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बुधवार, मई 18, 2011

धारावाहिक बांग्ला उपन्यास - 5

 
(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत

0 समीरण गुहा

      बंबई की ट्रेन जब हावड़ा स्टेशन के नौ नंबर प्लैटफॉर्म पर रुकी तब पौने तीन बजे होंगे।  ट्रेन सात घंटे लेट थी। देश की एक मशहूर ट्रेन का अगर यह हाल है तो और क्या कहा जा सकता है। फिर भी कहना होगा, देश महान है। देश उन्नति कर रहा है।
      स्टेशन से बाहर निकल टैक्सी के लिए लाइन में आ खड़े हुए शमीक और चुमकी। उनके आगे साठ - पैंसठ लोगों की लाइन थी यानी टैक्सी मिलने में ज़रा समय लगेगा। शमीक की कमीज़ की पीठ पर कुछ गंदगी लगी हुई थी, उसे हाथ से झाड़कर चुमकी ने कोमल स्वर में जानना चाहा, हम न्युबैरकपुर कैसे जाएंगे? मतलब ये टैक्सी मिल जाने के बाद फिर चढ़ने-उतरने का चक्कर तो नहीं है?
चढ़ना-उतरना मतलब सियालदह स्टेशन पर टैक्सी छोड़ वहाँ से हम लोकल ट्रेन पकड़ न्यु बैरकपुर पहुँच जाएंगे। स्टेशन से लगभग सटा हुआ हमारा घर है।
      टैक्सी से ही क्या नहीं जाया जा सकता?
 शमीक ने मासूमियत से हँसते हुए कहा,क्यों नहीं जाया जा सकता? बहुत किराया लग जाएगा।
      अरे भई जो लगेगा सो लगेगा। डेढ़ सौ, दो सौ, तीन सौ रुपए - तुम्हें वह सब फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। बरसात में मोर जिस तरह पंख फैलाकर नाच उठता है उसी तरह होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए चुमकी ने कहा, आते समय पिताजी ने कितने रुपए दिए हैं पता है? सुनकर तुम अनायास मुझे लेकर भाग सकते हो। भागोगे क्या? माता-पिता ने तुम्हें एक अच्छा मौक़ा ....... गंगा से बहती आ रही हवा में चुमकी के चिकने और कोमल बाल उड़ रहे थे। उन्हें संभालते-संभालते वह अपनी रसिकता में बहती चली। लाइन में खड़े लोग जींस और शर्ट पहने, खुले बालों वाली बाला की उन्मुक्त हँसी की आवाज़ सुनकर कौतुहलवश उधर ही देखते रहे। ऐसी उन्मुक्त हँसी वाली लड़की की तरफ देखे बिना भला रहा जा सकता है? हमेशा प्रेमी की निगाहों से ही देखा जाए, इसका क्या मतलब है?
     शमीक ने पूछा, कलकत्ते में क़दम रखते ही तुम्हारी हँसी बहुत बढ़ गई है। तुम्हें क्या कोई विशेष मुक्ति पत्र मिला है?
      ये जो तुम्हें पल्लू से बाँध रखने का मुक्ति पत्र। 
जींस की पैंट में पल्लू है कहाँ? शमीक ने हैरान होकर पूछा।
      हाँ, सही कहा तुमने। फिर एक ज़ोरदार ठहाका। उस ठहाके को सुनकर अस्वभाविक रूप से लेट ट्रेन के यात्री लाइन में लगे टैक्सी मिलने में हो रही देर से तनिक भी विरक्त नहीं हुए।  ठहाका लगाने वाली की तरफ वे देखे जा रहे हैं। शमीक की पीठ पर उंगलियां चुभोते हुए चुमकी ने कहा, मुझे लेकर भागने का क्या हुआ? ऐसा मौक़ा भला कोई छोड़ता है?
      मैं छोड़ता हूँ।
      तुम तो नीतिबागीश हो! खिलखिला कर हँस पड़ी चुमकी। उसके बाद आवाज़ को मोटा करते हुए पुरुष की भंगिमा में बोली, विश्वास, मर्यादा, शालीनता-सभ्यता, नीति और आदर्शों के फेस्टून सीने से चिपका सर ऊँचा उठाकर घूमना ही तो पसंद करते हो तुम। धत्त, तुम्हारे साथ कौन भागना चाहेगा? तुम्हारे साथ भाग कर कोई सुख नहीं है। मन की गहराई में कोई हिलोर ही नहीं उठती।
      लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। चुमकी और शमीक से आगे लगभग पंद्रह लोग थे।  कितनी टैक्सियां चैनल में घुस रही हैं कितनी नहीं, उस पर नज़र रखे हुए भी वह उन्मुक्त मज़ाक के लहज़े में बोल उठा - भागने की क्यों पड़ी हुई है? कितनों के साथ भागोगी? इसके बाद सुनील शिवलकर तुम्हारे पाँवों में लोहे के जूते पहना देगा।
      वेल सेड शमीक, वेल सेड। ठीक कहा किंतु... चुमकी ने दबे स्वर में कहा, अगर मैं तुमसे प्यार कर पाती तो कौन मेरे पाँवों में बेड़ियां डालेगा और कौन लोहे की जंजीरों वाले जूते पहनाएगा इसकी परवाह ही नहीं करती।  लेकिन.... बताओ तो मैं क्यों तुम्हें चाह नहीं सकी?
      क्योंकि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ।
      धत्त। प्रेम, चाहत... चुमकी इतना ही कह पाई थी कि शमीक ने उसे आगे करके सामने खड़ी टैक्सी में धकेल कर कहा, प्यार को रहने दो, पहले चढ़ लो। और टैक्सी ड्राइवर गंतव्यस्थल का नाम सुनते ही खुशी से स्पीड बढाकर हावड़ा ब्रिज अर्थात् रवीन्द्र सेतु के लगभग बीचोबीच पहुँच गया। गंगा की तेज़ ठंडी हवा में पीछे वाली सीट पर टेक लगाते हुए शमीक ने नए सिरे से पूछा, हाँ, प्यार और चाहत की क्या बात कर रही थी?
      कहना चाह रही थी कि प्यार और चाहत में कौन कितना योग्य है यह बड़ी बात नहीं होती। चुमकी ने स्पष्ट कहा, तुम्हारी ऑंखें, नाक और ठुड्डी बहुत हद तक मेरे पिताजी जैसी हैं, इसीलिए तुमसे कभी मुहब्बत नहीं कर पाऊंगी। तुम मेरे दोस्त ही बने रहोगे। पिता-पिता जैसा व्यक्ति ख़ैर दोस्त भी नहीं हो सकता - लकिन मैं तुम्हारी इज्ज़त करती हूँ तुम्हारे बड़े बनने की आकांक्षा को देख।
      महात्मा गाँधी रोड के विशाल ट्रैफिक जाम में गाड़ियों के निर्जीव से खड़े हो जाने पर भी शमीक को कोई जल्दबाजी नहीं है। टैक्सी की खिड़की से सिर निकाल कर वह अपने कलकत्ता शहर को देख रहा है। अपने शहर को देख रहा है। यह इलाका उसका बहुत परिचित हो ऐसी बात भी नहीं है। यहाँ ज्यादा से ज़्यादा वह चार बार आया होगा फिर भी आज घर लौटने की खुशी में सारा शहर ही बहुत अच्छा लग रहा है। दिल में घर पहुँचने की जल्दी हमेशा से ही थी। इतने दिनों बाद घर लौटने पर वह जल्दबाजी न रहे, ऐसा हो सकता है क्या? मां, नानू और सेवा को तो उसके आने का पता ही नहीं। अचानक पहुँचने पर कितनी खुशी होगी। शमीक उसी खुशी की तस्वीर दिल में बना रहा था।
      एयरपोर्ट को दाहिनी तरफ छोड़ टैक्सी जशोर रोड की तरफ सीधे दौड़ रही थी। चुमकी ने हँस कर जानना चाहा, तुम लोग क्या पृथ्वी के अंतिम छोर पर रहते हो?
      लगभग ! शमीक ने बहुत धीमे से कहा, कलकत्ता खत्म। अब उत्तर चौबीस परगना शुरू हो गया। ये सब भी कलकत्ता ही है - तुम तो कलकत्ता समझती हो बालीगंज और जादबपुर को।
      मैंने कम से कम यहीं तक क़दम रखे हैं और इतना ही जानती हूँ।
      अचानक याद आ जाने की भंगिमा में उसने एक ही सांस में कहा, शमीक इस बार मुझे चिड़ियाखाना दिखाओगे? इतनी जगहों के होते सिर्फ़ चिड़ियाखाना? शमीक को ज़रा हैरानी हुई।
      तुम दिखाओगे या नहीं, बोलो? कहकर ही हंस पड़ी चुमकी। कानो में कहने के अंदाज़ में फुसफुसाते हुए बोली, जानते हो सुनु मौसी के घर पर हमारी ही उम्र का एक लड़का है। उसका नाम मुझे याद नहीं रहता। पर मैं मन ही मन उसे भैबलाकांत कहती हूँ। जानते हो क्यों?  अचानक ज़ोरदार ठहाका लगाते हुए लगभग शमीक पर गिर ही पड़ी चुमकी। एक बार मुझे याद ही नहीं आ रहा था कि मैंने चप्पलें कहाँ खोली थीं और मेरी चप्पलें कहाँ हैं,                                                                         कहाँ है शोर मचाने पर वही पढ़ा लिखा लड़का भैबलाकांत हाथों में चप्पलें उठाए आया और मेरे पैरों के सामने टिका दीं। उसी भैबला से अगर एक बार चिड़ियाखाने चलने की बात कहूँ तो उसे तो मानो स्वर्ग ही मिल जाएगा बल्कि...... बात पूरी ही नहीं कर पाई चुमकी। हँसते-हँसते बुरा हाल था उसका।
       इसमें ऐसी क्या बात है? शमीक चुमकी की ऑंखों की तरफ देखता ही रहा।
      यहाँ तक कि बाघ के खाली पिंजरे में अगर भैबला को ही बाघ बनने को कहूँ तो भी वह खुशी-खुशी तैयार हो जाएगा।  ऑंखों के दोनों कोणों को नचाते हुए चुमकी बोल उठी, हाँ तुम्हें इतना करने की ज़रूरत नहीं है। सिर्फ़ ले चलना। अच्छा शमीक.....
       कहो।
      तुम्हारे घर पर तो सूचित नहीं किया गया है। मुझे देखकर कोई पत्नी तो नहीं समझ बैठेगा न?
      मेरी पत्नी जींस और शर्ट पहने नहीं होगी इस बात से न्युबैरकपुर के विज्ञान घोष इलाके के सारे लोग परिचित हैं। मैं ठहरा कलमी साग, आलू के छिलके के पकौड़ों के साथ लाल चावलों का भात खाने वाला लड़का। घुटनों तक ऊंची साड़ी पहने बुरी तरह भीग कर तालाब - तालाब घूमकर शैपलातोड़ने वाली लड़की होगी मेरी पत्नी।
       नागपुर में पता ही नहीं चला कि तुम इतने रोमांटिक भी हो.!
      मैंने भी नहीं सोचा था कि तुम इतनी आसानी से ज़मीं पर उतर आओगी। उसके बाद ही शमीक ने भारी आवाज़ में कहा - ये देखो चुमकी आम के पेड़ के बीच की खाली जगह पर हमारा छोटा सा घर नज़र आ रहा है। सफेद पोशाक पहने रस्सी पर जो कपड़े सूखने डाल रही हैं, वे मेरी माँ हैं।
      घर के सामने टैक्सी रुकते ही अंजली ने मुड़ कर देखा। शमीक तब तक उतर चुका था।  खुशी से नानू, सेवा जल्दी आओ कह कर आवाज़ देते हुए अंजली लगभग दौड़ती हुई बेटे की तरफ बढ़ीं। खुद शमीक ने भी दौड़ते हुए आकर माँ को गोद में उठा लिया। भईया तुम। कहते हुए नानू और सेवा भी तालाब में छलाँग लगाने की भाँति माँ और भाई पर गिर पड़ीं। परिणाम जो होना था वही हुआ। एक दूसरे से लिपटे हुए परिवार के चार सदस्य ऑंगन में लोट-पोट हो रहे थे।
      अपनों से, प्रिय व्यक्तियों से मिलन का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था चुमकी ने।  स्नेह और ममता मिश्रित ऐसी तस्वीर की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। ऑंखों में ऑंसुओं की बूंदे झिलमिला रही थीं। खुद को संभाल लिया चुमकी ने।
      अंजली ने भी खुद को संभाल लिया। इक्यावन वर्षीया शुभ्रता की प्रतीक उस प्रौढ़ महिला ने अब अपने सामने खड़ी लड़की की तरफ देखा, फिर शमीक की तरफ देखा तो मुस्कुराते हुए शमीक ने कहा, माँ, ये चुमकी है!
      और बताने की ज़रूरत नहीं।
      तब तक चुमकी ने झुक कर उनके चरण स्पर्श किए ही थे कि उसे सीने से लगाते हुए अंजली रो पड़ीं। रूँधे स्वर में ही कहा, तुम्हारे पिता, तुम्हारे परिवार ने हमारे पूरे परिवार को बचा लिया। अरुण गांगुली न होते तो... कहाँ-कहाँ बिखर गए होते हम। ज़िंदगी से ही खो गए होते।  नानू, सेवा की पढ़ाई बंद हो गई होती। भविष्य में घर-घर काम करने वाली लड़कियों की संख्या में दो और लड़कियों की बढ़ौतरी हो गई होती। तुम लोगों ने ही हमें जीवनदान दिया है। कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास आज शब्द नहीं है। तुम्हारे पिता हमारे लिए इंसान के रूप में देवता हैं।
शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी चुमकी।  फंसी हुई आवाज़ में उसने कहा, जो भी किया है, पिताजी ने किया है। अत: पिता जी के कृतित्व का श्रेय कृपया मुझे मत दें। मैं भी आपकी सेवा और नानू जैसी एक बेटी ही हूँ।
      नानू और सेवा की ऑंखों में खुशी चमक रही थी। दोनों मासूम किशोरियां मानों चुमकी की इसी एक बात से पराजित सी हो गईं। उनके स्वत:स्फूर्त व्यवहार से ही स्पष्ट था कि चुमकी ने उनका दिल जीत लिया है। चुमकी की कमर से लिपट नानू और सेवा जैसे ही उसके सीने से लगीं नागपुर निवासी ने दोनों बाँहें फैला कर उन्हें आलिंगन में ले लिया।
     शमीक के घर के ठीक पीछे एक बहुत बड़ा तालाब है। स्वच्छ पानी। पक्का बना घाट।  विज्ञान घोष के निवासी यहीं स्नान करते हैं।  नागरिक समिति ने एक नोटिस लगा रखा है, यह तालाब आपका है। इसे साफ़-सुथरा रखने की जिम्मेदारी भी आपकी है। तरह-तरह से तैरते हुए उसी तालाब में उछल-कूद कर रहा है शमीक। नानू, सेवा और चुमकी किनारे पर बैठी देख रही हैं।  दो बार तालाब के बीचो-बीच तैरते हुए पक्के घाट के पास आकर शमीक ने खुद को डुबो दिया।
      चारों तरफ अब शाम गहरा रही थी। कृष्णचूड़ा और राधाचूड़ा वृक्षों की गहरी परछाई पानी पर भी पड़ रही थी। रेल गाड़ियों की आवाजाही से पानी में मछलियों की उछल-कूद भी कई गुणा बढ़ जाती है। घाट पर उस समय स्नान करने वालों की तादाद बहुत ही कम थी। शमीक ने मुँह से फव्वारे की तरह पानी फेंकते हुए कहा, चुमकी पोखरी में नहाओगी?                                                                                             
      मुझे तैरना जो नहीं आता। नानू और सेवा की तरफ देखते हुए चुमकी ने शर्माते हुए हँसकर कहा। जो काम न आता हो वहां मैं कभी बहादुरी नही दिखाती।
      तुम डूबोगी नहीं इतना कह सकता हूँ। आओ। और अगर सीखने की इच्छा हो तो दो दिन भी नहीं लगेंगे। इसके बाद शमीक ने प्यार से धौंस लगाई बहनों को। क्यों री नानू, ओ सेवा तब से मंद-मंद मुस्कराए जा रही हो। कह नहीं सकती, भईया की पीठ पर चढ़ हाथ-पाँव मारते हुए सिर्फ़ दो घंटों में तैरना सीख लिया था। बताओ तो सही चुमकी को।
      बताने-वताने की कोई बात नहीं, मैं तैराकी नहीं सीखने वाली। थोड़ा ज़ोर से ठहाका लगाते हुए चुमकी ने कहा, अब मैं जाकर बाथरूम के चौबच्चे में तैरूंगी। कहकर चुमकी नानू और सेवा को ले उठ खड़ी हुई। फिर शमीक से कहा, और नहीं, बहुत हो गया स्नान। अब निकलो पानी से।
      लगभग शाम के समय दोनों खाना खाने बैठे। भले ही नानू और सेवा दोनों को घेरे हुए थीं पर खाना परोस रही थीं अंजली ही। सुबह जगते ही क्या सोचा था कि आज इस तरह बेटे को बिठाकर स्नेह-ममता से खाना खिलाएंगी। आज की यह अकस्मात उपलब्धि बहुत ही अनमोल है।  क्या इसे कह कर अभिव्यक्त किया जा सकता है? अंजली ने जो परोसा उसमें था, बक फूल के पकौड़े, मसूर की दाल, गंधराज नींबू, आलू, कद्दू, करेले, प्याज की चड़चड़ी और पिसी सरसों वाली मछली का शोरबा। शमीक और चुमकी दोनों को जबर्दस्त भूख लगी थी यह उनको खाते देख ही समझ आ रहा था। अंजली चुमकी की थाली में और भात तथा मछली का शोरबा परोसने लगी तो चुमकी ने मना कर दिया। साफ़-साफ़ कहा - एकदम अच्छी तरह पेट भर गया है। और नहीं।  कल दोपहर को भी ऐसा ही खाना खाने के बाद ही जादबपुर के लिए रवाना होऊंगी।
      अंजली ने मृदु मुस्कान से कहा, तुम यहाँ ठहर कर और खाओ न, बेटा तुम्हें किसने रोका है? यह सब तो तुम लोगों का ही दिया हुआ है।
     आप बार-बार ऐसी बातें मत कीजिए। शर्म से लाल होते हुए किसी तरह चुमकी ने जवाब दिया। अरी नानू, सेवा तुम दोनों मुँह उठाए चुपचाप क्या सुन रही हो? दीदी की हिमायत नहीं कर सकती? बेटी के समक्ष क्या माँ को इस तरह कृतज्ञता जतानी चाहिए? बोलो तुम दोनों?
     बेटी अगर इस लायक हो तो किया ही जा सकता है। और सांवली रंगत वाली अत्यंत बुद्धिमति नानू ने हंसते हुए जवाब दिया, इससे बेटी का मान बढ़ता ही है। और बेटी को सही मर्यादा मिलती है।
      और इसमें तो माँ की आंतरिक संतुष्टि छुपी होती है। इसे दबाना ठीक नहीं। गोरी रंगत, गोलमटोल और चपटी नाक वाली सेवा के इतना कहते ही चुमकी बोल उठी, अच्छे गवाह चुने मैंने। तुम सब मिल कर मुझे अकेली पाकर मेरी ऐसी की तैसी कर रहे हो। चलो एक बार हमारे नागपुर के कोराडी में। संतरों में बिठाकर तुम लोगों को अगर सड़ा नहीं दिया तो फिर चुमकी मेरा नाम नहीं। फिर तिरछी नज़र से शमीक की तरफ देख भरपूर नज़रों से अंजली की तरफ देखा.  हँसते हुए पूछा, मासी माँ, कल आप मुझे एक चीज़ खिलाएंगी?
      क्या खाओगी बोलो। अंजली खुशी से मदमस्त होकर चुमकी की तरफ देखती रहीं। चुमकी को कुछ कहते न देख, नानू, सेवा दोनों ने कहा, क्या खाओगी बोलो?
      कलमी साग और शापला.  क्या मुझे पोखरी से शापला लाना होगा?
      अरे ! कैसी बात करती हो? तुम क्यों शापला लाने जाओगी? अंजली हैरानी से अपनी दोनों बेटियों की तरफ देखती रही। दरअसल वे समझ नहीं पाईं कि शापला खाने के इज़हार के साथ उसे लाने का क्या संबंध है।  ज़्यादा कुछ समझने की कोशिश न करते हुए उन्होंने सहज स्वर में कहा - हमारे स्टेशन के बाज़ार में भला शापला की कोई कमी है? कल दोपहर को ही तुम्हें इसकी पातुरी बना कर खिलाउंगी।
      गर्दन झुकाए मंद-मंद मुस्कराती रही चुमकी। बाद में धीमे-धीमे स्वर में रुक-रुक कर कहा, कल मैं जींस या सलवार कमीज़ नहीं पहनूंगी। नानू की साड़ी ज़रा ऊंची करके पहनूंगी और आपके साथ रसोई के काम में लग जाऊंगी। और मासीमां आपको भी आप-आप कहकर नहीं बुलाउंगी। तुम ही कहूंगी, ठीक है न?  (बांग्ला भाषा में अपनत्व से बड़ों को भी तुम कह कर संबोधित करते हैं)।
      ठीक है इसमें संकोच की क्या बात है? अंजली ने अगाध स्नेह से जवाब दिया,तुम्हारा जैसे जी चाहे वैसे ही बुलाना लेकिन रसोई के काम में क्यों लगोगी बेटी? दो दिनों के लिए आई हो, हंसो, खेलो, घूमो। इसीमें मुझे खुशी होगी।
      शाम के बाद चुमकी जल्दी मचाकर नानू, सेवा और शमीक को ले निकल पड़ी.  उद्देश्य था ज़रा न्युबैरकपुर घूमना। चुमकी के भीतर एक इच्छा और सिर उठा रही थी। यहाँ वह सब मिल जाए तो अच्छी बात है वर्ना बालीगंज, जादबपुर या न्युमार्केट से ही खरीददारी निपटा लेगी।  स्टेशन रोड की तरफ थके-थके क़दमों से घूमने निकली चुमकी एक बार तो बोल ही उठी, मैंने नानू को साक्षी रखा, मासीमां का इस तरह बार-बार कृतज्ञता व्यक्त करना ठीक नहीं है। अरे! वह लड़की उल्टे मुझे और भी गौरवान्वित कर बैठी। माँ के सिंहासन पर माँ को तो रखा ही। तुम तो बहुत ही सजग और तीक्ष्ण बुध्दि वाली हो नानू। तुम तो साहित्य की छात्रा हो न? स्वभाविक है।  मैं कहती हूँ तुम ज़रूर कॉॉलेज की मास्टरनी बनोगी और ये सेवा, सेवू दीदी तुम भी कम हाज़िर जवाब नहीं हो।
      न्युबैरकपुर जैसे उपनगर में इतनी बड़ी-बड़ी एवं चकाचौंध वाली हर तरह की दुकानों, शो रूम आदि को देख बहुत मुग्ध हुई चुमकी। रौशनी से जगमगाती साड़ी और कपड़े-लत्ते की एक बड़ी दुकान में प्रवेश कर चुमकी ने राजसी अंदाज़ लेकिन नम्र स्वर में नानू और सेवा दोनों से कहा, तुम दोनों दो-दो साड़ियां पसंद कर लो। किसी तरह के संकोच का सवाल ही नही। यह याद रखो कि यह सब तुम्हें मैं नहीं दे रही हूँ। यह सब अरुण गांगुली का उपहार है। मैं तो सिर्फ़ निमित्त मात्र हूँ। नानू, सेवा के चेहरों पर दुविधा और जड़ता के चिहन् उभरते ही उन दोनों के कंधों पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, यह सब स्वीकार करने पर ही अरुण गांगुली का सही सम्मान होगा। अत: नानू और सेवू दीदी पसंद के लिए अब तुम दोनों तलाश शुरू कर दो। और मैं मासीमाँ के लिए पसंद करूंगी। वे कितने चौड़े बॉर्डर वाली साड़ी पहनती हैं और बॉर्डर का रंग ज़रा मुझे बता देना।
      चुमकी को देख-देख शमीक हैरान हो रहा था। उसमें इतना बदलाव सोच से परे की चीज़ थी। नागपुर के शुरुआती दिनों की वह जिद्दी, गर्म मिजाज़ लड़की कलकत्ते में क़दम रखते ही बड़ी विनम्र और मृदुभाषी हो गई है कि सोचा भी नहीं जा सकता। नागपुर से ही गुस्से की बर्फ़ पिघलनी शुरू हो गई थी। हाँ, ट्रेन से कलकत्ते आते वक्त मानो उसने एक अज्ञात द्वीप का सिंह द्वार खोल दिया हो। एक ही झटके में एक अज्ञात कहानी का पटाक्षेप कर दिया था। परंतु, अगली सुबह से ही उसने ऊँचे स्वर में बात नहीं की। बिल्कुल सहज और स्वभाविक। ट्रेन में बैठे-बैठे ही शमीक सोच रहा था यह कौन सी चुमकी है? जैसा कि अब न्युबैरकपुर के स्टेशन रोड के एक बड़े से शोरूम में खड़ा चुमकी को देख-देख सोच रहा है यह ममतामयी कौन है? क्या ये नागपुर की चुमकी है?
      शमीक ने दबी हँसी से धीरे से कहा, सबकी खरीददारी हो रही है, मैं ही छूट गया?
      हाँ अवश्य।
      मेरा क़सूर?
      फिर पूछ रहे हो? मेरा गुस्सा मत बढ़ाओ शमीक। चुमकी ने खुलकर हँस कर कहा,मेरे गुस्से से परिचित नहीं हो?
      वह तो नागपुर में। न्युबैरकपुर में? यहाँ बैठ भी मैं तुम्हें बर्बाद कर सकती हूँ। मुझसे डरता न हो ऐसा कोई है? देखा नहीं, सुनील शिवलकर जैसा छैला भी पालतू बिल्ली की भाँति मेरे क़दमों में  घूमता है।
      मैंने सब देखा है, सब जानता हूँ। शमीक हँस पड़ा, लेकिन ज़रा सा भी नया धागा न मिलने का क़सूर क्या है, यही तो पता नहीं चला। कम से कम एक गंजी तो खरीद दो।
      तुम भिखमंगे हो क्या, जो दो-दो लगा रखी है? शमीक की ऑंखों की तरफ देखते हुए धौंस दिखाई चुमकी ने। नानू, सेवा को चिंतामुक्त करते हुए बिना किसी दुराव-छिपाव के चुमकी ने बता डाला, तुम्हारे इस भईया के लिए नागपुर का एक सुपर मार्केट ही उठा लाए थे अरुण गांगुली। क्या-क्या नहीं खरीद कर दिया? जूते, मोजे, टुथ ब्रश से लेकर पैंट-कमीज़ यहाँ तक कि सूट भी। और सुनोगी? उस दिन पिताजी ने मुझे एक रूमाल तक खरीद कर नहीं दिया था। वह गुस्सा क्या कभी इतनी आसानी से क़ाफूर हो सकता है? बाहर का लड़का आकर दोनों बाँहे फैलाए चीज़ें ले रहा है यहाँ तक कि लदा हुआ है और मेरा कोटा बिल्कुल खाली। वह नाराज़गी मेरी आज भी बरकरार है। चुमकी खिलखिला कर हँस पड़ी। मज़ाक के लहज़े में कहा, नागपुर लौट कर मेरी शिक़ायत करना। उम्मीद है एक सुपर मार्केट और तुम्हारे कमरे में अट जाएगा। 
      जैसा होता है वैसा ही हुआ। माँएं साधारणत: जिस तरह कहा करती हैं उससे भी ज़्यादा लज्जा भरे अंदाज़ में अंजली ने कहा - नानू, सेवा के लिए खरीदा ठीक है। इसमें कोई दो राय नहीं, पर बेटा मेरे लिए क्या ज़रूरत थी?
      मासी माँ, यह मैंने नहीं खरीदा। अच्छा ख़ासा रोब जमाते हुए चुमकी बोल उठी, यह अरुण गांगुली ने खरीदा है आपके लिए।    
      तुम और अरुण गांगुली क्या अलग-अलग हो? देखो तो लड़की क्या कहती है।
      ऐसा भी नहीं है। यह भी तो सही है मासी माँ हम कितने भी अपने क्यों न हों, हमारे रिश्ते का बंधन कितना भी अटूट क्यों न हो, एक जगह हम सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। पूरी तरह भिन्न।
      बेटा मैं तो ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूँ।  तम सबकी तरह अच्छी तरह बात न कह पाऊँ फिर भी इतना कह सकती हूँ..... इक्यावन वर्षीया सूनी मांग वाली अंजली अत्यंत स्नेहिल स्वर में धीरे-धीरे बोलीं, हम में से कोई भी भिन्न नहीं है बेटा, कोई भी नहीं। भिन्न होता है मन।  मन की इस गर्मजोशी के कारण ही दूर का व्यक्ति क़रीबी बन जाता है। क़रीबी प्रिय व्यक्ति क्रमश: अजनबी होते-होते दूर-दूर चले जाते है। मन को ठीक से वश में कितने लोग रख पाते हैंजितनी भी गड़बड़ी है वह इस मन के कारण ही तो है।
                                                                                                 ......जारी।

बांग्ला से अनुवाद  नीलम अंशु

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।



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