(कहते हैं पुस्तकों से बढ़कर कोई साथी नहीं। आज हिन्दी और अन्य प्रादेशिक भाषाओं में ढेर सारा साहित्य रचा जा रहा है। पहले की तुलना में प्रकाशन बहुत आसान भी हो गया है। फिर भी लोग पाठकों की कमी की दुहाई देते हैं कि पुस्तकें बिकती नहीं। पहले तो प्रकाशन के लिए इतनी मशख्कत, फिर क्रेता यानी पाठक नदारद। लेकिन, बंगाल में आज भी पुस्तक संस्कृति कायम है। लोग उपहार में पुस्तकें देते हैं और खरीदते भी हैं। कोलकाता का पुस्तक मेला तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात है। यहाँ के जनमानस के हृदय में पुस्तक मेला तीज-त्योहारों सा महत्व रखता है। पुस्तकों की खरीददारी के लिए लोग बकायदा साल भर बजट बना कर पैसा जमा करते हैं। साल भर बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं इस आयोजन का।
यहां प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।
गोधूलि गीत का शमीक उस युवा पीढ़ी के लिए उदाहरण हैं, जो आज अंधेरे के गर्त की ओर अग्रसर होती जा रही है और पैसे कमाने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकती और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेर लेती है लेकिन इसी समाज में शमीक जैसे अपवाद भी मौजूद हैं। आगे आप खुद ही पढ़िए विस्तार से.....)
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
बंबई के नरीमन प्वाइंट की गगनचुंबी इमारतों में से एक बहुमंज़िली इमारत की पंद्रहवीं मंज़िल में मुलायम कार्पेट बिछे सुंदर से एक कमरे में काम में मग्न है शमीक। वह जिस रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा है, उसके ठीक पीछे दीवार पर शीशे की खिड़की है। फिर समंदर इतने क़रीब है कि किसी भी क्षण उछल पड़ेगा। यहाँ से भी कभी-कभी लहरों की गर्जना सुनाई देती है। चौपाटी बीच के उस तरफ मालाबार हिल की रंग-बिरंगी गगनचुंबी इमारतें फ्रेम में जड़ी शानदार तस्वीर जैसी प्रतीत होती हैं। हवा के झोंके आकर शमीक के शैंपू किए बालों से अठखेलियां कर रहे हैं फिर भी वह अभी फाइल देखने में व्यस्त है। बहुत बड़े सुंदर से इस कमरे में मीठी-मीठी सी सुगंध फैली हुई है। काँच के बड़े से टेबल पर एक तरफ दो रंगीन फोन रखे हैं दूसरी तरफ चपरासी कॉफी का जो कप रख गया है, वह ज्यों का त्यों पड़ा है। शमीक ने एक भी चुस्की नहीं ली। नहीं ली, मतलब शायद भूल गया है। वेस्टर्न कन्सट्रक्शन कंपनी का वह चीफ इंजीनियर है। एक साथ उनकी चार साइटों पर काम शुरू होने वाला है।
फाइलें इन चारों साइटों से संबंधित हैं। किस साईट पर कौन जाएगा, कितने लोग जाएंगे, मशीनें वगैरह आगे-पीछे कहाँ-कहाँ भेजनी होंगी, नहीं होंगी और निर्धारित समय से कितना पहले काम ख़त्म होने पर कितने पर्सेंट नफा होगा, ऐसी बहुत सी चिंताएं शमीक के दिमाग में घुमड़ रहीं हैं। पिछले दस दिनों से क्लायंटों से मीटिंगों के साथ-साथ इन चारों साइटों पर कई बार घूम आया है। अब काम शुरू कर देना होगा। अत: लंच से पहले ही ये फाइलें......
‘सर’! दरवाज़े के बाहर चपरासी शिवरामकृष्ण दिखा। धीमे-धीमे क़दमों से कमरे में आकर वह विनीत स्वर में बोला – ‘सर, कोई सज्जन आपसे मिलना चाहते हैं’।
‘अब कैसे संभव है? लंच के बाद मिलने के लिए कहो।’
‘सर, मैंने कई बार कहा, लेकिन वह आदमी मानता ही नहीं। मैंने उनका नाम भी पूछा था, नहीं बताया।’
‘कमाल है ! नाम-धाम नहीं बताना चाहता, उसे समय कैसे दूं? तुम जाकर कहो मैं डेढ़ बजे के बाद मिलूंगा।’
शिवरामकृष्ण चला गया और कुछ मिनटों बाद लौट भी आया। ‘सर, वे कुछ नहीं सुनना चाहते। आपसे अभी मिलना चाहते हैं। मैंने कई बार पूछा है, परंतु नाम क्या है, कहां से आए हैं, क्यों मिलना चाहते हैं, किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया।’
शमीक के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था। या मिलने की यह नवीनतम तकनीक है परंतु ऐसा लहज़ा तो ठीक नहीं। नियमानुसार भी पर्याप्त नहीं है। कुछ भी नहीं कहना, कुछ नहीं बताना, पर मुलाक़ात करनी है। शमीक यदि अब न मिलना चाहे तो? यही तो स्वभाविक है। पहले से अप्वांयटमेंट न हो तो मुलाक़ात के लिए समय दे पाना मुश्किल हो जाता है। जो भी हो, भद्रपुरूष जब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं तो क्या किया जा सकता है ? न चाहते हुए भी शमीक ने धीमे स्वर में कहा - ‘भेज दो।’
एक मिनट भी नहीं गुज़रा होगा कि धीमे-धीमे क़दमों से कमरे में एक वृद्ध सज्जन आ खड़े हुए। सत्तर के लगभग उम्र होगी। पहले काफी खूबसूरत रहे होंगे, यह तो समझ आ ही रहा था। अब शायद गरीबी से जूझ रहे थे क्योंकि उनकी पोशाक काफ़ी गंदी सी लग रही थी। सर के लंबे बालों के साथ-साथ बढ़ी हुई दाढ़ी उन्हें और भी उपेक्षित बना रही थी। ऐसे व्यक्ति के साथ भला कोई कैसे सम्मानपूर्वक बात कर सकता है। कई लोग भद्रता दिखाने में भी कंजूसी करेंगे। पर शमीक की बात अलग है। उसकी परवरिश ही दूसरी तरह की है। काम में व्यस्त होते हुए वह असहज नहीं हुआ और पर्याप्त सम्मानपूर्वक कहा - ‘आप खड़े क्यों हैं, बैठिए’ !
वृद्ध सज्जन काफ़ी ज़्यादा समय लगाकर धीरे-धीरे शमीक के सामने वाली कुर्सी पर आ बैठे। टेबल के ज़रूरी क़ागज़ातों को समेटते हुए शांत स्वर में शमीक ने पूछा, ‘आपने अपना नाम नहीं बताया और मुझसे मिलना चाहा। किस काम से आएं हैं ज़रा बता देते तो.... ’
‘क्या तुम मुझे पहचान नहीं पा रहे हो?’ उपेक्षित व्यक्ति नहीं एक बड़े व्यक्तित्व का उलाहनाभरा स्वर! ‘पता था तुम नहीं पहचान पाओगे, परंतु तुम्हें दोष देकर फायदा भी तो नहीं। असली गुनाहगार तो मैं हूँ।’
शमीक के सीने में एक ख़ामोश सा भूचाल आ गया। कमरे में प्रवेश करते वक्त वृद्ध पर उचटती सी नज़र डाली थी। बातें सुनकर गहरी दृष्टि से उनकी ऑंखों में देखते ही उस भूचाल ने उसे बिलकुल ही तहस-नहस कर डाला। बीस-इक्कीस वर्षों के लंबे अंतराल पर हर तरफ से छुपाए रखने के बावजूद उनकी तीखी नाक और ऑंखें इस वक्त बड़ी जानी-पहचानी सी लग रही थीं। दरअसल पहचान पाने के लिए शमीक मानसिक रूप से तैयार नहीं था।
अपने-अपने कामों से कितने ही लोग उससे मिलने के लिए आते ही रहते हैं। उस वृद्ध व्यक्ति को शमीक ने ऐसे ही लोगों में से समझा था परंतु बीस-इक्कीस सालों बाद अरुण गांगुली इस तरह उसके सामने आ हाज़िर होंगे, यह तो उसने सोचा ही नहीं था।
शमीक अपनी कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ। इस समय उसके मन में कम रोष नहीं जो समय के साथ दब गया था, अब फिर तीव्र हो उठा। लेकिन शमीक तो मूर्ख नहीं है। मान-अभिमान की बात सोचना इस वक्त ठीक नहीं होगा। ऐसे में सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इतने सालों बाद भी अरुण गांगुली असहाय की भांति, विभ्रांत से उसके पास आए हैं। इसकी सार्थकता और महत्व असीम है। इन्हीं अरुण गांगुली ने एक दिन कहा था - ‘तुम मेरी औलाद की तरह हो, अब तुम्हारे बड़ा होने में मैं तुम्हारी ज़रा सी सहायता कर रहा हूँ, जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा तब तुम मेरी देखभाल करना।’
ये बातें जब उन्होंने कही थीं तब वे सैंतालीस-अड़तालीस वर्षीय मध्य वय: के थे और शमीक सिर्फ़ उन्नीस-बीस वर्षीय एक किशोर। ये सिर्फ़ कहने की बातें नहीं थीं। सचमुच ही उन्होंने शमीक के लिए बहुत कुछ किया था। शमीक भी उनके प्रति कृतज्ञ था। सिर्फ़ एक दिन के फैसले पर ग़लतफ़हमी पाल कर वह इन्हें छोटा नहीं दिखाएगा। इतने वर्षों बाद भी अरुण गांगुली अपराधबोध की गठरी लिए घूम रहे हैं, यह उनके चेहरे से ही स्पष्ट है. शमीक के पास लौटना इसी बात का तो प्रमाण है।
कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ा कर अरुण गांगुली कोमल दृष्टि से शमीक को देखने लगे। शमीक भी उनकी ऑंखों में ऑंखें डाल निहारता रहा। उम्र के मुकाबले अरुण गांगुली ज़्यादा वृद्ध हो गए हैं। बीस-इक्कीस वर्ष पूर्व आज की भांति साधारण पोशाक में उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सब कुछ में एक खालीपन सा रह जा रहा है जिसे शमीक सोच-विचार और युक्ति से भर नहीं पा रहा है। अरुण गांगुली स्थिर नज़रों से देखे जा रहे हैं। असंगति की भावना को मन से निकाल कर शमीक धीरे-धीरे आगे बढ़ा। दोनों हाथ बढ़ाकर चरणस्पर्श करते ही अरुण गांगुली ने उसे सीने से लगा लिया। लगातार लंबी सांस छोड़ते हुए स्नेह से उसका माथा चूमते हुए कहा, ‘तुझे मैंने उस दिन बहुत मारा था न?’ पहली बार अरुण गांगुली ने शमीक को तू कहकर संबोधित किया। वे बोले, ‘जानते हो, तुमसे भी ज़्यादा तकलीफ़ मुझे हुई थी। बहुत ज़्यादा।’ अरुण गांगुली चुपचाप रोने लगे। हाँ, सत्तर वर्षीय एक वृद्ध की ऑंखों से एक शिशु की भाँति ऑंसू निकल रहे थे।
कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ा कर अरुण गांगुली कोमल दृष्टि से शमीक को देखने लगे। शमीक भी उनकी ऑंखों में ऑंखें डाल निहारता रहा। उम्र के मुकाबले अरुण गांगुली ज़्यादा वृद्ध हो गए हैं। बीस-इक्कीस वर्ष पूर्व आज की भांति साधारण पोशाक में उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सब कुछ में एक खालीपन सा रह जा रहा है जिसे शमीक सोच-विचार और युक्ति से भर नहीं पा रहा है। अरुण गांगुली स्थिर नज़रों से देखे जा रहे हैं। असंगति की भावना को मन से निकाल कर शमीक धीरे-धीरे आगे बढ़ा। दोनों हाथ बढ़ाकर चरणस्पर्श करते ही अरुण गांगुली ने उसे सीने से लगा लिया। लगातार लंबी सांस छोड़ते हुए स्नेह से उसका माथा चूमते हुए कहा, ‘तुझे मैंने उस दिन बहुत मारा था न?’ पहली बार अरुण गांगुली ने शमीक को तू कहकर संबोधित किया। वे बोले, ‘जानते हो, तुमसे भी ज़्यादा तकलीफ़ मुझे हुई थी। बहुत ज़्यादा।’ अरुण गांगुली चुपचाप रोने लगे। हाँ, सत्तर वर्षीय एक वृद्ध की ऑंखों से एक शिशु की भाँति ऑंसू निकल रहे थे।
अरुण गांगुली के सीने से लगे रहकर उतनी ही देर में शमीक ने महसूस किया कि उन्हें तो बुखार है और उनके ऑंसू भी उसे भिगो रहे थे। शमीक ने जल्दी से कहा, ‘आपका बदन तप रहा है। उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। रुक-रुक कर वे काँपने लगे। दोनों बाँहे क्रमश: ढीली पड़ गई थीं। ऑंखें भी कैसे धुंधली सी होकर मुंदने लगी थीं। ऐसी स्थिति में भी अरुण गांगुली बोले - ‘इस उम्र में आत्मत्याग कर गृहस्थी के लिए कुछ करने की तुम्हारी सोच ने मुझे उद्वेलित किया था। पर जिनके लिए किया वे... ’
‘आपके आशीर्वाद से दोनों छोटी बहनों की अपनी क्षमतानुसार अच्छी परवरिश की है।’
‘मैं तुम्हें भगा न देता तो शायद तुम उन्हें और अच्छी तरह....’
‘ऐसा न कहें उस दिन की बात छोड़ दीजिए। वर्ना आपने मेरे लिए जो किया आजीवन मैं आपके प्रति सिर्फ़ कृतज्ञ ही नहीं, ऋणी रहूंगा।’ थोड़ी देर बाद शमीक ने फिर कहा, ‘नानू और सेवा दोनों ने ही बांग्ला में एम. ए. की। दोनों बहनों की अच्छे घरों और अच्छे वरों से शादियां की। नानू अब अपनी ससुराल में सिलीगुड़ी में है और सेवा चंडीगढ़ में। न्युबैरकपुर वाला घर भईया के पास ही है।’
‘और तुम्हारी माँ?’
‘माँ मेरे ही पास हैं। दो हफ्ते पहले सिलीगुड़ी गई हैं।’
‘बहुत खुशी हुई शमीक। मेरे कारण तुम थम नहीं गए। तुमने अपनी गृहस्थी संवारी, खुद इतने बड़े बने। मुझे कितनी खुशी हो रही है, तुम्हें समझा नहीं सकता परंतु तुम्हारे प्रति मैंने जो अपराध किया है, उसकी क्षमा कैसे मिलेगी?’
‘कृपया ऐसा मत कहें !’ ‘’
‘शमीक तुम मुझसे छोटे होकर भी बहुत बड़े बन गए हो। मेरा इतना महत्व नहीं है..... मेरा.....’ अचानक बोलना रुक गया. अरुण गांगुली बेहोश होकर गिर ही पड़ते, किसी तरह उन्हें संभाल कर शमीक सहायता के लिए चिल्ला उठा - ‘शिवराम ! शिवराम’!
नहीं, शमीक अरुण गांगुली को लेकर बंबई के किसी नर्सिंग होम या अस्पताल नहीं गया। अपनी गाड़ी में बिठाकर सीधे पहुंचा कंपनी द्वारा मिले खार के फोरटिंथ एवेन्यू के सुसज्जित फ्लैट में। तुरंत डॉ. जौहरी को फोन किया पर पता नहीं क्यों निश्चिंत नहीं हो पा रहा था। बंबई के एक और डॉक्टर कारेंजकर से भी घर आने का अनुरोध किया।
अरुण गांगुली अब शमीक के कमरे में लेटे हुए हैं। सिर्फ़ शमीक का कहना ग़लत होगा। यह कमरा अभिरूपा का भी है। अभिरूपा कलकत्ते की है और नौ साल हुए शमीक से शादी को। शादी के बाद बंबई आई और तब से इसी घर में है. बड़े सलीके से सजाए -संवारे कमरे के मंहगे पलंग और चमचमाते बिस्तर पर लगभग मैली-कुचैली पोशाक में एक वृद्ध पड़ा हुआ है। शुरु से ही मामला इतना बुरा लग रहा है कि क्या कहा जाए। यद्यपि अभी अभिरूपा ने पति से कुछ कहा नहीं है। हाँ, कहने का मौक़ा भी तो नहीं मिला परंतु मन ही मन वह काफ़ी असंतुष्ट हुई। किसी बाहरी व्यक्ति को इस तरह अपने कमरे में रखने का क्या मतलब है? घर में तो और भी कमरे थे। और, शमीक ने उससे एक बार पूछने की भी ज़रूरत महसूस नहीं की। लेकिन, वृद्ध फुटपाथी आदमी है ऐसा लगने जैसी कोई बात नहीं है। पहली बात तो उसे बेडरूम में लिटा रखा है, उससे भी बड़ी बात शमीक की व्यग्रता। एक भयावह फ़िक्र ने उसे घर रखा है। बंबई के दो मशहूर डॉक्टरों को एक साथ बुलाना यही तो साबित करता है। सिर्फ़ इतना ही? तिस पर भी शमीक की सजगता। इस वृद्ध का सिर मामूली सा एक तरफ को लुढ़क गया था, तुरंत शमीक ने काफी सतर्कता और अपनेपन से तकिए पर उनका सिर टिक दिया। इस छोटे से काम में ही शमीक की ममता या स्नेह जिस तरह परिलक्षित हो रहा है, ठीक उसी तरह इस व्यक्ति की अदृश्य शक्ति कितनी विशाल है, इस बात को महसूस किया जा सकता है।
सोच-विचार छोड़ अभिरूपा पति की ओर बढ़ी. शमीक की ऑंखों में देख धीमे स्वर में पूछा, ‘यह आदमी कौन है?’
‘आदमी ! किसे आदमी कह रही हो?’
‘जिसे हमारे बिस्तर पर लिटा रखा है। ’
‘तुमने इसे ही बड़ी बात समझा। वो बीमार हैं, किसी भी पल...’
‘सो तो समझ रही हूँ।’ अभिरूपा ने अपनी बात में संशोधन किया और कहा,
‘वे कौन हैं?’
‘इसी वक्त यह जानना ज़रूरी है क्या?’ शमीक ने करुण हँसी हँसते हुए कहा, ‘तुम बड़ी नासमझ बनती जा रही हो रूपा? इस वक्त जो करना चाहिए....शमीक अपनी बात पूरी नहीं कर पाया। डॉ. जौहरी और डॉ. कारेंजकर दोनों को एक साथ आते देख कर चिंतित सा उनकी अगवानी मे बढ़ते हुए बोला - ‘आईए, आईए।’
दोनों डॉक्टरों ने अरुण गांगुली को देखा। इलाज की सुविधा के लिए शमीक ने पहले से ही बता दिया था कि यद्यपि उन्हें बुखार है परंतु यह अस्वस्थता सिर्फ़ बुखार की वजह से हो, ऐसा नहीं लगता। वे बार-बार सीने में दर्द की शिकायत करे रहे थे। डॉ. जौहरी और डॉ कारेंजकर शमीक की बातें सुनते-सुनते ही अपना काम करने लगे। डॉ. जौहरी ने अरुण गांगुली का ब्लड प्रेशर देखा, ई. सी. जी. किया। आधे घंटे तक जांच करने के बाद डॉ. जौहरी ने कहा, ‘इट इज़ ए केस ऑफ माइल्ड स्ट्रोक।’ लेकिन रोगी को ज़्यादा हिलाए-डुलाए नहीं. जिस स्थिति में हैं उसी स्थिति में और दस-बारह घंटे पड़ा रहने दें।
सात-आठ दिन गुज़र गए। अरुण गांगुली की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। बल्कि इन दिनों में स्वास्थ्य और ख़राब हो गया था। यही शमीक के फ़िक्र का कारण था. इतनी अच्छी चिकित्सा और बंदोबस्त के होते हुए भी अरुण गांगुली स्वस्थ्य क्यों नहीं हो पा रहे?
रात और दिन के लिए अलग-अलग दो नर्सें रखी हुई हैं। कितनी तरह की मंहगी-मंहगी दवाएं लाई गईं। इसका तो कोई लेखा-जोखा ही नहीं है. और, डॉ. जौहरी तथा डॉ. कारेंजकर दोनों ही दोनों वक्त आ रहे हैं. वे तो बार-बार देख ही रहे हैं, नई-नई दवाएं लिख रहे हैं और घड़ी देखकर वे दवाएं खिलाई भी जा रही हैं परंतु बात नहीं बन रहीं. अत: शमीक का दुखी होना स्वभाविक है. अरुण गांगुली को स्वस्थ्य करने के लिए उसने क्या नहीं किया? प्रथम तीन दिन तो वह दफ्तर ही नहीं गया। चौथे दिन से सिर्फ़ दफ्तर ही जा रहा है, बाकी पूरा समय अरुण गांगुली को ही लेकर बीत रहा है। दो नर्सों के होते हुए भी वह रात को निश्चित होकर सो नहीं पाया। हरदम साये की भाँति लगा रहा। कब कौन सी दवा और पथ्य दिया जा रहा है, तकलीफ़ घट रही है या बढ़ रही है, हर तरफ वह सजगता से ग़ौर कर रहा है।
इसी विषय में उस दिन अभिरूपा से उसकी तक़रार भी हो गई। उनकी एक मात्र बिटिया अभी साढ़े छह साल की है। कुछ दिनों से उसकी तबीयत भी ठीक नहीं चल रही। इसी बात की शिकायत है अभिरुपा को। अत: उसने क्रोध से ही कहा, ‘एक पराए व्यक्ति की चिकित्सा में दिन-रात लगे हुए हो, अपनी बेटी की कोई फ़िक्र है तुम्हें?’
‘क्यों, क्या हुआ तितिल को?’
‘स्कूल में सिर चकराकर गिर पड़ी थी. उसके अलावा रोज़ ही रात को थोड़ा बुख़ार हो जाता है।’
‘तुम तो हो ही। डॉक्टर भी सुबह-शाम दोनों वक्त घर पर आ ही रहे हैं।’
‘मेरा होना ही सब कुछ है?’ अभिरूपा ने सीधे-सीधे ताना दिया - ‘तुम नहीं हो? अपनी बेटी के लिए जो कुछ भी नहीं करता, पराए के लिए इतना करने की क्या ज़रूरत है?’
‘अभिरूपा ! तुम ज़्यादती कर रही हो।’ शमीक वैसे पत्नी को संक्षेप में रूपा कहकर ही बुलाता है परंतु गुस्से में हो तो पूरा नाम ही लेता है और ये पूरा नाम सुनना अभिरूपा के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। दफ्तर के काम से बाहर जाते समय सब कुछ समय पर ठीक-ठाक न मिलने पर भी शमीक यही पद्धति अपनाता है। दरअसल वह जितना नाराज़ नहीं होता उससे भी ज़्यादा उस मुद्दे को महत्व देना चाहता है। जो भी हो अभिरूपा पर लेशमात्र भी असर नहीं हुआ। उल्टे उसने भी कहा - ‘ज़्यादती तो तुम ही कर रहे हो, राह चलते एक आदमी को...’
‘प्लीज़ अभिरूपा, प्लीज़! वे राह चलते आदमी नहीं हैं।’
‘तो कौन हैं?’
‘मैं तुम्हें बताऊंगा - ज़रूर बताऊंगा, परंतु बताने का समय चला तो नहीं गया ? बिना वजह तुम उतावली क्यों हो रही हो?’
‘बिना वजह? जो व्यक्ति मेरे लिए पूर्णत: अपरिचित है, उसके लिए तुम क्या-क्या नहीं कर रहे हो? किसी अस्वस्थ्य व्यक्ति के लिए कुछ करना अवश्य अच्छी बात है परंतु जिसकी फ़िक्र में तुम्हारा ऑफ़िस जाना छूट गया, नहाना-धोना, खाने-पीने की सुध नहीं, अपनी बेटी की सुध लेने का भी समय नहीं। ऐसे में उस व्यक्ति के बारे जानने की इच्छा क्या अकारण है? मामला मेरी समझ में नहीं आ रहा। लगता है तुम कुछ छुपा रहे हो।’
‘सवाल ही नहीं उठता।’ शमीक ज़रा सा उत्तेजित हो गया। ‘अगर ऐसी बात होती तो मैं उन्हें घर पर क्यों लेकर आता? अपना बेडरूम ही क्यों दे देता? और, इलाज का यह इतना बड़ा आयोजन भला किस लिए? इससे क्या साबित होता है कि मैं कुछ छुपा रहा हूँ? दरअसल रूपा तुम नहीं जानती कि वे कौन हैं? जब जान जाओगी, उस दिन तुम भी उनके लिए अवश्य ही ऑंसू बहाओगी। मैंने तो सोच ही रखा है कि तुम्हें सब कुछ बताऊंगा। बस ज़रा सी मोहलत चाहता हूँ, क्योंकि टुकड़ों-टुकड़ों में बताने से बहुत कुछ अनकहा रह जाएगा। यह मैं नहीं चाहता। प्रत्येक दिन की प्रत्येक घटना चित्र की भाँति तुम्हारे समक्ष पेश करूंगा ताकि तुम सब कुछ महसूस कर सको। उसी तरह तुमसे कहना चाहता हूँ रूपा - सिर्फ़ इन दिनों तुम मुझे ज़रा समझने की कोशिश करो।’
उस दिन ऑफिस से लौटने में शमीक को काफ़ी रात हो गई। घर लौटकर वह उसी पोशाक में ही सीधे अरुण गांगुली के सिरहाने जा खड़ा हुआ। ऑफिस के काम में भी उसका मन नहीं लग रहा था। मन घर की तरफ ही लगा हुआ था। अरुण गांगुली की स्थिति क्रमश: बिगड़ती जा रही थी। सुधार के लेशमात्र भी लक्षण नज़र नहीं आ रहे थे। हाँ, डॉक्टर जौहरी और कारंजीकर लगातार आश्वासन दे रहे थे। उन बातों से शमीक के मन को राहत नहीं मिल रही थी, परंतु यकीन किए बिना कोई चारा भी तो नहीं। रात-दिन उसे एक ही फ़िक्र है कि वे जल्दी से जल्दी ठीक हो जाएं। इस वक्त शमीक इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहता। आज घर लौटने में उसे काफ़ी रात हो जाएगी। महत्वपूर्ण बोर्ड मीटिंग होनी है। वह सब निपटाए बगैर तो घर लौटना मुमकिन नहीं। शमीक ने लगभग चार बार घर फोन किया। चारों बार नर्स ने बताया कि मरीज़ की स्थिति ज्यों की त्यों ही है।
सिरहाने खड़े होकर शमीक ने एक टक अरुण गांगुली के चेहरे की तरफ देखा। इतना निर्जीव लग रहा है कि साँस चल रही है या नहीं, यह भी पता नहीं चल रहा। धीमे स्वर में नर्स से बात कर शमीक ने दिन भर का समाचार पूछा। अचानक अरुण गांगुली ने ऑंखे खोलकर देखा। काफ़ी देर बाद अस्फुट स्वर में कहा, ‘कौन शमीक?’
‘जी !’ शमीक बिस्तर के पास बैठ कर काफ़ी झुककर अरुण गांगुली के क्लांत चेहरे को देखने लगा।
‘कब लौटे ? ’
‘अभी-अभी।’
अरुण गांगुली ने अपना कमज़ोर हाथ बढ़ाकर शमीक के दाहिने हाथ का स्पर्श किया। उनकी दोनों ऑंखों में कृतज्ञता झलक रही थी। बहुत ही धीरे-धीरे कहने लगे -‘तुमने मेरे लिए जो किया.....’ अरुण गांगुली ने अपना कमज़ोर हाथ बढ़ाकर शमीक के दाहिने हाथ का स्पर्श किया। उनकी दोनों ऑंखों में कृतज्ञता झलक रही थी। बहुत ही धीरे-धीरे कहने लगे - ‘तुमने मेरे लिए जो किया....’
‘फ़िर आपने वही बातें शुरू कर दीं?’
‘न कहूँ?’
‘नहीं, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जो आप बार-बार दोहराते रहें। जो किया है, वह मुझे करना चाहिए था।’
अरुण गांगुली स्थिर नज़रों से शमीक की तरफ देखते रहे। दोनों ऑंखों में पानी झिलमिला रहा था। बहुत कोशिश करने के बावजूद वे उसे रोक नहीं पाए। शमीक ने जेब से रूमाल निकाल कर अरुण गांगुली की गीली ऑंखें पोंछ दीं। किसी तरह इतना ही कह पाया, ‘आप यदि ऐसा करेंगे तो मैं खुद पर कैसे काबू पाऊंगा?’
‘तुम्हारी तरह दृढ़ संयमी तो कभी मैं भी था। अब जाने का समय हो आया और कितना दृढ़ रहने को कहते हो? शमीक तुमसे एक बात कहनी थी बेटा!’
नर्स ने तुरंत रोकते हुए कहा, ‘कृपया आप और नहीं बोलेंगे। आपका दिल बहुत कमज़ोर है। बोलना मना है।’
अरुण गांगुली ने उसकी बात नहीं सुनी, बल्कि नर्स से ही अनुरोध कर कहा, शमीक से मुझे दो बातें करनी हैं। ये उसे बतानी ही पड़ेंगी। ‘यदि आप बुरा न मानें तो ज़रा बाहर से घूम आईए।’
कमरे से नर्स के बाहर निकलते ही अरुण गांगुली ने एक लंबी साँस छोड़ते हुए कहा, ‘जिस कारण तुम्हें उस दिन निर्दयी की भाँति पीटा था, उस ग़लतफ़हमी को दूर होने में मुझे एक हफ्ता भी नहीं लगा, और उसके बाद से ही मुझे तुम्हारी ये बात कचोटने लगी, ‘आपने मुझे बेवजह ही मारा है।’ तुम्हारा ये छोटा सा वाक्य अभी भी नश्तर की भाँति मेरे सीने में गड़ा हुआ है शमीक। और उस सज़ा का बोझ अब भी मैं लादे घूम रहा हूँ। यह कितनी बड़ी सज़ा है, किसी को कहकर समझाया नहीं जा सकता। मैं उसे रोज महसूस कर रहा हूँ।’
‘कृपया अब आप ज़रा चुप हो जाईए। आपकी तबीयत और ख़राब हो सकती है।’
‘मुझे अब अच्छा होने की क्या ज़रूरत है शमीक? परंतु तुम्हारे पास अगर इतनी भी स्वीकारोक्ति न करूं तो और कितना हीन बनकर रहूँ?’
‘जानते हो शमीक, आज मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। अब तक मुझे मृत्यु का भय था - अब वह मृत्यु भी अच्छी लग रही है।’
शमीक ने संक्षेप में पूछा - ‘अब वे कहाँ हैं?’
बासंती की बात कह रहे हो - ‘वह तो नागपुर में है।’
‘और आपकी बेटी ?’
‘चुमकी फिनलैंड में है। उसका पति वहीं नौकरी करता है।’
‘सुनील शिवलकर?’
‘नहीं, करुण स्वर में अरुण गांगुली ने कहा।’ चुमकी के साथ अंतत: सुनील की शादी नहीं हुई। चुमकी ने ही आपत्ति की थी लेकिन, वह तुमसे शादी करना चाहती थी, परंतु तब तक बहुत देर हो गई थी। बहुत देर। दरअसल चुमकी ने तुम्हें ढूँढ निकालने की बात की थी। शर्मसार होकर नहीं कर पाया। शर्म छुपाने के लिए सिर्फ़ इतना ही कहा था, ‘बेटी बहुत देर हो गई है, बहुत देर।’
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इसके बाद दो दिन भी नहीं गुज़रे। अरुण गांगुली गुज़र गए। तब शाम के साढ़े पाँच बजे होंगे. शमीक कंपनी की एक मीटिंग में था. वहीं घर से फोन मिला। अभिरूपा का स्वर - ‘तुम जल्दी ही घर आ जाओ।’
‘क्या बात है, रूपा ? कोई बुरी ख़बर तो नहीं है?’
‘तुम आओ तो सही।’
‘मैं सब कुछ सुनने के लिए तैयार हूँ. तुम मुझे खुल कर कह सकती हो।’
अभिरूपा का निस्तेज स्वर सुनाई दिया, ‘अरूण गांगुली..... गुज़र गए हैं।’
शमीक के लौटते ही नर्स ने सबसे पहले बताया - ‘रोज़ की भाँति भोजन करने के पश्चात् वे सो रहे थे। शाम को जगाने के वक्त समझ में आया.... तुरंत डॉ. जौहरी को सूचना दी। वे आ भी गए, परंतु तब तक कुछ भी करना बाकी नहीं रहा. डॉ. जौहरी अब तक थे, आपके आने से पाँच मिनट पहले चले गए।’
यह समझ नहीं आ रहा था कि शमीक ध्यान से बातें सुन रहा था या नहीं क्योंकि वह पागलों की भाँति चारों तरफ नज़रें दौड़ा रहा था। शून्य निगाहों से बार-बार अरूण गांगुली के चेहरे की ओर देखते रहने के बावजूद मन ही मन वह कुछ और सोच रहा था। और यही सोच-विचार उसे अन्यमनस्क करने के लिए पर्याप्त था. शमीक की उम्र जब उन्नीस-बीस वर्ष थी। तब वह इस व्यक्ति के पास एक नौकरी के लिए गया था। सिर्फ़ नौकरी ही नहीं इसके साथ-साथ उसे उनका स्नेह भी मिला था। परंतु उस झंझावात ने आकर सब कुछ तहस-नहस करके रिश्ते को ही शमशान बना दिया था. फिर भी बीस-इक्कीस वर्ष बाद अरुण गांगुली उसी के पास लौट आए थे। वही व्यक्ति थोड़ी देरी पहले चलता बना।
सबसे पहले जो विचार शमीक के दिमाग में कौंधा, वह था बासंती गांगुली को सूचित करे या नहीं। उनके विरुद्ध शमीक के चाहे कितने ही अभियोग क्यों न हों - अंतिम समय में पति के पास आने का मौका तो शमीक को देना ही चाहिए। बासंती गांगुली ने जो अन्याय किया उसे कोई समर्थन नहीं देगा परंतु सूक्ष्मता से यदि सोचा जाए तो उन्हें भी दोषी नहीं माना जा सकता। हाँ, अपमान और अपवाद का भारी बोझ शमीक के सिर थोप देने के बावजूद वह ऐसा ही सोच रहा है।
किसने क्या किया, क्या नहीं किया, यह हिसाब-क़िताब करने का समय नहीं है। जो कर्तव्य निभाने चाहिएं शमीक उन्हीं के बारे में सोच रहा है। नागपुर में बासंती गांगुली को इसी वक्त सूचित करना होगा। वे यदि सुबह की पहली या दूसरी फ्लाइट भी पकड़ें तो दोपहर से पहले ही यहाँ पहुँच जाएंगीं। इस समय तक शमीक को इंतज़ार करना होगा। इसके बाद भी अगर बासंती गांगुली न आएं तभी शमीक दाह-संस्कार का सारा बंदोबस्त करेगा। अब सिर्फ़ एक दिन इंतज़ार करने की बारी है।
रात के दस या पौने दस बजे होंगे। एक इन्सान का जीवन कितना भयानक एकाकी हो सकता है, शव के पास बैठा शमीक यही सोच रहा था। ऐसी स्थिति से दो-चार होने के बारे वह सोच भी नहीं सकता था। जबकि वास्तव में क्या नहीं होता। अरुण गांगुली के शव को संभाले रखकर सारी रात जगे रहना होगा - ऐसा उसने कभी सोचा भी नहीं था। शमीक को अब उसी कर्तव्य का निर्वहन करना पड़ रहा है। हाँ, इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण काम करने बाकी हैं। अत: शमीक ज़रा भी विचलित नहीं है। बल्कि एक महान व्यक्ति के काम आकर वह खुद को भाग्यशाली ही समझ रहा है।
कमरे में प्रवेश कर अभिरूपा ने प्यार से पति की ओर देखा। कोमल स्वर में कहा, ‘तुम कुछ खाओगे नहीं? ऑफिस से आकर अब तक कुछ भी मुँह में नहीं डाला। इस तरह बैठे मत रहो - चलो उठो।’
‘खाने को जी नहीं चाह रहा रूपा।’
‘ऐसे समय किसी का जी नहीं करता, फिर भी थोड़ा सा खाना ही पड़ता है।’
‘तुमने खाया?’
‘नहीं।’ अभिरूपा ने खुद को संयत करने की कोशिश की। उसकी ऑंखें छलछला रही थीं। गला भी रूंधता जा रहा था। ऐसे में ही उसने करुण आवाज़ में कहा, ‘पता है इसी बीच उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था, मैं अच्छा हो जाऊँ, फिर जी भर कर तुम्हारे हाथों का बना खाना खाऊंगा। मुझे ठीक समझ नहीं आ रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा। इसी कारण बिलकुल भी खाने को जी नहीं चाहता। उनकी वही बात बार -बार याद आ रही है।’
‘तुम्हें तो यही एक बात बार -बार याद आ रही है और मुझे?’ शांत से स्वर में शमीक कहने लगा - ‘कितने दिनों की कितनी बातों ने हमें घेर रखा है - क्या वे भूली जा सकती हैं? एक भी बात मैं नहीं भूला रूपा। सारी घटनाएं, सारी बातें तस्वीर की भाँति मेरे मन पर चित्रित हैं। समय का इतना लंबा अंतराल चाहकर भी उन्हें पोंछ नहीं पाया। इतनी अच्छी तरह याद है मानो अभी दो दिन पहले की ही बात हो। जबकि ये सब आज की बातें नहीं हैं।’ बात ख़त्म करके शमीक कुछ देर ख़ामोश रहा। फिर कुछ सोचते-सोचते अचानक बेटी के बारे पूछा - ‘तितिल सो गई ?’
‘हाँ, उसे खिला-पिला कर सुला दिया है।’
शमीक ने कहा, ‘तुम तब से खड़ी-ख़ड़ी ही बातें कर रही हो। मेरे पास आकर बैठो। मृत व्यक्ति को सामने रखकर उसकी ज़िदगी की बातें करूंगा। तुमने तो बार-बार उनके बारे में जानना चाहा था। सब कुछ बताने के लिए मैं भी तैयार था, सिर्फ मौका नहीं मिल रहा था। अब तो समय ही समय है।’
‘अभी न सुनने से भी चलेगा।’
‘नहीं रूपा, मैंने तो तुमसे कहा ही था कि सब बताऊंगा। डायरी की भाँति रोज़ की हर बात तुम्हें बताऊंगा। मुझे तो लगता है आज ही वह समय है। उससे पहले तुम्हें एक बात बता दूं - सब कुछ जानने के बावजूद तुम अरुण गांगुली की पत्नी बासंती को अंतत: क्षमा कर देना। वर्ना मृतक की आत्मा को चैन नहीं मिलेगी। यही माफी ही तो अरुण गांगुली ने मुझसे बार-बार माँगी थी। जो भी हो रूपा, शुरू की उस कहानी तक पहुँचने के लिए तुम्हें काफी पीछे लौटना होगा। काफी पीछे......... ’
.....जारी।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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