शनिवार, सितंबर 18, 2010
आधी रोटी पूरा चाँद
दोस्तो, इमरोज़ साहब का एक प्यारा सा संस्मरण आपके साथ शेयर करना
चाहती हूँ।
मैं अभी चौथी कक्षा
में ही था कि माँ गुज़र गई। घर में चार चाचा थे, परंतु चाची एक भी नहीं थी। सब कुछ
होते हुए भी हर शै में एक कमी सी महसूस होने लगी। ऑंखें हमेशा बाहर और भीतर कुछ तलाशती
रहतीं। मुझ से छोटी मेरी आठ - नौ वर्षीया बहन को कच्ची उम्र में ही चौके-चूल्हे की
ज़िम्मेदारी उठानी पड़ गई। कच्ची पक्की रोटी बनती, एक-दो खाता और एक दो साथ बाँधकर
स्कूल ले जाता। रोटी, रोटी ज़रूर होती थी परंतु उसमें माँ के हाथों का रस न होता। माँ
के बिना हर रसीली चीज़ नीरस सी लगती मानो सभी ऋतुएं पतझड़ हो गई हों। मैं हर वक्त उठते-बैठते,
सोते-जागते कुछ तलाशता सा रहता। कहीं भी कोई ममता से परिपूर्ण चेहरा नज़र आता तो मेरा
खुद-ब-खुद उसे माँ कहने को जी चाहता। परंतु, माँ के बगैर किसी को माँ कैसे कहा जा सकता
है। फिर भी जहां कहीं भी किसी औरत में ममता
नज़र आई या महसूस हुई तो दिल ज़रूर चाहा कि उसे माँ कहूँ। ऐसा कई बार हुआ है, गाड़ी
में सफ़र करते हुए, बाज़ार में सामान खरीदते हुए, किसी के घर, अपनों के घर, दावत पर
या किसी त्योहार पर बातचीत करते हुए ......।
इस तलाश से मैं प्राईमरी स्कूल में भी बैठा और हाई स्कूल के डेस्क पर भी और
आर्ट स्कूल के ड्रॉइंग टेबल पर भी। मेरे गाँव का एक लड़का जो मेरा सहपाठी था मेरे
साथ ही पड़ोस के गांव में मेरे साथ ही पढ़ने जाया करता था। हम आधी छुट्टी के समय
मिलकर रोटी खाया करते थे। उसकी माँ क्या परांठे बनाया करती थी - सात पर्दों वाले
परांठे। मेरा वह सहपाठी मुझे रोज़ आधा परांठा दे दिया करता था और वह परांठा खाते
वक्त मुझे लगता था कि कहीं मेरी मां है। अमृता से मिला, उसकी किताब ‘आख़िरी ख़त’ का कवर डिज़ाइन बनाने के सिलसिले
में। क्या पता था कि ये आख़िरी ख़त हमारी दोस्ती की नींव बनेगा। पता नहीं अमृता
में मैंने क्या देखा जो देखे हुए इतने
चेहरों में नहीं देखा था। हम अक्सर मिलने लगे और धीरे-धीरे वाकफ़ियत बढ़ने
लगी - और फिर हम दोनों की दोस्ती धीरे-धीरे घर बनती गई, हम दोनों का एक घर। अब सुबहें भी अपनी हो गईं और शामें भी। दिन भी
अपने हो गए और रातें भी। वह पतझड़ का मौसम
बहार बनने लगा। दोस्ती के पेड़ पर पहले
मुकुल आया और फिर फूल भी खिलने लगे। मैं फूलों को, घर को जीने में मस्त हो गया-मानो
मुझे याद ही न रहा कि मेरी कोई तलाश भी है कभी की - अमृता के अस्तित्व में मानो
सभी रिश्तों के दरिया आकर एक हो गए हों......।
उन दिनों मैं साउथ पटेल नगर और अमृता
वेस्ट पटेल नगर में रहती थी। उन दिनों मेरे पास एक स्कूटर था और मैं ‘शमां’
में काम करता था। सुबह अमृता के दोनों बच्चों को स्कूटर पर बिठाकर मॉडर्न स्कूल
छोड़कर ‘शमां’ के दफ्तर चला जाता था। एक हफ्ते, मेरे दो चालान
हो गए, स्कूटर के पीछे दो बच्चे बिठाने का इल्ज़ाम। कचहरी जाकर चालान भुगते और अमृता
के साथ बैठकर सोचा कि कार ले ली जाए। पांच-पांच हज़ार बड़ी मुश्किल से जोड़ पाए, पर
जोड़ लिए। दस हज़ार की फिएट कार ले ली। जब दोनों नामों की रजिस्ट्री करवाने गया तो
आफ़िसर ने पूछा, ‘अमृता के साथ आपका क्या रिश्ता है ?’ ‘दोस्त है’
मैंने कहा। परंतु, दोस्ती उन्हें कोई रिश्ता नहीं लग रहा था। खिड़की के बाहर काफ़ी देर खड़ा रखने के बाद अंतत:
रजिस्ट्री कर ही दी पर बड़ी बेदिली से।
अजीब बात है - हमारे समाज को और हमारे
कानूनों को स्त्री-पुरुष में दोस्ती का रिश्ता ही नहीं लगता। हलांकि इस जैसा कोई
ख़रा रिश्ता ही नहीं। एक बार अमृता ने साहित्य अकादमी के एक अधिकारी को देने के
लिए एक ख़त मुझे दिया। मैंने उस अधिकारी को जब चिट्ठी दी तो उसने मुझे बैठने के
लिए कहा और पूछा, ‘अमृता के साथ आपका क्या रिश्ता है?’ मैंने कहा, ‘दोस्त हूं।’ उसने फिर पूछा। मैंने कुर्सी से उठते हुए उससे
कहा, ‘जो रिश्ता है वह आपको समझ नहीं
आएगा।’
एक बार मैंने इंश्योरेंस करवाई और फार्म में वारिस के कॉलम में मैंने अमृता का
नाम लिख दिया। अधिकारी ने ऐतराज़ किया कि ‘घरवालों को छोड़कर दोस्त का नाम क्यों?’
‘ये मेरे पैसे हैं जिसे जी चाहे मैं दूं। आप कैसे ऐतराज़ कर सकते हैं?’ मेरे ऐसा
कहने पर उस अधिकारी ने इंश्योरेंस कर दिया।
परंतु ये बुलफाईट हर जगह हुई, मैदान चाहे समाज का हो या कानून का।
पहली बार मैं और अमृता दिल्ली से बाहर जा रहे थे, किसी भी पहाड़ पर या जहां भी
जी चाहे। पठानकोट में गाड़ी से उतर कर देखा कि एक गाड़ी डलहौज़ी की तरफ जा रही है
और दूसरी अंदरेटे की तरफ, सोभा सिंह जी की तरफ। सोभा सिंह अमृता के पिता के दोस्त
थे और अमृता उन्हें चाचा जी कहा करती थी। हम चाचा जी की तरफ जा रही गाड़ी में बैठ
गए। पालमपुर स्टेशन पर उतर कर पैदल चल पड़े। अमृता पहले भी अंदरेटे आ चुकी थी। उसे
रास्ता मालूम था। हम धीरे-धीरे पहाड़ों की वादी में चलते-चलते अंदरेटे पहुंच गए।
चाचा जी अमृता को देखकर बहुत खुश हुए, हमें बड़े प्यार और तपाक से बैठाया अपनी
गैलरी में। हम तस्वीरें देख ही रहे थे कि टेबल पर चाय आ गई। हम टेबल के गिर्द बैठ
गए, धीरे-धीरे बातें कर रहे थे कि ऐमरसन थोरे भी आ गए। थोड़ी देर बाद ख़लील
जिब्रान भी आ गए। काफ़ी देर यह महफ़िल चलती रही। खाना खाने के लिए चाची जी की
आवाज़ पर ही यह महफ़िल उठी। रसोई में लकड़ी वाले चूल्हे के पास बैठकर खाना खाया।
खाते समय मैंने कई बार चाची जी की जगह रोटी बनाते हुए अमृता की कल्पना की। रात को
जब चौबारे के कमरे में हम मिले तो मैंने अमृता से कहा कि कल तुम रोटी बनाना, चाची
जी बुजुर्ग हैं। जितने दिन हम यहां हैं तुम ही रोटी बनाओ। सुबह चाची जी को मना लिया गया, परंतु वे बड़ी
मुश्किल से मानीं। और वह भी, एक वक्त की रोटी के लिए। हम वहां दस दिन रहे। रोज़ शाम को अमृता रोटी
बनाती। परंतु, उसने रोटी इस शर्त पर पकानी शुरु की कि आग मैं जलाउंगा और चूल्हे का
ख़्याल भी मैं ही रखूंगा। दिल्ली में अमृता रोटी नहीं बनाती थी, नौकर बनाता था।
मैं अमृता को रोटी बनाते पहली बार देख रहा था, रोटी पकाते हुए वह बड़ी सुंदर
गृहिणी लग रही थी। इन दस दिनों में पता नहीं क्या हुआ, अमृता को रोटी बनाना अच्छा
भी लगने लगा और ज़रूरी भी। दिल्ली लौटकर उसने रसोई संभाल ली, मैं सब्ज़ी लाने लगा
और कुछ दिनों बाद मालकिन को रसोई में देख नौकर इस्तीफ़ा देकर चला गया। अब हम दोनों
ही रसोई के मालिक हैं और हम ही हेल्पर। जैसे जीवन में एक दूसरे के पूरक।
ये तब की बात है जब मेरे पास वाहन नहीं था।
अमृता शाम के पंजाबी प्रोग्राम के लिए रोज़ बस से आती थी और जहां आकर वह
उतरती, मैं वहां पहले से ही खड़ा उसका इंतज़ार कर रहा होता। प्रोग्राम के बाद
रेडियो स्टेशन की तरफ से अमृता को गाड़ी मिल जाया करती थी। एक बार यूं हुआ कि
दफ्तर की गाड़ी किसी को छोड़ने गई हुई थी और लेट हो गई। मैंने अमृता से कहा, चलो आज पैदल घर चलते हैं।
और हम चल पड़े - पूर्णिमा की रात थी, हम
सड़क के किनारे-किनारे चल रहे थे अपने में मस्त। हमारे पास से साईकिल, स्कूटर,
कारें, बसें, ट्रक और लोग गुज़र रहे थे, परंतु
चलते-चलते हमें पता ही नहीं चला कि सड़क पर हमारे सिवा कोई और भी चल रहा है
या चल रहे हैं। सड़क पर आवागमन का,
ट्रकों, बसों, कारों और स्कूटरों का शोर भी था - परंतु शायद हमारे लिए नहीं था, हम
कभी-कभी एक-दूसरे को देखते या एक साथ पूर्ण चंद्रमा को देखते। चारों तरफ चाँदनी से
सराबोर रात बेखुद सी हमारे साथ-साथ चलती प्रतीत हो रही थी। हमें पता ही नहीं चला
कि हम कब रेडियो स्टेशन से घर पहुंच गए थे - वेस्ट पटेल नगर। काफ़ी रात हो गई थी, सब खाना खा चुके थे, अमृता
का खाना रखा हुआ था। अमृता ने मुझे भी खाने के लिए बिठा लिया। नौकर खाना ले आया। अमृता ने एक थाली और मंगवाई।
अमृता के लिए सिर्फ़ दो रोटियां रखी हुई थीं। अमृता ने एक रोटी खुद ले ली और एक
मेरी थाली में रख दी। खाते-खाते अमृता ने धीरे से आधी रोटी मेरी थाली में और रख
दी। ये आधी रोटी मुझे आज भी याद है, वो रोटी ही आधी थी परंतु उस रात चांद पूरा था।
फ़िल्म निर्देशक गुरुदत्त ने ‘शमां’ पत्रिका में मेरा काम देखकर मुझे अपनी
फ़िल्म ‘प्यासा’ का काम दिया। मैंने वह काम इतना अच्छा किया कि गुरुदत्त ने मुझे
अपने पास बंबई में अपनी फ़िल्मों का काम करने का प्रस्ताव दिया। मैं कब से बंबई
जाना भी चाहता था। फ़िल्में मुझे बहुत खींचती थीं। बातचीत हुई, सब कुछ तय हो गया।
सिर्फ़ तनख़्वाह पर आकर बात रुक गई। कई महीने गुज़र गए, मैं भी धीरे-धीरे उस बात
को भूल-भाल गया कि एक दिन अचानक गुरुदत्त का ख़त आ गया - मेरी मर्ज़ी की तनख़्वाह
का। मैं बड़ा खुश हुआ। सीधे अमृता के पास गया। मुझे इतना खुश देखकर वह भी बहुत खुश
हुई, परंतु ख़त पढ़कर उदास हो गई। अपनी उदासी बताने के लिए उसने मुझे ये कहानी
सुनाई, यह सोचकर कि मुझे कौन सा समझ आएगी। कहानी में दो दोस्त थे। एक लंबे कद का
गोरा तीखे नैन-नक्श वाला और दूसरा नाटा सांवले रंग का मोटे नक्श वाला। परंतु,
अच्छे दिल वाला था। एक हसीना उस खूबसूरत व्यक्ति पर मस्त हो गई। रोज़ शाम को अपनी
बालकनी में खड़ी होकर इंतज़ार करती। खूबसूरत व्यक्ति अपने दोस्त को साथ ही रखता
था। हसीना की बातों का जवाब उसका दोस्त दिया करता था, परंतु सामने आकर खूबसूरत
व्यक्ति ही बोला करता था। दोस्त हमेशा बगीचे की झाड़ी के पीछे खड़ा रहता था। मुलाकातों का ये सिलसिला अभी चल ही रहा था कि
देश में जंग छिड़ गई। दोनों को लड़ाई के मोर्चे पर भेज दिया गया। मोर्चे से
खूबसूरत व्यक्ति ने हसीना को बहुत ख़त लिखे, जो उसके दोस्त ने बोले थे। जंग में
खूबसूरत व्यक्ति की मौत हो गई और उसका दोस्त भी ज़ख्मी हो कर अपने शहर के अस्पताल
में आ गया। ख़तों से हसीना को सब पता लगता
रहता था। वह खूबसूरत व्यक्ति के ज़ख्मी दोस्त से मिलने अस्पताल गई। बड़ी देर तक
खूबसूरत दोस्त की बातें करती रही। ज़ख्मी दोस्त के साथ उसके खूबसूरत ख़तों की
बातें भी कीं और वे ख़त दोस्त को पढ़ने के लिए दिए ताकि वह पढ़कर देखे कि ख़त
कितने खूबसूरत हैं। दोस्त ख़तों को पढ़ने लगा। पढ़ते- पढ़ते अंधेरा हो गया, परंतु
वह पढ़ता जा रहा था। अंधेरे में भी ख़त पढ़ते रहने के कारण हसीना जान गई कि ये ख़त
इसी के लिखे हुए हैं। वह और भी उदास हो गई तथा उसने सिर्फ़ यही वाक्य कहा, 'आई
लव्ड वन मैन बट लास्ट हिम टवाइस् ( I loved one man but lost him twice ) यह कहानी
सुनाकर अमृता भीतर अपने कमरे में चली गई।
मैं कुछ देर वहीं बैठा चुप-चाप अपने आप को सुनता रहा.......
तूने कुछ भी न कहा हो जैसे
मेरे ही दिल की सदा हो जैसे.....
मई का महीना था और साल 1958. चढ़ती
गर्मी परंतु पीले फूलों का मौसम। जगह-जगह सड़कों के किनारे, बागों में, बगीचों में
और कई घर-आंगनों में अमलतास के पीले फूलों से वृक्ष लदे हुए, फ़र्श भी भरे हुए और
हवा भी। ये तीन दिन पता नहीं अपने साथ क्या लेकर आए थे, अमृता भी कुछ और ही लग रही
थी, हवा भी कुछ और, और पांवों तले धरती भी कुछ और ही। हर चीज़ हर जगह पहले की भांति ही थी, परंतु
उनके रंग मानो गहरे हो गए हों। हम चल रहे थे बिना किसी मंज़िल के रास्ते पर। उन तीन दिनों की वैसे कोई तलाश भी नहीं थी। बस
बहती नदी की भाँति अपने आप चलते चले जा रहे थे। कभी किसी बगीचे में पीले फूलों के
वृक्षों के नीचे बिछे फूलों पर चुपचाप पड़े, कभी आसमान की ओर देखते, खुली आँखों से
कभी बंद आँखों से एक दूसरे को। कभी किसी ऐतिहासिक इमारत की सीढ़ियां चढ़ते, कभी
उतरते। एक इमारत की छत से दूर जमुना नदी दिख रही थी और नीचे इमारत का खूबसूरत
बगीचा। मैं बहती नदी के साथ मस्त उसे देख रहा था कि अमृता ने पास आकर मुझे पूछा,
तुम यहां पहले भी कभी आए हो किसी के साथ?
‘’मुझे लगता है, मैं कभी भी किसी के साथ कहीं नहीं गया...’ मैंने कहा था। जहां जी चाहता सड़क के किनारे,
चाय के ढाबों पर बैठ कर चाय पी लेते। हर जगह सुंदर लग रही थी। और सुंदर जगहों पर
वह नहीं होता जो अपनी नज़र में होता है। तीन दिनों बाद मैं बंबई गया भी, गुरुदत्त
से मिला भी, परंतु उनकी इजाज़त लेकर बिना कोई कारण बताए वापस लौट आया, जैसे स्वयं
के पास। मेरे वापस आने पर अमृता हैरानी से काफ़ी देर तक मुझे देखती रही, परंतु कहा
कुछ नहीं।
मेरी तबीयत में शुरु से ही फ़कीरी है। छुटपन से ही, जैन फ़कीरों को पढ़ने से
बहुत पहले (कहा जाता है कि जैन फ़कीर अपनी रोटी खुद कमाते हैं) अपनी रोटी खुद
कमाने के वक्त का इंतज़ार करता रहता था। आर्ट स्कूल के दूसरे वर्ष में था जब अपने
घर से पैसे मंगवाने छोड़ दिए। ये 1944 लाहौर की बात है। लगभग बीस रुपयों से रोटी-पानी चल जाता था। मैं
छोटे-छोटे काम करके अपनी रोटी और तूलिकाओं का खुद ज़िम्मेदार बन जाता था।
मैं अब तक अपनी ही कमाई खर्च करता हूँ - इसी में मुझे सुख मिलता है। दूसरे की
कमाई में नहीं, माता-पिता की जायदाद में भी नहीं। अमृता के स्वभाव और मेरे स्वभाव
की यह बात बहुत मिलती है। सिर्फ़ रसोई और घर मिलकर चलाते हैं, अन्य ज़रूरतें अपनी
मर्ज़ी से जैसा जी चाहे अपनी कमाई से पूरी करते हैं। हमारे स्वभाव में कई बातों
में बड़ी समानता है पर कई बातों में बड़ी असमानता है।
हम शुरु से ही अपने-अपने कमरों में रहते हैं। अमृता के सोने का वक्त मेरे काम
करने का वक्त होता है और अमृता के जगने का वक्त मेरे सोने का। जैसे मुझे बिस्तर की
चादरें एक ही रंग की पसंद हैं, काले प्रिंटस् की और अमृता को हल्के मध्यम रंगों
की। उसे छोटे-छोटे बुत इकट्ठे करने का बहुत शौक है, कांच के बने कृष्ण, कई तरह के
पत्थरों से बने गणेष, कई धातुओं से निर्मित बुद्ध। परंतु वह किसी को पूजती नहीं,
हां प्यार करती है,बड़े प्यार से।
मैं हर वक्त जो सोच में है उसे कर के, बना कर देखता रहता हूं या देखना चाहता
हूं। मेरे पास बहुत सी घड़ियां हैं जिनके
डायल मैंने कई तरह के बनाए हैं। किसे में कोई अंक नहीं। किसी में अंक एक कोने में बैठे वक्त देख रहे हैं।
किसी में शायरा की एक नज़म है उसकी तस्वीर सहित। और कईयों में अपनी पसंद की कोई
पंक्ति है......कोई शेर।
एक और भी शौक है मुझे, जो गीत ग़ज़ल मुझे पसंद आ जाए मैं उसे कैसेट की दोनों
तरफ रिकार्ड कर लेता हूं और फिर सारा दिन सुनता रहता हूं..... एक बार मैं गालिब की
एक ग़ज़ल इसी तरह सुन रहा था अपने कमरे में, अमृता दो-तीन बार कमरे में आई तो वही
ग़ज़ल सुन कर पूछने लगी, आज ग़ालिब का कोई ख़ास दिन है? मैंने हंसते-हंसते कहा, लाहौर वाले आज ग़ालिब
का दिन मना रहे हैं.... मैंने तो मज़ाक में ये बात कही थी - काश ! किसी कलाकार को
यूं याद किया जाए और ऐसे मनाया जाए...........कई लेखकों के बारे सुनते हैं कि वे
नियम से सुबह नहा-धो कर लिखने बैठ जाते हैं। अमृता का कोई वक्त नहीं लिखने का। वह
अक्सर आधी रात के बाद लिखती है। कई बार तो वह लिखती नहीं सिर्फ़ उतरी हुई नज़्म को
काग़ज़ पर उतारती है। कभी-कभी नज़्म दिन
को भी आ जाती है। और कई बार नज़्म लिखते वक्त बच्चे आ जाते हैं खाना खाने, तो वह
सहजता से काग़ज़ कलम रखकर, मैं अभी आई, नज़्म को होल्ड ऑन कहकर बच्चों के लिए रोटी
बनाती है, पास बैठकर खिलाकर वापस नम के पास आकर उसे लिख लेती है। कई बार पेंटिग
करते वक्त भी ऐसा ही महसूस होता है कि रंग हमारे साथ खेल रहे हों - ज़्यादातर तो
हम ही रंगों से खेला करते हैं।
हम दोनों न तो दावतों पर जाना पसंद करते हैं, न दावतें देना। यूं हम चाय पी
रहे हों, दोस्त घर आ जाएं तो हमारे साथ जी भरकर चाय पीएं। इसी तरह खाना खाते वक्त
कोई आ जाए, तो जो कुछ बना है वह भी खा ले हमारे साथ। विशेष रूप से कुछ नहीं होता।
विशेष यूं भी हमारी ज़िंदगी में कम ही दिखता है। हम दोनों को ही एकांत बहुत पसंद
है। हम दिन भर घर पर ही रहते हैं, पर ज़्यादातर अपने-अपने कमरों में। हमारे कमरों
के दरवाज़े खुले ही रहते हैं रात-दिन, गर्मियों-सर्दियों में। परंतु खुले दरवाजों
वाले कमरों में एक-दूसरे के अस्तित्व की महक तो आती है, परंतु कोई दखल नहीं। अमृता
जब लिखती है तो मैं उसके एकांत का, घर का सब ख़्याल रखता हूं। बीच-बीच में गर्म
चाय की प्याली आहिस्ता से उसके पास रख आता हूं।
अमृता को मैं कई नामों से पुकारता हूं। उनमें से एक नाम ‘बरकते’ भी है। उस के
हाथ मैं बरकत है, उसकी कलम में बरकत है और सब से ज़्यादा जो मैं जानता हूँ उस के
अस्तित्व में भी एक बरकत है...... अमृता
के मेहनती हाथों की रेखाएं, दिल की रेखाएं, श्रम की, दुख-सुख की, जिज्ञासा की,
पैसे की, सब रेखाएं मानो बरकत की गंगोत्री में से निकलती हैं और उम्र के क्षितिज
तक नज़र आती हैं। अमृता हीर भी है और फ़कीर भी।
उसका दीन तख़्त हज़ारा है. और प्यार उसका धर्म. जाति की वह फ़कीर है और
स्वभाव की अमीर। वह जो एक हाथ से कमाती है उसे दो हाथों से बांट देती है। वह बहुत
उन्मुक्त स्वभाव की, इन्सानियत को प्यार करने वाली, सारी क़ायनात को प्यार करने
वाली, वह किसी वाद, किसी मज़हब से कंडीशनड् नहीं।
वह कहती है, कंडीशनिंग से विकास रुकता है, घर में भी और मुल्क़ में भी। सही मायनों में विकास तब होगा जब व्यक्ति खुद
अपना जिम्मेदार बनेगा। न फ्रॉयड की भाँति कोई कहेगा कि मां-बाप जिम्मेदार हैं और न
मार्कस् की भाँति कहेगा कि समाज जिम्मेदार है। हैरानी की बात है कि फ्रॉयड और
मार्कस् दोनों व्यक्ति को जिम्मेदार नहीं मानते। और उधर बौद्ध के अतिरिक्त किसी
मज़हब ने नहीं कहा, नहीं माना कि आदमी अपने अच्छे-बुरे का खुद ही जिम्मेदार
है। जिसे भी विकास करना है उसे अपनी
जिम्मेदारी खुद लेनी होगी। बेशक वह ऊंची
जाति का हो या नीची जाति का।
जाति-पाति से मुक्त अमृता ने, जब वह राज्य सभा की सदस्य थी, संसद में बड़े
गुस्से से कहा था कि आप इन लोगों के लिए आरक्षण रखकर, उनको शेडयूल कास्ट कह कर
उनके माथे पर क्यों हमेशा के लिए लिख रहे हैं - ये हरिजन और शेडयूल कास्ट। सिर्फ़
उन्हें उपयुक्त अवसर की तलाश है - आरक्षण की नहीं। उन्हें अवसर दें पढ़ने का,
काबिल बनने का और उन्हें मुख्य धारा में लाईए, फिर वे अपनी योग्यता से सदस्य बनें,
सीटें लें....आरक्षित सीटें किसी के लिए नहीं चाहिए। सब सीटें योग्यता के लिए
हों...सिर्फ़ योग्यता के लिए......अमृता शुरु से ही किसी तरह की कंडीशनिंग नहीं
मानती थी, न घर की न समाज की। वह लाहौर रेडियो स्टेशन पर कई बार प्रोग्राम करने
जाती थी, एक बार उसके घर के बुजुर्ग ने उसे बुला कर पूछा,
‘तुझे रेडियो से कितने पैसे
मिलते हैं?’
‘दस रुपए’ अमृता ने जवाब दिया।
‘मुझसे बीस रुपए ले लिया करो परंतु रेडियो पर मत जाया करो’..... पर अमृता खुद कमाकर
खुद पर खर्च करने के बारे सोचती थी। उसने अपनी यह खुदमुख्तारी जारी रखी और लाहौर रेडियो
से प्रोग्राम करती रही.....पुरुष को औरत की खुदमुख्तारी ख़ास तौर से घर की औरत की,
समझ नहीं आती। वह औरत की कमाई तो सहजता से कबूल कर लेता है पर उसकी खुदमुख्तारी बिलकुल
नही। माँ-बाप और मज़हब दोनों अपनी तरह से बच्चों की, समाज की कंडीशनिंग करते हैं। और
दोनों कई तरह के डर पैदा करते हैं ताकि हुक्म में रहें - बच्चे भी और समाज भी। वे यह
कभी नहीं सोचते कि कंडीशनस से डरे हुए बच्चे, कंडीशनड और डरे हुए समाज से रिश्ता नहीं
बन सकता। रिश्ता सिर्फ़ सहजता में ही बनता है। जिससे भी आपको डर लगता हो, बेशक वह बाप
हो या भगवान, उसके साथ सहजता नहीं होती, भला प्यार कहां से हो सकता है? दिखाई दे रहे बाप का अदब और दिखाई दे रहे मज़हब
की मान्यता सिर्फ़ दिखाई देती है, होती नहीं और हो भी नहीं सकती..
मैं कहीं भी गया होऊं अमृता मेरा इंतज़ार करके ही खाना खाएगी। मिल कर खाना
खाने का अपना अलग ही स्वाद है, और वह भी अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ। और खाना
खाने लायक होते हुए भी खाने का स्वाद सिर्फ़ मेहनतकशों के हिस्से ही आता है, हर एक
के नहीं, मां-बाप की कंडिशनिंग और मज़हब की पाबंदियों में न कहीं औरत आज़ाद हुई है
न पुरुष। आज़ादी आज भी बहुत से मुल्कों के झंडों में ही झूल रही है, यदि कैदो,
कैदो न होते, अपने चाचा होते तो आज हीरें अपने रांझों के साथ-साथ उसके बच्चों को
भी चूरी खिला रही होतीं।
जब तक सूरज आसमान पर रहता है, अमृता भी अपने आप की ऊंचाई पर रहती है। निडर, खुदमुख्तार
और बेफिक्र। दिन के छोटे से छोटे और दुनिया के बड़े से बड़े धमाके से बिलकुल
बेपरवाह। दिन का ज़्यादातर हिस्सा वह अपने साथ रहना चाहती है, रहती है, लिखती है,
पढ़ती है या सोचती है। परंतु रात का अंधेरा उतरते ही वह मानो अपने आप में से उतर
जाती है - एक आम औरत की भाँति, कमज़ोर, डरपोक, निराश और मुहताज। हर तरफ से
फ़िक्रमंद। हल्की से हल्की आहट पर भी डर जाती है, सहम जाती है। सुबह उठते समय उसका
मुंह बुझा-बुझा, थका-थका होता है। जैसे वह सारी रात अंधेरे की एक लंबी गुफ़ा को
पैदल पार कर आई हो, और वह भी अकेले। परंतु दिन चढ़ते ही उसकी कायापलट हो जाती है।
ज्यों-ज्यों सूरज चढ़ता है, त्यों-त्यों उसका मुंह चमकदार होता जाता है धूप रंगा।
सुबह के उजाले में उसकी खुदमुख्तारी का यह हाल है कि सुबह की पहली घंटी बजाने वाला
उसके क्रोध का शिकार हो जाता है। उसके मन के एकांत में यह दुनिया की पहली आहट होती
है, पहली दखलअंदाज़ी। बेशक वह दखलअंदाज़ी उसके अपने आराम के लिए होती है - कमरों
और बर्तनों की सफ़ाई, परंतु इस सफ़ाई के लिए कम से कम एक घंटा चाहिए होता है, और
ये एक घंटा उसका बड़ा बेचैन घंटा होता है।
ऊपर से अगर धोबी भी आ जाए तो आई सभ्यता की शामत, जिसकी ख़ातिर कपड़े पहनने
पड़ते हैं और फिर धुलवाने पड़ते हैं। वह
बर्तनों की आवाज़ से भी बेचैन होकर कहती है - ‘हम सिर्फ़ फल नहीं खा सकते? न खाना खाएं और न बर्तन जूठे हों।’ उस वक्त उसे सर्विस देने वालों की सलाम एक लानत
लगती है। (आजकल जो जमादार काम करता है उसे बार-बार हाथ जोड़ने की आदत है। वह कई
बार उसे समझा चुकी है कि यूं हाथ न जोड़ा करे) शायद वह भी उसकी खुदमुख्तारी का
तकाज़ा है कि वह न किसी के आगे हाथ जोड़ सकती है, न किसी द्वारा जोड़े हाथ स्वीकार
कर सकती है।
सादगी का ये आलम है कि न नहाने की परवाह, न मेकअप की, न कपड़े बदलने की। और न
नए खरीदने की चाह। कोई एक कमीज़ उसे पसंद
आ गई, तो समझो उस की ख़ैर नही - वह बार-बार उसी को पहनती रहेगी, मरम्मत कर-कर के
पहनने की हद तक। कई बार वह किसी पार्टी में सिर्फ़ इसलिए नही जाती कि उठकर कपड़े
बदलने पड़ेंगे।
एक अजीब फक्कड़ तबीयत - रोटी चाहे ताज़ी हो या बासी, साथ में सिर्फ़ आम का
अचार, और एक प्याली चाय की। लगता है
फ़कीरी उसकी रगों में हैं परंतु कभी-कभी उसकी तबीयत की बादशाहत मचल उठती है। एक
दिन हम सड़क के किनारे एक ढाबे में बैठे चाय पी रहे थे, चाय पीते- पीते एक खूबसूरत
मकान पर उसकी नज़र पड़ी- तुरंत मुझे कहा, लगभग आदेश की मुद्रा में- जाकर इस मकान
की कीमत पता करके आओ। मैं ‘बहुत अच्छा मल्लिका मुअज्जमा अभी दरियाफ्त करके लाया’
कहकर मकान की कीमत पता करने चल दिया.... ऐसा उसने कई बार किया है, करती है, करती रहेगी।
जब तक वह है तब तक खूबसूरत मकान है। वह कभी सोने की एक अंगूठी तक भी नही पहनती,
(सोने की पतली-पतली बालियां भी कानों में पहने, तो मुश्किल से आधा घंट सहन कर सकती
है, उसे सचमुच सर दर्द होने लगता है) मैंने इस शाहनी-फ़कीरन का रहस्य समझ लिया है।
हीरे, मोती, नीलम, पुखराज उसका जुनून हैं। जब कभी भी कनाट प्लेस में हीरों की
दुकान सामने पड़ती है, उसकी ये बादशाही तबीयत उसे ज़बरदस्ती भीतर ले जाती है।
हीरे, मोती, नीलम, पुखराज और हर तरह के कीमती नगीनों को देखती है और देखती जाती
है। उस वक्त कोई उसका हीरों से भी जगमगाता चेहरा देखे। यूं उसने कभी खरीदा कुछ
नहीं। उसे पता है कि ये ज़ेवर, ये जवाहरात उसके लिए नहीं बने, न वह इन ज़ेवरों, इन
जवाहरातों के लिए बनी है। यदि कभी कोई ज़ेवर पहन भी ले तो शीशे में खुद को देखकर
गुस्सा हो जाती है- ‘ये तो मैं मैं ही नहीं रही’ और वह उसी वक्त सब कुछ उतार देती
है। अपनी शक्ल उसे खुद ही अपरिचित लगती है।
कभी घड़ी पहना करती थी, वक्त देखना होता था। अब मैं साथ होता हूं, वह घड़ी
भी नहीं पहनती, वक्त मुझसे ही पूछ लेती है।
तसव्वुर से मालामाल इस शायरा के पास यदि सचमुच पैसा होता, तो पता नहीं अब तक कितने
खूबसूरत मकान और कितने हीरे-जवाहरात उसकी मल्क़ीयत होते।
खूबसूरती देखकर वह यूं मचलती है जैसे भूख, गरीबी, बेबसी, अन्याय, ज़बर और
जहालत देखकर वह बेचैन हो उठती है, उदास हो जाती है। ये फ़कीरनी नाज़ुक मिजाज़ भी
है और पोजेसिव भी। इस के मकान में कोई, कहीं कील भी नहीं गाड़ सकता। यदि कहीं कोई
कील गाड़ रहा हो तो ये सहन नहीं कर सकती, ज़ख़्मी शेरनी की भाँति उसे खाने दौड़ती
है मानो वह कील उसके अपने ज़िस्म पर लग रहा हो। कील लगाने वाला भला मैं होऊं या
किराएदार। इस मालकिन से सबसे ज़्यादा तंग मैं हूँ क्योंकि मुझे अपने कमरे में
तजुर्बे करते रहने का क्रेज़ है, दीवार तोड़ने से लेकर खिड़की बदलने तक। और मुझे
अक्सर बड़ा सब्र और इंतज़ार करना पड़ता है, इस मालकिन के दिल्ली से कहीं बाहर जाने
का। इस मालकिन, इस शेरनी की ऐसथैटिक्स ही मेरा बचाव है। वापसआकर नया तज़ुर्बा देखकर,
चेंज देखकर, वह खुश होती है, तारीफ़ करती है, तोड़-फोड़ को भूल जाती है, बीत गई
बात की भांति, गुज़रे कल की भांति।
अमृता की आधी से ज़्यादा उम्र बिस्तर पर गुज़री है परंतु बिस्तर पर वह सोई कम
है, जगी ज़्यादा है। बेशक उसके उपन्यास और कहानियों के सभी पात्रों से पूछ लीजिए,
क्योंकि उन्हें भी उनके साथ जगना पड़ा। जब अमृता की कलम लिख नही रही होती तब उसके
दाएं हाथ की उंगली खुद-ब-खुद अक्सर लिखने लगती है - एक अक्षर, एक नाम। शायद किसी
का नाम-शायद अपना ही नाम। और उसकी उंगली ये अक्षर, ये नाम बार-बार लिखती चली जाती
है, हर चीज़ पर जो भी सामने हो, पहुंच के भीतर-पहुंच के बाहर। अपने घुटने से लेकर
मेरे कंधे तक, अपनी चार दीवारी से लेकर हर दीवार तक. यहां तक कि हवाएं, पानी, फूलों सुगंधों तक, वह
हर चीज़ पर लिख रही महसूस होती है। उसने
खुद बताया था कि छुटपन में उसे चाँद में दिखाई देने वाली काली परछाईयां अक्षरों
जैसी लगती थीं। शायद तब भी वह परछाईयों को
अपनी उंगली से अक्षर, एक नाम बना लेती थी - ज़रूर बना लेती होगी। पर पता नहीं यह एक अक्षर - ये एक नाम, अपने आप
में कैसी इबारत है या इबादत है, जो अब तक लिखते हुए भी मुकम्मल नहीं हुई। मैं
बरसों से अमृता को ये लिखते देख रहा हूं। अमृता पता नहीं कब से लिख रही है? ज़रूर तब से लिख रही है जब से उसका अस्तित्व है
वर्ना उसके हाथ की उंगलियां इतनी छोटी और इतनी घिसी हुई न होतीं।
उसकी तबीयत अपने आप में एक कंट्रास्ट है। एक तरफ वह इतनी किफ़ायत करेगी कि रात
की बासी रोटी भी ज़ाया न जाए, वह दूसरों को ताज़ी रोटी देकर खुद बासी रोटी खा
लेगी, परंतु दूसरी तरफ ये तबीयत कि उसके बेटे ने जब आर्किटेक्ट की डिग्री ले ली तो
इनामस्वरूप उसने यूरोप का टुअर मांगा। उसने उसी वक्त फोन करके एयर इंडिया वालों से
कहा कि यूरोप का एक वापसी टिकट बना कर भेज दे। बिना किसी संकोच वह अपनी इस तबीयत
से जीती जागती है - बिलकुल दिन और रात की भांति, एक दूसरे के विपरीत, परंतु सदा
साथ-साथ। अमृता का चेहरा बहुत से रंग बदलता है- आसमां की भांति बल्कि आसमां से भी
ज़्यादा और जल्दी। कभी दमकता-दमकता सा लगता है और कभी बुझा-बुझा सा। कभी नरम-नरम
पिघला-पिघला सा और कभी पत्थर की भांति सख़्त और बेरहम। कभी हरेक के साथ
हंसता-मुस्कराता और कभी सब के साथ ग़ैर और अजनबी। एक पल भरा-भरा छलकता जाम लगेगा
और दूसरे पल खाली-खाली, वीरान-वीरान। यहाँ
तक कि अभी उसका चेहरा बहार का भरपूर नज़ारा होता है, रंगों- सुगंधों का दुमेल और
अभी पतझड़ की भाँति बेरंग, बेमहक हो जाएगा। एक अजीब-ओ-गरीब मुँह हो जैसे एक सिक्के
के कई पहलू, जैसे एक चेहरे में कितने ही चेहरे अपने आठों पहरों में कितने ही दिन
और कितनी ही रातें लिए।
अमृता का चेहरा जितना हसीन है, खूबसूरत है, उतना ही मुश्किल, बल्कि मुश्किल
ज़्यादा है। उसके चेहरे के भाव इतनी जल्दी बदलते हैं कि इस चेहरे को किसी रूप में
रिकॉर्ड करना और वह भी मुकम्मल रिकॉर्ड करना बड़ा ही कठिन काम है। उस की तस्वीरें,
स्केच और फोटोज़ अक्सर बहुत ही हार्ड और बहुत ही गैर अमृता होते हैं। अमृता खुद भी
उन्हें देख कर दहल जाती है और उसके मुँह से निकल जाता है, ‘इट इज़ होरेबल - इट इज़
नॉट मी.....’
मैंने बहुत से चेहरे देखे हैं, चित्रित किए हैं। मुझे कभी किसी का चेहरा इतना दिलचस्प और इतना कठिन
कभी नहीं लगा। मुझे कभी किसी का चेहरा चित्रित करते समय खुद से संघर्ष नहीं करना
पड़ा। परंतु अमृता का चेहरा तौब-तौबा !
पता नही किस होनी ने इस चेहरे की कल्पना की और गढ़ा है। इसके नैन नक्श
जितने तराशे हुए हैं उतने ही कठिन भी हैं बल्कि चैलेजिंग भी। मैं बरसों से इस
चेहरे को हैरत से देखता आ रहा हूँ कभी दूर खड़े रहकर, कभी क़रीब से।
एक दिन हम पालम से आ रहे थे। रास्ते में एयर फोर्स की एक नई बिल्डिंग आई तो
मैंने अमृता से कहा, ‘तुम्हें याद है, शायरा, यहां एक खाली मैदान था, जहाँ तुमने
तब कार सीखनी शुरू की थी...’ (परंतु एक
साईकिल को टक्कर मारने के बाद उसने कार सीखनी छोड़ दी थी) कुछ देर अमृता सोचती रही
और जब याद आया तो उसने गुस्से से मेरी तरफ देखकर कहा, ‘तुमने मुझे यूँ ही कार
चलानी सीखने नहीं दी।’ मैंने कहा, ‘शायरा!
तुमने साहित्य में बैलगाड़ियों, साईकलों, सकूटरों और छकड़े-ट्रकों की भीड़ से अपनी
गाड़ी को सही सलामत रखा है - सही सलामत रखो। यही अपने आप में बहुत है। ये सड़कों
के साईकिल, बैलगाड़ियां, ट्रक तुम मेरे जिम्मे रहने दो.....’
अमृता को किसी पर ऐतबार नही, न किसी वाद पर, न किसी इन्सान पर। मैं जब भी किसी
आदमी के लफ्ज़ों पर ऐतबार करने लगता हूं, वह ख़तरे की लाल बत्ती की भाँति मेरी तरफ
देखती है। मैं हरी झंडी को हाथ से नही छोड़ता, एक आदमी पर एक बार ऐतबार ज़रूर करता
हूं।(वैसे अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि हर बार उसकी बात सच निकलती है और मेरा
ऐतबार तिड़कता है) परंतु मैं स्वभावत: और कुछ ज़िद से फिर ऐतबार कर लेता हूं। मैं
कहता हूं - ‘मैं एक आदमी को एक ऐतबार का मौका ज़रूर दूंगा।’ वह कहती है, ‘हिंदुस्तान की आबादी पचास करोड़
है, अत: तुम्हें पचास करोड़ बार ऐतबार करना पड़ेगा, लगे रहो दिन भर... ’
अमृता को सिर्फ़ खुद पर और अपने पात्रों पर ऐतबार है। कोई पात्र जब कहानी से
बाहर हो वह ऐतबार योग्य नही होता। (बर्तन मंजवाने के बाद वह कटोरियां और चम्मचें
गिनने लग जाती है) परंतु जब वह पात्र कहानी में आ जाए तो अपने पेशे के प्रति
ईमानदार बन जाता है।
‘बस तुम मेरे इकलौते दोस्त हो’ वह कहती है।
‘पर तुम्हें मुझ पर ऐतबार कैसे
आ गया ?’ मैं पूछता हूँ।
‘तुमने खुद ही तो कहा था कि तुम मेरे
डॉक्टर देव उपन्यास के डॉक्टर देव हो। वैसे
कहानी मैंने पहले लिखी, तुम्हें देखा बाद में...ऐतबार शिकन की भीड़ में से तुम्हें
छीन लिया, यह कम है ?’ ..... और वह फैज़ का
शेर पढ़ने लगती है :
‘किसी का दर्द हो करते हैं तेरे
नाम रकम
गिला है जो भी किसी को तेरे सबब
से है....’
और मैं दुनिया में जहां कहीं जो भी गलत होता है, उसका जवाबदेह बन जाता
हूं। वह बेशक अख़बार की यह ख़बर हो कि रात
को बस में महिला यात्री अकेली रह गई, कंडक्टर और ड्राईवर ने ज़बरदस्ती करनी चाही,
और उसने चलती बस से छलांग लगा दी, और भले ही चीन की कोई चालाकी हो, रूस की कोई
धोखाधड़ी हो, अमरीका की कोई तानाशाही हो और पाकिस्तान का कोई झूठ हो - उसे मुझ पर
गुस्सा आ जाता है....
एक फिलॉस्फर का कहना है, ‘इट इज़ चीटिंग टु बी कांइड यू मस्ट बी बोर्न कांइड
आर नेवर मैडल विद इट...... ’
वह बौर्न आईडिलिस्ट है। बिटर कर मुंह से कुछ भी कहे, परंतु उसकी रग-रग में
आईडिलिज्म है। कोई भी ऐतबार शिकन उसके भीतरी ऐतबार को नहीं तोड़ सका। वह बाहर से लाल
बत्ती की भाँति जल उठती है, पर भीतर से हरे रंग की भाँति हरी और शांत
रहती है। और जब वक्त आए वह फिर ज़िंदगी पर ऐतबार कर लेती है। बेशक बाद में उसे
अपने ऐतबार का मर्सिया लिखना पड़ता है (जैसे उसकी कहानियों मोनालिज़ा नंबर दो, दो
औरतां, नंबर पंज, कर्मा वाली, केले दा छिलका, चानण दा हौका ते टोस्ट, जनमजली, साल
मुबारक और अन्य नज़्में). परंतु दुनिया के साथ उसके अपनत्व का आलम ये है कि उसके किसी समकालीन ने या
किसी नए शायर ने कोई अच्छी नज़्म लिखी हो, वह उस नज़्म की पंक्तियां गुनगुनाती
रहती है, मिलने आए हर व्यक्ति को सुनाती है, यूं जैसे उसके किसी बहुत अज़ीज़ की
अदबी दुनिया में कोई उपलब्धि हो उस वक्त वह भूल जाती है कि उसके यही समकालीन उसके
लिए कितने संगदिल - तंगदिल हैं परंतु उनकी जो कृति उसे अच्छी लगती है तो उसके लिए धूप
चढ़ आती है - और उसकी तारीफ़ करते-करते वह खुद भी धूपरंगी हो जाती है।
पंजाबी से अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'
साभार - कथाक्रम, अक्तूबर-दिसंबर, 2010
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