(यहां प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
बहुत पहले से ही पक्षियों का कलरव शुरू हो गया था। आसमां मे पूरब की तरफ हल्की लालिमा नज़र आ रही थी लेकिन इतनी सुबह लगता है किसी की नींद नहीं खुली। हाँ शमीक की नींद खुलने का तो सवाल ही नही। जग कर ही उसने सारी रात गुज़ार दी। एक व्यक्ति के लिए मूल्यबोधों का क्या महत्व है - ऐसी खूबसूरत पत्नी के करीब रहकर भी अरुण गांगुली ज़िंदगी भर के लिए कितनी दूर हो गए सिर्फ विश्वास की मर्यादा को धूल-धुसरित होते देख। सचमुच सोचा भी नहीं जा सकता। बासंती गांगुली ने भी यौवन के स्वर्णिम समय में पति के अनुराग के स्पर्श से वंचित रह दुबारा शिकायत नहीं की। उसका यह इंतज़ार क्या कम है? और आज भी तिरतालीस-चवालीस साल की उम्र में भी उसी धैर्य की परीक्षा दिए जा रही हैं। कोई और युवती होती तो अब तक विद्रोह का बिगुल बजा दिया होता। बासंती गांगुली अवश्य उनसे भिन्न हैं। अपने अपराध के महत्व को समझते हुए खामोशी से उन्होंने इसे शिरोधार्य कर लिया। लेकिन आशाएं-आकाक्षाएं मर चुकी हों तो आदमी कैसे जिंदा रह सकता है? अपनी सज़ा की अवधि समाप्त होने के सुखद क्षण की प्रतीक्षा में ही बासंती ममी का जीवन गुज़ार रही हैं। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि एक तरह से बासंती ही अरुण गांगुली को सज़ा दे रही हों। किसी की किसी आकांक्षा को ही सच साबित कर वे कहीं चली भी नहीं गई। एक दिन के लिए भी बरेली में अपने माता - पिता, काका से मिलने नहीं गईं। इस कठिन जीवन को वे ख़ामोशी से गुज़ारते हुए भी मानसिक रूप से पल-पल घायल होती रहीं - इसका मूल्यांकन कौन करेगा? इतने दिनों तक शमीक को कुछ भी पता नहीं था। अरुण गांगुली के प्रति उसके मन में कमज़ोरी है लेकिन अब उसे बासंती गांगुली से सहानुभूति है। लेकिन चुमकी के बारे में सोच कर उसे बहुत तकलीफ हुई। उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं था। माता-पिता में स्वभाविक संबंध न देख एक लड़की कितनी स्वभाविक रह सकती है? चुमकी ठीक ही कहती है - ‘मैं पागल नहीं हो गई, और मैंने आत्महत्या नहीं कर ली, यही बहुत है।’
चुमकी कुछ बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कहती - ज़्यादती अगर कुछ है तो वह है चुमकी का मिज़ाज।
वह किसी को को भी पछाड़ सकती है। जैसे आज के वाक्ये को ही लें।
वैसे आजकल शमीक के साथ चुमकी का रवैया बहुत अच्छा है परंतु अचानक वह क्या कर बैठती है - उसकी वजह खोजना भी मुश्किल है। साढ़े-बारह बजे पावर प्लांट से घर आए शमीक और अरुण गांगुली। हाथ-मुंह धोकर खाने के टेबल पर बैठते ही छोटा सा तूफान उठ खड़ा हुआ। अति शीघ्रता से वहाँ आ चुमकी ने सबसे पहले पिता की तरफ फिर शमीक के मुँह की तरफ देख क्रोध से पूछा - ‘आप में से किसी ने मुझे खाने के लिए क्यों नहीं बुलाया?’
अरुण गांगुली अपनी बेटी को अच्छी तरह ही जानते हैं। ये बात कहाँ तक जा पहुँचेगी यह बताने की क्षमता उनकी भी नहींय़ और ग़लती तो सचमुच हुई है। अत: ग़लती स्वीकार कर लेना ही उचित होगा। अरुण गांगुली ने शर्मिंदगी के स्वर में कहा - ‘तुम घर पर ही हो पता नहीं था। आज तुम कॉलेज नहीं गई?’
‘कॉलेज खुला होता तो आपके साथ खाने में कोई शामिल होना चाहता?’ ये रही चुमकी। नहीं कहने से ही बात ख़त्म हो जाती। फिर भी मानो ये ताना मारना ज़रूरी था। वह पिता को भी नहीं छोड़ती। बासंती ने अनमने से बेटी की तरफ देखा। पति और शमीक को खाना वे ही परोस रही थीं। स्थिति को संभालने के लिए उन्होंने शांत स्वर में कहा, ‘हम दोनों बाद में खाएंगें।’
‘जोड़-तोड़ वाली बातें तुम बिलकुल नहीं करोगी।’
विषादयुक्त दृष्टि से बेटी की तरफ देखती रहीं बासंती।
‘नहीं तो क्या?’ चिल्लाकर चुमकी ने जानना चाहा, ‘बाद में क्यों खाऊंगी, क्या मैं बाहरी व्यक्ति हूँ?’
बहुत उदासीन होकर बासंती ने कहा, ‘नहीं मैं ही बाहरी व्यक्ति हूँ।’
मैंने यह नहीं कहना चाहा था - ‘मेरा मतलब था कि हम चारों एक साथ भी तो खा सकते थे।’
‘ये तो बहुत ही अच्छा होता। इतनी देर बाद बोलने का मौका मिलते ही शमीक ने चुमकी के चेहरे की तरफ देख कर कहा, बार-बार परोसने का झंझट न कर सभी मिलकर.....’
‘तुम चुप रहो। अब तक तो कुछ बोल नहीं पाए, डर से जान निकल रही थी क्या?’
शमीक ने धीमे स्वर में उत्तर दिया, ‘मर कर आदमी बात नही कर सकता।’
चुमकी ने दो मिनट शमीक को देखा। माता और पिता पर आया गुस्सा तब तक पूरी तरह से शमीक पर आ बरसा। तीखे तेवरों से उसने शमीक को हुक्म सुनाया - ‘सुनो, लंच के बाद पावर प्लांट वगैरह जाने की कोई ज़रूरत नहीं, मेरे साथ चलोगे।’
एक साथ खाना न खाने पर चुमकी को अवश्य गुस्सा आ सकता। गुस्से से दु:ख। लेकिन लंच के बाद उसे साईट पर जाने से रोकने के साथ इसका क्या संबंध? शमीक कुछ समझ नहीं पाया। सामजंस्यरहित इस गुस्से का क्या मतलब? शमीक ने अनुनय के स्वर में कहा - ‘मुझे क्यों रोकती हो? मैंने क्या किया है?’
‘कहा न मेरे साथ चलोगे।’
‘कहाँ?’
‘तुम्हें यह पता होना चाहिए कि मैं कैफियत नहीं देती।’
शमीक ने और भी विनम्रता से कहा - ‘नहीं, नहीं, मैं कैफयित नहीं माँग रहा। मेरी तो डयूटी भी है न। जब-तब इस तरह......’
‘तबीयत ख़राब हो जाए तो क्या करते?’
करुण स्वर में शमीक ने जवाब दिया - ‘नहीं जाता’।
‘तो तुम्हारी तबीयत ख़राब है।’
असह्य दृष्टि से शमीक ने एक बार बासंती की तरफ और फिर अरुण गांगुली की तरफ देखा। यानी अपनी बेटी को अब आप लोग ही संभालें। मेरी मुसीबत और न बढ़ाएं।
‘आप में से किसी ने भी मुझे खाने के लिए नहीं बुलाया। चुमकी ने चाहे कितने क्रुद्ध स्वर में यह क्यों न कहा हो, अरुण गांगुली ने उसके दु:ख को महसूस किया। ग़लती उनकी भी है। बेटी घर पर है, यह उन्हें पता ही नहीं चला। पूछ तो सकते ही थे। बेटी पिता के साथ खाना चाहती थी, पिता बेटी के बगैर ही खाने बैठ गए। इस विपरीत छवि ने ही अरुण गांगुली को अन्यमनस्क कर दिया। उन्होंने ज़्यादा समय नहीं लिया। शमीक की ख़ामोश नज़रों से उन्होंने तय किया कि बेटी के पक्ष में कुछ करना चाहिए। शमीक के बारे में भी सोचना होगा। शांत स्वर में कहा - ‘चुमकी जब कह रही है तो उसकी बात मान लो। तुम्हारे इन्कार की वजह समझ रहा हूँ। प्रशासनिक दृष्टि से मुझ निरपेक्ष होना चाहिए। तुम कल ऑफिस जाकर आधी छुट्टी का फार्म भर कर मेरे टेबल पर जमा दे देना।’
लंच के बाद घंटा-डेढ घंटा आराम करने के बाद वे निकल पड़े। पाणीकर को छुट्टी देकर महरुन फिएट का जिम्मा अब चुमके के हाथों में है। साथ शमीक है। वह काफी ग़ंभीर होकर सीधे रास्ते की तरफ देख रहा है। दोनों तरफ मकई के खेतों और संतरों के बागों को पीछे छोड़ते हुए चुमकी ड्राईवर से पायलट बनने लगी। हाथों में स्टीयरिंग थामते ही उदंड हो जाना शमीक को पसंद नही। अब उसने कुछ नहीं कहा। जैसे मर्ज़ी चलाए।
चुमकी को गाड़ी रोकनी पड़ी। सामने रेलवे फाटक था, तुरंत उसने विरक्ति से कहा -‘यही एक ग़लत बात है - गाड़ी कब आएगी पता नही, आधा घंटा पहले से ही फाटक बंद कर रख देते हैं। जिससे कहा था, वह तो निर्विकार था। शमीक खिड़की से बाहर दूर खेतों में काम करने वालों को देख रहा था। चुमकी ने ज़रा ज़ोर से पूछा - ‘बात क्या है, बोलो तो?’
‘क्या हुआ?’
‘गूंगे की तरह चुपचाप क्यों बैठे हो?’ ज़रा हंसकर चुमकी ने फिर कहा - ‘मुझे गंभीर प्रकृति के लड़के बिलकुल पसंद नहीं।’
वह तो तुम्हारी ही वजह से। अब मौन की बर्फ पिघलनी शुरू हो गई थी। शमीक ने शांत स्वर से जानना चाहा - ‘तुम्हें क्या हो जाता है बताओ तो? गुस्सा किया किसी पर और निकाला मुझ पर। तिस पर दफ्तर गोल। किसी भी बात का दूसरी के साथ कोई ताल-मेल नहीं। शुक्र है मैंने तुम्हारा कहना माना वर्ना मेरा जो हश्र होता। इस तरह कितने दिनों तक चलेगा यही सोच रहा था। जो मिज़ाज़ हैं, किसी भी दिन अनायास ही कह दोगी पटरी पर कूद कर आत्महत्या कर डालो, वर्ना मुझे बहुत गुस्सा आएगा।’
खिलखिला कर हँस पड़ी चुमकी। तुमने भी मौका देखकर मुझे बहुत बातें सुना दीं। देखो - ‘मैंने ज़रा भी बुरा नहीं माना।’ चुमकी ने फिर हँसते हुए कहा - ‘दरअसल क्या है कि सुबह से ही तुम्हारे साथ अम्माजारी लेक जाने का मन कर रहा था।’
‘वह तो तुम मुझसे कह ही सकती थी।’
‘सो कब कहूँ?’ तीव्र क्रोध से फुफकारते हुए चुमकी ने कहा, ‘सुबह नींद से जगते ही सुनने में आता है कि झाड़-पोंछ करने ऑफिस चले गए हो। इतनी सुबह जाकर क्या करते हो, यह तो तुम ही जानो। दोपहर को कहूँ - उससे पहले ही देखती हूँ तुम लोग खाने बैठ गए हो। फिर मेरा दिमाग ठीक-ठिकाने रहता है भला?’
‘यही एक बात बढ़िया कही है तुमने।’ शमीक ने हंसते हुए कहा, ‘तुम्हारा दिमाग जो ठीक नही रहता, यह तुम अच्छी तरह ही समझती हो, है न?’
‘जो जी में आए कहो, आज तुम पर गुस्सा नहीं करूंगी।’
‘यानी आज का कोटा ख़त्म।’
‘तुम निरीह दिखते हो, दरअसल, तुम बहुत ख़तरनाक लड़के हो।’ चुमकी इतनी मासूमियत से मुस्कराई जो सिर्फ़ उसी को जंचती है।
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अम्माजारी लेक के झिलमिलाते पानी के बीचोबीच एक कृत्रिम पहाड़ है। पानी के चारों तरफ बाँध की भाँति चौड़ा रास्ता है। दाहिनी तरफ बच्चों के लिए सुंदर सा पार्क है। और एक तरफ छोटा सा चिड़याघर है। चिड़ियाघर और पार्क के साथ हैंगिग ब्रिज अटूट बंधन में बंधा हुआ। उस तरफ जाते ही नज़र आता है मौसूमी फूलों का बगीचा। सब को पीछे छोड़ते हुए सामने के हरे जंगल की तरफ बढ़ चली चुमकी। पीछे-पीछे शमीक।
इस तरफ बैठने की व्यवस्था है और लोग आकर बैठते भी हैं। फिर भी जंगल मानों जंगल ही रह जाता है। लोगों के आवागमन से उसकी निर्जनता तनिक भी ख़त्म नहीं होती। जो लोग आते हैं वे ही ख़त्म करना नहीं चाहते।
एक युक्लिपटस के पेड़ के साथ टेक लगाकर बैठते हुए चुमकी ने कहा, ‘बैठो यहाँ। तुमसे बात करनी है।’
बाध्य होकर शमीक ने चुमकी के सामने बैठते हुए पूछा, ‘क्या बात?’
‘निश्चित रूप से प्यार-मुहब्बत की बात तो नहीं ही।’
‘उसके लिए तो सुनील शिवलकर है ही।’ हँसते हुए शमीक ने जवाब दिया, ‘तुम यहाँ घूमने-फिरने नहीं आई हो, यह मैं जानता हूँ। कोई प्रॉब्लम?’
‘ठीक समझे।’ अचानक खुद को समेटते से हुए चुमकी ने कहा, ‘मैं तुमसे कुछ परामर्श करना चाहती हूँ।’ शमीक उसके मुँह की तरफ देखे जा रहा है। चुमकी ने धीरे-धीरे कहा - ‘मेरे माता-पिता के मामले में तुमने कुछ सोचा है? मेरे कहने का मतलब है पिताजी तुम्हें बहुत चाहते है। तुम्हारी कोई भी बात वे टाल नहीं सकते।’
‘मुझसे मध्यस्थता करने को कह रही हो।’
‘हाँ।’
‘बहुत ही बचकाना प्रस्ताव है तुम्हारा।’ बहुत देर बाद ज़रा गंभीर होकर उन्मुक्त रूप से शमीक ने कहा, ‘कुछ कहने का मुझे कोई हक़ ही नहीं है। इससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँच सकती है और इसे मेरा दु:साहस समझा जाएगा, जो मैं अपने होश-ओ-हवास में किसी क़ीमत पर भी नहीं कर सकता। मैं तुमसे माफी चाहता हूँ चुमकी।’
‘एक व्यक्ति का आत्मसम्मान ही तुम्हारे लिए बड़ी चीज़ हो गया। मेरी माँ का पक्ष नहीं देखोगे? सारा जीवन एक मरुस्थल में अकेले गुज़ार दिया, तुम क्या कुछ भी समझ नहीं पा रहे?’
‘यही बात तो तुम्हारे पिता के लिए भी कही जा सकती है। उन्हें भी हर चीज़ से वंचित होना पड़ा है। मैं जो कहना चाहता हूँ - चुमकी तुम मुझे ग़लत मत समझना।’ बहुत ही शांत स्वर में शमीक ने कहना शुरू किया - ‘मैं किसी का भी पक्ष लेकर बात नहीं कर रहा। तुम्हारे माता-पिता की तकलीफ़ को मैंने महसूस किया है इसलिए मुझे भी तकलीफ़ होती है। मुझमें अगर क्षमता होती तो दोनों के पैर पड़कर मेल-जोल की व्यव्स्था करता। यहाँ मामला बिलकुल भिन्न है। मैं एक व्यक्ति को उसके आदर्शों से दूर कैसे कर सकता हूँ? नीति के लिए जिन्होंने खुद निर्वासन स्वीकार किया है.... ’
नीति, नीति और नीति... काफ़ी धैर्य से शमीक की बातें सुन रही थी, चुमकी।
‘अब वह जल उठी, एक लड़की को होटल में अकेली पाकर...मेरे पिता हैं इसलिए किसी तरह की रियायत करते हुए बात नहीं कहूँगी।’
‘तुमने जैसी व्याख्या की, क्या मामला ठीक वैसा ही है? उन पर विश्वास न करने की कोई वजह ही नहीं थी। संदेह का अपमान सहकर बहुत से लोग हंसते-खेलते हुए पूरी ज़िंदगी गुज़ार देते हैं। कुछ लोग नहीं कर पाते। अरुण गांगुली विरले व्यक्ति नहीं है। कम से कम मैं तो यही समझता हूँ। साफ-साफ शब्दों में यूं कहा जाए, इतनी खूबसूरत पत्नी पाकर भी जिसने खुद को नहीं खो दिया, इन्सान की मर्यादा का सम्मान करते हुए पाक-साफ रहे, और जो भी हो वह साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता। मैं जानता हूँ, इसके बाद शायद लोग उन्हें पागल क़रार दें, कोई मूर्ख कहेगा, मेरी नज़रों में वे एक पवित्र व्यक्ति हैं। जिसके सीने में विश्वास का बीजमंत्र हो एकमात्र वही इतना कठोर हो सकता है।’
काफ़ी देर तक पता नहीं क्या सोचती रही चुमकी। फिर उदास से स्वर में धीरे-धीरे कहा - ‘हाँ, पिताजी पर विश्वास करना चाहिए था। परिवार के लोग स्वभाविक रूप से नहीं कर पाए, पर माँ तो पिताजी को गहराई से जानती थीं, पहचानती थीं। फिर पिताजी को भी समझना चाहिए था कि माँ ने अविश्वास घर वालों के दबाव पर किया था।’ गहरी साँस लेकर चुमकी फिर कहने लगी, ‘माँ के लिए बहुत दु:ख होता है। कभी-कभी तो मेरा दिमाग ही काम नहीं करता। जी चाहता है कि सब कुछ तोड़-फोड़ कर उलट-पलट कर डालूं। जितनी ज़्यादा तकलीफ़ होती है माँ से उतना ही ज़्यादा तर्क करती हूँ।’ चुमकी के स्वर में आक्षेप था, ‘लेकिन परिणाम क्या हो रहा है बोलो?’
लौटते समय चुमकी ने फिर तूफान के वेग से गाड़ी चलानी शुरू की। अब शमीक ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘इतना तेज़ क्यों चलाती हो? ऐक्सीडेंट हो सकता है।’
‘जान छूटेगी तब। जल्दी मर जाऊंगी।’
‘जो मौत की बात करते हैं जिजीविषा उन्हीं में ज़्यादा होती है।’
‘मैं उनमें से नहीं हूँ। सचमुच ही मैं मरना चाहती हूँ।’
बातचीत बहुत गंभीर रूप लेती जा रही थी - अत: शमीक ने सर्दियों की मीठी धूप की भाँति हँसी बिखेरते हुए कहा, ‘ज़िंदादिली से लड़ते हुए जीना ही ज़िंदगी है यानी ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है। मैं उसी जीवन का स्पर्श पाना चाहता हूँ। जो डरपोक हैं वे ही पलायन कर जीना चाहते हैं......तुम अब कभी डरपोक नहीं बनोगी।’
‘तुम्हारी बात को ध्यान में रखूंगी।’ अब चुमकी हँस पड़ी। हँसते ही वह चुमकी नहीं लगती।
बातें करते हुए चुमकी को ध्यान ही नहीं रहा। सीताबलदी इलाका काफ़ी पीछे छूट गया था। ध्यान आते ही तुरंत गाड़ी वापस घुमाई। अब क्या हुआ? पूछना चाहते हुए भी शमीक ने ख़ामोश रहना ही उचित समझा। यद्यपि इस वक्त चुमकी बहुत ही शांत है और हज़ार कोशिशों के बावजूद झगड़ने के लिए वह कोई सूत्र नहीं तलाश पाएगी अत: अनायास ही उसे यह बात कही जा सकती थी। फिर भी शमीक चुप ही रहा। फिर सोचा, एक बार पूछ कर देख ही लिया जाए। ऐसी भी क्या विस्फोटक स्थिति होगी। उसके विचारों-विशलेषण से चुमकी कहां तक सहमत हो सकी है, यह जानने कि लिए ही शमीक पूछ बैठा, ‘गाड़ी क्यों घुमाई? ’
सड़क पर सतर्क दृष्टि रखते हुए चुमकी ने जवाब दिया, ‘मैं इतनी क़ैफियत नहीं दे सकती।’
मन ही मन हँसा शमीक। चुमकी, चुमकी ही है।
सीताबलदी इलाका ही क्यों, पूरे नागपुर शहर में सर्वश्रेष्ठ मिठाई की दुकान है - ‘आनंद भंडार।’ वहाँ जाकर गाड़ी रोकी चुमकी ने। शमीक को मिठाई बहुत पसंद है। यह उसे मालूम है। इसलिए आज शुरू से ही उसने सोच रखा था कि उसे जी भरकर मिठाई खिलाएगी। अत: और भी कितना आगे क्यों न निकल जाते, चुमकी यहाँ लौटकर आती ही।
दुकान पर आवश्यक निर्देश दे शमीक को ले चुमकी एक कोने में जा बैठी। पाँच मिनट गुज़रे होंगे। उसके बाद ही शमीक की हैरानी की सीमा नहीं रही। धीमे स्वर में दिया गया चुमकी का निर्देश इतना विशाल था यह वह समझ ही नहीं पाया। चार बड़ी-बड़ी प्लेटें तरह-तरह की मिठाई से भरी हुई उसे घेरे हुई थीं। चुमकी के सामने छोटी सी प्लेट में सिर्फ़ दो मिठाईयाँ। शमीक ने तुरंत पूछा - ‘ये क्या बात हुई?’
‘मिठाई खाने से मोटी हो जाऊंगी। तुम तो जानते हो इस डर से मैं खाती नहीं।’
‘वह सब बकवास है। तब तो दुनिया का सबसे मोटा व्यक्ति मुझे होना चाहिए। पर अब ये सब बातें रहने दो। तुमने मुझे क्या पेटू समझ रखा है। कोई इतना खा सकता है भला?’
‘तुम्हें तो पसंद है।’
‘‘तो क्या हुआ?’
‘मैं इतनी बहस नहीं कर सकती। खाना है खाओ, वर्ना फेंक दो।’
‘अच्छा इस तरह भला कोई खा सकता है ? तुम्हारे गले से विनम्र स्वर नहीं निकलता क्या ?’
‘बहुत बड़ी गलती हो गई।’ हँस पड़ी चुमकी, ‘प्लीज़ ये थोड़ी से मिठाई आप ग्रहण करें।’
‘बहुत भारी मज़ाक हो गया ये।’ पहले वाली हँसी की लोर शमीक के होंठों पर छाई रही।
‘मज़ाक नहीं - पूरे अपनत्व से कह रही हूँ, थोड़ी सी कोशिश करो, हो जाएगा।’
शमीक ने संभव कर दिया। खाना ख़त्म होते ही सोचा था कि शायद अभी चुमकी कुछ कहेगी। लेकिन आश्चर्य, मजाक के तौर पर भी उसने कुछ नहीं कहा। बल्कि चुमकी के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। कोई किसी को खिलाकर इतनी खुशी का अनुभव कर सकता है, यह शमीक ने पहली बार महसूस किया। और, चुमकी एक रहस्यमय द्वीप की बाशिंदा ही लगती रही।
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समय कितनी तेज़ी और ख़ामोशी से सरकता जा रहा है इसका हिसाब शायद कोई नहीं रख रहा था। जबकि समय के बहाव में बहकर घटनाएं ठीक घटती जा रही हैं। चुमकी बी. ए. पास कर एम. ए. में दाखिला ले चुकी है। शीघ्र ही अरुण गांगुली बोर्ड के चेयरमैन बन जाएंगे। ऐसा ही सुनने में आ रहा है। इतनी बड़ी ख़बर पर भी इस व्यक्ति की प्रतिक्रिया को समझ पाना मुश्किल है। उनकी बातों या आचरण से उच्छवास की तनिक भी अभिव्यक्ति नहीं दिखती। इस बीच शमीक को भी कन्फरमेशन लेटर मिल चुका है। अब वह प्रशिक्षु नहीं रहा। महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का एक असिस्टेंट इंजीनियर है।
और एक व्यक्ति में भी परिवर्तन हो रहा है। वे हैं बासंती गांगुली। उनका परिवर्तन मानसिक है। समझाना मुश्किल है लेकिन महसूस किया जा सकता है कि वे व्याकुल सी हो गई हैं। कन्फरमेशन लेटर मिलने के बाद शमीक ने उनका चरण स्पर्श किया था। बासंती ने उसका हाथ पकड़ कर रोका था, ‘रहने दो, रहने दो, कितनी बार प्रणाम करोगे।’ उनकी पकड़ का दबाव क्या ज़रूरत से ज़्यादा नहीं था? सिर्फ यही नहीं, सिर झुका कर खाते समय शमीक यदि अचानक सिर उठाता, बासंती को बड़े ध्यान से अपनी तरफ देखते पाता। यहाँ आने के बाद एक बात शमीक ने बहुत बार सुनी है। अरुण गांगुली की इक्कीस वर्ष की उम्र के चेहरे से शमीक की शक्ल काफी मिलती-जुलती है। अरुण गांगुली की उस वक्त की कई तस्वीरें शमीक ने देखी हैं। बात झूठी नहीं है। बासंती उसकी तरफ देख कर किसे तलाशती हैं?
बहुत रात हो गई हो ऐसी बात नहीं है. साढ़े दस। खा-पीकर सभी सो गए हैं। आगामी दिनों में शमीक की परीक्षा है। अत: उसके पास सोने का वक्त नहीं है। कम से कम साढ़े बारह या एक बजे तक तो वह पढ़ेगा ही। पढ़ते-पढ़ते एक बार उसकी नज़र दरवाज़े तक जाकर अटक गई। संगमरमर की प्रतिमा बन बासंती वहाँ खड़ी हैं। नज़रें मिलते ही उन्होंने कहा, ‘शमीक, ज़रा सुनो तो।’
बासंती के चले जाने के बाद शमीक ज़रा चिंतातुर हो गया। वे क्यों बुलाने आई थीं? सुनील शिवलकर और चुमकी के बारे कुछ कहेंगी क्या? उनकी घनिष्ठता के विषय में तो सभी जानते हैं। नया कहने को क्या है। अरुण गांगुली के बारे में कुछ? हाँ, वह भी हो सकता है। अम्माजारी लेक पर चुमकी ने उसे कुछ ऐसा ही आभास दिलाया था।
बासंती अपने कमरे में बिस्तर पर बैठी थीं। शमीक को देखते ही पलंग से उतर कर खड़ी हो गई। धीमे-धीमे कदमों से उसकी तरफ बढ़ीं। लड़के ने उसे ज्वालामुखी पर खड़े कर रखा है। उसे देखते ही बासंती को बरेली के सुनहरे दिनों की याद हो आती है। दो महीने पहले भी ऐसी बात नहीं थी। अब चिंताओं के दबाव में कभी-कभी शमीक और अरुण को एक कर बैठती हैं। उम्र का व्यवधान तब बड़ी बात नहीं रह जाती। बासंती चाहे जितना ही रौशनी में लौट आना चाहती हों - उनकी सूक्ष्म बुद्धि संवेदनाहीन होकर उनके दिमाग को उतना ही अक्षम बना देती है।
शमीक की चमकती ऑंखों के सिवा उन्हें और कुछ नज़र नहीं आता। ये तो वही ऑंखें हैं। इतने सालों में भी उनकी चमक रत्ती भर कम नहीं हुई। ऐसी सुंदर कांतिमय ऑंखें क्या दो व्यक्तियों की हो सकती हैं? शमीक और अरुण मिलकर एक हो गए हैं। बासंती ने शमीक के कंधों पर अपने हाथों का दबाव डाल अपनी तरफ खींचा। असपष्ट स्वर में कहा, ‘आओ।’
बासंती की स्थिर निगाहों के सामने शमीक मानो जलने लगा। ऐसा होना क्या संभव है? शमीक को एक बार तो लगा मानो सपना देख रहा है। बड़ी हैरानी से वह बासंती के चेहरे के तरफ देखता रहा।
बासंती के दरवाज़ा बंद करते ही शमीक मानो जमीन पर आ टिका। बासंती की उपस्थिति को नकार कर वह अरुण गांगुली के बारे सोचने लगा। मनुष्य पर विशवास करके जो जीना चाहते हैं - अमानुष ही उनकी हत्या कर सकते हैं। इस व्यक्ति के समक्ष शमीक छोटा नहीं बनेगा। जो व्यक्ति अब भी मूल्यबोधों को जकड़े हुए है उसे चोट पहुँचाना अन्याय ही नही - पाप है। शमीक ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘नहीं।’
गहरी सांस छोड़ते हुए बासंती ने कहा, ‘अब लौटने का कोई चारा नहीं।’
‘ऐसा न कहें।’ शमीक मानों बहुत ही गंभीर हो गया हो।
‘बगैर कहे उपाय क्या है? मेरा चेहरा अब बेपर्दा हो गया है।’
‘फिर भी मैं आपको ऐसा नहीं समझता। सोच भी नहीं सकता - लेकिन मुझे कम से कम इस एक व्यक्ति के सामने सिर उठाकर खड़ा होने दें।’
‘तुम सभी महान बनना चाहते हो। लेकिन - नहीं शमीक, और नहीं हो सकता। आओ...’
‘आप इस वक्त आपे में नहीं हैं। बाद में आप भी कम लज्जित महसूस नहीं करेंगी।’
‘लज्जा!’ एक अजीब भंगिमा में हँसी बासंती। ‘लज्जा शेष बची है? लेकिन तुम्हारी एक बात बिलकुल सच है, मैं बीमार हूँ।’
इस तरह बासंती के साथ बात बढ़ाकर कोई फायदा नही। जो उचित है, वह है इस वक्त कमरे से निकल जाना। ऐसा करने में ही शमीक को रुकावट आईं। बासंती ने कहा, ‘नहीं जाओगे।’
शमीक को अपने पास खींच कर अस्पष्ट स्वर में पता नहीं क्या कहने लगीं ठीक समझ नहीं आया। शमीक ने अलग होकर निकल जाने की कोशिश करते हुए अनुभव किया कि वे उससे ज़्यादा शक्तिशाली हैं।
अरुण गांगुली की नींद खुल गई थी। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उन्हें लग रहा था कि बासंती के कमरे में कुछ गड़बड़ हो रही है। क्या हो सकता है? इस तरह चुपचाप लेटे रहना ठीक नहीं। बासंती पर कोई मुसीबत तो नहीं आई? अनजानी आशंका से अरुण गांगुली ने जल्दी-जल्दी उस कमरे की तरफ कदम बढ़ाए।
इसे क्या कहा जाए, परिवर्तन या रूपांतर? या नाटकीयता? अरुण गांगुली को कमरे में आते देख दौड़ कर उनके पास जाकर फूट-फूट कर रोने लगीं बासंती। फफकते - फफकते हुए एक ही बात कहने लगीं जिसका अभिप्राय: यह था कि परिस्थिति का फ़ायदा उठाकर दु:साहसिक काम करने आया था शमीक।
शमीक ने अरुण गांगुली की तरफ नहीं देखा। वह सिर्फ़ बासंती को देख रहा है। पकड़े जाने पर ही इन्सान सबसे ज़्यादा निष्ठुर और झूठा बन जाता है। बासंती ने भी यही साबित किया। कहने को कुछ भी नहीं है क्योंकि इस वक्त कोई भी उस पर यकीन नहीं करेगा।
टकटकी लगाकर शमीक को देख रहे थे अरुण गांगुली। उसे देखते-देखते उनका चेहरा कैसे बदलने सा लगा। दोनों जबड़े क्रमश: भिंच गए। दोनों मायावी ऑंखें मानो आग उगल रही थीं। दोनों हाथों की मुट्ठियां भींचकर मानों वे सारी शक्ति इक्ट्ठी कर रहे थे। ये अरुण गांगुली बिलकुल भिन्न व्यक्ति थे उन्हें पहचाना ही नहीं जा रहा था। उनके दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, यह दुनिया अगर ऐसी ही कठोर हो सकती है तो भला वे क्यों न निष्ठुर बने। जो विश्वासघाती हैं उन्हें क़तई माफ नहीं किया जा सकता। शमीक को सज़ा भुगतनी ही होगी। अरुण गांगुली शमीक पर टूट ही पड़े। थप्पड़, लात, घूँसों की बौछार। पूर्ण उन्माद में वे मारते जा रहे हैं। ताबड़तोड़ पिटाई से बहे खून से शमीक का चेहरा नहा गया।
अपने कमरे में आकर कुर्सी पर धम्म से बैठ गए अरुण गांगुली। उनके माथे की नसें दपदपाते हुए उनकी पीड़ा को बढ़ा रही थी। बहुत थकावट सी लग रही है। ज़रा सो लेते तो अच्छा होता, पर नींद है कहाँ? आज तो किसी कीमत पर नींद नहीं आएगी। भीतर दबी उत्तेजना ने उन्हें स्हस्त्र चिंताओं के आवर्त में डुबो दिया है। सीने में बहुत पीड़ा हो रही है। इस दु:ख को किसी के साथ बाँटा नहीं जा सकता। इसीलिए तो तकलीफ़ ज़्यादा हो रही है। दाहिने हाथ से मुँह को ढक कर शिथिलता से बैठे ही रहे अरुण गांगुली। कुछ ही क्षण। किसी की पदचाप सुनाई दी। नज़रें उठा कर देखा। खून से सना चेहरा लिए शमीक कमरे में आ खड़ा हुआ। अरुण गांगुली के चेहरे की तरफ एक टक देखता रहा। फिर धीरे-धीरे गंभीर स्वर में कहा, ‘आपने मुझे बेवजह मारा है, ज़्यादती की है। आप इस पर विश्वास कर सके? चुमकी को लेकर जब कलकत्ते गया था मौक़ा तो तभी अच्छा था। तब यदि आपके सम्मान, विश्वास की मर्यादा रख सका तो आपके घर पर ही रहकर इतनी घिनौनी हरकत कर सकता हूँ, यह कैसे सोच लिया आपने? जब मैंने अरुण गांगुली के आदर्शों पर चलकर एक और अरुण गांगुली बनना चाहा तो आपने ही मुझ पर अविश्वास कर मुझे इतना नीचे उतार दिया। आपने मुझे मारकर ज़्यादती की है। मार के घाव एक दिन सूख जाएंगे लेकिन मुझ पर किए गए अविश्वास के घाव ज़िंदगी भर मेरे शरीर पर लगे रहेंगे। मैं क्या हूँ और किस चरित्र का व्यक्ति हूँ, मेहरबानी करके चुमकी से पूछ लीजिएगा। आप एक बात और जान लीजिए कि आपने मुझ पर हाथ उठाकर ज़्यादती की है, ज़्यादती की है.....’
महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के कोराडी सुपर थर्मल के जनरल मैनेजर अरुण गांगुली के आवास पर ये ही शमीक के आख़िरी शब्द थे। उसके बाद उसने एक पल भी इंतज़ार नहीं किया। उस आधी रात को आहत शरीर को घसीटते-घसीटते जब वह नागपुर स्टेशन पर पहुँचा उस समय आकाश में पूरब की ओर हल्की-हल्की पौ फटनी शुरू हुई थी। प्लेटफार्म पर एक ट्रेन खड़ी थी। उस तरफ बढ़ते ही शमीक चौंक उठा। यही वह जगह है जहाँ पहले दिन बासंती गांगुली स्नेह भंडार लिए उसका इंतज़ार कर रहीं थीं। उस दिन शमीक की ऑंखों में सपने थे। जिजीविषा के सपने। और आज? उसी बासंती गांगुली के कारण आज वह असहाय है। राहगीर। हाँ, आज इस मुसीबत की घड़ी में भी शमीक की ऑंखों में पहले वाले ही सपने हैं। मायूस होने से नहीं चलेगा। उसे मजबूत बनना होगा। घर पर तीन-तीन असहाय सदस्य उस पर निर्भर हैं। उनका जीना-मरना भी इसी के हाथ है। अत: उसे उठना ही होगा। शमीक खुद ही खुद को उत्साह दे रहा था। पीठ थपथपा कर कहा, ‘हार मत मानना। हार मानने से नहीं चलेगा।’ भीतर से कोई आवाज़ निरंतर आ रही थी, तुम सच्चे हो, विश्वसनीय, साहसी, परिश्रमी हो और तुममें योग्यता भी है। तो तुम दुबारा दृढ़ कदमों से नहीं चल पाओगे? हाँ, क़िस्मत बहुत बड़ी बात होती है। क़िस्मत तो साहसियों का ही साथ देती है। उसी क़िस्मत को जीतना होगा। तुम सकोगे। ज़रूर सकोगे।
पूरा शरीर दर्द से कुनमुना रहा था। माथे पर बाँई तरफ काफ़ी सूजन है। वहाँ रह-रह कर दर्द हो रहा है। ठुड्डी के नीचे से काफी खून निकल रहा है। वहाँ थोड़ा सा खिंचाव भी महसूस हो रहा है। चलने में भी तकलीफ हो रही है लेकिन शरीर की चोटों की परवाह न करते हुए शमीक धीमे-धीमे क़दमों से खड़ी ट्रेन की तरफ बढ़ा।
खिड़की के पास बैठे लोगों से ही पूछा, ‘भाई साहब ये कौन सी ट्रेन है? कहाँ जाएगी?’
‘ये तो पैसेंजर ट्रेन है। मुंबई जाएगी।’
विशुद्ध मराठी लोग बंबई नहीं कहते। मुंबई कहते हैं। कौन क्या कहता है,क्या नहीं, इस वक्त शमीक को इससे कोई मतलब नहीं। वहाँ खड़ी ट्रेन बंबई जा रही है, उसके लिए इतना जान लेना ही काफ़ी है। लेकिन वह क्या करे? नए सिरे से पाँव न जमने तक कलकत्ते लौटना संभव नहीं। और इस वक्त कलकत्ते लौट कर जाने का मतलब है पराजय को आमंत्रण देना। शमीक ऐसा नहीं करेगा। नागपुर में उसने अपना साम्राज्य खोया है। खोया है बहुत कुछ ही। अत: यहाँ के किसी दूसरे इलाके में भी रहने का सवाल नहीं उठता। नए सिरे भाग्य की तलाश के लिए बंबई ही ठीक है। वहाँ काफी मौके हैं। एक बार खुद को जमा ले तो फिर प्रतिष्ठा अर्जित करना कोई बड़ी बात नहीं। इसी आत्मविश्वास को ले ट्रेन छूटने से पहले शमीक बंबई जा रही पैसेंजर ट्रेन के सेकेंड क्लास के एक कूपे में चढ़ संडास के पास के कोने में फर्श पर लेट जो सोया तो उसी नींद में बंबई पहुँचने वाला है। उसकी नींद जब टूटी तब ट्रेन इगतपुरी छोड़ बंबई की तरफ बढ़ने के लिए अपनी गति बढ़ाने में वयस्त थी।
सामने वाली लंबी सीट पर बैठ एक कम उम्र की बहू काफी बड़े से टिफिन करियर से कागज़ की प्लेटों में सब्जी, पूरी, अचार और कई तरह की तली हुई चीज़ें सजाकर परिवार के लोगों को दे रही थी। वे संतोषपूर्वक चाट-चूट कर खा रहे थे और आपस में बात-चीत कर रहे थे। केमछो, सारुछे, आपो आदि शब्द सुनकर समझ में आया कि वह गुजराती परिवार था। वह कोंकणी, मराठी जो भी हों उससे शमीक को क्या? वह तो सिर्फ़ खाने वालों की तरफ बार-बार देख रहा था। दरअसल शमीक को भी बहुत भूख लगी हुई थी। वह भूख इतनी तीव्र थी कि शायद वह उन लोगों से खाना मांग भी बैठे। शायद माँग ही लेता। लेकिन मन के भीतर कहीं एक दुविधा सी भी थी, क्या वे लोग उसे भिखारी समझ लेंगे? क्या इस डेढ़ दिन की अवधि में उसका चेहरा ऐसा हो गया है?
अन्नपूर्णा की नज़र शमीक पर थी। चार-पाँच बार नज़रें मिली भी। शायद वह समझ रही थी कि लड़का भूख से बिलबिला रहा है। लेकिन माँगना संभव नहीं। इज़्ज़त का सवाल है। इसीलिए नज़रें क्रमश: इसी तरफ है। पति, सास, ससुर, देवर को भोजन देते-देते अन्नपूर्णा चंचल हो उठी। लेकिन क्या सीधे-सीधे लड़के के हाथ में प्लेट थमा देना संभव था भला? और अंतत: उसका क्या मतलब निकाला जाएगा? परिवार के लोगों के सामने ऐसा करना कहाँ तक शोभनीय होगा, यह भी सोचने का विषय है।
बाथरूम जाने या हाथ धोने के बहाने सहसा अन्नपूर्णा उठ खड़ी हुई। शमीक की छठी इन्द्री सजग हो उठी। और देखा कि उस युवा वधु की साड़ी की तह से खाने का एक पैकेट शमीक की गोद में आ गिरा। साथ ही दबे स्वर में मनुहार थी, खा लेना। काम बहुत ही छोटा था लेकिन इसमें इतने दु:साहस की ज़रूरत है यह कौन समझेगा? अन्नपूर्णा की तरफ कृतज्ञ नज़रों से देखते हुए शमीक ने क्षण भर में ही पूरा खाना ख़त्म कर दिया।
क्या शमीक को फिर से नींद आ रही है? थक कर चूर होकर, मानसिक रूप से टूट चुके और बर्बाद हो जाने पर पेट भर कर खाना मिल जाने के बाद नींद आने को बाध्य है। लेकिन नींद की जड़ता क्रमश: कम होती जा रही है। चिंताओं का पहाड़ सिर पर है। महाराष्ट्र इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड की इंजीनियर की नौकरी कैसे बरकरार रखी जा सकती है, शमीक यही सोच रहा था। महाराष्ट्र इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के केन्द्र तो केवल नागपरु, कोराडी में ही नहीं हैं - पूरे राज्य में फैले हुए हैं। भुसावल, पारस, नासिक, पुणे, कल्याण। बंबई खाबारखेता आदि शहरों में भी हैं। अत: सबको घूम-फिरकर सभी जगहों पर रहना पड़ता है। ट्रांसफर के उस नियम के चलते शमीक कोराडी अर्थात् नागपुर से अन्यत्र कहीं भी बदली करवा सकता है, अवश्य करवा सकता है। लेकिन जिस अरुण गांगुली से असम्मान का यह आघात मिला है, उन्हीं की दी हुई नौकरी का दामन थामे रखना शमीक को तनिक भी सम्मानजनक नहीं लगा। शमीक यह नौकरी नहीं करेगा। उसने निश्चय किया कि जब विद्युत परिषद का प्रधान कार्यालय बंबई में ही है और वह बंबई ही जा रहा है तो पत्र द्वारा या खुद उपस्थित होकर वह नौकरी छोड़ने के निर्णय से अवगत करवा देगा। अरुण गांगुली के पास यह सूचना यथासमय पहुँच जाएगी और इससे एक बात साबित हो जाएगी कि शमीक सिर्फ़ सच्चा ही नहीं चारित्रिक और मानसिक हर दृष्टि से कुछ ज़्यादा ही सच्चा है।
ट्रेन तब कल्याण जंशन छोड़ बंबई वी. टी. यानी विक्टोरिया टरमिनस की तरफ दौड़ लगा रही थी। दोनों तरफ असंख्य छोटी-बड़ी फैक्टरियां और आफिस थे। साईनबोर्ड पर कंपनियों के नाम चमक रहे थे। वह एक इंजीनियर है। कर्म की इस विशाल नगरी में क्या उसे एक नौकरी नहीं मिलेगी? ऐसा हो सकता है भला? हो सकता भाग्य सहायक होने में ज़रा देर लगे। यह भिन्न सवाल है। भिन्न सवाल। क्या सचमुच यह भिन्न सवाल है? इस वक्त शमीक के लिए यही असली सवाल बन गया है।
न्युबैरकपुर के विज्ञान घोष बगान इलाके के छोटे से मकान के तीन प्राणी उसके द्वारा भेजे गए रुपयों के लिए महीने के पहले दिन से ही आस लगाए बैठे रहते हैं। इन तीनों को किसी भी कीमत पर वंचित नहीं किया जा सकता। हर महीने वहाँ निर्दिष्ट राशि भेजनी होगी। कहाँ से आएंगे वह रुपए? कम से कम छह महीनों के लिए इस तरफ से निश्चिंत हो सकता तो वह इस बंबई शहर में संघर्ष के लिए अंतिम प्रयास के तौर पर मिट्टी धूल फाँक कर भी गुज़ारा कर लेगा। लौट जाने से बात नहीं बनने वाली। हार मान लेने से कैसे चलेगा? शमीक को तो हर हाल में जीतना ही होगा।
नौकरी की तलाश शुरू हो गई। शमीक को लगा कि यह बहुत कठिन जगह है। यहाँ कोई किसी के लिए आसानी से जगह नहीं बना देता। जगह खुद ही बनानी पड़ती है। सारा दिन घूमना, भिन्न-भिन्न कंपनियों में जाकर मिलना-जुलना, साक्षात्कार देने का सिलसिला क्रमश: चलता रहा। फुटपाथ की दुकानों से रोटी-सब्जी खाकर फुटपाथ पर ही लेट कर अगली सुबह का इंतज़ार करना। नींद तो आसानी से आती नहीं। आती हैं तरह-तरह की चिंताएं, योजनाएं। नौकरी ज़रूर मिलेगी। लेकिन कब, और कितनी देर, यह तो पता लगाना संभव नहीं। अत: खर्च का एक हिसाब-किताब बना लिया जाना ज़रूरी है। परिवार की तरफ से निश्चंत हो जाने पर इधर का वह संभाल लेगा। इसीलिए शमीक अब कुछ और सोच रहा है। वह है, कलकत्ते में विकास चौधरी को एक ख़त लिखना ताकि अगले छह महीनों तक वे अपने इस प्रिय छात्र के घर वालों को हर महीने एक हजार रुपए भिजवा दिया करें। ये रुपए लेना कारुणिक तो है ही लेकिन वापसीयोग्य भी हैं। छह महीनों के ये रुपए सर को वापिस लेने ही होंगे। और इन छह महीनों में बंबई में पड़े रहकर शमीक जांच लेना चाहता है कि अरब सागर का जल कितना खारा है? क्या यही खारा पानी अमृत नहीं बनता? नहीं बन सकता क्या?
यह दुनिया सचमुच बड़ी अजीब है। इन्सान के मन की सूक्ष्म-जटिलता, प्यार-मुहब्बत, स्नेह-ममता, कामना-वासना कितने ही रहस्यों का रोज पर्दाफ़ाश होता है। कौन इसकी खोज-ख़बर के चक्कर में पड़ता है। दिन आते हैं, गुज़र जाते हैं। ज़िंदगी जिस रूप में आती है बहुत से लोग उसे उसी रूप में स्वीकार करते हैं। कुछ लोग नहीं करते।
..........जारी ।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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