(आज शायर साहिर लुधियानवी का जन्म दिन है। इस अवसर पर प्रस्तुत है पंजाबी के जाने माने लेखक बलवंत गार्गी का लिखा यह रेखाचित्र उनकी पंजाबी में लिखित पुस्तक 'हसीन चेहरे' से साभार। यह आलेख साहिर साहब के विभिन्न पक्षों को उजागर करता है। आज साहिर और गार्गी साहब दोनों ही हमारे बीच मौजूद नहीं हैं।)
यौवन का शायर
* बलवंत गार्गी
साहिर लुधियानवी ने कहा -
‘मेरा रेट तो ऐसे ही बढ़ गया। दरअसल मैं ज़्यादा फ़िल्मों के लिए लिखना नहीं चाहता था। एक गीत का मेरा रेट पाँच हज़ार था। एक मालदार फ़िल्म प्रोड्यूसर आया और उसने कहा कि साहिर साहब हम आप से ही गीत लिखवाएंगे। मैंने कहा, मेरा तो एक गीत का रेट दस हज़ार रूपए है। सोचा था इतने पैसे कौन देगा।
परंतु वह प्रोड्यूसर मान गया। उसने कहा, मंजूर है। इस तरह मेरा रेट प्रति गीत दस हज़ार रुपए हो गया। बलवंत जी, बस सिगरेट सुलगा कर कश लगाता हूँ और दस कशों में फ़िल्मी गीत तैयार हो जाता है। मेरे एक कश की क़ीमत एक हज़ार रुपए है।’
यह कह कर साहिर मासूम हँसी हँसने लगा।
यह बात पंद्रह वर्ष पूर्व की है।
मैं जब भी बंबई जाता, अक्सर साहिर से एक-आध मुलाक़ात ज़रूर होती। वह यौवन का शायर था। यौवन की उमंगों और ख्वाबों और ख़्वाहिशों का खूबसूरत कवि।
वह मुश्किल से बीस बरस का था जब लुधियाना छोड़ लाहौर आ गया। आवारा, बेरोजगार। रोमांटिक गीत लिखने वाला, समाज में इन्क़लाब लाने वाला, दिल को छूने वाले गीत लिखने वाला साहिर। उस में नरमी और लचक थी जो उसकी सूरत से मेल खाती थी। जिस्मानी तौर पर वह बहुत सुस्त था। चाल-ढाल भी लचीली, सफेदे के पतले वृक्ष की भाँति जो हवा के थोड़े से झोंके से हिल जाता है। चेहरे पर हल्के दाग, लंबी नाक, शर्मीली मुस्कान।
साहिर बहुत शर्मीला था। मैं उससे पहली बार लाहौर में ‘मक़तबा उर्दू’ की दुकान पर मिला था। वह जल्दी ही उर्दू शायरों और लेखकों की मंडली में घुल-मिल गया।
उसने ‘ताजमहल’ नज़्म लिखी तो उसकी ख्याति सारे हिंदुस्तान में आग की भाँति फैल गई। उसका एक शेर तो इन्क़लाबी मंत्र बन गया –
‘एक शहंशाह ने
दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की महुब्बत
का उड़ाया है मज़ाक।’
उसने ताजमहल की मेहराबों, संगमरमर के गुंबदों और मीनारों का खूबसूरत बयान किया। शब्दों से हसीन ताज का निर्माण किया। जब उसकी नज़्म की ख्याति फैल गई तो साहिर डर गया। उसने मुझसे कहा, ‘यार मैंने तो ताजमहल कभी देखा भी नहीं। इतने पैसे ही नहीं थे कि आगरे जा सकूं। यदि किसी को पता चल गया..... बेहतर है कि मैं किसी के पैसे उधार लेकर ताजमहल देख आऊँ।’ ताजमहल नज़्म लिखने के कई सालों बाद साहिर ने ताजमहल देखा।
साहिर में दिव्य ज्ञान था, तीसरा नेत्र, शायर का अहसास, तख्ईयल और सामाजिक चेतना। कई लोग ताजमहल के भीतर बैठ कर ताज नहीं देख सकते, साहिर लाहौर में बैठ कर ताज का निर्माण कर सकता था।
उन दिनों वह भूखों मरता था। मुहब्बत का भी भूखा था।
जब वह स्टार बन गया तो बेशुमार औरतें उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गईँ। ख़तों के अंबार लग जाते। वह उन्हें पढ़े बिना ही फाड़ कर फेंक देता।
उसे यकीन ही नहीं होता था कि कोई हसीन औरत उससे मुहब्बत कर सकती है। वह कहा करता – ‘मेरी शक्ल अच्छी नहीं. मैं मुहब्बत का लफ्ज़ सूरज की रोशनी में नहीं कह सकता...सिर्फ़ दीया बुझाकर अंधेरे में मैं किसी महबूब लड़की के कानों में धीरे से कह सकता हूँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, मेरी महबूब.....सिर्फ़ अंधेरे में......हल्के अंधेरे में जिसमें तारों का नूर मिला हुआ हो या सिगरेट के धुएं का.....मुझे शर्म आती है.....मुझे कोई औरत प्यार नहीं कर सकती।’
उसने अपने हृदय के द्वार बंद कर लिए थे। गीत लिख कर ही वह प्यार का जादू छिड़क सकता था....ज़िंदगी में वह अकेला था, प्यासा।
उसकी नज़्मों में एकाकीपन था, बिरह का ग़म जो एक नई टीस बन कर तड़पता था। उसे मुहब्बत थी तो सिर्फ़ अपनी माँ से।
एक रात हम खाना खा रहे थे। वह दो बजे तक पीता रहा। उसकी माँ अपने कमरे से उठ कर हमारे पास आ गई। बोलीं – ‘बलवंत, अब इसकी शादी भी करवाओ।’
साहिर ने कहा, ‘माँ इसकी तो खुद की शादी नहीं हुई। लड़कियां सब धोखा हैं।’
वे बोली, ‘इसकी शादी हो जाए तो कोई रोटी पकाने वाली आ जाए....घर संभालने वाली, इसकी देख-रेख करने वाली...कृश्न चंदर ने फिर से शादी कर ली....सभी शादियां किए जा रहे हैं, पर यह मेरी बात ही नहीं सुनता...अगर कोई घर संभालने वाली आए.....रोटियां पका कर खिलाने वाली, इसकी देखभाल करने वाली.....’
साहिर बोला, ‘सुनीं माँ की बातें, रात के दो बजे ये मेरी शादी की बातें कर रहीं हैं। तुम सो जाओ मां, हम अभी ही खान खा लेते हैं। परंतु उसकी माँ तब जाकर सोईं जब साहिर ने खाना खा लिया। रात के तीन बजे।’
फिर वह मुझे छोड़ने नीचे आया। रात के तीन बजे। कोई टैक्सी नहीं थी। साहिर का ड्राईवर जा चुका था। साहिर मेरे साथ बाहर आया।
इतने में एक कार गुज़री। कार रुक गई। वह साहिर का कोई प्रशंसक था। उसने पूछा, ‘कोई हुक्म?’
साहिर ने उससे मुझे घर छोड़ देने के लिए कहा। और वह आदमी अपनी कार में मुझे पाली हिल बांद्रा छोड़ कर गया।
साहिर को कई सालों से दिल की बीमारी थी। वह अपनी माँ की फरमाबरदारी में खुश रहता, हँसता, फि़ल्मी लतीफे सुनाता और बेअंत समझदारी का बातें करता।
चार साल पहले उसकी माँ गुज़र गई। उसके बाद वह बिलकुल अकेला रह गया।
वह सारी दुनिया का दुख अपने गीत में उड़ेल देता, क्या रहस्य था उसकी तड़प का? उसकी शिद्दत का? उसके रसिकता का?
उसकी प्रतिभा के हज़ारों-लाखों प्रभाव होंगे। उसे पता था कि वह बड़ा शायर है। इस बात का ज्ञान उसे 22 साल की उम्र में हो गया था। लाहौर की गहरी अदबी फिज़ा में इस अजनबी फक्कड़ शायर ने सबको अपना मुरीद बना लिया था। सभी उसके जज़्बाती गीतों से प्रभावित थे। उसे नाम की भाँति उसके भीतर भी जादू था। साहिर – लोगों पर टोना करने वाला, सहर कर देने वाला, जादू कर देने वाला।
बंबई, कलकत्ते और लखनऊ में लोग उसके गीत सुनते और उसकी शायरी की कला पर झूम उठते। किसी को यह नहीं पता था कि वह लुधियाने का रहने वाला है जहाँ स्वेटर और ज़ुराबें बनती हैं। उनका ख़याल था कि लुधियानवी किसी रोमांटिक लड़की, किसी शरबती हसीना का नाम है जो साहिर ने अपने नाम के साथ जोड़ लिया है। इस प्रकार दो लुधियाने बन गए – ज़ुराबें और स्वेटरों वाला लुधियाना और साहिर का लुधियाना।
उसकी कलम में उर्दू का पूरा शबाब था, पूरी रवायत समाई हुई थी। उस में हिन्दी के रस और अलंकार भी घुले हुए थे। भारत की मिश्रित संस्कृति का हसीन कलात्मक रंग।
साहिर से जब भी कोई महिला इश्क करने लगती और महबूबा का रूप धारण कर लेती तो वह भाग जाता। लोग बीवीयों से भागते फिरते हैं और वह महबूबाओं से भागता था।
उस द्वारा रचित गीतों के कारण कॉलेज की कई लड़कियां उस पर फिदा हो गई थीं। बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में कई गायिकाएं उस पर आशिक हो गईं। पता चला कि लता मंगेशकर साहिर पर फिदा हो गई। साहिर को दिल का दौरा पड़ गया।
वह मिला तो दिल थामे फिरता था। गोलियां और दवाईयां उसकी जेब में थीं।
बोला – ‘मेरा दिल शायद शराब पीने के कारण.....या यूं ही...डॉक्टर ने मुझे शराब पीने से मना किया है। मैं शराब पीता हूँ परंतु शराबी नहीं। लोग लता मंगेशकर के इश्क की बातें करते हैं। यह अजीब इश्क है। वह मेरे गीतों पर फिदा है और मैं उसकी आवाज़ पर। परंतु बीच में तीस लाख मील का फ़ासला है।’
दोनों में एक बात ज़रूर सांझी थी। न लता मंगेशकर ने शादी की और न ही साहिर ने।
साहिर को किसी से भी मुहब्बत नहीं थी। महुब्बत के गीत रचता ज़रूर था परंतु ज़रूरी नहीं कि वह खुद भी इश्क में रोता फिरे।
उसने कहा – ‘मेरा इश्क गीत लिख डालने के बाद ख़त्म हो जाता है। यह इश्क की बीमारी.....पता नहीं लोग क्य़ा समझते हैं। जो हलवाई जलेबियां बनाता है वह खुद खाता नहीं।’
ऐसी बात कहना साहिर का अंदाज़ था। एक खास वक्त की उसकी मानसिक अवस्था, खुद पर चोट, अपना मज़ाक, खुद को उलटा देखने का शौक।
लुधियाना कॉलेज में उसने एक लड़की के सौंदर्य पर गीत लिखा तो कॉलेज का प्रिंसीपल नाराज़ हो गया। साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया। वह लाहौर आ गया। उसकी नज़्मों का पहला संग्रह ‘तल्खियां’ उन्हीं दिनों छपा था जब वह कॉलेज में पढ़ता था। इनमें उस्तादों वाली पुख्तगी और इन्क़लाबी रंग था, और जज़्बे की शिद्दत।
यह वह ज़माना था जब किसी शायर या कहानीकार की उर्दू में कोई एक किताब छपती तो वह सारे हिंदुस्तान में मशहूर हो जाता। साहिर एक ही किताब से शायरों की क़तार में आ गया।
साहिर लुधियाने में 8 मार्च 1921 को लुधियाने में पैदा हुआ। उसका नाम रखा गया अब्दुल हई। पहला पुत्र होने की वजह से उसके जन्म पर बहुत बड़ा जश्न मनाया गया। अभी वह नन्हा बालक ही था कि उसके पिता ने बीवी को तलाक देकर दूसकरी शादी कर ली। गरीबी की हालत में साहिर अपनी माँ के पास ही रहा। मैट्रिक के बाद उसने गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला लिया।
उसने अपने तखल्लुस ‘साहिर’ के साथ लुधियाना जो़ड़ लिया और लुधियानवी बन गया – जेसे देहलवी, लखनवी, मुरादाबादी। फिल्मों में लोकप्रिय होने के बाद लोग समझते रहे कि लुधियाना भी उसका नाम है। परंतु लुधियाने ने उसकी नज़्मों को अश्लील कर कर उसे बाहर निकाल दिया था, अब वही लुधियाना उस पर गर्व करता है। उसी गवर्नमेंट कॉलेज में जहाँ से उसे निकाला गया था, कॉनवोकेशन में बुलाकर उसे सम्मानित किया गया।
साहिर फक्कड़ तबीयत का मालिक था, उसे यह गवर्नमेंट कॉलेज भला क्या सम्मान दे सकता था। उसने मुझसे कहा, ‘मैं तो सिर्फ़ इसलिए आया कि लुधियाने में मेरी बचपन की यादें हैं। मेरा यार फोटोग्राफर कृष्ण अदीब भी यहाँ है। हमने चौड़े बाज़ार में एक साथ कुल्फियाँ खाईं। मेरे अब्बा और दादा की क़ब्रे यहाँ हैँ। मेरा अतीत यहाँ दफ़न है – लुधियाना मेरी यादों का कब्रिस्तान है....मेरा बहुत अज़ीज़ है।’
साहिर देश विभाजन के वक्त लाहौर से दिल्ली आया तो यहाँ भी फ़साद शुरू हो गए। मैं, ज्ञान सचदेव और उसकी पत्नी अचला के साथ एक ऐम. पी. की कोठी के दो कमरों में रह रहे थे। साहिर हमारे पास सात दिन रहा और बचता-बचाता फिर लाहौर चला गया।
विभाजन के बाद कई महीनों तक पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच कोई वीज़ा या पासपोर्ट नहीं लेना पड़ता था।
साहिर लाहौर के अदवी दायरे में घूमता रहा परंतु उसे कट्टर मुसलमानियत पसंद नहीं थी। उसके बहुत से दोस्त दिल्ली और बंबई में थे। लाहौर में उसका जी न लगा।
वह फिर दिल्ली आ गया।
यहाँ वह उर्दू की मासिक पत्रिका ‘शाहराह’ का संपादक बन गया। यह पत्रिका तरक्की पसंद अदब का झंडाबरदार थी। इसमें उर्दू के बड़े-बड़े शायर और अदीब छपते थे।
‘शाहराह’ का मालिक मछली का व्यापारी था मुहम्मद युसुफ था। सारे अदीब उसकी निंदा करते तथा कंजूस मछलीफ़रोश कह कर मज़ाक उड़ाया करते। परंतु, इस मछलीफ़रोश का चौबारा तरक्कीपसंद अदीबों का अड्डा बन गया क्योंकि साहिर यहीं बैठ कर पत्रिका का संपादन करता था।
‘शाहराह’ में पहली बार साहिर ने चिल्ली के शायर पाब्लो नरूदा पर लंबा लेख लिखा और उसकी नज़्मों का तर्जुमा प्रकाशित किया। स्पेन के कवि गार्सिया लोर्का पर भी साहिर ने कमाल का आलेख लिखा और उसकी प्रेम कविताएं छाप कर लोगों को इस अज़ीम शायर से परिचित करवाया। परंतु, साहिर दुखी था क्योंकि युसुफ उसे वक्त पर पैसे नहीं देता था। किसी अदीब या शायर को उसके लेखन का मुआवज़ा न मिलता। परंतु युसुफ क्या करता? पत्रिका से कोई आय थोड़े ही होती थी। उसे उर्दू पत्रिका निकालने का मर्ज़ था और अदीबों को लिखने और छपने का मर्ज़।
साहिर परेशान था कि क्या करे।
इस चौबारे के सामने ज़ामा मस्ज़िद के पास गर्म कबाब और बिरयानी सस्ती मिल जाती थी। कई बार उधार भी चलता। चाय के प्याले युसुफ के खाते में आते। काम चलता रहा।
अमन तहरीक़ और कम्युनिस्ट लहर ज़ोरों पर थी। धर-पकड़ हो रही थी। परेशान और भूखा साहिर दिल्ली छोड़ बंबई चला गया। यहाँ कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई, सरदार आली जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, बेदी और बेशुमार उर्दू के अदीब दोस्त थे जो फ़िल्मों से संबंधित थे।
साहिर आकर कृश्न चंदर के पास रुका क्योंकि कृश्न फिल्म बना रहा था जिसमें उसका भाई महेंद्रनाथ हीरो था। साहिर को पूरी उम्मीद थी कि उसे कृश्न चंदर गीत लिखने के लिए कहेगा परंतु कृश्न ने यह कहकर टाल दिया, ‘तू अच्छा शायर है परंतु फ़िल्म के गीत लिखना तेरे बस की बात नहीं।’
साहिर ने मिन्नत की - ‘यार, एक मौका तो दे।’
कृश्न चंदर ने इन्कार कर दिया।
साहिर को नौकरी की ज़रूरत थी। कृश्न ने कहा, ‘तू मेरी कहानियों को उर्दू में खुशख़त(सुंदर लिखावट में लिखना) करके लिख सकते हो। महीने का डेढ़ सौ रुपया।’
साहिर कृश्न चंदर का क़ातिब बन गया। कृश्न के दफ्तर में साहिर रात को दो मेज़ें जोड़ कर सो जाता। गर्मी और घुटन में उसे नींद कम ही आती।
वह स्टुडियो के चक्कर लगाता और आवाज़ देता – ‘ओ भाई, कोई गीत लिखवा लो, वढिया गीत! सस्ते गीत! मंहगे गीत!’
कोई भी उससे गीत लिखवाने को तैयार न था। सभी उसे बढ़िया शायर मानते थे, उसकी प्रतिभा की क़द्र करते थे, उसकी ‘तल्खियां’ में छपी नज़्मों की प्रशंसा करते थे परंतु कोई फ़िल्म प्रोड्यूसर या दोस्त डायरेक्टर उससे गीत नहीं लिखवा रहा था।
उन्हीं दिनों म्युज़िक डायरेक्टर एस. डी. बर्मन को ‘बाज़ी’ फ़िल्म के लिए एक ऐसे शायर की ज़रूरत पड़ गई, जो उनकी पहले से तैयार की गई धुन पर गीत लिख सके। आम चलन तो यही था कि शायर पहले गीत लिखता है और फिर म्युज़िक डायरेक्टर धुन बनाता है। परंतु बर्मन की शर्त उल्टी थी और यह काम बहुत मुश्किल था।
साहिर बर्मन से मिला और कहा – ‘मैं हाज़िर हूँ।’
बर्मन ने फ़िल्मी धुन सुनाई –
डां डां, डां, डां डडां, आ शायर ने सिच्युएशन समझी और इस डां डां पर गीत लिखा।
‘ये रात – ये चाँदनी – फिर कहाँ
सुन जा – दिल की, दास्तां’
यह गाना हिट रहा।
फिर उसने बर्मन के लिये कई गीत लिखे, हर गीत हिट। साहिर सोने की चिड़िया थी और बर्मन उसे किसी और के लिए गीत लिखने नहीं देता था। साहिर ने बगावत की और कहा कि कि तब वह खुद भी किसी और के लिए संगीत न दे। इस बात पर साहिर अन्य डायरेक्टरों के लिए भी गीत लिखने लगा। उसने एक सौ फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। उस के ख़ास डायरेक्टर बी. आर. चोपड़ा थे। उस का हर गीत नया, हर नज़्म में ताज़गी। साहिर फ़िल्म स्टार बन गया।
साहिर ने यश चोपड़ा के लिए ‘कभी-कभी’ फ़िल्म के गीत लिखे। इस का संगीत ख़य्याम ने दिया जिस की साहिर ने सिफ़ारिश की थी। फ़िल्म सुपर हिट। ख़य्याम साहब भी कामयाब हो गए। उन्हें कई प्रोड्यूसरों ने संगीत देने के लिए कहा तो ख़य्याम साहब अपना रेट बढ़ा कर बताते। साहिर की सरपरस्ती में ख़य्याम अकड़ कर चलने लगे। नई कार ले ली। नए सूट सिलवा लिए। नई शान। साहिर को ख़य्याम की यह अकड़ पसंद नहीं आई। यह उसके अपने मिज़ाज के खिलाफ़ था।
एक दिन ख़य्याम साहिर से मिलने आया तो अपनी कामयाबी के कसीदे पढ़ने लगा। साहिर ख़ामोशी से सुनता रहा। ख़य्याम ने कहा, ‘साहिर साहब मुझे नाडियादवाला ने फ़िल्म का संगीत देने के लिए कहा है। उसने पैसे पूछे तो मैंने साठ हज़ार रुपए कहा। वह मान गया। वैसे मैं अगर चाहता तो एक लाख रुपए भी माँग सकता था।’
साहिर ने कहा, ‘खान साहब, जब माँगने पर आ ही गए हैं तो आप तख़्त-ओ-ताउस भी माँग सकते थे।’
इस व्यंग्य से ख़य्याम भौंचक्का रह गया। उसकी गर्दन तो उसी तरह अकड़ी रही परंतु माथे पर पसीने की बूंदे झिलमिलाने लगीं।
साहिर जिस निर्माता के लिए गीत लिखता, वह साहिर की साहित्यिक और फ़िल्मी सूझ-बूझ की बहुत क़द्र करता। उसके गीतों में इतना आकर्षण होता कि मामूली धुन भी सुंदर लगती। लोग उसके गीतों के बोलों को सुनते और दाद देते। वह फ़िल्मों में साहित्यिक रंग ले आया था।
एक बार साहिर का कोई गीत फेमस लैब में रिकॉर्ड हो रहा था। मशहूर संगीत निर्देशक स्व. रौशन का पुत्र राजेश रौशन इसका संगीत दे रहा था। उस ने साहिर के एक गीत की धुन तैयार की।
जब साहिर रिकॉर्डिंग रूम में दाखिल हुआ तो ख़य्याम उसके साथ था। राजेश रौशन ने आगे बढ़कर झुककर साहिर के घुटनों को स्पर्श किय़ा और ख़य्याम से हाथ मिलाया। ख़य्याम यह देख कर भीतर ही भीतर जल-भुन गया।
गीत की रिकॉर्डिंग सुन कर जब साहिर बाहर निकला और गाड़ी मैं बैठा तो ख़य्याम ने कहा, ‘साहिर साहब मैं अपना गीत इस रिकॉर्डिंग थिय़ेटर में रिकॉर्ड नहीं करवाऊंगा। यहाँ लोग मेरी धुने चुरा लेंगे। यह राजेश रौशन भी कोई म्य़ुज़िक डायरेक्टर है? निरा चोर है। इसका बाप भी चोर था।
साहिर रौशन को मदन मोहन से भी ऊँचा समझता था। ख़य्याम की बात सुन कर चकित रह गया और गुस्से से कहा – ख़ान साहब अगर थोड़ी सी कामयाबी मिल जाए तो इस तरह दुलत्तियां नहीं मारनी चाहिएं।
साहिर में विनम्रता थी पर साथ ही कलात्मक गरूर भी। उसे अपनी प्रतिभा का ज्ञान था। उसे यह भी मालूम था कि जिसे अपने गीत उससे लिखवाने होंगे वह उससे ही लिखवाएगा। उसके गीतों में एक अजीब दर्द और हूक थी जो किसी अन्य में नहीं थी। उसका किसी और गीतकार से मुकाबला नहीं था। सब उसे गुरू मानते थे और उसके समझ झुकते थे।
साहिर कुछ गिने-चुने निर्माता-निर्देशकों के लिए ही गीत लिखता था। जब बी. आर. चोपड़ा और उसका छोटा भाई यश चोपड़ा अलग हुए तो उसने यश चोपड़ा के लिए गीत लिखना मंजूर किया। उसने एक ही चोपड़ा को चुना।
‘कभी कभी और बहुत सी अन्य फ़िल्मों के गीत उसने यश के लिए लिखे। परंतु जब उसने ‘सिलसिला’ बनाना शुरू की तो गीत किसी दूसरे शायर के थे। फ़िल्म असफल हो गई।
मैंने साहिर से पूछा, तुमने ‘सिलसिला’ के लिए गीत क्यों नहीं लिखे?
उसने बताया, यश मेरे पास आया और उसने कहानी के सीन तथा गीतों की सिच्युवेशन बताई और कहा कि मैं दो गीत पाँच दिनों में लिख दूं। मैंने उससे कहा, ‘शुटिंग तो पंद्रह जुलाई को होगी और आज है सिर्फ़ चार अप्रैल। मुझे कम से कम दस-बारह दिन चाहिएं। आख़िर मैं जो सर-खपाई करूंगा उसकी कोई तुक तो होनी चाहिए। मैंने अब तक पाँच-छह सौ गीत लिखे होंगे। सभी मुहब्बत के आख़िर कितने नए शब्द नई तरह खपा सकता हूँ। मुझे लिखते वक्त सोचना पड़ता है। मेरा घटिया गीत भी दूसरों के बढ़िया गीतों से अच्छा होना चाहिए। मैं साहिर हूँ। बाटा शू कंपनी भी नए जूतों को अगर सिलाई में ज़रा सा भी नुक्स हो तो, निकाल कर फेंक देती है। मुझे भी लिखते वक्त सोचना पड़ता है। शब्दों में ग़म का बारूद भरने के लिए और कहानी को आगे बढ़ाने के लिए तथा नया रंग देने के लिए भी सोचना पड़ता है....मैं दस दिन से पहले ये गीत नहीं दे सकता।’
यश चोपड़ा को जल्दी थी। उसने साहिर को अपनी समस्या बताई कि सात दिनों बाद संगीत निर्देशक खाली नहीं होगा और उसके बाद लता मंगेशकर बाहर जा रही हैं और वह तीन जुलाई को वापिस आ रही और उसका ख़ास सांउड रिकॉर्डिस्ट सिर्फ़ बारह अप्रैल को रिकॉर्ड कर सकता है।
साहिर शायद ये गीत दो दिन में लिख देता परंतु जब उसने य़श की बातें सुनी तो वह अपनी बात पर अड़ गया। उसे इस बात पर गुस्सा आया कि वह हर एक की तारीखों के अनुसार फ़िल्म की रिकॉर्डिंग और शूटिंग की योजना बना रहा था, परंतु साहिर को वह कम समय में ही गीत रचना के लिए कह रहा था। साहिर को यह बात मंजूर नहीं थी। वह अपनी शायरी को तीसरे या चौथे दर्जें पर देखना नहीं चाहता था।
जब यश ने ज़िद की और कहा कि अन्य शायर तो दो-तीन दिनों में लिख सकते हैं तो साहिर ने कहा, उनसे लिखवा लीजिए।
यश चोपड़ा की दस सालों की दोस्ती ख़त्म। फ़िल्मी नाता टूट गया। यश को इसका बहुत दु:ख हुआ। अगली फ़िल्म के लिए साहिर लिखने को तैयार नहीं था। साहिर को गीतों के लिए अन्य बेशुमार प्रोड्यूसर इंतज़ार कर रहे थे।
वह इन्क़लाबी थी परंतु इन्क़लाबी रंग उसे हर वक्त नहीं चढ़ा रहता था। उसमें इन्क़लावियों वाला जोश नहीं था, सिर्फ़ होश था, कड़वाहट थी, सिनीसिज्म था।
वह कई बार इन्क़लाब का मज़ाक उड़ाता और अपने साथियों को नाराज़ कर लेता परंतु उस में इतनी मिठास और जज़्बे की रचनात्मक बादशाहत थी कि कोई उससे नारा़ज़ नहीं हो सकता था।
1961 की बात है। कांगो के बड़े लीडर लमम्मबा का क़त्ल हो गया था। सारी दुनिया में इस क़त्ल के विरुद्ध रोष प्रकट हुआ। इस युवा इन्क़लाबी लीडर की मृत्यु पर लोगों का ख़ून खौलने लगा। जलसे हुए, जलुस निकले, मुज़ाहरे हुए। शायरों ने उसकी मृत्यु पर नज़्में लिखीं, सभाएं की।
नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय अमन कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें इटली के प्रसिद्ध उपन्यासकार कार्लो लेवी और फ्रांस के वैज्ञानिक तथा नोबल पुरस्कार विजेता ज्युलस क्यूरी तथा भारत की विभिन्न भाषाओं के शायर, कवि तथा कलाकार भी आए हुए थे।
बंबई से अली सरदार जाफ़री, सज्जाद ज़हीर, ख़्वाजा़ अब्बास, जांनिसार अख़्तर और साहिर आए हुए थे। पंजाब से मोहन सिंह, नवतेज, संतोख सिंह धीर तथा तीन दर्जन अन्य लेखकों ने भी इस में शिरकत की।
हर कोई लमम्मबा की मृत्यु से प्रभावित ज़ुल्म के ख़िलाफ़, इस युवा ख़ून के ख़िलाफ़, अफ्रीकी आज़ादी की जंग के पक्ष में नज़्म या गीत या आलेख लिख कर लाया था। हर कोई इस अमन यज्ञ में लमम्मबा की मृत्यु पर साहित्यिक आँसू बहा रहा था। हर कोई इस ग़म का हिस्सेदार था।
विज्ञान भवन में बड़ी मीटिंग थी।
साहिर भी उस में लंबे-लंबे कदम भरते हुए और झूमते हुए आया। उसने मुस्करा कर पूछा, ‘क्यों जी आप ने भी लमम्मबा पर कोई नज़म लिखी है?’
‘हाँ।’
‘आपने?’
‘हाँ।’
‘आपने?’
‘हाँ।’
‘सब ने लिखी है?’
‘हाँ।‘
‘सबने?’
‘हाँ।’
‘तो फिर मैंने नहीं लिखी।’ यह कर साहिर हँसने लगा – वही मुस्कान जिस में अजीब तन्ज़ और मासूमियत छुपी होती थी। जिसे देखो लमम्मबा के ग़म में डूबा हुआ है। मुझे समझ ही नहीं आती कि मैं क्या लिखूं – ‘मुझे इस क़त्ल का कुछ समझ ही नहीं आता। मेरे मन...मेरे मन में कोई बात ही नहीं आ रही...परंतु ये सभी तो लमम्मबा.....लमम्मबा..... लमम्मबा.....’
वह मुस्करा रहा था।
मीटिंग ख़त्म हुई तो सरदार जाफ़री ने साहिर से कहा, ‘साहिर तुमने कोई नज़्म नहीं लिखी? शाम को मुशायरा है। लोगों का हजूम होगा। सब तुम्हारी नज़्म सुनना चाहेंगे।’
साहिर बोला, ‘हमें तो कुछ नहीं पता। समझ ही नहीं आता कि क्या लिखूं।’
जाफ़री ने कहा, ‘परंतु तुम तो बंबई से तो सिर्फ़ इसी मुशायरे के लिए ही आए हो, खा़सतौर से। कुछ तो लिखो.....चलो....होटल में चलते हैं, वहाँ बैठकर कुछ लिख लेना...बस दो-चार लाईनें....कुछ भी....लोग तुम्हें सुनने के लिए आएंगे। उस वक्त तुम....ऐसे मौके पर तुम्हें ज़रूर कुछ लिखना चाहिए।’
सज्जाद ज़हीर ने कहा, ‘साहिर, यह बुह ज्यादती है कि तुम कुछ न सुनाओ। बहुत बुरी बात है। तुम्हें ज़रूर कुछ लिखना चाहिए।’ परंतु साहिर ने उनकी बात सुनकर भी अनसुनी कर दी। वह बिलकुल बेलाग था, बिलकुल खाली। वह उन सभी लोगों को उल्लु कह रहा था जो लमम्मबा की मृत्यु पर नज़्में लिख कर लाए थे। उसे कुछ चिढ़ सी हो गई थी। वह बोला – ‘मैं नहीं लिख सकता।’
जनपथ होटल जाकर सज्जाद ज़हीर ने फिर कहा – ‘साहिर शाम को मुशायरा है। हमारी इज्जत का सवाल है....तुम .....’
जाफ़री ने कहा, ‘यह ऐसे नहीं मानेगा। एक ही तरीका है.....’
वह साहिर को पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गया। बीयर की बोतल, चिकन-सैंडविच और सिगरेट का डिब्बा रख दिया और कहा, ‘लो यहाँ बैठो। चार घंटों बाद दरवाज़ा खोलेंगे।’
उसने बाहर से कुंडी लगा दी और साहिर को भीतर बंद कर दिया।
साहिर ने बीयर पी और सो गया।
चार बजे उठा तो कमरा बंद था।
शाम के सात बजे मुशायरा था।
जाफ़री छह बजे आया, दरवाज़ा खोला। साहिर सिगरेट के कश लगा रहा था और बैठा लिख रहा था।
नज़्म तैयार थी।
मुशायरे की अध्यक्षता फ़िराक गोरखपुरी कर रहे थे। बहुत ही जोशीला मुशायरा था। बहुत से कवियों ने अपनी नज़्में पढ़ीं।
जब साहिर ने नज़्म पढ़ी तो सन्नाटा छा गया। ख़ामोशी पसर गई। मौत का साया लरज़ उठा। ख़ून के छींटे और ज़ुल्म की चिंगारियां उड़ीं और दिलों के भीतर नज़्म के शब्द उतर गए। लोगों को अब तक याद हैं ये शब्द :
ख़ून आख़िर ख़ून है जम जाएगा
ज़ुल्म आख़िर ज़ुल्म है.....
आज साहिर नहीं रहा। फ़िल्मी गीतों की दुनिया बेवा हो गई। उसका सुहाग उज़ड़ गया। उसकी चूड़ियां टूट गईं। अब कौन लिखेगा ज़ुल्म के गीत, यौवन के गीत, रात के सन्नाटे और तड़प के गीत।
अब साहिर का घर सूना है। उसकी माँ नही, उसका अब्बा नहीं उसकी कोई भाई नहीं, उसकी कोई बीवी या बेटा नहीं। यह घर भी साहिर की भाँति उस एकाकीपन का हुंगारा बन कर रह गया है।
परंतु उस के गीत उसी तरह जवां है, उनमें साहिर की मासूम हँसी और ग़म गूंजता है।
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बहुत-बहुत आभार हरीश जी। आमंत्रण के लिए भी धन्यवाद ।
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