पंजाबी कहानी
आयत
0 गुरप्रीत डैनी
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
उस दिन
लोहड़ी की धूनी में तिलों के साथ-साथ मैं स्वयं भी जल गया। मुझे अपने सामने अपनीचिता
जलती हुई प्रतीत हो रही थी। आयत उस घर में क्या गई कि सबकी आँखें फटी की फटी रह
गईं। मेरी माँ पर सवालों की बौछार होनेल गी। कौन है यह लड़की? एक अधेड़
उम्र की महिला ने माँ के कान में फूँक मारी। माँ को खुद इस रिश्ते के बारे में
नहीं पता था, वे क्या बतातीं। माँ चुप रहीं। आयत लोहड़ी माँगने आई
लड़कियों से गीत सुन कर, उनका अर्थ समझ रही थी और लड़कियों की नज़रें उसे पहचानने की
कोशिश कर रही थीं। बस माँ ने घर आकर जो क्लेश किया उस दिन के बाद मेरे पाँवों ने गाँव
की माटी का स्पर्श नहीं किया।
गाँव के स्कूल से बारह कक्षाएं पास करने के
बाद अब आगे की पढ़ाई का समय था। रिजल्ट का इंतज़ार... कौन सी स्ट्रीम चुननी है...
कुछ पता नहीं था। खाली होने के कारण एक दिन हम तीन दोस्त जम्मू घूमने चले गए। शाम
को मेरे एक दोस्त साहिल का दिल भर आया।
‘यार गैरी...
मुझे तुम्हारे भविष्य की चिंता रहती है। तूने छह साल पहलवानी की। तुम्हारी मेहनत मैंने
अपनी आँखों से देखी, लेकिन उसकी क़द्र न हुई। अपने दादाजी की तरह तुझे भी
किताबें पढ़ने का शौक है। तू पत्रकारिता क्यों नहीं कर लेता?’
‘यह कौन सी
बला है भाई जी।’ मैंने अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर की।
‘तुम अख़बार
तो पढ़ते हो, टी. वी. भी देखते हो...उसमें ख़बरें पढ़ने-लिखने वाले
पत्रकारिता की पढ़ाई करके आते हैं। तुम भी वह कर लो, रोज़ी
कमाने लायक बन जाओगे। वरना साले दादे की तरह पंचर की दुकान तुझसे नहीं चलने वाली।’
साहिल ने व्यंग्य के साथ-साथ भविष्य की ओर इशारा किया। मुझे उसकी सलाह जंच गई।
कुछ दिनों
के बाद फीस भरने लायक पैसों का जुगाड़ हो जाने पर मैं और साहिल यूनिवर्सिटी में दाखिला
लेने गए। उस दिन मैंने पहली बार आयत को देखा था। मटर के दानों जैसी गोल आँखें। छोटा
कद। गठीला तन। तेज़-तेज़ कदमों से चलती। मुझे वह बहुत अच्छी लगी। ख़ुशी तब हुई जब
मुझे पता चला कि वह मेरी क्लासमेट है। दस दिन बाद कक्षाएं शुरू हुईं। मैंने आज तक
अपने कपड़ों पर ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब मुझे कपड़ों की सलवटें बुरी लगने लगीं।
मैंने कपड़े प्रेस करना सीख लिया। आयत की एक झलक मेरा नया साँचा गढ़ रही थी। कक्षा
में हर कोई पंजाब के अलग-अलग ज़िले से आया था। कई हिमाचल प्रदेश और दिल्ली से भी
थे। अलग-अलग भाषा होने के बावजूद अपनत्व सभी को आलिंगनबद्ध कर रहा था। गाँव की
बोली बोलने वाले केवल हम दो ही लोग थे, मैं और एक
अन्य लड़का। हम क्लास में थोड़े अलग से थे। पहले दिन परिचय हुआ। बहुत से छात्र
हिंदी और अंग्रेजी बोल रहे थे। आयत अंग्रेजी हिंदी मिश्रित भाषा बोलती है लेकिन उसकी
हिंदी अधिक मनभावन थी। जब मैं अपने बारे में बता रहा था तो वह मेरी तरफ देख रही थी।
क्या सोच रही थी? पता
नहीं। पर उसका मेरी तरफ देखना मुझे अच्छा लग रहा था। मैं अपने बारे में जो बताना
चाहता था, शायद उसकी नज़रों की वजह से बता पाने में असफल रहा।
धीरे-धीरे सभी सहपाठी अपनी-अपनी रुचियां
एक-दूसरे से साझा करने लगे। पत्रकारिता की दुनिया ही ऐसी है। ख़ैर, सभी अपनी-अपनी
रुचि बताते। आयत की रुचि रेडियो पत्रकारिता में थी। जब वह अपना परिचय दे रही थी तो
उस समय मुझे उसकी आवाज़ सुन कर लगा था कि वह रेडियो की वजह से इस स्ट्रीम में आई
है। लेकिन अब यकीन आँखों के समक्ष था। आयत का किताबें पढ़ने का शौक हमें एक-दूसरे
के क़रीब ले आया। किताबों के आदान-प्रदान में कब दिलों का भी आदान-प्रदान हो गया,
हमें पता ही नहीं चला। ख़बरनवीस अपनी ही ख़बर भूल गए। कैंटीन, यूनिवर्सिटी
में लगे पीपल के पेड़ की छाया और नहर के किनारे से गुज़रने वाली कच्ची पगडंडी
हमारे उठने-बैठने के ठिकाने बन गए। तीन साल हवा के झोंके की भाँति गुज़र गए। अब
अपना-अपना रास्ता नापने का समय आ गया था। ट्रेनिंग के बाद सभी उज्ज्वल भविष्य और
समाज की कठिनाइयों को अपनी लेखनी के माध्यम से कागज़ के सीने पर उतारने की फिराक़
में थे। आयत को अपनी आवाज़के ज़रिए लोगों का दर्द बयां करना था। यह उसके लिए कठिन काम
था। आयत ने जालंधर के एक रेडियो स्टेशन पर ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी। वहाँ उसने
रेडियो की बारीकियां सीखीं। कुछ समय बाद ही उसकी आवाज़ में रवानगी आ गई। तीन महीने
का प्रशिक्षण पूरा करने के बाद अब रोज़गार
की तलाश की बारी थी। इस देश में हत्यारे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी
और संस्कारवान तो मिल जाएंगे, लेकिन रोजगार के लिए पाताल तक उतरना
होगा। मुझे आयत की चिंता होने लगी। वह घर वापस नहीं जाना चाहती थी... न ही मैं उसे
घर भेजना चाहता था। हम सारा दिन कंपनी बाग में बैठकर योजनाएं बनाते थे। मेरे पास
लगभग बारह हज़ार रुपयए की नौकरी थी। आयत और मैंने तय किया कि जब तक नौकरी का बंदोबस्त
नहीं हो जाता तब तक वह पीजी में रहेगी। पीजी का आधा खर्च मैं दूँगा और आधा वह घर
से ले लिया करेगी। चलो, उसके पीजी का इंतज़ाम भी हो गया। हॉस्टल में रहने के कारण उसे
बाहर रहने का तौर-तरीका... एकाकीपन झेलना आता था। घरवालों को वह ज़्यादा मिस नहीं
करती थी। मिस तो अब मुझे करने लगी थी। जब कभी हम पार्क में घंटों बैठ कर बातें
करते थे तो घर लौटते समय हम दोनों की आँखें भर आतीं। वह कितनी-कितनी देर तक मेरा
हाथ न छोड़ती।
एक दिन
वीकेंड पर मैं आयत को अपने साथ गाँव ले आया। मेरी माँ को थोड़ा-बहुत शक तो था कि
मैं फोन पर किसी लड़की से बातें करता हूँ परंतु कभी खुलकर आयत के बारे बात नहीं की
थी। बहन माँ को बताती कि
सारी रात ‘यह’ न खुद सोता है, न किसी को
सोने देता है, बाहर गली तक इसकी आवाज़ जाती है। पता नहीं कौन सी बातें
करके हँसता रहता है। आयत को देखकर माँ खुश हुईं। पिता ने भी प्यार दिया। आयत ने
कभी ग्रामीण जीवन नहीं देखा था, वह माँ के चूल्हे-चौंके को ध्यान से
देखते हुए अपने मोबाइल में तस्वीरें कैद करती जाती थी। उसे मेरा घर पसंद आया था। यह
सिलसिला अब रुकने वाला नहीं था। प्रत्येक रविवार को मैं आयत को गाँव ले आता था। अब
माँ को यह अच्छा लगने की बजाय अटपटा लगने लगा। ख़बरें लिखने वालों की गाँववालों ने
ख़बर ले ली कि गैरी के साथ एक लड़की आती है। जब हम साथ बैठ कर खाना खा रहे होते तो
माँ की सहेली मंजीत घर में आ हाज़िर होतीं... ‘अच्छा गैरी
की दोस्त है, एक साथ पढ़ते होंगे न बच्चे। आजकल तो सब कुछ हो रहा है, हमारे समय
में तो जिससे शादी होनी होती थी उसकी शक्ल तक देखने की इजाज़त नहीं थी।’ उनकी
आवाज़ बिना रुके घड़ी की सुइयों की भाँति हमारे कानों में गूंजती रहती थी। आयत को
मंजीत की कुछ – कुछ बातें ही समझ आतीं थीं। कई बार वह मुझसे बाद में पूछती -
‘वो आंटी
क्या बोल रही थीं।’ मैं टाल देता।
‘तुम कैसे गाँव में रहते हो, लोग कैसे देखते हैं। इन्होंने
कभी कोई लड़की नहीं देखी क्या?’ मैं मन ही मन सोचता, देखी तो
हैं, लेकिन यहाँ गर्लफ्रेंडस् शादी से पहले अपने बॉयफ्रेंड के घर
नहीं आतीं।’
आयत नौकरी के लिए कई रेडियो स्टेशनों पर
इंटरव्यू देने गई, लेकिन कहीं बात नहीं बनी। हमारी टेंशन ख़त्म होने का नाम ही
नहीं ले रही थी। पीजी में भी तीन महीने गुज़र चुके थे। आयत के घर वाले रोज़ फोन पर
पूछते, नौकरी का क्या बना। मुझसे आयत का दुःख देखा नहीं गया। मैंने आयत का सारा
सामान ऑटो में लादा और उसे अपने साथ गाँव ले आया। दरवाज़े पर खड़ी माँ के लिए तो यह
कोई जग से निराली बात थी। लोगों के जुटने से पहले माँ ने फटाफट सारा सामान ऑटो से
निकाल लिया। मैंने ऑटो वाले को पैसे देकर जल्दी रफूचक्कर होने को कहा। चूँकि हमारा
गाँव दोआबा में है, इसलिए ज़्यादातर घरों के लोग विदेशों में गए हुए हैं, इसलिए जब
भी गाँव में कोई कार या ऑटो आता है, तो लोग
घरों से बाहर निकल आते हैं कि देखें तो कौन आया है? जब आयत वॉशरूम
गई तो माता-पिता मेरे पीछे पड़ गए, ‘अरे तुमने
यह क्या किया? किसी पराई बेटी को घर क्यों ले आए, जबकि शरीके
वाले तो पहले ही मौक़े की तलाश में रहते हैं। क्या मुँह दिखाएंगे हम?’
‘माँ बस एक महीने की ही तो बात है। यह हमारे घर
पर ही रहेगी। इसकी नौकरी अभी तक कहीं तय नहीं हुई है। जब हो जाएगी तो यह फिर से
शहर में वापस चली जाएगी।’
‘...तो जब तू
काम पर जाएगा तो यह घर पर रहेगी?’ माँ ने अपने मन की बात उगल दी।
‘नहीं, वह मेरे
साथ ही जाया करेगी। मैंने उसे अपने दफ्तर में ट्रेनिंग पर लगवा दिया है।’ मैंने
माँ की चिंता को कम करने के लिए अपनी बात रखी। मैंने आयत का सामान अपने कमरे में
रख लिया। कमरे में बिखरी किताबों के लिए वह मुझे डाँटती थी।
‘कोई बुक्स
को ऐसे रखता है क्या, आप भी न गैरी बहुत लेज़ी हो। मैं ठीक करती हूँ।’ किताबें
ठीक करते समय मुझे उसके हाथों में चूड़ा नज़र आया, ‘यह क्या आयत?’ मेरे मुँह
से अचानक निकल गया।
‘क्या हुआ?’
‘तुम्हारे
हाथ में यह चूड़ा कहाँ से आ गया?’
‘कौन सा
चूड़ा? पागल हो गए
हो क्या? मैंने तो सिर्फ़ वॉच पहन रखी है। क्यों पागलों की तरह कुछ
भी बोलते जा रहे हो?’ मैंने एक
गिलास पानी पीया तो मन ठिकाने आया।
माँ जब रात का खाना हमारे कमरे में देने आईं
तो आयत ने कहा, ‘आप भी खाइए न आंटी।’
‘नहीं बेटा, तुम लोग खाओ।
मैं इसके डैडी के साथ खाउंगी।’
‘वाउ नाइस…।’
आयत ने माँ से मज़ाक किया लेकिन माँ बिना कुछ कहे चली गईं। सारा दिन सामान की
साज-संभाल करते आयत थक गई... जल्दी सो गई। मैं सारी रात माँ-बाप की खुसुर-फुसुर
सुनता रहा।
सुबह माँ गुरुद्वारे से प्रसाद लेकर आईं।
उन्होंने हम दोनों को प्रसाद देते हुए कहा,‘प्रभु तुम
लोगों को सुमत्त दे।’
‘आंटी यह सुमत्त
क्या होता है?’
‘यह अपने गैरी
से पूछ लो।’ माँ ने उलटा उत्तर दिया।
‘आयत सुमत्त
का अर्थ है ‘बुद्धि’।
‘यार हमें
जीने लायक तो है न बुद्धि।’
‘हाँ आयत, लेकिन
शायद समाज में रहने के लिए अभी और चाहिए।’
‘अब सोसायटी
डिसाइड करेगी कि हमें कितनी बुद्धि चाहिए।’ आयत के चेहरे पर गुस्सा था। मैंने उसे
शांत रहने के लिए कहा। हम काम के लिए निकल गए। सर्दियों के दिन थे। हम अपने समय से
पहले ही निकल जाते थे ताकि धुंध में कोई हमें देख न सके। ऐसे ही हम रात को देर रात
को लेट आते जब पूरा गाँव रजाई में घुस चुका होता। आयत लाइट जला कर सोती... जब वह
सो जाती तो मैं लाइट बंद कर देता। अभी मैं सोने की तैयारी ही कर रहा था कि मुझे पाजेब
की आवाज़ सुनाई दी। कभी पाजेब बजे... तो कभी दरवाज़े की कुंडी की बार-बार आवाज़
आए। पाजेब हमारे कमरे के बाहर ही छनक रही थी। माँ कमरे के बाहर हम दोनों के रिश्ते
की चौकीदारी कर रही थीं। मैंने ज़्यादा कुछ नहीं सोचा। दिन भर की दौड़-भाग की थकान के कारण मेरी आँख लग
गई।जब सुबह मैं उठा तो मेरी निगाह माँ के पाँवों पर गई। मैं कुछ बोलता इससे पहले
ही आयत बोल उठी, ‘अरे ये पाजेब अभी पहनी है आंटी?’
‘हाँ...
नहीं…।’ माँ की सच्चाई उसके होठों तक आते-आते थूक के साथ वापस उसके पेट में चली
गई। आयत को हमारे घर आए यह दूसरा हफ़्ता था। पूरे घर में वह बेफिक्री से घूमती। अब
उसने मेरे माता-पिता को मम्मी-पापा कहना शुरू कर दिया था। माँ को कई बार वह शिंदे
कहकर पुकारती थी क्योंकि पिता भी उसे शिंदे कहकर आवाज़ देते थे। आयत पिता की नकल
करती। पिता इतनी ठंड के बावजूद बाहर आँगन में स्नान करते थे। बाथरूम में आयत के
अंडर-गारमेंटस् टंगे होने के कारण पिता बाथरूम में नहीं जाते थे। माँ आयत को अंडरगारमेंट्स
छत पर नहीं सुखाने देती थी। अगर कभी आयत तार पर डाल भी आती तो माँ उसे दुपट्टे से
ढक देतीं। कभी-कभी न सूखने के कारण आयत खीझ भी जाती।
‘मम्मी, आप ऐसा
क्यों करते हो? यह भी तो कपड़े ही हैं।’ वह अपनी आज़ादी का कायदा माँ को पढ़ाना
शुरू कर देती थी।
एक दिन आयत ने माँ को उसकी पैंटी उलटते-पलटते
देख लिया, ‘ये क्या कर रहे हो मम्मी?’ उसने हैरानी
से पूछा।
‘खून के निशान ढूँढ रही हूँ।’ जो बातें माँ
के पेट में गोले सी बन जाती थीं, वे अब होठों तक पहुँच गईं।
‘बेटा, तुम्हारी माहवारी
कब आती है?’ माँ ने
आयत के पेट की तरफ देखते हुए पूछा।
आयत ने कोई जवाब नहीं दिया और कमरे में चली
गई। रात के लगभग दो बजे थे जब मुझे दूसरे कमरे से आवाज़ सुनाई दी, ‘ओह, देखो, उसका पेट निकल
आया है, लोग क्या कहेंगे, बिना सूहे
लाल सूट में सजे कौन जनता है बच्चे, मुझे तो अभी तुझपर पानी वारना था।’ भाई की
शादी को लेकर बहन के चाव धरे के धरे रह गए वे, मेरा पीर
नाराज़ हो जाएगा, मुझे जठेरे पूजने थे, तूने तो
सब कुछ जूठा कर दिया वे...’मैं तुरंत उठकर माँ के कमरे में गया। पिता माँ को डाँट रहे
थे, ‘क्या हल्ला मचा रखा है, क्यों सबकी नींद
ख़राब कर रही हो, सो जाओ चुप करके।’ शायद माँ सपने में बड़बड़ा रही थी।
‘तुम सो
जाओ बेटा।’ पिता ने ने मुझे हाथ से इशारा किया।
‘तूने सब कुछ
जूठा कर दिया वे...’यह वाक्य मेरे दिमाग मेंगड़ गया। मैं पूरी रात सो न सका।
छुट्टी का दिन होने के कारण हम लोग कमरे में ही थे। पिता ने दरवाज़ा खटखटाया, ‘बेटा, बाहर आकर
मेरी बात सुनो।’
‘तूने सब कुछ
जूठा कर दिया वे...’इस वाक्य ने एक बार फिर मेरे माथे पर पसीना ला दिया... ‘देखो
बेटा, हमने बेटी की शादी तय कर दी है, हमें पैसे-धेले
की भी ज़रूरत पड़ेगी, थोड़े पैसों का तुम करो कुछ और कुछ मैं देख लूंगा।’ पिता ने
मुझे मेरी ज़िम्मेदारी समझा दी। मैं उठने लगा तो कहना शुरू किया, ‘बेटा, अब हम
समधियों वाले बनने वाले हैं।इस लड़की को अब तुम शहर छोड़ आओ। शादी में सभी
रिश्तेदार आएंगे... क्या कहेंगे वे, तू तो पढ़ा-लिखा है। तुम्हारी अक्ल का मज़ाक
बन जाएगा बेटा।’
मुझे पिता के शब्दों में अपनी माँ के शब्दों
की झलक दिखाई दी।
‘ठीक है डैडी।’
मैं अपने कमरे में आ गया।’
‘क्या पूछ
रहे थे पापा?’ आयत ने
मेरे निराश चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा। कुछ नहीं, दीदी की शादी तय हो गई है। वे
उसके बारे में बता रहे थे।’ आयत की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। आज तक वह दीदी से कम
ही बात करती थी लेकिन अब उसने दीदी से बात-चीत बढ़ा दी थी। शादी की शॉपिंग के बारे
में बातें करनी शुरू कर दी थीं और अपनी सलाह भी देने लगी। जो दीदी आयत को पराया
समझती थीं, अब बात करते समय उसके मुँह से अगर आयत के लिए भाभी शब्द
निकल जाता तो दोनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगतीं। दीदी की शादी का दिन नज़दीक आ रहा
था। उसने माता-पिता कोमना लिया था कि आयत उसकी शादी तक यहीं रहेगी। यह भी कह दिया
कि जब कोई रिश्तेदार आयत के बारे में पूछे तो कह दें कि वह उसकी सहेली है। मैंने
राहत की साँस ली। नानका मेल (जिस दिन ननिहाल वाले आते हैं) वाले दिन ननिहाल और
ददिहाल वालों के बीच शब्द युद्ध भी
चला। मेरी मामियों और चाचियों-ताइयों ने एक दूसरे को अच्छी सिठ्ठणयाँ (प्यार भरी नोंक-झोंक) दीं। आयत के लिए यह सब नया था। उसे थोड़ा-बहुत ही समझ आया... अधिकतर उसके सर के ऊपर से गुज़रता रहा। बस इक्का-दुक्का बातें ही समझ आतीं तो वह शरमा कर आँखों पर हाथ रख लेती। बहन की सहेली होने के कारण रिश्तेदारों से तो बचाव हो गया लेकिन गाँव वालों का क्या करता? मेरे दोस्तों की माँएं मुझे चिढ़ाती - ‘अरे, तुम्हारी दुलहनियां तो बहुत सुंदर है।’ मैं कुछ न कहता। शादी वाले दिन मेरी बड़ी बुआ ने मुझे घेर लिया। शायद वे ताड़ गई थीं कि मामला कुछ और है। या माँ ने बता दिया होगा।
‘वे, यह लड़की
किनकी है?’
‘किनकी है,
क्या मतलब?’ मैंने पलट
कर पूछा।
‘किस जाति
की है?’ उन्होंने तिरछी
निगाह से सीधा सवाल पूछा।
‘बुआ लालाओं
की लड़की है जिन्हें हम बनिये कहते हैं।’
‘अरे! देखना कहीं
मेरे भाई की लानत-मलामत मत करवा देना। यह चार बहनों के बाद हुआ था। मेरी माँमन्नतें
पूरी करते-करते मर गईं। यह जो फोटो खिंचवा रहे हो न इसके साथ... ऐलबम में मत
लगावाना। क्या पता इसके घरवाले मानें या न मानें। कल को तुम्हारी बीवी पूछेगी भई
यह लड़की कौन है फिर क्या जवाब देगा?’ मुझसे ज़्यादा
अपने भाई की चिंता करते हुए वे नॉनस्टॉप एक ही साँस में बोले जा रही थीं।
शादी
अच्छी तरह निपट गई थी। बहन अपने घर चली गई थी। लेकिन उसकी ‘सहेली’ आयत अभी भी उसके मायके में थी।
माता-पिता से ली गई अनुमति से भी एक महीना ऊपर गुज़र चुका था। घर में झगड़ा बढ़ने
लगा। मेरे माता-पिता मुझसे चिढ़ने लगे। मुझे अपना ही घर पराया लगने लगा। मैंने कौन
सा गुनाह किया? मेरे दिमाग़ में यह सवाल बार-बार आ रहा था। अगर प्यार करना गुनाह
है तो नफ़रत क्या है? अब मुझे सारी रात नींद न आती। आयत भी अब मेरे माता-पिता के हाव-भाव
को समझने लगी थी। उसे मेरी उदासी की फ़िक्र होने लगी थी। गाँववालों से पहले मेरे
घर वाले ही आयत को वहाँ से चले जाने की ताकीद कर रहे थे।
उस दिन लोहड़ी थी। मेरे बड़े ताऊ जी के बेटा-बहू
ऑस्ट्रेलिया से अपने लड़कों की लोहड़ी के लिए आए थे। आयत ज़िद करके माँ के साथ ताऊ
जी के घर जाने के लिए तैयार हो गई। मुझे
भी साथ जाना ही पड़ता। माँ के पास कोई बहाना नहीं था। वह अपनी बेटी की सहेली कह कर
भीनहीं बच सकती थी। बस बूढ़ियां हो गईं शुरू,‘अरी
सुरिंदर... आज बहू भी साथ आई है।’
‘तुम
उत्साह से बताओ कि मेरी बहू है, तुम डरती क्यों हो?’
माँ जलती धूनी
में कूदने लगी तो आयत ने उसे कस कर पकड़ लिया। माँ पागलों जैसी हरकतें करने लगीं।
आयत बहुत डर गई थी। उसकी आँखों में पानी आ गया। वह मेरी ओर देख रही थी कि कहीं मैं
भी धूनी में न कूद जाऊँ। हम दोनों माँ को घर ले आए। सर की मालिश करने पर उसकी
तंद्रा लौटी।
‘देखो बेटा अब या तो मैं इस घर में
रहूँगी या यह लड़की। बहुत नुकसान करवा लिया मैंने और नहीं सह सकती। आज शरीके के
सामने मेरा सर झुक गया। या तो उससे शादी कर लो। नहीं तो उसे उसके माता-पिता के पास
छोड़ आओ।’ माँ आज पहली बार आयत के सामने
अपना गुब्बार निकाल रही थी। मुझे वह रात बहुत लंबी प्रतीत हुई। मैं अकेला ही नहीं, आयत भी
जाग रही थी।
‘मैं अब कहाँ
जाउंगी?’ आयत की बात
सुनकर मेरी रुलाई फूट पड़ी।
‘आयत तुम अकेली
नहीं, अब मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।’
सुबह
मैंने पूरा जालंधर शहर छान मारा। बेशक मेरे पास लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई दलीलें थीं, लेकिन
मेरी कोई भी दलील काम नहीं आई। आयत की सूनी कलाइयां देखकर सभी सर हिला देते। आयत
अपने रब को याद करने लगी, मैंने मॉडल टाउन में ग्रीन एवेन्यू की एक छोटी सी गली में
मकान नंबर 1051 के सामने मोटरसाइकिल रोक दी। इस घर का नंबर
मैंने ‘जस्ट डायल’ से लिया था। लगभग चालीस वर्षीया एक महिला
बाहर आईं। चेहरे पर एकाकीपन और आँखों में उनींदापन झलक रहा था। मानो कई सालों से सोई ही न हों।
उन्होंने मुझे और आयत को अंदर आने के लिए कहा। कई घरों का चक्करलगाने के बाद यह
पहला घर था जिसने हमें कुर्सियों पर बिठाया। अन्यथा सभी लोग गेट से हीलौटाते रहे। महिला
की उम्र देखकर मैंने उन्हें दीदी कह कर संबोधन करते हुए उनसे दो गिलास पानी माँगा।
उन्होंने हमें सिर्फ पानी ही नहीं बल्कि चाय भी पिलाई। चाय पीते-पीते मैंने उन्हें
सारी बात बताई। हम दोनों की आँसुओं से भरी आँखें देखकर उन्होंने हाँ कर दी। वे घर
में अकेली रहती थी। पति को दुनिया छोड़े सात साल हो गए थे। बेटा कनाडा में रहता था।
उन्होंने हमें पहली मंजिल पर एक कमरा दे दिया। आयत और मैं बहुत खुश थे। गाँव से
सामान ले जाते समय माँ-बाप दीवारों से लग कर रो रहे थे। मेरी आँखों से आँसू नहीं थम
रहे थे। माँ ने आयत का चेहरा थाम कर कहा, ‘बेटा पूरा
घर ही तुम्हारा है। जैसे लोग बहुओं को लाते हैं, उस तरह आना मैं घर की चाबियां तुम्हारे हाथ पर धर
दूंगी।’ ऑटो गाँव की सीमा पर कर गया।
मुझे अपनी माँ पानी का लोटा लिए द्वार पर
खड़ी नज़र आ रही थी।
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लेखक परिचय -
गुरप्रीत डैनी
21 अक्तूबर, 1995 को जालंधर के कोटला
गाँव (ननिहाल) में जन्म। गुरू नानक देव वि वि, अमृतसर से पत्रकारिता में डिग्री। पाँच
वर्षों से पत्रकारिता में। पंजाबी जागरण में कार्यरत रहने के बाद अब एक टी वी चैनल
से संबद्ध। वरिष्ठ लेखकों से भेंटवार्ताओं पर आधारित पुस्तक मेरीयां साहित्यिक
मुलाकातां प्रकाशित। कहानी लेखन में युवा कथाकारों में चर्चित नाम।
साभार - अक्षरा ,भोपाल, मई - 2025
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