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सोमवार, मई 16, 2011

धारावाहिक बांग्ला उपन्यास - 4

(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत

0 समीरण गुहा

      इस घटना के बाद से ही शमीक का दिल धीरे-धीरे टूट गया था परंतु असहाय होकर चुपचाप पड़े रहने के सिवा और कोई चारा भी नहीं। अरुण गांगुली के पास जाकर चुमकी के विरुद्ध कुछ कहना उसके लिए संभव भी तो नहीं। यह उसके उसूलों के विरुद्ध है। और फिर इसी पल इस घर को छोड़कर चले जाना भी तो बचकानी हरकत होगी। सबसे बड़ी बात थी, कि अरुण गांगुली को चोट पहुँचाने को जी नहीं चाह रहा था। जो व्यक्ति उससे इतना स्नेह करता है, इतना चाहता है उसे अशांत करके क्या फ़ायदा? और क्या वे बहुत शांति में हैं? दिन भर के बाद नाम के वास्ते घर को आते हैं। परंतु घर के स्नेह की घनी छाया ने उन्हें कभी शीतलता प्रदान नहीं की। कम से कम शमीक ने तो नहीं देखा। समस्या का समाधान जब होना ही नहीं है तो उस व्यक्ति को और तकलीफ़ न देकर खामोश रहना ही बेहतर है। चुमकी जो मर्ज़ी कहती रहे, शमीक अपने असीम धैर्य की परीक्षा देगा। कम से कम अरुण गांगुली के लिए इतना तो उसे करना ही होगा।
      पर कौन किसके लिए करेगा इसका हिसाब-किताब पहले से सोच रखने के बावजूद ऊपर वाले का विधान अलग होता है। अरुण गांगुली के लिए कुछ भी करने को शमीक हमेशा तत्पर रहता है, यद्यपि उसके करने के लिए कुछ है नहीं। अरुण गांगुली ही मन-प्राण से बार-बार तत्पर रहते हैं। एक बार फिर वे आगे आए। सिर्फ़ आगे आना ही नहीं बल्कि शमीक को उन्होंने नई ज़िंदगी दी। 
      काम में डूबे रहने वाले इंजीनियर के रूप में इसी बीच शमीक ने काफी लोकप्रियता  अर्जित कर ली है। श्रमिकों के साथ बराबर रूप से काम करता है। कोई अगर भारी माल उठा नहीं पा रहा है, तो शमीक ने वहाँ भी हाथ लगाया। यहाँ तक कि नेकेड बॉयलर
ऐंगल - बीम के ऊपर से चलकर वहाँ जाकर भी काम-काज देखा। ऐसा ख़तरा मोल लेने को बहुत से इंजीनियरों ने उसे मना किया था। शमीक ने लेकिन उनकी बात नहीं सुनी। लोगों की नज़रों में बड़ा बनने या दिखावे की बात नहीं है - शमीक का यही सीधा-सादा तर्क है कि श्रमिकों की भी तो जान है। वे यदि ऐसा ख़तरा उठा सकते हैं तो वह क्यों नहीं?
      इस बीम के ऊपर से काम-काज देखने जाते समय ही एक दिन पैर फिसल जाने की वजह से शमीक नीचे गिर गया। तीस-पैतींस फुट ऊपर से गिरने के बावजूद कोई ख़तरनाक बात नहीं होती लेकिन उसका सर गैस सिलिंडर के लोहे के कैप से जा टकराया। तुरंत वह बेहोश हो गया और काफी ख़ून भी बह गया।
      पलक झपकते ही भीड़ इकट्ठा हो गई। सारे श्रमिक काम छोड़कर दौड़े आए। जो नीचे थे उन्होंने ही मिलकर उसे गोद में उठा लिया। कुछ गाड़ी बुलाने के लिए दौड़ पड़े। जितनी जल्दी हो सके नागपुर के सदर अस्पताल पहुँचाना होगा।
      अरुण गांगुली अपने चेंबर में डी. ई. एवं सुपरिनटेंडेस के साथ मीटिंग में थे। उन तक समाचार पहुँचते ही वे उठ खड़े हुए। एक डिविज़नल इंजीनियर पर मीटिंग की जिम्मेदारी सौंप गाड़ी ले वे सीधे अस्पताल की तरफ दौड़े।
      बावन घंटे गुज़र चुके हैं। अभी भी शमीक बेहोश है। कल दो बोतल ख़ून दिया गया था।  आज भी हाथ की नस में सैलाइन और नाक में ऑक्सीज़न की नली लिए वह ख़ामोश मौत से जूझ रहा है। 
      सबसे ज़्यादा अरुण गांगुली टूट चुके हैं। लड़का उनके भरोसे ही माँ और बहनों की ज़िंदगी के लिए इतनी दूर आया है और आज वह खुद ही ज़िंदगी के लिए संघर्ष कर रहा है। उसे ठीक होना ही होगा। वर्ना ताउम्र अरुण गांगुली को एक ज़ख्म टीसता रहेगा। विषलेषण कर दूसरों को समझाना संभव नहीं -  दरअसल शुरू से ही शमीक के प्रति उनके मन में लगाव कुछ ज़्यादा ही था। शमीक के चेहरे की तरफ देखते ही अरुण गांगुली कैसे उदास से हो जाते हैं। शमीक को वे औलाद के सिवा कुछ सोच ही नहीं सकते। ये सब युक्ति और तर्क की बातें नहीं हैं - स्नेह और आवेग ने यहाँ रिश्ते को मजबूत बना दिया है। कुछ बुरा न हो उसी उम्मीद से अरुण गांगुली  बावन घंटों से शमीक के सिरहाने बैठे हैं। महाराष्ट्र इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के अन्य अधिकारी और श्रमिक तो हैं ही, बासंती और चुमकी भी हैं। परंतु कोई भी अरुण गांगुली को अस्पताल से एक क़दम भी दूर नहीं हटा पाया। उनकी बस यही एक बात थी, आप सब मुझसे अनुनय न करें। यह सिर्फ़ शमीक ही नहीं मेरी भी ज़िंदगी का सवाल है। इसके बाद भी कईयों ने उनसे कहा लेकिन जब उन्हें अस्पताल के केबिन से हिलना ही नहीं तो फिर किसी ने उन्हें तंग नहीं किया।  घर से टिफिन कैरियर में खाना आता। हाँ खाना इतना बेस्वाद लग सकता है यह अरुण गांगुली ने पहली बार महसूस किया।
      कोराडी सुपर थर्मल के जनरल मैनेजर के तौर पर अस्पताल में अरुण को लगभग सभी जानते है। हाँ, डॉ. खादिलकर के साथ उनका रिश्ता दोस्तों जैसा है। दोनों लगभग हमउम्र हैं।   डॉ. खादिलकर ही शमीक को देख रहे हैं।  हालत तीव्रता से बिगड़ती जा रही है। अत: शमीक को इंटेंसिव केयर यूनिट में लाया गया है। डॉक्टरों और नर्सों के चेहरे  की चमक क्रमश: क्षीण होती जा रही है। लेकिन डॉ. खादिलकर दूसरी ही प्रकृति के हैं। अंतिम क्षण तक वे संघर्ष जारी रखते हैं और निराशा नाम का कोई शब्द उनके कोश में नहीं है। अत: वे जिस लगन से कोशिश का संकल्प लिए अग्रसर हो रहे हैं वह कई बार ईश्वर के सम्मान को ठेस पहुँचाती है। ईश्वर से डॉक्टर बड़ा है  - यह एक बार फिर देखने के लिए अरुण गांगुली उम्मीद लगाए बैठे हैं।
      डॉ. खादिलकर जैसे ही बाहर निकले आगे बढ़कर अरुण गांगुली उनके सामने जा खड़े हुए।   कुछ भी नहीं कहा यानी बोल ही नही पाए। डॉ. के दोनों हाथों को थाम सिर्फ़ मूक दृष्टि से देखते रहे। इस वक्त अगर कोई देखे तो यही कहेगा कि अरुण गांगुली नामक व्यक्ति शायद गूंगा है। वर्ना कुछ भी बोले बगैर कोई इस तरह ऑंखों से कहने की कोशिश करता है भला ?
       इन बावन घंटों से चिंतामग्न हैं। अन्य कार्य नियमित रूप से करने के बावजूद मूलरूप से वे शमीक के लिए फ़िक्रमंद हैं। इस थोड़े से समय में उनकी अरुण गांगुली के साथ कई बार मुलाकात हुई है। परंतु वह सिर्फ़ मुलाकात भर ही थी।  इस क्षण डॉ. खादिलकर ने महसूस किया कि अरुण गांगुली काफ़ी वृद्ध हो गए हैं। इन बावन घंटों में यह आदमी बहुत कुछ खो बैठा है।   डॉ. खादिलकर उनकी ऑंखों की तरफ देखते रहे लेकिन बहुत देर तक नहीं। बर्बाद करने के लिए बाद में समय बहुत मिलेगा। उन्होंने सिर्फ़ कहा, खून चाहिए। बहुत!
      अरुण अरुण गांगुली ने शांत स्वर में कहा,मेरे शरीर में बहुत खून है डॉक्टर। 
      कुछ सोचते-सोचते डॉ. खदिलकर ने कोमल स्वर में कहा- मेरे साथ आईए।
      बावन घंटों में ये पहली बार अरुण गांगुली निश्चिंत हुए। दरअसल शमीक के ब्लड ग्रुप के साथ अरुण गांगुली के ब्लड ग्रुप मैच हो जाने की खुशी ने उन्हें घेर रखा है। लेकिन ब्लड ग्रुप का मैच हो जाना ही क्या सब कुछ है? हताशा के क्षणों में तिनके का सहारा भी मिल जाए तो उसके सहारे ही इन्सान मंजिल तक पहुँचना चाहता है। अरुण गांगुली के मामले में भी वही बात है। 
      इसके बाद और बानवे घंटे गुज़र गए अर्थात् एक सौ चवालीस घंटों में भी शमीक को होश नहीं आया। डॉक्टर और नर्सों के दल ने मानो इसे एक चुनौती के रूप में लिया हो। सहज ही हार मानने का सवाल ही नहीं उठता। अंतिम क्षण तक संघर्षरत रहने की ठान कर हर कोई एक अदम्य आकांक्षा से मानो कूद पड़ा हो। शमीक को बचाने के लिए नए-नए सोच-विचार और परिकल्पनाओं में डूबे हुए हैं वे सभीपरंतु अरुण गांगुली की स्थिति कुछ भिन्न है। अस्पताल की चारदीवारी में उन पर क्या गुज़री यह शायद वे खुद भी ठीक तरह से न बता पाएं। शमीक नामक एक लड़के की मंगल-कामना में वे सारी दुनिया को भूल चुके हैं।
      अंतत: वह दिन भी आ पहुँचा। कहा जा सकता है कि एक प्रकाशमय दिन। अस्पताल के एक निर्दिष्ट केबिन में बैठ बड़ी संतुष्टि से दोपहर का भोजन किया अरुण गांगुली ने। सब के साथ हँस कर बात की। अचानक काम की बात याद हो आने पर उपस्थित अधिकारियों को काम के निर्देश दिए। जो श्रमिक डयूटी के बाद भी अस्पताल में शमीक का हाल-चाल पूछने आते उन्हें वे अलग नज़र से देखने लगे। और डॉक्टरों तथा नर्सों के प्रति उनकी कृतज्ञता की तो कोई सीमा ही नहीं।
      कितनी असाधारण कोशिश! निश्चित मृत्यु के हाथों से वे शमीक को लौटा लाए हैं। ऐसे दिन अरुण गांगुली खुश नहीं होंगे तो और कौन होगा। इस खुशी का कोई अंत नहीं। बच्चों की भाँति एक बार तो वे सोच ही बैठे कि आगामी कल अगर पूरे पॉवर प्लांट में छुट्टी दे दी जाए तो कैसा रहे? आवेग की भावधारा से बाहर निकल अरुण गांगुली मन ही मन हँस पड़े। यह कैसे संभव है? फिर डॉ.खादिलकर को देख स्निग्धता से हँस कर कहा, सदा के लिए आपका गुलाम हो गया मैं।
      प्लीज़ मिस्टर गांगुली, इतना बढ़ा-चढ़ाकर मत कहें।
      आपने आसाध्य परिश्रम किया है।
      मेरा तो यही काम है। मरीज़ जब तक अंतिम साँस नहीं लेता तब तक हमें भी साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। ख़ैर जो भी हो, डॉ. खादिलकर ने आत्मीयता से कहा, मरीज़ों के अभिभावक तो इस ज़िंदगी में बहुत देखे हैं लेकिन आप जैसा एक भी नहीं मिला। सचमुच लड़के यानी शमीक के लिए आपने जो किया उसकी कोई तुलना नहीं।
      सच में क्या बहुत ज़्यादा किया?......  हँसकर अरुण गांगुली ने कहा,एक इन्सान होने के नाते दूसरे इन्सान के प्रति इतना तो करना ही चाहिए
      अस्पताल के कक्ष में तब ढलती शाम की अंतिम रोशनी में शमीक बिस्तर पर लेटा हुआ है। ठीक लेटा हुआ नहीं, अधलेटा सा। आपदा पूरी की पूरी टल गई है। क्रमश: स्वस्थ हो रहा है। कल अरुण गांगुली से सुना था कि अगले हफ्ते उसे छुट्टी मिल जाएगी। अरुण गांगुली नाम याद आते ही अचानक शमीक की ऑंखे भर आईं। कई दिनों से तो वह सुन रहा है। क्या नहीं किया अरुण गांगुली ने? डॉक्टरों और नर्सों ने तो किया ही है लेकिन अरुण गांगुली ने अपना खून देकर संबंधहीन शमीक को असीम ममता से बचाया है, वह सोचने से एक बार क्यों हर बार ऑंखें भर आएंगी। 
      बीते कल अरुण गांगुली शमीक के बिस्तर पर ही बैठे बात-चीत कर रहे थे। उसके सिर पर हाथ फिराकर कहा, तुमने तो ऐसा डरा दिया था कि मैं कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। 
      शमीक बहुत देर तक उनके मुँह की तरफ देखता रहा। इतना कुछ करने के बावजूद यह व्यक्ति अपने प्रति इतना उदासीन है। बातचीत में भी अपने को ज़ाहिर करने की ज़रा भी व्याकुलता नहीं है। कितने साधारण तौर पर कहा, तुमने तो मुझे डरा दिया था। यानी वे विशेष कुछ कर ही नहीं पाए - सिर्फ़ फ़िक्र में कुछ दिन गुज़ारे हैं।
      धीरे-धीरे शमीक की ऑंखें फिर छलछला आईं। और अंतत: शमीक खुद पर काबू नहीं रख सका। अरुण गांगुली नामक व्यक्ति तब उसके लिए एक देवता समान था। उनके चरणों पर हाथ फिराते हुए श्रद्धानत हो शमीक ने एक ही बात कही, इस जीवन में आपका ऋण चुकाने की बात सोच भी नहीं सकता।
      दूसरी बार शमीक के सिर पर हाथ फिराया अरुण गांगुली ने। स्नेह से भरे कोमल स्वर  में कहा, तुम मामले को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देख रहे हो। दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है। मेरा बेटा होता तो भी इतना सा काम तो मैं ही करता न। तुम मेरे बेटे नहीं हो, इसलिए नहीं करूंगा। ऐसा हो सकता है भला?
      अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे शमीक बहुत कुछ सोच रहा था। बीमारी की हालत में माँ की बहुत याद आती है। नानू और सेवा के लिए भी कभी-कभी दिल में हूक सी उठती है। ऑंखें बंद कर उनके बारे में सोचते वक्त बहुत बार ऐसा महसूस होता है मानो ऑंखें खोलते ही उनको सामने पाएगा। ये बचकाने सोच-विचार शमीक को कभी हँसाते है तो कभी रुलाते हैं।
      अरुण गांगुली आए। उनके पीछे-पीछे बासंती और चुमकी भी। तीनों को इकट्ठे देखकर शमीक को बहुत खुशी हुई है, यह उसके चेहरे से ही स्प्ष्ट है। खुशी में वह बिस्तर पर उठ बैठा।  और तुरंत चुमकी की डाँट भी खाई।
      तुम्हें उठने की कोई ज़रूरत नहीं। लेटे रहो।  
सारा दिन तो लेटा ही हुआ था।
      और लेटे रहकर विश्राम करना होगा। चुमकी ने एक सूक्ष्म व्यंग्य सा करते हुए कहा, पूरी तरह विश्राम लेने की ही तैयारी थी तुम्हारी। तुम्हें किसने कहा था उन पतले-पतले बीमों पर चलकर काम-काज देखने को? या ट्रॉपिज का यह खेल न दिखाने पर तुम्हें वेतन नहीं मिलने वाला था? किसी और इंजीनियर ने हद से बाहर ऐसा किया?                    
      हद से बाहर?
      और नहीं तो क्या?
      अपने काम के प्रति ईमानदार होना अगर हद से बाहर जाना है तो -
      रहने दो, ईमानदारी की बातें और मत करो। चुमकी सहजता से ही कहने लगी, पॉवर प्लांट में मैं कभी गई नहीं क्या। पिता जी के अतिरिक्त दूसरा कोई और ईमानदार व्यक्ति मेरी नज़र में नहीं आया। लेकिन क्या वे लोग काम नहीं करते? ज़रूर करते हैं। वर्ना कोराडी सुपर थर्मल का काम आगे कैसे बढ़ रहा है? मेरे कहने का मतलब है शुरू से ही काम का इतना दबाव लेने की ज़रूरत क्या है? चार उंगली चौड़े बीम के ऊपर से जाने पर भी तनख़्वाह मिलेगी, नहीं जाने पर भी मिलेगी। महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड तुम्हें इसके लिए अतिरिक्त तनख़्वाह नहीं देगा
      चुमकी की हर बात बड़े ध्यान से सुनी शमीक ने। दरअसल आज वह चुमकी का दूसरा ही  रूप देख रहा था। आज उसकी किसी बात ने चोट नहीं पहुँचाई। जो भी कहा है सब शमीक की भलाई के लिए ही। ऐसी मुसीबत भविष्य में फिर कभी न आए इसीलिए तो इतना सब कहा है।  शमीक ने अब चुमकी को एक नई दृष्टि से देखना शुरू किया। उसके रूखेपन की ओट से ऐसा एक हृदय निकल कर सामने आएगा यह तो कल्पना से परे की बात थी। उसके भीतर यह जो ममता समाई हुई है क्या इसे ज़्यादा दिनों तक समेट कर नहीं रखा जा सकता?
शमीक चुमकी के मुँह की तरफ देखता ही रहा। लड़की आज सचमुच बहुत ज़्यादा अनुभूतियों के साथ आगे बढ़ी है। फिर भी शमीक को आशंका है शायद अब चुमकी पहले वाली चुमकी में बदल जाए, शायद अब आक्रमण कर बैठे। पर नहीं।  वैसा कुछ भी नहीं हुआ।   चुमकी प्यार से मुस्कराई। कोमल स्वर में बोली, सुना है थोड़ा सा और स्वस्थ्य होते ही तुम फिर साइट पर दौड़े जाओगे। वो सब छोड़ो। एक महीने से पहले तुम घर से नहीं निकलोगे, याद रखना। 
      इन्सान में लालच बहुत बुरी चीज़ है। थोड़े में संतुष्ट ही नहीं होना चाहता। चुमकी की बातों ने आज बार-बार शमीक के मन को छू लिया। अत: वह और देखना चाहता है, सुनना चाहता है, इसके बाद चुमकी और क्या-क्या कह सकती। शमीक ने एक गहरी उम्मीद से कहा,अभी तो मैं ट्रेनी हूँ। इतनी छुट्टियां जब नहीं मिलेगीं तो साइट पर तो जाना ही पड़ेगा।
      तुम जाकर तो देखो, बताती हूँ।
      तुम तो मेरी बॉस नहीं हो।
      तो क्या हुआ? चुमकी हँस पड़ी। किसकी बेटी हूँ कम से कम यह तो तुम्हें याद रखना चाहिए। ऐसा कहते समय चुमकी ने एक बार पिता की तरफ देखा तो अरुण गांगुली ज़रा सा हँसे। वह शमीक की नज़रों से नहीं छुपा। मानसिक शांति की एक शीतल बयार ने इस समय उसे तृप्त कर दिया। ऐसी हँसी अरुण गांगुली हमेशा क्यों नही हँसते? शमीक की ऑंखें हर क्षण इसी तस्वीर को तलाशती फिरती हैं।
            अरुण गांगुली को आज हुआ क्या? गंभीरता की दीवार को तोड़ वे क़दम - दर - क़दम आगे बढ़े। शमीक की ऑंखों की तरफ देख एक बार चुमकी की मुँह की तरफ भी देखा। शांत स्वर में कहा, चुमकी ने कुछ ग़लत नहीं कहा। छुट्टी के मामले में तुम्हें फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। और यह तो एक्सीडेंट का मामला है। बोर्ड के नियमानुसार तुम्हें सभी सुविधाएं मिलेंगी। ऐसे में कौन ट्रेनी है और कौन सीनियर, ऐसी कोई बात ही नहीं है। थोड़ी देर चुप रहकर अरुण गांगुली ने फिर कहा, तुम क्यों इतनी फ़िक्र करते हो? मैं तो हूँ न।
वह सब मुझे सोचने दो।
      फिर भी शमीक पता नहीं क्या सोच रहा था। समय समाप्त हो गया था। वे लोग अब उठेंगे। शमीक मन ही मन खाली-खाली सा महसूस करने लगा। यद्यपि वे लोग कल फिर आएंगे।  कलकत्ते से आते वक्त भी ऐसा ही हुआ था। नानू, सेवा और माँ की रुलाई को याद कर सारा रास्ता वह भी रोता रहा था। 
      इतना क्या सोच रहे हो? उठते समय बासंती ने स्नेहपूर्वक जानना चाहा।
      कल आप लोग आएंगे तो न?
      क्यों नहीं आएंगे? बासंती ने मुस्करा कर कहा, तुम जब तक यहाँ हो, हम रोज़ आएंगे।
      कल आते वक्त.... अचानक शमीक रुक गया।
      आते वक्त क्या बासंती ज़रा हैरान होकर शमीक के मुँह की तरफ देखती रहीं.
      शमीक ने बहुत धीमे से कहा, मेरे कमरे के टेबल पर माँ, नानू, सेवा की तस्वीरें हैं। कल यदि उनको लेते......
      ज़रूर लाऊंगी।
      चुमकी ने कहा, जी भर कर देखना। कॉलेज से सबसे पहले मैं ही यहाँ आऊंगी। मेरे साथ तस्वीरें होंगी। खुश हो तो।
      पत्नी और बेटी की बात-चीत में अरुण गांगुली ने खुद को लगभग सिकोड़ रखा था। उन दोनों ने शमीक के साथ इतनी अच्छी तरह बातें करके उसे अपना बना लिया था। इस समय कौन कहेगा कि शमीक एक बाहरी व्यक्ति है। मानो एक ही परिवार के सुख की गर्मीहट से सभी साथ-साथ हैं।
      अरुण गांगुली बहुत ज़्यादा देर तक यह सब सोच नहीं पाए। शमीक की अंतिम बात मानो उनके कानों में गूंजती रही। मेरे कमरे के टेबल पर माँ, नानू और सेवा की तस्वीरें हैं। वे भी तो इसी उम्र से ही नौकरी के सिलसिले में बाहर-बाहर ही रहते थे। माँ तो पहले ही गुज़र गई थीं। पिता को देखने के लिए मन दिन गिना करता था। उन दिनों की बातें अरुण गांगुली नहीं भूले।  भूल न पाने के कारण ही वे बार-बार अपनी जगह छोड़ शमीक की जगह चले जा रहे थे। इस लिए उसकी ऑंखों की मूक भाषा वे सहज ही पढ़ पा रहे थे। भर्राए स्वर में कहा, यद्यपि इस हफ्ते के अंत में तुम्हें यहाँ से छुट्टी मिल जाएगी परंतु उसके बाद भी तो तुम्हें आराम की ज़रूरत है। और वह आराम अगर न्यु बैरकपुर में माँ, नानू और सेवा के पास हो तो?
      खुशी से चमक उठीं शमीक की दोनों ऑंखें। उसके चेहरे पर कृतज्ञता झलक उठी। बड़ी हैरानी से वह अरुण गांगुली के मुँह की तरफ देखता रहा। 
      अरुण गांगुली उसकी मनोदशा समझ गए। तुरंत कहा- क्या, यकीन नहीं हो रहा? 
फिर और भी सहजता से कहा - मेरा खयाल है कि तुम्हें एक बार घर से हो आना चाहिए। अगर पंद्रह दिनों के लिए जाना चाहो तो व्यवस्था कर सकता हूँ। हाँ तुम्हें अकेले नहीं छोड़ा जा सकता।  किसी को साथ भेजना होगा।
      पिताजी, यह जिम्मा आप मुझ पर छोड़ सकते हैं। 
      बेटी के मुँह की तरफ देख अरुण गांगुली ने कहा, तुम अगर जाना चाहती हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
      मैं बहुत दिनों से कलकत्ते नहीं गई। 
      ठीक हैतो तुम ही जाओ। लेकिन शमीक को संभाल कर ले जा सकोगी तो?             आप जिम्मेदारी देकर तो देखें।
      जिम्मेदारी देकर मैं सब पर ही विश्वास करना चाहता हूँ। कितने लोग उसका पालन कर पाते हैं बताओ? आखिर की बातें इस तरह कही मानो खुद को ही सुना रहे हों। या किसी और को सुनाना चाहा। मामला ठीक से समझ नहीं आया।
                                                                               जारी।

 बांग्ला से अनुवाद  नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।

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