली बीवी (फ्लैश बैक - 2)

साभार - हंस, अप्रैल, 2002

वध-स्थल से छलांग

० दूर्वा सहाय


इन दिनों बांगला में बेहद चर्चित सुष्मिता बंद्योपाध्याय का उपन्यास ‘काबुलीबाले की बंगाली बीवी’ पढ़ कर लगा मानो बैटी महमूदी का ‘नॉट विदाउट माई डॉटर’ उपन्यास का भारतीय रूपांतरण ही पढ़ रही हूँ। दोनों पात्रों की विडंबनाओं और यातनाओं के भौगोलिक क्षेत्र अलग हैं दोनों ही इस्लामी धर्मांधता की शिकार हैं मगर स्वतंत्रता की तड़प और विषम परिस्थतियां एक जैसी हैं।

सुष्मिता कलकत्ते में रहने वाले एक अफ़गानी युवक जांबाज खां के प्रेम में पड़ जाती है और कुछ समय के लिए उसके साथ अफ़गानिस्तान चली जाती है। पति वापस कलकत्ते आ जाता है। पीछे रह जाती है सुष्मिता – कष्ट भोगने, उधर नॉट विदाउट माई डॉटर में बैट्टी और उसका पति डॉ. सैय्यद नॉज़ोर महमूदी उसे ईरान लेकर जाता है और वहाँ लगभग कैद कर ली जाती है। उसे अमेरिका से ईरान दो हफ्ते की यात्रा के आश्वासन पर ले जाया गया है मगर समय गुज़रते ही बैट्टी को पता चलता है कि वह और उसकी चार साल की बेटी अजनबी देश में एक अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति द्वारा बंधक बना लिए गए हैं। अब वह कभी भी अपने घर अमरीका नहीं जा सकती। वहाँ अधविश्वास, धार्मिक जड़ताएँ, अस्वास्थकर रहन-सहन, पश्चिम निवासियों मुख्यत अमेरिकियों के प्रति घृणा और वहाँ की औरतों की गुलामी दखकर भयमीत लेखिका जल्द से जल्द अमरीका लौटने के लिए लिए बेचैन हो जाती है। मुक्ति की दिशा में लिए गए दुस्साहसी प्रयासों की कहानी है यह उपन्यास। डॉ। महमूदी और उसके परिवार के इरादे भांपने में उसे समय नहीं लगता। महमूदी हर वक्त या तो खुद या परिवार के किसी दबंग सदस्य को उसकी पहरेदारी के लिए छोड़ जाता है। उसके बावजूद पति और उसके डरावने गुप्तचरों की आँखों में धूल झोंककर बैट्टी ऐसे लोगों से मिलती है जो खुमैनी के बर्बर शासन के खिलाफ़ हैं। अपने हमदर्दों के साथ मिलकर वह कई बार भागने की योजना बनाती है लेकिन हर योजना के तहत् उसे अपनी पुत्री को छोड़ने की समस्या का सामना करना पड़ता है, इसलिए वह तैयार नहीं होती। डेढ़ वर्ष तक वह ईरान में पति के चंगुल में फंसी रहती है, अंतत: उसे एक ऐसे व्यक्ति का पता चलता है जो उसके बेटी को लेकर अमरीका वापसी की जोखिम भरी यात्रा करने के लिए तैयार है। इस दु:स्वपनभरी वापसी के प्रयत्नों में वे किस तरह विस्मयकारी बर्फीले तूफान में घिर जाते हैं। इस रोमांचकारी अभियान से गुज़रकर लगता है मानो खुद हम एक भयानक दु:स्वपन के बीच हैं। यहाँ कुछ रास्ते गाड़ी से तय होते हैं तो कुछ बर्फीली पहाड़ियों में रात के समय घोड़े की पीठ पर।


‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ में लेखिका कलकत्ते के अफगानी पठान जांबाज खां की मुहब्बत में पड़ जाती है और बिना सोचे-समझे उसके साथ अफगानिस्तान चल पड़ती है। वह हर विषम परिस्थिते में पति के साथ खुश है। कभी जब उसका मन वापस घर आने के लिए व्याकुल होता है रो-धोकर चुप हो बैठती है। यहाँ पति किसी तरह की कोई ज़्यादती नहीं करता बल्कि अक्सर वही जांबाज को बुरी तरह मारपीट बैठती है, नोंच लेती है, दाँतों से काटकर लहुलूहान कर देती है। पति चुपचाप सब कुछ सहता है। ज़रूरत पड़ने पर युद्ध के माहौल में भी जान जोखिम में डाल कर तालिबानों से बचते-बचाते शहर ले जाकर इलाज भी करवाता है। ऐसा तीन साल तक चलता है और एक रात वह वापस नहीं लौटता। काफ़ी रोने-धोने के बाद वह समझ जाती है कि उसे उसी नरक में छोड़कर उसका पति कलकत्ता भाग गया है। हाँ, वह कलकत्ते से लगातार अपने समाचारों से भरे ऑडियो कैसेट और रुपए भेजता रहता है। शादी से पहले भी पैसे कमाने के लिए वह कलकत्ता रह रहा था। पति के चले जाने के बाद यहाँ शुरू होती है उसके कठिन जीवन की यातनाएं। तान-चार वर्षों तक यंत्रणाएं सहने, देवरों से मार खाने के बाद वह भागकर पाकिस्तान के रास्ते हिंदुस्तान लौट आती है। घर से भागने से पहले वह अपनी गोद ली हुई पुत्री तिन्नी को भी अपने साथ लाती है जिसे पाकिस्तान में उसके देवर ज़बरदस्ती छीन लेते हैं। अपनी बेटी के साथ बैट्टी की दुस्साहसिक यात्रा और तिन्नी के साथ सुष्मिता की यात्राओं में अजीब समानता है।


सही है कि उपन्यास की नायिका सुष्मिता दुस्साहसी नारी है। बिना दुस्साहस के तो ऐसी परिस्थितियों में रात-बेरात भूख-प्यास सहना संभव नहीं होता। मगर एक जगह तालिबानों पर मशीनगन तान लेना और यह धमकी देना कि ‘तुम लोग मुझे जाने दो, वरना मैंने अपने देश में ख़बर भेज दी है कि यहाँ मुझे ज़बरदस्ती बंदी बनाकर अत्याचार किए जा रहे हैं। अगर मुझे कुछ हो गया तो यह भी जान लो कि हिंदुस्तान में एक भी खान ज़िंदा नहीं बचेगा,’ जैसे फिल्मी डॉयलॉग या तो चमत्कारी लगते हैं या अविश्वसनीय। बैट्टी महमूदी(अमेरिकी) का डेढ़ साल में ही पलायन और सुष्मिता बंद्योपाध्याय (हिंदुस्तानी) का लगभग छह सालों तक असहनीय प्रवास दोनों देशों की औरतों की सहनशीलता पर टिप्पणी है। पीढ़ी-दर-पीढी लगातार कष्टों को सहने की आदत दो अलग मानसिकताएं बनाती हैं। अफगानिस्तान और हिंदुस्तान की औरतों की गुलामी के स्तर में 19-20 का फ़र्क है। काबुली वाले...... में लेखिका बार-बार इस दुर्भाग्य के लिए खुद को दोष देती है और पछताती है, ‘हाय री अभागी लड़की, अनजाने में तुमने कौन सा जीवन चुन लिया। अगर इसी जीवन की तुम्हें चाह थी तो सभ्यता और संस्कृति की खुली हवा को अपनी साँसों में क्यों बसा लिया था.... ’ नॉट विदाउट माई डॉटर में लेखिका रोती है पर पछताती नहीं है। इसके विपरीत अपनी बुद्धि और अपनी समझ को बरकरार रखते हुए लगातार भाग छूटने की तिकड़में जारी रखती है। पहली दफा घर से भागकर जब वह स्विस दूतावास पहुँचती है और वहाँ की कर्मचारी हेलेन को दु:खभरी कहानी सुनाती है तो हेलेन का प्रश्न था, ‘आई डू नॉट अंडरस्टैंड वाई अमेरिकन वूमेन डू दिस?’ (समझ में नहीं आता कि आख़िर अमरीकन औरतें यह सब क्यों करती हैं?)


शारीरिक कष्टों और असुविधाओं के बीच दोनों उपन्यासों की नायिकाओं में हमेशा एक-सा डर समाया रहता है कि कहीं वे वहाँ की औरतों के जैसे तो नहीं बनती जा रहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि एक दिन वे अपनी शिक्षा-दीक्षा, ज्ञान-बुद्धि सबको तिलांजलि देकर उन्हीं में एक बनकर रह जाएंगी? दोनों ही देशों में इनके लिए अख़बार, रेडियो, टीवी कुछ भी तो नहीं है और जो कुछ है वह उनकी अपनी ज़बान में नहीं है इसलिए कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती कि बाहरी दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है। दोनों ही देश भयंकर, अंधविश्वास, जड़ता और मध्यकालीन धार्मिक कट्टरताओं के जीवित नरक हैं। सोलहवीं सदी के इस्लामी कानूनों से संचालित।


काबुलीवाले......में लेखिका के पति का व्यवहार उसके प्रति उस समय अच्छा और प्यारभरा रहा जब-जब वह उसके साथ होती है। उधर नॉट विदाउट में उसका पति दस वर्षों से अमेरिका में रह रहा था। चार वर्षों से डॉक्टरी के पेशे में था और उससे भी पहले दो वर्ष इंग्लैंड में बिता चुका था, मगर अपने देश ईरान लौटकर परिवार वालों के बीच धीरे-धीरे उसमें जो परिवर्तन हुए उन्हें आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। वह भयानक शक्की हो उठता है और चौबीसों घंटे उसकी पहरेदारी करता रहता है कि कहीं वह छोड़कर न भाग जाए। छोटी-छोटी बातों पर उसे जान से मारने की धमकी देता है। मारता-पीटता है जैसे उसने कभी बाहर की कोई दुनिया देखी ही न हो। वह बैट्टी को इस बुरी तरह मारता है कि वह सप्ताह भर बिस्तर से उठने लायक नहीं रहती। फिर एक बार उसे सज़ा देने के लिए बेटी को उससे अलग कर देता है और लंबे समय तक उससे मिलने नहीं देता। जैसे ही स्थिति सामान्य होती है लेखिका का पलायन प्रयास शुरू हो जाता है। वह बेटी को समझाती है, चलो अमेरिका लौट चलें यहां अपनी गुज़र नहीं है। डॉक्टर होने के बावजूद महमूदी उसे नौकरी करने की इज़ाजत भी नहीं देता। अमेरिकन डिग्री का वहाँ कोई मतलब नहीं रह गया था। पति जानता था कि अगर वह वापस लौट आया तो अमेरिकन पत्नी डाइवोर्स ले लेगी और बच्ची भी उसे नहीं देगी। तब किस पर अपनी हुकूमत चलाएगा। राजा को तो हमेशा प्रजा चाहिए वर्ना राजा होने का क्या मतलब है। काबुलीवाले...... की बीवी भी छोटी-मोटी डॉक्टर है और वहाँ के साधनों से आस-पास के बीमारों का इलाज करने की कोशिश करती है। हाँ भागने की यात्राओं का बैट्टी वाला वर्णन जिस तरह रोमांचक और साँस-रोक लगता है सुष्मिता के लिए वैसी कोई दिक्कतें नहीं हैं। हर जगह सहयोगी, सहायक, धन, साधन मिलते चले जाते हैं। साफ़ है या तो इसमें कल्पना का बहुत अधिक पुट है या ऐसा कुछ है जो छिपाय जा रहा है। हो सकता है बंगाली भावुकता के चलते बहुत कुछ का रोमानीकरण कर दिया गया हो।


राजनैतिक स्थितियां दोनों में काफी विस्तार से हैं- सुष्मिता के यहाँ कुछ अधिक ही हैं। दोनों ही उपन्यासों में उन दिनों को लिया गया है जब युद्ध छिड़े हुए हैं। वर्षों से चले आ रहे मोर्चे, मुठभेड़ और युद्ध तथा उनके परिणामों का चित्रण भयावह और जीवंत है। महमूदी के उपन्यास में उस इस्लामी आंदोलन का वर्णन है जब जन-विद्रोह के कारण शाह रज़ा पहलवी को देश छोड़कर फ्रांस भगना पड़ा और पश्चिमीकरण के खिलाफ़ आयतुल्ला खुमैनी ने मुल्क़ की बागडोर संभाली। वैसे 1952 में मुसद्दी के मरने के बाद से ही वहाँ अराजकता के दौर शुरू हो गए थे। लगातार उबरने वाले शिया-सुन्नी झगड़े और इराक के साथ चलने वाले सीमा-विवाद तो लगे ही थे। उधर अफगानिस्तान में पहले रूसी सैनिक, फिर गृह युद्ध, फिर तालिबानी हुकूमत अर्थात् कट्टरता का वह दौर जब दाढ़ी न रखने पर, मस्ज़िद जाकर नमाज़ न पढ़ने पर हत्या कर दी जाती थी। औरतों को ऊपर से नीचे तक बुर्कों में धकेल कर ज़िंदा ताबूतों की शक्लें दे दी गई थीं। औरत के शरीर का कोई भी हिस्सा दिखाई देने पर सीधे गोली मारी जा सकती थी। नौकरी करने या बाहर जाने का तो सवाल ही नहीं था। वहाँ न तो फिल्में देखी जा सकती थीं, न टीवी और न रेडियो। मुझे लगता है इस लोमहर्षक वातावरण को सुष्मिता उतनी गहराई से नहीं पकड़ पाई है जितना बैट्टी ने पकड़ा है। मगर दोनों जगहों की घुटन, हताशा, अत्याचार में अधिक अंतर नहीं है। हालत तो यह है कि जब सुष्मिता अफगानिस्तान से भागकर पाकिस्तान आती है तो उसे लगता है जैसे एक बंद गुफा से निकल कर खुले में आ गई हो, जहां रेडियों, टीवी और खुले में घूमती औरतें हैं, आधुनिकता की हवाएं हैं, हलाँकि इस्लामिक कट्टरता पाकिस्तान को भी अफगानिस्तान बनाने की ओर धकेल रही है।

दोनों
उपन्यासों का एक उत्साहवर्धक पहलू यह है कि नायिकाएं या तो भगवान पर विश्वास रखती हैं या फिर किसी चमत्कार पर निर्भर हैं। अनजाने ही भगवान पर विश्वास करते-करते वे खुद पर ही इस प्रकार विश्वास करने लगती हैं कि बेहद साधारण औरतें होने के बावजूद मुक्ति के विस्मयकारी और रोमांचक चमत्कार को साकार करके दिखा देती हैं। दोनों ही स्त्री के साहस और संकल्प की प्रेरणादायक कहानियां हैं जो स्त्री को हर कैद से मुक्ति का अश्वासन देती हैं। आख़िर हर भारतीय स्त्री अपने घर-परिवार के अंधेरों में छोटे-छोटे ईरानों और अफ़गानिस्तानों में ही तो साँस ले रही हैं।






पुस्तक समीक्षा
काबुली वाले की बंगाली बीवी
( फ्लैश बैक - 1 )
साभार - दैनिक ट्रिब्यून, 17 मार्च, 2002


धार्मिक कठमुल्लेपन के विरुद्ध एक और लेखिका का जेहाद


0 रतन चंद ‘रत्नेश’



धार्मिक कट्टरवाद और कठमुल्लेपन पर कलम चलाकर जिस तरह बांगलादेश की तसलीमा नसरीन और पाकिस्तान की तहमीन दुर्रानी चर्चित हुईं, उसी कड़ी में भारतीय लेखिका सुष्मिता बंद्योपाध्याय भी बांगला में एक आत्मकथात्मक उपन्यास ‘काबुलीवालार बांगाली बोऊ’ लिखकर चर्चा में आ गई हैं। बतौर बेस्ट सेलर बांग्ला में यह पुस्तक सात लाख और अंग्रेजी अनुवाद में एक लाख से अधिक बिक चुकी है, और अब यही कृति हिन्दी में ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ नाम से प्रकाश में आई है, जिसका अनुवाद नीलम शर्मा ‘अंशु’ ने बेहतर ढंग से किया है। जहां तसलीमा ने बांगलादेश की धार्मिक रूढ़िवादिता को अपना निशाना बनाया था और तहमीना ने पाकिस्तान की, सुष्मिता ने अपनी इस कृति में अफगानिस्तान की पुरुष दमनकारी नीतियों और तालिबानी पृष्ठभूमि की निरंकुश धार्मिक कट्टरताओं को बेनकाब किया है।

इस संदर्भ में लेखिका ने अपनी भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि किसी विशेष धर्म व्यक्ति या धार्मिक दर्शन को बेवजह आघात पहुँचाने की उनकी मंशा नहीं है। समाज और जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है और वह उसे दिल से स्वीकार करती हैं, परंतु धर्म के नाम पर प्रबल वीभत्सता और संत्रास उत्पन्न कर, धर्म की दुहाई देकर जो लोग इन्सानों के बीच अलगाव की दीवार खड़ी करते हैं, स्त्रियों की स्वाधीनता छीनकर उन्हें अंत:पुर की अंधेरी दुनिया में भेज देते हैं, निर्विकार संहार और लोगों की हत्याएं करते हैं, उन्हीं के विरुद्ध उन्होंने कलम उठाई है।

हालांकि, इसे आत्मकथात्मक उपन्यास बताया जा रहा है, पर यह आत्मकथा या डायरी अधिक और उपन्यास कम लगता है। सुष्मिता ने समाचारपत्रों में मुखर होकर जो कुछ अफ़गानिस्तान के बारे में लिखा या कहा था, वह भी अक्षरश: यहाँ नहीं है। जैसा कि उसने वहां के कुछ पात्रों और तालिबानों से बुरी तरह प्रताड़ित या मारपीट का ज़िक्र किया था जो कि इस पुस्तक में खुलकर नहीं आया है। इसके विरपीत लेखिका ने बहादुरी से उनसे टक्कर लेने तक की बात की है, हथियार भी अपने हाथ में थामा है और यही अधिक उभरा है। संभवत: इन्हीं कुछ घटनाओं के मद्देनज़र इसे उपन्यास का नाम दे दिया गया हो। इसी उपन्यास की अगली श्रृंखला में क्रमश: ‘तालिबान, अफ़गान और मैं’ और ‘एक अक्षर भी झूठा नहीं’ लिखी गई है और एक फ़िल्म भी बन रही है जिसे लेकर लेखिका पर अपने परिवार और बाहरी ताकतों का दबाव बना हुआ है। स्वयं उसके पति जांबाज खान जो सन् 1990 से कोलकाता में है, का मानना है कि अफ़गानिस्तान में रह रहे उसके परिवार को यह विवादग्रस्त फ़िल्म या पुस्तक मुश्किल में डाल सकती है।

लेखिका की यह पुस्तक मूल रूप में उन्हीं दिनों चर्चा में आ गई थी, जब वहाँ तालिबान का दमनकारी शासन था और आठ साल कैदियों की तरह रहकर वह अपने मायके कोलकाता लौट आने में सफल हो गई थी तथा अपनी पुस्तकों व लेखों के माध्यम से वहां की कुव्यवस्था का खुलासा करना शुरू कर दिया था। कोलकाता एक अरसे से पठानों या काबुलीवालों के व्यवसाय का केन्द्र रहा है और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘काबुलीवाला’ नाम से एक बेहद मार्मिक कहानी लिखी थी जिसका ज़िक्र भी इस कृति में एक-दो स्थानों पर आता है और उन थोड़े से शब्दों से ही तब के काबुलीवाले और आज के काबुलीवाले का चरित्र स्पष्ट हो जाता है। ‘अफ़गानिस्तान और यहाँ के बाशिन्दों के विषय में अच्छा लगने का बोध रवीन्द्रनाथ की कहानी ‘काबुलीवाला’ के पात्र रहमत के माध्यम से जगा था, परंतु आज उस रहमत खां का देश एक कलंक-सा लगता है। क्या यही रहमत का देश है? क्या इसी देश में रहमत की बेटी रहती थी? यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति को असहायता लील रही है। पहाड़ों, पथरीली ज़मीन, खुले आकाश हर तरफ मानों हज़ार-हज़ार, लाखों-लाखों मनुष्यों का आर्तनाद, शिशुओं का रूदन सुनाई पड़ता है। तब तो और भी हैरानी होती है जब रहमत खान जैसे व्यक्ति की कोई भी झलक यहाँ के लोगों में देखने को नहीं मिलती। तब सोचती हूँ कि क्या सचमुच रवीन्द्रनाथ को रहमत जैसा कोई व्यक्ति मिला था या सब कल्पना मात्र थी।’ (पृष्ठ 21-22)
यहाँ विरोधाभास यह है कि लेखिका ने ऐसे कुछ लोगों की भी चर्चा की है जिन्होंने कमोबेश उनकी सहायता की। संभवत: अकेलेपन का एक लंबा प्रवास उनके मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है और वह वहाँ के लोगों की विवशता को अनदेखा कर जाती है।

कॉन्वेंट में पढ़ी लेखिका युवावस्था में कोलकाता में एक अफ़गानी युवक जांबाज खाँ से परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ प्रेम-विवाह करती है और पति ससुराल दिखलाने के बहाने उसे अफ़गानिस्तान के एक गाँव में छोड़कर (बिन बताए) वापस कोलकाता लौट आता है। अकेली लेखिका वहाँ अपने देवरों और अन्य पुरुषों के अत्याचार का शिकार होती रहती है और एक बंदी सा जीवन व्यतीत करती है। उस पर समस्त अफ़गानिस्तान में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है और महिलाओं का पुरुष संरक्षण के बिना बाहर निकलना नामुमकिन है। पवित्र धर्मग्रंथ की झूठी कसमें खाने वाले गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे लोग भाई से भाई को लड़ाकर सत्ता जमाने की फ़िराक में हैं पर पहले सोवियत फौज, फिर तालिबानी आतंक के साये में यहाँ के लोगों को जीना पड़ता है। रूढ़िवादी परंपरा के दृष्टिगत महिलाओं की तो सर्वत्र शोचनीय अवस्था है। एक-एक पुरुष की कई-कई ब्याहताएं हैं और इनका काम सिर्फ़ बच्चे जनना है। हरेक दंपति की कम से कम दस-पंद्रह संतानें हैं। लड़कियों के बड़ी होते ही माता-पिता शादी का प्रहसन कर पैसे लेकर लड़के वालों को बेच देते हैं। किस्मत अच्छी हो तो अच्छा पति मिलता है वर्ना सब ख़त्म। अलबत्ता यौन-शोषण का कहीं उल्लेख नहीं मिलता।

पुस्तक का सर्वाधिक रोचक प्रसंग लेखिका का गोद ली हुई पुत्री तिन्नी के साथ स्वदेश भागने का प्रयास है। हिन्दुस्तानी होने के बावजूद पाकिस्तानी पुलिस, सरकारी अफ़सर और लोगों के सहयोगपूर्ण रवैये से वह काफ़ी अभिभूत होती है, जब कि भारतीय दूतावास उसे निराश करता है। इसका लेखिका ने विस्तार से वर्णन किया है।

पुस्तक में अफ़गानिस्तान के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, पैदावार, पहरावे, समारोहों आदि का भरपूर उल्लेख है तथा अर्थों के साथ पश्तो या अफ़गानी भाषा की शब्दावलियों का भी। बहरहाल जगह-जगह प्रसंग का अधूरापन पुस्तक में खलता है। संभवत: त्रयी के अन्य दो खंडों में इसी कमी को पूरा किया गया हो।


पुस्तक : काबुलीवाले की बंगाली बीवी
लेखिका : सुष्मिता बंद्योपाध्याय
अनुवाद : नीलम शर्मा अंशु
पृष्ठ – 139, मूल्य – 150 रु.
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,
1, बी, नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली – 110 002

रविवार, जून 20, 2010

कविता श्रृंखला - 1 - तसलीमा नसरीन की छह कविताएं

संस्कृति सेतु में अब तक आप कहानी श्रृंखला के तहत् चार अनूदित कहानियों से रू-ब-रू हैं हो चुके हैं। आज प्रस्तुत है अनूदित कविता श्रृंखला - प्रथम, जिसमें हमने शामिल किया है तसलीमा नसरीन की रचनाओं को।

तसलीमा नसरीन की छह कविताएं
बांग्ला से अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु '


अस्वीकार - 1



भारतवर्ष कोई रद्दी कागज़ नहीं था
कि उसे फाड़कर दो टुकड़े कर दिया गया ।
'सैंतालीस' शब्द को मैं रबर से मिटा देना चाहती हूँ ।
सैंतालीस की कालिमा को मैं पानी, साबुन से धो देना चाहती हूँ।
सैंतालीस नामक काँटा गले में चुभता है,
मैं यह काँटा निगलना नहीं चाहती ।
उगल देना चाहती हूँ
अपने पूर्व-पुरुषों की अखंड भूमि का उध्दार करना चाहती हूँ।

*


अस्वीकार - 2



मुझे ब्रह्मपुत्र भी चाहिए, और स्वर्ण रेखा भी
सीताकुंड पर्वत भी चाहिए, और कंचनजंघा भी।
श्रीमंगल चाहिए, जलपाईगुड़ी भी
शीतल वन विहार चाहिए, और एलोरा-अजंता भी।
कर्जन हाल यदि मेरा है, तो फोर्ट विलियम भी।
इकहत्तर में जिस मानव ने युध्द किया,
विजयी हुआ,
द्विजाति नामक वस्तु को दूर भगाया-
सैंतालीस के समक्ष वह मानव कभी पराजित नहीं होता ।

*

पराधीनता



यह मेरा घर है
मेरा ही घर है यह,
लोग कहते हैं लड़कियों का कैसा घर?

यह मेरी ज़मीन है,
इसमें मैं अपने हाथों से फसल बोऊँगी।
देखकर हंसते हैं लोग,
कहते हैं, नारी तो स्वयं ही है
एक प्रकार का लहलहाता खेत
जिसमें हम शौक से बीज वपन करते हैं।

ये मेरे हाथ हैं,
लोग कहते हैं ये तुम्हारे हाथ नहीं,
हमारी सेवा-सुश्रुषा के लिए बने विशेष अंग मात्र हैं।

ये मेरे होंठ हैं,
लोग कहते हैं ये तुम्हारे कुछ नहीं
चुंबन के लिए बना एक जोड़ा अलंकार है।

यह मेरा गर्भाशय है,
लोग कहते हैं,
यह वास्तव में हमारे वीर्य को रखने वाली थैली है,
जहाँ प्रस्फुटित होंगे हमारे पौरुष के भ्रूण।

* साभार - अविरल मंथन, जुलाई-सितंबर - 1998



कालरात्रि का समय


टेलीफोन सिरहाने अकेला पड़ा रहता है
टेलीफोन अब पहले की भाँति नहीं बजता है,
यदि बजता भी है तो हैलो कहने वाला स्वर
अपरिचित सा लगता है ।
ऐसा भी वक्त गुज़रा है, कि
रवीन्द्र संगीत सुनते हुए सारी रात गुज़ारी है
अंगड़ाई को परे धकेल कर
आलस रहित सुबह लाई हूँ/ ऐसा भी वक्त गुज़रा है
उसकी साँसों में सुलाने का स्वर था
घोर संकट के दिनों में उसी स्वर में/ बेवक्त सो गई हूँ।
आनंदध्वनि के गीत स्नायुयों की सीढ़ी पर गहरी
पद-चाप छोड़ गए हैं।
पृथ्वी पर इतना पानी नहीं है कि धो डालूं,
इतनी मिट्टी भी नहीं है कि प्रणव को लीप कर मिटा दूं।
टेलीफोन के उस पार कितने लोग हैं
रवीन्द्र संगीत सुनाने वाला कोई रतन नहीं है
ेवो पहले सा अनिद्रारोग भी नहीं है
प्रवासी, घर लौट आओ कहकर तंद्राहीन स्वर
में गीत गाकर कोई मेरे दोपहर के एकांत को
पूर्ण भी नहीं करता/ टेलीफोन बजता है,
हैलो हैलो कहने वाला स्वर अपरिचित सा लगता
है ।
**



द्विखंडित


वह तुम्हारा पिता है, वास्तव में वह तुम्हारा कोई नहीं
वह तुम्हारा भाई है, वास्तव में वह तुम्हारा कोई नहीं
वह तुम्हारी बहन है, वास्तव में वह तुम्हारा कोई नहीं
वह तुम्हारी माँ है, वास्तव में वह तुम्हारा कोई नहीं
तुम अकेले हो।
तुम जब रोते हो, तुम्हारी उंगली
तुम्हारी आँक के आँसू पोंछ देती है।
वही उंगली तुम्हारी आत्मीय है
तुम जब चलते हो, तुम्हारा पाँव
तुम जब बोलते हो, तुम्हारी जिह्वा
तुम जब हँसते हो, तुम्हारी प्रसन्नचित आँखे तुम्हारी मित्र हैं।
तुम्हारे सिवा तुम्हारा कोई नहीं
कोई प्राणी या उद्भिज नहीं
फिर तुम इतना मेरा मेरा क्यों करते हो?
क्या वास्तव में तुम भी अपने हो?
* *



विषधर


दो मुँहे साँप से भी ज़हरीला है दो मुँहा मनुष्य।
यदि साँप काटे
तो साँप का ज़हर कभी भी उतारा जा सकता है
मनुष्य के काटने पर किसी भी पद्धति से वह
ज़हर हर्गिज़ नहीं उतरता।


** साभारदिशा (कोलकाता) – अंक – 4, 1996

रविवार, जून 13, 2010

कहानी श्रृंखला - 4

पंजाबी कहानी
मरण मिट्टी
0 जसवीर भुल्लर
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’

मूसलाधार बारिश हो रही थी और रात घुप्प अंधेरी थी। घलप्प......घलप्प। जंगल बूट पानी से भर गए। बारिश की बौछारें स्टील हेलमेट पर से बहती हुई मेरी गर्दन पर गिर रही थीं। मेरी वर्दी भींग गई थी। बरसाती निचुड़ रही थी, परंतु मैंने अपनी राईफल को अभी तक बचाए रखा था। जंग के दौरान हथियार से बढ़कर कोई और करीबी दोस्त नहीं होता।
हम पहाड़ की तंग पगडंडी पर चले जा रहे थे। हमारे बाईं ओर पहाड़ की बुलंदी थी और दाईं ओर बारूदी सुरंगों की ढलान। हमारी गश्त दुश्मन के इलाके की छान-बीन कर रही थी।
बादल बार-बार गरज रहे थे। बिजली की चमक से का़यनात पल भर के लिए रौशन हो उठती थी। पहाड़ी नाले शोर मचाने लगे थे।
कायनात के शोर में पदचापें धीमी हो गई थीं। मात्र एक सिपाही का संशय ही जानता है कि जब कान छोटी-छोटी पदचापों को सुन पाने में असमर्थ हों तो मौत सैनिक के बहुत करीब आ चुकी होती है।
हम असावधान नहीं थे, परंतु समय की भयानकता में चल रहे थे। भयानकता न तो बारिश की थी, न ही काली अंधेरी रात की, न उस जंगल की, जिसकी झाड़ियों में जानवरों का क्रंदन सिमटा हुआ था। भयानकता इस जंग की थी जो मूसलाधार बारिश में भी जारी थी। भयानकता उस खा़मोशी की थी जो सीने के अंधेरे में सल्तनत का़यम कर बैठ गई थी।
हवा की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। हथियारों से लैस अग्नि-प्रेत इधर-उधर दौड़ रहे थे, चीख-पुकार मचा रहे थे। उनके सर नहीं थे, परंतु वे आदमीनुमा थे। मैं उन्हें पहचानने की कोशिश रहा था।
अजीब सा तिलिस्म था। जब भी किसी को पहचानने की नौबत आती थी तो उसके सीने पर एक तगमा लटकने लग जाता था। आंखें चौंधिया जाती थीं।
मैं भी पागल हवा का अंश था। यह जंग मेरी नहीं थी, परंतु मैं लड़ रहा था। मुझे लड़ने की तनख्वाह मिलती थी। मैं थोड़ा-थोड़ा करके खत्म हो रहा था। इस ख़त्म होने की मुझे पेंशन भी मिलेगी।
उस वक्त हुक्म की गर्म सलाख से हम दागे जा चुके थे। अगले ही पल हमने मोर्चे की ओर कूच करना था।
मेरे पास आज था, सिर्फ आज। मैं सैनिक था, मेरे पास कल नहीं था। मैं आज का छोटे से छोटा क्षण नीरू के साथ जीना चाहता था। फिर पता नहीं कोई क्षण मिले, न मिले। परंतु उस दिन हमारे कमरे में हम अकेले नहीं थे, आने वाले दिनों का अंधेरा कमरे में था। उस वक्त वॉश-वेसिन में पड़े बर्तनों पर धूप का एक टुकड़ा पसरा हुआ था। मैंने नीरू की आवाज़ के तिड़के चेहरे को उस धूप में लपेट कर अपने आलिंगन में ले लिया था। इस जंग में मैं जंग को भी मार देना चाहता हूं, तुम्हारे लिए नीरू।
वह मासूम सी सहमी-सहमी मेरे साथ लेटी रही और फिर नाखून से मेरी कमीज़ के बटनों पर लकीरें खींचने लगी - ‘अब मुझे तुम मिल गए हो तो जंग नहीं चाहिए थी। और भी बहुत कुछ है जो जंग से भी कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है। मसलन तुम, हम दोनों का बनने वाला घर, हम दोनों के होने वाले बच्चे।’
मैं यह सोच-सोच कर लहू-लुहान हो गया था कि जंग मुझ पर से गुज़रेगी और बुढापा नीरू को जकड़ लेगा। अगले मोर्चे में गोली मुझे लगेगी और सैंकड़ों-कोसों दूर इंतज़ार कर रही नीरू ज़ख्मी हो जाएगी।
बादलों की गड़गड़ाहट से बिजली चमकी और बारिश और तेज़ हो गई।
तंग पगडंडी घुमावदार थी।
मुझे पहले कंपकंपी शुरू हुई और फिर दांत बजने लगे। पाँव कुछ इस तरह सुन्न हो गए मानो धरती पर कभी गरमाहट थी ही नहीं। परंतु, मेरे पास फिर भी कुछ गरमाहट शेष थी। कुछ स्मृतियां थीं, छोटे बच्चों के खिलौने - कुछ साबुत, कुछ आधे-अधूरे। चलना जारी रखने के लिए इतना ही पर्याप्त था। बहुत था मेरे लिए।
उस दिन नीरू के साथ वक्त कुछ इस तरह बीता था मानो वक्त नाम की कोई चीज़ ही न हो। अब मैं वक्त से बदला ले रहा था। अब मैं बीत चुके को भी बीतने नहीं दे रहा था। मैं बार-बार वक्त के उन्हीं बिखरे टुकड़ों को सामने ले आ रहा था, गर्म गोलियां बारिश में भींग रहीं थीं, लहू में ठंडी हो रहीं थीं। तपिश से पिघल रही रबड़ की तरह मैं अपने भीतर सिमट रहा था।
अलविदा की शाम फौजियों की गहमा-गहमी से रेलवे प्लेटफार्म चारे के खेत की तरह हरा-भरा लग रहा था। नीरू चाहती थी कि मैं न जाऊँ, परंतु मुझे मालूम था कि जाने के सिवा कोई और चारा न था। फौजियों का जंग पर जाना ज़रूरी होता है। फौजियों के सम्मान के लिए केवल जंग होती है। जंग उनकी शक्ति होती है। जंग उनकी मर्यादा होती है। जंग उनकी शान होती है और जंग ही उनकी मौत होती है।
नीरू ने कहा था, ‘यह मैला सा बैग हम दोनों के बीच क्यों पड़ा हुआ है?’
मैंने किट बैग उठा कर एक तरफ रख दिया।
अब चलते वक्त तुम मुझे दोनों बाँहों में भर कर प्यार करना। मुझे किसी से कोई शर्म नहीं। कोई डर नहीं। वह निराश हो गई थी। ‘फिर तो पता नहीं तुम कब आओगे और शायद.... ’
‘तुम मुझे बहला रहे हो प्रिय!’ वह मुस्कराई और आँखें भर आईं। ‘जंग में जाने वाले नहीं लौटते। वे साबुत लौटें हों तो भी साबुत नहीं होते। मुझे पता है, मैंने अपने पापा को देख रखा है।’
उस वक्त मुझे उसकी बातें समझ नहीं आती थीं। सैनिकों को अर्थ की ज़रूरत नहीं होती। मेरा लापरवाह रहना ही वाज़िब था।
गाड़ी छूटने वाली थी। वह मेरी बाँहों में सरक आई थी। मैं उसके आँसुओं में घुल रहा था। उसकी उदासी से मेरी अपनी आँखें भर आई थीं। गाड़ी चल पड़ी थी। मेरे आँसुओं के धुंधलके में मात्र नीरू का ही हाथ नहीं हिल रहा था। वहाँ हाथों का हजूम था। प्लेटफार्म पर कोई मनुष्य नहीं दिखता था, सिर्फ हाथ ही दिखते थे।
तेज़ हवा से फसल लहरा रही थी, हाथों की फसल ! गाड़ी तेज़ हो रही थी।
मेरी आँखों का समंदर प्लेटफार्म पर बिछ गया। अब एक समंदर था और असंख्य हाथ। वे हाथ समंदर में डूब रहे थे। वे हाथ बचाव के लिए दुहाई दे रहे थे। मैंने आँखें मलीं। दरअसल हाथ हिल नहीं रहे थे। हाथ में फैले हुए थे। दुआ के लिए या भीख के लिए फैले हुए हाथों की विनती कौन सुनता है?
अब तो न ही दिनों की गिनती याद रही थी और न ही मरने वालों की ही। जिस उद्देश्य को निश्चित कर मौत की पगडंडी पर चल पड़े थे, उस पगडंडी का कोई सिरा कहीं ज़िंदगी से भी जुड़ता था कि नहीं ? मैं नहीं जानता था, पर मुझे अवश्य यह पता था कि अपने होने या न होने का अंतर दरिया जितना चौड़ा था। इसीलिए पगडंडी की फिसलन से बच रहे थे। नाप-तौल कर पांव धर रहे थे। पाँवों को राह नहीं सूझ रही थी। बिजली चमकती भी थी तो रास्ता दिखाकर आँखों पर अंधेरे की पट्टी बाँध देती थी।
मुझसे अगला सिपाही सामने को झुका और फिर मुँह के बल गिर पड़ा। शायद लगातार गिर रही पानी की धारा से पगडंडी का वह हिस्सा बह गया था। मैं उसे संभालने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ा तो मेरे पाँवों तले से भी ज़मीन फिसल गई। मैं अगले सिपाही के साथ ही ढलान की तरफ लुढ़क गया। मेरे पीछे आ रहे सैनिक शायद ठिठक कर खड़े हो गए थे। मेरे साथी के टुकड़े शायद माईन फील्ड़ में बिखर गए थे। शायद वह किसी पत्थर या झाड़ी के साथ अटका रहा गया था।
मुझे कुछ पता नहीं था।
मेरे गिरते ही कई छोटे-बड़े पत्थर ढलान की तरफ लुढक़ने लगे थे। पत्थरों के दबाव से मेरे आगे-आगे कई बारूदी सुरंगे फटी थीं। आदमियों ने मेरे मरने का सामान किया था और पत्थरों ने मुझे बचा लिया था। मेरे इस भ्रम की उम्र ज़्यादा लंबी नहीं थी। अचानक मेरे आँखों के सामने प्रकाश का एक गुंबद फटा और घुप्प अंधेरा छा गया।
उस क्षण से पहले मुझे पता ही नहीं था कि कोई प्रकाश इतना अंधेरा भी कर सकता है।
यह अंधेरा पसरे हुए घने अंधेरे से भिन्न था, पर अंधियारा दरिया था। मैं गोते खा रहा था। यह अंधेरा मुझे निगल रहा था। मैं दरिया में डूब रहा था। पहले एक छोटी सी मछली मेरी तरफ आई और फिर धीरे-धीरे कुछ मछलियों ने मुझे घेर लिया। मैं चीख रहा था, परंतु मेरी आवाज़ गले में घुटी हुई थी। मछलियां पल-पल मेरी तरफ बढ़ती ही आ रही थीं। वे धीरे-धीरे मुझे कुतर रही थीं। उनके दाँत आरी की तरह थे। आरियों से मेरे अंग काटे जा रहे थे।
मछलियां मुझे गहरे पानी की तरफ खींच रही थीं। मैं नीचे ही नीचे जा रहा था। अंधेरे पानी में, जहां मेरी कब्र थी। अंधेरे की कब्र।
मैं ख़ामोश पड़ा था। मुझ पर मिट्टी गिर रही थी। उस मिट्टी के नीचे मेरा बदन दबा जा रहा था और अब अंधेरा मेरे ज़ेहन की ओर बढ़ रहा था।
इस कब्र में मैं पता नहीं कितनी देर तक पड़ा रहा था। मैं शायद मर गया था। परंतु, सोच रहा था। जो इंसान सोच रहा हो वह ज़िंदा होता है।
अंधेरे की मिट्टी झर रही थी। मैं प्रकाश की तरफ लौट रहा था। मैं ज़ेहन की भयावहता से गुज़रा था। मेरे बदन का अंग-अंग दुख रहा था। अंगों से दर्द जंगली बूटी की तरह फूट रहा था। इससे पहले कि दर्द की फसल मेरे बदन पर उग आए, मैं सिगरेट पीना चाहता था। आँखें बंद कर, धीरे-धीरे जैसे उम्र को पीया जाता है।
सिगरेट के बारे में सोचते ही सिगरेट की तलब और बढ़ गई थी, परंतु मुझसे हिला नहीं जा रहा था। मुझे उन्होंने पीड़ा में चिन रखा था। सिगरेट की डिबिया शायद मेरी जेब में ही थी। मैंने पूरी ताकत लगा कर अपनी एक बाँह को मुक्त किया परंतु मेरी बाँह कहाँ थी? मैंने दूसरे हाथ से जेब टटोलने की कोशिश की, पर मेरा हाथ कहाँ था? मैं पूरी ताकत लगा कर चीखा, ‘मेरी बाँहें कहाँ हैं?’
मेरा जिस्म पट्टियों में लिपटा हुआ था। वे आरी से मेरी बाँहों को चीरते रहे थे, जैसे लकड़ी चीरी जाती है, परंतु कोई तो कानून होगा? उन्हें इंसान की बाँहें काटते समय पूछना तो चाहिए। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं कि आदमी की बाँहें चीर डालें। बाँहें तो व्यक्ति की निजी होती हैं। उसकी ज़रूरत होती हैं।
मैं एक बार फिर पूरी ताकत लगा कर चीखा, ‘मेरी बाँहें कहाँ हैं?’
मेरी चीख के जवाब में अस्पताल की दीवारों से कुछ रेत झर गई पर ख़ामोशी उसी तरह छाई रही। शायद मेरी आवाज़ अभी मेरे भीतर ही चीखें मार रही थी। मेरी आवाज़ का अभी मुझ से बाहर कोई वजूद नहीं था।
‘देख नीरू ! मुझे इन्होंने क्या कर दिया है। देख नीरू ! इन्होंने मेरी दोनों बाँहें ही काट डाली हैं, देख, दो मजबूत बाजुओं की जगह अब दो ठूंठ ही रह गए हैं। तुम थी तो मुझे भगवान की भी कोई ज़रूरत नहीं थी नीरु ! अब तुम मुझे बहुत दूर नज़र आ रही हो नीरू ! अब तो मुझे हाथ फैला कर भगवान से दुआ करने की ज़रूरत पड़ेगी, परंतु दुआ के लिए मेरे पास हाथ ही नहीं रहे नीरू !’
मैं हाँफ गया था। मैंने करवट बदलने की असफल कोशिश में होंठ भींचे। ज़ख्मों में दर्द का एक और उबाल उठा और सर से पाँवों तक फैल गया। जिस्म के बेपनाह दर्द पर बेहोशी के बादल मंडराने लगे।
कहीं से निकल कर एक मोटा चूहा मेरे ऊपर चढ़ आया। उसके तीखे नाखून मेरे माँस में चुभ रहे थे। यह चूहा बिलकुल वैसा था, जैसे मोर्चे में होते थे। वे चूहे संभाल-संभाल कर रखी गई हमारी पूरियों को कुतर देते थे, शकरपारे खा जाते थे। वे हमारे अनाज के साथ खेलते थे। इतने पर तृप्ति न होती तो वे हमें कुतरने लग जाते थे। इस चूहे को भी शायद ताजे लहू की ख़बर लग गई थी। वह खड़ा हो कर बार-बार जिस्म को सूंघता था और फिर चल पड़ता था। वह मेरी दाहिनी बाँह के कटे हुए हिस्से पर चढ़ गया। उसने बाँह पर बंधी पट्टियों और बहे लहू को सूंघा और फिर दाँतों से पट्टियों को कुतरने लगा। वह कुतरता जा रहा था। मेरे पास हाथ नहीं थे। मैं चूहे को कैसे भगाऊं ? मैं चीख रहा था, परंतु मेरी आवाज़ किसी तक नहीं पहुंच रही थी। मैंने सिर हिला-हिला कर साथ वाली चारपाई वाले ज़ख्मी को सजग करने की कोशिश की।. अब कोई फर्क़ नहीं पड़ता था कि साथ वाली चारपाई वाला ज़ख्मी अपने देश का था या दुश्मन का। अब वह केवल एक ज़ख्मी सिपाही था। अब वह दुश्मन नहीं था। दुश्मन हमारा सांझा था। दुश्मन यह मोटा चूहा था। चूहे का कोई मुल्क नहीं होता। वह मुझे कुतरने के बाद उस पर जा चढ़ेगा। उसे कुतरेगा। उसे अपनी ख़ुराक के लिए माँस चाहिए था, लहू चाहिए था। कहने को तो हम दोनों ही उसे अपना चूहा कह सकते थे, खा-खा कर पला हुआ चूहा।
शायद मेरा ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाना किसी ने देख लिया था। पूरा कमरा शोर से गूंज उठा था। चूहे ने एकदम कान खड़े किए और भाग कर बिल में जा घुसा।
चूहे ज़िंदा आदमी को कुतरने से नहीं डरते। वे शोर से बहुत डरते हैं।
शोर बहुत हो गया था। इसीलिए चूहे ने अपनी लड़ाई बंद कर दी थी। चूहा बहुत समझदार जीव है। शोर थम जाने के बाद वह फिर बिल से निकल आएगा। वह फिर इंसानों को कुतरना शुरू कर देगा।
मैं पसीने-पसीने हो गया था। दौड़ता हुआ डॉक्टर और घबराई हुई नर्स आगे-पीछे वॉर्ड में दाखिल हुए। डॉक्टर कुतरी हुई पट्टी को देखते ही सहज हो गया। उसने ज़ख्म को दबा कर टांकों को परखा।
डॉक्टर ने जल्दी-डल्दी नर्स की ट्रे से सिरिंज उठाई, तुम लड़ाई में पता नहीं कितने दिन जगते रहे हो। तुम्हें अभी सोना चाहिए। उसने टीका लगा कर सिरिंज वापस रख दी. ‘तुम फिक़्र मत करो! सब ठीक हो जाएगा। ज़ख्म ठीक हो जाने के बाद जल्दी ही हम तुम्हें लकड़ी की बाँहें लगा देंगे।’
‘लकड़ी की बाँहें !’ मेरे ज़ख्मों में टीस उठी। मेरी कटी बाँहों के दो हिस्से कांपे।
‘हाँ, लकड़ी की बाँहें! तकरीबन असली जैसी ही होंगी।’ मेरी सोच की कड़ियों को पसीना आ गया। ‘मैं लकड़ी के हाथों में नीरू का चेहरा लेकर महसूस कैसे कर पाऊंगा भला? क्या मेरे जज़्बातों की झनझनाहट भी लकड़ी के हाथों की मार्फत उस तक पहुंच सकेगी? लकड़ी के हाथों से क्या मैं नीरू को सचमुच ही स्पर्श कर पाऊंगा?’
मेरे हर प्रश्न का जवाब शायद न में ही था। सोना ही मेरे लिए बेहतर था। नींद जिस्म में फैल कर मेरे माथे तक पहुंच रही थी। डॉक्टर के होंठ कांपते दिख रहे थे। वह शायद मुल्क क़े अगले सूत्री कार्यक्रम में किसी बड़े कारखाने के लगाए जाने की जानकारी दे रहा था। वह कारखाना बड़े पैमाने पर लकड़ी की बाँहें तैयार किया करेगा। लकड़ी की टाँगे तैयार किया करेगा और लकड़ी के अनेक अंग। शायद धीरे-धीरे सभी व्यक्ति लकड़ी के बनकर कर लौटेंगे। वैसे व्यक्ति के हाड़-माँस का भी अपना एक विशेष महत्व रहेगा। व्यक्ति के हाड़-माँस को पूर्ण तौर पर एक बढ़िया खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा।
डॉक्टर पता नहीं क्या कह रहा था। शायद कुछ नहीं बोल रहा, मैं ही सुन रहा था। मेरी आँखें मुंदती जा रही थी परंतु मेरी नींद की तासीर भी अलौकिक थी। मैं सपष्ट देख रहा था। मैं स्पष्ट सुन रहा था।
बायां!.......दायां!.........बायां!
बायां!.......दायां!.........बायां!
देखते-देखते कवायद कर रही टाँगें-बाँहें लकड़ी की हो गईं। मेरे भीतर की ख़ामोशी की भयानकता चीखें मारने लगी। मेरी आँखों में मानों लकड़ी का बुरादा उड़-उड़ कर पड़ने लगा। मैं वहां से भाग उठा। वे मेरी आँखें अँधी करने पर तुले हुए थे। मुझे उनसे बचना चाहिए था, परंतु मैं भाग कर कहीं न जा सकता था। मैं कान फाड़ू आवाज़ों में घिरा हुआ था, आवाज़ों के चक्रब्यूह को तोड़ूं तो मुक्त हो जाऊं। चारों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतों के खंडहर थे। ये आवाज़ें शायद खंडहरों से आ रही थीं।
छक्क....कर्र.....छक्क.....कर्र. मैंने दीवार की उखड़ी ईंटों पर से भीतर झांका। दो आरे बड़े-बड़े शहतीरों से लकड़ियों के टुकड़े काट रहे थे। लगातार लकड़ियों के टुकड़ों में से अंगों की आकृति उभर रही थी। अधखुले हाथ तराशे जा रहे थे। लकड़ी की टांगों के ढेर बन रहे थे. बांहें बनाई जा रही थीं।
कर्र.....छक्क!......कर्र.....छक्क!.....कर्र.....
लकड़ी के इंसान बाँहें फैलाए लंबे-लंबे डग भरते कारखाने से बाहर आ रहे थे। एक औरत पागलों की भाँति इधर-उधर दौड़ रही थी। वह लकड़ी के इंसानों को रोक-रोक कर पहचानने की कोशिश कर रही थी। अचानक वह एक लकड़ी की टांग से लिपट कर रोने लगी और उसके साथ दूर तक घिसटती चली गई।
अचानक दूसरी तरफ से लोहे के इंसान चिंघाड़ने ल। घमासान युद्द शुरू हो गया। लकड़ी के इंसान टूटने लगे। और लोहे के आदमी चपटे होने शुरू हो गए।
मैंने ज़ोर-ज़ोर से चीखा। आदमी टूट-टूट कर मुझ पर ही गिरने लगे। चपटे हो-हो कर मुझे अपने ही नीचे दबाते जा रहे थे। मेरा दम घुट रहा था। मैंने लाशों के ढेर के नीचे से निकलने के लिए पूरा ज़ोर लगाया। दर्द से मेरी चीखें निकल गईं।
मैंने शायद अपने ज़ख्मों के टांके तोड़ लिए थे। मैं लहू के छप्पड़ मे सराबोर था। अब शायद नर्स फिर भागी-भागी आएगी। डॉक्टर शायद बेहोशी का एक टीका और लगा देगा। शायद ज़ख्मों पर फिर टांके लगेंगे।
पता नहीं मेरा कितना लहू निचुड़ गया था। मैं होश में आया भी तो पीला ज़र्द चेहरा लेकर लौटूंगा। अपने जिस्म से गिर रही मिट्टी को संभालने के लिए मैं लहू की एक-एक बूंद के लिए तरसूंगा।
जंग के लिए जाते वक्त मैं होठों पर बिच्छु धर के ले गया था और अब अपनी साँसों के नीले बदन से सहमा हुआ था। यह मेरा अपना गुज़रा वक्त था। जो मुझसे मुंह नहीं मोड़ रहा था।
मेरे पांवों में लिज़लिज़ी सी एक गली उलझी हुई थी। गली का सिरा अंधेरे समंदर में डूबा हुआ था। मैंने गली को पहचानने की कोशिश की। मेरी पहचान लड़खड़ा रही थी। यह शायद मेरे बचपन की गली थी जिससे आँखें चुरा कर गुज़रने की पीड़ा मैं खुद झेल रहा था। मैंने खड़े होकर पैर झाड़े और चल पड़ा। मेरे ढीले हुए फौजी बूट फिर दहशतज़दा ख़ामोशी के सीने पर खड़प्प-खड़प्प करने लगे।
‘देख कुछ भी नहीं बदला !’
मैं दहल उठा। मेरे कानों ने शब्द सुने थे परंतु पीठ पीछे कोई नहीं था, बस अंधेरे का एक काला सा धब्बा था।
सचमुच ही कुछ नहीं बदला था। बस एकदम भीतर से मेरा कुछ हिस्सा मर गया था। बदला कुछ नहीं था। बस वक्त का एक टुकड़ा छिन गया था। बदला कुछ नहीं था, बस कुछ अंगों का बोझ शरीर से घट गया था। अगर कुछ बदला भी था तो बस इतना कि जहां गुल्ली-डंडा खेला करते थे उस मैदान की हरियाली गायब थी। शहर की सुनसान फिज़ा पर खंडहरों की परछाई थी।
अपने साबुत पाँवों से ज़ख्मी रूह को घसीटते हुए मैं बंद दरवाज़े के सामने पहुंच कर रुक गया था, परंतु मैं कॉल-बेल नहीं बजा सकता था। मेरी बाँहों की लंबाई कम पड़ गई थी। अभी उन्होंने मेरी कटी बाँहों को लकड़ी के हाथ नहीं लगाए थे। मैंने बेबसी में अपना सर दरवाज़े पर दे मारा। कील से मेरे माथे पर गूमड़ सा बन गया था।
बंद दरवाज़े की ओट में पता नहीं कितनी चिंताओं का बोझ था कि डर से दरवाज़ा खुल गया। हवा की उमस मेरे मुंह पर आ लगी मेरी साँसें बदहवास हो गईं।
मेरे आने का कोई अर्थ नहीं था। नीरू दरवाज़े के भीतर खड़ी थी, खड़ी ही रही। अगर उस वक्त वह माँ होती तो मुझे अपनी ममता की छांव में लपेट लेती, अगर प्रेयसी होती तो मैं उसके मोह में पिघल जाता। अगर वह बच्चा होती तो मैं उसकी बातों में खुद-ब-खुद तोतला हो जाता, परंतु वह एक बदनसीब रूह थी। बहुत देर तक बर्फ बनी खड़ी रही और फिर डयोढ़ी के अंधेरे से मुख़ातिब होकर बोली, ‘तुम आ गए हो ?’
मैंने कांप कर उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों की गहराई में भी बर्फ जमी हुई थी। मेरे आने से वह बर्फ पिघल भी सकती थी, पर मैं आया ही कहां था? मैं तो अभी भी उन्हीं अंधेरों में था जहां कई बदनसीब रूहों की धमाचौकड़ी थी।
‘जंग ख़त्म हो गई?’
‘जंग!’ मेरी ख़ामोशी को झुरझुरी सी आ गई। मैं ज़ेहन के उसी समंदर में गोते खाने लगा जहां तट की रेत पर दूर तक खोपड़ियां बिखरी हुई थीं, जैसे खुले मुंह वाली सीपियां होती हैं, जैसे फेंके हुए नारियल हों।
‘जंग ख़त्म हो गई?’
अपने विचारों की तंद्रा से निकल मैं पूरे ज़ोर से चीखा, ‘मेरी जंग तो अभी शुरू हुई है नीरू !’
कोने में सहमे हुए कबूतर डर कर पंख फड़फड़ाने लगे।


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साभार
छपते-छपते (कोलकाता), दीपावली विशेषांक, 1998

शुक्रवार, जून 04, 2010


कहानी श्रृंखला - 3


पंजाबी कहानी

दुविधा



दलीप कौर टिवाणा

अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’

वह सोच रही थी आज मैं पिता जी को सब कुछ बता ही दूंगी फिर उनसे माफी मांग लूंगी परंतु जब उसके पिता सामने होते तो उसके मुंह से एक शब्द भी न निकलता। कई बार उसने सब कुछ बता देने का पक्का निश्चय किया परंतु बताने का उसमें हौंसला न था क्योंकि उसे डर था कि कहीं पिताजी नाराज़ हो जाएं, शायद..... वह मन ही मन बहुत पछताती। बहुत दुखी होती परंतु अब क्या हो सकता था। दादी कब की गुज़र चुकी थी। उसके अंतिम शब्द, ‘जीती! अपने पिता को एक खत लिख दे बेटा ! अब मैं नहीं बचूंगी।’ रह-रह कर याद आते।
उसे अपनी माँ पर बहुत ही गुस्सा आता, जो हमेशा उसकी दादी को डाँटती, ‘यह कहाँ मरेगी। सब को मार कर मरेगी, पता नहीं कौन से काले कौए खाकर पैदा हुई होगी। पहले भी कई बार काम छुड़वा कर बुलवा चुकी है। न मरती है न, चारपाई छोड़ती है।’
जीती ने सोचा - पिताजी काम छोड़ कर आएंगे तो पाँच रुपए दिहाड़ी के जाएंगे और ऊपर से आने-जाने का किराया अलग। चलो ख़त क्या लिखना है। दादी तो यूं ही कहती रहती है कि अब नहीं बचूंगी मैं।
यूं तो दादी उसे बहुत प्रिय थी और जब उसकी मां कहीं गई होती तो चुपके से वह खोये की पिन्नी भी दादी को दे जाती। उसके पिताजी ने उसे बताया था कि वृद्धावस्था में बच्चों जैसा मन हो जाता है, परंतु उसकी मां कहा करती, ‘बुढ़िया ने खाकर अब कौन सा कोल्हू जोतना है? चारपाई ही तोड़ेगी।’ जीती को दादी पर बहुत तरस आता। तभी तो मां से चोरी-छिपे वह कभी-कभी दादी को चूरी कूट देती, कभी दाल में रोटी चूर कर दे देती, कपड़े धो देती और गोंद भिगो कर कनपटियों पर लगा देती। पर उसकी मां उससे कहती - ‘इस बुढ़िया ने मेरा बहुत लहू पीया है। हर तीसरे दिन तुम्हारे पिता को सिखा-पढ़ा कर मुझसे लड़वा देती। क्या मजाल थी जो मैं बगैर पूछे भिखारी को भीख भी दे देती। छाछ को भी ताला लगा कर रखती। अगर ज़रा साफ-सुथरे कपड़े पहन लेती तो कहती - अरी कहां भागना है पोशाकें पहन कर। मैं घर का सारा काम करती परंतु इसका नखरा कभी सीधा न होता। फिर भी मुझे बुरी, भुक्खड़ घर की, हराम का खाने वाली आदि सौ-सौ तरह की बातें कहती।’
यह सुनकर जीती को दादी बुरी लगने लगती। वह दादी के कई आवाज़ें देने पर भी न बोलती। यदि दादी किसी बात में दखल देती तो वह अकड़ कर कहती- ‘दादी ! तुम्हें कुछ पता तो है नहीं, बेकार ही चिड़चिड़ करे जाती हो, चुप करके बैठी रहा करो।’ पर कुछ देर बाद ही वह सब कुछ भूल जाती। उसे दादी के कांपते हाथों पर बड़ी दया आती। वह सोचती, पता नहीं आने वाले दिनों में दादी रहे न रहे और वह दादी के पास बैठ कर उससे लाड करने लगती। पर दादी कहती, ‘जा बेटी, कोई काम कर तेरी मां डांटेगी।’
जब जीती को मां डांटती तो दादी कहती, ‘बस कर बहू, क्यों बच्ची के पीछे हाथ धोकर पड़ी हो।’
‘तुम्हीं ने तो इसे सर पर चढ़ा रखा है, अम्मा। जब भी थोड़ा सा कुछ कहती हूं तो तुम हिमायती बन जाती हो।’
जब उसकी माँ फेरीवाले से कुछ न लेकर देती तो वह रोनी सूरत बना कर दादी के पास जाती तो दादी उसकी माँ से कहती, ‘गर्म पानी से घर नहीं जला करते। बच्ची का जी चाहता है, ले दो क्या मांगती है।’ उसकी मां डपट कर कहती, ‘अम्मा, तूने इसे सर चढ़ा रखा है। जो भी बात मुंह से निकले, मज़ाल है उसे भूल जाए, चाहे सर काट दो।’ पर दादी जीती का पक्ष लेकर कहती, ‘बच्चे का जी करता है। इससे कोई कमी नहीं आने वाली। भगवान की कृपा से उसका पिता राज़ी रहे कमाने वाला ।’
और जब दादी उसका पक्ष लेती तो उसे दादी बहुत ही अच्छी लगती पर जब वह उसे तीज के मेले में जाने से रोकती और कहती, ‘न बेटी ज़माना ख़राब है। इज्ज़त का क्या मोल है। कहते हैं कई जगह तीज के मेलों में डाकू आ गए हैं। इधर मोगे के पास क्या तो नाम है गांव का.....बस बेटी, घर पर ही राम-राम करो। क्या लेना है तीज में जाकर।’ इस पर जीती को बहुत गुस्सा आता और वह सोचती, ‘लोगों की तो बेटियां ही नहीं जो जाती हैं। मुझे ही कोई खा जाएगा।’
दादी की और एक बात जीती को अच्छी नहीं लगती थी। वह यह कि जब भी जीती कोई नया कपड़ा पहनती तो दादी डांट देती, ‘कपड़े पहनने को बहुत दिन पड़े हैं। अक्ल का काम किया करो, बुजुर्गों का कहना मानना चाहिए।’ वह सोचती - ‘दादी जब जवान थी तो खुद चाहे नित नई-नई पोशाकें बदलती हो। अब मुझे ऐसा कह रही है।’ अब दादी छह महीनों से बिस्तर पर पड़ी थी और दिन-ब-दिन हालत बिगड़ती जा रही थी। इसलिए पिछली बार जब उसके पिता काम पर जाने लगे तो जीती से कहा था, ‘तेरी माँ को तो मैं जानता हूं जीती। दादी का तुम ख़याल रखना। पता नहीं कितने दिनों की मेहमान है। उसे कोई तकलीफ न हो और मुझे उसकी हालत के बारे में ख़त लिखती रहना।’
दादी बीमार क्या हुई थी कि वह हमेशा खीझ कर बोलती और कहती - ‘अरे! तुम लोग कहाँ मर गई हो मुझे पानी तो दे जाओ।’ पानी पीकर दो मिनट बाद फिर आवाज़ देने लगती, ‘अरे तुझे काम की पड़ी है, इधर मैं प्यास से मरी जा रही हूँ।’ पर पानी का घूंट भी न पीती और कहती, ‘मैंने कब मांगा पानी, मेरे सर में डालना है क्या ?’
कभी दादी रोने-कराहने लगती और कभी अच्छी-भली बातें करने लगती। जीती की माँ कहती, ‘इसके प्राण जल्दी कैसे निकलेंगे ? इसने कौन सा कम दु:ख दिए हैं। छह महीने हो गए चारपाई पर पड़े एड़ियां रगड़ते हुए। अच्छे कर्मो वाले देखते ही देखते अपनी राह पकड़ चलते बनते हैं। एक दिन भी किसी से मुंह में पानी नहीं डलवाते। इसने पता नहीं और कब तक नर्क-स्वर्ग भोगना है।’
सचमुच ही दादी के प्राण पता नहीं किस कोने में अटके पड़े थे। जीती हाल पूछ-पूछ कर, सर दबा-दबा कर, गोलियां दे-दे कर ऊब गई थी। अब तो उसकी खाँसी से भी नफरत होती। उसके बदबूदार कपड़े धोने को भी जी न चाहता। और अब उसे बिश्नो पंडिताइन की बातें - ‘बेटा! माँ-बाप तो रुत-रुत का मेवा हैं, बार-बार नहीं मिलते। जिसके घर वृद्ध माता-पिता हैं, उन्हें तीर्थ पर जाने की क्या ज़रू रत है’ आदि भी अच्छी न लगतीं।
दादी की तबीयत कई बार बिगड़ी और जीती ने कई बार ख़त लिख कर अपने पिता को बुलवाया था पर दादी हर बार बच जाती और इसीलिए अब जब दादी ने कहा, ‘बेटी, अपने पिता को खत डाल दे, अब मैं नहीं बचूंगी।’ तो उसने ज्यादा ध्यान न दिया और उसकी माँ ने भी कहा, ‘बेकार ही काम छुड़वा देती है। चंगी-भली तो है। बेकार ही खत मत लिखना।’ और जीती ने ख़त न लिखा।
दो-तीन दिन बाद एक दिन शाम को दादी ने पूछा - ‘अरी, तूने ख़त डाला भी है या नहीं ? मैं तो अब नहीं बचने वाली। रात को सपने में मुझे तेरा दादा दिखा था। मुर्दा देखना अच्छा नहीं होता।’
‘लो तुम्हें क्या होगा दादी, तू तो अच्छी भली है। मैंने सोचा पिता जी का काम क्यों छुड़वाया जाए और माँ भी ऐसा ही कह रही थी और ख़त तो मैंने डाला ही नहीं।’
‘तूने ख़त नहीं डाला ?’ कहकर दादी ने परेशान होकर जीती की तरफ ताका। फिर दादी कुछ न बोली। उस शाम दादी ने चाय भी नहीं पी, गोली भी नहीं ली। आधी रात को उसने जगाया और पानी मांगा और तड़के वह मर गई।

दादी गुज़र गई। जीती बहुत ही रोई। उसे बार-बार ख़याल आता, पता नहीं अंतिम समय में दादी का पिता जी से मिलने को कितना जी चाहा होगा। मैंने ख़त क्यों नहीं डाला? उसे अपनी माँ पर भी गुस्सा आता जो कहा करती थी कि यह कहाँ मरेगी? परंतु अब क्या हो सकता था? वह सोचती, मेरी दादी कितनी अच्छी थी। बेचारी सारा दिन कभी चरखा काता करती, कभी अटेरती, कभी झाड़ू लगाती, कभी बर्तन मांजती। ‘दादी! अब तुम कहाँ लौट कर आओगी? दादी, मुझे माफ क़र दे। मैंने तुम्हारे कहने पर भी पिता जी को ख़त नहीं डाला. दादी मैं बहुत बुरी हूँ।’
जब किसी वृद्धा को वह देखती, उसे अपनी दादी याद आ जाती और वह सोचती, ‘अगर मेरी दादी आ जाए तो मैं कभी खीझ कर नहीं बोलूंगी। माँ को भी उसके साथ न लड़ने दूंगी। मैं बहुत ही सेवा करूंगी।’ उसे बहुत पश्चाताप होता कि दादी के ज़िंदा रहते उसे यह खयाल क्यों नहीं आया कि दादी तो अब बस कुछ सालों की मेहमान है। किनारे खड़े वृक्ष की तरह। दादी उसे अब बहुत याद आती। दादी की छड़ी उसने संभाल कर रखी थी। दादी की मूँगों की माला को वह कई बार संदूक से निकाल कर देखती। दादी का घाघरा भी उसने जमादारनी को नहीं दिया था। दादी की मृत्यु का समाचार सुन कर उसके पिता आ गए थे। वे बहुत ही रोए थे। जीती को खुद पर बहुत गुस्सा आया कि उसने क्यों ख़त नहीं डाला। वह सोचती मैं आज पिताजी को ज़रूर बता दूंगी कि दादी ने ख़त डालने के लिए कहा था परंतु फिर सोचती, वे दु:खी होंगे कि मेरी माँ मुझसे मिलने के लिए तड़पते हुए मर गई। और फिर क्या पता, मुझसे वे नाराज़ हो जाएं कि मैंने ख़त क्यों नहीं लिखा? नहीं, भले ही वे कितना ही नाराज़ क्यों न हों, मैं उन्हें ज़रूर बता दूंगी, वह सोचती परंतु अपने पिता के सामने एक शब्द भी न बोल पाती।
जीती के पिता के आगमन की बात सुन कर पड़ोसी आए। एक वृध्दा जिसका दादी के साथ उठना-बैठना था, कहने लगी, ‘अरे बेटा, वह बस यही कहा करती थी कि बस एक बार बचन सिंह आ जाए, फिर बेशक उसी वक्त मर जाऊं ।’ जीती का पिता दहाड़ मार कर रो उठा। जीती के अपने अंदर तपिश सी महसूस हुई।
‘बेटा माता-पिता तो रुत-रुत का मेवा होते हैं, कमाई तो सारी उम्र करनी है। यदि कोई समझे तो माता-पिता सचमुच तीरथ होते हैं।’ एक पड़ोसन ने कहा।
‘क्या मालूम था कि इतनी जल्दी गुज़र जाएगी, नहीं तो मैं घर से बाहर कदम ही क्यों रखता? मैंने सोचा जीती बहुत ख़याल रखती है। मैं दो-चार दिन लगा ही आऊं।’
जीती को मानो किसी ने लहूलुहान कर दिया हो। उसका चेहरा उतर गया और वह बताते-बताते रह गई कि दादी ने.....
‘जीती पुत्तर, माँ आख़िरी वक्त में बहुत तड़पी होगी?’
‘नहीं पिताजी।’ जीती ने घबरा कर कहा।
जब भी वह पिता के चेहरे की तरफ देखती, उसे दया आ जाती। वह सोचती, ‘काश! मैंने ख़त डाल ही दिया होता।’
उसका पिता दादी की छोटी-छोटी चीज़ें ढूँढते रहता। दादी का अटेरन, उसकी अफीम की डिबिया, उसके हाथ का कड़ा, उसके कानों की मुरकियों को वह संभाल-संभाल रखता।
‘जीती, मां ने जाते वक्त कुछ कहा भी होगा?’ पिता ने कई बार पूछा।
जीती के दिल ने कहना चाहा कि वह आपको बुलाते-बुलाते गुज़र गई और मैंने ख़त भी नहीं लिखा, परंतु शब्द उसके गले में ही अटक गए और उसने इन्कार में सर हिला दिया।
‘जीती, कहीं तुम भी अपनी माँ की तरह घुड़कती तो नहीं थी?’ पिता ने पूछा।
‘पिताजी मैं...... ’ फिर वह रोने लगी।
‘बस चुप हो जा बेटी, मैंने तो ऐसे ही पूछा था। मुझे मालूम है, तू तो माँ का मुझसे भी ज़्यादा ध्यान रखती थी।’ पिता ने जीती को दुलारते हुए कहा।
जीती का मानो कलेजा चीर दिया गया हो। उसने सोचा, ‘नहीं.....नहीं.....मैं ज़रूर बता दूंगी।’
‘पिता जी, दादी......’ आगे वह कुछ भी न कह पाई। ‘रो मत जीती, कौन सा किसी के वश की बात है।’ पिता ने सोचा दादी को याद कर के रो रही है।
जीती का अंतर्मन लहूलुहान हो रहा था। गुनाह के अहसास से उसका दम घुट रहा था। दादी की सूरत उसकी ऑंखों के समक्ष से न हटती और वह निर्णय करती कि आज पिता जी को ज़रूर बता देगी परंतु रोज़ ही बताते-बताते वह रुक जाती।
उसकी माँ खीझ कर कहती, ‘बूढ़े-बुढ़ियां क्या ज़िंदगी भर बैठे रहते हैं? उसने एक दिन तो मरना ही था। काफी उम्र भोग ली थी उसने। देखो तो क्या पाखंड कर रही है। सारा दिन बुत्त बनी रहती है। न कोई काम करती है, न काज।’
माँ पर उसे बहुत ही गुस्सा आता और वह सोचती, उसने ही तो मुझे ख़त नहीं डालने दिया था। परंतु अब क्या हो सकता था।
‘पिता जी...’
‘हां बेटी....’
‘दादी क्यों मर गई?’ वह हमेशा बताते-बताते बात टाल जाती। वह मन ही मन बहुत दुखी थी। बहुत......
‘पिताजी दादी.... ’
‘बस पुत्तर, तू दादी को ज़्यादा याद मत किया कर। अब कौन सा वह लौट आएगी...’ उसके पिता बीच में ही टोक कर कहते।
वह चुप हो जाती और सोचती कि मैं कैसे बताऊं कि दादी.... आगे उसे शब्द न मिलते और वह रो कर कहती, ‘दादी तू क्यों चली गई, तूने क्यों मुझे ख़त लिखने के लिए कहा था? ’


साभार - वैचारिकी संकलन, मई 1997

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