(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
अब तक आपने पढ़ा कि किस तरह पिता की मृत्यु के पश्चात् पढ़ाई छोड़ परिवार की गुज़र-बसर के लिए नौकरी की तलाश में शमीक कलकत्ते से नागपुर पहुंचता है। उसके प्रोफेसर के मित्र अरुण गांगुली द्वारा नौकरी का आश्वासन पा वह नागपुर की सरज़मीं पर कदम रखता है। अब आगे पढ़े.....
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
शमीक की नौकरी का आज पहला दिन है। इस बीच वह कई बार पॉवर प्लांट गया है परंतु उसमें और आज के जाने में बहुत अंतर है। आज वह महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का एक ट्रेनी इंजीनियर है। जिस उम्मीद से माँ और छोटी दोनों बहनों को छोड़ सर की चिट्ठी को सहारा मान न्युबैरकपुर से नागपुर दौड़ा चला आया था, आज पूरी हुई। हाँ, इस परिपूर्णता के पीछे जिसने ख़ामोशी से परिपूर्ण कार्य किया है, वे हैं अरुण गांगुली। ज़िंदगी भर शमीक उनका यह ऋण नहीं चुका पाएगा।
ऑफिस जाने से पहले अरुण गांगुली के चरण स्पर्श करते वक्ते फूट-फूट कर रो पड़ा शमीक। उन्होंने उसे सीने से लगाकर सर पर हाथ फिराया। गंभीर स्वर में कहा - ‘पीछे मुड़कर कभी मत देखना। अब से सिर्फ़ आगे बढ़ने के ख़्वाब देखो। तुम्हें ऊपर उठना होगा, वह संभावना तुम में है। और एक बात शमीक, माँ-बहनों का साथ देने के लिए जिस पढ़ाई को तुमने छोड़ा है उसे फिर से शुरू करना होगा। एल. एम. ई. कोर्स शुरू कर दो। मौका और समय दोनों का एक साथ मिलना भाग्य का बात होती है। याद रखना, ‘मैन इज़ द आर्किटेक्ट ऑफ़ हिज़ ओन फेट’। अपने भाग्य का निर्माण अब तुम खुद ही कर डालो।’
उसी दिन रात को घर लौट कर शमीक ने माँ को बड़ी सी चिट्ठी लिखी। सेवा और नानू को भी चिट्ठी लिखी। छोटी बहनों से अलग रहने में जो तकलीफ़ हो रही है वह सिर्फ़ शमीक ही जानता है। लिखते-लिखते एक बार तो वह रो ही पड़ा। परिणामस्वरूप चिट्ठी ख़राब हो गई। ऑंखें और मुंह पोंछकर शमीक ने खुद को संयत करते हुए फिर से लिखा। फिर हिसाब लगाने लगा आगामी कल चिट्ठी पोस्ट करने पर नयुबैरकपुर पहुँचने में कितने दिन लगेंगे? कम से कम तीन दिन लग सकते हैं। चिट्ठी मिलते ही उसी दिन या अगले दिन अगर जवाब दें तो एक दिन लग गया और तीन दिन नागपुर आने में। यानी कम से कम उसे सात दिन इंतज़ार करना होगा।
ठंड ख़त्म होते-होते अब बिल्कुल ग़ायब हो गई है। हवा में अब वह बर्फीला स्पर्श नहीं है। सख्त गर्मी से अब नागपुर जल रहा है। लू की चपेट से पूरा शहर क्लांत हो गया है। परंतु किसी भी चीज़ के लिए कोई काम नहीं रुका हुआ है। सबकुछ स्वभाविक रूप से चल रहा है। महाराष्ट्र इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड के काम और एल. एम. ई. कोर्स की पढ़ाई में अब शमीक बहुत ही व्यस्त है। अरुण गांगुली अक्सर एक बात कहते हैं, ‘अब से सिर्फ़ आगे की तरफ बढ़ते जाओ। पीछे मुड़कर देखने का अब समय नहीं है। और हमेशा तो आदमी को मौक़ा नहीं मिलता।’ ये बातें सुनकर शमीक को नए सिरे से प्रेरणा मिलती है। बड़ा बनने का ख्वाब देखता है।
उस दिन छुट्टी की शाम थी। थोड़ी देर पहले थोड़ी सी बारिश हो चुकी है। गर्मी का ताप ज़रा भी घटा नहीं। बल्कि उमस बढ़ ही गई है। लॉन की मुलायम घास बारिश के पानी से धुलकर और हरी हो गई है। वहीं बेंत की कुर्सी पर बैठ बासंती से बातें कर रहा है शमीक। बासंती ने थोड़ा सा मुस्करा कहा, ‘काम के प्रति समर्पित इंजीनियर के रूप में इसी बीच तुम काफ़ी मशहूर हो गए हो।’ बड़े बनने की मामूली सी आकांक्षा में शमीक ने ज़रा सी स्वीकृति पानी चाही, ‘उन्होंने कुछ कहा?’ तुरंत बासंती का पूरा चेहरा स्याह पड़ना शुरू हो गया। वे निष्प्राण सी हो गईं। उनके दमकते चेहरे का अपनापन क्रमश: गायब होने लगा। बात समझने में शमीक को ज़्यादा देर नहीं लगी। दरअसल उसने भावावेश में यह बात कह दी थी। अरुण गांगुली के साथ बासंती के समझौते में एक बड़ी बाधा है यह सोचकर उसने नहीं कहा था जबकि उसकी बात से अवश्य बासंती को दु:ख पहुँचा है।
बासंती ने खुद को संयत किया। अचानक एक सूक्ष्म आघात से मन के भीतर उथल-पुथल शुरू हो गई थी लेकिन तुरंत उन्होंने उस पर काबू पा लिया। आश्चर्यजनक रूप से खुद को संयत कर थोड़ा सा हँसकर जवाब दिया, ‘उनसे कुछ नही सुना। उनके पास बोर्ड के जो लोग आते हैं, वे ही कह रहे थे।’
सुनकर शमीक भी थोड़ा सा हँसा। धीरे-धीरे कहा - ‘देखिए ऐसी कोई बात नहीं है। सभी जानते हैं कि अरुण गांगुली जी ने ही मुझे यह नौकरी दी है। अब मुझे यह साबित करना है कि उन्होंने ग़लत लड़के को नौकरी नहीं दी। मेरे काम के साथ उनकी प्रतिष्ठा का सवाल भी है।’
‘कोई इतना सोच-विचार कर भी काम करता है?’
‘कोई न कोई तो अवश्य करता है।’
‘उसका क्या हिसाब-क़िताब है?’
‘हम सभी अगर अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करें तो हिसाब-क़िताब का सवाल ही नहीं उठता। आप ही बताईए, ठीक है कि नहीं?’
‘तुम्हारी हर बात सही है। मैं भी उससे सहमत हूँ।’ बासंती बेंत की कुर्सी पर और अच्छी तरह बैठ गईं। फिर सहज रूप से ही सीधी बात कह डाली, ‘परंतु हम में से कोई भी अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं करता। उम्मीद है तुम भी इससे सहमत होगे, क्योंकि तुमने खुद ही कहा है कि यदि हम सभी अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करें - यानी ‘यदि’ का सवाल है। इस ‘यदि’ की उपेक्षा कर हम सहज और स्वच्छंद रूप से आगे नहीं बढ़ सकते। वक्तव्य या भाषण में ही हमारा कर्तव्य विद्यमान होता है। ख़ैर जो भी हो, व्यतिक्रम तो होता ही है। जैसे कि तुम। बासंती ने स्नेहपूर्वक और कहा, आजकल के लड़कों से तुम भिन्न हो - बहुत भिन्न। तुम्हारा विवेचन बोध बहुत ज़्यादा परिणत है। अत: तुम्हें आशीष देती हूँ शमीक, तुम बड़े बनकर सही अर्थों में एक इन्सान बन......’ बासंती अपनी बात पूरी नहीं कर पाईं। उसके पहले ही शमीक ने उनका चरण-स्पर्श कर स्पष्ट आवाज़ में कहा, ‘आप मुझे आशीष दें, बड़ा बनकर आप लोगों को भूल न जाऊं। आप लोगों के साथ कभी बेईमानी न करूं।’
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सुनील शिवलकर अपना राजदूत चला कर सीधे लॉन के सामने आर रुका। मोटरसाईकिल से उतर कर बासंती और शमीक के बीच वाली कुर्सी पर फटाक से बैठ ज़रा हँस कर पूछा, ‘हैलो, शमीक तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’
‘ठीक-ठाक।’
‘नौकरी के बाद पढ़ाई की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता। तुम तो दोस्त सचमुच अच्छे लड़के हो। जब देखो हाथ में एक न एक क़िताब रहती ही है। पाँच मिनट का समय मिलते ही बैठ जाते हो क़िताब लेकर, फिर भी कहते हो ठीक-ठाक। वास्तव में पढ़ना ही तुम्हारा शौक है, परीक्षा में फर्स्ट आओगे।’
‘फर्स्ट, सेकेन्ड से मतलब नहीं।’ ज़रा सा मुस्करा कर शमीक ने कहा, ‘बस कोशिश कर रहा हूँ।’
‘तुम्हारी कोशिश की बात मुझे पता है। कितनी बार कहा है, ज़रा पिक्चर चलते हैं या कहीं घूमने चलते हैं, पिकनिक का प्रोग्राम बनाया - किसी में भी तुम नही गए। रिकॉर्ड की सुई एक ही जगह अटकी रही, मुझे पढ़ाई करनी है। इतनी पढ़ाई करने का बाद भी कहते हो, कोशिश कर रहा हूँ। अच्छा शमीक, अपनी उच्चाकाक्षांओं का तनिक सा अंश मेरे भीतर नहीं डाल सकते?’
‘बकवास मत करो।’
शमीक ने हँसते-हँसते ही कहा, ‘पढ़ाई-लिखाई में तुम भी कम नहीं हो। रैंकिंग वाले स्टुडेंट हो न, विनम्रता भी अच्छी सीखी है।’
‘ख़ैर छोड़ो ये सब बातें’ - सर के बालों में उंगलियां फिराते हुए सुनील कुछ सोचने लगा, बासंती की तरफ देखते हुए अचानक पूछ बैठा, ‘चुमकी घर पर है तो?’
‘वह तो बहुत पहले ही निकल गई। शायद तुम्हारे ही घर.... ।’
‘नहीं। हमारे घर नहीं गई। मेरी ही यहाँ आने की बात थी - वो कैसे चली गई समझ में नहीं आता। जो भी हो कल तो कॉलेज में उससे मुलाकात होगी ही। अब आपसे जो कहना है वह है मिसेज़ गांगुली अगले शुक्रवार कहीं कोई प्रोग्राम मत रखिएगा। उस दिन मेरी बर्थ डे पार्टी में आप सबको आना है।’
बासंती ने स्नेहपूर्वक हँसते हुए कहा - ‘अवश्य जाएंगे।’
सुनील ने शमीक की तरफ देख प्यार से उसके पेट पर चपत लगाते हुए कहा, ‘क्या तुम्हें अलग से कहना पड़ेगा।’
‘नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं है - लेकिन शायद जा न सकूं।’
‘पढ़ना है, यही तो? वह सब छोड़ो - अच्छे लड़के एक दिन न भी पढ़ें तो रिज़ल्ट ख़राब नहीं हो। तुम्हें जाना ही पड़ेगा।’
‘कोशिश करूंगा। नहीं जा सका तो प्लीज़ बुरा मत मानना।’
‘तुम्हारी कोशिश के प्रति मेरी आस्था है।’ हँसकर यह कहते हुए सुनील के उठ खड़े होते ही बासंती हैरान हुई। कहा - ‘कुछ भी तो खाया नहीं, जा रहे हो मतलब?’
‘आप के घर आकर बगैर कुछ खाए कब गया हूँ मिसेज़ गांगुली? लेकिन आज और नहीं रुक सकता। बहुत से काम करने हैं। चलूं मैं।’ राजदूत स्टार्ट कर पल भर में सुनील ऑंखों से ओझल हो गया।
शुक्रवार का दिन भी आ पहुँचा। अभी शाम के पौने छह बजे हैं। बासंती एक बार शमीक को कह गई हैं, ‘जल्दी तैयार हो जाओ, सुनील के घर जाना है।’
इस जाने में ही तो शमीक को आपत्ति है। वैसे सुनील एक बहुत ही अच्छा दोस्त है। उसके जन्मदिन पर न जाने की कोई वजह भी तो नहीं। समस्या कुछ और है। चुमकी साथ होगी। और वह ऐसी चुभती हुई बातें कहती हैं कि हजारों लोगों के सामने शर्मिंदा होना पड़ता है। बहुत ही बुरा लगता है तब। सबसे बड़ी बात है चुमकी कब किसे क्या कह बैठेगी, यह वह खुद भी नहीं जानती। और जिसे कहेगी, वह भी कुछ समझ पाने से पहले ही शर्म और बेईज्जती से मुँह छुपाना चाहता है। ऐसी स्थिति में उसके साथ जाना कितना सुविधाजनक है, यह सोच रहा है शमीक। कल ही चुमकी ने ऐसी एक बात कही थी।
बात कुछ ख़ास नहीं। पाणीकर आस-पास के घरों के ड्राइवरों के साथ जमकर गप्प-शप्प कर रहा था। कौन कितनी मील की गति से गाड़ी चलाता है, किसने कितने एक्सीडेंट किए हैं, किसने एक भी नहीं किया। किसने कितने लोगों को गाड़ी चलानी सिखाई है, ऐसी ही बातें। शमीक उस समय पॉवर प्लांट से लौट रहा था। घर के गेट के सामने ड्राइवरों की यह मजलिस देख वह ठिठक कर रुक गया। पाणीकर ने हँसकर मासूमियत से कहा, ‘घबराने की कोई बात नहीं साब। ये अपन ड्राईवरों की बात-चीत चल रही है। फिर अचानक याद आ जाने की स्थिति में बड़े ज़ोश से बोला, मैंने एक कम, सौ लोगों को ड्राइविंग सिखाई है। आपको भी दो घंटे में ड्राइविंग सिखा दूंगा। और आज ही मैं सेंचुरी पूरी कर लूंगा।’
गहरे मेहरून रंग वाली फिएट में ही शमीक की ट्रेनिंग चल रही थी। पाणीकर बड़ी अच्छी तरह सब कुछ समझा रहा था। ऐसे में ही अचानक चुमकी कमरे से बाहर निकल आई। उसे देखकर ही शमीक समझ गया था कि वह ज़रूर कुछ न कुछ कहेगी। चुमकी ने ताना सा देते हुए कहा, ‘पिताजी ने कहा है, समय और मौक़े का सही सदुपयोग करना चाहिए। देख रही हूँ वैसा ही कर रहे हो।’ इतने सारे ड्राइवरों के सामने यह बात नहीं कहनी चाहिए थी।
अत: पहले शमीक ने सोचा था कि सुनील के जन्मदिन पर चाहते हुए भी नहीं जाएगा। और फिर अकेले-अकेले जाना भी उचित नहीं होगा। वह और भी बुरा लगेगा। जबकि बासंती ने जिस अपनत्व से जल्दी मचाई थी, उसके बाद न जाना भी उचित नहीं होगा। लेकिन वहाँ जाकर चुमकी की बातें नहीं सुननी पड़ेगी इसकी गारंटी कौन देगा? वैसे लड़की बहुत अच्छी है लेकिन कभी-कभी चिढ़कर ऐसी बातें सुनाती है कि सीना छलनी हो जाए, शर्म से सर कट जाए। और चुमकी शमीक को सहन भी नहीं कर पाती। उसके पिता शमीक से स्नेह करते हैं, प्यार करते हैं। उनके इतने क़रीबी होने के कारण ही शायद वह इतना चिढ़ती है। लेकिन इसमें शमीक का क्या क़सूर है? और उस पर गुस्सा करके क्या फ़ायदा? बेटी होकर भी चुमकी अपने पिता से इतनी कटी-कटी सी क्यों रहती है? वह भी क्या शमीक की ख़ातिर?
नागपुर के अभिजात्य इलाके धर्मपेट के एक शानदार दोमंजिले मकान के सामने आकर गहरे मेहरून की फियेट रुकी। पाणीकर ने जैसे ही पिछला दरवाज़ा खोला बासंती नीचे उतरीं। उनके साथ-साथ चुमकी भी। शमीक पाणीकर के बगल में बैठा था। वह पहले ही उतर गया था। मुख्य द्वार पर सुनील के पिता किरण और माँ दशमी ने उनका स्वागत किया। शमीक को देखते ही मानो नाच सा उठा सुनील। माता-पिता के साथ शमीक का परिचय करवाकर ही वह बोल उठा, ‘तुम्हें चाहे कितनी ही पढ़ाई क्यों न करनी हो, मुझे पता था, तुम मेरी बात ज़रूर मानोगे। रियली शमीक मुझे बहुत खुशी हुई।’ ऐसे में चुमकी ने मज़ाक से कहा, ‘तुमने क्या सिर्फ़ अकेले शमीक को ही आमंत्रित किया है? सारी बातें उसी से निपटा ले रहे हो। हम भी हैं’। उसकी इस बात पर सभी हँस पड़े। गहरी साँस छोड़ते हुए शमीक ने सोचा, तो चुमकी को ठिठोली करनी भी आती है।
दोस्त-मित्रों और रिश्तेदारों की भीड़ से सुनील के घर में काफ़ी गहमा-गहमी है। जन्मदिन का उत्सव इतने बड़े पैमाने पर हो सकता है, शमीक को यह अंदाज़ा नहीं था। तीन सौ के लगभग लोगों की उपस्थिति मानो शादी के उत्सव को मात दे रही हो। शमीक के साथ एक लड़की का परिचय हुआ। उसका नाम है सागरिका सलूजा। नागपुर के कस्तूरीबाई वुमेन कॉलेज में बी. ए. में पढ़ती है। शमीक को बंगाली समझ वह खुद ही परिचय करने के लिए आई थी। सागरिका ने वह बात कही भी, ‘आप को देखकर ही समझ गई थी कि और चाहे जो भी हों आप मराठी नहीं है। सुनील मेरा फुफेरा भाई है। उससे जब सुना कि आप बंगाली हैं तो परिचय करने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाई।’ स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी सागरिका की, ‘दरअसल मैं बंगालियों को बहुत पसंद करती हूँ।’
‘ज़रा सा मुस्करा कर शमीक ने पूछा, क्यों?’
‘वजह जान कर हँसेंगे तो नहीं न?’ सागरिका खुद ही हँस पड़ी।
‘आप जब तक हँसेंगी तब तक अवश्य मैं नहीं हँसूंगा।’
‘बड़ी अच्छी बातें कर लेते हैं आप?’ सागरिका सलूजा मानो हँसी के सागर में तैरने लगीं। हँसी थमने पर फुसफुसाने के लहज़े में उसने कहा, ‘मेरी एक मौसी की बंगाली से शादी हुई है। मौसा जी मौसी को बहुत चाहते हैं।’
सागरिका की इस बात के जवाब में शमीक कुछ कहने ही जा रहा था कि उसके पहले ही चुमकी उन दोनों के सामने जा खड़ी हुई। ‘सागरिका उससे ज़रा सी बात-चीत कर, आती हूँ’ कहकर आगे बढ़ गई। चुमकी ने एक बार आपादमस्तक शमीक को देखकर धीमे स्वर में कहा, ‘समय और मौक़े का सदुपयोग कर रहे हो?’ सुनते ही बेहद आहत होकर शमीक ने उसकी तरफ देखा। फिर धीरे-धीरे कहा, ‘इस तरह बात करने का क्या मतलब है? मुझे अपमानित करना ही तुम्हारा मकसद है?’ कहकर शमीक और वहाँ नहीं रुका। चुमकी के साथ तर्क-वितर्क करने में उसे बहुत आपत्ति है।
सुनील के यहाँ आनंदोत्सव के प्रोग्राम का जो आलम था उसमें रात ग्यारह बजे से पहले निजात नहीं मिलने वाली। अभी तो सिर्फ़ पौने सात बजे हैं। यानी चार घंटे से भी ज़्यादा समय के लिए यहाँ रहना होगा। स्वभावत: शमीक को छटपटाहट होने लगी। एक तो चुमकी की बातों से उसका दिल ही टूट गया। दूसरे सिर्फ़ जन्मदिन के अनुष्ठान में इतना समय न गुज़ार कर पढ़ाई करना बेहतर होता। शमीक ने पहले बासंती के समक्ष ही जाने की इच्छा व्यक्त की। बासंती ने आपत्ति नहीं की। शमीक को वे जानती हैं। वह पढ़ाई के लिए छटपटा रहा है। इसके अलावा वह खुद को यहाँ एडजस्ट भी नहीं कर पा रहा था। सबसे तो उसकी जान-पहचान है नही। खुद पहल करके वह बात-चीत कर नहीं पाता। अत: घर जाने के लिए शमीक की छटपटहट स्वभाविक ही थी।
घर लौटने की बात सुनकर सुनील ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। शमीक के चेहरे की तरफ अपलक निहारते हुए अंतत: उसने आश्चर्यपूर्ण स्वर में कहा, ‘जल्दी घर जाना है, क्यों? तब तो दोस्त, तुम्हें आना ही नहीं चाहिए था। मैं तुम्हारा कोई बहाना नहीं सुनने वाला। एक दिन न पढ़ने से तुम जहाँ हो वहीं रहोगे। बेकार ही हमारा मज़ा क्यों किरकिरा करते हो?’
सहजता से मुस्कराकर शमीक ने कहा, ‘तुम लोग मज़े करो।’
‘सिर्फ़ कहने से नहीं होता, खुद को भी शामिल होना पड़ता है। ख़ैर एक बार जब तुमने घर लौटने का निश्चय कर ही लिया है तो मैं रोकूंगा नहीं। सिर्फ़ एक ही विनती है बगैर खाए मत जाना।’
झमेला तो हुआ। लेकिन उसके बाद खा-पीकर शमीक ने पहले सुनील के माता-पिता से आज्ञा ली। फिर बासंती के पास जा खड़े होते ही उन्होंने कहा, पाणीकर से कहो तुम्हें छोड़कर फिर आए। अंत में सुनील को शुभकामनाएं दे जब वह गहरे मेहरून रंग की फियेट में बैठने ही वाला था कि लगभग दौड़ते हुए वहाँ पहुँचकर सागरिका सलूजा ने हैरानी से पूछा, ‘आप जा रहे हैं?’
‘हाँ।’
‘इतनी जल्दी?’
‘घर पर ज़रा काम है।’
‘समझ गई कि काम के मामले में आप काफ़ी सजग हैं लेकिन यहाँ अटैंड करना भी क्या काम नहीं है?’
‘अटैंड तो किया न।’ शमीक के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान थी। उसी मुस्कान को झरने की तरह बिखेरते हुए सागरिका ने कहा, ‘लेकिन यह तो सिर्फ़ औपचारिकता ही हुई।’
‘कई बार हम इतनी औपचारिकता भी नहीं निभा पाते। है न?’
‘आपको बातें बनाने का मौक़ा देकर मैं हारने के लिए तैयार नहीं हूँ। ख़ैर जो भी हो आप तो कोराडी जा रहे हैं। मुझे सदर में उतार दीजिएगा। घर जाकर एक बार फिर यहाँ आना पड़ेगा।’
‘ठीक है, चलिए’ - गाड़ी का दरवाज़ा अभी शमीक ने खोला ही था कि वहाँ चुपचाप जो लड़की आ खड़ी हुई, वह चुमकी थी। कम से कम शब्दों में व्यक्ति की किस तरह उपेक्षा की जा सकती है ठीक वैसी ही मुस्कान चुमकी के होंठों पर थी। अपनी विशेष भंगिमा में खींच-खींच कर लेकिन अस्पष्ट स्वर में कहने लगी, ‘समय और मौके का फिर सदुपयोग कर रहे हो। सचमुच, पिताजी की बात का तुम्हारी तरह और किसी ने इस तरह अक्षरश: पालन नहीं किया। तो क्या इसीलिए इतनी जल्दी घर लौट रहे हो?’
‘तुम्हारे हृदय में कहीं भी तनिक कोमलता नहीं है। तुम ऐसा सोच ही सकती हो।’
‘मैं क्या कर सकती हूँ, क्या नहीं, वह मेरा मामला है। पर तुम क्या कर रहे हो?’ व्यंग्य के लहज़े में चुमकी ने कहा, ‘पिताजी का कहा मान रहे हो, अच्छी बात है, उसके साथ-साथ उनकी इज्ज़त का भी ख्याल रखने की कोशिश करना।’
चुमकी की इस आख़िरी बात पर ही मानो शमीक का दिमाग़ गरम हो गया। वह तो मानो आपा खो बैठा था। चुमकी की बात का अभिप्राय: स्पष्ट है। उसे इतना तुच्छ समझने की मानसिकता उसकी हुई कैसे? और इतना अपमान सहना उसके लिए कष्टदायक है। इसी बीच सागरिका पता नहीं क्या सोच कर घर के अंदर चली गई थी। शमीक समझ गया कि यह कुछ नहीं बस स्थिति को संभालने जैसे बात थी। परंतु वह क्यों बेवजह समझौता करे? चुमकी ने जो कहना चाहा वह सिर्फ़ अन्याय ही नहीं - बहुत बड़ा अपराध है। इन्सान की बेइज्जती करने के उस के एकाधिकार का दमन करना उचित होगा। यद्यपि शमीक अंदर से बहुत उत्तेजित था फिर भी उसने अपने आपको संयत कर पूछा - ‘तुम्हारी इन बातों का क्या मतलब निकलता है वह सोचा है कभी? हरेक को हर बात कहने का हक़ तुम्हें नहीं दिया गया है।’
‘कहने का मौक़ा तो तुम ही दे रहे हो।’
‘कैसे?’ अंदर के क्रोध को दबाकर शमीक ने चुमकी की तरफ देखा।
‘निमंत्रण पर आकर इतनी जल्दी तुम्हारे घर लौटने का क्या मतलब है?’ चुमकी के फूले हुए दोनों गाल मानो और फूल गए। होंठ भी मानो धरथरा रहे थे। नथुने भी काँप रहे थे। ऑंखें ऐसी थी मानो जिधर भी नज़र जाएगी, सब कुछ भस्म कर देंगी। भौंहे माथे पर जा चढ़ी थीं। वह इस वक्त बहुत गुस्से में है, यह स्पष्ट था। शमीक उसे इस तरह चुभती हुई बातें कहेगा, कह सकता है, यह उसकी कल्पना से परे की बात थी। अब तक वह बहुत ही निरीह सा जान पड़ा था, परंतु वह इस तरह जाग्रत हो सकता है यह तो उसने सोचा भी नहीं था। उसके सम्मान को उसने लगभग चूर-चूर कर दिया था। चुमकी उसकी ऑंखों की तरफ देखते हुए चीख ही पड़ी - ‘तो यहाँ आए ही क्यों? न आते।’
‘मुझे जिसने आमंत्रित किया था उसे क़ैफ़ियत दे सकता हूँ - तुम्हें नहीं। तुम मुझसे
सवाल नहीं कर सकती।’
‘तुम मेरे साथ बहस मत करो शमीक। अच्छा नहीं होगा।’
‘तुम मुझे डरा ही सकती हो, जो जी चाहे कह भी सकती हो, क्योंकि वह तुम्हारा हक़ है लेकिन सच्ची बात कहना, बहस करना हो गया? ’
चुमकी ने ऑंखे दिखाते हुए कहा, ‘तुम में कृतज्ञता बोध नाम की चीज़ नहीं है?’
यह सुनते ही एक साथ बहुत से जवाब सूझे। शमीक ने कोई जल्दबाजी नहीं की। किसे कौन सी बात कहनी चाहिए, कौन सी नही - अंत तक वह शब्द भंडार की सोच में डूब गया। उसे फिजूल बातें करना बिलकुल पसंद नहीं। चुमकी की क्रोधित नज़रों के उत्ताप का शमीक पर ज़रा भी असर नहीं पड़ा। उसने उसकी ऑंखों की तरफ देखते हुए सहजता से जवाब दिया, ‘अपनी कृतज्ञता मैं सही जगह पर ही प्रकट करता हूँ।’
......जारी।
......जारी।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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