(पंजाबी)
लेखक - अजीत सैलानी
रूपांतर – नीलम शर्मा ‘अंशु’
वह समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करे। अंतत: वह सड़क के किनारे बने पार्क में उस चूबतरे पर आ बैठी, जहां वह पहले भी कई बार घंटों बैठकर अपने अंतर्मन से बातें किया करती थी। इस चबूतरे पर बैठने से उसे दोनों सड़कें नजर आतीं, एक जो सीधी उसके घर की तरफ जाती थी और दूसरी शहर से बाहर बने नहर के उस पुल की तरफ, जहां से छलांग लगाकर कई निराश जीवन सदा के लिए उस नहर की लहरों में समा गए थे। वह भी तो कई बार उस पुल पर गई थी परंतु उसके भीतर बैठा कोई उससे कहता, ‘नीरू, तुम्हें अभी जीवन में बहुत कुछ करना है, तुम्हारा जीवन सिर्फ़ तुम्हारा ही नहीं, इस पर दूसरों का भी अधिकार है।’ इस प्रकार यह अहसास लेकर वह कई बार उस खूनी पुल से लौटी थी।
आज उसे सब कुछ फिर से याद आ रहा था। कितना प्यार करती थी माँ उसे। नहला-धुला कर सुंदर कपड़े पहना कर जब माँ उसे स्कूल भेजती तो कान के पीछे काला टीका लगाना कभी न भूलती। कहती, ‘मेरी बेटी तो सीधे परी लोक के उतरही है, कहीं उसे किसी की नज़र न लगा जाए।’ स्कूल में हर विद्यार्थी उसका साथ चाहता। दीपक तो बेंच पर उसके साथ बैठने के लिए दूसरों से लड़ भी पड़ता। वह भी तो किसी न किसी तरह दीपक के साथ बैठने का बहाना ढूंढती। पता नहीं, तब कौन सा आकर्षण या अहसास था जो नीरू और दीपक को परस्पर आकर्षित करता। नीरू को खुद भी यह बात समझ न आती।
बारह वर्षीया बालिका नीरू को क्या पता था कि यौवन की दहलीज पर पहुँचते ही यह अहसास प्यार का रूप धारण कर लेगा और ज्यों-ज्यों नीरू के कदम यौवन की सीढ़ियां चढ़ते गए, उसका सौंदर्य व दीपक के प्रति उसके प्यार का अहसास बढ़ता गया। इस दौरान उसके सर से माँ का साया सदा के लिए उठ गया। भाई उससे बड़ा था। माँ ने मृत्यु से पहले यह कह कर उसकी शादी कर दी थी- ‘राकेश, मेरा अब कोई भरोसा नहीं कि कब तक जीऊंगी, तेरी पत्नी को देख लूँ और नीरू को भी माँ का स्नेह देने वाली भाभी मिल जाएगी’। परंतु ऐसा कुछ न हुआ, माँ की मृत्यु के बाद घर के हालात बद से बदतर होते गए। राकेश तो पहले ही कुछ नहीं कमाता था।
घर का गुज़ारा केवल पिता की पेंशन पर चलता और उन्हें अब कैंसर हो गया था। नीरू पर तो उस दिन पहाड़ ही टूट पड़ा, जिस दिन डॉक्टर ने कहा था कि ये अब केवल दो-तीन साल ही और जी सकते हैं। इलाज जारी रखो, पर इलाज के लिए पैसा कहां से आता ? नीरू ने बारहवीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और टयूशनें पढा कर थोड़ा-बहुत बंदोबस्त कर लेती।
‘नीरू हम अगले महीने यू. एस. ए. जा रहे हैं। पापा को सरकारी खर्च पर पांच साल के लिए वहां ट्रेनिंग पर भेजा जा रहा है।’ एक दिन दीपक ने सहसा आकर जब यह कहा तो नीरू की मानो जिंदा रहने की अंतिम उम्मीद भी समाप्त हो गई।
‘दीपक, क्या तुम भी साथ जाओगे ?’ यह कहते हुए नीरू की ऑंखों में दूर कहीं ऑंसुओं का तूफान उमड़ आया परंतु, उसने इन ऑंसुओं को पलकों से बाहर न आने दिया और यह जानते हुए भी कि दीपक का जवाब क्या होगा उसने किसी झूठी उम्मीद से दीपक की तरफ देखा।
‘हाँ नीरू, मुझे तो जाना ही पड़ेगा और पापा कहते हैं कि तुम्हें वहीं सेटल कर देंगे। नीरू, जब मैं वहां बड़ा इंजीनियर बन जाऊँगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा।’ अब नीरू के ऑंसुओं को उसकी पलकें रोक न पाईं। अंतत: दीपक एक महीने बाद चला गया। नीरू के लिए जीवन का कोई महत्व नहीं रह गया था। वह सारा दिन टयूशनें पढ़ाती, भाई-भाभी की फटकार सहती और पिता की सेवा करती।
एक दिन दोपहर के वक्त दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा एक 60-65 वर्षीय व्यक्ति दरवाज़े पर खड़ा है। ‘बेटा! रामप्रकाश जी का घर यही है ?’ उसने नीरू की तरफ देखते हुए पूछा। जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही वह बोला, ‘क्या वे घर पर हैं ? उनसे कहो कानपुर से तिलक आया है।’
‘आप भीतर आईए, वे घर पर ही हैं।’ यह कह कर नीरू उन्हें कमरे में ले आई।
कुछ पल वे एक दूसरे को देखते रहे और अगले ही पल एक-दूसरे की बाँहों में थे। दोनों की ऑंखों से ऑंसू बह रहे थे, ‘राम, तू इतना कमज़ोर हो गया, क्या हुआ है तुझे ?’ उस व्यक्ति ने अपनी ऑंखें पोंछते हुए कहा। दोनों बीते समय की यादें ताज़ा करने लगे।
‘नीरू, जाओ बाहर कार से अनूप को भी बुला लाओ।’ यह कह कर उस व्यक्ति ने बड़े गौर से देखते हुए उसके बारे में पूछा।
‘मरजाणी कितनी बड़ी हो गई है, छोटी सी हुआ करती थी।’ और यह कह कर उसने नीरू के सर पर हाथ फेरा और अब अनूप भी उसी कमरे में था।
24-25 साल का मरियल सा लड़का और चेहरे पर पीलापन। बात-चीत से नीरू को पता चला कि तिलकराज और उसके पापा कानपुर में एक साथ नौकरी करते थे और उस वक्त नीरू केवल दो साल की ही थी कि उसके पापा का कानपुर से तबादला हो गया था और वे इस शहर में आ गए थे।
नीरू रसोई में उनके लिए चाय बनाने लगी। रसोई में ही उसे उनकी बात-चीत सुनाई दे रही थी। रामप्रकाश तो पहले ही हौंसला छोड़ बैठा था, अत: उसने घर के हालात तिलकराज को बता दिए। अब तिलकराज का नीरू के घर लगातार आना-जाना शुरू हो गया था। अनूप तो कई बार अकेला आकर भी काफी-क़ाफी देर तक बैठा रहता।
‘नीरू बेटा, तुम ये टयूशनें पढ़ाना छोड़ दो और कल से मेरे ऑफिस आना शुरू कर दो। अनूप के साथ उसके काम में सहायता किया करो। ऑफिस मेरे घर में ही है। हम औरों को भी तो तनख़्वाह देते हैं। क्यों न ये पैसे हमारे बच्चों को ही मिलें? अच्छा भई राम, कल से ड्राइवर इसे ले भी जाया करेगा और छोड़ भी जाया करेगा।’
नीरू चाहकर भी इन्कार न कर सकी। पिता की बीमारी और घर की गरीबी उसे सामने नज़र आ रही थी। इस तरह नीरू अनूप के दफ्तर आ पहुँची।
‘नीरू, ये मेरी पार्टनर मैडम लीला हैं और कुल मिला कर सारा बिजनेस ये ही देखती हैं। अत: तुम्हें कभी किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो तुम बेझिझक माँग सकती हो।’ तिलकराज ने एक 45-50 वर्षीया लंबी सी महिला से नीरू का परिचय करवाया। वह महिला साउथ इंडियन सी लगती थी। सावला सा रंग, कंधे तक कटे बाल और तेज़ नज़रें। पल भर के लिए उसने नीरू की तरफ देखा और बोली, ‘ठीक है अगर तुम्हें कोई असुविधा हो तो मुझे बता देना।’
नीरू को लीला मैडम ज्यादा अच्छी नहीं लगी। अनूप शायद नीरू के चेहरे के भाव समझ गया था। ‘नीरू तुम लीला आंटी की किसी भी बात का बुरा मत मानना। आंटी मेरे पापा की पी. ए. थीं। मम्मी के गुज़रने के बाद से वे हमारे ही घर में रहती हैं और अब पापा का सारा बिजनेस देखती हैं।’ अनूप ने नीरू के चेहरे के उतार-चढ़ावों को पढ़ते हुए कहा।
‘मु मुझे क्या लेना-देना है, आंटी चाहे जैसी भी हों, मुझे तो नौकरी करनी है।’ नीरू ने मन ही मन सोचा।
दिनों-दिन अनूप का झुकाव नीरू की तरफ होता गया परंतु नीरू का हृदय तो बुझा हुआ था। एक दिन तिलकराज ने नीरू को अपने कमरे में बुलाया। वे बहुत उदास थे। ‘नीरू, मैं तुमसे झोली फैलाकर कुछ मांगता हूँ।’ नीरू कुछ समझ न पाई। तिलकराज ने आगे कहा, ‘बेटा, अनूप मेरा इकलौता बेटा है, परंतु इसे नामुराद बीमारी लग गई है, जिसे हम एड्स कहते हैं। मैं आज इसे डॉक्टर को दिखा कर आया हूं। उसका कहना है कि अनूप केवल छह महीने जीएगा। बेटा, जब से तुम ऑफिस आई हो, अनूप खुश रहने लगा है। मैं तुमसे विनती करता हूँ कि जब तक अनूप की ज़िंदगी बाकी है, तुम इसे प्यार दो। तुम्हारा हमारे परिवार पर बहुत बड़ा अहसान होगा।’
नीरू के भीतर कहीं गहरे तक उथल-पुथल शुरू हो गई। पल भर में उसके सोच-विचार ने आसमान से धरती तक के अनगिनत चक्कर लगा लिए। ‘बेटा मुझे तुमसे हाँ की उम्मीद है। मैं तुम्हें कोई कमी न रहने दूंगा। राम का इलाज भी मैं करवाऊंगा।’ नीरू कुछ न बोली। बस उसकी आँखों द्वारा दी गई सहमति को तिलक ने पढ़ लिया और इस तरह उस दिन से न चाहते हुए भी नीरू का व्यवहार अनूप के प्रति अपनत्व भरा हो गया।
अनूप अब बहुत ही खुश रहने लगा था परंतु उसकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। अब डॉक्टर उसे दवाओं के नशे में रखते। अनूप का लगाव नीरू की तरफ और भी बढ़ गया। वह उसे कई बार प्यार का वास्ता देकर देर से घर जाने पर मजबूर कर देता। नीरू कुछ न कहती। उसके भीतर फिर वही अहसास जागता, ‘नीरू तुम्हारी ज़िंदगी सिर्फ तुम्हारी नहीं, इस पर औरों का भी अधिकार है।’
‘नीरू घर से संदेसा आया है कि राम की तबीयत एक दम बहुत ख़राब हो गई है।’ यह सुनकर नीरू के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। उसे सारा कमरा घूमता नज़र आ रहा था, कभी माँ का चेहरा और कभी पापा की उदास आँखें।
र राम को न तो बचना था और न ही बचा। नीरू पर तो जैसे एक नहीं, कई पहाड़ टूट पड़े। घर उसे अपना लगता नहीं था और ऑफिस तो अपना था ही नहीं। एक बार तो उसने सोचा कि नौकरी छोड़ दे। भाई-भाभी नहीं चाहते थे कि नीरू नौकरी छोड़े क्योंकि उनके लिए तो वह सोने को अंडे देने वाली एक गुड़िया थी और रोज़ सुबह ज़रूरत के अनुसार चाबी भर कर उस से खेला जाता।
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आज तिलकराज घर पर नहीं था, उसे कहीं जाना था। जाते वक्त वह नीरू से कह गया था, ‘बेटा! मुझे बहुत ज़रूरी काम से जाना पड़ रहा है। अत: आज तुम यहीं रह जाना और अनूप का ख़याल रखना। फिक्र मत करना, तुम्हारे घर कह कर जाऊंगा।’ नीरू कुछ न बोल सकी। तिलक परिवार के अहसानों के समक्ष उसे यह मांग तुच्छ सी लगी।
‘नीरू, तू मेरे कमरे में ही सो जा, मेरा अकेले सोने को जी नहीं चाहता।’
अनूप की ऑंखों में उदासी भरा अनुरोध देख नीरू चाबी से चलने वाली एक गुड़िया की तरह अनूप के कमरे में आ सोई।
‘नीरू, मैं तुझे बहुत प्यार करता हूँ। मुझे पता है कि मैं बहुत दिन नहीं जीऊंगा। मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी का साथ नहीं पाया। तुमने मुझे बहुत कुछ दिया है।’ अनूप आज कुछ ज्यादा ही भावुक था। शायद न तो अपने जज्बातों पर और न ही खुद पर उसका नियंत्रण रहा था। वैसे भी रात के वक्त उस, पर दवाईयों का असर ज्यादा हो जाया करता था जिससे वह नशे की खुमारी सी में होता ‘नीरू, मेरे पास आओ। मेरे बहुत करीब। यूँ लगता है मेरी मृत्यु मेरे बहुत करीब है और इससे पहले मैं तुम्हें जी भर कर प्यार करना चाहता हूँ।’ अनूप ने नीरू को अपनी बाँहों में ले लिया।
नीरू को कभी यह अहसास तसल्ली देता कि तुम्हारी ज़िंदगी सिर्फ तुम्हारी नहीं, इस पर दूसरों का भी अधिकार है। नीरू को ऐसा लगता जैसे अपने लिए तो वह कभी जी ही नहीं पाई। न ही अपनी विचारधारा पर, और न ही अपने शरीर पर कभी उसका अधिकार रहा है।
अनूप की स्थिति अब बिगड़ती जा रही थी और एक दिन डॉक्टर ने नकारात्मक निर्णय सुना दिया। अनूप दुनिया से जा चुका था।
‘अंकल, मैं आपसे एक बात कहना चाहती हूँ।’
‘हाँ, बेटा बोलो।’
‘परंतु....... आंटी के सामने नहीं।’
‘नहीं बेटा, बेहिचक कहो। आंटी भी तो तुम्हारी बहुत अपनी है।’
‘अंकल, मेरी कोख़ में अनूप की दो महीनों की निशानी है और मुझे इन्हीं दिनों पता चला है।’ नीरू ने अपनी सारी शक्ति बटोर कर कह दिया। कमरे में सन्नाटा छा गया। तिलकराज ख़ामोश था। उसके चेहरे पर उभर रही लकीरें शक का अहसास करवा रही थीं।
‘इस बात का क्या सबूत है कि यह सब कुछ अनूप का ही है ? अगर ऐसा ही था तो तुमने हमें पहले क्यों नहीं बताया ? ऐसा लगता है जैसे तुम हमें ब्लैकमेल करना चाहती हो।’ और लीला पता नहीं क्या-क्या कह गई।
नीरू सुनकर भी नहीं सुन रही थी। आज शायद इस गुड़िया में कोई चाबी भरना भूल गया था।
‘बेटा, अगर तुम्हें 10-12 हजार की ज़रूरत है तो ले जाओ परंतु हमारी इज्जत से मत खेलो।’ अंतत: तिलक ने भी अपने दिल की बात कह डाली।
वृक्ष से चिड़िया का एक चूजा उसके सामने ज़मीन पर आ गिरा। वह तड़प रहा था, शायद अंतिम साँस ले रहा होगा। नीरू अपने ख़यालों की दुनिया से वापिस आई। सामने उसे दोनों सड़कें नज़र आ रहीं थीं। अगर भाई-भाभी को सारी बात पता चल गई तो वे उसे कदापि घर में नहीं रहने देंगे। कौन यकीन करेगा उसकी मासूमियत और बेगुनाही पर ? यूं भी उसके इस अहसास कि ‘नीरू ! तुम्हारी ज़िंदगी सिर्फ तुम्हारी नहीं है, इस पर दूसरों का भी अधिकार है’ की न तो कोई कद्र थी और न ही अहमियत। वह उठी। उसने एक नज़र सामने मृत पड़े चूजे पर डाल कर पहले घर की ओर जाने वाली सड़क की तरफ देखा, फिर पुल की ओर जाने वाले रास्ते की तरफ।
साभार – बात सामयिकी, कोलकाता, 1999
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