(प्रस्तुत है बाग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा के उपन्यास का हिन्दी रूपांतर गोधूलि गीत। बांग्ला में उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से वे पहली बार हिन्दी पाठकों से रू-ब-रू हो रहे हैं।)
अब तक आप पढ़ चुके हैं कि अरुण गांगुली शमीक के ऑफिस में तशरीफ लाते हैं और उसके गले से लग क्षमा याचना के दौरान बेहोश हो जाते हैं। शमीक उन्हें अपने घर ले आता है और अच्छे-अच्छे डॉक्टरों से उनका इलाज करवाता है। लाख कोशिशों के बावजूद वह उन्हें बचा नहीं पाता। एक अजनबी वृद्ध के प्रति शमीक की यह बेचैनी और व्याकुलता को देख उसकी पत्नी अभिरूपा भी हैरत में पड़ जाती है। पत्नी की उत्सुकता के निदान के लिए शमीक उसे पूरी कहानी फ्लैश बैक में सुनाता है। चलिए आप भी सुनिए शमीक की ज़बानी....
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
नागपुर स्टेशन से बाहर आकर शमीक नामक असहाय लड़का एक दिन ठिठक कर रुक गया था। टैक्सी, ताँगा और स्कूटर चालकों ने मक्खियों की भाँति उसे घेर रखा था। ‘कहाँ जाओगे साब ? आईए न मेरी गाड़ी में - बिलकुल पक्षीराज है। बहुत जल्दी पहुँचा दूंगा।’ शमीक चुपचाप सुनता रहा। इधर-उधर देखते हुए वह खुद ही समझ नही पा रहा था कि अब उसे क्या करना चाहिए ? बहुत सी चिंताएं एक साथ उसके दिमाग में उलझ कर रह गई थीं। इसी बीच वे टैक्सी, ताँगे और स्कूटर वाले उससे कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसे एक बेकार आगंतुक समझ मुसाफिरों की तलाश में आगे बढ़ गए।
उस समय सुबह के साढ़े ग्यारह या पौने बारह बज रहे होंगें। जनवरी का महीना ख़त्म होने को था। सर्दी है लेकिन दोपहर की तीखी धूप पूरे बदन में अलग तरह की ही गर्माहट का आभास दे रही थी। उस उष्ण मौसम का लुत्फ उठाने का मन शमीक का नहीं था। शून्य निगाहों से वह चारों तरफ देखने लगा। दरअसल बटुया खो जाने के कारण विपत्तियों का पहाड़ उस पर टूट पड़ा था। बटुए में चार सौ रुपए थे और एक पता था। नागपुर में जिस व्यक्ति के यहाँ जाकर उसे ठहरना था, उनके घर का पता उसी बटुए में था। जबकि चार सौ रुपए के झटके को झेल जाना बहुत ही तकलीफदेह था। फिर भी इस वक्त शमीक के लिए वह पता ज्यादा ज़रूरी था। नागपुर जैसे उतने बड़े शहर में सिर्फ अरुण गांगुली के नाम के सहारे उनका घर खोज पाना कैसे संभव था? जबकि कलकत्ते से रवाना होने से पहले नागपुर के इस पते पर कम से कम दो-तीन बार नज़र दौड़ा ली थी, अब कुछ भी याद नहीं आ रहा था? घर का नंबर जाए भाड़ में, इलाके का नाम भी याद नहीं आ रहा था। वह पता होता तो भी एक आख़िरी कोशिश करके देखी जा सकती थी। असहाय सा होकर शमीक ने एक बार फिर अपनी पैंट और शर्ट की जेबें अच्छी तरह टटोलीं। पर कहाँ मिलता? जेब में हो तब तो? पते वाला कागज़ कहीं खो न जाए इसीलिए बटुए में बड़े जतन से संभाल कर रखा था। वह बटुया ही नहीं है।
शमीक समझ पा रहा था, फिर भी वह क्या कर सकता था। हावड़ा से गाड़ी पकड़ी थी। सफ़र में खाने-पीने की चीज़ें खरीदने के लिए पैसे बटुए से ही दिए थे। रात को सोने से पहले और आधी रात को एक-दो बार नींद खुलने पर चुप-चाप जेब टटोल कर देख लिया था कि बटुया जगह पर है भी या नहीं। हाँ है। इसी तरह चल रहा था। फिर सुबह हुई, दिन और चढ़ आया। शमीक ने चाय-नाश्ता करके पैसे चुकाए। बंबई मेल ने फिर समय पर उसे नागपुर स्टेशन पर उतार दिया। एक हाथ में सूट केस और दूसरे हाथ में होल्ड ऑल उठाने से पहले अंतिम बार बटुए को छूकर देखा था। गड़बड़ हुई इस ओवरब्रीज की सीढ़ीयां उतरते समय। माल-असबाब उठाए हर कोई एक-दूसरे से आगे जाना चाहता था। इसी बीच ऊपर से भी कुछ लोग नीचे आ रहे थे. जनसमुद्र का एक ज्वार सा था. इसी समय सीने की जेब पर शमीक ने कुछ दबाव सा महसूस किया था. दबाव धक्कम-पेल का नहीं वरन् कुछ और ही तरह का था यह भी शमीक समझ गया था। परंतु, शमीक के पास कोई चारा नहीं था दोनों हाथ रुके हुए थे. सूटकेस और होल्ड ऑल को पाँवों में ही फेंक तुरंत ही कमीज़ की जेब पर हाथ रख बोल उठा - ‘मेरा बटुया ? अभी-अभी मेरा बटुया - - - -’ शमीक का चेहरा मुरझा गया. क़ातर निगाहों से वह सिर्फ़ लाल चेक वाली कमीज़ पहने व्यक्ति को ढूँढने लगा जिसने जान-बूझकर भीड़ का फ़ायदा उठाते हुए उसे धर दबोचा था। नहीं, वह भी कहीं भी नहीं है. पलक झपकते ही ये लोग पता नहीं कहाँ चले जाते हैं, इस विषय पर शोध भी किया जा सकता है।
दो-चार आदमियों ने एक साथ हिन्दी में पूछा - भाईसाहब, कितने रुपए थे ? ये एक विरक्ति वाली बात थी। जिसका बटुआ खो जाए उससे कोई सहानुभूति नहीं, इस समय उसकी मानसिक स्थिति को कोई समझने की कोशिश नहीं करता - हर कोई यही पूछता है, कितने रुपए थे? जवाब देने को जी नहीं चाहा शमीक का। अप्रसन्न नज़रों से उसने प्रश्नकर्ताओं के चेहरे देखे, वह समझ गया कि रुपए तो मिलने से रहे। जबकि ये लोग अब उसे लगातार भाषण देंगे, स्टेशन मास्टर को सूचित कर दीजिए। आर. पी.एफ. वालों को भी बता दीजिए। स्टेशन पर भी पुलिस बूथ है। लुटेरों, जेबक़तरों को वे ही अच्छी तरह जानते हैं। पुलिस अगर चाहे तो तुम्हारा बटुआ तलाश कर दिलवा सकती है. परंतु इन सब फिजूल बातों से शमीक को ज़रा भी भला होने वाला नहीं था। होल्ड-ऑल और सूटकेस दोनों हाथों मे उठाकर शमीक ने स्टेशन से बाहर की तरफ कदम बढ़ाए।
शमीक को इस समय एक ही बात की फ़िक्र थी। अरुण गांगुली को कैसे तलाशा जाए? दरअसल ग़लती उसी की है। अगर यहाँ आने से पहले उसने यह जानकारी ले ली होती कि अरुण गांगुली किस संस्थान में किस पद पर कार्यरत हैं। तो आज शमीक को इस परिस्थिति का सामना न करना पड़ता। कलकत्ते में शमीक का मन बिल्कुल भी शांत नहीं था। बल्कि कहा जा सकतै है कि वह दिनों-दिन मानसिक संतुलन खोता जा रहा था।
न्युबैरकपुर के विज्ञान घोष बागान अंचल में उनके एक बहुत ही साधारण और छोटा सा एकमंज़िला मकान था। घर में माँ है। दो छोटी बहने हैं - नानू और सेवा। नानू दसवीं में पढ़ती है। सेवा आठवीं में। सेवा, नानू और शमीक से बड़ा एक भाई और है परंतु क्या उसे होना कहते हैं? जो साथ न रहे, उसके प्रति कोई मोह होना या उसे मान लेना शमीक के लिए बहुत ही कष्टदायक था। सबसे बड़ी बात है - भईया उन्हें किस हाल में छोड़ गया है?
ऐसी हालत में कोई हृदयहीन व्यक्ति भी नहीं चला जाता। भाभी की बात मान भईया कैसे सबको छोड़ कर जा सके, ये शमीक के लिए हैरानी वाली बात थी। जबकि भईया ऐसे नहीं थे। गृहस्थी में प्रतिदिन पल-पल हज़ार तरह के परिवर्तन होते रहे हैं और एक-एक परिवर्तन के परिणामस्वरूप समस्याओं का जो मरुस्थल सर उठा रहा है वहाँ एक बूँद पानी के लिए अभ्यर्थना करने वाला भी कोई नहीं है।
शमीक ने अभी मात्र उच्च माध्यमिक परीक्षा दी थी। खाना-पीना और दोस्तों के साथ तफ़रीह में ही समय गुज़र रहा था। परीक्षाफल के बारे में कभी-कभी दोस्त चिंता का इज़हार भी करते परंतु इस मामले में शमीक को कोई फिक्र नहीं थी। पढ़ाई-लिखाई में वह शुरू से ही अच्छा रहा है और वह निश्चिंत है कि प्रथम श्रेणी में ही पास होगा। जो भी हो, दोस्तों के साथ तफ़रीह से एक रात घर लौटते ही सुना कि पिता के सीने में भीषण दर्द हो रहा था। दीपंकर यानी भईया तब तक दफ्तर से नहीं लौटे थे। तुरंत शमीक दौड़कर डॉक्टर को बुलाने गया था और साथ लेकर आया भी था परंतु तब तक जो क्षति होनी थी वह हो चुकी थी। दीपंकर तब घर लौटा ही था। खुद हज़ार बार रोने पर भी छोटे भाई और छोटी बहनों को सीने से लगा कर सांत्वना दी थी। आश्वासन देते हुए कहा था - ‘रोओ मत, मैं तो हूँ न!’
हाँ, भईया तो थे ही। दीपंकर ने अकेले ही उस समय पूरी गृहस्थी को संभाल रखा था। छोटे-छोटे भाई-बहनों के प्रति उसके स्नेह, ममता का तो कोई जवाब ही नहीं। परंतु वह ममता और स्नेह पता नहीं कहाँ खोने सा लगा। इस दौरान सिर्फ़ एक घटना ही घटी। दीपंकर की शादी। दीपंकर जिस लड़की को पसंद करता था उससे शादी करते ही इस स्नेह और कर्तव्यों को हवा होते देर न लगी।
शमीक तब मकैनिकल इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष में था। उसी समय दीपंकर अपनी पत्नी सहित अलग हो गया। बेगार खटना अब उसके लिए संभव नही था। माँ बेहद शांत और प्रखर महिला थीं। उन्होंने अपने बेटे से सिर्फ़ इतना कहा, ‘जहां तुम्हें लगता हो कि तुम सुख-चैन से रह पाओगे, अनायास ही जा सकते हो।’ भईया ने माँ की वह बात मान ली।
ये चार महीने पहले का वाक्या है। इन चार महीनों में शमीक एक दिन भी पढ़ने नहीं गया। पढ़ाई अब उसके लिए विलासता से बढ़कर कुछ नहीं थी। खाना ही नहीं जुट रहा था और पढ़ाई-लिखाई की बात तो विलासिता का पर्याय थी। अत: शमीक ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। इस समय उसे एक नौकरी की ज़रूरत है। उसी नौकरी की तलाश में वह परिचित-अपरिचित हरेक के पास जा रहा था। माँ, नानू और सेवा को बचाए रखने के लिए जितनी जल्दी हो सके महीने के आख़िर में घर पर कुछ तो कमाकर लाना ही होगा। भईया ने हर महीने सौ रुपए देकर अपना फर्ज़ निभाना चाहा था। माँ ने कह दिया - ‘मेरे बच्चों के लिए तुम क्यों तकलीफ़ करते हो? इन सौ रुपयों से तुम और बेहतर ज़िंदगी जी सकते हो।’
पिता एक अर्द्घ सरकारी संस्था में कार्यरत थे। मकान बनाते समय वहाँ से और प्रॉविडेंट फंड से काफी रुपए लोन में लिए थे। अत: पिता के निधन के बाद कुछ भी नहीं मिला। जो भी हो शमीक उस दफ्तर में भी नौकरी की उम्मीद में चार-पाँच बार घूम आया है। मज़े की बात है कि सभी आश्वासन दे रहे हैं, काम हो रहा है, हो जाएगा। मुँह से कोई भी नहीं कहता - लेकिन हो भी नही रहा। शमीक ने दफ्तर की यूनियन के नेताओं से भी बात की थी। वे भी हाँ नहीं करते और इन्कार भी नहीं करते। सिर्फ़ तारीखें दे-दे कर समय गुज़ार रहे हैं। अच्छा अगले महीने की अमुक तारीख को एक बार आ जाईए। शमीक जानता है कि बात नहीं बनने वाली फिर भी गए बिना गुज़ारा भी तो नहीं। सचमुच यदि नौकरी मिल जाए। उम्मीद पर ही तो इन्सान इतनी दौड़-धूप करता है।
नौकरी के लिए दौड़-भाग के दौरान ही एक दिन वी. सी. यानी विकास चौधरी से मुलाकात हुई थी। उसके प्रोफेसर थे। जितना अच्छा पढ़ाते हैं उतनी ही अच्छी तरह छात्रों के साथ घुल-मिल भी जाते हैं। पूरे कॉलेज के छात्रों की जो श्रद्धा और स्नेह उन्हें मिला है वैसा किसी अन्य को नहीं। सैंतालीस-अड़तालीस वर्ष उम्र होगी उनकी। शादी नहीं की। छात्र ही उनकी संतानें है। अत: उन संतानों से बहुत स्नेह करते हैं। पढ़ाई-लिखाई में जो विद्यार्थी अच्छे होते हैं उनके प्रति विशेष स्नेह तो होता ही है। शमीक को देखते ही उसी स्नेह से उन्होंने कहा - ‘तुम भी अजीब हो, तुम्हारे बारे में थोड़ा-बहुत सुना है परंतु क्या इस तरह कोई बीच में पढ़ाई छोड़ता है भला? तुम तो मेरे पास भी एक बार आ सकते थे? मैं तुम्हारी पढ़ाई का खर्च चलाता।’
‘सर मैं........’
‘सिर्फ़ दो ही तो साल हैं। इसके बाद तुम इंजीनियर बन जाओगे....’
‘सर, मैं आपको समझा नहीं सकता....पढ़ाई जारी रखना मेरे लिए संभव नहीं। मुझे नौकरी की ज़रूरत है। नौकरी न मिली तो हम चारों व्यक्ति....’ शमीक कुछ देर तक असहाय नज़रों से वी. सी. की तरफ देखता रहा। फिर धीमे स्वर में बोला, ‘जीवित रहने के लिए मुझे पढ़ाई छोड़नी ही होगी। सबसे पहले मेरी माँ, मेरी दो बहनें।’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद शमीक ने विनीत स्वर में कहा था - ‘सर, आप मुझे कहीं एक.......... ’ शमीक के साथ धीमे-धीमे चलते हुए वी. सी ने पता नहीं क्या सोचा। आँखों से चश्मा उतार कर रूमाल से साफ कर फिर पहना। थोड़ी देर और सोच-विचार की दुनिया में विचरने के बाद कहा - ‘शमीक तुम नागपुर जाओगे ?’
‘नौकरी के लिए ही तो पढ़ाई छोड़ी है, सर मैं भारतवर्ष की किसी भी जगह जाने के लिए तैयार हूँ।’
‘मेरे एक घनिष्ठ मित्र अरुण गांगुली वहाँ हैं। वे चाहें तो तुम्हें एक नौकरी दे सकते हैं।’
‘सर.....’ शमीक की दोनों आँखों में चमक सी दौड़ गई।
‘तुम्हें ज़्यादा कहने की ज़रूरत है। वी. सी. ने बड़े स्नेह से शमीक के कंधे पर हाथ रख चलते हुए कहा, ‘तुम्हारे बारे में मैं अरुण गांगुली को एक पत्र लिख देता हूँ। तुम एक हफ्ते बाद मेरे घर आना ज़रा।’
बी.सी. के घर जाने पर शमीक को वह शुभ समाचार मिला। नागपुर के अरुण गांगुली ने अपने प्रिय मित्र को सूचित किया था, ‘शमीक नामक लड़के को तुम मेरे पास भेज देना। तुम्हारे प्रिय छात्र के प्रति मैं भी कुछ कर्तव्य निभा दूं। शमीक की नौकरी मेरे पास सुरक्षित है और उसे कब तक यहाँ भेज रहे हो, किस गाड़ी से भेज रहे हो, एक तार कर देना।’
उसी बंदोबस्त के अनुसार शमीक अब नागपुर में है। कलकत्ते से रवाना होने से पूर्व सर ने उसे अरुण गांगुली का पता लिखकर दिया था। शमीक ने दो बार उस पते पर नज़र फिराई थी और बहुत संभाल कर उसे बटुए मे रख लिया था। नागपुर जाते ही एक नौकरी मिल जाएगी - इस निश्चयता ने उसे वास्तविक सोच-विचार से कहीं दूर पहुंचा दिया था। उसने एक बार भी नहीं पूछा कि अरुण गांगुली नागपुर में बिजनेस करते हैं या नौकरी? अगर नौकरी करते हैं तो किस संस्था में किस पद पर हैं? अरुण गांगुली का बुनियादी परिचय जाने बगैर ही शमीक यहाँ चला आया था। उसे सिर्फ एक ही बात मालूम थी कि अरुण गांगुली उसे नौकरी देने की क्षमता रखते हैं।
नागपुर स्टेशन के बाहर खुले परिसर में खड़े शमीक को अचानक ध्यान आया, अच्छा एक सरसरी नज़र से टेलीफोन डायरेक्टरी पर नज़र मार ली जाती तो कैसा रहता? एक से ज्यादा अरुण गांगुली भी हों तो हरेक का पता तो एक नही होगा न। ऐसे में सही पते पर नज़र पड़ते ही वह जाना-पहचाना सा तो लगेगा। अब तो लाख कोशिशों के बावजूद याद नहीं आ रहा है। और ऐसा भी तो हो सकता है कि अरुण गांगुली काफी मशहूर और प्रभावशाली व्यक्ति होते हुए भी टेलिफोन डायरेक्टरी में उनका नाम न हो। कई कारणों से ऐसा हो सकता है। तो शमीक क्या करेगा? कलकत्ते में सर को टेलिग्राम देकर या ट्रंककॉल करके अरुण गांगुली का पता अवश्य फिर से प्राप्त किया जा सकता है परंतु उसके लिए भी तो पैसे चाहिए। इस समय शमीक के पास एक भी पैसा नहीं है। नागपुर का पॉकेटमार उसकी ऐसी दुर्गति करेगा - यह वह पहले से कैसे समझ सकता था?
पत्थरों से बने स्टेशन के उस विशाल परिसर में अचानक एक मेहरून रंग की फिएट लगभग शमीक के पास आकर ही रुकी। उसमें एक महिला बैठी हुई थीं। चालक की सीट पर चौबीस-पच्चीस बरस का एक युवक। उसने जल्दी से उतर कर सम्मान सहित पिछला दरवाज़ा खोला और वह महिला बाहर निकलीं। दिखने में जितनी खूबसूरत थीं, उनका डील-डौल भी उतना ही अभिजात्यपूर्ण था। उम्र तिरतालीस से पैंतालीस के बीच होगी। फिर भी उनकी स्निग्धता और कमनीयता को देखकर उम्र उतनी भी ज्यादा प्रतीत नहीं होती। पीठ पर खुले बाल लहरा रहे थे। दोनों भौहों के बीच थोड़ा ऊपर काफी बड़ी सिंदूर की बिंदी थी। चेहरे पर काफी तैलीयता थी। मेजेंडा रंग की तांत की साड़ी और उसी रंग के ब्लाउज में वे अन्य संभ्रांत महिलाओं से भी विशिष्ट जान पड़ती थीं। दरअसल उनकी दृष्टि, चाल-ढाल सब कुछ मिलाकर उनका व्यक्त्वि आकर्षक लग रहा था।
उस महिला को देख शमीक ने डूबते को तिनके का सहारा जैसे महसूस किया। माथे पर सिंदूर की बड़ी सी बिंदी और ताँत की साड़ी वगैरह देख कर उसने उन्हें बंगाली ही समझा था। यानी बंगाली होने पर मानो वे नागपुर से अरुण गांगुली का अता-पता बता सकेंगी - इसलिए शमीक उन्हें ज़्यादा बंगाली समझ रहा था। आशा की छोटी सी कोंपल भी फूटी थी, परंतु भद्र महिला को शुद्ध हिन्दी बोलते सुनने के बाद कलकत्ते के वी. सी. के साथ कैसे संपर्क करे यही फिक़्र फिर से सताने लगी।
हजार तरह की चिंताओं से जब शमीक काफी थका महसूस कर रहा था ऐसे में एक और मुसीबत ने उसी समय उसे धराशायी कर दिया। अचानक ध्यान आते ही देखा कि पैरों के पास जो होल्डऑल और सूटकेस रखा था, वह भी नहीं रहे। शमीक के कपड़े, सर्टिफिकेट आदि सब कुछ उसी में था। नागपुर में नौकरी पाने की जो भारी उम्मीद लेकर वह आया था, शुरू में ही वह इस तरह खाली हो जाएगा यह उस ने अवश्य पहले से नहीं सोचा था। शमीक को अब एक ही फिक़्र थी - कोलकाता यानी घर लौटेगा कैसे? परंतु जिसने या जिन्होंने ये काम किया, इतना बड़ा सामान वहाँ से उन्होंने कैसे सरकाया? ये तो बटुया नहीं था, लिया और छुपा डाला। तिस पर आस-पास इतने लोग, इतना सचेत रहने के बावजूद अगर यह हाल है तो और बाकी क्यों बचे? उसे भी चुरा कर ले जाएं न। शमीक को तनिक भी आपत्ति नहीं है लेकिन शर्त एक ही है, हर महीने उसकी माँ और दोनों छोटी बहनों के लिए इतने रुपए भेजने होंगे जिससे वे गुज़र कर सकें।
अचानक माईक पर एक घोषणा हुई। पहले अंग्रेजी में फिर हिन्दी में - ‘कलकत्ते के शमीक भट्टाचार्य से अनुरोध है कि वे इन्कवॉयरी ऑफिस के पास आकर बासंती गांगुली से मिलें।
हाँ, दो बार घोषणा हुई, दोनों बार शमीक ने सुनी। उसकी सिकुड़ी हुई भौंहे अब ज़रा सीधी हो गई। बासंती गांगुली! अवश्य वे अरुण गांगुली की पत्नी ही होंगी। अरुण गांगुली स्वयं नहीं आ पाए इसीलिए पत्नी को स्टेशन पर भेज दिया। इस सहज हिसाब-किताब ने उसकी अब तक की दुश्चिताओं से उसे मुक्त कर दिया था परंतु बटुया, होल्डऑल और सूटकेस के खो जाने की बात उसके सीने में आलपिन की तरह गड़ी हुई है। ख़ैर, जो भी हो, नागपुर के अरुण गांगुली के पते पर शायद अब वह पहुँचने ही वाला है, इसी सोच-विचार में गोते लगाते हुए शमीक ने स्टेशन की तरफ कदम बढ़ाए।
दो-चार लोगों से पूछकर जब शमीक इनक्वॉयरी ऑफिस की निर्दिष्ट जगह पर पहुँचा तो उसने देखा कि कार से उतरी वह भद्र महिला वहाँ खड़ी है। आँखों से बारीक सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा उतार कर उसे सफेद दूधिया रूमाल से पोंछते हुए स्टेशन के चारों तरफ बिखरे लोगों की तरफ देखते हुए उन्होंने उसे फिर पहन लिया। इस वक्त शमीक याद नहीं कर पा रहा था कि कार से उतरते वक्त उन्होंने चश्मा पहन रखा था या नहीं। चश्मा अब भाड़ में जाए। क्या वे ही बासंती गांगुली हैं? क्या शमीक पहले उनसे ही कुछ पूछ ले या इनक्वॉयरी में जाकर पूछ-ताछ करे। ये भद्र महिला अगर अकेली होतीं तो समझ लिया जाता कि वे ही बासंती गांगुली हैं, परंतु वहाँ तो और भी तीन-चार महिलाएं इंतज़ार कर रही हैं। इनमें से बासंती गांगुली कौन है, यह शमीक कैसे पता लगाएगा? उसने इनक्वॉयरी ऑफिस में जाकर कहा, ‘मैं ही शमीक भट्टाचार्य हूँ। कलकत्ते से आया हूँ परंतु बासंती गांगुली को मैंने पहले कभी देखा नहीं। इसलिए मैं उन्हें ठीक पहचान .....’.
‘पहचानने जैसी कोई बात नहीं। एकदम रेडीमेड जवाब मिला। सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा और मेजेंडा रंग की साड़ी पहने जो महिला इंतज़ार कर रही हैं वे ही बासंती गांगुली हैं।’
कार से उतर कर शुद्ध हिन्दी में ड्राईवर को इंतज़ार करने को कह जो यहाँ सफेद रूमाल से सुनहरी फ्रेम वाले चश्मे का शीशा साफ क़र रही थीं, हाँ, वे ही बासंती गांगुली हैं। बंगाली महिला है, देख कर ही पता चलता है। पहले उन्हें देखकर शमीक ने यही समझा था। सिर्फ हिन्दी में बात-चीत करते देख ज़रा झिझक गया था।
धीरे-धीरे आगे बढ़कर जैसे ही शमीक सामने जाकर खड़ा हुआ बासंती ने उसे देखा। साँवले रंग का इक हरे बदन का अत्यंत शर्मीला लड़का। दिखने में अन्य बंगाली लड़कों की भाँति होने पर भी उसकी आँखों में एक चमक सी थी। हाँ, एक संकोच ने उसे अपने घेरे में ले रखा था। वह स्पष्ट ही नज़र आ रहा था। एक नौकरी की ख़ातिर कलकते से इतनी दूर आया है। पढ़ाई में अच्छा होते हुए भी, वह पढ़ाई बीच में ही छोड़कर सिर्फ माँ-बहनों का पेट फरने की ख्वाहिश से। क्या उम्र ही होगी भला? ज्यादा से ज़्यादा बीस-इक्कीस। उनकी लड़की चुमकी का हमउम्र ही होगा। बासंती ने स्पष्ट शब्दों में सिर्फ इतना ही कहा - ‘तुम ही शमीक हो?’
‘जी।’
‘कलकत्ते के विकास चौधरी ने तुम्हें भेजा है ?’
शमीक ने पहले सिर हिलाकर हामी भरी, फिर कहा - ‘सर ने मुझे अरुण गंगोपाध्याय...’
‘मैं उनकी पत्नी हूँ।’
बासंती का परिचय मिलते ही शमीक ने उनका चरण-स्पर्श किया। बासंती ने कल्पना भी नहीं की थी कि लड़का स्टेशन पर ही चरण-स्पर्श करेगा। लेकिन उन्हें प्रसन्नता हुई। आज के युवक इस चीज़ को भूल ही चुके। चुमकी का एक दोस्त सुनील शिवलकर उनके घर आता है। उसने कभी भी चरण-स्पर्श नहीं किया। इस मामले में वह बहुत कंजूस है। सिर्फ यही नहीं मासी माँ(मौसी), पिसी माँ(बुआ) कहकर संबोधन भी नही करता। संबोधन में वह कहता है सिर्फ मिसेज गांगुली। लेकिन लड़का अभद्र नहीं है।
बासंती ने और एक बार शमीक को देखा। पूछा - ‘तुम्हारा सामान कहाँ है ?’
शमीक को ख़ामोश देख उन्होंने कहा - ‘नहीं है तो कोई बात नहीं। मैंने इसलिए पूछा था ताकि सामान ले लिया जाए। बाहर कार इंतज़ार कर रही है।’
‘मेरा सबकुछ खो गया है।’
‘सर झुकाकर बहुत लज्जित होकर जवाब दिया शमीक ने।’
‘सब कुछ..... मतलब ?’
‘चार सौ रुपए, सर्टीफिकेट, सूटकेस, होल्डॉल।’
‘एक साथ सब कुछ खो कैसे गया?’ संदेह से नहीं काफी हैरानी से बासंती ने पूछा। ‘पहले रुपए।’ नज़रें झुकाए ही शमीक ने उत्तर दिया, ‘नागपुर में उतरकर ओवरब्रीज की सीढ़ियां चढ़ते समय बटुया खो गया। होल्डॉल और सूटकेस सटेशन के बाहर इस स्टैंड से। सूटकेस में कपड़ों के साथ ही सर्टीफिकेट रखे हुए थे।’ थोड़ी देर चुप रहकर शमीक ने फिर कहा, ‘सर ने जिस कागज़ पर आपका पता लिख कर दिया था वह तो बटुये के साथ ही खो गया। और मुझे भी पता याद नहीं आ रहा था।’
‘24 एफ को.....’ बासंती ने इतना ही कहा था कि तुरंत शमीक बोल उठा, ‘अब मुझे याद आ गया, कोराडी होगा न ?’
‘हाँ।’
नागपुर शहर से कोराडी चौदह-पंद्रह किलोमीटर होगा। किसी समय वह एक गाँव हुआ करता था परंतु अब इस शहर का नया नामकरण हुआ है, बिजली शहर। दरअसल कोराडी में सुपर थर्मल पॉवर स्टेशन बनने के बाद से बिजली शहर कहा जाने लगा। सुपर थर्मल बनने के साथ-साथ ही हाट-बाजार, दुकानें, स्कूल, अस्पताल, हजारों क्वार्टरों, नए-नए रास्तों का निर्माण हुआ। कोराडी अब एक स्वयं-संपूर्ण शहर है। रौशनी का शहर।
उसी कोराडी की तरफ गहरे मेहरून रंग की गाड़ी दौड़ी चली जा रही है। पाणीकर ड्राइव कर रहा है। पीछे की सीट पर बैठे हैं बासंती और शमीक। अरुण गांगुली किस संस्था में कार्यरत हैं ओर उसे कहाँ नौकरी दिलवाएंगे, बासंती से यह सब जानने की शमीक की इच्छा हो रही थी परंतु वे शून्य नज़रों से बाहर की तरफ देखते हुए पता नहीं गंभीरता से क्या सोच रही थीं। उस निस्तब्धता को भंग करने का शमीक साहस नहीं कर पाया। चलती हुई कार से बहुत दूर छोटे-छोटे टीलों, टीलों के पीछे जहाँ आकाश उनसे जा मिला है, उधर देखते-देखते वह सोचने लगा, अगर इसी महीने नौकरी मिल जाती है तो अगले महीने तनख्वाह मिलते ही माँ को पैसे भेज सकेगा। परंतु कितने रुपए? शमीक हजारों का सपना नही देखता। तीन सौ रुपए भेज पाए, इसी में उसकी खुशी है। आते वक्त माँ बहुत रो रही थीं। अपने भीतर की रुलाई को रोके रख शमीक माँ को सांत्वना दे रहा था। उसके बाद ही मानो बाँध सा टूट पड़ा। अचानक नानू और सेवा भी उससे लिपट बुरी तरह रोने लगीं। वे सिर्फ़ एक ही बात कहे जा रही थी - ‘भईया, तुम मत जाओ। इतनी दूर जाकर तुम्हें नौकरी करने की कोई ज़रूरत नहीं। हम भूखे रह लेंगी लेकिन कभी तुम्हें तंग नहीं करेंगी..... तुम्हें बुरा भईया नहीं कहेंगी।’ तब शमीक भी खुद को नहीं संभाल पाया। नानू और सेवा के सरों पर ठुड्डी टिकाए उसने उन दोनों को नि:शब्द भिगो डाला।
रास्ते में एक लेवल क्रॉसिंग आई। लगभग चार मिनट रुके रहने के बाद कार फिर चल पड़ी। खाली सड़क थी। दोनों तरफ हरे-भरे खेतों की हरियाली नज़र आ रही थी और इस हरियाली का स्पर्श किसानों के चेहरों पर भी नज़र आ रहा था। ख़ामोश दर्शक की भाँति शमीक सब कुछ देख रहा था। थोड़ी देर बाद एक कतार में सजे सुपर थर्मल के ऊँचे सब बॉयलरों पर नज़र पड़ी। उनकी चिमनियां और भी ऊँची थी. बाँई तरफ एक पेट्रोल पंप पार करके ज़रा सा आगे जाकर कार बाँई तरफ मुड़ी। एक ही डिज़ाइन के चमचमाते चार मंजिले मकान तस्वीरों जैसे लग रहे थे। इतने घर मानों ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। अंतत: कार विशाल प्रांगण में बने बंगले के सामने आकर रुकी। दो दरवान स्टूल पर बैठ बातों में मशगूल थे। पहले उन्होंने ध्यान नहीं दिया, कार का हॉर्न सुनते ही दोनों ने गिरते-पड़ते खड़े होकर गेट खोला।
अपनी ख़ामी को छुपाने के लिए बासंती को देख ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा सलाम ठोका। बासंती ने थोड़ा सा सिर हिलाया। यद्यपि गंभीरता ओढ़ रखी थी पर उसमें विरक्ति की कोई झलक नहीं थी। यह गंभीरता शायद उनकी सदा की साथी थी।
उनके पहुँचने के बीस मिनटों में ही घीया रंग की एक एंबैसडर सीधे पोर्टिको के सामने आकर रुकी। दरबान के दरवाज़ा खोलते ही कार से एक भद्र पुरुष उतरे। कद छह फुट के लगभग होगा। रंग गोरा तो नहीं पर उसे काला भी नहीं कहा जा सकता। सिर के बाल ज़रा लंबे थे। सारे बाल काले तो थे परंतु दोनों तरफ की क़लमें सफेदी लिए हुई थी। यही बात उन्हें ख़ास बना रही थी। गोल-मटोल चेहरा, तिस पर दोनों आंखें और भी सुंदर। अच्छी तरह शेव किए होने के कारण इस उम्र में भी वे कम आकर्षक नहीं लग रहे थे। उनकी उम्र उनचास-पचास होगी। हाँ, यही अरुण गांगुली हैं। कोराडी सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट के जनरल मैनेजर।
परिचय मिलते ही शमीक के चरण स्पर्श करते ही अरुण गांगुली ने स्नेह से उसका हाथ दबाते हुए उदास दृष्टि से लड़के के मुँह की तरफ देखा।
अरुण गांगुली मानों खुद को ही देख रहे हों। हुबहू वैसा ही न होते हुए भी अठाईस-तीस वर्ष पूर्व दिखने में वे इस लड़के की भाँति ही थे। अरुण गांगुली खुद को खोकर मानो खुद को तलाश रहे थे।
बीस-इक्कीस वर्षीय लड़के ने धीरे-धीरे कहा, ‘मेरा नाम शमीक भट्टाचार्य है।’
गोल-मटोल चेहरे पर प्रसन्नता उतर आई, ‘मुझे पता है।’ फिर पूछा, ‘यहाँ आने में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई ?’
‘नहीं तकलीफ़ तो नहीं हुई, लेकिन......’
‘क्या ?’ थोड़ा सा झुककर अरुण गांगुली शमीक की ऑंखों में देखते रहे। बताते हुए बहुत ही शर्मिंदगी महसूस हो रही थी परंतु जो घटित हुआ था, वह तो बताना ही पड़ेगा वर्ना किसी की आर्थिक स्थिति कितनी ही खराब क्यों न हो कोई खाली हाथ नहीं चला आता। ऐसे में अरुण गांगुली सोच सकते हैं कि लड़का एक ही पोशाक में आया कैसे? शमीक ने अपने सब कुछ खो जाने की कहानी काफ़ी संकोच से बताई। उसका संकोच ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अरुण गांगुली ने सिर्फ़ इतना ही कहा, ‘विकास ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारियां तो अब मेरी हैं। जो खो गया, उसके लिए दु:खी मत होओ।’
दोपहर के भोजन के बाद घंटा भर आराम कर अरुण गांगुली फ़िर पावर प्रोजेक्ट चले गए। लौटने का कोई निश्चित समय नहीं है। जिस दिन काम का जितना दबाव हो, उसी अनुसार लौटना हो पाता है। हाँ, फिर भी औसतन साढ़े सात-आठ बजे तक लौट आते हैं। उस वक्त शाम के चार बजे होंगे। दो माली फूलों के पेड़-पौधों की देखभाल में व्यस्त थे। इस बंगले में यद्यपि दो दरवान हैं, इस वक्त एक दरवान गेट के पास स्टूल पर चुपचाप बैठा है। एक बावर्ची भी है। वह इस वक्त चाय तथा खाने-पीने की व्यवस्था में मशगूल है। ये सभी कर्मचारी एम. एस. ई. बी. यानी महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड से मिले हैं। घीया रंग की एम्बैसडर और ड्राइवर भी बोर्ड द्वारा दिए गए हैं। गहरे मेहरून रंग की फियेट अपनी है, इस का चालक है पाणीकर और इस घर के सारे काम-काज की ज़िम्मेदारी पिछले तेईस वर्षों से निभाता आ रहा शख़्स है हरिराम।
बंगले के बड़े से बरामदे में बेंत की कुर्सी पर बैठ बासंती मन ही मन कुछ सोच रही थीं। दूर कहीं नीले आसमां और टीले को छूती हुई ठंडी हवा आ रही थी। पक्षियों का एक झुंड सरल रेखा में जाते हुए अचानक पता नहीं कहाँ खो गया। आसमां से ज़मीं पर नज़र डालते ही बासंती ने देखा कि संतरों से लदी बैलगाड़ियां मंथर गति से एक के बाद एक चली जा रही हैं। अब हर दिन यह दृश्य देखने में आता है। संतरों से लदी बैलगाड़ियां बाग से निकलकर नागपुर रेलवे स्टेशन के पीछे जो संतरा बाज़ार है वहां जाकर जमा होती हैं। शॉल को ठीक से ओढ़कर अपनी नज़र को दूर से और क़रीब ले आईं। दोनों माली फूलों के पौधों के चारों तरफ जमी हुई मिट्टी को खुर्पी से खोद रहे थे। बासंती ने सोचा कि उसके सीने में भी कुछ जमा सा हुआ है। उसे किस खुर्पी से हटाया जा सकता है...
ज्यों ही हरिराम ने चाय की ट्रे मेज़ पर रखी, बासंती ने धीमे स्वर में पूछा। शमीक का कमरा ठीक कर दिया न?
‘जी हाँ।’
‘क्या कर रहा है वह? सो रहा है क्या?’
‘जी नहीं, रो रहा है।’
‘रो रहा है!’
‘चाय के लिए बुलाने जाने पर यही तो देखा।’
‘तुम जाकर कहो कि मैंने बुलाया है।’ बासंती ने दो कपों में चीनी और दूध डालते हुए फिर कहा, देखो उसे डांट मत देना। बच्चा है, माँ-बहनों को छोड़कर आया है, अत: मन उदास होना स्वभाविक ही है।’
हरिराम से ऐसा कहने की वजह है। उसकी उम्र साठ के लगभग होगी। मेदिनीपुर के नवघाट का हरिराम कुईसा ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र में माता-पिता को खोने के बाद छह महीनों तक चाचा-चाची के पास रहकर हर तरह के अपमान, उपेक्षा और घृणा को समेट अंतत: एक दिन भाग आया था। भारत के विभिन्न प्रांतों में घूम-घूम कर विभन्न काम किए। कभी हॉकरी तो कभी सिर्फ़ भिक्षावृत्ति। हां, ज्यादा समय गुज़रा है लोगों के घर काम करके। पढ़ाई-लिखाई आती ही नही थी। बचपन से स्वभाविक जीवन से परिचित न होने के कारण गुस्सा सदा सातवें आसमान पर रहता है, फिर भी उसकी आंतरिक सूक्ष्म अनुभूति अभी शेष है। दूसरों से ज़रा सा स्नेह, अपनापन मिलने पर हरिराम उनके लिए शायद अपनी जान देने को भी तैयार हो जाए। ख़ैर, जो भी हो विभिन्न जगहों की ठोकरें खा काम करते हुए ज़िंदगी के पैंतीस बरस गुज़ार कर हरिराम जिस दिन अरुण गांगुली के पास आ पहुँचा, उस के बाद से थोड़ा-थोड़ा स्नेह पाकर वह खुद को घर का ही एक सदस्य समझने लगा। चूँकि हरिराम उम्र में बड़ा था अत: उसकी हुकुमत भी बढ़ने लगी। एक सौ डिग्री बुखार में भला अरुण गांगुली ऑफिस क्यों जाएंगे? ऐसा राजकाज न किया तो कौन सी आफ़त आ जाएगी? दोपहर के भोजन में अगर चार व्यंजन परोसे गए हैं और अरुण गांगुली ने तीन ही खाए तो हरिराम के गुस्से का ठिकाना नहीं रहता। जो व्यक्ति सतरह-अठारह घंटे ऑफिस में काम करता हो इतनी सी खुराक पर ज़िंदा कैसे रहेगा? अत: हरिराम जी भरकर डांट-डपट करता। घर के हर व्यक्ति की ऐसी त्रुटि देख अब तो हर वक्त हरिराम का मिज़ाज चढ़ा रहता है। अच्छी बात भी वह धौंस दे कर कहता है। लगेगा कि वह धमका रहा है जबकि बात भले के लिए ही कह रहा है। ऊपरी तौर पर शुरू-शुरू में यह समझ नहीं आता। कुछ दिन गुज़र जाने के बाद ही उसके भीतर के उस व्यक्ति को पहचाना जा सकता है। तभी तो बासंती को डर है कि कहीं हरिराम गंभीर स्वर में शमीक पर फट ही न पड़े - ‘शाम के वक्त चाय न पीकर इस तरह रोने-धोने का क्या मतलब है? माँ-बहनों को छोड़ नौकरी करने निकलने वाले क्या तुम ही दुनिया के पहले आदमी हो?’
धीमे-धीमे क़दमों से शमीक के बरामदे मे आ खड़े होते ही बासंती ने मुँह उठाकर उसकी तरफ देखा। स्टेशन पर उसे देख जैसा महसूस हुआ था, वैसा अब महसूस नहीं हुआ। पति की इस उम्र की शक्ल-सूरत से शमीक की शक्ल - सूरत आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती प्रतीत होती है। ख़ास तौर से नाक और ऑंखें।
अस्फुट से स्वर में शमीक ने पूछा - ‘आपने मुझे बुलाया ?’
‘चाय नहीं पीओगे?’ बासंती के सामने पाँच-छह कुर्सियां और पड़ी थीं। सामने की एक कुर्सी की तरफ इशारा कर कहा - ‘बैठो।’ फिर चाय का प्याला उसकी तरफ बढ़ाते हुए धीमी आवाज़ में कहा - ‘सुना, तुम रो रहे थे ?’
सुनकर बहुत शर्मिंदा हुआ शमीक। चाय का प्याला हाथ में लेकर उसने अपनी दोनों ऑंखे फ़र्श पर गड़ा दीं। दरअसल वह कैसे कहे कि उसे जो कमरा रहने के लिए दिया गया है, उस कमरे के ठाठ-बाठ और दोपहर को उसने जो राजसी भोजन किया उससे उसकी माँ और दोनों छोटी बहनें किस हद तक वंचित हैं। न्यु बैरकपुर के विज्ञान घोष बगान अंचल के छोटे से मकान में बैठ माँ, सेवा और नानू ने दाल और कलमी साग की तरकारी के साथ किसी तरह से थोड़ा सा भाता खाया है। दाल! वह भी रोज़ नसीब नहीं होती। जहाँ ऐसी स्थिति हो, वहाँ शमीक ऑंसू बहाने के सिवा और क्या कर सकता है? क्या जी खोलकर रो पाया है? यहाँ जिनके घर पर आकर ठहरा है उन्हें असंमजस की स्थिति में न डालने के लिए कितना घुट-घुट कर तथा छुप-छुप कर रोना पड़ा है। यह उसका दुर्भाग्य ही था कि फिर भी उन्हें पता चल गया। शमीक कुछ जवाब देने जा रहा था कि उसके पहले ही हॉर्न बजाते हुए पोर्टिको में आकर फिएट रुकी। गाड़ी से उन्नीस-बीस वर्षीया एक सुंदर डील-डौल वाली लड़की उतरी। हल्के नीले रंग की जींस और सफेद शर्ट पर फ़िरोज़ी रंग के हाफ स्वेटर में वह बहुत चकमक लग रही थी। कंधे पर लटक रहे बैग को बाँए हाथ से दबाए दो छलाँगों में पाँच सीढ़ियां फाँद बरामदे में पहुँचते ही बासंती ने बड़े ही शांत स्वर में आवाज़ दी, ‘चुमकी इधर आओ।’
‘कहो’ - एक क़दम भी बिना आगे बढ़े चुमकी ने वहीं से जवाब दिया।
‘कलकत्ते से शमीक आया है, उससे परिचय नहीं करोगी?’
चुमकी ने अब एक नज़र शमीक को देखा। उसका हमउम्र ही होगा। लड़के को एक नौकरी की ज़रूरत है। कलकत्ते से पिता के दोस्त विकास चौधरी ने उसे भेजा है। पिता भी उसे अवश्य एक नौकरी दे देंगे। ऐसे में आनन-फ़नन में परिचय करने की ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी? तिस पर आज क्लास में एक लड़की से तकरार हो गई। इसलिए भी चुमकी का मूड ख़राब है। इस समय शमीक नामक इस लड़के से परिचय करने की उसकी तनिक भी इच्छा नहीं है। अगर कोई ऐसे में उसे अभद्र समझता है तो समझता रहे। वह कुछ नहीं कर सकती। चुमकी ने साफ़-साफ़ कहा, ‘इस वक्त मैं थकी हुई हूँ, बाद में परिचय कर लूंगी।’
बेटी की बात सुन बासंती रुक गईं। ज़रा शर्मिंदगी भी हुई। उनकी बेटी बड़ी मनमौजी है। कब वह किस पर संतुष्ट और असंतुष्ट होगी, यह तो वही जानती है। इस हद तक मूडी लड़की को न छेड़ना ही बेहतर होता। बासंती जब अपनी बेटी के स्वभाव को अच्छी तरह जानती हैं तो ज़रा सा इंतज़ार कर सकती थीं। शरमिंदगी छुपाने के लिए उन्होंने कहा, ‘चुमकी ज़रा सी हठी या ज़िद्दी है’, पता नहीं किस शब्द का इस्तेमाल बासंती ने किया यह तो शमीक को ध्यान नहीं लेकिन उसने उन्हें शर्मिंदगी से उबारने के लिए कहा, ‘मैंने बुरा नहीं माना।’
यद्यपि शमीक ने यह जवाब तो दे दिया लेकिन वास्तव में उसके आत्मसम्मान को थोड़ी सी ठेस तो पहुंची ही थी। यह तो सही था कि वह कृपाप्रार्थी है, लेकिन क्या कृपाप्रार्थी मान-सम्मान का पात्र नहीं होता? शिक्षित और भद्र परिवार की लड़की को क्या ऐसा आचरण शोभा देता है? बात तो दूसरी तरह भी कही जा सकती थी। तूफान के वेग को थमने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। अपने मान-सम्मान की परवाह करने का वक्त अभी नहीं है। नानू, सेवा और माँ ही उसकी पहली प्राथमिकता हैं। इन तीनों के लिए थोड़े से आहार की व्यवस्था कर पाने के समक्ष उसका सम्मान क़तई बड़ी चीज़ नहीं है। चुमकी अगर उसे दोनों वक्त हजार बातें भी सुना कर अगर महीने के आख़िर में कुछ रुपए उसके हाथ पर रख दे तो शमीक उसे उपहार के सिवा कुछ नहीं सोच सकता। निर्धनता किसे कहते हैं, शमीक अपनी बीस वर्ष की छोटी सी उम्र में ही भली-भाँति जान गया है।
इसी बीच लगभग बीस दिन गुज़र गए। शमीक बंबई जाकर महाराष्ट्र इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड में इंटरव्यू दे आया है। सारी व्यवस्था अरुण गांगुली ने ही कर दी है। सिर्फ़ यही नहीं, नियुक्ति पत्र मिलने पर इसी कोराडी सुपर थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट में ही ज्वॉयन कर सके, इसका भी पक्का बंदोबस्त कर दिया है। सिफ़ारिश तो तगड़ी थी ही फिर भी उसने इंटरव्यु बहुत अच्छा दिया है। बतौर ट्रेनी इंजीनियर उसे दो साल गुज़ारने होंगे। उसके बाद सहायक इंजीनियर बन पाएगा। तब सभी सुविधाएं मिल पाएंगी। बातों-बातों में अरूण गांगुली ने यह सब बताया था। जैसे दो वर्ष बाद ही शमीक को स्वतंत्र रूप से पूरा फ्लैट मिलेगा। अब यानी प्रशिक्षण अवधि में उसे हॉस्टल में एक छोटा सा कमरा मिलेगा। अरुण गांगुली ने बेहद स्नेह से गंभीरतापूर्वक कहा था, ‘जो भी हो प्रशिक्षण अवधि तक तुम मेरे पास ही रहोगे।’
शमीक ने संक्षिप्त जवाब दिया था, ‘हॉस्टल में रहने में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होगी।’
‘सो जानता हूँ।’ फिर ज़रा सा हँसकर कहा था - ‘तुम्हारे, यहाँ रहने पर भी मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होगी।’
‘परंतु नौकरी मिलने के बाद भी...... ’
‘हाँ, तुम्हारे सम्मान की बात भी सोचनी होगी। महीने के आखिर में तुम मुझे दस रुपए
दे दिया करना।’ अरुण गांगुली ने प्यार से शमीक के सिर को हिलाते हुए यह भी कहा था, ‘तुम्हें इतना संकोच किस बात का? तुम मेरे बच्चे समान हो, अब मैं तुम्हें बड़े होने में थोड़ी सी सहायता कर रहा हूँ। जब बूढ़ा हो जाऊंगा तब तुम मेरी देखभाल करना।’ इतना ही नहीं, बड़े आवेग से उन्होंने कहा, ‘विकास मेरा बचपन का दोस्त है। पिता बाहर-बाहर नौकरी करते थे, उन्हीं के घर पर मेरी परवरिश हुई है। विकास के माता-पिता को कभी पराया नहीं समझा। और विकास? लोग यही सोचते थे कि हम दो भाई हैं। उसी विकास ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। यह तो मेरा कर्तव्य है।’
उस कर्तव्य को अरुण गांगुली उदार मन से निभा रहे हैं यह तो शमीक बहुत अच्छी तरह ही समझ रहा है। कोराडी सुपर थर्मल के टॉप मैन होते हुए भी अरुण गांगुली ने एक स्नेहिल पिता की भाँति उसे साथ ले जाकर सुपर मार्केट से क्या-क्या नहीं खरीद कर दिया। स्टेशन पर उसका सब कुछ खो गया है, यह पता लगने पर जूते, मोजे यहाँ तक कि टुथ ब्रश से लेकर सूट तक। पर्याप्त शर्ट - पैंट के बावजूद इतने मंहगे सूट का ऑर्डर देते समय अरुण गांगुली के प्रसन्नचित चेहरे की तरफ देखते हुए शमीक ने ज़रा सा विरोध किया था, ‘इतने सब की क्या ज़रूरत है?’ अरुण गांगुली ने ज़रा सा हँसते हुए कहा था, ‘वह तो मैं समझूंगा। इसके अतरिक्त अभी ठंड का मौसम है, यह क्यों भूल रहे हो?’
‘उसके लिए तो स्वेटर और शाल तो खरीद ही दिया है।’
उस दिन शमीक की इस बात का कोई जवाब न देकर सिर्फ़ हँसे थे अरुण गांगुली। हाँ, बंबई इंटरव्यू के लिए जाते समय उनका छुपा हुआ मनोभाव स्पष्ट हो गया था। उन्होंने शमीक को अपनत्व से कहा था, ‘नया सूट पहन कर ही जाना।’
ऐसी सजगता से शमीक की देखभाल कर रहे थे अरुण गांगुली। हज़ार तरह के कामों और व्यस्तताओं के बीच वे पल भर के लिए भी उदासीन नहीं हैं। जबकि...... इसी एक जगह आकर शमीक को बड़ी ठोकर लगती है। कोई भी सूत्र पकड़कर वह इस सबका मिलान नहीं कर पाता। इसी कारण वह कभी-कभी उदास तथा दिशाहीन हो जाता है। शमीक को यहाँ आए बीस दिन हो गए हैं। जितनी बात-चीत के बिना गुज़ारा न हो, उसे छोड़ शमीक को अरुण गांगुली और बासंती का एक-दूसरे के प्रति अलगाव सा सहज ही नज़र आता है। शमीक बहुत ही बुद्धिमान लड़का है। उसे तो पहले ही दिन यह पता चल गया था। चार-पाँच दिनों बाद वह यह भी जान गया था कि वे लोग अलग-अलग कमरों में रहते हैं।
शमीक में वैसे भी कोई उत्सुकता नहीं है। अरुण गांगुली और बासंती के इन रिश्तों के बारे में जानने की उसे कोई उत्कंठा भी नहीं है, लेकिन अरुण गांगुली के प्रति उसमें एक कमज़ोरी सी आ गई है। उसी कमज़ोरीवश लगाव उत्पन्न हो गया है। शमीक को उन्होंने इतना कुछ खरीद दिया है, अपने घर पर रखा है और एक नौकरी भी देने वाले हैं। गहरी कृतज्ञता इस लगाव का कारण नहीं है। इस छोटी सी गृहस्थी में भी अरुण गांगुली कितने असहाय से हैं। इतने पास होते हुए भी पत्नी और बेटी के उत्ताप और ममता मिश्रित घेरे से बाहर हैं। शमीक के दु:ख का एक कारण यह भी है। अरुण गांगुली जितनी देर भी घर पर रहते हैं क़िताबें पढ़ने में ही अपना समय गुज़ार देते हैं। ऑफिस की कुछ फाइलें भी देखते हैं। इसके अलावा उनकी भूमिका न के बराबर ही है। वे एक असहाय मूक द्रष्टा हैं। जबकि पॉवर प्लांट में उनका दूसरा रूप ही देखने को मिलता है। अड़तालीस साल की उम्र में व अठारह साल के तरोताज़ा युवक की भाँति सारे प्लांट में घूमते-फिरते है। पचास-बावन संस्थाएं सुपर थर्मल में ठेके पर काम करती होंगी। हर संस्था ने कितना-कितना काम किया, पिछले हफ्ते किस-किस कंपनी का काम कहाँ ख़त्म हुआ था और उसके बाद कितना काम आगे बढ़ा है, आगे नहीं बढ़ा है तो क्यों नहीं बढ़ पाया और यदि आगे बढ़ा भी है तो और कितना आगे बढ़ाया जा सकता था आदि सब बातें बड़े ध्यान से देखते हैं। इसके लिए जितना परिश्रम करना पड़ता है उसमें वे तनिक भी पीछे नहीं रहते। इसके अलावा ऑफिशियल काम-काज भी है और सारे दिन में बार-बार मीटिंग। सभी श्रेणियों के कर्मचारियों के साथ जब बात करते हैं तब उन जैसे ही बन जाते हैं। तब जनरल मैनेजर का मुकुट उनके सिर पर शोभायमान नहीं होता। वे इतने सहज और सरल व्यक्तित्व के मालिक हैं। चार-पाँच दिन प्लांट में जाकर खुद अपनी ऑंखों से यह सब देखा है शमीक ने।
कुछ दिन पहले सुबह दस बजे ही प्लांट का काम देखने निकल पड़े थे अरुण गांगुली। चार डिवीज़नल इंजीनियर, चीफ इंजीनियर, मेंबर जेनरेशन आदि उच्च स्तरीय अफसर वाहिनी रोज़ की भाँति उनके साथ थी। एक फिटर गहन मनोयोग से एलाइनमेंट का एक सूक्ष्म काम कर रहा था. होठों में सिगरेट दबी हुई थी। जनरन मैनेजर अरुण गांगुली की तरफ पहले उसने ध्यान नहीं दिया। पास के एक सहकर्मी द्वारा धक्का देकर सतर्क किए जाने पर उस फिटर ने सिगरेट फेंक सलाम करते हुए कहा, ‘नमस्ते साब।’ अरुण गांगुली ने नमस्ते का जवाब देकर उस सिगरेट की तरफ देख कहा, ‘उसे क्यों फेंक दिया?’
‘आप बड़े साहब हैं।’
‘तो क्या हुआ? देश का सम्मान करें, काम का सम्मान करें - मेरे सम्मान से दोनों बहुत-बहुत बड़े हैं।’ कहकर हँसते हुए फिटर की पीठ पर स्नेहिल हाथ फिराकर अरुण गांगुली आगे बढ़ गए।
शमीक का दु:ख इसलिए भी बहुत गहरा है कि एक व्यक्ति की दो जगहों पर दो तरह की भूमिका है। प्लांट में हंसने-खिलखिलाने वाला दमकता चेहरा अपने घर पर ख़ामोश रहता है। अपनी ही गृहस्थी में वे पराए है। उदास नज़रों से अरुण गांगुली जब घर पर पत्थर की भाँति सर्द से रहते हैं तो शमीक गहन वेदना की अनुभूति में जकड़ा सोच रहा होता है कि यह व्यक्ति कब प्लांट पर जाएगा? जबकि उनमें विरोध किस बात पर है, बीस दिनों में भी शमीक इसका तनिक भी अनुमान नहीं लगा पाया। लगाता भी कैसे? इस दौरान उसने एक दिन भी अरुण गांगुली और बासंती को लड़ते-झगड़ते नहीं देखा। बेहद ज़रूरी जो दो-चार बातें होती हैं, उसमें भी एक-दूसरे को भेदने वाले ज़हरीले बाण नहीं होते। जबकि यह साफ़ समझ में आता है कि घर में अरुण गांगुली ही मानो एकाकी हों। निर्जन द्वीप के वे एक एकाकी ही बाशिंदे हैं। ग़ृहस्थी के हर काम, हर मामले में शामिल होते हुए भी वे नहीं होते। उनका चेहरा देखकर ही इस पीड़ा को सहज ही समझा जा सकता है। अब मानो अरुण गांगुली से शमीक की तकलीफ ही ज़्यादा हो। जिसने शमीक के लिए इतना कुछ किया वह खुद इतनी तकलीफ़ में है, यही बात रह-रहकर शमीक को कचोटती रहती है, जबकि वह कुछ कर भी नहीं सकता। सच्चाई जाने बिना कुछ भी कर पाना उसके लिए मुश्किल है। समस्या की जटिलता को जाने बिना समाधान के किस पथ पर वह अग्रसर हो?
फिर भी एक बात शमीक को बहुत ही ख़राब लगती है। अरुण गांगुली और बासंती के बीच जो भी क्यों न हो, उनकी बेटी चुमकी का घमंड और हमेशा दूसरों की अवज्ञा करन की प्रवणता शमीक को बहुत बुरी लगती है। सबसे बड़ी बात है कि चुमकी सिर्फ़ उसकी ही उपेक्षा करती हो ऐसी बात नहीं है, पिता के रूप में अरुण गांगुली की भी कोई ख़ास परवाह नहीं करती। हाँ बासंती की भी बहुत परवाह करती हो, ऐसी बात भी नहीं है। हाँ, पिता की तुलना में माँ के साथ दो-चार बातें ज़्यादा होती हैं। दरअसल चुमकी किसी का भी सम्मान नहीं करती। वह अपनी मन-मर्ज़ी करना पसंद करती है। टोकने पर हंगामा कर बैठती है। बीते कल ही तो ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी।
बासंती देवी निजी कार से काली मंदिर पूजा करने गई थीं। दोपहर का भोजन कर अरुण गांगुली विश्राम कर रहे थे। और आधे घंटे बाद ही वे प्लांट जाने के लिए रवाना होंगे। कंपनी की एंबेसडर नीचे पोर्टिको में इंतज़ार कर रही थी। दो-चार बार अंदर-बाहर निकलते हुए अनिच्छा से चुमकी ने अरुण गांगुली से कह ही डाला - ‘आपकी गाड़ी ज़रा मुझे कॉलेज छोड़ आएगी?’
‘तुम तो जानती हो वह मेरी नहीं, कंपनी की है।’
‘फिर भी वह आपकी ही है।’
‘वह कंपनी के काम के लिए है।’
‘मतलब, नहीं छोड़ेगी ?’ चुमकी का मानो दिमाग गरम हो गया हो। उसने तिरस्कार के स्वर में पिता से कहा - ’ईमानदारी अच्छी बात है। तो उस दिन आपकी ईमानदारी कहाँ थी?’
साथ वाले कमरे में शमीक हर बात सुन पा रहा था। उस दिन से मतलब?
चुमकी ने किस बात की तरफ इशारा किया, यह तो शमीक नहीं जानता लेकिन यह समझ गया कि चुमकी ने अवश्य पिता पर बड़ा आघात किया है क्योंकि उसकी इस बात के जवाब में अरुण गांगुली कुछ भी नही कह पाए। सहसा मानो उन्होंने खुद को सिकोड़ लिया। यह सही है कि शमीक उनका चेहरा नहीं देख पा रहा था लेकिन अनुभव कर पा रहा था कि अरुण गांगुली मानो ज़मीन में गड़े चले जा रहे हों। उनकी कोई आवाज़ ही नहीं सुनाई दे रही थी। जबकि चुमकी ने किसी बालक को धमकाने की भाँति पूरे घर को सर पर उठा रखा था।
ये है चुमकी। इसी बात पर शमीक को आपत्ति है। क्या वह अपने पिता को और थोड़ा सा सम्मान, और थोड़ा सा स्नेह नहीं दे सकती? हमेशा त्योरियां चढ़ाए रखने की क्या ज़रूरत हो सकती है? हाँ, बिना वजह कुछ भी नही होता, हर बात के पीछे कोई न कोई वजह होती है। यहाँ भी चुमकी की कोई वजह हो सकती है वर्ना वह हमेशा ऐसी चिड़चिड़ी क्यों बनी रहेगी? और चुमकी की बात सुनकर अरुण गांगुली ही भली क्यों ठंडे पड़ गए? शमीक सब कुछ मानने के लिए तैयार है। फिर भी एक बात रह ही जाती है। बतौर बेटी पिता के प्रति नर्मी का रुख होना चाहिए। वे क्रमश: निस्तब्ध दुनिया के प्राणी बनते जा रहे हैं, यह तो सबको समझना चाहिए।
इसी प्रसंग में शमीक को एक बात और याद आ गई। अरुण गांगुली द्वारा उसे पैंट-शर्ट, सूट इत्यादि वस्तुएं खरीद कर दिए जाने पर चुमकी ने अपनी माँ के पास टिप्पणी की थी, पिता हद से बाहर जा रहे हैं। हाँ, बासंती ने बेटी का बात का समर्थन नहीं किया था बल्कि विरोध ही किया था। हाँ, यह भी सही है कि वे शमीक को काफी स्नेह करती है। उसे अपनी संतान से तनिक भी भिन्न नहीं समझतीं। शमीक के मन में प्रश्न उठता है कि माँ के समक्ष पिता के विरुद्ध बात कहने की चुमकी की हिम्मत कैसे हुई? पिता के प्रति उसके मन में यह द्वेष क्यों? हाँ, माँ के प्रति भी एक सी प्रतिक्रिया है। मामूली सा अंतर है। बासंती भी बेटी से ज्यादा उलझना नहीं चाहतीं। गृहस्थी का संपूर्ण ज़हर खुद पीकर वे एक विषाद प्रतिमा बनी हुई है। कोई एक आंतरिक रहस्य तीनों को परस्पर अलग किए हुए है, यही शमीक के लिए आश्चर्य की बात है।
......जारी।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित। (2009)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें