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मंगलवार, दिसंबर 30, 2025

कहानी - 70 पंजाबी - डोंट वरी मम्मी जी - मंदीप रिंपी, अनु. नीलम शर्मा अंशु

 

           डोंट वरी मम्मी जी

मंदीप रिंपी

अनुवाद - नीलम शर्मा अंशु


      मेरी आँखों से पानी टप टप टपक रहा था... आँसुओं की गुनगुनी बूँदें... मैं खुद से सवाल करती हूँ... क्य़ा मैं रो रही हूँ? हाँ, मुझे रोना आ रहा है, मैं इतनी कमज़ोर क्यों हूँ?... रब ने मुझे पत्थर सा हौंसला क्यों न दिया?  काश! मैं भी पत्थर जैसी होती... जिसे कोई ठोकर मारता तो कोई असर न होता, बल्कि जो ठोकर मारता वही ठोकर खाता... परंतु अफ़सोस मैं पत्थर नहीं हूँ। शायद, न ही बन सकूं...अरे हाँ पत्थर में भी कीड़े होते हैं और भगवान उनकी परवरिश करता है... अब सोचती हूँ रब ने मेरी आँखों में इतना पानी क्यों दिया?... जो मुझसे संभाला नहीं जा रहा।... मैं रो क्यों रही हूँ?  यह मेरी समझ से परे हैं, फिर सोचती हूँ बारिश से भी तो आसमां साफ हो जाता है। चारों तरफ सब धुल जाता है... शायद रब भी यही चाहता है कि मैं अपना मन साफ कर लूं, निर्मल, साफ पारदर्शी पानी की भाँति... मेरे अपनों के दिए ज़ख्म जो नासूर बन चुके हैं, वे भर जाएं, खुद से बातें करते-करते नींद ने अनायास ही कब अपने आगोश में ले लिया कि मुझे पता भी नही चला।

      आज मेरी शादी को पूरे दस वर्षा हो गए। जब-जब मैं इन गुज़रे बरसों पर नज़र डालती हूँ तो खुद में खो जाती हूँ। कहने को तो मैं शादीशुदा हूँ परंतु वैसे न ही सुहागन हूँ और न ही विधवा। पूरे सात वर्ष हो गए प्रीतम को देखे। अरे, सात कहाँ साढ़े सात। समय कितनी तेज़ी से ठोकरें मारता गुज़र गया कि पता ही नहीं चला। घर की ज़िम्मेदारियां और प्रीतम के विरह ने मुझे खिले फूल से एक सूखा पत्ता बना कर रख दिया... यह मैं नहीं, मेरे घर वाले कहते।

      कभी मैं बहुत खुश थी अपने जीवन से, अपने माता-पिता की लाडली बिटिया... कितने चाव से ब्याह कर आई थी इस घर में... इधर प्रीतम भी माता-पिता का इकलौता पुत्र था।

      बूढ़े माता-पिता तो आज भी दरवाज़े पर नज़रें टिकाए बैठे हैं कि उनका बेटा घर आएगा...एकमात्र सहारा... उनके जीवन का प्रकाश... परंतु जब वे मेरी तरफ देखते तो गहरी साँस लेकर कहते - काश! ‘ऐसी औलाद से तो भगवान बेऔलाद ही रखता या फिर एक बेटी ही दे देता। बेगानी बेटी तो न ठोकरें खाती।

      परंतु जब वे ऐसा कहते तो मेरा दिल भर आता और मैं सोचती कि दोनों प्राणियों के लिए कितना मुश्किल होता होगा अपनी संतान को बुरा-भला कहना... परंतु यह तो भगवान ही जाने। क्या सच है, क्या झूठ जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता...प्रीतम किसी और लड़की के चक्कर में था और उसी लड़की के साथ कहीं रफूचक्कर हो गया है... और कोई कहता, शायद किसी ने कोई पुरानी खुंदक निकाली है। उसे कहीं मार कर, ख़त्म करके... कई दबी ज़बान से मेरे ही चरित्र को नापने लगते... घर वाली ढंग की नहीं होगी तभी तो बेचारा कहीं चला गया। लोगों के मुँह भला कोई पकड़ सकता है? अगर ज़िंदा होता... तो इतने सालों में कोई खोज-ख़बर तो लगती... परंतु रब के रंगों को कौन जान सका है? जब प्रीतम घर से गया, रीत तब तीसरे साले में थी और राहुल ने तो कभी अपने पिता का मुँह भी नहीं देखा।... प्रीतम के जाने के छह माह बाद हुआ था राहुल।

      कितनी खुश थी मैं...जिस दिन प्रीतम घर से गया। मुझ कंबख्त को कौन सा पता था... कि मैं अंतिम बार देख रही हूँ प्रीतम को। उस दिन हम दोनों खूब नाचे थे डीजे पर। प्रीतम के ममेरे भाई की शादी थी। जो भी हमें नाचते देखता... देखता ही रह जाता और कहता, कितनी सुंदर जोड़ी है दोनों की। शायद किसी की बुरी नज़र लग गई थी उस दिन। बेशक मैं कभी नज़र-वज़र पर विश्वास नहीं करती थी। मेरी सास हमेशा टोका करती थीं हमें एक साथ देख, नज़र तो पत्थर को तोड़ देती है, हम तो फिर इन्सान हैं।

      जब कभी हम बाहर जाते तो मम्मी जी दरवाज़े से बाहर निकल देखती गली में कोई खाली बर्तन लेकर न खड़ा हो। घर आते ही मिर्चें छुआ कर जलातीं तो झांझ से हमारा बुरा हाल हो जाता... कहतीं मेरे बेटे-बहू को देख लोग जलते हैं।

      प्रीतम बेशक काफ़ी पढ़ा-लिखा था। सरकारी नौकरी में था।... परंतु बहुत ही शक्की किस्म का बंदा था... सारी रिश्तेदारी में मेरी खूबसूरती की तारीफ़ें होतीं, मेरा मधुर स्वभाव भी हर किसी को मोह लेता। ससुराल और मायके में मेरी खूबसूरती का कोई सानी नहीं था। मेरी तारीफ़ों से प्रीतम चिढ़ जाता। वह बात-बात पर मुझे टोकता, पहले तो मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया... धीरे-धीरे उसका टोकना मुझे काँटे की तरह चुभने लगा। और तो और मुझे मुस्कुराते देख कहता, ज़्यादा दाँत मत निकाला करो।

      मैं जहाँ जॉब करती थी, वहाँ भी नसीहतें देकर भेजता, किसी से ज़्यादा बातें करने की कोई ज़रूरत नहीं...जितनी बात हो उतना ही जवाब दिया करो। अगर कभी बाज़ार जाते तो वहाँ भी मुझे पर निगाहें गड़ाए रखता और कहता, किसी तरफ आँख उठाकर देखने की ज़रूरत नहीं। अपनी वह खूबसूरती जिस पर मुझे बहुत नाज़ था, मेरे लिए सज़ा बन गई थी।... न मैं किसी के साथ हँस सकती थी, न बोल। अगर कोई मेरी तरफ देखता तो प्रीतम मुझे ही घूरता... तुम उसकी तरफ देख रही थी तभी तो उसकी हिम्मत हुई तुम्हें देखने की।

      प्रीतम की यह शक की बीमारी हम दोनों के बीच दूरियां पैदा करने लगी। अब मैं भी प्रीतम की आदत से चिढ़ जाती और कहती, मुझे कैद करके रख लीजिए... वैसे भी मुझे यही लगता है कि जैसे कोई कैदी हूँ... आपके वहम की कंटीली झाड़ियों से बिंधी मेरी आत्मा तो बड़ी मुश्किल से साँस लेती है।?’

      प्रीतम के ममेरे भाई की शादी के दिन बेशक सारा दिन बारात में हम दोनों नाचते-झूमते रहे परंतु शाम को जब डोली आई तो पता नहीं हमें किस कंबख्त की नज़र लग गई। मेरी ननदों (प्रीतम की चचेरी बहनों) ने नाचते हुए मेरी बाँह पकड़ गिद्धे में खींच लिया। मैंने गिद्धे में अभी एक ही चक्कर लगाया था कि प्रीतम देखकर तुनक गया और मुझे घूरने लगा। मैं समझ गई और चुपचाप एक तरफ खड़ी हो गई। प्रीतम गुस्से से  बोला, और बोलियां डालो... अभी गिद्धा डाल-डाल थकी नहीं... तुझे मेरी ज़रा भी फ़िक्र नहीं, तुझे चाहे जितना मर्ज़ी समझा लो परंतु तुम यहाँ... तुम कहाँ। मैं कुछ न बोल सकी, मैंने चुपचाप सब कुछ सहन कर लिया। वैसे भी प्रीतम ने खूब चढ़ा रखी थी... उससे इसी मौक़े पर तर्क करना था?  मैंने चुप रहकर काम चलाया।

      थोड़ी देर बाद फिर उसने कहा, अब क्यों चुप खड़ी हो? मैं जा रहा हूँ... तुम नाचती रहो, जैसे तुम्हारा जी चाहे। मैंने प्रीतम को बाँह से पकड़ लिया, परंतु प्रीतम कहाँ मानने वालों में से था। वह बाँह छुड़ा कर वहाँ से चला गया। मैंने सोचा कि अभी शराब के नशे में है, जब नशा उतर जाएगा तो खुद ही आ जाएगा... परंतु वह दिन और आज का दिन प्रीतम कभी न लौटा... पता नहीं वह कंबख्त कौन सा वक़्त था... जिसमें प्रीतम के मन में इतनी बदी भर दी थी।

      अब मैं खुद को बहुत बार कोसती हूँ। मैं आधी-आधी रात को हड़बड़ा कर उठती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि मानो प्रीतम कह रहा हो, कोमल किसी से बात मत करो... किसी के साथ मत हँसो। मुझे तुम्हारा किसी से भी बोलना, हँसना अच्छा नहीं लगता।

      दिन-रात प्रीतम के ये शब्द मेरे कानों में गूंजते रहते परंतु बेबसी के आलम में मैं उसका इंतज़ार करती रहती। आजकल मैं खुद से ही बातें करती रहती हूँ, मैं कभी किसी से बात नहीं करूंगी, कभी नहीं हँसूंगी, बस एक बार तुम लौट आओ। हँसी क्या होती है, मैं भुला बैठी हूँ... मुझे किसी से बात करने  की क्य़ा ज़रूरत है मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। बस तुम एक बार लौट आओ।

मेरे माता-पिता चाहते हैं कि मैं दुबारा घर बसाने के लिए रज़ामंद हो जाऊँ। उन्हें मेरी चिंता है और वे हमेशा कहते, पहाड़ सी ज़िंदगी कैसे गुज़रेगी? अभी मुश्किल से पैंतीस की तो हो तुम... ?’

परंतु मुझे प्रीतम का इंतज़ार है... मैं रोज़ रात को सोते वक्त सोचती हूँ कि शायद कल प्रीतम वापस आ जाए... परंतु जाने वाले भला कहाँ वापस आते हैं। यह समझ कर भी मैं अन्जान बनी रहती हूँ।...बेशक प्रीतम के माता-पिता भी यही चाहते थे कि मैं दुबारा नए जीवन का दामन थाम लूं। वे नहीं चाहते कि मेरा जीवन हमेशा दु:खों से घिरा रहे। वे मुझे बातों-बातों में समझाने की कोशिश करते हैं परंतु मुझे उनकी ये बातें अच्छी नहीं लगतीं।

प्रीतम के बड़े मामा जी का बेटा हरजीत मेरी बहुत इज्ज़त करता था... बेशक अब भी करता है... वह मुझे पसंद भी करता है... वह हमेशा कहता है कि मैं दिल से चाहता हूँ कि प्रीतम फिर से लौट आए और आप दोनों का जीवन फिर से हरा-भरा हो जाए।... जब प्रीतम घर छोड़ कर गया था तब हरजीत कैनेडा में था, उसे प्रीतम के बारे में बहुत बाद में पता चला। उसे राणो बहन ने फोन पर बताया था। वह फोन पर अपने बुआ-फूफा से कई-कई घंटों बातें करता रहता तो मैं उसकी हर बात को जल्दी में निपटाने की कोशिश करती क्योंकि वह लंबी कहानियां छेड़ लेता था... मुझे उससे ज़्यादा बातें करना पसंद नहीं, मेरा जी घबराने लगता। कई-कई बार तो मैं उसका फोन ही नहीं उठाती थी।

हरजीत के घर वालों को उसकी शादी की बहुत जल्दी थी। बहुत रिश्ते आते उसके लिए। उसकी बहन व्हॉटस ऐप पर फोटो भेज-भेज कर थक गई थी, परंतु किसी रिश्ते के लिए हाँ कहे तब न... एक दिन बुआ जी हमारे घर आई हुईं थीं और हम सभी इकट्ठे बैठे चाय पी रहे थे। संयोग से तभी हरजीत का फोन आ गया और मामी जी स्पीकर ऑन कर हरजीत से बात करने लगीं, अगर कोई लड़की पसंद कर रखी है तो... तो भी बता दो... उसी से तुम्हारी शादी कर देंगे... एक बार हाँ तो कहो... तुम्हारी शादी की उम्र निकलती जा रही है... तुम्हारे साथ के लड़कों के दो-दो बच्चे भी हो गए हैं। तुम भी जल्दी शादी करवाओ। हम भी दो दिन अपने शौक पूरे कर लें।

हरजीत ने हँस कर कहा - मम्मी जी! अगर आपको पोते-पोतियों की इतनी ही ज़रूरत हे तो अभी गोद ले लेता हूँ। बताइए फिर कब बनना है दादी?’

बुआ ने खीझ कर फोन बंद कर दिया।

प्रीतम को गए सात वर्ष से ऊपर का वक़्त हो गया।... परंतु मेरी निगाहें तो अभी भी दरवाज़े पर टिकी थीं कि पता नहीं कब वह लौट आए। इधर हरजीत की बातों से मुझे डर लगने लगा था।... पता नहीं यह मेरे मन का वहम है या सच... मुझे ऐसा लगता जैसे वह अब पहले जैसा नहीं रहा।... वह मेरे क़रीब आना चाहता था।... परंतु मुझे ये बातें अच्छी न लगतीं... कई बार उसके बारे में सोचते हुए मेरे मन में तूफान की भाँति कई ख़याल आते और मन की दीवारों से टकर-टकरा कर भीतर-भीतर मुझे घायल करते रहते।... मैं इन ख़यालों से संघर्ष करती रहती... कई बार सोचती कि वह किसी भ्रम में न रहे... उसका भ्रम दूर कर ही दूं... परंतु फिर सोचती शायद मेरा वहम ही न हो... इसलिए फिर शांत हो जाती।

आजकल मुझे वह दिन बार-बार याद आता है जिस दिन हरजीत और प्रीतम दोनों खाना खा रहे थे तो मम्मी जी बोलीं - हरजीत बेटा, अब तुम भी शादी कर लो... तुम्हारी गिनती छड़ों(अविवाहित) में होने लगी है।

हरजीत ने हँसकर कहा - अब तो कोमल भाभी ही रिश्ता करवाए। ढूँढ लाए कहीं से अपनी ही कार्बन कॉपी। फिर कौन रहेगा छड़ा। भागा जाउंगा बारात लेकर।

यह बात प्रीतम को खूब चुभी। बेशक हरजीत के सामने तो वह कुछ नहीं बोला परंतु हरजीत भी उसके चेहरे का रंग देख भाँप गया था। प्रीतम ने फिर कभी हरजीत को अपने घर में न घुसने दिया, अगर कभी हरजीत घर आने की बात करता भी तो वह कोई न कोई बहाना बना टाल देता। मम्मी जी ने भी बातों-बातों में हरजीत को बताया कि प्रीतम ने कई दिनों तक घर में क्लेश कर रखा था। हरजीत ने भी फिर कभी हमारे घर में कदम नहीं रखा। जब कैनेडा गया, तब भी मिलकर नहीं गया। उसके जाने के तीन-चार दिन बाद पता चला कि वह अब परदेसी हो गया है।

एक दिन मुझे राणो का फोन आया... वह काफ़ी देर तक फोन पर अजीब सी बातें करती रही। उसका कहना था, शायद हरजीत की शादी अब कभी न हो... हमारे ख़्वाहिशें अब अधूरी ही रह जाएगी। भाई के सर पर सेहरा बंधने की हमारी ख़वाहिशें अधूरी ही रह जाएंगी। जब मैंने पूछा, पगली कैसी बातें करती हो?’

तो बोली, उसे दो बच्चों की माँ पसंद आ गई है... हमारी बिरादरी वाले हमें टिकने नहीं देंगे,... हँसी उड़ाएंगे...लोग ताने देगें, कोई और लड़की नहीं मिली शादी के लिए। और तो और लोग बातें बनाएंगे कि पता नहीं लड़के में शायद कोई नुक्स, है तभी तो यह क़दम उठाया है। लोगों को तो बातें चाहिएं। लोगों को तो तिल का ताड़ बनाने में देर नहीं लगती। कह कर उसने फोन काट दिया। मैंने फिर फोन लगाया परंतु उसने फोन काट दिया। मैंने फिर फोन लगाया परंतु उसने उठाया ही नहीं। मैं सोच में पड़ गई कि उनके घर का मामला है... भला हम क्या कर सकते हैं।

अगले दिन हरजीत की माता जी सुबह-सवेरे हमारे घर आ पहुँचीं... वे आँगन में खड़ी होकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहीं थीं। मैं छत पर झाड़ू लगा रही थी। जब मैंने उन्हें छत से देखा, मम्मी जी उन्हें आलिंगन के लिए आगे बढ़ रही थीं परंतु मामी जी मम्मी जी से दूर होकर क्रोध से पूछा - कोमल कहाँ है?’

अपने बारे सुनकर जब में छत से नीचे आई तो बगैर कुछ कहे-सुने मामी जी ने मुँह पर तमाचा जड़ दिया। यह देख सबकी आँखें फटी रह गईं। कोई भी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर हुआ क्या है।

मम्मी जी ने जब मामी जी का हाथ पकड़ कर उनसे इस रवैये का कारण पूछा तो सामने से उन्होंने कहा - पूछो अपनी बहू से... जिसका अभी मन नहीं भरा... पहले प्रीतम को खा गई अब हमारे खानदान को बर्बादी की तरफ धकेलने का प्रबंध किए बैठी है। अगर तुझे मर्दों की इतनी भूख है तो कह अपने माँ-बाप से तुझे किसी ज़रूरतमंद के घर भेज दें। कोई न कोई दहाजू (विधुर) मिल ही जाएगा... या कोई तलाकशुदा ढूँढ ले... क्यों तू हमारे कुंवारे बेटे को बर्बाद करने पर तुली है... अगर ज़्यादा ही आग लगी है तो भाग जा यहाँ से।

      मामी जी की कड़वी बातें सुनकर मेरी डूब मरने जैसी हालत हो रही थी फिर भी मैंने विनम्रता से पूछा, मामी जी! मुझे बताइए तो सही, आख़िर बात क्या है?’

            अगर मेरी जगह कोई और होता तो पता नहीं क्या-क्या घटित हो जाता, परंतु मैं अभी भी रिश्तों के लिहाज़ में उलझी बैठी थी। अगर मामी जी की जगह कोई दूसरा होता तो शायद मैं उसे चोटी से पकड़ घर से बाहर निकाल देती परंतु यह मेरी माँ जैसी सासू माँ की सगी भाभी थीं। वह सास जिसने प्रीतम के बाद मुझे फूलों की भाँति रखा। कभी मुझे गहरे रंग बहुत पसंद थे, हाथों पर मेंहदी लगाने के मैं बहाने तलाशा करती... परंतु प्रीतम के जाने के बाद मैंने हल्के रंगों को अपने जीवन में भर लिया परंतु माँ जैसे मेरी सासू माँ हमेशा मेरे जीवन में रंग भरने के बहाने ढूँढती रहतीं। फिर आज मैं उनके मायके से आई तपिश से कैसे अपनी इस माँ के दिल को झुलसा दूँ। यह सोच कर मैं मन मसोस कर रह गई।

      मामी जी मेरी इस ख़ामोशी को मेरे गुनाहगार होने का सबूत मानते हुए कहने लगीं, तुम ज़्यादा ड्रामा मत करो... तुझे सब पता है... तूने अपने मीठी बातों में मेरे बेटे को फंसा लिया है... तभी तो कहीं और शादी करने के लिए तैयार नही... कितने साल हो गए उसे सेटल हुए... जब भी शादी की बात करो कहता है कि अभी नहीं करनी... कल तो हद ही हो गई... जब उसने राणो से कहा... कि मुझे कोमल से शादी करनी है।

      मामी जी का मुँह इतना कुछ सुनाने के बाद भी बंद नहीं हुआ था। मामी जी तो पता नहीं और भी क्या क्या, लगातार बोले जा रही थीं...परंतु अब मुझे उनके क्रोध से काँपते होंठ ही दिख रहे थे... सुनाई कुछ नहीं दे रहा था... ऐसा लगा मानो कानो में किसी ने खौलता तेल डाल दिया हो...मुझे ऐसा लग रहा था मानो उनकी घूरती निगाहें मुझसे बहुत कुछ पूछ रही हों और उनकी बेबस ज़ुबां कुछ बोल नहीं पा रही। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे क्या कहें, क्या न कहें।

      मेरी आँखों में बेबसी के आँसू संभाले नहीं जा रहे थे। मैं मम्मी जी की चारपाई के पास ज़मीन पर ही बैठ गई और उनके घुटने पर सर रख सफाइयां दे रही थी, मम्मी जी, मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता... मेरा यकीन कीजिए... हरजीत के साथ मेरी कभी कोई ऐसी बात नहीं हुई, मैंने तो कभी ऐसा सोचा तक भी नहीं... अगर मेरे दिल में पल भर के लिए भी ऐसा विचार आया होता तो मैं सबसे पहले आपको बताती... आप सभी ही तो मेरी दुनिया हैं... भला मैं अपनी दुनिया को कैसे धोखा दे सकती हूँ?  मुझे किसी और रिश्ते की कोई भूख नहीं, कोई ज़रूरत नही।

      मामी जी अभी भी कमर पर हाथ रखे मुझे पर पता नहीं कौन-कौन सी तोहमतें लगाने में व्यस्त थीं। अचानक मेरी नज़र दरवाज़े में खड़ी अपनी बेटी पर पड़ी जिसकी आँखों से आँसू गिरने को बेताब हुए जा रहे प्रतीत हो रहे थे।

      कल शाम जब मैं उसे ट्यूशन से घर लेकर आ रही थी... एक कुत्ते को देख वह बहुत सहम गई... कुत्ता भौंकता हुआ बार-बार हमारी तरफ आ रहा था...वह डर के मारे मेरे आगोश में आ गई... मैं उसे समझाने लगी, डोंट वरी... बेटा कुत्ता ही तो है... यह उसकी आदत है... हम कैसे बदल सकते हैं। तब तो वह समझ गई थी... अब उसे कैसे समझाऊं यह सब?’

      उसे देख मेरा कलेजा मुँह को आ गया। मैं सोचने लगी कि मेरी क्या इज़्जत रह गई मेरी बेटे के सामने ?’ मेरी बिटिया बच्ची है... क्या सच है... क्या झूठ ... यह अभी उसकी समझ से परे है... कहीं वह मुझे ... नहीं, नहीं... उसकी एक-एक नस में मेरा लहू दौड़ता है... क्या उसका दिल मेरे पक्ष में गवाही नहीं देगा ... मेरी बेटी की तरफ कोई उंगली उठा कर दिखाए... अपनी बेटी की आँखों से उसका सच पढ़ने में मुझे देर नहीं लगेगी... हाय रब्बा हमारा माँ-बेटी का रिश्ता ...

मेरी बेटी अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से अपने आँसू पोंछते हुए कमरे से बाहर आई और मम्मी जी को झकझोरते हुए बोली, दादी मम्मी!  मेरी मम्मी रो रही हैं।                

मेरी माँ जैसी सासू माँ चारपाई से उठीं और उन्होंने अपनी भाभी को बाँह से पकड़ आँगन से बाहर धकेल कर फटाक से गेट बंद कर दिया।

मेरी बेटी ने दौड़ कर आकर मेरे गले में अपनी बाँहें डालीं और कहने लगीं, डोंट वरी, मम्मी जी।

                                               

        

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                                    लेखक परिचय

        

मंदीप रिंपी - बंदे महल कलां रूपनगर (पंजाब) में जन्म। छोटी उम्र में ही शब्दों से ऐसी दोस्ती हुई कि धीरे-धीरे उन शब्दों ने उनकी रचनाओं में वेदना और संवेदना के रंगों को उभारते हुए साहित्य क्षेत्र में विचरने का हुनर बख्शा। लॉक डाउन के दौरान शिक्षा विभाग के कार्यक्रम नन्हे उस्ताद की डी डी पंजाबी पर प्रस्तुति ने उन्हें एक अलग पहचान दी। वर्तमान में प्राइमरी अध्यापक के तौर पर बच्चों का मार्गदर्शन कर रही हैं।

रचनाएं - काव्य संग्रह - जदों तू चुप्प सी(2020)

         उपन्यास - जिंदगी परत आई (2022), वक्त दे खीसे चों (2024)

         कहानी संग्रह - हाँ मैं लालची हां (कहानी संग्रह)

बाल साहित्य - कहानी संग्रह - किट्टी दी खीर (2021)/हाँ, मैं डी सी लगणा...(2023)/देखिओ किते भुल्ल न जाइयो (2023)। बाल उपन्यास - राजवीर दा उरीओ (पंजाबी तथा शाहमुखी में 2024)

 

                     
                        साभार - कृति बहुमत, दिसंबर - 2025

 

 

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