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शनिवार, जुलाई 10, 2010

कहानी श्रृंखला - 6


पाकिस्तानी पंजाबी कहानी
बलात्कार

० तौकीर चुगताई


भोर की नमाज़ के वक्त सारे नमाज़ी हैरान रह गए, जब मसज़िद में लगभग तीस वर्षीया एक औरत को देखा। वह मौलवी साहब के समक्ष एक मसला रखना चाहती थी। पहले तो सबने उससे कहा कि अब वह घर जाए और सुबह आकर आराम से अपना मसला बयां करे, परंतु वह नहीं मानी और कहने लगी, ‘मैं तो अभी पूछ कर जाऊंगी।’


छोटे से गाँव की इस पुरानी मसज़िद में उस दिन बड़ी भीड़ थी, क्योंकि दो दिन बाद ईद की छुट्टियां होने वाली थीं और शहर में काम करने वाले बाबू, फौजी, मज़दूर तथा दूसरे छोटे-मोटे काम करने वाले लोग छुट्टी पर गाँव आए हुए थे।

एक साठ वर्षीय व्यक्ति ने उसे डाँट कर कहा - ‘बीबी, तुझे कहा न, सुबह आना। और आधी रात को घर से निकल कर मसज़िदों में जा घुसना औरतों के लिए अच्छा नहीं होता। तुम जाकर गाय, भैंस दुहो और लस्सी रिड़को। इस वक्त घरों से मथनियों की घूं-घूं की आवाज़ें आती अच्छी लगती हैं।’

‘मथनियों की घूं-घूं और लस्सी तभी अच्छी लगती है जब मन खुश हो, चाचा। जब दिल ही अपने ठिकाने पर न हो तो ताजा दूध भी फिटा हुआ लगता है। और मटके में झाग ही झाग रह जाती है, मक्खन नहीं बनता।’

‘ये नहीं मानेगी, चलो भाईयो। हम नमाज़ पढें, समय गुजरता जा रहा है। पता नहीं कौन है। हमारी इबादत खराब करने आ पहुँची है।’

‘फकीरे की घर वाली है जी।’ किसी एक ने कहा।
‘कौन फकीरा ?’
‘सुल्तान तांगे वाले का पुत्तर।’
‘वह तो शहर में रहता है न ?’
‘किसी दफ्तर में मुलाजिम है जी। पूरी बारह जमातें पढ़ा है। उसके पिता ने तांगा चला-चला कर उसे पढ़ाया था।’
‘और ये काकी, मेरा मतलब है कि उसकी घरवाली कौन है? अपने गाँव की तो लगती नहीं।’
‘हाँजी, लाहौर की है, और उसकी मौसी की लड़की है। वहीं लाहौर में पली-बढ़ी है, पढ़ी-लिखी है।’
‘हाँ, वह तो दिखता ही है, तभी तो नंगे सिर मसज़िद में आ घुसी है।’
‘परंतु फकीरे को तो कभी नहीं देखा मसज़िद में।’
‘नहीं जी, वह तो नमाज़ ही नहीं पढ़ता। कभी-कभार साल भर बाद ईद की नमाज़ पढ़ लेता है।’
‘सुअर का बच्चा।’ बुजुर्ग के मुँह से निकला।
‘नहीं चाचा, ऐसा मत कहो। मुसलमान सूअर का नाम नहीं लेते। सूअर का नाम लेने पर जीभ नष्ट हो जाती है।’

‘फकीरे का नाम लेना और सूअर का नाम लेना एक बराबर है। जो नमाज़ ही न पढ़े वह सूअर से कम तो नहीं।’
‘पता नहीं जी, मैं क्या कह सकता हूँ कभी-कभी तो मुझसे भी नमाज़ चूक जाती है।’
नमाज़ खत्म होने के बाद सभी परवीन के इर्द-गिर्द जमा हो गए। हर तरफ से सवालों की बौछार होने लगी।
‘मुझे मौलवी साहब से बात करनी है, आप सभी अपने-अपने घर जाएं। क्यों मुझे मामला बनाने पर तुले हुए हैं? मुझे उनसे एक सवाल करना है। पढ़े-लिखे इन्सान हैं, कुछ न कुछ तो ज़रूर बताएंगे।’ सभी व्यक्ति एक-एक कर खिसक गए और रास्ते में एक दूसरे से अटकलें लगाते रहे।

थोड़ी देर बाद मौलवी साहब भी बाहर आ गए और बोले - ‘हाँ बेटी, तुम किसी मसले के बारे में बात करना चाहती थी? क्या मसला है तुम्हारा?’

‘बात ये है मौलवी साहब कि...... ’
‘नहीं-नहीं। ऐसे नहीं ठहरो, मैं हुजरे (मसज़िद के साथ वाली कोठरी) का दरवाजा़ खोलता हूँ। आराम से बैठकर बात करते हैं।’ मौलवी ने कहा।

‘जी नहीं। मुझे हुजरे से डर लगता है।’
‘अरे मूर्ख कहीं की, डर किस बात का? वहाँ कोई जिन्न-भूत है क्या ... चलो, आओ।’
मौलवी साहब ने हुजरे का दरवाज़ा खोला और वह भीतर आ गई। हुजरे में नारीयल की रस्सी से बुनी चारपाई पड़ी थी। एक आले में सरसों के तेल का दीया जल रहा था। सामने वाली दीवार पर लकड़ी की चार कीलियां गड़ी हुई थीं, जिन पर मौलवी साहब के मैले कपड़े टंगे थे, दूसरे आले में सुरमा, शीशा और कंघी पड़े थे। मौलवी साहब ने सिर से पगड़ी उतारी और कीली पर टांग दी। और दोनों हाथों से सिर खुजलाते हुए चारपाई पर बैठ गए, फिर बोले - ‘हाँ, अब बताओ।’

दरवाज़े के साथ लगी चौकी पर बैठ कर उसने कहा - ‘जाना तो मुझे थाने चाहिए था, परंतु थाना बहुत दूर है। और जो केस मुझे थाने में ले जाना था, वह ख़त्म नहीं होता बल्कि दुगना हो जाता। मुझे कानून पर ऐतबार नहीं रहा। थाने वाले रिश्वत खा-खा कर कानून की ऐसी-तैसी कर रहे हैं.....’

‘मसला क्या है, तुम बताओ तो सही। मैं तुम्हें ठीक-ठाक हल बताऊंगा तुम्हारे मसले का।’
‘मेरे साथ बलात्कार हुआ है....’
‘क्या.....?’
मौलवी साहब मशीन की तरह चारपाई से उठ खड़े हुए और थूक गटकते हुए कहा - ‘किसने किया?’
‘फकीरे ने मौलवी साहब!’
‘पर वह तो तेरा शौहर है।’

‘हाँ, मौलवी साहब। इसी बात का तो रोना है। उसने आज रात मुझसे बलात्कार किया है और पिछले कई सालों से कर रहा है।’
मौलवी साहब ने इधर-उधर देखा और काँपती आवाज़ में कहा - ‘शायद तेरा दिमाग काम नहीं कर रहा या तू बीमार है।’
‘मेरा दिमाग भी ठीक है और मैं भी ठीक हूँ परंतु मेरे साथ शायद ठीक नहीं हो रहा।’
‘बीबी ! जब कानून और मज़हब मिल कर दूसरों की किस्मत का फैसला करते हैं तो उन्हें मिल-जुल कर रहना चाहिए। वे जो भी काम करते हैं, रब्ब और कानून की मर्जी़ से करते हैं. और तू जिसे बलात्कार कह रही है, वह बलात्कार नही। औरत तो मर्द की खेती होती है...’
‘और खेत में नमी हो या न हो उसमें हल चलाते जाओ.....’

‘हाँ, इसलिए कि वह मर्द की मल्की़यत होती है, किसी दूसरे की जायदाद नहीं होती। और आदमी जब अपनी जायदाद पर हल चलाता है तो वह गलत नहीं करता। फकीरे ने भी कोई बुरा नहीं किया। और जब तुम्हारा ब्याह हुआ था उस वक्त तुम दोनों के माता-पिता की मर्जी़ के साथ-साथ तुम दोनों की मर्जी़ भी शामिल थी।’

‘इसी बात का तो रोना है मौलवी साहब ! मेरी मर्जी़ नहीं थी.....’
‘तौबा-तौबा। अगर नहीं थी तो अब जब इतने साल गुज़र गए तो और भी गुज़र जाएंगे। माता-पिता की इज्ज़त भी कोई चीज़ होती है....’

‘मौलवी साहब! मैं आपकी तक़रीर और मशवरे सुनने नहीं आई। वह तो मैं रोज़ ही लाउड स्पीकर पर सुनती हूँ। मुझे मसले का हल बताएं।’
‘इस वक्त तो मसले का हल यही है कि तू यहाँ से निकल जा। तू तो सारे गाँव को खराब करेगी।’

परवीन चुपचाप उठ कर मसज़िद से बाहर आ गई। पौ फट रही थी और चिड़ियां चहचहाने लगी थीं। वह जब घर पहुँची तो फकीरा तब तक सो रहा था।

इतने में उसके कानों में मौलवी चरागदीन की आवाज़ आई। यूं लगता था कि बैटरी चालित लाउड स्पीकर की आवाज़ आज पहले से मानो काफी़ बढ़ गई हो।

‘मैं मौलवी चरागदीन वल्द मौलवी बागदीन खुदा का नाम लेकर सब लोगों से विनती करता हूं कि वे फकीरे सुल्ताने तांगे वाले के घर पास इकट्ठे हों और उसकी घरवाली परवीन लाहौरन को अपने गाँव से बाहर निकाल दे। मेरे भाईयो, परवीन एक गुनाहगार और बदकार बल्कि बदचलन औरत है और अगर वह कुछ दिन और हमारे गाँव में रह गई तो सबकी मां-बहनें भी ठीक नहीं रहेंगी।’

देखते ही देखते पूरा गाँव फकीरे के दरवाज़े पर इकट्ठा हो गया। लड़कियां, लड़के, बूढ़े और जवान। फकीरा शोर सुनकर एक दम से जग गया और आँखें मलते-मलते बाहर आकर लोगों से पूछने लगा - ‘क्या हुआ?’



मौलवी साहब जो अभी-अभी मसज़िद से दौड़े-दौड़े आकर भीड़ में आ शामिल हुए थे, बोले - ‘मैं बताता हूँ कि क्या हुआ। तेरी घर वाली कहती है कि तूने उसके साथ बलात्कार किया है और पिछले कई सालों से करता आ रहा है।’


‘उसका तो दिमाग खराब है मौलवी साहब। यह बात तो वह मुझे कई बार कह चुकी है। इसमें भला बिगड़ने की क्या बात है?’


‘वाह भई, वाह फकीरे ! हम कानून और मज़हब के साथ मज़ाक होता देखते रहें और कुछ न कहें। हम परवीन को गाँव से निकाल कर ही छोड़ेंगे।’


इससे पहले कि फकीरा कोई जवाब देता, भीड़ आगे बढ़कर परवीन को आँगन से बाहर खींच लाई और घर का सामान भी उठा-उठा कर बाहर फेंकना शुरू कर दिया।


एक आदमी बीच में ही बोल उठा - ‘फकीरे को भी गाँव से बाहर निकालो। ये अपनी घर वाली की तरफदारी कर रहा है।’ और पगलाई भीड़ ने फकीरे को धक्के मारने शुरू कर दिए। परवीन रो रही थी - ‘ हाँ, मैं अब भी यही कहूंगी मौलवी साहब! मेरे साथ बलात्कार हुआ, और होता रहा। जब कोई मन को न भाए, तो उसका स्पर्श करना भी बलात्कार ही होता है। फकीरा पिछले काफी समय से मेरे साथ बलात्कार रह रहा है। आँखों से, हाथों से, मुँह से, साँसों से और बातों से .......बलात्कार....’


भीड़ आगे बढ़ी और दोनों को धक्के मारते हुए गाँव से बाहर ले आई। पक्की सड़क पर आकर सभी रुक गए। फकीरा और परवीन मुजरिमों की तरह खड़े थे। दूसरी तरफ गाँव की औरतें भी इकट्ठी हो गई थीं। मर्दों में से किसी ने कहा - ‘अब जाते क्यों नहीं हो। दफा हो जाओ न।’

परवीन
ने मौलवी की ओर देखा, फिर औरतों की ओर और अंत में फकीरे की ओर। फकीरे ने नज़रें झुका लीं।

परवीन आगे बढ़ी और सड़क के पास जा कर उस तरफ खड़ी हो गई जिधर लाहौर की बसें जाती थीं और फकीरा उस तरफ चल दिया जिधर शहर था।


मौलवी साहब ने कहा - ‘चलो भाई, सब अपने-अपने घरों को चलें। और सभी गाँव की और चल दिए। औरतों के समूह में से एक बुजुर्ग औरत ने धीरे-धीरे रोते हुए कहा - ‘मौलवी बेचारा क्या जाने, हममें से कितनी ऐसी हैं, जिनके साथ रोज बलात्कार होता है, परंतु वे कहें किससे ...... ?’


अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'

साभार - जनसत्ता, दीपावली विशेषांक, 2005

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8 टिप्‍पणियां:

  1. जी शुक्रिया हौंसला अफ़ज़ाई के लिए। वैसे मैंने आपकी गठरी में लिटिटयों का दिग्दर्शन ही नहीं, रसास्वादन भी किया है।

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  2. तौकीर चुगताई जी की इस बेहतरीन कहानी को हम से साँझा करने के लिए आपका आभार्!

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  3. भावनात्मक कहानी है...धर्मांधता की एक सच्चाई है जिसके उपर उठकर सोचने की जहमत तक ये धर्मांध लोग नहीं उठाते है....क्योंकि जिनको आंख बंद कर देखने में अच्छा लगता हो वो ऐसा ही करते है.,..क्योंकि उनके लिये औरत मात्र एक भोग की वस्तु है...सिर्फ लूटने की चीज़

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  4. इस नए चिट्ठे के साथ ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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