रजाई
वीना वर्मा
वह मुँह सर लपेटे पड़ी थी। सुबह के ग्यारह बज गए थे। दिन पूरा चढ आया था, परंतु उसने मुँह से रजाई नहीं उतारी थी। उसकी पुत्रवधु कैथी कई बार आकर रजाई हटा कर देख गई थी कि कहीं बुढ़िया मर तो नहीं गई परंतु उसकी साँस चलती देख वह फिर उसके मुँह पर रजाई दे देती। सुबह लगभग नौ बजे वह उसे जगा कर चाय के लिए पूछ गई थी परंतु हर बार हरबंस कौर ने इन्कार में सर हिलाया और करवट बदल ली।
कैथी की नई-नई शादी हुई थी, उसके पुत्र सतवीर के साथ। घर की साफ-सफाई करते-करते एक दिन वह हरबंस कौर के कमरे में आ गई। हरबंस कौर गुरु द्वारे गई हुई थी। कैथी ने कमरा साफ किया और अपनी सास का पुराना बिस्तर हटाकर नया बिछा दिया। उसकी फटी-पुरानी, तार-तार हो चुकी रजाई को कूड़ा फेकंने वाले काले बैग में डाल कर रख दिया। हरबंस कौर वापिस आई तो अपने कमरे का नया रूप देखकर बिफर पड़ी।
‘मी नो रजाई?’ वह बहू की तरफ मुड़ी।
‘येस मॉम, यू डोंट नीड दैट रैग एनी मोर। दैट वॉज़ टू ओल्ड आई ब्रॉट दिस न्यु ब्लैंकेट फॉर यू।’ कैथी ने पलंग पर पड़ा गर्म कंबल हाथों में लेकर सास को दिखाया।
‘नो कंबल......मी रजाई,’ वह बच्चों की तरह बिलख उठी।
‘वॉट हैपेंड?.... वॉय आर यू क्राइंग...?’ कैथी घबरा गई।
‘नो-नो......मी रजाई,’ वह रोते हुए बाहर चली गई। कैथी घबराई सी उसके पीछे दौड़ी।
हरबंस कौर घर के सामने पड़े कूड़े वाले बैग से अपनी रजाई निकाल लाई। पलंग पर पड़ा कंबल उसने तह करके कारपेट पर रख दिया। कैथी ने हरबंस कौर की इस हरकत से खुद को अपमानित सा महसूस किया और गुस्से में उसने रजाई हरबंस के हाथ से खींची।
‘दिस इज़ वेरी डर्टी.....नॉट गुड फॉर योर हेल्थ....’ हरबंस कौर ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया।
‘वे पुत्तर! मेरी रजाई.....’ हरबंस कौर सतवीर को देख बिलखी। सतवीर से माँ की ऑंखों में ऑंसू नहीं देखे गए।
‘हाऊ यू डेयरड?’ उसने कैथी के सुनहरे बाल अपने हाथों में लेकर खींचे और पूरे ज़ोर से दो तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए।
‘वॉटस् रॉन्ग विद यू?’ कैथी हक्की-बक्की रह गई।
‘डोंट ट्रीट माई मदर लाइक ए शिट्ट। यू बिच !’ अपनी माँ को ज़मीन से उठाते हुए वह नफरत से कैथी को देख रहा था।
‘आई वॉज़ जस्ट क्लीनिंग हर रूम।’ कैथी की भूरी आँखों में आँसुओं के बादल उमड़ आए।
‘डोंट टच हर थिंग्स। लेट हर लिव ऐज़ शी लाइकस्’ ।
‘हाऊ शी कैन लिव इन सच ए डर्टी रूम? ऐंड हाऊ वी कैन लिव विद हर....?’ वह अभी बात समाप्त भी नहीं कर पाई थी कि सतवीर ने उसके बाल ज़ोर से पकड़ कर फिर से खींचे।
‘देन् गो टू हेल्। आई एम गोइंग टू लिव विद माई मदर इन दिस डर्टी प्लेस। यू गेट लौस्ट ।’ उसने फिर तमाचे के लिए हाथ उठाया पर हरबंस कौर ने अपने कमज़ोर हाथों से उसकी बाँह पकड़ ली।
‘न वे पुत्तर, अंग्रेजी में मत लड़ो। मेरी समझ में कुछ नहीं आता ।’ बहू को कुछ मत कह। वह सतवीर को कमरे से बाहर ले जाने लगी।
‘मैंने इसे कुछ नहीं कहा माँ। मैंने उसे सिर्फ इतना ही कहा है कि अगर इस घर में रहना है तो मेरी माँ की रेसपेक्ट कर ।’ उसने माँ को बताया।
‘मुझे नहीं ज़रूरत रसेक्ट की। बस बेटा, मेरे रूम को मत छेड़े......मेरी चीज़ों..... इसे समझा दे अंग्रेजी में कि मेरी कोई भी चीज़ बाहर न फेंके....और मैं कुछ नहीं माँगती तुम लोगों से।’ वह दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी।
‘आज के बाद ये तुम्हारे रूम में नॉक करके आएगी माँ....तुमसे इजाज़त
लेकर.... आई विल टीच हर हाऊ टू बिहेव।’ वह गुस्से से बोला।
‘नहीं, पुत्तर लड़ो मत। बहू को मत मारना। इस बेचारी का क्या कसूर है। मुझे ही बात समझ नहीं आती।’ उसने बेटे को समझाया।
कैथी चुपचाप अपने कमरे में चली गई। उस दिन से वह कभी बिना पूछे उसके कमरे में नहीं आई। पूछ कर आती, उसका कमरा साफ क़रती, कपड़े धो देती। उसे नहला-धुला देती, उसकी पसंद का खाना बना देती परंतु उसके कमरे की किसी भी चीज़ को वह बिना पूछे हाथ न लगाती।
काफी समझदार लड़की थी कैथी। सतवीर ने उससे प्रेम विवाह किया था। जिस फर्म में सतवीर इंजीनियर था, वह वहाँ क्लर्क का काम करती थी। कैथी और सतवीर की दोस्ती प्यार में बदली और दोनों ने शादी का फैसला कर लिया।
‘मैं पहले अपनी माँ से बात करूंगा।’ सतवीर ने उससे कहा था।
कैथी हँस पड़ी, 'शादी तुम्हें करनी है या तुम्हारी माँ को?’
‘शट-अप। कैथी मेरा ख़याल है कि तुम बहुत समझदार लड़की हो। इन छोटी-छोटी बातों के कारण अपने संबंधों को ख़राब नहीं करोगी। मैंने दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान से प्यार किया है और वह है मेरी माँ। अगर तुमने कहीं भी उस प्यार में बाधक बनने की कोशिश की तो हमारे रिश्ते का वह आख़िरी दिन होगा। और, यकीन करो, मैं मज़ाक नहीं कर रहा।’ उसने संज़ीदगी से कहा।
‘अगर तुम्हारी माँ ने मुझे नापसंद कर दिया तो ! ’ कैथी के गुलाबी होंठ काँपे।
‘यू डोंट वरी ! मेरी माँ, मेरी रग-रग से परिचित है। तुम्हें खाली हाथ नहीं लौटाएगी।’ सतवीर ने उसके गाल थपथपाए।
हरबंस कौर ने जब कैथी को देखा तो उसे कुलदीप सिंह की दूसरी पत्नी यानी अपनी सौतन याद आ गई। कैथी ही क्या, उसे तो हर अंग्रेज महिला अपनी सौतन जैसी लगती थी, जो उससे उस के पति को छीन ले गई थी। उसकी मिन्नतों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उसे और उसके बच्चों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था, उस गोरी मेम ने। अत: हरबंस कौर का दिल हर गोरी मेम से डरता था और सतवीर के साथ कैथी को देख वह दहल गई थी। परंतु, बेटे के चेहरे पर दमक रही खुशी को वह उड़नछू नहीं करना चाहती थी। अत: उसने खुद को समझाया।
‘लड़की तो मुझे पसंद है बेटा, बस इसे इतना कह दो कि भई, मुझे अंग्रेजी में गाली-गलौज़ न दे। जो बात करनी है, पंजाबी में ही करे।’ उसने शर्त रखी।
‘पर माँ, यह तो पंजाबी जानती ही नहीं।’ सतवीर मुस्कराया।
‘नहीं जानती तो सिखा दे। नहीं तो यह तुझसे अपनी बात कह दिया करे और तू ट्रांसफारम करके मुझे बता दिया करना जैसे तेरे बापू जी बताया करते थे, पर घर में कलह-क्लेश न हो।’ हरबंस कौर बात करते हुए कहीं खो सी गई।
कैथी की सतवीर से शादी हो गई। कैथी ने आकर घर का हुलिया ही बदल डाला। पुराने पेपर, कारपेट, सोफे, पलंग और यहाँ तक कि रसोई का सामान भी बदल दिया। अगर नहीं बदला तो हरबंस कौर का कमरा।
इस कमरे में हरबंस कौर की दुनिया बसी हुई थी। वह जब भी इस कमरे में आकर लेटती, उसकी जीवनगाथा उसके समक्ष फिल्म की तरह घूम जाती। बीस साल पहले वह इस घर में आई थी। बिन बुलाए। उस घर में ही क्यों, वह तो इस मुल्क में ही बिन बुलाए आई थी। दो नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ। सात साल का बेटा और पाँच साल के बेटी। उसका पति कुलदीप सिंह उससे करीब पाँच साल पहले यहाँ आया था। बेटी अभी गर्भ में ही थी। कुलदीप सिंह ने तो अपनी बेटी का मुँह भी नहीं देखा था।
जाते ही तुझे राहदारी भेजूंगा। तुम बच्चों को लेकर आ जाना। यह कहकर वह शिप में सवार हो लिया था। परंतु, जाने के बाद उसने न तो उन्हें राहदारी ही भेजी और न ही बुलाया। शुरू-शुरू में अपने माँ-बाप को ख़त लिखता रहा। फिर धीरे-धीरे यह सिलसिला भी थम गया।
जब तक हरबंस कौर के माता-पिता ज़िंदा रहे, तब तक वह चार महीने मायके तो छह महीने ससुराल में गुज़ारती रही। परंतु, माता-पिता की मृत्यु के बाद तो भाई-भाभियों ने घर के दरवाज़े बंद कर लिए। देवर-जेठ ताने देने लगे। हार कर उसके ससुर ने उसके पति के हिस्से की ज़मीन बेचकर, टिकट कटवा कर उसे इंग्लैंड भेज दिया और अपने किसी दोस्त को, जो कई सालों से इंग्लैंड में रह रहा था, ख़त लिखा कि वह हरबंस कौर और बच्चों को एयरपोर्ट से रिसीव कर कुलदीप सिंह के पास पहुंचा दे। जब बीवी-बच्चों को सामने देखेगा तो खुद ही अपनी जिम्मदारी संभालेगा। बूढ़े बाप ने सोचा था।
ससुर के दोस्त ने हरबंस कौर को एयरपोर्ट से रिसीव किया और कुलदीप के घर पहुंचा दिया। परंतु, वहां तो कुछ और ही किस्सा था। कुलदीप सिंह किसी मेम के साथ शादी रचाए बैठा था। हरबंस कौर को सामने देखकर तो उसके होश-हवास ही उड़ गए।
‘तू यहाँ क्या करने आई है?’ उसने घबरा कर कहा।
‘और मैं कहाँ जाऊँ ?’ उसने मासूमियत से कहा।
‘तू यहाँ नहीं रह सकती वापिस चली जा।’ कुलदीप सिंह ने हुक्म दिया।
‘वापिस किसके पास जाऊँ? माँ-बाप मेरे रहे नहीं। तुम्हारे भाई मुझे देखकर राजी नहीं। तो मैं बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँ? बापू जी ने कहा कि भई खुद ही संभालेगा अपने परिवार को।’ हरबंस कौर ने दो शब्दों में अपनी कथा सुनी डाली।
‘पर मेरा तो यहाँ और भी परिवार है। मैंने तो शादी कर ली थी विलायत आकर। इतने ठंडे मुल्क में अकेले आदमी का काम नहीं चलता। मेरी पत्नी गोरी है, दो बच्चे हैं। उसने ऐसे कहा जैसे कोई दर पर आए फक़ीर से कहे कि भई हम तो खा-पी चुके, तू रास्ता देख ।’
हरबंस कौर को समझ न आई कि क्या करे, उसे उम्मीद नहीं थी कि नौबत यहाँ तक पहुँच जाएगी।
‘तू वापिस चली जा, तेरे जाने का खर्चा मैं दे देता हूँ।’ उसे ख़ामोश देख कुलदीप सिंह ने कहा।
‘अब कहाँ लौटूं मैं। यहीं रह लेती हूँ। लोग दो-दो शादियां कर ही लेते हैं।’ उसने रोते हुए कहा।
कुलदीप सिंह ख़ामोश हो गया।
शाम को उसकी दूसरी पत्नी काम से लौट आई। कुलदीप सिंह ने उसे समझाने की कोशिश की कि यह उसकी पहली पत्नी है और बाप ने ज़बरदस्ती उसके पास भेज दिया है। वह जल्दी ही इन्हें वापिस हिंदुस्तान भेज देगा। पर गोरी मेम के तो मानो तन-बदन में आग लग गई हो। उसने कुलदीप सहित सबका सामान उठा कर बाहर फेंक दिया।
‘या तो ये रहेगी या मैं!’ उसने दो टूक फैसला सुनाया।
‘मैं तुम्हारे बर्तन साफ क़रती रहूंगी, खाना बना दिया करूंगी।’ हरबंस कौर ने गोरी के पैर पकड़े।
गोरी ने उसे अंग्रेजी में कई बातें कहीं जो उसके पल्ले न पड़ी।
‘इसे कह दो मैं नौकरानी बन कर रहूँगी, कभी अपना बराबरी का हक नहीं माँगूगी।’ हरबंस कौर ने अपने पति से विनती की।
‘यह तो तेरा नाम भी नहीं सुनना चाहती, तेरे साथ-साथ मुझे भी घर से निकालने पर तुली हुई है।’ उसने नफ़रत से कहा।
फिर बहुत देर तक कुलदीप मेम के साथ अंग्रेजी में तू-तू, मैं-मैं करता रहा और अंतत: यही फैसला हुआ कि कुलदीप दो-चार दिनों में ही उसे हिंदुस्तान भेज देगा।
उसी वक्त उसने हरबंस कौर और बच्चों को साथ लिया और अपने किसी दोस्त के खाली पड़े मकान में उन्हें छोड़ गया, यह कहकर कि कल आकर बात करेगा। हरबंस कौर ने भी पति पर ज़्यादा ज़ोर डालना उचित नहीं समझा। चलो अगर जवानी में ग़लती कर बैठा तो क्या हुआ। अगर वह उसे भी अलग मकान लेकर दे दे और कभी-कभी चक्कर लगा जाया करे तो उसके लिए यही काफ़ी है।
परंतु कुलदीप सिंह न तो दूसरे दिन सुबह आया और न ही तीसरे दिन। घर में न तो दीया, न बत्ती, न पानी, न आग। ठंड से बच्चों की तो कुल्फी ज़म गई। भूखे-प्यासे वे दो दिन माँ से चिपटे रहे। रात को ओढ़ने के लिए न कोई कपड़ा न लत्ता। ठंड से काँपते-काँपते, बच्चों को ऑंचल में ले उसने रात गुज़ार दी।
बाहर बर्फ ग़िरनी शुरू हो गई थी। हरबंस कौर कुलदीप सिंह का इंतज़ार करते-करते थक गई थी। उसे तो यह भी मालूम नहीं थी कि वह रह कहाँ रही है। उसका पति कहाँ है? तीसरी रात जब ठंड ने कहर ढाना शुरू किया तो वह उठी और बगल वाले पड़ोसी का दरवाज़ा जा खटखटाया।
किसी अधेड़ से पंजाबी सिक्ख ने दरवाज़ा खोला।
‘क्या बात है? कौन है भाई?’ सामने एक अजनबी औरत को देख वह हैरान हुआ।
‘जी मैं.... आपके साथ वाले मकान में दो दिन पहले आई हूँ। मेरा पति छोड़ गया था मुझे यहाँ। मेरे साथ ये छोटे-छोटे दो बच्चे हैं। ठंड के मारे सारी रात नहीं सोये। अगर आपके पास कोई फालतू रजाई पड़ी हो तो दो दिनों के लिए उधार दे दीजिए, वाहेगुरू आपका भला करेगा।’ वह हाथ जोड़ कर बोली।
‘साथ वाले घर में? वह हैरान हुआ। साथ वाले घर में तो दस साल हो गए कोई पंछी तक नहीं फड़का, तू कहाँ से आ गई?’
‘ पता नहीं जी इनका बाप छोड़ गया।’ उसने बेबसी से सर हिलाया।
‘और लौट कर नहीं आया!...हूँ...!!’ मकान मालिक ने कहा।
आसमान से बर्फ ग़िरकर बच्चों के सर पर पड़ रही थी और वे अपनी माँ की टाँगों से लिपटे नाक सुड़क रहे थे।
‘आ जाओ, आ जाओ भीतर।’ रास्ता देते हुए उसने कहा।
हरबंस कौर झिझकती हुई भीतर आ गई। पड़ोसी का घर भट्ठी की तरह गर्म था। भीतर आते ही उनकी कंपकंपी दूर हो गई।
‘आ जाओ, बैठ जाओ।’ वह उन्हें सिटिंग रूम में ले आया जहां गैस का हीटर चूल्हे की तरह जल रहा था।
दोनों बच्चे दौड़कर हीटर के गिर्द बैठकर हाथ सेकने लगे। हरबंस कौर दरवाज़े में ही एक तरफ खड़ी रही।
‘आ जाओ भई, बैठ जाओ तुम भी।’ पड़ोसी ने पास पड़े पुराने सोफे की तरफ इशारा किया।
वह सिकुड़ती हुई सी कुर्सी पर जा बैठी।
पड़ोसी अपनी रसोई में गया और बिस्कुटों के पैकेट लाकर बच्चों के हाथ में थमा दिए। बच्चों ने एक बार माँ की तरफ देखा और दूसरे ही पल बिस्कुटों पर टूट पड़े। पता नहीं कितने दिनों के भूखे थे वे। वह फिर रसोई में गया और केतली भरकर चाय बना लाया। हरबंस कौर इन्कार न कर सकी। उसने खुद उठकर बच्चों को प्यालों में चाय डाल कर दी।
‘तू भी पी ले।’ उसने कहा।
‘नहीं, मेरी तो कोई बात नहीं, बच्चे भूखे हैं।’ उसने कहा। पर उसके पेट में भूख के कारण ऐंठन हो रही थी, जो सामने चाय देख कर और तेज़ हो गई थी।
‘कोई बात नहीं तू भी ले ले, और बना लेंगे।’ पड़ोसी ने उसे प्याले में चाय डाल कर दी। चाय का पहला घूंट अंदर जाते ही हरबंस कौर को लगा मानो उसमें फिर से प्राणों का संचार हो गया हो. उसने बची हुई चाय भी पी ली।
‘मैं देखता हूँ भीतर अगर कुछ मिल जाए. रजाई तो नहीं होगी कोई फालतू। हाँ, एक पुराना कंबल पड़ा है मेरी नौकरी के वक्त का, अगर तुझे पसंद आए तो।’ वह भीतर गया और हाथ में एक कंबल लेकर लौट आया।
‘हीटर चलता है तुम्हारे घर में?’ उसने पूछा।
‘हीटर क्या?’ वह समझ नहीं पाई।
‘ये ऐसी अंगीठी।’ पड़ोसी ने गैस फायर की तरफ इशारा किया।
‘नहीं, वहाँ न तो पानी है रसोई में और न ही बिजली।’ कंबल पकड़ते हुए उसने कहा।
‘तो क्या तू बच्चों को मारना चाहती है?’ पड़ोसी ने हैरानी भरे गुस्से से कहा।
‘और फिर क्या करूं मैं अब?’ फिर बच्चों की तरफ जो थोड़ी सी गर्माहट पाकर नीचे ही सो गए थे, देख कर कहा - ‘लो, ये तो सो भी गए।’
‘अच्छा? सो भी गए? भूखे थे मासूम। गर्माहट मिलते ही सो गए।’ उसने हरबंस के हाथों से कंबल लेकर बच्चों को ओढ़ा दिया।
‘मैं अब इन्हें उठा कर ले जाऊँ ?’ हरबंस कौर ने खुद से ही कहा।
‘पडे रहने दो, मुश्किल से तो सोये हैं बेचारे। वहाँ ठंड में जाकर बीमार हो जाएंगे।’ पड़ोसी ने सहानूभूति से बच्चों के सर पर हाथ फेरा।
और फिर हरबंस कौर भी बच्चों के पास ही बैठ गई। पड़ोसी जाकर दूसरे कमरे से अपनी रजाई उठा लाया और ज़मीन पर रख दी।
‘ये लो तुम भी ओढ़ लो।’ उसने हरबंस कौर से कहा।
‘पर रजाई तो एक ही है आपके पास।’ उठते हुए उसने कहा।
‘कोई बात नहीं, मैं भी यहीं रात काट लूंगा। मिल कर समय गुज़ार लेंगे।’ कहकर उसने तकिया नीचे फेंका।
हरबंस कौर रजाई के आधे हिस्से में अपने पाँव ढके बैठी थी और आधे हिस्से में पड़ोसी के पाँव थे।
‘मेरा नाम फौजी करनैल सिंह है। अकेला ही रहता हूँ यहाँ। फरीदकोट का रहने वाला हूँ।’ पड़ोसी ने अपना परिचय दिया।
हरबंस कौर ने अपनी कहानी रो-रो कर फौजी करनैल सिंह को सुनाई।
‘अगर तू मुझे न भी बताती, तो भी मैं समझ गया था तुम्हारे दर्द को।’ फौजी ने ठंडी आह भरी। ‘जो आदमी तीस बत्तीस साल की युवा पत्नी और बच्चों को रात के अंधेरे में अकेल छोड़ कर भाग गया, उसके लौट आने की उम्मीद छोड़ दे। खुद को संभाल।’
हरबंस कौर पत्थर का बुत्त बनी उसकी बातें सुनती रही। रात आधी से ज़्यादा गुज़र गई थी।
कई दिनों की थकी हुई थी वह। पता नहीं कब बैठे-बैठ उसकी ऑंख लग
गई थी।
सुबह काफी देर से ऑंख खुली। शर्म के मारे उसका पीला रंग लाल हो गया था। जब उसने देखा कि वह फौजी की बाँह पर सर रखे सोये पड़ी थी। एक ही रजाई में दोनों गुच्छा-मुच्छा हुए पड़े थे। और दोनों बच्चे निश्चिंत, बेफिक्र सोये पड़े थे। मानों जंग लड़कर थक गए हों। वह हौले से उठी कि कहीं फौजी जाग न जाए। पर शायद वह पहले से ही जाग रहा था।
‘मैं तुम्हारे जगने का ही इंतज़ार कर रहा था बंसो!’ मैंने सोचा बड़ी मुश्किल से ऑंख लगी है, क्यों जगाऊँ ?’ वह अधजगा सा बोला।
हरबंस का जिस्म काँप रहा था। वह सारी रात किसी पराए मर्द की बाँहों में सोयी रही थी। फौजी से नज़रें नहीं मिला पा रही थी वह। काँपती हुई टाँगों से उठी और सर पर दुपट्टा ले दोनों बच्चों को जगाने लगी।
‘उन्हें सोने दे बंसो। खुद ही जग जाएंगे। चल, मैं तुझे रसोई में जाकर अंग्रेजी चूल्हा जलाना सिखा देता हूँ।’ उठते हुए उसने कहा।
दोनों रसोई में चले गए। फौजी ने उसे रसोई के सामान के इस्तेमाल का तरीका सिखाया और फिर दोनों मिलकर चाय बनाने लगे।
‘ मैं तो जी सिर्फ़ रजाई मांगने आई थी।’ वह सर झुकाए खड़ी थी।
‘कोई बात नहीं, तेरे साथ दो छोटे-छोटे मासूम बच्चे हैं। इन्हें कहाँ ठंड में लिए फिरोगी? जब तक तेरा कुछ बन नहीं जाता, यहीं रहती जाओ।’ फौजी यह कहकर बच्चों के पास जा बैठा।
फौजी ने हरबंस कौर के उन काग़ज़ों को उलट-पलट कर देखा जो वह अपने साथ लाई थी तथा उनमें से कुलदीप सिंह का पता ढूँढा। हरबंस कौर तथा बच्चों को घर पर छोड़ कर वह अकेला ही कुलदीप सिंह से बात करने चला गया।
हरबंस कौर शाम तक दरवाज़े पर नज़रें टिकाए बैठी रही कि कब फौजी कुलदीप सिंह को लेकर लौटता है। रात हो गई और फौजी अकेला ही लौटा।
‘वे तो मकान छोड़ कर कहीं और चले गए।’ फौजी ने मरियल से स्वर में कहा।
‘कहीं और ?’ हरबंस कौर का स्वर डूब सा गया।
‘कुछ पता नहीं चला। मैं आज सारा दिन सड़कों पर ढूँढता-फिरता रहा, कोई ख़बर नहीं मिली।’ वह सोफे पर पैर समेट कर बैठ गया।
‘अब हमारा क्या होगा?’ हरबंस कौर ने माथा ठोकते हुए कहा। फौजी ख़ामोश रहा।
‘हाय वे रब्बा! किन पापों की सज़ा दी तूने।’ वह सर पटकने लगी और बच्चे भी उसके साथ रोने लगे। ‘मैं पैदा होते ही क्यों न मर गई मेरे रब्बा! हाय! पैदा होते ही मेरा गला घोंट दिया होता मेरी माँए।’ वह विलाप कर रही थी।
‘न, रो मत, मेरा दिल घबराता है।’ फौजी जो ज़िंदगी भर तोप और बंदूकें चलाता रहा तथा बम-बारूदों से खेलता रहा था, एक औरत का विलाप न सह सका। उसने बच्चों को गोद में उठा लिया।
‘चल उठ, बच्चों को कुछ खाने-पीने को दे। इनका क्या कसूर है?’ वह उठकर रसोई में चला गया।
हरबंस कौर बहुत देर तक बैठी रोती रही। फौजी ने बच्चों को खिलाया-पिलाया और कल की तरह ही वे हीटर के पास ही सो गए।
‘अगर ये बच्चे न होते, ते मैं किसी कुएँ में डूब मरती। मर्द खुद तो आज़ाद हो जाता है पर औरत को बच्चों के साथ बाँध देता है, जैसे गाँवों में किसी पशु के पाँवों में रस्सी डाल देते हैं ताकि वह कहीं जा न सके।’
वक्त गुज़रना शुरू हो गया। फौजी ने दौड़-भाग करके हरबंस कौर तथा बच्चों को सोश्यल स्क्युरिटी के पैसे मंजूर करवा दिए। बाहर किसी कारखाने से वह उसे बिजली के प्लग जोड़ने का काम ला देता और वह घर बैठे-बैठे हफ्ते में दस-बीस पौंड कमा लेती। बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। बेशक उसका ग़म कम नहीं हुआ था पर बच्चों की ख़ातिर उसने खुद को संभाल लिया था। घर से वह कम ही निकलती थी। घर से बाहर क्या हो रहा है उसे पता पता नहीं था। दुनिया कहाँ बसती है उससे बेखबर हो गई थी वह।
‘अगर तुम कहो तो मैं एक बात कहूं ?’ बंसो का स्वर गंभीर था।
‘हाँ-हाँ, कहो।’ फौजी ने सर ऊपर उठाया।
‘तुम मुझ पर चादर डाल लो उसने पहली बार फौजी की ऑंखों में ऑंखें डाली।’ सोफे पर बैठे फौजी को झटका सा लगा।
‘वैसे भी तो हम इकट्ठे सोते हैं एक रजाई में।’ फौजी हैरान था कि बंसो आज कैसे लक्ष्मण-रेखा लाँघ गई। उसने गौर से बंसो को देखा, पीला सोने जैसा रंग, गदराया बदन और आग सी तपती ऑंखें। फौजी को लगा जैसे बंसो पर भरपूर यौवन उमड़ आया हो।
वह बहुत देर तक शून्य निगाहों से बंसो को देखता रहा।
‘बंसो, चादर तो मैं तुझ पर उसी रात डाल देता, जब तू किसी दुधमुँहे शिशु की तरह मेरी बाँह पर सर रखे सोयी थी, परंतु मैं इस काबिल नहीं।’ फौजी का चेहरा पत्थर की तरह सपाट था। भावना-शून्य!
‘क्यों तुझे क्या हुआ है?’ बंसो ने सवालिया नज़रों से उसे देखा।
‘जब मैं बर्मा की लड़ाई में गया था, उस समय दुश्मन का गोली मेरी बेतरतीब जगह पर लगी थी। डॉक्टरों ने मेरा ऑप्रेशन कर गोली तो निकालनी ही थी पर.... मैं औरत के काबिल न रहा। सगाई तो मेरी भी हो चुकी थी लड़ाई पर जाने से पहले। मेरे ससुराल वाले इंतज़ार कर रहे थे कि कब लड़का लौटे तो शादी हो। परंतु जब मैं वापिस ही नहीं गया तो उन्होंने लड़की की शादी कहीं और कर दी। जाकर करता भी क्या? मेरे सालों ने बहुत संदेशे भेजे कि साले जिस दिन हिंदुस्तान आओगे, मार डालेंगे तुझे। तूने हमारी बहन के साथ दगा किया है। मैंने सोचा, सालो मर चुके को अब क्या मारोगे? जिसे किस्मत ने ही मार दिया! बस बंसो, फिर मैं वापस नहीं गया। इंग्लैंड की सरकार ने मुझे यहाँ रहने की इजाज़त दे दी। बस, तब से अकेला ही यहाँ हूँ।’ करनैल सिंह ने लंबी आह भरी।
हरबंस कौर सर झुकाए उसकी बातें सुनती रही।
‘तूने कहा कि मैं तुझ पर चादर डाल लूं। जब तू पहली रात मेरे साथ सोई थी, तो मैंने तुझे इसलिए नहीं बख्शा था कि मैं कोई देवता था। शास्त्रों में लिखा है कि औरत अग्नि है, साक्षात् अग्नि की पुत्री। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को जलाकर भस्म कर देती है। मैं सारी रात आग को दामन में लिए पड़ा रहा। ताप मुझे भी लगा, मेरे अंग भी जले, पर इस आग को बुझाने के लिए पानी का कोई चश्मा मेरे पास नहीं था। कुछ तो उम्र का फर्क है और कुछ मेरी मजबूरी।’
हरबंस ने देखा फौजी की साँस फूल गई थी।
‘तू जवान औरत है बंसो। जवान औरत हवा की तरह जहाँ से गुज़रती है, वहाँ की खुशबू तथा बदबू उसके साथ हो लेती है। और लोग औरत को कसूरवार मानते हैं। सीता मईया जैसी बदनाम हो गई हैं जो ज़िंदगी भर पति के साथ जंगलों में धक्के खाती रहीं। फिर भी घर से निर्वासित की गईं। मर्द शुरू से ही औरत को इस्तेमाल करके छोड़ता रहा है। तुझ अकेली के साथ ही ऐसा नहीं हुआ।’ फौजी उसे सांत्वना दे रहा था।
‘पर......पर..... ’ बंसो ने कुछ कहना चाहा।
‘मुझे मालूम है तेरी उम्र में हर औरत पुरू ष का साथ चाहती है। कोई अच्छा सा आदमी ढूँढकर बंसो में तेरा ब्याह कर दूंगा। पर पहले डायवोर्स तो हो। तेरे तो आदमी का ही पता नहीं।’
‘मुझे नहीं ज़रूरत डगोर्स की। ऐसे आदमी तो मरे से भी गए गुज़रे होते हैं। मरे हुए का तो औरत सारी उम्र शोक मनाती है, पर ऐसे कंबख्तों का तो दो दिनों में ही स्यापा निपटा देती है।’ बंसो के दिल में अपने पति के लिए नफरत ही नफरत थी।
‘अगर तुम्हारी यही राय है तो मैं ढूंढता हूँ कोई आदमी।’ फौजी ने सोफे से उठ खड़े होते हुए कहा।
‘पर मैंने तो जी तुम्हारी बात की थी।’ वह फिर सवाल बन कर उसके सामने खड़ी हो गई।
फौजी ख़ामोश रहा।
‘मुझे किसी और आदमी की ज़रूरत नहीं है जी। न ही अंगों की घिसड़न को प्यार कहते हैं। जिस तरह तूने मुझे और मेरे बच्चों को सहारा दिया, संभाला है, मेरा जी चाहता है कि मैं तेरे चरण धो-धो कर पीयूं। मुझे किसी मर्द की जरूरत नहीं। उसी गर्माहट की ज़रूरत थी जो तुम्हारे पास थी। सिर्फ तुम्हारे पास। मैं तो सिर्फ रजाई मांगने आई थी। कई बार सोचती हूँ कि गर्माहट रजाई की थी या, तुम्हारी? पहले भी तो तीस साल रजाईयों में ही सोती रही हूँ। बंसो का स्वर नम हो गया था। दरअसल चादर डालने की बात तो मैंने इसलिए कही थी कि बच्चे तुम्हें बापू जी तो कह सकेंगे।’
‘तू अपने बच्चों को बता कि हमारा क्या रिश्ता है। गोरों को देख, एक मात्र अपने सगे बाप को छोड़ कर किसी को बाप नहीं कहते ये। सबका नाम लेकर पुकारते हैं। अपने यहाँ के लोग तो फिजूल ही रिश्तों को मथने बैठ जाते हैं। रातों-रात रिश्ते बन गए, सुबह होने तक टूट गए। मैंने रिश्तों को घिसते देखा है, सहकते देखा, टूटते देखा और मरते भी देखा है। रिश्तों के बिना हम क्यों नहीं जी सकते। किसी का भाई नालायक हो वह बाहर ‘धरम भाई’ बना लेगी, कि मेरा भाई है। बच्चे भी ‘मामा जी, मामा जी’ करते रहते हैं और मामा भले ही माँ का यार हो। पर लोगों के सामने तो भाई बना लिया न! बेकार की ड्रामेबाजी। सीधे कहो कि भई मेरा दोस्त है, मेरा मीत है। शर्मिंदगी किस बात की ? फौजी का नज़रिया अलग था।
उस दिन के बाद इस विषय पर उनमें कोई बात नहीं हुई। बच्चों ने जब एक-दो बार फौजी को अंकल जी कहकर पुकारा तो बंसो ने डांट दिया।
‘नहीं! अंकल जी नहीं, बापू जी कहा करो।’ और बच्चे उस दिन से फौजी को बापू कहने लगे।
लोग बाहर क्या बातें बनाते हैं, बंसो ने कानों में कड़वा तेल डाल लिया। मानो इन लोगों का कोई अस्तित्व ही न हो। वह रूह के साथ जीने लगी। फौजी ने उसे गुरूमुखी पढ़नी सिखा दी। वह अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनती और फौजी के ईंटों के मकान को उसने घर में बदल दिया।
फौजी कई बार कहता, ‘बंसो, अकेले आदमी का जीना भी कोई जीना है। अगर औरत न हो तो आदमी कीड़े पड़कर मर जाए भगवान ने औरत को माँ बना कर भेजा है जो ताउम्र उसकी देखभाल करती है, कभी माँ बनकर, कभी बहन बन कर तो कभी बीवी बनकर। परंतु अहसान-फरामोश आदमी इस बेजुबान पर ज़ुल्म करता है।’
घर में रोज़ नई चीज़ें आतीं, शॉपिंग की जाती, पर बंसो और फौजी की रजाई सांझी ही रही।
‘बच्चे बड़े हो गए हैं बंसो। तू एक रजाई और खरीद ला।’ एक रात फौजी ने सरसरी तौर पर कहा।
‘गुजारा तो हो ही रहा है, क्यों फिजूल खर्च करना है।’ बंसो ने कहा तो फौजी समझ गया।
बंसो की लड़की सतरह साल की थी, जब फौजी ने अपने एक दोस्त के बेटे के साथ उसकी शादी कर दी। लड़की अपने घर राज करती थी। कभी-कभी पति के साथ आकर माँ से मिल जाती। और उसका बेटा सतवीर यूनिवर्सिटी तक पढ़ा। बाहर तो वह सिर्फ क़िताबी ज्ञान के लिए जाता था परंतु ज़िंदगी के अन्य तौर-तरीके उसे फौजी ने सिखा। सतवीर माँ की पूजा करता था। उसे याद था कि किस तरह उसकी माँ ने कष्ट सहे थे। फौजी उनका सगा बाप नहीं है, उसे मालूम था, परंतु उसे कभी भी अपनी माँ से इस बात शिकायत नहीं थी। बल्कि उसे तो अपनी माँ पर गर्व था, जो इतनी दिलेरी से सामाज का सामना कर रही थी।
एक दिन सुबह सैर करने गए फौजी को दिल का दौरा पड़ा और वह फिर न उठा। अस्पताल में कई दिन उसका इलाज भी चलता रहा और अंतत: वह भगवान को प्यारा हो गया। बंसो के लिए दुनिया अंधेरी हो गई। उस पर दूसरी बार आसमान टूट पड़ा था। एक ही तो सहारा था, वह भी जाता रहा। फौजी के साथ दिल और आत्मा की सांझेदारी थी। वह तो सगी माँ के साथ भी नहीं थी। वह रो-रो कर पागल हो गई। घर बैठी सारा दिन विलाप करती रही।
एक दिन फौजी का वकील आया और कुछ कागज़-पत्तर उसे थमा कर चला गया। शाम को सतवीर घर आया तो उसने कागज़ देखे। यह वसीयतनामा था।
फौजी अपना घर और बैंक में पड़ा सारा रुपया बंसो के नाम कर गया था।
‘वे मैं तेरा देना जीते-जी न दे सकी, तू मरते-मरते भी अहसानों का बोझ मेरे सर पर धर गया, मैं कहाँ लौटाऊंगी? मैं तो सिर्फ अपने बच्चों को ढंकने के लिए रजाई माँगने आई थी। तू घर-बार मेरे नाम कर गया। हाय... अपने बच्चों के लिए दाना चुगने आई चिड़िया को तूने घोंसला बना दिया। तुझे परम धाम में जगह मिले। वसीयतें लिखने वाले अगली दरगाह में भी तेरी लेखनी चले। मेरे दिल के महरमा, मुझे भी साथ ले जाता। तेरे बगैर मैं किसी लायक नहीं...हाय।’ वह मुँह में आँचल ठूँस विलाप करने लगी।
सतवीर का कलेजा मुँह को आ रहा था। माँ ने अपने रूदन से अपनी व्यथा अपने नौजवान बेटे को सुना दी थी। उसने अपनी माँ को आलिंगन में ले लिया। रोया तो वह भी बहुत परंतु दिल कड़ा करके बोला, ‘बस कर माँ, बापू जी की आत्मा को दु:ख पहुँचेगा।’
बंसो बेटे के सीने पर सर रखकर हिचकियां ले-लेकर रोई। उसे लगा सतवीर और उसका दु:ख एक था।अंतर सिर्फ ऌतना था कि वह प्रत्यक्ष में रो रही थी और सतवीर मन ही मन।
कई बरस गुज़र गए। बरस क्या, उम्र ही बीत चली पर बंसो का ग़म न घटा। सतवीर ने बहुत कोशिश की कि किसी तरह माँ का मन बहलाया जाए, परंतु बंसो के ग़म का कोई दारू नहीं था। धीरे-धीरे वह दुनिया से विमुख होती चली गई। जीने की लालसा ख़त्म हो गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया। फौजी के बाद उसकी दुनिया वीरान हो गई थी।
रसोई में जाना छोड़ दिया था उसने। भूख गायब हो गई थी। सतवीर अपना अंग्रेजी खाना खुद ही बना कर खा लेता, माँ को कम ही तकलीफ देता।
‘श्रवण पुत्र है अपने बाप जैसा।’ वह मन ही मन सतवीर की तुलना फौजी से करती और भूल जाती कि सतवीर का बापू तो कुलदीप था।
सतवीर की शादी के बाद घर में थोड़ी रौनक बढ़ी थी, पर बंसो के लिए अपना कमरा ही स्वर्ग था। वह मुँह पर रजाई लिए दिन भर फौजी के बारे सोचती रहती। यह रजाई उन दोनों के बीच एक ऐसा पुल था, जो दोनों को जोड़ता था। उसे लगता जैसे आज भी वह फौजी की बाँहों में सोयी पड़ी हो। फौजी के जिस्म की महक और स्पर्श उसके रोम-रोम में बसे हुए थे।
आज जब बारह बज गए और बंसो न उठी, तो कैथी की चिंता बढ़ गई। उसने दिल कड़ा किया और बंसो के मुंह से रजाई हटाई।
बंसो ने ऑंखें खोलीं। कैथी पलंग से दूर खड़ी मुस्करा रही थी।
‘जैस?’ बंसो ने धीमे से पूछा। मानो कह रही हो कि वह बार-बार आकर उसे क्यों तंग करती है?
कैथी ने रजाई थोड़ा परे सरका कर पलंग पर बैठने के लिए थोड़ी सी जगह बनाई और फिर उसके माथे पर हाथ फेरते हुए बोली - ‘आई नो मॉम् योर ब्वॉय फ्रेंड गेव यू दिस क्विलट। सतवीर टोल्ड मी दैट ही लव्ड यू सो मच ऐंड सो यू डिड।’ कैथी ने सोचा कि शायद यही सास के दिल में प्रवेश करने का रास्ता है।
बंसो काफी देर तक ख़ामोश रही। कैथी ने फिर अपने शब्द दोहराए।
‘अगर मुझे अंग्रेजी आती होती तो बहू मैं तुझे बताती कि तेरी नज़रों में वह मेरा बूई फ्रेंड था पर मेरे लिए धरती पर भगवान था। जिस रजाई को देख तुम नाक-भौं सिकोड़ती हो, वह उस भगवान की गोद है। और जब कोई ईश्वर की गोद की गर्माहट का सुख प्राप्त कर ले तो फिर उसके लिए अन्य सारे रिश्ते ठंडे हो जाते हैं।’ बंसो ने वकीलों की तरह उंगली हिला कर बहू को डांट पिलाई। कैथी को बेशक बात समझ नहीं आई पर बंसो को लगा मानो उसने सभी अंग्रेजी बोलने वालों से बदला ले लिया हो।
साभार - छपते-छपते, दीपावली विशेषांक, कोलकाता, 1999
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