(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
व्यक्ति के जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जिसका पहले से अनुमान नहीं होता है। और पहले से निर्धारित होते हुए भी उनकी दस्तक अकस्मात होती है कि इंसान पहले से तैयार नहीं होता है। किसने सोचा था कि शमीक का ऐसा ऐक्सीडेंट होगा? विश्राम हेतु दो हफ्तों के लिए घर जाएगा। और सफ़र में उसका साथ देगी स्वयं चुमकी? सिर्फ़ इतना ही? फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट के एक एकाकी कोने में बैठ-बैठे जगकर दोनों ने सिर्फ़ बातें की। उस दिन अपनी ज़िद, तेज़ और क्रोध का विसर्जन कर चुमकी शांत और विनम्र युवती बन गई थी। अपने माता-पिता के अतीत की कहानी इतनी सहजता से कही थी जो शमीक की कल्पना से परे थी। किसी भी पल चुमकी उसे ये बात बता सकती है, शमीक ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। वो सब बातें सुनने के लिए शमीक ने ज़रा भी आग्रह नहीं दिखाया था। अरूण गांगुली और बासंती के बिखरे-बिखरे रिश्ते की तस्वीर रोज़ देखने के बाद मन में हज़ारों सवाल कौंधे थे परंतु कभी भी उसने चुमकी से कोई सवाल नहीं किया। जबकि चुमकी ने उसे सबकुछ बता दिया। सब कुछ। अभिमान के एक कोने में जाकर नि:शब्द रूप से प्रस्तुत की अरुण गांगुली की बात, बासंती की बात। बासंती देवी ने बेटी से कभी कुछ नहीं छुपाया। चुमकी ने भी शमीक से कोई बात नहीं छुपाई।
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अब रात के लगभग पौने ग्यारह बजे होंगे। कोराडी सुपर थर्मल जनरल मैनेजर अरुण गांगुली के तस्वीर जैसे बंगले के पूरब दिशा के एक कमरे में शमीक लेटा हुआ है। आज उसे किसी भी क़ीमत पर नींद नहीं आ रही है। न्यूबैरकपुर से लौटे उसे बारह-तेरह दिन हो गए हैं। इसी बीच ऑफिस ज्वाइन भी कर लिया है परंतु हरदम सर भारी-भारी सा लग रहा है। हर काम वह नियमित और निष्ठा से कर रहा है फिर भी कोई फिक्र से उसे विचलित कर रहा है। अरूण गांगुली और बासंती की बात वह किसी भी तरह भूल नहीं पा रहा है। अनजाने में तो विषपान भी कर लिया जाता है परंतु जान-बूझकर? अब शमीक को लगता है कि यह सब उसे न ही पता चलता तो अच्छा होता। इतने दिनों तक जैसे सबकुछ अज्ञात था, अज्ञात ही रहता तो अच्छा होता। अरुण गांगुली के लिए उसकी तकलीफ और बढ़ गई। सोचकर आश्चर्य होता है कि आदर्शों के लिए इस व्यक्ति ने खुद को वंचित कर, दूर रखा है। सोचा भी नहीं जा सकता। सौ को तो छोड़ ही दें क्या हज़ारों में भी ऐसा आदमी मिलेगा? सारा मामला ही शमीक की कल्पना से परे है।
चुमकी के साथ जिस दिन कलकत्ते रवाना हुआ था शमीक, अरुण गांगुली और बासंती उनको चढ़ाने आए थे। साथ में दे दी थी खाने-पीने की काफ़ी चीज़ें। रास्ते में सावधानी बरतने संबंधी ज़रूरी निर्देश दिए। इस सिलसिले में चुमकी ने एक बार कोमल स्वर में माँ को उलाहना भी दिया, ‘अच्छा माँ, आप लोग क्या हमें बच्चा समझते हैं?’
ट्रेन छूटने के काफी देर बाद भी जब तक दिखाई दे रहा था अरुण गांगुली और बासंती हाथ हिलाते रहे। माता-पिता की तरफ लगातार देख हाथ हिलाते हुए अचानक चुमकी कैसी गंभीर सी हो गई। तब से रात साढ़े आठ-नौ बजे तक ख़ामोश ही थी। रात का खाना खाते समय बर्फ़ पिघलनी शुरू हुई। एक निस्तेज स्वर में अचानक चुमकी बोल उठी, नागपुर स्टेशन से कोराडी तक इतना रास्ता माँ और पिताजी एक साथ ही लौटेंगे। जबकि आज भी शायद कोई विशेष बातचीत नहीं होगी। इस बात-चीत में शमीक को शामिल होने का कोई हक़ नहीं, सिवाय चुपचाप सुनते रहने के।
खाना खा चुकने के बाद चुमकी और भी सहज और सरल हो गई थी। हल्के से मुस्कराते हुए पूछा था, ‘अच्छा, तुम मुझे बहुत ज़िद्दी, तेज़ी, रणचंडी के सिवा और कुछ नहीं सोच पा रहे हो, है न?’
‘पहले ऐसा ही सोचता था। अब वह सोच बदल गई है।
‘जानते हो शमीक, लेकिन मैं वैसी बिलकुल भी नहीं हूँ।’
‘जानता हूँ।’
‘कैसे?’
‘तुम्हारी इस स्वीकारोक्ति से ही स्पष्ट है।’
‘दरअसल मेरे जैसी स्थिति में तुम लोग कभी नहीं पड़े - कोई और लड़की होती तो पागल हो जाती। सोचो तो होश संभालने के बाद से ही माता-पिता के बीच कोई स्वभाविक रिश्ता मेरी नज़र में नहीं आया। एक पल के लिए भी दोनों को एक साथ हंसते नहीं देखा। ऐसी स्थिति में तुम मुझ पर कितना दोषारोपण करना चाहोगे? मैं किसी पर भी दोषारोपण नहीं करती। लेकिन पल भर के लिए भी बिंदुमात्र भी सुख का अनुभव नहीं होता। वह अनुभूति ही मुझमें नहीं है।’
‘सुनील शिवलकर को तुम्हारे इस मिज़ाज का कोपभाजन नहीं बनना पड़ता।’
चुमकी इस बार खुल कर हँस पड़ी -‘उसे भी कभी-कभी तेवर दिखाती हूँ लेकिन जैसे ही कोई अच्छा काम करने लगती या ज़रा शांत रहने की कोशिश करती ठीक उसी वक्त माता-पिता का किस्सा भूत की तरह मेरे दिमाग पर छा जाता।। मैं ठीक से वह काम नहीं कर पाती। किसी को कुछ नहीं समझती। मैं समझती हूँ कि यह मेरी ज़्यादती है परंतु उस वक्त खुद को काबू में रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता।’
काफ़ी देर तक ख़ामोश रही चुमकी। भर्राए स्वर में फिर बोली, ‘मैं भी तुम सबकी तरह स्वभाविक बनना चाहती थी लेकिन मेरे चारों तरफ अस्वभाविकताओं की इतनी दीवारें हैं कि उन्हें तोड़ने की क्षमता मुझमें नहीं है। जबकि पराजित होना भी नहीं चाहती। मेरे माता-पिता का रिश्ता यदि अन्य आम आदमियों की तरह होता’ - काफ़ी गहराई से निकले स्वर की भाँति शांत स्वर में चुमकी ने कहा था, ‘मुझे और कैसे पता चलेगा बोलो? माँ से मैंने पूछा था। हज़ारों सवाल। माँ ने मुझसे कुछ भी नहीं छुपाया था। वे भी मानों मन की बात कहने के लिए ऐसे ही किसी व्यक्ति की तलाश में थी। सब सुना। बहुत कुछ पता चला। परंतु जिस अंधेरे में थी, उसी में रह गई। बल्कि भीतरी क्षुब्धता और भी बढ़ गई। अशांति ने मुझे निगल लिया।’ उस दिन बंबई-कलकत्ता मेल के फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट के एक कूपे में बैठ चुमकी ने रात भर शमीक को एक आशचर्यजनक कहानी सुनाई थी:-
बरेली पॉवर प्रोजेक्ट में नया इंजीनियर बनकर आया एक इक्कीस-बाईस वर्षीय युवक। आम बंगाली युवकों की भाँति शारीरिक डील-डौल। उसकी उज्जवल ऑंखों और नाक ने उसे आकर्षक बना दिया था। युवक का नाम था अरुण गांगुली। यू.पी. इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का नया ग्रैजुएट इंजीनिय। फिलहाल उसके रहने की व्यवस्था बरेली क्लब होटल में की गई थी।
अन्य ग्रैजुएट इंजीनियर खुद को लेकर जितना व्यस्त हैं, उतना ही व्यस्त है अपने काम को लेकर अरुण गांगुली। उसे पता है अभी उसका ट्रेनिंग पीरियड चल रहा है। लोगों से काम करवाना ही बड़ी बात नहीं है - खुद भी काम सीखना पड़ता है। जेब में हाथ न डाले रख वह खुद भी हाथों से श्रमिकों के साथ काम करता था। अनुभवी श्रमिकों से बहुत कुछ जान लेता था।
दिन इसी तरह गुज़र रहे थे। सिर्फ़ काम और काम। छुट्टियां-वुट्टियां कुछ ख़ास होती नहीं थी। यद्यपि रविवार छुट्टी होती थी फिर भी कभी-कभार निकलना पड़ता था।
अचानक एक दिन छुट्टी मिली। एक नए बॉयलर के उद्धाटन के उपलक्ष्य में उस दिन ग्यारह बजे छुट्टी हो गई थी। अरुण को बरेली आए एक महीने से ऊपर हो गया था परंतु अभी तक उसने बरेली में कुछ भी अच्छी तरह नहीं देखा था। जल्दी-जल्दी होटल लौट, नहा-धो और खाकर वह निकल पड़ा। यहां वह अकेला ही बंगाली है। किसी के साथ कुछ ख़ास दोस्ती नहीं हुई। अत: उसे अकेले ही निकलना पड़ेगा।
सिनेमा देखने की इच्छा नहीं थी। इच्छा थी शहर देखने की, लेकिन शहर देखने के नाम पर फिल्म ही देखनी पड़ी। दरअसल ताँगे से घूमते-घूमते सामने एक सिनेमा हॉल पर नज़र पड़ी। नॉवलेटी। एक बढ़िया अंग्रेजी फ़िल्म चल रही थी,‘गॉन विद द विंड’।
अरुण को निराश होना पड़ा। दोपहर का शो हाइस फुल था। इवनिंग शो के टिकट भी नहीं थे। जबकि फ़िल्म देखने के लिए वहाँ से हिलने को जी नहीं चाह रहा था। लेकिन टिकट कैसे मिले? यदि किसी के पास अतिरिक्त टिकट हो, इसी उम्मीद से अरुण वहाँ खड़ा रहा। हॉल के एक तरफ तीन लड़कियां हाथों में ढेर सारी किताबें लिए काफ़ी देर से बातें कर रही थीं। उन पर अरुण की नज़र पड़ी। ज़रूर वे किसी और का इंतजार कर रही थीं। वह न आए तो शायद ये टिकट उसे मिल सकता है। धीरे-धीरे चलकर अरुण उनके पास जा खड़ा हुआ।
पहली घंटी बजते ही उनमें से सुंदर सी दिखने वाली युवती हिंदी में बोल उठी, ‘पुष्पा, लता तुम अपनी जगह पर जा कर बैठ जाओ। मैं सरला का इंतज़ार करती हूँ।’
बात स्पष्ट सुनी अरुण ने। सरला नामक सहेली के न आने पर टिकट मिलने की उम्मीद है लेकिन यह उस युवती को पहले से बता देना होगा। वर्ना वह किसी और को भी दे सकती है। उससे कहने में हिचकिचाहट सी हो रही थी। अत: अरुण ने उस युवती की ऑंखों की तरफ देखा। उद्देश्य था चेहरे को पहचान रखना। फटाक से टिकट माँगने से बेहतर है कि पहले ज़रा परिचय कर लिया जाए। युवती ने भी अरुण की तरफ देखा। फिर घड़ी देखकर नए सिरे से चारों तरफ नज़र दौड़ाई। इसी बीच दूसरी घंटी भी बज उठी। युवती लगातार रास्ते की तरफ देख रही थी। अरुण ने शांत स्वर में कहा, ‘माफ कीजिएगा, क्या आपके पास स्पेयर टिकट होगा?’
‘आप पाँच मिनट इंतज़ार कीजिए।’ युवती ने अरुण की ऑंखों की तरफ देख कहा, ‘मेरी सहेली आने वाली है, अगर वह न आ सकी तो एक टिकट आपको दे सकती हूँ।’
पाँच मिनट गुज़रते ही युवती ने मृदु स्वर में कहा, ‘मेरी सहेली नज़र नहीं आती, आप आईए’।
अरुण ने उसके साथ प्रवेश किया। एक के बाद एक चार सीटें थीं। पुष्पा और लता पहले से ही बैठी थीं। उनके साथ वाली सीट पर जा बैठी वह युवती और उसके साथ वाली सीट पर अरुण। उनमें से एक बोल उठी, ‘सरला नहीं आई?’
युवती ने जवाब दिया - ‘ख़ामोश।’
इंटरवल के वक्त पुष्पा और लता अरुण की तरफ देख रही थीं। फुसफुसा कर पता नहीं क्या पूछ रही थीं। युवती ने कोई जवाब न देकर सिर्फ़ एक बार ख़ामोशी से अरुण की तरफ निहारा। अरुण को मानो मौका मिल गया। तुरंत पैसे बढ़ाकर कहा, टिकट के दाम ले लीजिए।
युवती ने पहले अपनी सहेलियों की तरफ देखा फिर अरुण की चमकती ऑंखों की तरफ देख ज़रा सा मुस्कराई। उसकी गंभीरता और चेहरे को भावों से ही अरुण को समझने में दिक्कत नहीं हुई कि वह दाम नहीं लेना चाहती। फिर भी उसने एक बार फिर कहा, ‘टिकट का दाम ले लीजिए।’
‘रहने दीजिए। कोई बात नहीं।’ युवती ने पैसे न लेकर शिष्टता ही दर्शाई।
उसके शिष्टाचार की क़द्र की अरुण ने भी। टिकट का दाम जब लेगी ही नहीं तो और क्या किया जा सकता है। बाहर निकल कर वह चार पैकेट काजू के खरीद लाया। एक पैकेट अपने लिए रख तीन पैकेट युवती के हाथ में देकर कहा, ‘आपके और आपकी सहेलियों के लिए।’
युवती ने मुस्करा कर कहा - ‘शुक्रिया। तो आपने टिकट का दाम अदा कर ही दिया।’
अरुण ज़रा सा मुस्कुराया। कोई जवाब नहीं दिया।
‘क्या मैंने ग़लत कहा ?’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।’ अरुण के होठों पर मुस्कराहट छाई रही।
फ़िल्म ख़त्म हुई। हॉल से वे चारों एक साथ निकले। उस लावण्यमयी युवती की शायद दो-चार बातें करने की इच्छा थी। कम से कम उसके बार -बार देखने से तो यही लग रहा था। किंतु दोनों में से किसी को भी एक भी बात करने का मौका नहीं मिला। पुष्पा और लता एक तरह से उसे घसीटते हुए मुख्य सड़क पर ले जाकर शायद जान-बूझकर ही भीड़ में गायब हो गईं।
उस दिन इस तरह खो कर भी वे सचमुच नहीं खो गए। बीच के तीन-चार दिन अरुण कुछ उदास-उदास सा रहा। उस युवती का प्रतिबिंब उसके मन के भीतर क्रमश: गहरा और गहरा होता जा रहा था। परंतु जिसका नाम नहीं पूछा, पता नहीं पूछा उसके लिए मन उदास होने पर भी काम में तो मन लगाना ही होगा। अरुण फिर से काम में डूब गया। और फिर वहीं उससे फिर से मुलाक़ात हो गई।
बरेली पॉवर प्रोजेक्ट में अक्सर बाहर के लोग भी आते हैं। कैसे बिजली तैयार होती है - यह देखने के लिए स्कूल-कॉलेजों के छात्र भी आते हैं। इसी तरह एक दिन लड़कियों का एक झुंड आया हुआ था। अरुण बॉयलर के फ्लोर पर पर खड़ा होकर स्टाकर में चेन लगते देख रहा था। श्रमिक काम कर रहे थे। अत: नए सिरे से ये सब काम देखने की कोई बात ही नहीं थी। हाँ, जब डयूटी वहीं थी तो अरुण को तो रहना ही पड़ता है। और यह काम देखते हुए अचानक उसने देखा कि लड़कियों का एक दल उधर ही आ रहा था।
पूरे दल के सामने आते ही अरुण की निगाहें एक लंबी युवती की बड़ी ऑंखों पर टिक गईं। कोई भी नज़रें हटा न पाया। मानों अपने इष्ट देव के दर्शन का सिलसिला चल रहा हो। युवती के होंठ सूर्य किरणों की भाँति चमक रहे थे। पहले दिन वह बेहद हताश हो गया था यह उसकी व्यग्रता से ही स्पष्ट हो गया था - ‘आप यहाँ?’
‘जी हाँ. मैं यहाँ ट्रेनी इंजीनियर हूँ।’
अरुण तथा वह युवती जब बातें कर रहे थे उस समय वहाँ से अरुण का सहकर्मी पूरणचंद शर्मा गुज़र रहा था। यद्यपि वह उत्तर प्रदेश का रहने वाला था परंतु उसकी पढ़ाई-लिखाई कलकत्ते में ही हुई थी। बहुत अच्छी बंगला बोल लेता था। दो दिन हुए हैं यहाँ आए। जाते-जाते उसने अरुण से कहा - ‘गांगुली आज कितने बजे तक रुकोगे?’
‘पूरा स्टाकर कंपलीट होने तक रुकना पड़ेगा।’
‘फिर भी?’
‘लगता है रात के आठ-नौ बजेगें शायद।’
पूरणचंद शर्मा के चले जाते ही युवती मंद-मंद मुस्कराते हुए एक नई दृष्टि से अरुण को देखने लगी। उसकी ऑंखों में खुशी की चमक थी। क्या हुआ, अरुण ठीक समझ नहीं पाया। वह पहले की बात-चीत पर ही लौट आया। ‘आप पॉवर प्रोजेक्ट देखने आई हैं?’
युवती ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। एक असीम खुशी से उसका गला भर आया। स्पष्ट बंगला में पूछा - ‘आप बंगाली हैं?’
अब अरुण के चौंकने की बारी थी। आश्चर्यचकित से स्वर में उसने पूछा -‘आप भी बंगाली हैं?’
‘कितनी हैरानी की बात है!’ युवती ने अफसोस से कहा - ‘हम दोनों ही बंगाली हैं जबकि बातें कर रहें थे हिन्दी के माध्यम से।’
‘उस नॉवलेटी सिनेमा हॉल में आपको बातें करते देख मुझे लगा था कि आप बंगाली हैं परंतु अगले ही पल जब आपको हिन्दी बोलते सुना तो मेरी धारणा ही बदल गई।’
‘अब?’ युवती आश्चर्यजनक तरीके से हंस पड़ी।
‘अब आपके साथ कभी भी हिन्दी में बात नहीं करूंगा।’
‘वह तो समझ में आ गया, लेकिन आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया।’
‘अरुण गांगुली और आपका?’
‘मेरा नाम है बासंती चट्टोपाध्याय।’
बासंती के साथ की लड़कियां ज़रा आगे बढ़ गई थीं। उनमें से एक ने कहा - ‘बासंती जल्दी आओ। सुनकर अरुण सजग हो गया। इसके बाद बासंती को खो देना उचित नहीं होगा। उसने साफ़-साफ़ पूछा, ‘फिर कहां मिलेंगे? आपसे तो ठीक से परिचय ही नहीं हो पाया।’ ऑंखों ही ऑंखों में मुस्कराई बासंती। अरुण के प्रश्न का जवाब न देकर उसने सिर्फ स्वप्निल स्वर में कहा - ‘सच में आप बंगाली हैं जानकर बहुत अच्छा लग रहा है। फ़िल्म देखने वाले दिन ही यदि पता चल जाता तो...’ बासंती अपनी बात ख़त्म नहीं कर पाई। सहेलियों में से फिर किसी ने जल्दी मचाई - ‘बासंती क्यों देर कह रही हो? चली आओ न।’
सहेलियों के बुलाने पर बासंती ने विरक्ति महसूस की। विरक्ति के स्वर में ही कहा - ‘आती हूँ बाबा। फिर अरुण से धीमे से स्वर में कहा - ‘देखा, कैसे वे आवाज़ पर आवाज़ दिए जा रहीं हैं?’
अरुण ने फिर से अपना सवाल दोहराया - ‘फिर कहाँ मिलेंगे?’
‘मिलना?’ बासंती का चेहरा अचानक शर्म से लाल हो गया। सर झुकाकर उसने धीरे-धीरे कहा, ‘कल तीन बजे जी. जी. आई. सी. के सामने इंतज़ार कीजिएगा।’
‘जी.जी आई. सी. कहाँ है, मैं नहीं जानता। कह सकती हैं कि बरेली में बिलकुल नया हूँ।’
‘वह हमारा कॉलेज है। गवर्नमेंट गर्लस इंटर कॉलेज। चपला रोड पर।’
‘ठीक है र्ग्लस कॉलेज भी देख लिया और चपला रोड भी।’ अरुण को असहाय की भांति हंसते देख बासंती ने मृदु स्वर में धौंस जमाई, ‘वह भी खोज लीजिएगा। अब और देर नहीं वर्ना सहेलियां फिर हल्ला मचाने लगेंगी। चलूं।’
‘ठीक है।’
आज के अरुण गांगुली उन दिनों तो जनरल मैनेजर नहीं थे। एक साधारण से ग्रैजुएट ट्रेनी इंजीनियर थे। उसके ऊपर कम से कम दो बॉस थे। अत: उच्चाधिकारिओं की अनुमति के बगैर जब-तब बाहर निकलना बहुत मुश्किल था। अरुण सोचने लगे कि छुट्टी किससे ली जाए? एक बार किसी से छुट्टी मिलने में असफल होने पर दूसरे से छुट्टी माँगना ठीक नहीं होगा। अत: एक बार में ही छुट्टी मंजूर करवानी होगी। बासंती ने शाम तीन बजे मिलने को कहा है। यानी कि पावर प्रोजेक्ट से कम से कम दो बजे निकलना होगा। लेकिन छुट्टी माँगे किससे? मिस्टर लोटलेकार? साफ मना कर देंगे। चीफ इंजीनियर मिस्टर नायर? उनके चेहरे पर भी हंसी नहीं दिखाई देगी। बॉयलर सुपरिनटेंडेट मिस्टर चौहान? वह भी एक ही बात कहेंगे - ‘डयूटी पर आकर तबीयत वगैरह खराब न होने पर ख़ास तौर से ट्रेनिंस को छुट्टी नहीं मिलेगी। यदि ज़रूरी हो तो उस दिन बेशक कोई न आए। अरुण तो सब समझ ही रहा है लेकिन डयूटी पर जब आ ही गया है तो अब क्या किया जा सकता है। दो बजे छुट्टी लेनी होगी। काफ़ी सोच-विचार के बाद अरुण ने ओ.ओ.एस.डी. अर्थात् ऑफ़िसर ऑन स्पेशल डयूटी मिस्टर महेश के पास जाना उचित समझा। वे चाहें तो छुट्टी दे भी सकते हैं। इस वृद्ध व्यक्ति के मन में दयालुता कुछ ज़्यादा ही है लेकिन मामला कुछ और ही हो गया। अरुण के छुट्टी माँगते ही मिस्टर महेश ने पूछा - ‘कितने बजे जाना चाहते हो?’
‘दो सवा दो बजे निकलने से चलेगा।‘’
‘लेकिन तुमने मुझे समस्या में डाल दिया, आज चेयरमैन आ रहे हैं। क्या करूं।’ कुछ देर चुप रहकर पता नहीं क्या सोचा मि. महेश ने। अंतत: कहा - ‘नहीं, कुछ नहीं किया जा सकता। तुम्हें तो रात आठ-नौ बजे तक रहना पड़ता है। चलो मान लो तुम्हें आठ घंटे की डयूटी भी दे दी तो भी तो शाम चार बजे तक तो रहना ही पड़ेगा। यदि जाना चाहो तो तब जा सकते हो।’
बासंती ने शाम तीन बजे मिलने बुलाया है, छुट्टी मिल रही है चार बजे। उसके बाद दौड़ना पड़ेगा चैपल रोड, जी.जी.आई.सी. की तरफ। यानी कम से कम और एक घंटा। यानी पाँच बजे से पहले अरुण वहाँ किसी भी क़ीमत पर नहीं पहुंच सकता। इस तरह जाने का क्या फ़ायदा? कोई आदमी इस तरह भला दो घंटों तक इंतज़ार कर सकता है। अरुण ने खुद से ही कहा। आज वह क्यों नहीं होटल में ही रह गया, क्यों चला आया। एक दिन छुट्टी ले ली होती, तो इस अनिश्चितता का सामना नहीं करना पड़ता। आज साइट पर आकर उसने सबसे बड़ी ग़लती की है। लेकिन अब इस सोच-विचार का क्या फ़ायदा? जो होना था सो तो हो ही गया। एक बार चक्कर मार ही आया जाए।
विस्मयकारी घटनाएं तो विस्मय उत्पन्न करने के लिए ही घटती हैं। तीन बजे जिस लड़की के इंतज़ार करने की बात थी वह पाँच बजे के बाद भी इंतज़ार करती मिलेगी यह अरुण के लिए हैरानी की बात थी। अरुण यहाँ आया ज़रूर है मगर बासंती से मुलाक़ात की उसे तनिक भी उम्मीद नहीं थी। हैरानी की बात है कि खूबसूरत मूरत उसकी तरफ आगे बढ़कर इतना खूबसूरत जवाब देगी जिसे स्मृति के भंडार में हीरे-ज्वाहरातों की तरह सहेज कर रखना चाहिए।
रिक्शा से उतर किराया चुकाने के बाद शून्य निगाहों से अरुण ने जब इधर-उधर देखा, तब शाम के पाँच बजकर दस या पंद्रह मिनट हुए होंगे। बस स्टॉप के शेड के नीचे खड़ी बासंती ने उसे पहले ही देख लिया था। धीमे-धीमे कदमों से आगे बढ़ते हुए स्निग्ध स्वर में कहा, ‘मुझे पता था आप आएंगे।’
सवा दो घंटों तक इंतज़ार करने के बाद भी बासंती की धैर्य जवाब नहीं दे गया था। तनिक भी गुस्से का प्रदर्शन नहीं किया। बल्कि गहरी आस्था से कहा, ‘मुझे पता था आप आएंगे।’ क्या जवाब दे अरुण। वह तो अभिभूत हो गया। चाहे प्रथम परिचय के रंगीन क्षण ही क्यों न हों, दो घंटे इंतज़ार करने के बाद विरक्त हो जाना स्वभाविक ही है। बासंती के चेहरे पर उसके लेशमात्र भी चिहन् नहीं थे। स्निग्धता से वह मुस्कराए जा रही थी।
अरुण बोला, ‘पहले मैं आपसे माफी चाहता हूँ।’
‘अरे क्यों? किसलिए?’ बासंती के पूरे बदन में मानो बसंत का स्पर्श था।
‘कृपया आप मुझे डांट लगाईए। ज़रा गुस्सा दिखाईए।’
‘बेवजह आपको बातें क्यों सुनाऊं?’
‘आपको गुस्सा नहीं आता?’
‘मेरे गुस्से का मतलब पता है क्या? पृथ्वी पर प्रलय आने समान।’
‘जैसा कि अब?’
‘अच्छा, क्या आप जान-बूझकर देर से आए? इतना तो समझ में आता है कि मुझे सवा दो घंटे तक खड़े रखकर आपको क्या लाभ? ज़रूर काम में फंस गए होंगे।’
‘फिर भी इतनी देर बाद मैंने आपकी उम्मीद नहीं की थी। तो यहाँ आए क्यों?’ गले में पहने अपने हार को बासंती अपने दोनों दांतों में रख अरुण के मुँह की तरफ देखती रहीं।
‘सोचा, यदि मुलाक़ात हो जाए तो।’ अरुण ने कोमल स्वर में कहा।
स्वप्न की खुमारी में बासंती ने सिर्फ़ कहा, ‘मैं भी तो यही सोच रही थी।’
किसी रेस्तरां में बैठ चाय पीने के अरुण के प्रस्ताव को बासंती ने सीधे नकार दिया। अरुण के दोबारा कहते ही बासंती ने हंसते हुए कहा, ‘अच्छा क्या आप समय का हिसाब-किताब नहीं करेंगे। कितनी देर हो गई है कहिए तो। और देर भला की जा सकती है? अब तो घर लौटना होगा। वहाँ पहुँचने में भी तो आधा घंटा लगेगा।’
‘आपका घर कहां है?’
‘सिविल लाइंस में।’
वे एक रिक्शा में बैठ गए। कुछ दूर जाने के बाद बासंती ने महसूस किया कि अरुण काफ़ी सिकुड़ कर बैठा है। उसने थोड़ा हंसकर कहा, ‘आप इस तरह सिकुड़ कर क्यों बैठे हैं? स्वभाविक रूप से बैठिए न। या स्पर्श से बच रहे हैं।’ खिलखिला कर हंस पड़ी बासंती।
गति से बढ़ती जा रही थी रिक्शा। समतल और चमचमाती सड़क के दोनों किनारों पर झाऊ वृक्षों जैसे पेड़ों की क़तार थी। वृक्षों की घनी छाया सड़क की रौशनी के साथ ऑंख-मिचौनी खेलने में मस्त थी। पूरा रास्ता ही निर्जन था। ज़्यादा बातचीत करके इस निर्जनता को कोई भी तोड़ना नहीं चाहता था। मन में ढेर सारे सपनों को संजो कल्पना का जामा पहनाना अच्छा लग रहा था। फिर भी कुछ तो बातें होनी ही चाहिएं। अरुण ने धीमे स्वर में कहा - ‘सपर्श से बचने का कोई सवाल ही नहीं। दरअसल क्या है कि मैंने इससे पहले कभी- यानी इस तरह.....’
‘सचमुच बहुत बचपना है आपमें।’
‘आप उससे ऊपर हैं क्या?’
‘कम से कम आपकी तुलना में तो। पता है, हमउम्र लड़के की तुलना में लड़कियों की परिपक्वता बहुत ज़्यादा होती है।’
‘वह कुछ मामलों में। वर्ना लड़के ही....’
‘रुकिए-रुकिए, कुछ मामलों में मतलब?’
‘आप लोग यदि इतनी ही बुद्धिमति हैं तो बचकानों का इससे भी ज़्यादा खुलकर बताना ठीक होगा क्या?
बहुत जल्दी बुद्धिमान बन गए हैं किंतु - बासंती के पूरे चेहरे पर पहले बसंत की हंसी छाई हुई थी। और थोड़ा आगे जाकर रिक्शा के बाँई तरफ मुड़ते ही बासंती बोल उठी - ‘अरे रोको।’ रिक्शा के रुकते ही बासंती झट से उतर पड़ी और पर्स खोलकर पैसे निकालते ही अरुण ने शांत स्वर में कहा - ‘यह क्या कर रही हैं आप?’
‘किराया मैं ही दे रही हूँ।’
‘आप स्टुडेंट हैं और मैं नौकरी करता हूँ। अत: मुझे ही देना चाहिए और मुझे इसी रिक्शा में ही तो लौटना पड़ेगा।’
‘आप कितनी दूर जाएंगे, मेरा मतलब है आप रहते कहाँ है?’
‘बरेली क्लब होटल में।’ अरुण ने बासंती की ऑंखों में देखते हुए अनुनय के स्वर में कहा - ‘अगले रविवार आप चले आईए न - उस दिन मेरी छुट्टी है।’
‘वादा नही करती।’
‘कोई समस्या है?’
‘समस्या से मतलब उस दिन पिताजी, काका सभी घर पर होंगे। कोशिश करूंगी। फिर भी न जा सकी तो... ’
‘अपने भाग्य के सिवा मैं किसी और पर दोषारोपण नहीं करता।’
‘तो चलूं मैं।’
‘ठीक है।’
......जारी।
......जारी।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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