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गुरुवार, मई 19, 2011

धारावाहिक बांग्ला उपन्यास - 6


(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)

गोधूलि गीत


0 समीरण गुहा

     आज पाँच दिन हो गए चुमकी को जादबपुर अपने दादा के पास गए। अरुण गांगुली के सुधेन्दु मामा अर्थात् चुमकी के दादा सपरिवार उनके घर पर ही रहते हैं। कर्नल सुधेन्दु गोस्वामी पहले तो तैयार ही नहीं थे इस घर में रहने को। आत्मीय-स्वजनों की टीका-टिप्पणी सुनना उन्हें पसंद नहीं। अरुण गांगुली के पिता की मृत्यु के बाद कईयों ने इस घर की तरफ हाथ बढ़ाने का आग्रह दिखाया था। सिर्फ़ कर्नल साहब सुधेन्दु गोस्वामी ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। और अरुण लोगों को पहचानने में कभी ग़लती नहीं करते। परिणामस्वरुप पिता की मृत्यु के बाद इस घर की देखभाल और रहने का अनुरोध कर अभिभावक के तौर पर उन्होंने सुधेन्दु मामा को ही मनोनीत किया।
     चुमकी को उसी सुधेन्दु मामा के सुपुर्द कर आया है शमीक। न्युबैरकपुर से सीधी ट्रेन है जादबपुर के लिए, बाघाजतिन होकर सीधे निकल जाती है। उसी ट्रेन से चुमकी को ले गया था शमीक। उससे पहले सर के घर अवश्य गया था। मकैनिकल इंजीनियर प्रोफेसर विकास चौधरी उसके जीवन में ध्रुव तारे समान हैं। नागपुर की नौकरी के सूत्रधार तो वे ही हैं। उस प्रोफेसर को क्या कभी भूल सकता है भला शमीक? उससे भी बड़ी बात है कि सर का जो असीम स्नेह उसे मिला है इतनी कृपा दृष्टि भी शायद किसी ने नहीं पाई। 
     विकास चौधरी घर पर ही थे। शमीक और चुमकी को देख उमंग से उछल ही तो पड़े थे, कहा-आओ, आओ! मेरे मित्र का क्या हाल-चाल है? तुम लोग कलकत्ते कब आए? वापस कब जा रहे हो? कहते-कहते बड़े ज़ोर से पीतांबर, पीतांबर कह पुकारने लगे। इसी बीच शमीक और चुमकी दोनों के चरण स्पर्श कर हटते ही विकास चौधरी ने उनके सर, पीठ पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा, बैठो शमीक, बैठो बेटी बैठो। फिर परम संतोष से हँस पड़े विकास चौधरी। शमीक की तरफ मुग्ध होकर देखते हुए कहा, महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में तो अब तुम्हारी बड़ी ख्याति है रे शमीक। अरुण की चिट्ठी से मुझे तुम्हारा सब समाचार मिलता रहता है। गर्व से मेरा सीना तन जाता है। मकैनिकल इंजीनियरिंग के सिर्फ़ तीसरे साल तक पढ़ा लड़का कितनी-कितनी जटिल समस्याओं का समाधान कर देता है। साधनारत हो कितने लोग अपने काम से इतना स्नेह कर पाते हैं? शमीक मुझे तुम पर गर्व है। परंतु बेटा, यह तो ऑफिस के एयर कंडीशनर कक्ष में बैठकर करने वाला काम नहीं है। इरेक्शन का काम है। बड़े-बड़े बॉयलर लगाने का काम। ज़रा सी असावधानी होने पर ज़िंदगी और मौत का खेल। अत: काम ज़रूर करो लेकिन अनावश्यक ख़तरे मोल लेने की कोई ज़रूरत नहीं। ज़िंदगी के विनिमय में वीरता दिखा कर क्या फ़ायदा? अरुण की चिट्ठी से तुम्हारे ऐक्सीडेंट की ख़बर पाकर मैं तो जड़ रह गया। काम के प्रति गंभीर होना अवश्य अच्छी बात है। जीवन के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है परंतु शमीक, एक पतले से बीम के ऊपर से चलकर जाने का अतिरिक्त साहस न दिखाना ही बेहतर है। हर काम हर व्यक्ति के लिए नहीं होता। श्रमिक - दक्ष श्रमिक जो कर सकते हैं अर्थात् पतले बीम के ऊपर चल सकते हैं, वह तुम नहीं कर सकते। और एक मशीन अगर ख़राब हो जाती है तो उसे तुम ही चालू कर सकते हो, वे श्रमिक नहीं कर सकते। तुम क्या कहती हो बेटा?   
     अंकल, हम तो कह-कह कर थक गए। अब आपका कहना अगर माने तो।
     अगर माने मतलब? अवश्य मानना होगा। शमीक के कंधे पर हाथ रखकर विकास चौधरी ने कहा, पढ़ाई-लिखाई बीच में छोड़कर माँ-बहनों को जीवित रखने की ख़ातिर नौकरी करने गए हो। हाँ, उन्हें बचाना तुम्हारी जिम्मेदारी है। परंतु उससे पहले खुद को बचाना सीखो।  खुद को बचाना सीखोगे तभी तो तुम्हारी नानू, सेवा, माँ सबके चेहरों पर खुशहाली होगी। बातें याद रखना।  
     फिर विकास चौधरी थोड़ा सा हँसे। चुमकी से पूछा, अब अपनी पढ़ाई का हाल-चाल बताओ। इतनी देर तो शमीक की बातें ही होती रहीं।
     छात्र अगर लापरवाह हो तो आप क्या करेंगे अंकल। उसे परिमार्जित करने में वक्त तो यादा लगेगा ही। चुमकी ने हँसते हुए कहा, मेरी पढ़ाई का हाल-चाल यह है कि मैं जो बी.ए. की परीक्षा देने वाली हूँ उसमें अगर फर्स्ट नहीं भी आऊंगी तो फेल भी नहीं होऊंगी। इतना भरोसा मैं आपको दिला सकती हूँ।
     क्या खूब कहा बेटा, क्या खूब कहा। विकास चौधरी के पूरे चेहरे पर आत्मसंतोष की मुस्कान फैलने लगी। उन्होंने कहा, यह सही है कि हम मेधावी छात्र-छात्रओं को ही ज़्यादा पसंद करते हैं।  उनकी लगातार जिज्ञासा के आकांक्षा दीप को बढ़ावा देने के लिए हम भी एक और तपस्या की आकांक्षा में डूब जाते हैं। उस मेधावी छात्र को लेकर कितनी ऊँचाई पर पहुँच सकते हैं, उसे कहाँ पहुँचा सकते हैं, ज़िद की उस रेलगाड़ी में सवार हो एक निर्दिष्ट लक्ष्य की सीमा का अतिक्रमण करने पर भी तुम जैसे छात्र-छात्राएं भी हमें बहुत पसंद हैं जो परीक्षा से पूर्व ही सीना ठोक कर ज़ोरदार आवाज़ में कहते हैं, कह सकते हैं, और चाहे जो हो फेल नहीं होंगे। यह भी एक तरह का मानसिक ज़ोर है। यह ज़ोर हर किसी में नहीं होता। अत: बेटा तुम्हारी इस सोच की प्रशंसा किए बिना रह नहीं पा रहा।  किसकी बेटी हो यह भी तो देखना होगा। तुम्हारे पिता को भी ज़्यादा पढ़ाई करते नहीं देखा। हम लोग जहां दिन भर में बारह-तेरह घंटे किताबों से चिपके रहते थे, अरुण बहुत हुआ तो पाँच-छह घंटे पढ़ा करता था। जबकि जानती हो बेटा, रिज़ल्ट में बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं होता था। अत: मैं अपने नागपुर के दोस्त को मन ही मन बहुत श्रद्ध करता था। क्यों न करूं बोलो - विकास चौधरी ने अत्यंत सहज तर्क देकर समझाया - मैं दिन में बारह-तेरह घंटे पढ़कर फर्स्ट आता था, ठीक है। मुझसे आधे से भी कम समय पढ़ कर जो लड़का तीसरे या चौथे नंबर पर रहे, मैं सचमुच मानता हूँ कि वह मुझसे बहुत ऊपर है। अरुण गांगुली के साथ मेरी दोस्ती तो इसी कारण है ....  विकास चौधरी खुले मन से हँसने लगे।
     उस हँसी के रुकते ही अचानक वे बहुत गंभीर हो गए।  शमीक और चुमकी के साथ वे जिस कमरे में बैठे हैं वह बहुत बड़ा नहीं है। कमरे के ठीक बीचो-बीच एक सोफ़ा सेट, सेंटर टेबल रखा है लेकिन कमरे के बाकी हिस्से में किताबों का पहाड़ खड़ा है। चार-पाँच अलमारियों में जो किताबें ठूंसी हुई हैं सो तो है ही, लगभग और चार टेबलों पर बिखरी पड़ी हैं किताबें सिर्फ़ किताबें। अत: एक आदमी अगर इस कमरे में बैठकर पढ़ रहा हो तो बाहर के दरवाज़े के सामने खड़े होकर भी भीतर के व्यक्ति को देख पाना मुश्किल काम है। बाहर का आदमी कमरे को किताबों से भरा देखकर अनायास ही लौट जाएगा। विकास चौधरी ने अचानक गंभीर होकर शमीक और चुमकी की तरफ देखकर पूछा, अच्छा, तुम लोगों के आने के बाद  क्या मैंने एक बार भी पीतांबर को पुकारा है?   
     पुकारा है सर। एक बार नहीं, दो बार।
    मेरा हाल तुम लोग समझ ही रहे हो। विकास चौधरी हँसने लगे, दो-दो बार पुकारने पर भी बाबू साहब के दर्शन नहीं हुए। उल्टा मुझे ही कभी-कभी क्या कहता है पता है? कहता है, हे भगवान आप कमरे में ही थे, तब तो कब की एक कप चाय और भेज दी होती मैंने। मैं न कि उसे दिखाई ही नहीं देता।
     जी हाँ, ठीक इसी तरह जैसे आप मुझे नहीं देख पा रहे इस वक्त।  मैं तो आपकी पहली पुकार पर ही यहाँ आकर खड़ा हूँ, हिला तक नहीं। आपने इस भईया और दीदी से क्या-क्या कहा सब कह डालूं?  
     लगभग छह फुट ऊँचे टेबल और किताबों के पहाड़ की चोटी के बीच से चार फुट दस-ग्यारह इंच के एक व्यक्ति को बड़ी मुश्किल से देखा गया। अब पीतांबर ने आगे बढ़कर कहा, आप ही ने तो बार-बार कहा है जब लेक्चर दे रहा होऊं.....
     अरे घर पर लेक्चर नहीं होता। वह कॉलेज में होता है। जनसभा में भाषण और घर पर सिर्फ़ बात-चीत।  
     ग़लती हो गई। पीतांबर ने ज़रा सा हँसते हुए कहा, सॉरी। तो सर आपने ही तो बार-बार कहा है कि बात-चीत करते समय डिस्टर्ब नहीं करना। आपकी पुकार सुनते ही मैं यहाँ आकर खड़ा हूँ।
     खड़े रहने से तो चलेगा नहीं बेटा। इनके लिए चाय-नाश्ते का तो इंतज़ाम करना होगा।     विकास चौधरी के चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान खेल रही थी।
     यह इंतज़ाम आपने कभी किया है क्या, या आपको करना है? आप किताबों में मग्न हैं, किताबों में ही रहिए। चालीस वर्षीय पीतांबर अपनी पत्नी और दो नन्हें बेटों के साथ यहीं रहता है। अंदर-बाहर के सारे काम वही संभालता है। खाना बनाने का जिम्मा उसकी पत्नी जगद्धात्री का है। उसी जगद्धात्री ने ब्रेड, आमलेट, केला, सेव और मिठाई की दो प्लेटें सजाकर चुमकी और शमीक के सामने वाले सेंटर टेबल पर ला रखीं तो पीतांबर के होंठों पर मुस्कान दौड़ गई। उसने तिरछी निगाहों से विकास चौधरी को देखते हुए कहा, सर ! खड़े रहने पर भी काम हो जाता है!

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     सुबह का वक्त है। आकाश बादलों से छाया हुआ है। ऐसे में बारिश की संभावना नहीं होती, छाया रहती है। परिणामस्वरूप इस समय शीतल छाया है। प्रकृति के इस सुहाने मौसम में अलीपुर चिड़ियाखाने में चार व्यक्ति घूम रहे हैं।
     शमीक, चुमकी, नानू और सेवा। नानू और सेवा ज़रा गंभीर हैं। दरअसल शमीक की दोनों छोटी बहनें किसी दूसरी वजह से हताश हैं। आगामी कल शमीक नागपुर चला जाएगा। खुशी के दिन कितनी जल्दी गुज़र जाते हैं। दो हफ्ते कैसे गुज़र गए दोनों किशोरियों को पता ही नहीं चला। वे सिर्फ़ सोच रहीं हैं भईया अभी-अभी तो नागपुर से आया है। इसी बीच चौदह दिन...... समय क्या इतना तेज़ चलता है? तो दु:ख-तकलीफ़ों के दिनों में क्यों समय गुज़रने का नाम नहीं लेता? नानू, सेवा जानती हैं कि कल से ही उनका दिन गिनने का क्रम शुरू हो जाएगा, भईया कब घर आएगा?  
     शमीक ने अपनी दोनों बहनों के कंधों को झकझोरते हुए हँस कर कहा - किस बात का दु:ख? मन क्यों ख़राब करती हो? सभी अगर एक ही जगह पड़े रहें तो तब तो पृथ्वी बहुत छोटी होती।  लेकिन ऐसा नहीं है। इतनी बड़ी पृथ्वी पर मामूली दु:ख-तकलीफों को भूलना पड़ता है। उसी में खुशी मिलती है। क्यों री नानू, तुम बंगला की इतनी अच्छी छात्रा हो, चुमकी ने तो तुम्हें भावी अध्यपिका  बना ही डाला - तो तुम्हें बंगला में मैं क्या कहूँ ? और मेरी सेवू दीदी को देखो तो हमेशा ही गाल फूले रहते हैं। हँसती है तो गाल फूल जाते हैं, रोती है तो गाल फूल जाते हैं, मन अच्छा न हो तो भी और सदैव खुश रहने पर भी वही स्थिति। परिणामस्वरूप उसके भीतरी दु:ख का वह दूसरों को पता ही नहीं चलने देती। उसके भीतर के क्रंदन को सिर्फ मैं ही समझ पाता हूँ। जैसा कि अभी समझ पा रहा हूँ.....  बात ख़त्म कर छोटी बहन की तरफ देखते ही सेवा की रूलाई फूट पड़ी। शमीक ने रुलाई पर काबू पाते हुए हंसी की फुलझड़ी छोड़ी। सेवा को पुचकारते हुए बोल उठा - आइसक्रीम के लिए इतनी रुलाई अच्छी बात नहीं। मैंने तो कहा ही है कि खिलाउंगा। ओ, आइसक्रीम वाले! यहाँ तो आइसक्रीम वाले आते नहीं, उनके पास जाना पड़ता है। चलो, चलो जगह पर चलें।  
     नानू, सेवा, शमीक और चुमकी की परिचर्या पर अब काफ़ी सहज हो गई। दरअसल, आज चिड़ियाघर में हैं और कल सुबह भईया घर पर नहीं रहेगा - शून्यता का यह बोध ही उन्हें विचलित किए जा रहा। अब स्थिति काबू में हैं। वे इसे स्वभाविक मान खुद को उसी तरह तैयार कर रही हैं।   जो थोड़ा सा बोझ सा था वह भी चुमकी की सरस बातों से ख़त्म हो गया। 
     वे लोग अब जलहस्ती देख रहे थे। छाती समान ऊँची दीवार से सटकर चार जलहस्ती खड़े थे।  एक अपने जलाश्य में उछल-कूद कर रहा था। अचानक उसने उनकी तरफ देखकर बड़ा सा मुंह फाड़ा।  मुंह का खुलना क्रमश: बढ़ता ही जा रहा था। उस वक्त उसका मुँह इतना कुत्सित लग रहा था कि सारे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई। फिर भी नानू और सेवा को हंसाने के लिए चुमकी मज़ाक के लहज़े में बोल उठी, तुम लोग ही बताओ, कौन ज़्यादा सुंदर है, मैं या ये जलहस्ती? शुरू में थोड़ी सी मुस्कान और फिर दोनों बहनों के मुंह से मानों हंसी का फव्वारा ही फूट पड़ा। दोनों एक से स्वर में बोल उठी, चुमकी दी तुम्हारा भी कोई जवाब नहीं।
     रुको-रुको, मुझे ज़रा ध्यान से सब कुछ देखने दो। अब तक चौथी बार कलकत्ते आई हूँ।  पहली बार चिड़ियाघर आई हूँ समझी? चमचमाते दाँतों पर मानों सुनहरी हंसी खिल रही हो। चुमकी बोली- तुम्हारे भईया मुझे पहली बार यहाँ लाए हैं। मैं भी नागपुर लौटकर शमीक को चिड़ियाघर दिखाऊँगी। मेरे उस छोटे से चिड़ियाघर में स्पिज कुत्ता, दो तोते और कई मुनिया पक्षी हैं। अरे हाँ, एक  काबुली बिल्ली भी है। यह सुनकर फिर से हंस पड़ी नानू और सेवा  
     और बिल्ली की बात आते ही शमीक के चेहरे पर हंसी छा गई। चुमकी की ऑंखों में ऑंखे डाल वह बोला, 'तो सुनो बिल्ली की बात। मेरी भतीजी है श्रीया। वह जब ढाई-तीन साल की रही होगी, बिल्ली को बहुत पसंद करती थी। बिल्ली दिखाकर ही उसे खाना खिलाया जाता। मैंने सोचा एक बिल्ली को देखकर ही वह इतना खुश होती है तो चिड़ियाघर देखकर तो वह खुशी से झूम उठेगी।  अत: उसे लेकर मैं एक दिन चिड़ियाघर चला आया। श्रीया को ज़रा भौंहे सिकोड़कर देखने की आदत है। मैं उसे उचक-उचक कर हाथी, शेर, बाघ, जिराफ दिखा रहा था, मगरमच्छ, हिरण, चिंपाजी, खरगोश दिखाया, भालू, कंगारू, ज़ेब्रा दिखाते-दिखाते चिड़ियाघर ख़त्म हो गया। श्रीया की भौंहे सीधी नहीं हुई। शुरू से अंत तक भौंहे सिकोड़े इतने जीव-जंतु देखकर भी वह गंभीर बनी रही। मैंने तो सोचा था कि इन जीव-जंतुओं को पहली बार देख वह खुशी से झूम उठेगी, ऐसे में यह क्या हुआ, समझ में नहीं आ रहा था। बहुत निराश होकर मैं लौट ही रहा था। चिड़ियाघर के मुख्य द्वार के बाँई तरफ एक रेस्तरां है। उस रेस्तरां के पास से एक बिल्ली के निकलते ही खुश हो गई श्रीया। उल्लास से चीख ही उठी। सिकुड़ी हुई भौंहें भी सीधी हो गईं। उसके पूरे चेहरे पर बिजली जैसी चमक थी। कोमल स्वर में वो देखो म्यांऊँ, वो देखो म्यांऊँ कहते-कहते अत्याधिक खुशी से उसका गला भर आया। श्रीया का चिड़ियाघर आना सार्थक हो गया। मैंने घर लौटकर सिर्फ़ कहा,इतनी सुबह-सुबह उठकर, चिड़ियाघर जाने की तकलीफ उठाने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। श्रीया सिर्फ बिल्ली देखकर ही उछली थी, बाकी सब कुछ देखकर सोचा ये भी क्या देखने की चीज़ें हैं? उसकी खुशी सिर्फ म्यांऊँ में ही है, जो घर के दरवाज़े के सामने खड़े होकर म्यांऊँ म्यांऊँ कर खेलेने के लिए बुलाती हैं। म्यांऊँ ज़िंदाबाद !'
                                                                                       ......जारी।

 बांग्ला से अनुवाद  नीलम अंशु


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।


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