(पंजाबी के जाने-माने लेखक बलवंत गार्गी साहब ने अलग-अलग क्षेत्रों की शख्सीयतों पर रेखाचित्र लिखे हैं, यहाँ प्रस्तुत है रेशमा पर लिखा उनका बेहद प्यारा सा रेखाचित्र ।)
रेशमा
0 बलवंत गार्गी
पंजाबी से अनुवाद : नीलम शर्मा ‘अंशुÖ’
पिछले साल रेशमा अचानक पाकिस्तान से नई दिल्ली आई। किसी को इस विष्य में पता नहीं था। बस, राजकुमारी अनीता सिंह को बंबई से फोन आया कि पाँच बजे प्लेन पहुँच रहा है, वह रेशमा को एयरपोर्ट पर मिले।
कपूरथले के शाही घराने की राजकुमारी अनीता सिंह राजा पद्मजीत सिंह की लाडली बेटी है। मोटी स्याह आँखें, घने काले स्याह बाल, चंपई रंग, वह दिल्ली की सांस्कृतिक महफ़िलों की शान है। हर बड़ा संगीतकार तथा गायक – विलायत खां, रवि शंकर, किशोरी अमोनकर, परवीन सुल्ताना, मुनव्वर अली खां, पाकिस्तान से आए गुलाम अली तथा तुफैल नियाज़ी – अनीता सिंह के घर की महफ़िलों में विराजते रहे हैं। हर बड़ा गाय़क जो राजधानी में आता है, अनीता सिंह आवभगत तथा संगीत महफ़िलों को सजाने में आगे रहती है।
अब रेशमा आ रही थी।
रेशमा का जब पहला रिकॉर्ड ‘हाय ओ रब्बा, नहींओ लगदा दिल मेरा’ 1969 में लंदन की मार्फत हिंदुस्तान आया तो चारों तरफ आग सी फैल गई। ऐसी आवाज़ जिसमें जंगली कबीले का हुस्न तथा हृदय-स्पर्शी हूक थी, कभी किसी ने नहीं सुनी थी। इसमें पंजाब की आत्मा गूंजती थी। जो भी रेशमा के गीत को सुनता दिल थाम कर बैठ जाता। उन्हीं दिनों शिव कुमार बटालवी ने मुझसे पूछा – ‘तूने सुना है रेशमा का गीत? “नस्स गई सप्पणी रोवे सपेरा, हाय ओ रब्बा नहीं ओ लगदा दिल मेरा।” शिव ने यह गीत अपनी आवाज़ में सुनाया। इसमें अजीब विलाप तथा दर्द था।
उसके रिकॉर्ड के टेप बने तो टेप की नकल तथा टेप दर टेप की नकल द्वारा लाखों घरों में रेशमा का गीत पहुँच गया। रेशमा की आवाज़ में इतनी शक्ति तथा ओज़ था कि असली गीत की नकलों में भी जादू भरी कशिश नहीं टूटी थी।
अनीता सिंह से पता चला कि रेशमा अचानक ही करांची से बंबई आई। दिलीप कुमार को पता चला तो वह कार लेकर उसके छोटे होटल में मिलने गया तथा कहा – ‘रेशमा ! मैं तो तुम्हारा फैन हूँ।’
दिलीप कुमार ने रेशमा तथा उसके दो रिश्तेदारों का होटल सी रॉक में ठहरने का प्रबंध कर दिया। उसके सारे खर्चों की जिम्मेदारी ली। रात को उसने पाली हिल के सामने अपने बंगले में रेशमा के लिए एक पार्टी दी, जिसमें बहुत से फ़िल्म स्टार तथा संगीत निर्देशक शामिल हुए। सायरा बानो बड़ा थाल लेकर लोगों को मिश्री बाँट रही थी। सायरा बानो की माँ नसीम बानो जो कभी अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर थी तथा जिसने फिल्म पुकार में हीरोईन का रोल किया था तथा जिसे परी चेहरा नसीम कहा जाता था, इस पार्टी में रेशमा को सुनने के लिए उतावली बैठी थी। नसीम बानो की माँ शमशाद बाई जो 1930-32 में मशहूर गायिका थी तथा शमियां के नाम से मशहूर थी, लाठी टेकती हुई बूढ़ी नानी के रूप में रेशमा की आवाज़ सुनने के लिए बैठी थी।
रेशमा गा रही थी तथा फ़िल्म जगत के सुपर स्टार बार-बार वाह-वाह करके उसके सदके जा रहे थे। इसके बाद अमज़द खान ने रेशमा के लिए बहुत बड़ी पार्टी दी। उसके पश्चात् राज कपूर ने अपनी मशहूर कॉटेज में दावत दी जिसमें कपूर खानदान तथा अन्य फ़िल्मी सितारे मौजूद थे। रेशमा इन सुपर स्टारों की स्टार थी।
रात तीन बजे तक रेशमा गाती रही। राजकूपर बार-बार अपने सीने पर मुक्के मार रहा था और कह रहा था - ‘हाय ओ रब्बा, कुर्बान जाऊँ.....हाय ओ रब्बा’ उसकी आँखों में खुशी तथा दर्द की झलक थी।
‘क्या ऐसी आवाज़ सचमुच ज़िंदा थी ? क्या कोई रेश्मा सचमुच ही मौजूद थी ? क्या यह हक़ीकत थी?’
मैं सब बातें सोच रहा था।
एक दिन तीन बजे अनीता सिंह का फोन आया कि फौरन चले आओ। रेशमा को साढ़े चार बजे कहीं जाना था। यही वक्त था उससे मिलने का।
मैं दस मिनट में ज़ोर बाग के गेस्ट हाउस पहुँचा। कैमरा, टेप रिकॉर्डर साथ ले गया था क्योंकि शायद मुझे दोबारा ऐसा मौका नसीब न हो कि मैं इस जादूभरी खानाबदोश से मिल सकूं।
दरबान ने मेरा नाम पूछा तथा कमरे की तरफ इशारा किया कि मैं भीतर चला जाऊँ।
मैं कैमरा बाहर ही छोड़ गया। कैमरा हाथ में हो तो ऐसा लगता है मानो कोई बंदूक उठाकर किसी जोगन के दर्शनों के लिए जाए। मुझे बताया गया था कि रेशमा कैमरे तथा टेप रिकॉर्डर से घबराती है।
दस्तक देकर भीतर प्रवेश किया तो देखा वह पलंग पर बैठी पान खा रही थी। उसकी नाक में हीरा जड़ा लौंग था, कलाई पर सोने का मोटा कड़ा तथा पाँवों में पाजेब। सिर पर सितारों जड़ा हरा दुपट्टा, खुली कमीज़ और चौड़े पहुँचों वाली सलवार।
एक तरफ दो आदमी बैठे थे, सलेटी रंग की सलवार तथा कुर्ता पहने उसके रिश्तेदार, जो कि पाकिस्तान से उसके साथ आए थे। अनीता सिंह साथ वाली चारपाई पर बैठी थी।
मेरे बारे में अनीता सिंह ने पह्ले ही रेशमा को बता दिया था। रेशमा मुझे देखकर खड़ी हो गई तथा उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए। मैंने आदर से उसके हाथों को पकड़ा तथा झुक कर कहा, बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर।
'तशरीफ़ रखिए,' उसने कहा।
उसके पहले शब्द ही गूंजमय थे। हम बातें करने लगे।
रेशमा का बदन गठीला, नैन-नक्श तीखे, आँखें भूरी थीं जो रेगिस्तान में रहने वालों की होती है।
उसके होठों पर खानाबदोशों का खुला अंदाज़ था, खुला-डुला स्वभाव जिस पर आधुनिक संस्कृति का कोई मुलम्मा नहीं था।
उसे देखकर तथा मिलकर अहसास हुआ जैसे मैंने इस महिला को कई बार देखा है। उसकी शोहरत का शाही रोआब फ़ौरन ही मिट गया तथा वह हृष्ट-पुष्ट शरीर वाली सिकलीगरनी प्रतीत होने लगी।
कुछ रस्मी बातों के पश्चात् उसने पूछा - ‘क्या पीएंगे ? ठंडा या गर्म ?’
मैंने कहा - ‘ठंडा।’
उसने पलंग पर बैठे-बैठे ही नौकर से कहा, ‘बलवंत जी के लिए विमटो लाओ।’
अनीता सिंह ने कहा - ‘विमटो नहीं लिमका।’
रेशमा ने शायद बचपन में किसी मेले में विमटो पीया होगा या सुना होगा। उसे कोका कोला, लिमका, फैंटा आदि सब विमटो ही प्रतीत हो रहे थे।
मैंने पूछा - ‘आपने गाना कहाँ से सीखा?’
‘अल्लाह ने दिया है।’
‘मेरा मतलब है आपकी आवाज़ इतनी मंजी हुई है, यह बिना सीखे या रियाज़ के संभव नहीं।’
‘अल्लाह जानता है मैंने कहीं से नहीं सीखा। हम बीकानेर के रहने वाले हैं.... राजस्थान के, रेगिस्तान के। रतनगढ़ का नाम सुना होगा आपने, उससे तीन मील दूर हमारा गाँव था। मेरा बाप घोड़ों तथा ऊँटों का व्यापार करता था। हम बंजारे हैं। आज यहाँ, कल वहाँ जब हमारा काफ़िला चलता तो जहाँ रात हो जाती हम वहीं डेरा डाल लेते तथा तारों के नीचे सो जाते। हमारे कबीले के पंद्रह बीस परिवार थे तथा डेढ़-दो सौ प्राणी। सभी इकट्ठे ही चलते रहते तथा आपस में शगुनों और त्योहारों को मनाते। एक ही साथ चार-चार मील का लंबा सफ़र। पैदल। रेत में। बीकानेर से बहावलपुर, मुलतान, सिंध, हैदराबाद। ऊँटों की घंटियां बजतीं तथा मैं ऊँची आवाज़ में गाते हुए मीलों तक चलती जाती। खुली फ़िज़ा में गाने का अपना ही मज़ा है। अल्लाह आपके साथ होता है।’
‘ मैं बीयावान तथा एकांत में गाने की अभ्यस्त थी। मैं बंद कमरे में बैठकर गाने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। मैंने कोई रियाज़ नहीं किया। रियाज़ करने से क्या होता है। यदि आपके भीतर सुर न हों तो सारी उम्र रियाज़ करते रहने से भी कुछ नहीं बनता। यह अल्लाह की देन है। जिसे चाहे बख्श दे।’
थोड़ी देर रुक कर कहा, ‘अल्लाह जानता है मुझे नहीं मालूम कि मैंने कब गाना शुरू किया। बचपन से ही शौक था। मेलों में हम ऊँट तथा घोड़े बेचने जाते तो वहाँ मैं कव्वालियां सुनती या कोई खेल या तमाशा हो रहा होता तो उसके गीत सुनती। मैं सोचा करती, रेशमा ये लोग कितना अच्छा गाते हैं। भगवान करे रेशमा तू भी इस तरह गा सके। तेरा भी कभी नाम हो। मैंने सुन-सुन कर गाना सीखा। चलते-फिरते रेगिस्तानों की धूल छानती मैं ऊँची आवाज़ में गाती थी। क्या पता था किसी दिन एक बंजारन लंदन के बड़े स्टुडियो में गाएगी तथा न्युयॉर्क में प्रोग्राम करेगी। मैं अल्लाह की शुक्रगुज़ार हूँ। मेरे गले में अल्लाह का वास है। मेरी साँसों में उसकी साँस हैं। उसका करम तथा उसी का फज़ल।’
रेशमा की कहानी अब सबको मालूम है। उसके पूर्वज राजस्थान के रहने वाले हैं। एक बार उनका काफ़िला पेशावर उतरा तो वहाँ ही रेशमा का जन्म हुआ। देश के विभाजन के समय उसकी उम्र दो साल थी। वह खेमों तथा काफ़िलों में जवान हुई। वह इक्कीस साल की थी जब उसने अपने भाई की मन्नत माँगी। उनका काफ़िला हैदराबाद सिंध गया तो वह सेवन गाँव में शाह कलंदर की मज़ार पर गई। वहाँ उसने कव्वाली गाई। कव्वाली के बोल तथा धुन उसने खुद ही बनाई थी और बोल थे - दमा दम मस्त क्लंदर। इस अवसर पर श्रद्धालुओं में पाकिस्तान रेडियो के डायरेक्टर सलीम गिलानी भी मौज़ूद थे। सलीम गिलानी यह आवाज़ सुनकर हैरान रह गए तथा उन्होंने कहा - ‘तुम बहुत अच्छा गाती हो। क्या नाम है तुम्हारा ?’ रेशमा ने अपना नाम बताया तो सलीम गिलानी ने पूछा, ‘रेडियो पर गाओगी ?’ रेशमा ने कहा, ‘मुझे नहीं पता।’ गिलानी ने अपना कार्ड तथा पता दिया और कहा कि उसके परिवार के सभी सदस्यों का खर्च पाकिस्तान रेडियो देगा यदि वह करांची जाकर रेडियो पर गाए। रेशमा ने ‘अच्छा’ कहकर कार्ड अपने कुर्ते की जेब में डाला।
इसके बाद उनका काफ़िला चल पड़ा। दो वर्षों के पश्चात् घूमता-घुमाता काफ़िला मुल्तान पहुँचा। रेशमा के अब्बा तथा माँ के परिवार के लोगों ने सोचा, सुना है करांची शहर बहुत सुंदर तथा बड़ा है। वहाँ चलें तथा चल कर शहर देखें।
वे करांची आए तो रेशमा ने सलीम गिलानी का पुराना कार्ड निकाल कर रेडियो का पता किया। पूछते-पूछते वे लोग रेडियो देखने आ गए। वहाँ दरवान ने भीतर नहीं जाने दिया। बहुत मिन्नतें कीं तथा कहा कि उसे सलीम गिलानी ने बुलाया है। एक कर्मचारी ने पूछा – ‘कब ?’ ‘दो साल हो गए’ रेशमा ने कहा। वह कर्मचारी बोला - ‘बहुत जल्दी आ गए आप लोग।’ कुछ लोग हँस पड़े। आख़िर रेशमा तथा उसका परिवार सलीम गिलानी से मिला तो वे रेशमा को देखकर बहुत खुश हुए। रेशमा को स्टुडियो में ले जाकर गाने के लिए कहा तो रेशमा बोलीं, ‘मैं तो मज़ार पर ही गा सकती हूँ तथा उसी तरह गाऊंगी।’
रेशमा के कई गीत रेडियो डायरेक्टर ने रिकॉर्ड कर लिए। एक फोटोग्राफर ने रेशमा की फोटो भी ले ली। इस पर वह नाराज़ हो गई तथा अपने काफ़िले के साथ चली गई।
रेशमा के गीत ब्रॉडकास्ट हुए तो सारे पाकिस्तान में उसकी आवाज़ की शोहरत फैल गई। इस आवाज़ में अजीब दर्द था, एक पीड़ा, फिज़ा में गूंजती जादुई कशिश।
पर रेशमा का पता न चला कि वह कहाँ है। उसका न कोई घर था, न पता, न पक्का ठिकाना। काफ़िला चलता गया तथा रेशमा अपनी शोहरत से बेख़बर थी।
फिर सलीम गिलानी की तरफ से एक इश्तहार छपा जिसमें रेशमा की तस्वीर थी कि जो कोई इस लड़की की ख़बर देगा उसे दो हज़ार रुपए इनाम मिलेगा। रेशमा की तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी।
जब रेशमा का काफ़िला चलते-फिरते फिर मुल्तान आया तो वहाँ उसने एक पत्रिका में अपनी तस्वीर देखी। वही दुपट्टा, वही झुमके। रेशमा ने पूछताछ की, क्योंकि वह खुद पढ़ना नहीं जानती थी। लोगों के कहने पर रेशमा ने उर्दू में एक चिट्ठी सलीम गिलानी को लिखवाई। कबीले के लोग रेशमा की फोटो देखकर नाराज़ हुए कि उनकी बेटी की तस्वीर क्यों बाज़ारों में बिक रही थी। थोड़े दिनों के पश्चात् सलीम गिलानी का जवाब आया तथा उसने फिर रेशमा से रेडियो पर गाने के लिए अनुरोध किया, रेशमा मान गई।
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जोर बाग के गेस्ट हाउस में बैठ बातें करते हुए रेशमा ने मुझसे कहा : ‘बलवंत जी, मैं तो बंजारन थी। खद्दर थी, लोगों ने रेशमा बना दिया। आप जैसे भाईयों तथा बहनों की शुक्रगुज़ार हूँ। मैं पाकिस्तान की शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मुझे रेगिस्तान में से ढूँढ कर रेशमा बना दिया। आप सुनेंगे कुछ ? मेरे पास बाजा नहीं है। मैं यहाँ गाने नहीं आई। अपने रिश्तेदारों से मिलने आई हूँ। कुछ बंबई में हैं, कुछ दिल्ली में और बाकी मेरे गाँव रतनगढ़ के नज़दीक हैं। मेरे अब्बा ने कहा था कि मैं अपने गाँव ज़रूर जाऊं। जी चाहता है उस जगह को देखूं जहाँ मेरे दादे तथा परदादों की कब्रें हैं.....उस रेत को छूने को जी चाहता है जहाँ वे सोये पड़े हैं.....उसी सहरा में साँस लेने के लिए मैं पैंतीस सालों बाद पहली बार हिंदुस्तान आई हूँ तथा यहाँ आकर मुझे बहुत प्यार मिला है। बंबई में दिलीप कुमार साहब को मिलने को जी चाहता था और वे मेरे छोटे से होटल में आए तथा मुझे साथ ले गए। राज कपूर साहब का जवाब नहीं। उनके बेटे ने मुझे अपनी नई फ़िल्म दिखाई। क्या नाम है उनके बेटे का ? और अमज़द खान, कल्याण जी आनंद जी तथा और बहुत सारे लोग। किस-किस का नाम लूँ ? तथा राजकुमारी अनीता मेरी देखभाल कर रहीं हैं यहाँ दिल्ली में। यह मेरी बहन है...मैं यहाँ रिश्तेदारों से मिलने आई हूँ, गाने नहीं आई। मैं हज़रत निज़ाम-उ-द्दीन औलीया की दरग़ाह पर गई। उनके हजूर में हाज़िरी भरी। न्याज़ बाँटी। चादर चढ़ाई। हज़रत अमीर खुसरो के दरबार में भी गई। कल मैं ग़ालिब से मिलने गई थी। बड़ा सकुन मिला। बड़ा प्यार मिला। बस, तीन-चार दिनों में मैं अजमेर शरीफ़ जाऊंगी, ग़रीबनवाज़ के दरबार में हाज़िरी भरने तथा न्याज़ बाँटने। मुझे पीरों-फकीरों तथा औलवियों में श्रद्धा है। जब मैं गाती हूँ तो उनका साया मेरे सर पर होता है।’
मैंने कहा, ‘रेशमा जब तुम हीर गाती हो तो शुद्ध भैरवी होती है।’
उसने कहा, ‘आपको भैरवी पसंद है न ? यहाँ मेरे पास बाजा नहीं है। हम कोई साज़ भी तो नहीं लेकर आए। चलो बिना बाजे के ही सही।’
उसने सुर लगाया तथा वारिस शाह की हीर के ये बोल गाने लगी :-
‘हीर आखिया जोगिया झूठ आखें
कौन रुठड़े यार मनांवदा ई।’
( हीर ने कहा, जोगी तुम झूठ बोलते हो, कौन रूठे यार मनाता है।)
कमरा उसकी आवाज़ से गूँज उठा। दो बार फोन की घंटी बजी, एयरकंडीशनर की आवाज़ भी थी, पर रेशमा की आवाज़ इनसे ऊपर की फ़िज़ा में ऊँचे गुंबद तथा मीनार बना रही थी। उसकी आवाज़ में सहरा की अज़ान थी, एक चुंबकीय शक्ति। उसका चेहरा पिघल गया तथा हसीन हो गया। उसकी आवाज़ को सिर्फ मेरे कान ही नहीं सुन रहे थे बलकि मेरे जिस्म का हर रोम छिद्र इसे मह्सूस कर रहा था।
इस आवाज़ में क्या था ? इसमें काले नाग थे - एक अजीब ज़हरीली कशिश जो मुझे डस रही थी। कभी सर से पाँवों तक झुनझुनी सी दौड़ जाती। एक तपिश आ रही थी आवाज़ में से।
यह गीत भैरवी में था। वह कह रही थी, कौन रुठड़े यार मनांवदा ई। उस ने हृदय-स्पर्शी सुर लगा कर कहा :-
‘देवां चूरीयां घिओ दे बाल दीवे
वारसशाह जे सुणा मैं आंवदा ई।’
(यदि सुनूं कि वह आ रहा है तो मैं घी के दीये जलाकर चूरीयां चढ़ाऊँ।)
इसमें पंजाब के रूठे मित्रों को मिलाने तथा झूठे सपनों की पुकार थी। हिंदुस्तान तथा पाकिस्तान के पंजाबी दोस्तों, रिश्तेदारों तथा महबूब साथियों से बिछुड़ने के ग़म में डूबी हुई आवाज़। ये मात्र शब्द नहीं थे, उसकी आवाज़ ने शब्दों को प्राभौतिक अर्थ दे दिए थे तथा नई भाषा के मंत्र फूंक दिए थे।
रेशमा के गाने का अंदाज़ बहुत विचित्र तथा एकाकी है। वह सुर की पूरी शक्ति को निचोड़ कर इसका रस पिलाती है। वह लता मंगेशकर, बेगम अख्तर या सुरिंदर कौर से नहीं मिलाई जा सकती क्योंकि ये महफ़िलों में गाने वाली हैं। रेशमा की आवाज़ से लपटें निकलती हैं।
गीत समाप्त हुआ तो रेशमा कहने लगी, इस बार मैं शायद पंजाब न जा सकूं पर चंडीगढ़ तथा जालंधर जाने को बेहद जी चाहता है। अपने पंजाबी भाईयों को गाकर सुनाने की तमन्ना है। इंशा अल्लाह मैं कभी ज़रूर जाऊंगी।
रेशमा की गायकी में तीन महान गायिकाओं की समानता है जिन्हें मैंनें अपनी ज़िंदगी में सुना : जॉन बाइज़ जो कैलिफोर्निया के खुले जलसों में जंग के खिलाफ़ गीत गाती है तथा लोगों का दिल मोहती है (उसकी रगों में भी स्पेन के बंजारों का खून है), मिस्र की मशहूर गायिका कुलसुम जिसकी आवाज़ में कुरान की आयतें लरज़ती हैं, राया जिसे मैंने मॉस्को के जिप्सी थियेटर में नाचते और गाते सुना है तथा जिसने मेरे नाटक सोहणी महीवाल में सोहणी की सहेली रेशमा का रोल किया था।
रेशमा को यह नहीं पता कि एम. एफ. हुसैन कौन है, यामिनिकृष्णमूर्ति कौन है, अलकाज़ी कौन हैं, खुशवंत सिंह कौन है परंतु ये सभी जानते हैं कि रेशमा कौन है।
रेशमा को पाकिस्तान सरकार ने लंदन भेजा जहाँ उसने हज़ारों की भीड़ के समक्ष “दमा दम मस्त कलंदर” गाया। इस गीत की नकल करके कईयों ने शोहरत हासिल की - बांग्ला देश की रूना लैला ने इसी गीत को गाकर बंबई तथा दिल्ली को मोहा, जालंधर की बीबी नूरां ने भी रेशमा के अंदाज़ को अपनाकर इस गीत को पंजाब में चलाया। पर रेशमा जब गाती है तो उसका मन तथा ध्यान अपने पीर की तरफ होता है तथा जज्बे का सिदक हद से गहरा। पीरों-फ़कीरों के प्रति उसकी लगन तथा उनके दरबार में हाज़िरी देने का जज़्बा पवित्र है। वह इसी तर्ज क़ा जीवन जीती है। उसकी साँसों में पीरों-फकीरों की धड़कन है।
वह दुनिया के बड़े शहरों में जाकर महोत्सवों तथा मेलों में गा चुकी है। यूरोप, अमरीका, मिडल ईस्ट। तुर्की में उसे अंतर्राष्ट्रीय मेले में गाने के लिए सोने का मेडल मिला। पाकिस्तान ने उसे 1980 में ‘फ़ख्र-ए-पाकिस्तान’ के ख़िताब से नवाज़ा तथा पचास हज़ार रुपए एवं ज़मीन दी।
जब मैंने पूछा कि पंजाब के गायकों में उसे कौन पसंद है तो उसने जवाब दिया, बड़े गुलाम अली खां तथा सुरिंदर कौर मुझे बहुत पसंद है।
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दिल्ली में रेशमा बारह दिन रही। उस ने कई महफिलों में रात के तीन - तीन बजे तक गाया। उसके प्रशंसक उसके दर्शनों को तरसते रहे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर से मुझे फोन आया कि रेशमा कहाँ है। प्रधानमंत्री के कर्मचारी रेशमा का पता कर रहे थे। इंदिरा गांधी ने रेशमा से मिलने तथा उसका गायन सुनने की इच्छा व्यक्त की थी।
पिछली रात रेशमा ने मुझे बताया था कि अगली सुबह वह अजमेर शरीफ़ चली जाएगी तथा वहाँ जाकर ख्वाज़ा चिश्ती की दरगाह पर न्याज़ चढ़ाएगी। शायद चली ही न गई हो।
मैंने तुरंत अनीता को फोन किया तथा उसके बाद जोर बाग के गेस्ट हाउस। तीन-चार जगहों पर फोन करके आख़िर मैंने उसे ढूँढ लिया। वह अभी अजमेर नहीं गई थी।
मैंने उससे बात की तो वह बहुत खुश हुई। प्रधानमंत्री के घर से उसे फोन गया और बात पक्की हो गई कि वह पाँच बजे इंदिरा गांधी की कोठी पर पहुँच जाएगी।
मैं रेशमा के पास चार बजे ही पहुँच गया ताकि वह तैयार हो जाए।
वह बोली, अल्लाह का फ़ज़ल है कि मेरी आवाज़ इंदिरा गांधी के कानों तक पहुँचेगी। वह आपकी बादशाह है.... तथा मेरी भी... यह हमारा फ़र्ज है कि बादशाह के हज़ूर में गाएं। अल्लाह की क़रामात है। वह किसी को भी चाहे फ़कीर बना दे, चाहे बादशाह।
उसने गले में सोने का मोटा कंठा पहन लिया, नाक में नथ जिसमें हीरे जड़े हुए थे, तथा सर पर हरे सितारों वाला दुपट्टा। पाँवों में चाँदी की पाजेबें।
मेरी छोटी कार में रेशमा तथा उसके साथी बैठे और हम पौने पाँच बजे, 1, सफदरजंग रोड पहुंच गए। जब कोठी के भीतर प्रवेश करने लगे तो दो सुरक्षा गार्डों ने हमारी कार रोकी तथा हमारा नाम पूछा। मैंने रेशमा का नाम बताया तथा कहा कि पाँच बजे प्रधानमंत्री से मुलाक़ात है। बिना कोई और सवाल किए उन्होंने हमें भीतर जाने दिया।
आगे विशेष सचिव उषा भगत खड़ी थीं। वे हमें भीतर ले गईं।
साधारण बड़े कमरे में कालीन बिछा हुआ था। खिड़की के पास दो सोफे पड़े हुए थे तथा दूसरे सिरे पर सफेद चादर बिछी हुई थी, जिस पर रेशमा तथा उसके साथी बैठ गए।
थोड़ी देर के पश्चात् इंदिरा गांधी दाखिल हुईं तो सभी उठ खड़े हुए। उनके साथ सोनिया गाँधी थी, मुहम्मद युनुस तथा दस और क़रीबी महिलाएं।
इंदिरा गांधी रेशमा के पास गईं तथा उसका स्वागत किया। फिर वे सामने सोफे पर बैठ गईं तथा उनके साथ कई अन्य महिलाएं। सोनिया कालीन पर अन्य लोगों के साथ बैठी थी।
रेशमा ने अपनी बंजारन वाली विशाल मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘इजाज़त है ? गाऊं ?’
उषा भगत ने रेशमा के लिए चाय का ऑर्डर दिया था तथा बैरा चाय ले आया था।
श्रीमती गांधी ने कहा, ‘आप पहले चाय पी लें।’
रेशमा बोली, ‘चाय नहीं, अब तो गाने को जी करता है।’
श्रीमती गांधी के होठों पर मोतिया मुस्कान खेल गई, ‘हमारे पास बहुत वक्त है......बहुत वक्त है.....आप पहले चाय पी लें।’
रेशमा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘अब तो सिर्फ़ ग़ाने को ही जी चाहता है।’
कमरे का एयर कंडीशनर तथा पंखे बंद कर दिए गए। सन्नाटा छा गया।
रेशमा की आवाज़ गूंजी, हा ओ रब्बा.....
सुनने वालों के बदन में एक कंपकंपी सी दौड़ गई।
क़रीब बैठी सोनिया से मैंने पूछा, ‘आपको यह गीत समझ में आता है ?’
वे बोलीं, ‘हमारे पास रेशमा के टेप हैं। हमने इन टेपों को बार-बार सुना है। मुझे रेशमा की आवाज़ बहुत अच्छी लगती है।’
रेशमा एक घंटे तक गाती रही। सभी को उसकी आवाज़ ने कील दिया था।
श्रीमती गांधी ने उठकर रेशमा को जफ्फी पाई। उसे तोहफे के तौर पर एक सुनहरी घड़ी पेश की तथा दरवाज़े तक छोड़ने आई।
रेशमा ने मुझसे कहा, ‘यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरे सामने श्रीमती गांधी बैठीं मेरा गीत सुन रहीं हैं। वे बादशाह हैं, पर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी बड़ी बहन हो। यह सिर्फ़ ख्वाब लगता है।’
तीन दिनों के पश्चात् अनीता सिंह का फोन आया कि वे शाम को रेशमा के साथ मेरे घर खाने पर आएंगी। मैंने आठ-दस दोस्तों को अपने घर एक छोटी सी महफ़िल में बुला लिया। इनमें ज़्यादातर वे लोग थे जो कला, थियेटर तथा संगीत में रुचि रखते थे।
मेरे छोटे से आँगन में चंदा की चाँदनी में रेशमा रात के दो बजे तक गाती रही।
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मैं उसे जोर बाग के गैस्ट हाउस में दोबारा मिलने गया। दरबान ने अन्दर जाने का इशारा किया।
रेशमा बड़े पलंग पर पालथी मारे बैठी थी तथा उसके सामने मीट की हांडी, सरसों के साग का बड़ा सा कटोरा और मकई की रोटियां रखी हुई थीं। यह पलंग ही उसका दस्तारखान था। उसने एक निवाला तोड़ा ही था कि मैंने भीतर प्रवेश किया।
वह बोली, ‘आईए, आईए बलवंत जी, यहीं आ जाईए तथा हमारे साथ खाना खाईए।’
मैंने टेप रिकॉर्डर तथा कैमरा एक तरफ रख दिया और उसके साथ खाना खाने बैठ गया।
उसके बाल खुले थे, खुला कुर्ता।
वह बोली, ‘मुझे होटल का खाना पसंद नहीं। हिंदुओं के घर में सब कुछ है पर गोश्त पकाना नहीं आता। मेरा भाई जामा मस्ज़िद जाकर गोश्त लेकर आया। यहाँ खुद पकाया। हांडी के गोश्त की बात ही और है....मुझे बाजरे की रोटी बहुत अच्छी लगती है, पर यहाँ मिलती ही नहीं। मेरी माँ बाजरे की रोटी बनाती थी....साथ में पतली लस्सी का छन्ना...... हम बीकानेर के हैं न.....सहरा में बाजरा ही होता है।’
मुझे बठिंडे के टीले याद हो आए, जहाँ बाजरे के खेत थे तथा बाजरे की लंबी बालियां।
रेशमा खाते वक्त घर की बातें करती रही, ‘मैं अपना गाँव देखने आई हूँ जहां मेरे पूर्वजों की कब्रें हैं....रतनगढ़ से तीन मील दूर.....वहाँ कोई पक्की सड़क नहीं जाती.....वहाँ अब भी लोगों के लिए पीने का पानी नही। मैं दुबारा आपकी बादशाह गांधी से मिलकर अर्ज करूंगी कि वहाँ सड़कें तो बनवा दें...मैं अगली बार आई तो बड़ी महफ़िलों में गाकर रुपए इकट्ठे करूंगी अपने गाँव के लिए। पर अब मैं सिर्फ रिश्तेदारों से मिलने आई हूँ, गाने के लिए नहीं आई हूँ.....आप गोश्त तथा साग तो और लीजिए। यदि लाहौर आएं तो मुझे ज़रूर मिलें.....मेरा पता लिख लें.....मेरे नाम के साथ रेडियो सिंगर लिखें तथा यह भी लिखना नज़दीक शमा सिनेमा तथा सड़क का नाम भी नोट कर लें।’
वह इस बात पर बहुत ज़ोर दे रही थीं कि उसका पूरा पता लिखा जाए मानो चिट्ठी गुम हो जाएगी। उसे नहीं पता था कि पाकिस्तान में रेशमा नाम ही क़ाफ़ी है। सभी डाकिये उसका शहर, गली तथा मुहल्ला जानते हैं। दरअसल यदि कोई शमा सिनेमा का पता पूछे तो उसे यही बताना पड़ेगा - ‘रेशमा के घर के पास।’
मैंने पूछा - ‘रेशमा, तुम बीकानेरी घाघरा तथा बाँकें नहीं पहनती ?’
‘पहले मैं घाघरा ही पहनती थी, पाँच सेर पक्की चाँदी की बाँकें तथा कड़े। हम बंजारने जवानी में जो बाँके पहनती हैं, वे हमारे साथ ही दफन होती हैं....मेरी चाचियां, ताईयां मेरे कबीले में अब भी घाघरा पहनती हैं। तीस गज का घाघरा.....चलती है तो घाघरा झकोले खाता है....मैं भी घाघरा ही पहनती थी, पर शहर में आई तो पढ़े-लिखे लोगों को यह लिबास पसंद नहीं था.... पाकिस्तान का क़ौमी लिबास सलवार-क़मीज़ है, इसलिए अब मैं वही लिबास पह्नती हूँ।’
रेशमा का लिबास बेशक बदल गया परंतु उसकी आवाज़ में वही रेगिस्तानी गूंज तथा दिल हिला देने वाले ऊँचे स्वर हैं। स्वभाव में वही खुलापन है। वही लापरवाही, वही बादशाहत।
साभार - पुस्तक 'हसीन चेहरे' ।
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अदभुत संस्मरण है... पढ़ते हुए आंखें भर आईं...
जवाब देंहटाएंबलवंत गार्गी साहब ने रेश्मा जी पर वार्तालाप शैली में, या यूँ कहें उनके साक्षात्कार को बड़े ही रोचक तरीके से इस रेखा चित्र में प्रस्तुत किया है..........अनुवाद है यह तो लगता ही नहीं, शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद गाँधी जी, राजेश्वर जी बेहद आभार वक्त देने के लिए। हौंसला अफ़ज़ाई के लिए भी शुक्रिया। गार्गी साहब के रेखाचित्र मुझे बेहद प्रिय हैं, इसलिए सभी के साथ शेयर करने को जी चाहा।
जवाब देंहटाएंनीलम शर्मा अंशु।
क्या बात है। वाह। इसे मैं अपने ब्लॉग पर ले जा रहा हूं नीलम। मतलब इसका लिंक भी दे रहा हूं। और इसे कॉपी पेस्ट भी कर रहा हूं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया युनुस जी। ज़रूर बेहतरीन आलेख सब तक पहुँचने चाहिए। मेरी वॉल पर एक लिक और रेशमा जी से संबंधित, कृपया उसे भी पढ़िएगा। अच्छा लगेगा। पुन: आभार।
हटाएंदो बातें। एक तो इस आलेख का टेक्स्ट चाहिए मेल पर।
हटाएंदूसरी बात। बलवंत गार्गी की एक रचना रेशमा ने गायी है। मुझे याद नहीं आ रहा--रेशमा की कौन सी रचना बलवंत गार्गी की लिखी है। मदद कीजिए।
क्या बात है। वाह। धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिए। इसे मैं अपने ब्लॉग पर ले जा रहा हूं। इसका लिंक भी दे रहा हूं और इसे कॉपी पेस्ट भी करना चाहता हूं।
जवाब देंहटाएंअनूठा रेखाचित्र. इस रेखाचित्र को पढ़ कर बलवंत गार्गी की बाकी किताब को भी पढ़ने का जी करता है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रवि कांत जी। बलवंत गार्गी मेरे प्रिय लेखकों में से हैं। उनके रेखाचित्रों वाली पुस्तक, आत्मकथा और एक उपन्यास काशनी वेहड़ा मुझे बेहद प्रिय हैं। 1994 में उनसे मिल कर और साक्षात्कार लेकर मज़ा आया था। रोचक बात यह रही कि उन्होंने साक्षात्कार के लिए रिकॉर्डर भी खुद ही उपलब्ध करवाया और बाज़ार से सेल भी मंगवाए। रिकॉर्डर नया था जिसकी सील वगैरह भी मेरे सामने ही खोली गई। उनके सुपुत्र मनु गार्गी खुद दुकान से सेल लेकर आए। तब वो स्ट्रगलर थे, ऐड फिल्में कर रहे थे। बाद में उन्होंने देवानंद साहब की फ़िल्म गैंगस्टर में हीरो का रोल किया फिर खुद निर्देशक के तौर पर सक्रिय भी रहे। आजकल वे अमेरिका में हैं, उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है।
हटाएंवाकई बेमिसाल संस्मरण कंपोज किया है बलवंत जी ने, यादों में इतने गहरे डूब कर रेशमा के किरदार को सच में साकार कर देता हुआ एक बेहतरीन संस्मरण। अरसे बाद ऐसी खूबसूरत रचना पढकर आज की सुबह सार्थक हो गई। इसके लिए साथी प्रेमचंद का भी आभार।
जवाब देंहटाएंमेरी तरफ से आपको भी तह-ए-दिल से आभार।
हटाएंअनूठा रेखाचित्र. इसे पढ़ कर बलंवत गार्गी जी के बाकी रेखाचित्र पढ़ने को जी करता है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। इस संस्मण से मेरी आज की सुबह रेशमा जी की आवाज, उनकी सादगी की तरह ही बेहद सुंदर हो गई है। धन्यवाद इतना सुंदर संस्मण पढवाने के लिए।
जवाब देंहटाएंअनिता भारती जी, आपने इसका रसास्वादन किया, वक्त दिया पढ़ने में। आभार।
हटाएंआज सुबह-सुबह यह संस्मण पढा. रेशमा जी की सादगी और आवाज की कायल रही हूँ। आपके इस संस्मण से मेरी सुबह रेशमा जी की सुंदर आवाज और सादगी की तरह ही सुंदर हो गई है। आपका बहुत बहुत आभार इस संस्मण को पढवाने के लिए।
जवाब देंहटाएं1974 में जोधपुर में संगीत के पारखी स्व. गनपत लाल जी के मुंह से रेशमा के ये बंजारे किस्से टुकड़ों में सुने ,उन्होंने ही रेशमा का पहला एल.पी.सुनाया था । साथ में संगीत प्रेमी अब्दुल अज़ीज़ और सुधीर....। कई-कई दिनों तक सोते जागते ना केवल रेशमा की आवाज़ बल्कि उसकी काल्पनिक बंजारन छवि भी दिल और दिमाग में बनी रहती थी । आज फिर सब साकार हो गया । आभार । बधाई ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया हरिदास व्यास जी। दिल से शुक्रिया।
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जवाब देंहटाएंबहुत ही दिलचस्प किस्सागोई! आभार!
जी शुक्रिया। गार्गी साहब की क़िस्सागोई की मैं क़ायल रही हूँ।
हटाएंबहुत सुन्दर लेख।
जवाब देंहटाएंमित्र अरूण सेठी जी ने फेसबुक पर रेशमा जी पर राजकुमार केसवानी का लिखा एक लेख शेयर किया है वह भी पठनीय है।
आपस की बात
जानकारी के लिए शुक्रिया सागर जी।
हटाएंआ. नीलम जी,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख......। इस चीज़ को हम तक पहुंचाने के लिए बहुत शुक्रिया।
सादर
नवनीत
दिल से आभार नवनीत जी।
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जवाब देंहटाएंसुंदरतम....जीवंत रेखांकन ।
जवाब देंहटाएंवाह, मज़ा आ गया पढ़ के!
जवाब देंहटाएंवाह, मज़ा आ गया पढ़ के!
जवाब देंहटाएंउफ़ पढती रही और आँसू बहते रहे जाने कौन सी दुनिया में चली गयी ……आभारी हूँ । शब्द नहीं कुछ कहने को बस महसूस रही हूँ ।
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