बांगला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत आप पढ़ रहे थे। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हुए। प्रस्तुत है उपन्यास की अंतिम किस्त।
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
चौपाटी के बीच पर लेटा हुआ था शमीक। शाम के सवा सात या साढ़े सात बजे होंगे। भेलपूरी, बटाटापूरी, गोलगप्पे वालों की छोटी-छोटी बत्तियाँ तारों जैसी लग रही थीं। उस दृष्टि से पूरा चौपाटी बीच ही तारों से भरा हुआ है. एक-एक भेलपूरी वाले को कई -कई लोगों के झुंड घेरे हुए हैं। भिन्न-भिन्न उम्र और भिन्न-भिन्न पोशाकों वाले स्त्री-पुरुषों का मानों मिलनमेला हो।
आज दो जगह साक्षात्कार दिया है शमीक ने। और बहुत ही अच्छा दिया है। और यह भी जानता है कि उन दोनों कंपनियों में से किसी में भी उसकी नौकरी नहीं लगने वाली। साक्षात्कार देकर निकलते वक्त चपरासी उसे सुना कर कह रहे थे, पूरे पचास हजार। उनकी भद्रता में कोई खोट नहीं। किसी ने घूस नहीं माँगा जबकि जो कहना था, समझाना था सो भी बता दिया। नहीं, पचास हजार देने की सामर्थ्य नहीं है शमीक की। और अगर होती भी, तो भी पचास पैसे तक न देता। अत: दोनों में से कोई भी नौकरी नहीं मिलने वाली। शमीक इस विषय में निश्चिंत है।
‘आप यहाँ?’ शमीक के सामने आकर एक भद्र महिला ने जैसे ही पूछा, शमीक ने सवाल करने वाली की तरफ एक नज़र देख कर कहा, ‘आपको कोई ग़लतफ़हमी हुई है।’
‘बिलकुल नहीं।’ भद्रमहिला ने आग्रहपूर्वक कहा, ‘क्या सचमुच तुम मुझे नहीं पहचान पा रहे हो?’
‘नहीं,’ शमीक ने जवाब दिया - ‘मैंने तुम्हें कहीं देखा हो मुझे तो याद नहीं आ रहा। सॉरी।’
‘क्या सॉरी।’ महिला अब हँस पड़ी। तुम तो ठीक से मेरे चेहरे की तरफ भी नहीं देख रहे हो - ‘पहचानोगे कैसे?’
खुले आसमां के नीचे ग्लैमर नगरी बंबई में चौपाटी बीच पर शाम के मिलनमेले में मुँह की तरफ देख नज़रें मिलाने का अनुरोध कर रही है। किसे अनुरोध कर रही है? दुश्चिंताओं के पहाड़ का बोझ उठाए औंधे मुँह पड़े एक युवक से जो कई दिनों से दो वक्त के भोजन से भी वंचित हो? पैसों की खींचतान में सोच-विचार कर थोड़ा-बहुत खा रहा है। पैसे ख़त्म हो जाने की आशंका से जहाँ भूखे रहना पड़ रहा हो वहाँ पेट भरने का सवाल कहाँ से उठता है? अत: निराहार व्यक्ति के मन की गहराई में और चाहे जो भी हो कम से कम चंचलता तो नहीं ही आ सकती। शमीक के मन की दशा भी वैसी ही है। अत: रेत पर बैठ दोनों घुटनों में मुँह दिए रहा।
महिला ने अपने लिए बड़े से लिफाफे में भेलपूरी ली थी। और एक लिफाफा लाकर थोड़ा सा नीचे झुक कर गर्मजोशी से कहा, ‘खा लेना।’
हैरानी से मुँह उठाकर देखा शमीक ने। ये छोटा सा वाक्य उससे किसने तो कहा था? किसने कहा था? याद आया। नागपुर से पैसेंजर ट्रेन में बंबई आते समय एक सुंदर, गोलमटोल सुंदर सी महिला ने छुपाकर खाने का पैकट देकर अस्फुट स्वर में कहा था, ‘खा लेना।’ यह तो वही है। वही महिला। ट्रेन में परिवार के इतने लोगों के बीच शर्माई हुई सी थी। और अब अकेली है और काफ़ी उन्मुक्त है। मुँह की तरफ देखने के लिए भी कह रही है।
शमीक बोला, ‘ओह तुम!’
‘तो पहचान लिया। लो पहले ये खा लो।’ महिला ने लिफाफा उसके हाथ में थमाया और उसके पास ही बैठ गई। और देखा कि लड़का बात-चीत न करके खाने में ही मशगूल हो गया है।
महिलाओं के पास एक ऐसी घ्राण शक्ति होती है जो दूसरों के मन की अंधेरी गलियों में अनायास ही झाँक लेती है और उसे मिटा देती है। तब वे एक विशेष दृष्टि से सारी दुनिया को देख पाती हैं। जैसे अब इस महिला को ठीक पता चल गया कि चाहे कोई भी वजह रही हो, इस लड़के को ठीक से खाना नही जुट रहा है। नागपुर की ट्रेन में पहली बार देखने और आज शाम तक देखने पर यह बात तो साफ़ है कि लड़का भोजन के लिए संघर्ष कर रहा है। और, ये भूखा लड़का यहाँ का नहीं है। महिला के दिमाग में पता नहीं कहाँ से भिन्न- भिन्न सूत्र निकलने लगे।
बहुत ही शांत स्वर में उसने पूछा, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’
जो खाने को दे उस अन्नपूर्णा के समक्ष तो कृतार्थ होना ही पड़ेगा। क्या पता बाद में वह और भोजन देकर..... शमीक ने भेलपूरी ख़त्म कर उस गोलमटोल महिला की तरफ देखा। कृतज्ञ नज़रों से देख कह उठा, ‘तुम अन्नपूर्णा हो।’
‘अन्नपूर्णा नही, मैं संपूर्णा हूँ। अहमदाबाद की लड़की ब्याहकर बंबई में हूँ। कोलाबा में रहती हूँ।’ संपूर्णा ने थोड़ा सा हँसकर कहा, ‘थोड़ी देर पहले जो मैंने तुमसे तुम्हारा नाम पूछा था, बताया नहीं। नाम बताने में आपत्ति है?’
शमीक ने मानो खुमारी में उत्तर दिया, ‘नाम बताने पर तुम मुझे खाना दोगी?’
‘दूंगी।’
‘मेरा नाम शमीक भट्टाचार्य है।’
‘बंगाली हो?’
‘हाँ।’
‘तुम यहाँ कहाँ रहते हो? क्या करते हो?’
‘मेरे पास कोई नौकरी नहीं है। बंबई के फुटपाथ, रेलवे स्टेशन, झोंपड़ियों के पास रात गुज़ारता हूँ। दिन भर में तीन रुपए में जितना खाया जा सकता है, खाता हूँ।’ संपूर्णा के चेहरे की तरफ देख शमीक बोल उठा, ‘बोलो और क्या जानना चाहती हो?’
‘तुम कलकत्ते के हो?’
शमीक ने मुंह से कुछ न कहकर सिर हिलाकर सहमति जताई।
‘तो नागपुर से जो चढ़े?’
पहले शमीक ने सोचा संपूर्णा के और किसी सवाल का जवाब नहीं देगा। लेकिन अगले ही क्षण कुछ और लगा। किसके माध्यम से कहाँ क्या संपर्क बन जाए, किस समस्या का समाधान हो जाए, यह कौन कह सकता है? किसी की भी उपेक्षा करना उचित नहीं है। उससे पहले ही शमीक बोल उठा, ‘इतना सब क्यों पूछ रही हो?’
संपूर्णा ने साफ़गोई से जवाब दिया, ‘देखने में ही तुम शिक्षित भद्र परिवार के लगते हो। इस तरह पड़े रहने और खाने वालों में से तुम नहीं हो। तो फिर तुम्हारी यह दशा क्यों है? यह जानना चाहने में क्या कहीं कोई अस्वभाविकता है? अब बताओ नागपुर से ऐसी विध्वंस स्थिति......’
विध्वंस स्थिति ! शमीक ने मन ही मन कहा।
‘तुम्हें कैसे पता चला?’
‘तुम्हें देखकर ऐसा ही लगा रहा था।’
‘मैं वहाँ नौकरी करता था। असिस्टेंट इंजीनियर था।’ शमीक ने बहुत ही टूट चुके स्वर में धीरे-धीरे कहा, ‘वजह जो भी रही हो, कह सकती हो कि मैं भाग कर आया हूँ। नागपुर से भाग कर आने के परिणामस्वरूप वहाँ की नौकरी करना तो संभव नहीं है लेकिन तुम्हें एक बात कह सकता हूँ, मैंने कोई चोरी नहीं की, ग़लत काम नहीं किया, किसी का कोई नुकसान नहीं किया। अब तुम कहाँ तक विश्वास करोगी यह तुम्हारा मामला है। उसे लेकर मुझे कोई सिरदर्द नहीं।’
‘तो तुम कह रहे हो तुमने किसी का नुकसान नहीं किया?’ संपूर्णा हँसने लगी। मालाबार हिल इलाके की बड़ी-बड़ी अट्टलिकाएं रौशनी से सजकर रात की रानियों की भांति इशारों से मानो पास बुला रही हों। उस तरफ एक नज़र डाल धीरे-धीरे शमीक की तरफ मुँह मोड़ा संपूर्णा ने। पहले की तरह ही हँसते हुए पूछा, ‘मेरा नुकसान कर सकोगे?’
‘तुम्हें क्या तकलीफ़ है?’
‘तुम्हारा दिमाग तो बहुत तेज है। ठीक समझ गए।’ संपूर्णा ने मुस्कराते हुए शमीक का दाहिना हाथ कसकर पकड़ लिया। फुसफुसा कर कहा, ‘हमारे घर चलोगे? तुम मेरा कितना नुकसान कर सकते हो, यह देखना चाहती हूँ।’
शमीक के पास नौकरी नहीं है। पेट के लिए भोजन नहीं है। कब नौकरी मिलेगी उसका भी कोई ठौर-ठिकाना नहीं। सर ने अगर न्युबैरकपुर घर पर पैसे भेज दिए हों तो ठीक, वर्ना माँ, नानू, सेवा का क्या हाल होगा सोचकर ही सिर भारी हो उठता है। लेकिन उसका पत्र मिलते ही सर माँ के नाम रुपए भिजवा देंगे। लेकिन यह सब तो समस्या का सामयिक निदान होगा। वह ज़िंदगी की तस्वीर देखना चाहता है। स्वास्थय जीवन की तस्वीर देखने की आकांक्षा लिए शमीक समस्या के विरूद्ध संघर्षरत है। अत: बेकार की बातें उसके दिमाग में कैसे आ सकती हैं? कोई अन्य जीवन को कई तरह से घुमा फिराकर देख सकता था। लेकिन इस वक्त शमीक के पास वह मौका कहाँ है? अत: उसने काफ़ी दबाव में पूछा, ‘तुम्हारी बात ठीक से समझ नहीं पाया।’
ऑंखो ही ऑंखो में हँसी संपूर्णा। मानो ऑंखों में हँसी का फव्वारा हो। बोली- ‘मेरी बात में न समझने जैसा क्या है? यदि सचमुच नही समझे हो तो कोई बात नहीं। मैं तुम्हें सब कुछ सिखा दूंगी। मेरे घर चलो।’
‘तुम.....तुम रास्ते की.....’ शमीक की आवाज़ अटक गई।
अभिजात्यपूर्ण असाधारण हँसी बिखेरते हुए संपूर्णा ने कहा, ‘घर की ही। देखा नही मेरा पति, देवर, सास-ससुर को। वे लोग हैं। वे अपनी तरह रहेंगे। तुम मेरे पास मेरी तरह बन कर रहोगे। तुम जो डर रहे हो डरने जैसी कोई बात ही नहीं है। चलो चलकर देखोगे, वह एक मज़ेदार घर है। कौन कहाँ सोता है, कहाँ रहता है, किसी सी कोई दुराव-छिपाव वाली बात नहीं।’ शमीक के हाथ को और भी ज़ोर से कसकर पकड़ते हुए संपूर्णा एक अद्भुत भंगिमा में कह उठी, ‘जाना है तो चलो। कोलाबा के फ्लैट के नरम बिस्तर पर मेरे इस गरम शरीर से तुम जो चाहे कर सकते हो। जो चाहे। बदले में मैं तुम्हें रुपए दूंगी। बहुत से रुपए। स्वादिष्ट भोजन दूंगी। पर्याप्त भोजन। और क्या चाहिए तुम्हें? मैं जितने रुपए तुम्हें दूंगी नौकरी करके भी तुम इतने रुपए नहीं कमा सकते। सारी रात मेरे पास रहकर सुबह रुपए लेकर चले जाओगे। जितने दिन रहोगे उतने दिन ही रुपए।’ संपूर्णा हँस रही है। उसकी हँसी के साथ अरब सागर की लहरें भी मचल रही हैं।
संपूर्णा के मुँह की तरफ देख हैरानी से गूंगा हो गया शमीक। कितनी तरह के लोगों की कितनी तरह की ज़रूरतें हैं। किसी के विचित्र मन की थाह कौन पा सकता है? शमीक को चिंता है दो मुट्ठी अनाज के लिए नौकरी की और संपूर्ण की ज़रूरत पूर्णत: शारीरिक है। घटना की आक्स्मिकता से शमीक स्तब्ध है, स्तंभित है। उसके मुँह से कोई बात ही नहीं निकल रही।
संपूर्णा ने कहा, तुम सिर्फ़ बताओ तुम्हें कितने रुपए चाहिए ? एक बार कह कर ही देख लो. दाँत से निचले होंठ को दबाए गोलमटोल बदन लिए वह हँसने लगी.
शमीक काँप रहा था। एक भद्र परिवार की महिला ऐसी हो सकती है? इतनी नीच हरकत? हाँ, अवश्य संभव है, यह तो वह अपनी ऑंखों से देख रहा है। विश्वास, मूल्यबोध, शुचिता, पवित्रता को ये लोग अनायास ही कितनी सहजता से उतार फेंक सकते हैं। इनकी दुनिया क्या अलग है? कौन सी दुनिया है? किस दुनिया की रहने वाली है संपूर्णा? शमीक ने भीतर भड़क उठे क्रोध को दबाते हुए कहा, ‘तुम क्या मुझे खरीदना चाहती हो?’
‘तुम्हें प्यार करना चाहती हूँ।’
‘शरीर देकर।’
अवश्य। संपूर्णा खिलखिला रही है।
‘तुम्हें .......तुम्हें शर्म नहीं आती कहते हुए। तुम्हें क्या तनिक भी लाज शरम नहीं है। छी: जो महिला अपने सम्मान...... वह खुद अपना अपमान तो करती ही है उसके साथ-साथ तुमने मेरा भी अपमान किया है। मेरी स्थिति का फायदा उठाकर तुमने मुझे धन का लालच दिया। फिर कह रहा हूँ, छी, छी. तुम्हारा दिया भोजन खाकर मेरा पेट भर गया था, वह मुझे उल्टी करके निकाल देने होगा। मुझे उबकाई आ रही है। मेरा विश्वास, मेरा सोच-विचार सब कुछ ख़त्म हो गया है। तुम चली जाओ, तुम चली जाओ अन्नपूर्णा।’
‘मैं तो अन्नपूर्णा नहीं हूँ... मैं संपूर्णा हूँ।’
‘मेरे लिए तुम संपूर्णा नहीं, अन्नपूर्णा हो। मुझे भोजन देकर तुमने जीवनदान दिया है। तुम अन्नपूर्णा ही हो।’
‘लेकिन.......लेकिन......’ विस्मय से गला रूंध गया संपूर्णा का। ध्वंसस्तूप में खड़ी होकर हैरान नज़रों से उसने प्रश्न किया, ‘तुम कौन हो, कौन हो तुम?’
‘मैंने तो पहले ही कहा कि मैं शमीक हूँ। मैं इन्सान हूँ।’
‘इस इन्सान को देखना.... इस इन्सान को देखना मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। तुम्हें ज़रा सा स्पर्शं कर लूँ?’
‘अब तक तो तुमने मुझे छू ही रखा था।’
‘वह तो संपूर्णा थी। तुमने ही तो मुझे अन्नपूर्णा कहा। इस अन्नपूर्णा ने तो तुम्हारा स्पर्श नही किया। अन्नपूर्णा ने किसी इन्सान का स्पर्श नहीं किया - इतने दिनों तक वह एक अविश्वासी अमानुष को....’ संपूर्णा नामक तीस वर्षीया गुजराती महिला के होंठ कंपकंपाने लगे। बादलों से बारिश। कंपन से रुलाई। संपूर्णा रोती रही।
जिस महिला को देख अब तक शमीक घृणा कर रहा था अब उसके प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई। ऑंसुओं से धुल कर मानो अन्नपूर्णा के सभी पाप धुल गए। पश्चाताप की अग्नि में जलकर जब मन शुद्ध हो जाता है, तभी तो रुलाई निकलती है। रोने दो उसे। जितना रो सके, रो ले। रो कर उसका मन रूपी आकाश शरत ऋतु के आकाश की भाँति स्वच्छ हो सके।
शमीक ने बहुत ही शांत स्वर में कहा - ‘अब कभी इतनी दु:साहसी मत बनना। घर जाओ।’
‘घर! अब घर जाकर क्या होगा?’ अन्नपूर्णा की आवाज़ में दु:ख, वेदना, हताशा, क्षोभ सब का साया था। रुक-रुक कर धीमे स्वर में उसने कहा - ‘वह घर नहीं - शून्यता का नरक है। दीर्घ शवास छोड़ने की कोठरी है। ऊपर से तुम कुछ नहीं समझ पाओगे। देखकर भी नही समझ पाओगे कि गड़बड़ी कहाँ और कितनी है? रात भर खाली बिस्तर पर जो लेटे रहता है वही उस पीड़ा को समझ सकता है। मेरे श्वसुर, पति, देवर का काफी बड़ा कपड़े का व्यवसाय है। पैसों की कमी नहीं है।’ अत: मौजमस्ती की भी कमी नहीं। तुम सुनकर हैरान हो जाओगे कि अब भी मेरे श्वसुर आधी रात को घर लौटते हैं मुझ से भी कम उम्र की एक लड़की......’ कहते-कहते रुक गई अन्नपूर्णा। शमीक सर झुकाए सुन रहा था। अब उसने उसके मुँह की तरफ देखा तो अन्नपूर्णा बोल उठी, ‘मेरा देवर भी वैसा ही है। और मेरा पति भी - और उसका एक नहीं दो-दो औरतों के पास आना-जाना है। इससे भी ज़्यादा हैरानी की बात क्या है जानते हो? तीनों, तीनों के बारे सब कुछ जानते हैं। लुका-छिपी जैसी कोई बात नहीं है। लगभग एक ही समय तीनों तड़के हँसते-हँसते घर लौटते हैं। यह उनका एकाधिकार है। वे ऐसा करेंगे ही। साड़ी, जेवर, रुपए, गाड़ी से उन्होंने हमें सजा - संवार रखा है। उनका ख्याल है कि हमें क्या दु:ख हो सकता है। किस बात का दु:ख? यदि उस दु:ख को ही समझ सकते तो मेरे पति, ससुर, देवर इन्सान बन जाते। मेरा..... इस तरह जीना मुझे बहुत बुरा लगता है। लेकिन क्या करूं, बोलो तो? किसी भी हाल में मर तो नहीं सकती। हमारे गुजराती परिवारों में किसी भी कीमत पर पति के घर रहना ही सम्माननीय है। उस सम्मान को बनाए रखने में कितनी सुखी हूँ मैं, देख रहे हो?’
‘तुम अपने पति से कुछ नहीं कहती?’
‘कहती नहीं?’ अन्नपूर्णा ने खिन्न स्वर में कहा - ‘यही उनका पारिवारिक रिवाज़ है और बीवियों को भगा तो नहीं दे रहे। मर्यादा सहित घर पर रखा है। और क्या चाहिए? एक दिन मैंने रमेश से पूछा था, अगर मैं तुम्हारी तरह ही करूँ तो क्या तुम सह लोगे?’
‘वैसा करने का आज्ञापत्र परिवार की बहुओं को नहीं है।’
‘जो भी छूट है वह सिर्फ तुम लोगों को ही है।’ वह तो समझ ही रही हो - रमेश ने हँसकर कहा। और उसी हँसी की आग में जल कर राख होते - होते अन्नपूर्णा ने कठिन प्रतिज्ञा की, तुम्हें भी समझाऊंगी एक दिन।
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चौपाटी बीच पर गोलगप्पे, आलू टिकिया, भेलपूरी खाने के साथ-साथ जिस तरह अरब सागर की हवा खाने के लिए लोगों की भीड़ लगती है वैसे ही विभिन्न काम करने वाले लोग भी यहाँ आकर अड्डा जमाते हैं। कौन कहाँ से कौन सी सुविधा अर्जित करता है यह तो वही जाने। एक उम्रदराज व्यक्ति, जिसकी उम्र चौवन-पचपन होगी अन्नपूर्णा के पीछे लग गया। वह बार-बार ऑंखों से इशारे किए जा रहा था। दरअसल वह आदमी अन्नपूर्णा को अकेली समझ रहा था। शायद शमीक पर उसकी नज़र पड़ी ही नहीं। और अन्नपूर्णा जब ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचे स्वर में और करीब होकर शमीक से बात करने लगी तो बाप की उम्र का वह आदमी चुपचाप तेजी से वहाँ से खिसक गया।
अन्नपूर्णा ने नरमी से जानना चाहा, ‘अब तुम क्या करोगे?’
‘दो रोटियां और सब्जी खाकर यही रेत पर पड़ा रह सकता हूँ। और तो कुछ कर नहीं सकता।’ लंबी साँस लेकर शमीक ने कहा, ‘पौ फटते ही फिर नए सिरे से नौकरी की तलाश....’
‘मैं एक बात कहूँ?’
शमीक ने उस बात का कोई जवाब न देकर अन्नपूर्णा की ऑंखों की तरफ देखता रहा। उसकी इन ख़ामोश नज़रों का अर्थ हुआ - ‘तुमने तो अपने बारे में मुझे सब कुछ बता दिया। इसके बाद भी कुछ कहना बाकी है?’
‘मेरे पास तो पैसों की कमी नहीं।’ अन्नपूर्णा शमीक की भौंहों की सिकुड़न को देख चुप हो गई।
‘तो?’
‘तुम इस वक्त तकलीफ़ में हो। मैं अगर तुम्हें रुपए दूं तो लोगे?’
‘नहीं। अब मैं तुमसे एक भी पैसा नहीं ले सकता। एक इन्सान के लिए इन्सान जो करता है, वह तुमने किया। यही बहुत है।’ शमीक ने थोड़ा सा मुस्कराने के बावजूद जोर देकर कहा - ‘खुद पर मेरी आस्था है। और है विश्वास। इस महानगरी मुंबई में खो नही जाऊंगा। बस ये दो-चार दिन ज़रा तकलीफ क़े हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है - कोई बड़ी बात नहीं है।’
रात के पहले पहर में शमीक को नींद से ज़्यादा तो चिंताएं ही सताती रहती हैं। फ़िक़्र पर फिक़्र, हज़ार चिंताएं। एक के बाद एक कड़ियों को पकड़ धीरे - धीरे आगे बढ़ते हुए अंतत: थक कर नींद आ ही जाती है। इस वक्त शमीक ने सोचा, हर महीने घर पर रुपए भेजने के लिए जैसे संक्षेप में सर को ख़त लिख दिया है, ठीक उसी तरह विस्तार से एक ख़त और लिखना चाहिए। लेकिन उस खत में बासंती गांगुली के बारे में इस तरह लिखना संभव नहीं हो पाएगा। इस तरह सर के समक्ष सर के प्रिय मित्र का ही अपमान होगा। एक ग़लतफहमी के चलते वह व्यक्ति उसके प्रति निर्मम हो गया है लेकिन यही सब कुछ नहीं है। अत: उनके परिवार की निंदा कर ख़त लिखना शमीक के लिए स्तरहीन काम होगा। ऐसा करना उचित नहीं होगा। हर तरफ संतुलन बनाए रख कर एक और ख़त लिखना होगा।
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आज शमीक चार कंपनियों में बात करने गया था और हर जगह एक ही जवाब मिला - ‘नहीं, हमारे यहाँ फिलहाल किसी इंजीनियर की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत हुई तो बुलाएंगे। अपना पता छोड़ जाईए। तो क्या पता छोड़ जाए शमीक? बंबई का कौन सा ठिकाना दे, चौपाटी बीच, जुहू बीच, माहिम, दादर, चेंबूर, मेरिन ड्राईव, चर्च गेट, कुर्ला, फुटपाथ या रेलवे स्टेशन का प्लैटफार्म, कौन सा? चुपचाप निकल आता है वह। निकलते वक्त चुभन सी होती है, क्या हुआ पते का? शमीक का गंभीर सा जवाब होता है- ‘’-सारी बंबई ही मेरा निवास स्थान है। कहाँ का पता दूँ?’
नौकरी की तलाश में निकल शमीक ने अपना साहस तनिक भी नहीं खोया। यानी इंजीनियर की नौकरी नहीं मिल रही है तो जो भी मिले वही करने को वह तत्पर नहीं है। इसीलिए इतने अभावों में भी नज़रें ऊँची किए वह अपनी योग्यता अनुसार नौकरी तलाशता फिर रहा है। इसी बीच एक संस्था में शमीक को एक खलासी की नौकरी का प्रस्ताव दिया गया था। उन लोगों ने कहा था कि इस वक्त हमारी कंपनी मे खलासियों की काफी रिक्तियाँ हैं यानी खलासियों की ज़रूरत है। शमीक ने भी मुस्करा कर जवाब दिया था, ‘जिस दिन इंजीनियरों की ज़रूरत हो कृपया सूचित कीजिएगा।’ एक अन्य संस्था के जनरल मैनेजर ने भौंहे सिकोड़ते हुए शमीक को तनिक शक की निगाहों से देखते हुए उसकी बातों को हवा में उड़ाते हुए कहा था, ‘आप कह रहे हैं कि आप महाराष्ट्र इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड में सहायक इंजीनियर थे। सरकारी नौकरी छोड़ हमारे जैसी गैर सरकारी संस्था में कौन आना चाहता है? वहाँ आप नौकरी पर थे तो क्या उन्हीं लोगों ने आपको......इसमें कुछ गड़बड़ और वहाँ से आपको रिलीज किए जाने संबंधी कोई दस्तावेज भी तो.....नहीं जनाब ...... इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते।’
उस दिन एक इंडस्ट्रियल एरिया में सुबह से शाम तक पड़ा रहा शमीक। श्रमिकों-
कर्मचारियों, अफसरों-इंजीनियरों को फैक्टरी में प्रवेश करते और निकलते देख कोराडी सुपर थर्मल का नज़ारा अनायास ही ऑंखों के सामने साकार हो उठा। वह भी तो कभी इसी तरह थर्मल प्रोजेक्ट के गेट से सुबह आठ बजे प्रवेश कर पाँच, छह, सात या साढे सात बजे बाहर निकलता था। शमीक को हल्का सा झटका लगा। नहीं, अतीत के बारे सोचकर कोई फायदा नहीं। जिन दिनों को वह पीछे छोड़ आया है उनकी तरफ मुड़कर देखने से कोई फायदा नहीं। अब सिर्फ सामने की तरफ देखना है। आने वाले दिनों के विषय में ही सोचना है। फिर भी शमीक एक बात सोचे बिना न रह सका। कोराडी सुपर थर्मल के उस कर्मयज्ञ में कम से कम दो सौ कंपनियां विभिन्न कामों और बॉयलर लगाने को काम का ठेका लेकर दिन - रात काम करती हैं। वे महाराष्ट्र बोर्ड के अधीन थे, और उसी बोर्ड में पागलपन की हद तक काम करने वाले इंजीनियर के रूप में उसे सभी जानते और पहचानते हैं। काम की अग्रगति, समस्या आदि मामलों में उन सभी ठेकेदारों के साथ बात-चीत के क्रम में कईयों के साथ दोस्ती हो गई थी। वे सब कहाँ हैं? सभी क्या कोराडी में ही पड़े हुए हैं? कई संस्थाओं का हेड ऑफिस बंबई में था, अत: वे इस शहर में भी तो आ गए होंगे। तो उनमें से किसी के भी साथ उसकी मुलाकात क्यों नहीं हुई?
शमीक एक बात समझता है कि कहीं भी निराशा के लिए कोई जगह नहीं है। असंभव स्वप्न के पीछे दौड़-भाग नहीं, अपनी योग्यता के अनुसार स्वभाविक स्वप्न की ओर तो दौड़ लगानी होगी। हताश हो जाने पर कौन उसे संभालेगा? अत: हर रोज़ निराशा के अंधेरे को परे धकेल आशा की चमचमाती धूप की तरफ बढ़ता जाता है शमीक।
चलते-चलते ही एक दिन एक चमचमाते से साईनबोर्ड पर नज़र पड़ी, ‘वेस्टर्न कन्सट्रक्शन।’ नरीमन प्वांइट के एक बहुमंजिली इमारत के पंद्रहवें माले पर उनका दफ्तर है। पता नहीं क्या सोचकर लिफ्ट में प्रवेश कर गया शमीक। और पंद्रहवे माले पर पहुंच दफ्तर में प्रवेश करने ही लगा था कि एक सुरक्षाकर्मी ने पूछा - ‘किससे मिलना है भाई?’
किससे मिलना है शमीक को? वह तो इस कंस्ट्रक्शन कंपनी में किसी को भी नहीं जानता है तो किसका नाम ले? शमीक ने निस्तेज स्वर में पूछा - ‘इस कंपनी के बड़े साहब कौन हैं?’
‘चड्डा साहब, चीफ इंजीनियर हैं।’
‘मैं उनसे एक बार मिलना चाहता हूँ।’
सुरक्षाकर्मी ने कहा, ‘स्लिप बनाईए और शिवराम कृष्ण को दे दीजिए। अगर चड्डा साहब का मूड ठीक हुआ तो ठीक है वर्ना हो गई छुट्टी। तब तो मुलाकात करनी बहुत मुश्किल हो जाएगी।’
चड्डा साहब के चपरासी शिवरामकृष्ण ने बताया, ‘साहब का दिमाग गर्म है। नासिक में उनकी कंपनी का जो काम चल रहा है, वहाँ काम में कुछ गड़बड़ हो गई है। साहब लोग सारा दिन मीटिंग में वयस्त हैं। ऐसे में ये स्लिप वगैरह भीतर भिजवा कर उसे मरना है क्या?’ शमीक ने और भी विनम्रता से कहा, ‘वे लोग जब तक चाहें मीटिंग करें, मैं यहां बैठ चड्डा साहब का इंतज़ार करता हूँ। आप सिर्फ एक बार....’ शमीक की बात ख़त्म भी नहीं हो पाई। शिवरामकृष्ण बोल उठा, ‘वो देखा जाएगा।’
रात के पौने आठ बजे चड्डा साहब ने अपने चेंबर से निकल जैसे ही लिफ्ट की तरफ कदम बढ़ाए शमीक उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। वह दोपहर से आगंतुकों की जगह पर बैठा था।
उनका अटैची, पानी की बोतल वगैरह संभाले जल्दी-जल्दी चलते हुए शिवरामकृष्ण ने चड्डा साहब से पता नही क्या कहा कि उन्होंने रुक कर शमीक के मुँह की तरफ देखा। आश्चर्यपूर्ण स्वर में पूछा, ‘सुना है तुम दोपहर से मुझसे मिलने के लिए बैठे हो, क्या बात है?’
‘सर, मैं एक नौकरी की उम्मीद में आपके पास दौड़ा आया हूँ।’
‘इसीलिए दोपहर से अब तक......’
‘सर, ज़रूरत जब मुझे है तो फिर इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा।’
‘इतंज़ार करने से ही नौकरी मिल जाएगी ये निश्चयता तुम्हें.........’
‘निश्चितता आपके पास है। मेरी ख्वाहिश थी आपसे एक बार मिलना, वह मैंने किया।’
‘हूँ।’ चड्डा साहब ज़रा गंभीर हो गए। ‘कैसी नौकरी चाहते हो?’
‘मैं महाराष्ट्र इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में असिस्टेंट इंजीनियर था।’
‘था।’
‘जी हाँ।’
‘अब क्यों नहीं हो?’ चड्डा साहब के सवाल तीखे-तीखे थे।
‘’मैंने वह नौकरी छोड़ दी है।’
‘बहुत अच्छे, दूसरी नौकरी मिलने से पहले ही भला कोई पहली नौकरी छोड़ता है?’ चड्डा साहब की बातों में लाग-लपेट नहीं है, जो कहते हैं सीधे-सपाट शब्दों में। इससे सामने वाला संतुष्ट हुआ या असंतुष्ट। यह उसका मामला है। इसे लेकर चड्डा साहब के कोई लेना-देना नहीं है। फिर उन्होंने कहा, ‘इस पर कोई कैसे यकीन कर ले?’
‘चूँकि मैं कह रहा हूँ इसलिए ये विश्वसनीय है, क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता।’ हर बात विनम्रतापूर्वक कहने पर भी शमीक के स्वर में आत्मविश्वास झलक रहा था।
अत: वह बोल उठा, ‘दोपहर दो बजे से रात के प्राय: आठ बजे तक क्या आपके इंतज़ार में इसीलिए था कि कोई भी झूठ बोलकर एक नौकरी पाने की उम्मीद? आप भी इसी पर विश्वास करते हैं सर? यदि करते हैं तो मुझे नौकरी मत दीजिएगा। मत दीजिएगा।’
लिफ्ट में प्रवेश करते हुए चड्डा साहब ने सीधे तनकर कहा, ‘तुम कल ऑफिस में आकर मुझसे मिलो। ठीक ग्यारह बजकर पंद्रह मिनट पर। समय याद रखना।’
‘सर, क्या मैं स्लिप भिजवाऊँ?’
चड्डा साहब ने सहजता से कहा, ‘ज़रूरत नहीं होगी।’
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अगले दिन ग्यारह बजे से ही शमीक ‘वेस्टर्न कन्सट्रक्शन’ के चीफ इंजीनियर चड्डा साहब के कक्ष के बाहर खड़ा था। उसे देख कर शिवरामकृष्ण मुस्करा कर बोला, ‘चिंता की कोई बात नहीं। साहब ठीक ग्यारह बजे आपको बुला लेंगे। और नौकरी लग जाए तो यही समय रखना पड़ेगा। साहब उसी की कद्र क़रते हैं जो समय की कद्र क़रता है।’
ठीक सवा ग्यारह बजे शमीक का बुलावा आया। चीफ इंजीनियर के विशाल और सुसज्जित ए. सी. कक्ष में प्रवेश कर उसने देखा कि चड्डा साहब एक रिवॉल्विंग चेयर पर बैठे हैं। हरे -पीले रंग वाली चेक शर्ट और सफेद पैंट पहन रखी थी। कच्चे- पक्के मिले-जुले क्रू कट के बाल, गोरे रंग और छह फुट कद वाले 52 वर्षीय शख्स ने मुस्कराकर सामने की कुर्सी की तरफ इशारा कर कहा - ‘बैठो।’ कल रात आठ बजे से अब तक उनके कानों में यही बात गूंज रही थी - ‘दोपहर के दो बजे से रात आठ बजे तक आपके इंतज़ार में क्या सिर्फ इसीलिए था कि झूठ बोलकर नौकरी पानी है? सर क्या आप भी यही सोचते हैं? अगर सोचते हैं तो नौकरी मत दीजिएगा। मत दीजिएगा।’ जो यह बात कह सकता है उसकी निष्ठा पर क्या संदेह हो सकता है? चड्डा साहब तो बीते कल ही अभिभूत हो गए थे, आज तो बुलाया है नियुक्ति पत्र देने के लिए। आधे घंटे तक चड्डा साहब ने विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया। घर, पढ़ाई-लिखाई से लेकर महाराष्ट्र विद्युत परिषद में क्या वेतन था, हर विषय पर। और यहाँ भी इंजीनियर की वही नौकरी लौटा कर चड्डा साहब ने मुस्करा कर कहा - ‘मेरे साथ वाले छोटे से कक्ष में मिस्टर सक्सेना हैं। उनके पास चले जाओ। वहाँ एक फार्म भरकर डा. जोशी के चेंबर में जाकर मेडीकल करवा आओ। मैं तब तक तुम्हारा अप्वाइंटमेंट लेटर बनवा कर रखता हूँ।’
चलो शमीक उठो - ‘अब और देर नहीं।’
न्यु बैरकपुर के विज्ञान घोष बगान के निम्न मध्य वर्गीय परिवार का लड़का नौकरी पाकर भी उसे खो चुका था। आज दो महीनों के इस संघर्ष के बाद फिर से सम्मान सहित मनचाही नौकरी पाकर वह अभिभूत है। शमीक का गला रूंध गया था। भरी ऑंखों से चड्डा साहब की तरफ देख किसी तरह कह सका, ‘सर आपने आज.......’ नहीं, और कुछ नहीं कह सका शमीक। उसकी ऑंखों से ऑंसुओं की झड़ी लग गई। चड्डा साहब ने कुर्सी से उठ कर स्नेह से उसकी पीठ सहलाते हुए कहा, ‘डोंट बी इमोशनल, बी प्रैक्टिकल माई बॉय! प्लीज़ गेट अप!’
प्रथम परिचय के दिन से ही शमीक चड्डा साहब के मन के काफ़ी क़रीब पहुँच गया था। फिर समय की कश्ती पर सवार हो और हाँ अच्छी तरह काम की योग्यता का प्रदर्शन कर शमीक इस व्यकित के दिल तक पहुँच गया। चड्डा साहब ने उसे कन्सट्रक्शन के काम से मीठापुर, धाड़ांगाधाराल, लालकुऑं, बड़ोदा, अहमदाबाद, मिर्जापुर, पतरातू, केरल भेजा। बुद्धिमता से काम का प्रोग्राम बना उसी क्रम से आगे बढ़ते हुए उसे वास्तव में रूपायित करने के फलस्वरूप जहाँ समय की बचत हो रही है, वहीं रुपए भी। और चड्डा साहब! देश के विभिन्न प्रांतों में वेस्टर्न कन्सट्रक्शन का काम चलने पर भी वे बंबई के नरीमन प्वांइट के पंद्रहवीं मंज़िल के सुसज्जित वातानूकूलित कमरे की रिवाल्विंग चेयर पर बैठ काम की अग्रगति संबंधी जो चार्ट उनके सामने लटक रहा है उस तरफ देखते हुए गर्व से उनका सीना तन जाता है। तब ख़ामोश मुस्कान उनके होठों पर खेल जाती है। और कभी-कभी अफसोस भी होता है कि शमीक के साथ पहले मुलाक़ात क्यों नहीं हुई। इन ग्यारह-बारह वर्षों में ही वह असाध्य परिश्रम करते चला जा रहा है।
लेकिन शमीक की और योग्यता देखनी बाकी थी चड्डा साहब को। वह भी उन्होंने देखी। शमीक को नए सिरे से जाना उन्होंने। लड़का बहुत जीनियस है। मुश्किल तो यही है कि किसी भी काम का कृतित्व आगे बढ़कर खुद ही लेना नहीं चाहता। उसका यही जवाब होता है, साईट के हम सभी लोगों ने मिलकर यह काम किया है। किसी योजना में अग्रसर होने पर समय और पैसों की बचत के साथ-साथ काम भी ठीक-ठाक हो, यह तो मेरे सर विकास चौधरी ने ही मन में बात डाल दी है। मैं तो सिर्फ़ एक-एक करके चीजें उसी तरह प्रस्तुत कर रहा हूँ। रिमोट कंट्रोल तो उन्हीं सर के हाथों में हैं। आज की पीढ़ी के युवकों में यह विनम्रता और श्रद्धा अभिव्यक्त करने का यह तरीका कल्पना से परे की बात है।
दरअसल काम के मामले में शमीक की कल्पनाशक्ति का चरम रूप चड्डा साहब ने खुद ही देखा। पश्चिम बंगाल विद्युत परिषद के दो सौ दस मेगावाट के चार बॉयलर निर्माण योजना की दूसरी यूनिट बहुत क्षतिग्रस्त हो गई थी। बॉयलर का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है इकोनो माईजर। कॉयेल जैसे दिखने वाले उस पतले पाईप के उस इकोनोमाईजर के भीतर से स्टीम प्रवाहित होती है और वे कॉयेल एक सौ सत्तर, एक सौ अस्सी फुट की ऊँचाई पर जो सबसे ऊँचा गार्डर है उसके साथ वाले हैंगिग गार्डर पर बड़े-बड़े सिलिंग बोल्ट की सहायता से चारों तरफ से और भी सपोर्ट पाकर शून्य में ही लटकते रहते हैं। अब हुआ ये कि आठ सौ, साढ़े आठ सौ टन वजन के इस इकोनोमाईजर के साठ-पैंसठ फुट ऊँचे हैंगिग गार्डर बीच से लगभग डेढ़ फुट तक टेढ़ा हो गया। दरअसल जितना टन सामान ऊपर उठाया गया है उसी अनुपात में सिलिंग बोल्ट को कसे न जाने के कारण हैंगिग गार्डर उतना दवाब सहन नहीं कर सका। परिणामस्वरूप नौका के पेंदे का आकार लेकर पिचक कर क्षति के अंतिम कगार पर पहुँच गया है।
अब उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मिली है ‘वेस्टर्न कन्सट्रक्शन कंपनी’ को। शमीक तब केरल में था। चड्डा साहब ने उसे बंबई बुला भेजा। शमीक लौटते ही उसी दिन शाम की फ्लाइट से चड्डा साहब उसे लेकर कलकत्ते चल दिए। साथ में मिस्टर पुरी तो थे ही।
कलकत्ते से बहुत दूर नहीं है नरघाट थर्मल पावर स्टेशन। अगले दिन सुबह दस बजे तक हावड़ा से लोकल ट्रेन पकड़ तीनों नरघाट सुपर थर्मल पहुँच गए। पश्चिम बंगाल राज्य विद्युत परिषद के महत्वपूर्ण इंजीनियर, अधिकारी प्राथमिक आव-भगत, बात-चीत के बाद उन्हें दो नंबर यूनिट का टेढ़ा हो चुका हैंगिंग गार्डर दिखाने ले गए।
देखने का काम खत्म हो जाने पर चड्डा साहब ने विनम्रता से बोर्ड के अधिकारियों से कहा कि आप अपने-अपने कार्यालय में जाकर बैठें। हम यहाँ और आधा घंटा रुककर हमारी बात-चीत निपटा लेना चाहते हैं। उसके बाद फिर आपसे मिलते हैं।
बोर्ड के अधिकारियों के हंसी-खुशी नीचे उतरते ही चड्डा साहब ने सामने की सुंदर नदी की तरफ न देखते हुए मिस्टर पुरी की तरफ अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए शमीक की तरफ देखा। मानो वे कुछ न जानते हों - सिर्फ़ जानने के लिए ही पूछा, ‘क्यों शमीक, क्या किया जाए इसका?’
‘सर आपसे और पुरी साहब से ज़्यादा मैं क्या जानूंगा भला?’ सम्मानपूर्वक शमीक के सिर झुका लेते ही मिस्टर पुरी और चड्डा साहब ने मुस्कराते हुए एक ही बात कही, ‘इस काम का जिम्मा तुम पर है। हम भी यथानुसार मार्गदर्शन देंगे। सवाल यह है कि तुम क्या सोच रहे हो यह हम ज़रा जान लेना चाहते हैं।’
ज़्यादा सोच-विचार का समय नहीं लिया शमीक ने। दरअसल समस्या को देखते हुए उसके समाधान की योजना भी दिमाग में घूमने लगती है। सर कहा करते थे, दर्जी को माप दे दिया जाए तो दर्जी उस अदृश्य व्यक्ति को भी ऑंखों के सामने देखने लगता है। यह भी वही है। समस्या अगर दिमाग में ठीक से समा न सके तो समाधान के उपाय के तरीके भी उसी फ़िक्र के घेरे में कैद हो जाते हैं। शमीक बोला, ‘ऊपरी गार्डर के ऊपर सुपर स्ट्रक्चर तैयार करके दो सौ टन के पाँच हाइड्रोलिक जैक लगाकर धीरे-धीरे ऊपर उठाकर लोहे के पैड से इकोनोमाईजर को रेस्ट करवा दूंगा। फिर पिचके गार्डर को उतार कर उस जगह नया हैंगिग गार्डर लगा कर इकोनोमाईजर को यथास्थान लटका कर फिर पहले वाली जगह पर लगा देंगे। लेकिन सर जैक लगाकर चढ़ाने का काम एक बार में कभी नहीं हो पाएगा। एक-एक हिस्से से पकड़ कर करना होगा ताकि बराबर संतुलन ठीक रहे।’ थोड़ी देर चुप रहकर शमीक बोला, ‘अब सर आप लोग ही परामर्श दें और किस तरह....’
मिस्टर पुरी ने कहा - ‘चड्डा साहब क्या कहेंगे पता नहीं लेकिन इसके बाद कहने के लिए कुछ नहीं बचता।’
चड्डा साहब ने मुस्कराते हुए कहा, ‘मैं भी क्या कहूंगा। शमीक ने तो मेरी ही बात कह दी। चूँकि उसने पहले कहा है अत: हम उसकी योजना के अनुसार ही काम को आगे बढ़ा सकते हैं।’
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उसके बाद शमीक आगे बढ़ता गया। पीछे की तरफ और मुड़कर नहीं देखना पड़ा। एक गैसकटर, चार वेल्डर, दो फिटर, आठ व्यक्तियों के गैंग और दो सुपवाईजर, दो इंजीनियरों की एक टीम लेकर शमीक नरघाट सुपर थर्मल के इस काम को तीन महीने बारह दिनों में संपन्न कर जब नरीमन प्वांइट के पंद्रहवीं मंज़िल के वेस्टर्न कन्सट्रक्शन के प्रधान कार्यालय में चड्डा साहब से रूबरू हुआ, तो उस व्यक्ति की ऑंखों में स्वीकृति की झलक थी। चड्डा साहब ने खुलकर हँसते हुए कहा, ‘तुम्हारी पदोन्नति हो रही है। तुम डेपुटी चीफ़ बन रहे हो। अब से कार्यालय में ही बैठोगे।’
उधर विगत कई वर्षों से ही माँ बराबर मनुहार करती आ रही थीं, अब और कब शादी करेगा? अब भी क्या तुम सैटल नहीं हो पाए? शादी की बात आते ही शमीक का एक ही बहाना होता, ‘माँ ज़रा सा और सैटल हो लूं।’ अब अंजली ने एक न सुनी। डेपुटी चीफ बन शमीक के घर आते ही उसके हाथ में एक लिफाफा थमा दिया।
शमीक ने हैरान होकर पूछा, ‘यह क्या है माँ?’
नानू, सेवा की हँसी मानो जलतरंग की भाँति गूंज उठी, ‘इस लिफाफे में हमारी भाभी है।’
उस दिन रात भर शमीक सिर्फ़ अभिरूपा की तस्वीर को देखता रहा। नींद आए भी तो कैसे? इतनी खूबसूरत लड़की उसकी पत्नी होगी - इसी कल्पना में रात गुज़र गई। आकाश में पूरब की तरफ हल्की सी लाली है। पक्षियों की चहचहाहट सुन सूरज जग रहा है।
अभिरूपा की तस्वीर को और एक बार देखा शमीक ने। इस सुंदर सलोनी सी लड़की को पत्नी के रूप में प्राप्त करने के बाद बंबई के उसके सुसज्जित फ्लैट में ले जाकर उसे भी सजा कर रखना होगा। उस मोम सी लावण्यमयी युवती को शमीक सिर्फ़ प्यार करेगा, सिर्फ़ प्यार!
और ठीक तभी शमीक की ऑंखों के सामने नागपुर का दृश्य घूम गया। उस दिन रात को भी बासंती गांगुली ने भी उसे प्यार करना चाहा था। उस चाहत की प्रवल ज्वाला में जलकर वे शमीक पर टूट ही पड़ी थीं। ठीक समय पर ही अरुण गांगुली आ पहुँचे थे। शमीक ने राहत की साँस ली थी। लेकिन......लेकिन... गुस्से में पागल होकर अरुण गांगुली ने उसे ही मारना शुरू कर दिया। अच्छा इतने दिनों बाद यह पुराना अध्याय फिर क्यों याद हो आया? उस दिन आहत, खून से सने शरीर को लिए कैसे नागपुर पहुँचा था यह तो शमीक ही जानता है। पौ फटती सुबह के प्रकाश में देखा कि एक ट्रेन खड़ी है। बंबई जाने वाली वह गाड़ी सुबह की रौशनी से सराबोर दौड़ रही थी। दौड़ रही थी उसकी किस्मत को लिए। कितने दिन.... बहुत दिन पहले की बात है। ग्यारह-बारह साल तो हो गए होंगे। इतने सालों की इतनी सुबहों में शमीक नागपुर की उस सुबह को कभी नहीं भूल पाएगा।
आज फिर एक सुबह हुई। अभिरूपा को पसंद करने की सुबह। बेवजह शर्म या संकोच जैसी कोई बात नहीं। माँ को वह अभी ही बता देगा, अभिरूपा नाम की इस गुड़िया सी युवती को तुमने कहाँ से ढूँढ निकाला। आज ही बता आओ, उसके सिवा मैं और किसी से शादी नहीं करूंगा। शमीक फिर से अभिरूपा की तस्वीर को देखने लगा।
अभिरूपा के चेहरे की तरफ एक टक देखता रहा शमीक। आज भी आकाश में पूरब की लाली छाने को व्यग्र है। उस दिन और आज के दिन में कितना अंतर है? उस दिन जिसके हाथों पिट कर चला आया था, आज वह व्यक्ति चिर निद्रा में सो रहा है। शमीक ने धीरे-धीरे अरुण गांगुली के चेहरे की तरफ देखा। ख़ामोश पीड़ा का दस्तावेज था मानो वह चेहरा। शमीक ज़्यादा देर तक और नहीं देख पाया। भीतर से बार-बार रुलाई फूट रही थी। दरअसल शमीक बहुत ही कृतज्ञ है। एक दिन की कोई घटना किसी व्यक्ति का सही परिचय नहीं हो सकती - इस बात को उसके सिवा कौन समझ सकता है?
उम्मीद के मुताबिक ही बासंती उसी समयानुसार बंबई के खार के फोर्टिंथ एवेन्यु के फ्लैट पर पहुँचीं। बदन पर सफेद साड़ी और सफेद ब्लाउज था। शिथिल कदमों से पलंग की तरफ बढ़ते हुए मानो पाँव जम से गए। कौन कहेगा अरुण नहीं रहे। मानो सो रहे हों। ज़रा सा पुकारने पर ही उठ बैठेंगे। बासंती विभोर होकर अरुण का चेहरा देखने लगीं। पता नहीं कौन उसके कानों में शांत स्वर में कह रहा था – ‘माफ कीजिएगा, आपके पास कोई स्पेयर टिकट होगा?’ उसके साथ अरुण का यही पहला वार्तालाप था।
टकटकी बाँधे काफ़ी देर तक देखते रहने के बाद बासंती मानो काँपने लगीं। उनके भीतर की उठा-पटक उसके चेहरे पर भी स्पष्ट झलक रही थी। वे कैसे रुलाई को रोक रही थीं, यह उन्हें देखे बिना नहीं समझा जा सकता था। थोड़ा रो लेने पर मन का बोझ ज़रा हल्का हो जाता। बासंती ने एक बूंद भी ऑंसू नहीं बहाया। अभिमान की पराकाष्ठा पर पहुँच उन्होंने खुद के शोक-ताप से परे करने की कोशिश की। सबकी नज़रों से बचा लेने के बावजूद शमीक से खुद को छुपाए रखना इतना आसान नहीं। एक व्यक्ति कितना असहाय और दिग्भ्रमित हो सकता यही शमीक ने ख़ामोशी से महसूस किया।
अरुण के माथे पर बार-बार एक मक्खी बैठ रही थी। हाथ बढ़ाकर बासंती ने फिर खींच लिया। अरुण का स्वर अभी भी मानो गूंज रहा था, ‘तुम मुझे अब कभी मत छूना, कभी नहीं।’ बासंती कैसे उन्हें स्पर्श करे? एक व्यक्ति का बार-बार अपमान नहीं किया जा सकता। अरुण को सिर्फ़ और एक व्यक्ति ही स्पर्श कर सकता है। बासंती ने शमीक की तरफ देख धीरे-धीरे कहा, ‘मैं चाहती हूँ कि उनका अंतिम कार्य तुम ही करो। मेरी तो अब यहाँ रुकने की ज़रूरत नहीं, तो मैं चलूं...’
‘आप चली जाएंगी?’
‘रुक कर क्या करूंगी? सारे रिश्ते तो ख़त्म हो गए।’
‘फिर भी शमशान तक तो चलिए?’
‘क्यों ज़ोर डाल रहे हो? कोई ज़रूरत नहीं है।’ और बात न बढ़ाकर बासंती सीधे लिफ्ट की तरफ बढ़ गईं।
हैरानी का खुमार ख़त्म होने में पाँच मिनट लगे। अभिरूपा ने पति की ऑंखों में ऑंखें डाल हताश स्वर में कहा, ‘बासंती देवी के बारे में धारणा ही बदल गई। भद्रमहिला अभी भी बहुत मूडी हैं। मायामोह ने बहुत पहले ही उन्हें त्याग दिया है।’
शमीक ने कुछ नहीं कहा। गंभीर स्वर में कहा, ‘प्यार मर जाता है पता नहीं था। आज यह भी पता चल गया।’
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अगले दिन बंबई के हर मराठी और अंग्रेजी अख़बार में ख़बर छपी।
पिछले दिन शमशान का काम निपटा लौटने में देर हो गई थी। इसलिए शमीक ज़रा देर से ही जगा। हर दिन की तरह चाय पीते-पीते अख़बार पढ़ते हुए शमीक की ऑंखें पथरा गईं। जो ख़बर वह पढ़ रहा था, वह थी - ‘कल जुहू बीच पर लगभग इकसठ वर्षीया एक अज्ञात महिला का शव तैरता मिला। उसके बदन पर सफेद पोशाक थी। पुलिस इसे आत्महत्या मान रही है।’
पथराई निगाहों से शमीक ख़बर की तरफ देखता ही रहा।
समाप्त
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बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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