जनगणना
0 जगजीत बराड़
अनुवाद - नीलम शर्मा ‘अंशु’
मैं उत्तम नगर, नई दिल्ली में जनगणना कर रहा था। एक दिन मैं एक ऐसे घर गया
जिसके मुखिया के पेशे के बार जानकर मैं अभी भी परेशान हूँ, जिस पेशे के बारे में
एक अविश्वास सदैव मेरे साथ रहेगा। उस आदमी
का घर शहर के पश्चिमी हिस्से में था। जब मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी तो उसने फौरन
दरवाज़ा खोल दिया। उसके मध्यम कद वाले तन
पर घुटनों से भी नीचे काले रंग का कुर्ता था, सफेद दाढ़ी, सफाचट मूँछे और सर पर
काली टोपी थी। मैंने ज़रा सा झिझकते हुए उन्हें अपना उद्देश्य बताया और बैज
दिखाया।
दो कमरों वाले घर के दाहिनी और एक छोटी
सी कोठरी थी जिसके बाहर मोटे काले अक्षरों में मुहम्मद साहब, श्री कृष्ण जी और
गुरु नानक देव जी के नाम लिखे थे। मैंने आवश्यकतानुसार उनसे जानकारी ली। उनका नाम,
उम्र, पेशा आदि पूछा। घर के मालिक का नाम था रसूल अहमद, उम्र 74 साल। पेशा बताते
समय वे झिझक गए और इतना ही बताया कि वे सेवानिवृत्त हो चुके थे। मैंने स्वभाविक
रूप से ही पूछा, ‘रसूल जी, अगर आप उचित समझें तो यह बताएं कि कोठरी के बाहर लिखित
तीन महान शख्सीयतों के नामों का क्या अर्थ है?’
रसूल जी ने बंदगी की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़ कर कहा - ‘अगर हम फिर मिले तो बताउँगा।’
‘क्या अनवर भी आपके साथ इसी घर में रहता है?’
‘रहता था। ओह मेरे अल्लाह।... हाँ रहा करता था।’
‘फिर तो अब जहाँ वह रहता है वहीं उसकी गणना होगी।’
‘मेरी ख़्वाहिश है कि उसकी गणना ज़रूर हो, परंतु अगर मुझे उसका पता-ठिकाना न
मालूम हो तो?’ रसूल ने भरे
मन से पूछा।
‘वह जहाँ भी है जनगणना वाले उसे ढूँढ लेंगे।’ मैंने उनकी बात पर ज़्यादा गौर नहीं किया और सोचा कि शायद अनवर अपने पिता
से चोरी-छुपे किसी बाहरी मुल्क में चला गया होगा।
‘उसकी गणना तो ज़रूर हो जाएगी न?’
‘रसूल जी, इस बाबत तो रब ही जानता है।’ यह कहकर मैं पछताया कि मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।
रसूल जी ने कहा, ‘देखिए जब मैं किसी से कोई बात पूछता हूँ तो सभी मुझे टाल
देते। जब मैं दरवाज़े सा बाहर निकलता हूँ, कभी-कभी कोई विरला व्यक्ति ही मेरी तकलीफ़
सुनता है, फिर कोई न कोई बहाना बना कर चल देता है। जिनकी दु:ख-तकलीफ़ सुनी जानी चाहिए, उनकी कोई सुनता नहीं, जिनकी
लोग सुनते हैं उन्हें कोई दु:ख-तकलीफ़ नहीं होती।’
‘रसूल जी, हम एक दिन दुबारा ज़रूर मिलेंगे। मेरा काम हफ्ते भर में ख़त्म हो
जाएगा। उसके बाद मैं किसी दिन आ जाउँगा।... ज़रूर आउँगा।’ मैं हमदर्दी से पसीज गया था।
‘ठीक है मनवंत साहब। आप किसी भी शनिवार आ जाएं।’
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पंद्रहवें दिन सुबह के 11 बजे मैं रसूल
जी के घर पहुँच गया। हम दोनों दरवाज़े के दाईं और वाली चारपाई पर बैठ गए। दो-चार
छोटी-मोटी बातें करने के बाद मैंने पूछा, ‘पिछली बार आपने कहा था कि तीन महान शख्सीयतों के नाम लिखने का मतंव्य
बताएंगे।’
‘मेरा ख़याल है कि महान शख्सीयतों की महानता इसी में है कि उन्हें धर्म,
मज़हब में कोई भेद-भाव नहीं। लोगों ने ही उनके नाम पर अलग-अलग मज़हब बना कर बिजनेस
खोल रखे हैं। इस तरह से लोग एक तो पैसे कमाते हैं और दूसरा लोगों के मन में ज़हर
भर रहे हैं।’
‘तब तो आप असली धार्मिक पुरुष हैं।’
‘धार्मिक व्यक्त्ति? नहीं... नहीं.... मेरे जैसा पापी तो कभी भी धार्मिक नहीं बन सकता। उन महान
शख्सीयतों के नाम लिखने में दरअसल धर्म वाली कोई बात नहीं।’
‘फिर आपने क्यों?’
‘दरअसल बात यह है कि नदी में डूब रहा व्यक्ति तिनके को कश्ती समझता है परंतु ये महान शख्सीयतें तो पापियों के लिए पुल हैं। मैं रोज़ सुबह चार बजे उठकर नलके के ताज़ा पानी से नहा कर कोठरी के एकांत में बैठ इन तीन महापुरुषों का नाम जपता हूँ, उनसे अपने पापों की क्षमा याचना करता हूँ और दिन का सकुन माँगता हूँ।’ ‘क्षमा याचना कैसी?’
‘सिंह साहब! क्षमा याचना
वाली बात बहुत लंबी है। अगर आप पहले मेरी कहानी सुन लें तो आप खुद ही समझ जाएंगे।
और बात-चीत के दौरान दो-चार घड़ी के लिए मेरा दु:ख शांत हो जाएगा।’
‘अच्छा! मुझसे बातें
करके अगर आपका दिल हल्का हो जाए तो मुझे खुशी होगी।’
रसूल जी ने अपना दाहिना हाथ दाढ़ी पर
फिराया और लंबी आह भरी, और दूसरी तरफ मुँह घुमा कर कहा, ‘आप जानते हैं न कि संगीत के घराने हुआ करते थे। संगीत ही
उनका पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म बना रहता था।’ उन्होंने मेरी तरफ देखा और चारपाई पर मेरे ज़रा और क़रीब होते हुए कहा, ‘मेरे पुरखों का भी एक घराना हुआ करता था। उसे हम अपने
परिवार में, किसी दूसरे से नहीं, तकमील-ए-सज़ा घराना कहते थे। परंतु मैँ आपको...’ कुछ पलों के लिए उन्होंने अपना मुँह ऊपर की तरफ कर लिया
और ख़ामोश हो गए।
मैं भी चुप रहा। मुझे तकमील शब्द का अर्थ
समझ न आय़ा। इसलिए मैंने कहा, ‘रसूल जी आपका घराना भी संगीत का घराना था?’
‘हमारा घराना? हमारा घराना
जेलों में काम करता था। आपको तकमील शब्द का अर्थ तो पता होगा जो है - पूरा करना।
हमारा घराना कुछ ख़ास किस्म के कैदियों की सज़ा पूरी करने में उनकी मदद करता था।’
‘तो जेलों में आपको बहुत ज़ालिम किरदारों के साथ भी दो-चार होना होता होगा।’
‘ख़ैर यह सिर्फ़ दिल के लिए ही कठिन नहीं था बल्कि याददाश्त और हाथों के लिए
भी बहुत कठिन था।’ उन्होंने
दोनों हाथ चेहरे पर फेरते हुए कहा, ‘सरकारी नौकरी थी, ज़्यादातर तो हमें घर बैठे ही महीने-महीने तनख़्वाह मिल
जाती थी। जब काम पर जाते थे तो हमें अतिरिक्त पैसे भी मिलते थे जिसे जेल में
चोरी-छिपे इनाम भी कहते हैं। मैं तो यह बताना ही भूल गया कि मुझे सरकार की तरफ से
फोन भी मुफ्त मिलता था। जेल वाले मेरे काम से दो-तीन दिल पहले मुझे फोन करते थे और
मुझे उसी वक्त हाज़िर होना पड़ता था।’
‘अच्छा, अगर फोन के समय आप बीमार होते थे तो?’
‘मनवंत बाबू, आप यह समझिए कि मुझे बीमार होने की भी इजाज़त नही। जब मैं अपनी
रोज़ी के लिए काम कर रहा था उस वक्त पूरे हिंदुस्तान में यह काम करने वाले केवल हम
तीन लोग ही थे। तीनों में अगर कोई बीमार हो जाता तो उसकी जगह बाकी दोनों में से
किसी को भी बुलाया जा सकता था।’
‘जेल अधिकारी आपके काम का दिन भी बदल सकते थे।’ मैंने कहा।
‘नहीं जी, हमारे काम का दिन और वक़्त बदला नहीं जा सकता था।’
‘अच्छा तो जब आपने काम शुरू किया था तब से आबादी तो बहुत बढ़ गई है, आपका
काम भी तो बढ़ गया होगा ?’
‘नहीं बल्कि आजकल तो हमारे काम में बहुत मंदी आ गई है, जो सज़ा हम तकमील
करते थे, अब सरकार वह सज़ा बहुत कम देती है।... सेवानिवृत्ति से पहले हमें यह काम
एक नए व्यक्ति को सिखाना पड़ता था।’
यह कहकर रसूल उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने
अपने मुँह पर हाथ फेरते और नीचे देखते हुए कहा, ‘इस वक़्त आप मुझे 15-20 मिनट की छुट्टी दे दीजिए, काफ़ी समय हो गया है,
हमें खाना भी तो खाना है। तो मैं बेगम से पूछ लूं कि उन्होंने क्य़ा बंदोबस्त किया
है। आप खाना अभी खाना चाहेंगे या थोड़ा रुक कर?’
‘शुक्रिया रसूल जी, मैं शनिवार को दिन के समय फाक़ामस्ती करता हूँ। मुझे किसी
चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं। आपने जो कुछ खाना-पीना है आप खा लीजिए।’
‘खाने-पीने की इच्छा तो अब रही नहीं बस चार-पाँच घंटों के लिए पेट में ईंधन
तो डालना ही पड़ता है।’
जब रसूल खाना खाकर वापस आए तो मैंने
पूछा, ‘आपका काम किस
प्रकार का है?’
‘काम? काम के बारे आप जल्दी ही जान जाएंगे। हम अपने घराने की बात कर रहे थे।
घराने की रवायत के अनुसार सोलह-सतरह की उम्र में बेटे को अपने पिता से हुनर सीखना
शुरू करना पड़ता है। जैसे-जैसे अनवर की मेरा काम सीखने के उम्र नज़दीक आती जा रही
थी मेरा दिल और भी डोलता जा रहा था। दुविधा मुझ पर हावी होती जा रही थी एक तरफ तो
मेरा दिल चाहता था कि वह हमारे घराने की एक कड़ी बने... आ अल्लाह... दूसरी तरफ मैं
सोचता कि इतने ज़ालिम काम में उसे क्यों झोंकूं?... क्यों? किस लिए?’
‘अच्छा, तो फिर आपने क्य़ा फैसला किया?’
‘फैसले ने तो मेरा बेड़ा गर्क कर दिया। बताउँगा फैसले के बारे में भी। अभी
मेरे दिल के दु:ख की ज्वाला को
ज़रा शांत हो लेने दीजिए। अभी मैं अपने बेटे की कुछ बातें कर लूं।’
‘माफ़ करना, मैंने आपको बीच में ही टोक दिया।’
‘अनवर बहुत अच्छा गाता था, बहुत ही अच्छा। उसे हीर और पूरण भगत गाने का शौक
था। कभी साझे पंजाब में नायब कोटिया कुम्हार बहुत मशहूर गायक था। वह जब पूरण भगत
गाता था तो वैराग्य़ में पेड़ पर बैठे परिंदे भी रोने लगते थे। क्या आवाज़ थी उस
कंबख्त की।.... अनवर जब कुम्हार की तर्ज़ पर गाते-गाते पूरण के हाथ-पैर काट कर
कुएं में फेंकने वाली बात पर आता तो श्रोताओं का दिल रो उठता... पूरण की माँ, रानी
इच्छरा की पीड़ा सही न जाती थी।’
‘अरे बेटा! मैं पूरण-पूरण
कह कर किसे पुकारूंगी?
किससे बातें
करूंगी किसे गले लगाउंगी।’
‘सचमुच बहुत दु:खद है पूरण की
गाथा।’ मैंने कहा।
‘इससे ज़्यादा दु:खद कहानी और
कौन सी हो सकती है? एक कठिन समय
ऐसा भी आया जब अनवर की इन पंक्तियों ने मेरी चूलों को सदा के लिए उखाड़ फेंका।’
‘अरे! रसूल जी क्यों? कैसे ?’
‘कभी-कभी इस दुनिया में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि वह जीवन को नर्क बना
देता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ... मेरा दिल उस दु:ख से बाहर नहीं निकलता।... लेकिन मैं बात अनवर की करना
चाहता था।’
‘वह अभी 16 का था जब स्कूल के तालिबान मेरा मतलब है छात्रों की गायकी
प्रतियोगिता हुई। अनवर ने किसी से गाना नहीं सीखा था। नई दिल्ली अंचल के तमाम
स्कूलों के तमाम तालिबानों में वह प्रथम आया था। सुनकर मेरा कद ऊँचा हो गया था।’
‘कद तो ऊँचा होना ही था।’
‘परंतु खुदा ने मेरी किस्मत बहुत ही कठोर लिखी है। अनवर जब साढ़े सतरह का हुआ
तो
उसने न्यु एज
कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हीं दिनों मेरा बीपी बहुत हाई रहने लगा था। मुझे फ़िक्र
शुरू हो गई कि अगर अल्लाह ने मुझे जल्दी ही बुला लिया तो हमारे घराने की रवायतों
को कौन आगे बढ़ाएगा। तो मैं उसे मेरे वाला काम सीखने के लिए मजबूर करने लगा। उसने
कहा, मैं तो गाय़क ही बनूंगा। वह भी ज़िद पर कायम था और मैं भी। मुझे फिक्र सताने
लगी कि जब मैं अल्लाह के पास चला जाउँगा तो अपने पुरखों को क्या बताउँगा। वे
कहेंगे, अरे मूर्ख तूने तो हमारे घराने को क़त्ल ही कर दिया है।’
‘रसूल जी, आप मुझे अपने काम का नाम बता दें तो मेरे लिए आपकी बात को समझना
आसान हो जाएगा।’
‘मनवंत बाबू मैं अभी ही बताता हूँ। हुआ यूं कि मेरे दबाव पर, मेरे मजबूर
करने पर अनवर बहुत टेंशन लेने लगा। वह बहुत चिड़चिड़ा हो गया। और देर से घर आने
लगा। वह शराब पीने लगा।... हाँ, आप मेरा काम पूछ रहे थे न?’
यह कहकर रसूल एकदम चुप हो गए। उन्होंने
दोनों हाथों से अपनी कनपटियां दबाईं और हाथ मारने लगे। शायद वे अपने भीतर
दृष्टिपात कर रहे थे। कुछ पलों के बाद उन्होंने कहा, ‘मनवंत जी मैं जल्लाद था।’
‘जल्लाद?’ मुझे ऐसा लगा
मानो रसूल जी ने मेरे माथे पर ईंट दे मारी हो। मेरी हैरानी देख वे ख़ामोश हो गए और
मैं भी। कुछ समय के लिए हम दोनों के पास शब्द ख़त्म हो गए थे।
‘हाँ, मैं जल्लाद था।’ उन्होंने ज़रा रुककर कहा, ‘मैं मृत्युदंड वाले कैदियों को फाँसी देता था।’ मैं कुछ न बोल सका। मेरे अविश्वास की सीमा न रही।
‘मैंने अनवर को यह कहकर मनाया कि वह हमारे घराने का काम सीख ले, रोज़ी के
लिए बेशक वह घराने वाला काम न करे। दरअसल अल्लाह की मेहरबानी से मेरे काम में
हाजिरी के मौक़े ज़्यादा नहीं मिलते, इसलिए मेरे ज़ोर देने पर अनवर ने अगली बार
मेरे साथ जाने की हामी भर दी। या अल्लाह... या अल्लाह उस पर ज़ोर डालना तबाही को
बुलाना था।’ यह कहकर
उन्होंने एक लंबी आह भरी। और उनकी आँखों से आँसुओं का सैलाब बहने लगा। एक पल के
लिए उन्होंने मेरी तरफ देखा और फिर हाथों से आँखें ढक लीं। मैंने उन्हें अपना
रूमाल पेश किया।
‘सिंह साहब, ये आँसू रूमाल से पोंछे जाने वाले नहीं।’ उन्होंने मध्यम से स्वर में कहा, ‘ये तो मेरे भीतर हैं, ये तो 24 घंटों दिल में गिरते रहते
है।’
‘मैं आपकी कठिनाई समझ सकता हूँ। आदमी की जान लेने से बढ़कर मुश्किल और क्या
हो सकता है भला?’
‘वह कठिनाई तो बयां नहीं की जा सकती। फाँसी वाले दिन मैं इसीलिए तो शराब
पीता था और कई दिन बाद भी। परंतु फिर रोज़ी के लिए, घराने की रवायत के लिए मन को
समझा लेता था कि मैं किसी की जान नहीं लेता, मैं तो कोर्ट के हुक्म का पालन करता
हूँ, मृत्युदंड पाने वाले कैदी का अंतिम सफ़र पूरा करवाता हूँ।’
‘आप बहुत विचारवान हैं।’
‘देखिए मनवंत साहब, आपको यह भी सोचना होगा कि मृत्युदंड पाने वाले कैदी बहुत
गुनाहगार होते हैं। वे कातिल भी हो सकते हैं और देशद्रोही जासूस भी। वे बलात्कारी
भी, मासूम औरतों से धंधा करवाने वाले, गैंग बनाकर लोगों को लूटने वाले भी हो सकते
हैं। कुल मिलाकर मैं ऐसा सोचकर अपना मन कड़ा कर लेता था।’
‘इतना भयंकर काम करने के लिए आपका नज़रिया कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण से
बहुत दुरुस्त था।’
‘इस नज़रिए के कारण मेरा मन कम लड़खड़ाता था। मेरे दिल की तड़प कुछ समय के लिए
कम हो जाती थी। सेवानिवृत्ति के बाद एक दिन ऐसा आया कि मेरा पूरा का पूरा संतुलन
ख़त्म हो गया था, सदा के लिए आखिरी दम तक।’
‘आख़िरी दम तक? ऐसा क्यों ?’ मैंने पूछा।
‘देखिए ज़िंदगी किसी को माफ़ नहीं करती, आप दरिया में उस वक़्त डूबते हैं जब
आप सोचते हैं कि अब तो आप किनारे पर पहुँचने वाले हैं।’
यह कर रसूल जी झुककर फर्श पर दाहिने हाथ
की उंगलियां फिराने लगे जैसे खोया हुआ कुछ तलाश रहे हों।
‘शायद आप सोच रहे होंगे कि मैं फर्श पर किसी चीज़ की तलाश कर रहा हूँ। नहीं,
वह तो एक कीड़ा मेरी तरफ आ रहा था। मैं डर गया था कि कहीं वह पाँवों तले दब कर मर
न जाए।... मनवंत साहब, एस वक़्त मुझे प्यास लग रही है, आपके लिए भी पानी लाऊँ क्या?’
‘जी बिलकुल। शुक्रिया।’
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रसूल जी ने कहा, ‘मेरा बीपी और भी बढ़ गया था। मुझे मेरी मौत नज़र आने लगी
थी इसलिए अनवर को काम सिखाने की लालसा और तेज़ हो गई थी। हमारा काम सिर्फ़ इतना ही
नहीं कि मृत्युदंड के कैदी के गले में फंदा डाला और बात ख़त्म। यह तो एक महारत है,
एक हुनर है। इसलिए एक दिन मैं अनवर को अपने साथ घराने के काम के बारे में समझाने
लगा। उसे फंदे की विशेष गाँठ देनी सिखाई, फंदे में ग्रीस लगाकर मुलायम करने का
तरीका बताया और कैदी का माप तथा वजन तौलने के बारे में हिदायते दीं, हर पहलु
समझाया। परंतु यह काम हिदायतें सुनकर नहीं सीखा जा सकता। इसे आप तब तक नहीं सीख
सकते जब तक सब कुछ आँखों से नहीं देख लेते। जब तक अपना हाथ नहीं आजमाते।’
‘इसलिए मैं सोचता था कि अच्छा है अगर किसी जेल से जल्दी फोन आ जाए। मैं नहीं
चाहता था कि अनवर इस बारे में ज़्यादा सोचता रहे, काम जल्दी ख़त्म हो। अल्लाह ने
मेरी जल्दी ही सुन ली। सतरह-अठारह दिनों बाद मुझे जनकपुरी की तिहाड़ जेल से बुलावा
आ गया वह दिल्ली के पश्चिम में हैं। आम तौर पर मृत्युदंड वाले कैदी को सुबह चार
बजे फाँसी के लिए तैयार किया जाता है। मैं वहाँ दो रात पहले पहुँच जाता हूँ। तो
मैं अनवर को साथ ले गया। वहाँ पहुँच मैंने उसे फाँसी के सारे साज़-ओ-सामान की आज़माइश
का तरीका बताया। फिर उसे फाँसी वाली जगह का फर्श के बराबर लगा गुप्त द्वार दिखाया।
दरअसल वह दरवाज़ा, दरवाज़ा न होकर लकड़ी का एक फट्टा था जिस पर कैदी को खड़ा किया
जाता था और वक़्त होने पर उस फट्टे यानी गुप्त द्वार को लीवर खींच कर खोल दिया
जाता था। इस तरह कैदी लटक जाता है। उसे जीवन से मुक्ति मिल जाती है।’
‘लीवर कौन खींचता है?’
‘जल्लाद ही।... मैं तो लीवर खींचते समय आँखें बंद कर लेता था और मन ही मन
तीन रूहानी शख्सीयतों से क्षमायाचना करने लगता।... मैंने अनवर को कैदी के अंतिम
दिन उसकी लंबाई नापने और वजन तौलने की हिदायतें दीं।’
‘लंबाई और वजन क्यों?’
‘लंबाई और वजन से मृत्युदंड वाले कैदी के फंदे से नीचे
गिरने के फासले का पता चलता है। लंबे कद वाले कैदी के लिए अधिक फ़ासला, छोटे कद
वाले के लिए कम। इसलिए कैदी का कद और वजन मिलाकर मैंने अनवर को जेल के मैनुअल से
फासले का हिसाब लगाना सिखाया। अगर फासला सही हो तो लीवर खींचने के बाद कैदी की जान
जल्दी चली जाती है और वह कम तड़पता है।’
मैंने सोचा कि जल्लाद के मन में भी कहीं
न कहीं रहम होता है।
‘रसूल जी इतने भयानक समय में, कैदी अपने सामने खड़ी मौत को कैसे कबूल करता
होगा।’
‘फाँसी के तख्त की तरफ जाते कैदी के मन की बात कौन जान सकता है।... कैदी को
उसके कमरे से बाहर लाने से पहले उसका मुँह और सर काले कपड़े से ढक दिया जाता है।
हो सकता है कि वह यमदूत और जल्लाद से भयभीत हो, हो सकता है कि उसके मन में शाति और
सकुन हो कि एक संबे समय के बाद उसके सर पर मंडराती मौत से वह अंतत: निजात पाने जा रहा है।’
‘सही बात है, इन्सान के मन का रहस्य कौन जान सकता है?’
‘मनवंत साहब, माफ करना बात लंबी होती जा रही है, मेरे बस की बात नहीं, मेरा
किस्सा है ही लंबा,रूह को चीरने वाला। कुछ ऐसा सुनना बहुत मुश्किल है। मुझे इतनी देर से सुनते-सुनते आप
थक गए होंगे।’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। मेरे साथ इस जानकारी को साझा करके आप मुझे सम्मान
दे रहे हैं।’
‘अच्छा, मैं क्या कह रहा था?... हाँ, अनवर मेरे साथ चलने को
सहमत तो हो गया था परंतु उसकी खुराक़ कम हो गई थी। कहता पेट ठीक नहीं है। उसकी
अम्मी कहतीं, अनवर का कोई इलाज करवाइए। परंतु वह इलाज के लिए तैयार नहीं हुआ।’
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‘फाँसी के निर्धारित दिन से दो रात पहले मंगलवार को हम तिहाड़ जेल पहुँच गए।
उस वक़्त शाम के लगभग छह बजे थे। अनवर ने पहली बार भीतर से जेल देखी थी। उसके
चेहरे की भाव-भंगिमा से ज़ाहिर था कि उसे वहाँ का माहौल बिलकुल पसंद नहीं था, हो
सकता है उस माहौल से वह डर रहा हो, घबरा रहा हो।’
‘जब बुधवार सुबह मैं जगा तो अनवर पहले ही जग चुका था। उसकी आँखों में ढेर
सारी नींद समाई थी। सुबह उसने मेरे साथ सिर्फ़ चाय ही पी, और कुछ नहीं खाया। लगभग
10 बजे मैंने उसे फाँसी की जगह ले जाकर सब कुछ अपने हाथों से करके दिखाया और उससे
कहा कि वह खुद क्रमवार दोहराए। जब मैंने फंदा उसकी तरफ बढ़ाया कि वह खुद गठान देना
सीख जाए, उसी वक़्त उसने अपने हाथ पीठ पीछे कर लिए।’
‘क्या हो गया? पहले की भाँति
उसका पेट दुखने लगा होगा?’ मैंने पूछा।
‘पेट दर्द का तो उसने ज़िक्र नहीं किया। मुमकिन है उसका दिल ही उस माहौल को
स्वीकार न कर रहा हो।... उस शाम मैंने अपने साथ ही उसे शराब पिला दी, जिससे उसे
रात को नींद आ गई। सुबह 3.40 पर मुझे कैदी को तैयार करना था तो अनवर को जगा दिया
ताकि वह सारी प्रक्रिया देख ले। उसके सामने मैंने सर से कंधों तक काला कपड़ा डाल
दिया। जब मैंने अनवर की तरफ देखा तो वह कैदी की तरफ नहीं, अपने बाईं तरफ देख रहा
था।’
‘मैं और अनवर फाँसी वाली जगह पर जाने के लिए तैयार हो गए। दो सिपाही कैदी को
साथ लिए फंदे की तरफ चल दिए। जल्दी ही जेलर और सरकारी डॉक्टर भी पहुँच गए।’
‘डॉक्टर क्यों?’ मैंने पूछा।
‘डॉक्टर कैदी की मृत्यु की तसदीक (पुष्टि) करता है... इसलिए मैंने उसे गुप्त
द्वार पर खड़ा कर गले में फंदा डाल दिया, उसके हाथ पीछे की तरफ बाँध दिए और टाँगें
भी बाँध दीं। फिर पीछे हटकर मैंने लीवर पकड़ लिया तथा जेल अधीक्षक की तरफ देखने
लगा। उन्होंने निश्चित वक़्त पर, पूरे चार बजे मुझे इशारा किया और मैंने लीवर खींच
दिया। गुप्त द्वार खुल गया। कैदी लटक गया। उसकी गर्दन के गिर्द फंदे की गाँठ
पिचकने लगी, उसका शरीर झटके मारने लगा। उस वक़्त मुझे नहीं पता कि मैंने अनवर को
क्यों देखना चाहा। वह फाँसी की जगह और वहाँ आए लोगों और जेल अधिकारियों से लगभग दस
मीटर दूर उलटी कर रहा था। मैं घबरा गया।’
‘रसूल जी, आपके लिए बहुत मुश्किल रहा होगा अनवर को उस हालत में देखना।’
‘मुश्किल तो बहुत था परंतु मुझे उस वक़्त कैदी की तरफ ध्यान देना पड़ा था।
लगभग बीस मिनटों बाद कैदी की आत्मा उसके जिस्म से मुक्त हो गई। डॉक्टर ने उसकी मौत
की पुष्टि कर दी।... उस वक़्त तक अनवर कुछ संभल गया था। मैं उसे पकड़कर अपने कमरे
मे ले आया परंतु आधे घंटे बाद उसे जुलाब लग गए।’
‘जिस दिन हम वापस उत्तम नगर आए उससे अगले दिन अनवर ने मुझसे चोरी अपनी अम्मी
से कहा, मुझे अब्बा वाला काम करना कभी भी मंजूर नहीं होगा। मैं किसी भी स्थिति में
वह काम नहीं कर सकता। इतना ज़ुल्म करना मुमकिन नहीं, मुझे भूखे रहना कबूल है।’
‘रसूलजी, उस समय उसकी उम्र भी तो कच्ची थी। और हर कलाकार, हर संगीतकार का
दिल भी तो बहुत भावुक होता है।’
‘होता होगा।... मैंने उन्हें हौंसला दिया कि बेटा तू डर मत, इन्कार मत कर।
तेरे पास अभी भी वक़्त है। तेरा मन पक्का हो जाएगा। हम अपने घराने का नाम ख़त्म
नहीं कर सकते, परंतु उसने जवाब में कुछ नहीं कहा और मेरे पास से उठकर बाहर चला
गया। मनवंत जी, उस के इस व्यवहार पर मैंने गुस्सा किया, बेइज़्जती भी महसूस हुई।
उस दिन के बाद अनवर ने कई दिन न तो मुझसे और न ही अपनी अम्मी से ज़्यादा बात की।’
‘एक दिन उस की अम्मी को अनवर के तकिए के नीचे से अख़बार की एक कतरन मिली।
मैंने पढ़ा तो वह किसी गैंग के बारे में थी। मैंने उस पर ज़्यादा गौर नहीं किया।
इतवार को अनवर देर से जगता था। मैं और मेरी बेगम सुबह जगे, लगभग दो घंटों तक चाय
के लिए उसका इंतज़ार करते रहे, परंतु वह तो जगा ही नहीं। मैंने जाकर उसका बिस्तर
देखा दो वह वहाँ था ही नहीं। सिर्फ़ तकिया चादर से ढका हुआ था।... हमारे तो होश
उड़ गए। उसकी अम्मी तो दहाड़ें मार-मार कर रोने लगीं। या अल्लाह...’
रसूल जी ने आँखों पर हाथ रख लिए।
मैंने उन्हें आलिंगन में ले लिया।
‘मैंने बेगम से कहा कि वह यहीं किसी दोस्त के पास चला गया होगा। एक-दो दिनों
में आ जाएगा। एक दिन गुज़र गया, दो दिन गुज़र गए, वह तो वापस ही नहीं आया।... मेरे
कलेजे में आग भड़क उठी। वे जो तीन रूहानी शख्सीयतें हैं न मैं उनसे दुआ करने लगा
मगर उन्होंने भी मेरी एक न सुनी।... हमने अनवर की मौसी को भी ख़बर कर दी, उसकी
बेटी अनवर की मंगेतर थी।... थाने रिपोर्ट की। उनकी मिन्नतें की कि वे आस-पास के सब
थानों को ख़बर कर दें। उसके दोस्तों से भी पूछा।... कई हफ़्ते गुज़र गए। मैंने
अख़बारों में उसकी फोटो के इश्तहार दिए और मस्ज़िदों में भी बांटे। हम रो-धोकर बैठ
गए।’
मेरा जी चाहा कि मैं रसूल जी को दिलासा
दूं परंतु उन्हें रोकना मुझे मुनासिब न लगा।
‘मनवंत साहब, माता-पिता के लिए इससे बड़ा दु:ख और क्या हो सकता है। अनवर की अम्मी और मेरा बाहरी रोना-धोना तो ख़त्म हो
गया परंतु हमारे दिल तो हमेशा रोते रहेंगे।’
‘मुझे बहुत अफ़सोस है। आपका दु:ख बहुत विशाल है।’
‘बात यह है कि अनवर को ढूँढने की ख़्वाहिश मन में हर वक़्त सुलगती रहती थी।
मैं अख़बार पढ़ता, रेडियो सुनता और टी वी पर नज़रें गड़ाए रखता। मगर कहीं से भी
कोई ख़बर न मिली। पश्चाताप से मैं और भी दु:खी होता। मैं खुद को लानतें देता कि अरे भले आदमी अपने घराने का नाम
सहेजते-सहेजते तुमने तो अपना नाम भी गंवा लिया, अपना ही लाल गंवा दिया।’ नायब कोटिए ने कहा था -
‘रब के लिखे को मिटाने वाले कौन।
जिसे वह ले जाता उसे रखने
वाला कौन।’
‘रसूल जी, आप अपने पर काबू रखें। अनवर किसी भी दिन वापस आ सकता है।’
‘मनवंत जी, अनवर वापस.. अभी मैंने आपको असली दु:ख तो बताया ही नहीं। मेरे साहब, आपको याद होगा कि कई साल
पहले नोएडा के टी. वी. स्टेशन से ख़बर थी कि भोपाल के पास केड़वा जंगल में पुलिस
ने एक बहुत ख़तरनाक गैंग के दो आदमी मार दिए थे और एक को ज़ख्मी हालत में
गिरफ़्तार कर लिया था परंतु पुलिस को उसके नाम और असली ठिकाने का पता नहीं चल पाया
था। इसलिए पुलिस और कोर्ट ने उसे पर मुकद्दमा चलाने के लिए उसका नाम गुप्त बख्श रख
लिया था। वह भोपाल सेंट्र जेल में कैद था। एक ख़बर के चार-साढ़े चार साल बाद मुझे
उस जेल से बुलावा आया कि मुझे एक कैदी को फाँसी देनी होगी।’
‘कहाँ उत्तम नगर और कहाँ भोपाल?’ मैंने कहा।
‘हाँ, भोपाल जेल का जल्लाद बीमार था। जिस शाम मैं वहाँ जेल में पहुँचा तो एक
जेल अधिकारी ने कहा, हम एक नए आदमी को फाँसी का काम सिखा रहे हैं। वैसे तो वह
फाँसी का सारा साज़-ओ-सामान तैयार कर लेगा फिर भी तुम कल एक नज़र मार लेना। जब मैंने
चेक किया तो उस प्रशिक्षु ने गुप्त दरवाज़े के कब्जे को तेल नहीं दिया था और न ही
फंदे पर ग्रीस लगाई थी।’ यह कह कर रसूल
जी ने निचला होंठ दाँतों में दबा लिया, सर घुमाया और टोपी चारपाई की दाहिनी तरफ
ज़मीन पर फेंक मारी। मैं उनकी मानसिक हालत के बारे में फ़िक्रमंद हो गया। फिर
उन्होंने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘मेरी कंबख़्त किस्मत ने मुझे इस तरह जला डाला जैसे भट्टी में दाने भूंजे
जाते हैं।... कैदी की फाँसी के दिन मैं सुबह तीन पैंतीस पर फाँसी वाली जगह पर
हाज़िर हो गया परंतु मुझे समझ नहीं आ रही थी कि मुझे इतनी बेचैनी क्यों हो रही थी।
कैदी को लेकर, जिसका मुँह, सर पहले ही प्रशिक्षु ने काले कपड़े से ढक दिया था, दो
सिपाही फाँसी वाली जगह पर ले आए। उनके पीछे नया प्रशिक्षु था। उसने कैदी के गले
में फंदा डाला और गठान ठीक की। मैं पहले ही लीवर के पास खड़ा था और प्रशिक्षु मेरे
पास आया। उसने मुझसे विनती की कि लीवर मैं खींच दूं क्योंकि पहली बार वह ऐसा नहीं
कर सकेगा।...या अल्लाह, हे मेरे अल्लाह... निश्चित समय पर जब सुपरिनटेंडेंट ने
इशारा किया तो मैंने लीवर खींच दिया। गुप्त दरवाज़ा खुल गया और कैदी लटक गया।
जल्दी ही उसकी गर्दन लंबी हो गई।’
‘लगभग बीस मिनट के बाद डाक्टर ने उसकी नब्ज़ देखी और उसे मृत घोषित कर दिया।
मैंने उसके सर-मुँह से कपड़ा उतारा.... वह तो मेरा अनवर था... मेरी साँस थम गई, एक
चक्कर आया और मैं गश खाकर गिर पड़ा।’
‘’जब तीसरे दिन मुझे होश आया तो मैं जेल की डिस्पेंसरी के साथ वाले कमरे में
पड़ा था और डॉक्टर मेरे पास खड़ा था।... हाय अल्लाह! मेरा अनवर और मेरे ही हाथों। वही हाथ जिन्होंने उसे पलोसा था, उसे चलना
सिखाया था।... और वही हाथ जिन्होंने लीवर खींचा था। उन हाथों को कैसे काटूं? उन हाथों से कैसे खाना खाऊँ?... साँस कैसे लूं? जीऊँ कैसे? सुबह-सवेरे
किसे जगाऊँ?’
रसूल फूट-फूट कर रो रहे थे। मैंने उठकर उन्हें आलिंगन में ले लिया। वे और भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। मुझे समझ न आए कि मैं क्या करूँ, उन्हें कहूँ तो क्या कहूँ। मैं सुन्न हो गया।... फिर बहुत देर तक हम ख़ामोश बैठे रहे। रसूल जी को छोड़ कर जाने को मेरा जी नहीं चाह रहा था।
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लेखक परिचय
जगजीत बराड़
जन्म -10 जनवरी, 1941 मोगा (पंजाब)।
अमेरिका के औरंगन स्टेट यूनिवर्सिटी से रिसोर्स इकोनॉमिक्स में पीएच.डी., अमेरिका की ही
साउथ ईस्टर्न लुइसियाना यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स विभाग के प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष
रहे। बिज़नेस और इकोनॉमिक्स रिसर्च सेंटर के संचालक पद से सेवानिवृत्त ।
प्रकाशन - चार कहानी-संग्रह
(पंजाबी) ‘माधियम’, ‘वापसी’ तथा ‘लाल निशान’, ‘मुल्ल दी नींद’।
उपन्यास - दो
उपन्यास ‘धुप्प दरिया दी दोस्ती’ (पंजाबी के साथ-साथ हिन्दी और गुजराती में भी)
गर्ल बीफोर अ केरोसीन स्टोव (मूल
अंग्रेजी में)।
कविता संग्रह - (तीन) ‘डुबदे चढ़दे
सूरज’, ‘रुक्ख दा गीत’ तथा ‘उदास खिड़कियां
ते सूरज’ (पाँच पंजाबी कवियों की कविताओं का साझा
संकलन।)
सत्त रंग चानण (चुनी हुई रचनाएं)।
सम्मान/पुरस्कार : अमेरिका
में 'एक्सीलेंस इन रिसर्च सम्मान' (1988), पंजाब राज्य भाषा विभाग का 'शिरोमणि
साहित्यकार पुरस्कार।
