(प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
एक साल कैसे गुज़र गया किसी को भी पता नहीं चला। इस एक साल में ही बरेली सिविल लाइन्स के चटर्जी परिवार के महीतोष, अलकनंदा और उमाप्रसाद तीनों इस दृढ़ निश्चय पर पहुंचे कि इस उम्र के लड़कों जैसी चंचलता और व्यग्रता अरुण में नहीं है। पूर्ण विश्वास से वह इस परिवार से जुड़ गया है। बासंती के चेहरे की रौनक हमेशा बरकरार रहेगी - इस प्राप्ति पर वे खुश हैं। अरुण जैसे लड़के कहाँ होते हैं। उसकी विवेचन शक्ति ही अलग है। परिवार के सम्मान के प्रति वह काफ़ी सजग है.। उसकी हर बात में इस विश्वास की झलक मिलती है। इससे ज़्यादा उन्हें क्या चाहिए।
अक्तूबर महीने का दूसरा सप्ताह है। बीते कल दुर्गापूजा खत्म हुई है। आज विजयदशमी यानी दशहरा है। गोमती नदी में प्रतिमा विसर्जन देखने का अपना ही मज़ा है। बासंती ने पहले से ही अरुण से कह रखा है, इस दिन शाम के बाद कोई कार्यक्रम न रखे। मैं आकर तुम्हें विजयघाट ले चलूंगी। वहाँ से प्रतिमा विसर्जन का बड़ा शानदार नज़ारा दिखता है।
काफी पहले शाम गहरा गई है। बासंती अभी तक नहीं पहुंची। होटल बरेली क्लब के अपने कमरे में चुपचाप लेटा हुआ है अरुण। बेमन से एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। पढ़ने की इच्छा नहीं है, यह उसे बार-बार दरवाजे की तरफ देखते देख ही समझा जा सकता है। दरअसल वह बासंती के इंतज़ार में घड़ियां गिन रहा है। मज़े की बात है कि बासंती से रोज मिलने के बावजूद उसके मन का एक कोना शिकायत सी करता रहता है। प्रिय से इतने कम समय के मिलन का मतलब ही है खुद को वंचित करना। अरुण ने कुछ और ही समझा। बासंती का आना तो निश्चित है - आज सारी रात उसके साथ बातें की जाएं तो कैसा रहे। लेकिन सोच और वास्तविकता में तो बहुत अंतर है। ऐसा भला हो सकता है? इसके सिवा और कुछ सोच नहीं पाया अरुण। उसके कमरे में घने हरे जंगल की हरियाली पसर आई. सिर्फ़ हरियाली और हरियाली. बारिश में नहा चुकी प्रकृति का वह रूप मानो बासंती के समक्ष पराजित हो गया हो। उसने गहरे हरे रंग की साड़ी पहन रखी थी। केले के पत्तों जैसे हल्के हरे रंग का ब्लाउज। दोनों पतली भौंहों के बीचो-बीच हरे रंग की बड़ी सी बिंदी। उसकी छाया में मानों बासंती के दोनों गाल भी हरे हो उठे हों। सबसे बड़ी बात ये कि बासंती के नाक के लौंग में जड़ा नगीना भी हरे रंग का था। अन्य दिनों वह सफेद नगीने वाला लौंग पहनती है। सिर्फ़ लौंग? बासंती के कान के टॉप्स में भी हरी आभा है। दोनों बाँहों में कम से कम चौदह-पंद्रह चूड़ियां पहन रखी हैं।
बासंती कमरे के बीचो-बीच थी। उसके पूरे शरीर से मानो हरी रौशनी निकल रही हो। इस रौशनी से ऑंखें चौंधियाती नहीं बल्कि ऑंखों में सपनों का काजल लगा देती है। पत्रिका को एक किनारे फेंक बिस्तर पर उठ बैठा अरुण। बासंती की ऑंखों की तरफ देखता रहा।
ख़ामोशी भी बहुत कुछ कह जाती है। ये पल भी उसी खामोशी के पल हैं। बासंती की दोनों ऑंखों में मदहोशी का ख़ुमार सा छाया हुआ है। अरुण को इस तरह मुग्ध दृष्टि से देखते उसने पहले कभी नहीं देखा लेकिन आवाज़ के शोर से इस खामोशी को भंग करने को जी नहीं चाहा।
बिस्तर छोड़ धीरे-धीरे उतर आया अरुण। बासंती के सामने खड़े होकर सिर्फ़ जानना चाहा, ‘क्या वन की भी कोई देवी है? ’
‘मैं ही वह देवी हूँ।’
‘तुम !’
‘मैं ही हूँ।’
‘इतनी हरितिमा तुम्हें कहाँ मिली ?’
‘मैंने ही सृष्टि की है।’
‘तुमने !’
‘हाँ, मैंने ही। और क्या सुनना चाहते हो बोलो?’ बासंती ने अपने दोनों कोमल हाथ अरुण के चौड़े कंधों पर फैला दिए। बासंती के उस कोमल स्पर्श में अरुण थोड़ा-थोड़ा मानों बहने लगा। समंदर के हरे पानी में मानों वह अभी ही डूब जाएगा। बचाव के लिए तिनके के सहारे की भाँति अरुण ने बासंती की कमर को पकड़ होंठ, गले एवं सीने पर निश्चिंतता से अपना मुँह रख मुक्ति की गहरी सांसे लेने लगा।
अभी रात के लगभग आठ बज रहे होंगे। वे लोग गोमति नदी में प्रतिमा विसर्जन देखने नहीं गए। दोनों स्निग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देख रहे थे। हरे-भरे वन में तूफान उठ आया था। बासंती की बाँहों की चूड़ियों में से एक भी साबुत नहीं बची। हरी बिंदिया सारे माथे पर फैल गई थी।
बासंती ने फुसफुसा कर कहा, ‘आज हमने यह क्या किया अरुण !’
‘तुम डर रही हो ?’
‘दीदी का चेहरा बार-बार याद आ रहा है।’
‘छी। तुम्हें मुझ पर इतना ही विश्वास है? बासंती, मेरे जीवन में यह मैंने पहली बार किसी लड़की को स्पर्श किया है, इन हाथों से दुबारा और किसी को नहीं छुऊँगा। मैं आवेग में बात नहीं कर रहा। भविष्य ही प्रमाण देगा।’
‘तुम्हारी बातें कितनी अच्छी हैं।’
‘ज़िंदगी भर अच्छा बनकर ही तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ।’
कोई जवाब नहीं सूझा बासंती को। कितनी सहजता से, कितनी अच्छी तरह से बातें करता है अरुण।
उस रात बासंती को उसके घर पहुँचाकर होटल बरेली क्लब लौटकर अरुण पिता को ख़त लिखने बैठा। ख़त का वक्तव्य यही है कि बासंती को छोड़ वह किसी और से शादी नहीं करेगा। अत: पिता की राय और आशीष दोनों ही वांछित हैं। बीच के कुछ दिन ख़ामोशी से कटे लेकिन पिता का जवाब उच्छवास भरा ही आया। उन्होंने बेटे की रज़मंदी में ही अपनी रज़मंदी जता आशीर्वाद भेज दिया था। साथ ही एक शर्त भी रख दी थी। शादी के एक हफ्ते के भीतर पुत्रवधु को दिखाना होगा। बार-बार ख़त को पढ़ा अरुण ने। उसकी ऑंखें खुशी के ऑंसुओं को बाँधे न रख सकीं। लेकिन बासंती को कैसे सूचित किया जाए। वह लखनऊ गई है अपनी ननिहाल। मंगलवार लौटेगी, यानी अभी भी आठ दिन बाकी हैं। असंभव ! इतनी बड़ी खुशखबरी को दिल में दबाए कम से कम आठ दिन तो नहीं गुज़ारे जा सकते। लखनऊ पहुँचने तक दो-चार घंटे ख़ामोश रहा जा सकता है। उससे ऊपर एक मिनट भी नहीं।
नहीं, लखनऊ जाना संभव नहीं हो पाया। एक दिन के लिए भी छुट्टी नहीं मिली। सिर्फ़ काम और काम? काम से अरुण को भी लगाव है। लेकिन इस तरह? अपनी खुशी के क्षणों में चाहते हुए भी एक छुट्टी न ले सके। जो नौकरी करते हैं उनकी दु;ख-तकलीफों को उच्चाधिकारी समझना नहीं चाहते। वे सिर्फ़ मौत के समाचार या गंभीर बीमारी का समाचार आने पर ही छुट्टी मंजूर कर सकते हैं। पावरहाउस की नौकरी करनी ही नहीं चाहिए थी। यहाँ रोज ही एमरजेंसी रहती है। और मन में अगर तनिक भी खुशी न हो तो क्या मशीन की भाँति मुँह बंद किए काम करना संभव है? पहले अरुण कर लेता था, अब नहीं होता। और बासंती भी वैसी ही है। ननिहाल जाने का और वक्त नहीं मिला। दुनिया में मानो उसी अकेली की ही ननिहाल है।
लखनऊ में बासंती के मंगलवार तक रहने की बात थी। वह उससे दो दिन पहले ही बरेली लौट आई थी। दरअसल उसका भी वहाँ मन नहीं लग रहा था। विजयादशमी के बाद ननिहाल जाना पड़ता है, इसलिए गई थी - अरुण के बगैर रहने की तकलीफ भी भली-भाँति समझ गई है। बासंती को एक बात समझ नहीं आई, इसके बाद अगर उसके बगैर रहने की बात आए तो वह क्या करेगी?
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ट्रेन एक घंटे से भी ज़्यादा लेट थी। लखनऊ स्टेशन पर सोचने के बाद बासंती ने पल भर भी इंतज़ार नहीं किया। सीधे बस डिपो जाकर बरेली की बस पकड़ ली। झाँसी चौंक पर उतर कर एक टैक्सी ले सीधे होटल बरेली क्लब जाए या पावर हाउस यह तय करने में ज़रा सा समय लगा। शाम के चार बज गए थे। रविवार को साधरणत: इस वक्त अरुण पावर हाउस में नहीं होता। उससे पहले ही होटल लौट आता है। अत: बासंती ने ड्राईवर को होटल चलने का निर्देश दिया।
थोड़ी देर पहले अरुण पावर हाउस से लौटा है। सिर्फ़ जूते और मोजे खोले हैं, कपड़े नहीं बदले। इसी हाल में बिस्तर पर लेट गया।
कमरे में प्रवेश कर बासंती ने उसे एक नज़र देखा। अरुण शायद सो रहा है। सूटकेस को धीरे से फ़र्श पर रख धीरे-धीरे अरुण की तरफ बढ़ी। इन दस दिनों तक उससे दूर रहकर बासंती अब खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाई। वह उसके शरीर पर लपक ही पड़ी। खुशी से ऑंखे खोल अरुण ने जैसे ही देखा,बासंती सुखद अनुभूति से रो ही पड़ी। तुम्हें एक दिन के लिए भी छोड़ कर नहीं जा पाउंगी, बिलकुल नहीं। इन कुछ दिनों में बहुत तकलीफ़ हुई है अरुण। बहुत...
रुलाई भी छूत की तरह होती है। ममतापूर्वक बासंती के ऑंसू पोंछते हुए अरुण की ऑंखें भी डबडबा आईं। उसने खुद पर यथासंभव नियंत्रण रख भारी आवाज़ में कहा, ‘जानती हो मैंने तुम्हारे पास लखनऊ जाने के लिए एक दिन की छुट्टी माँगी थी। जब नहीं मिली तो सोचने लगा कि लोगों की ननिहाल क्यों होता है?’
‘बातूनी लड़के !’ बासंती की हँसी सारे कमरे में फैल गई।
तकिए के नीचे से पिता का ख़त निकाल कर अरुण ने बासंती के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘इसे पढ़ो।’
‘किसका ख़त है?’
‘अरे पढ़ो न...’
बासंती को पढ़ने में शायद पाँच मिनट का समय लगा। अरुण की पैनी निगाहें उसके चेहरे पर टिकी थीं। दरअसल बासंती के चेहरे पर खुशी के जो चिहन् आ रहे थे उन्हें अरुण अपने मन के पिटारे में कैद रखना चाहता था ताकि एकांत में कभी उनमें झांक सके।
इंसान शायद ज़्यादा खुश होने पर ही ज़्यादा रोता है। ख़त पढ़कर बासंती की रुलाई के फूट पड़ते ही अरुण ने उसे सीने से लगा लिया, ‘तुम सिर्फ़ मेरी हो। सिर्फ़ मेरी।’
बासंती ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। नन्ही बच्ची की भाँति थोड़ी देर पुचकारे जाने के बाद बोली - ‘पिताजी से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही है।’
‘और यह काम जल्दी होना चाहिए। तुम्हारी फाईनल परीक्षा कब है?’
‘अभी तीन महीने बाकी हैं।’
‘इन तीन महीनों बाद ही घर पर अनुष्ठान की तैयारी के लिए कह दो।’ बासंती की नाक से छेड़-छाड़ करते हुए अरुण ने हँस कर कहा - ‘समझी कुछ?’
‘समझ गई शादी काफ़ी विषम चीज़ हैं।’ बासंती की हंसी में संगीत सी खनक थी और उसी वक्त अरुण की नज़र पड़ी कमरे के बीचो-बीच पड़े सूटकेस पर। तुरंत पूछा - ‘वह किसका है?’
‘तुम क्या अभी ही चली आई हो?’ अरुण ने ज़रा उसे चिढ़ाने की कोशिश की।
‘मैं इतनी बेशर्म नहीं हूँ।’ बासंती उसके चक्कर में नहीं आई। ग़ज़ब की हंसी हंसते हुए जवाब दिया - ‘देखो, तीन महीने से पहले मैं अब कभी भी तुम्हारे पास नहीं आऊँगी।’ थोड़ी देर बाद फिर बोली - ‘अभी तक घर नहीं गई, लखनऊ से सीधे तुम्हारे पास आई हूँ।’
बेहद कृतज्ञता से अरुण पहले तो कुछ नहीं बोल पाया।
अरुण चुपचाप उसके पाँव सहलाने लगा।
‘क्या कर रहे हो? पाँवों को कोई हाथ लगाता है भला? ’
‘क्यों पाँव तुम्हारे शरीर के अंग नहीं है - मैं उतना सोच-विचार नहीं करता। तुम्हारा सब कुछ मुझे प्रिय है।’
‘अच्छा?’ बासंती की भौंहें एक अनजान रहस्य से काँप उठी। कमर तक फैले उसके घने-लंबे बालों में अपना मुँह छुपाकर अरुण ने सिर्फ़ कहा -‘तुम इन पंद्रह दिनों में बहुत शरीर हो गई हो।’
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घर वालों को एक दिन पता चल ही गया। फाईनल परीक्षा तब सिर पर थी। रात-रात भर जग कर पढ़ाई करनी पड़ रही थी। अलकनंदा हर दिन उसके कमरे के टेबल पर खाना रख जाती। उस दिन अलकनंदा को हिलने तक का समय नहीं मिला। उनके सामने ही बासंती ने कै कर दी। रात भर जग कर पढ़ाई करने के कारण ही ऐसा हुआ है। अलकनंदा ने स्वभाविक तौर पर ही फ़िक्र की लेकिन उसके बाद बेटी की तरफ देख माँ का मन शंकित हो उठा। वे सदा से शांत स्वभाव की महिला थीं। बहुत ज़्यादा शोर-गुल वे कभी नहीं कर पाती थीं। फिर भी कहा, ‘ये क्या किया?’ प्रश्न सुनकर बासंती ज़रा भी नहीं घबराई और डर की कोई बात भी तो नहीं। परीक्षा के बाद ही तो अरुण से उसकी शादी होने वाली है।
फ़िक्र और डर से अलकनंदा तब तक बेचैन हो उठी थीं। बासंती का भविष्य क्या हो सकता है एक साथ हज़ारों काली तस्वीरें मानों पैशाचिक नृत्य कर उठी हों। उन तस्वीरों को देखते-देखते अलकनंदा की दोनों ऑंखों की रोशनी मानों क्रमश: ख़त्म हो गई हो। पहली बार अलकनंदा ने बेटी के साथ ऊँची आवाज़ में बात की। हाँ, बासंती ने भी माँ के साथ तर्क शुरू कर दिए।
घर के अन्य दो व्यक्तियों की नींद टूट गई थी। माँ और बेटी की तेज-तर्रार बातचीत दरवाज़े के बाहर खड़े सुन पा रहे थे। असहाय नज़रों से उमा प्रसाद और महीतोष दोनों एक - दूसरे का मुँह देख रहे थे।
बासंती के छोड़ बाकी तीनों ज़रूरी मीटिंग में थे। यद्यपि वे काफी निश्चिंत थे फिर भी सब कुछ ठीक-ठाक न हो जाने तक चैन कहाँ। अरूण पहले ही शादी की बात कह चुका है। बासंती की परीक्षा के बाद की दो-तीन तारीखें हैं। पहली ही तारीख को उनकी शादी निपटा देनी होगी। तब तक चुप रहना ही उचित होगा।..............
बासंती ने परीक्षा ख़ामोशी से दी। दरअसल परिवार के अन्य तीन सदस्यों को उसकी परीक्षा के विषय में कोई उत्साह ही नहीं है। शादी को लेकर ही वे चिंतित हैं। ज़्यादा समय भी नहीं है। इसी दैरान सारे काम निपटाने होंगे। शादी हो जाने के बाद तीनों तीर्थ पर जाएंगे। मन पर इतना दबाव लेकर और कितना सहा जा सकता है।
अंतत: वही मानसिक दबाव फिर आ पड़ा। शादी से दो दिन पूर्व अरुण पागलों की भाँति बासंती के घर आया तो उसे देख बासंती आगे बढी। उसके सूखे मुंह को देख पूछा - ‘क्या हुआ है तुम्हें?’
अरुण ने उसके हाथों में टेलिग्राम देते हुए कहा - ‘पिता मृत्यु शय्या पर हैं। मुझे आज ही जाना होगा।’ बासंती के सीने में तनिक भी कंपन नहीं हुई। उसने स्वभाविक स्वर में ही कहा - ‘शादी के मुहुर्त तो बाद में भी बहुत मिलेंगें, तुम पिताजी को देख आओ।’
‘नहीं, अरुण नहीं जाएगा। उमाप्रसाद ने गंभीर स्वर में कहा।
अरुण ने सजल ऑंखों से उमा प्रसाद की तरफ देखा। विनीत स्वर में कहा - ‘आप समझ नहीं रहे हैं, आज न जाने पर शायद पिताजी को......’
विपदा में मनुष्य शायद ऐसा ही निष्ठुर बन जाता है। इसी बीच उमा प्रसाद को तूफान के आगमन का अहसास हो गया। अत: उन्हें कठोर बनना ही होगा। उन्होंने कहा - ‘तुम किसी के दर्शन कर पाए या नहीं कर पाए, यह देखना मेरा काम नहीं। बासंती से शादी किए बगैर तुम यहाँ से एक कदम भी नहीं हिल सकते।’
‘आप मुझ पर अविश्वास कर रहे हैं। अपमान से अरुण का चेहरा स्याह पड़ गया। शंका-अविश्वास आप ही कर ही सकते हैं परंतु शक का जहर आप ग़लत जगह उड़ेल रहे हैं। मैं फिर कहता हूँ’ - अरुण का गला रूंध सा गया - ‘मेरे बारे में आप जैसा सोच रहे हैं, मैं वैसा नहीं हूँ। इस तरह मेरी बेइज्जती मत करें। बासंती से शादी न करने का तो सवाल ही नहीं है। वह मेरी ज़िंदगी में सब कुछ है - लेकिन ऐसी स्थिति में पिताजी के पास नहीं गया तो ........’
‘तो किस बात का सवाल है?’ अरुण के स्वर में विनीत भाव नहीं था लेकिन उसकी बात को किसी ने महत्व नहीं दिया। अपमान की ज्वाला से वह भीतर ही भीतर सुलग रहा था। असहायता की स्थिति में ख़ामोश रहने के सिवा और कर ही क्या सकता था? अरुण ने काफी ज़ोर देकर कहा - ‘मेरा इरादा ग़लत होता तो मैं आप लोगों के पास दौड़ा क्यों आता? क्यों ?’
उमा प्रसाद ने कहा - ‘सारा काम तुमने विश्वासयोग्य करके.................. ’
‘अब आप विश्वास शब्द का उच्चारण न करें।’ अरुण ने उत्तेजित होकर काँपते हुए कहा - ‘आप जब मुझ पर विश्वास नहीं कर सके तो यह शब्द आपकी ज़बान पर शोभा नहीं देता।’ बात ख़त्म करते ही वह बासंती की ओर बढ़ा। धीमे शांत स्वर में कहा - ‘पिताजी से शायद यह अंतिम मुलाकात हो। क्या तुम भी जाने नहीं दोगी?’
बासंती की ऑंखें तब नम हो गईं। होंठ काँप रहे थे। वह कुछ कहने ही वाली थी कि उससे पहले ही उमा प्रसाद उसे दूसरे कमरे में खींच ले गए। पूरे आधे घंटे बाद जब बासंती अरु ण के पास दुबारा लौट कर आई तो वह बिलकुल भिन्न थी। बासंती ने स्पष्ट शब्दों में कहा - ‘शादी हो जाए, उसके बाद ही तुम जाना।’
‘लौटने के बाद शादी नहीं हो सकती क्या ?’
‘नहीं।’ बासंती मानो पत्थर की मूरत हो।
एक नई दृष्टि से अरुण बासंती की तरफ देखता रहा। बासंती ज़्यादा देर तक उन नज़रों का सामना न कर, सकी, नज़रें हटा लीं। अरुण ने सिर्फ ऌचना ही कहा - ‘यही तुम्हारा मर्यादाबोध है?’
एक इन्सान पर कितना अविश्वास और उसे कितना नीचा दिखाया जा सकता है - बासंती के परिवारवालों ने भी वही किया। अरुण ने एक टेलिग्राम करने के लिए बाहर जाना चाहा तो एक अपरिचित अधेड़ से व्यक्ति ने साफ-साफ क़ह दिया कि ‘जो भी काम हो, हमें कहें।’ यानी अरुण को बंदी बना लिया गया था। पिता के लिए चिंतित तो था ही तिस पर ऐसा मानसिक आघात वह सहन नहीं कर पाया। एक शिशु की भाँति अरुण के मन में बासंती के प्रति अभिमान सा जाग उठा। वह बासंती के पास दौड़ा। ‘क्या तुम लोगों ने मेरे साथ यह ठीक किया? अब भी वक्त है जाकर पिताजी को देखकर आ सकता हूँ। तुम मुझे इजाज़त दो।’
तोते की तरह बासंती ने रटा-रटाया एक ही जवाब दिया - ‘शादी किए बगैर तुम नहीं जा सकते।’
अरुण सारी रात सो नहीं सका। एक असह्य पीड़ा से वह भी क्रमश: ज़िद्दी होता गया। आगामी कल उसकी शादी है लेकिन शादी के नाम पर होगा सिर्फ एक आयोजन - जहाँ विश्वास की मौत हो गई हो वहाँ प्यार किसी कीमत पर भी ज़िंदा नहीं रह सकता।
इन्सान कितना बेरहम हो सकता है - अरुण एक-एक कर हर चीज़ पर ग़ौर कर रहा था। पहले तय हुआ था कि शादी का अनुष्ठान ख़त्म होते ही वह पिता को देखने जाएगा। अब कहा जा रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है? सुहागरात के बगैर क्या शादी पूर्ण होती है भला? इसके अतिरिक्त और भी कई रस्में हैं। शादी बच्चों का खेल तो है नहीं। अरुण सोच नहीं पाया कि, ये कैसे लोग हैं? एक बूढ़ा व्यक्ति मृत्यु शय्या पर पड़ा बेटे से मिलने की उम्मीद लिए तड़प रहा है और ये लोग उस बेटे को नियमों की बेड़ियों में जकड़ आनंद में मग्न हैं। इन लोगों से उसे और कोई उम्मीद भी नहीं है? अरुण ने लाचार होकर खुद को खुद के हाल पर छोड़ दिया। जो समय बर्बाद होना था, वह तो हो ही गया था। इस घर के लोग अब चाहें जो करे.......
टेलिग्राम मिलने के छह दिन बाद जब अरुण कोलकाता के जादबपुर में अपने घर पहुँचा तो सब कुछ ख़त्म हो गया था। अपना कहने के लिए अरुण का कोई नहीं रह गया था। दूर के कुछ रिश्तेदार थे। हाँ, वे ज़रूर अपनों से कम नहीं थे। अरुण को देख सुधेन्दु मामा धीरे-धीरे आगे बढ़े। उसे सीने से लगा भर्राए स्वर में कहा - ‘बहुत देर कर दी रे। तीन दिन पहले भी आ जाते तो एक बार पिता को देख लेते। इतनी देर क्यों हो गई रे?’
सुधेन्दु मामा के सीने में मुँह छुपाए पड़ा रहा अरुण। टेलिग्राम मिलते ही अगले दिन ही तो वह पहुँच सकता था। क्यों देर हो गई, क्या जवाब दे उसका? उसके जीवन का सबसे अंधकापूर्ण समय तो यही है।
सुधेन्दु मामा ने कहा - ‘मृत्यु से तुम्हारे पिता को भय नहीं था - उन्हें समय की फिक़्र लगी रहती थी। उनका शक सही निकला। हर पल यही पूछते रहे - अरुण आया क्या? आए तो लेकिन.....’
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बरेली सिविल लाइन्स के उस मकान में तब भी रौनक थी। बासंती की शादी पर जो रिश्तेदार आए थे, अंतिम परिणति देखे बगैर कोई भी वहाँ से हिला नहीं। अरुण कलकत्ते गया था, उसके लौटने के कौतुहलवश सभी रुक गए थे। कई लोग कई तरह की बातें कर रहे थे। विवाह का बंधन ही क्या सब कुछ है? अरुण का यदि पलायन का मन होगा तो वह भाग ही जाएगा। पिता की बीमारी सिर्फ बहाना है। अब वह नहीं लौटने वाला। किसी ने कहा - ‘जो भी हो, एक बार शादी जब हो गई तो जाएगा कहाँ ? यहाँ न भी आए तो भी वह ठीक ही पकड़ में आ जाएगा।’
अरुण को पकड़ने के लिए किसी को जाना नही पड़ा। वह खुद ही बरेली लौट आया। उसे देख कर सब ने चैन की साँस ली, बासंती खुद को अपराधी समझ रही थी। उसके नंगे पाँव, हाथ में आसन और तन पर सफेद वस्त्र देख बासंती धीरे-धीरे फर्श पर ही बैठ गई। खड़े होने की सामर्थ्य उसमें नहीं थी। मन की शक्ति तो बहुत पहले ही ख़त्म हो चुकी थी।
यह घर अब अरुण के लिए एक दु:स्वप्न है। यहाँ से चले जाने के बाद क्या रिश्ता रह जाएगा। अत: बात बढ़ाने से क्या फायदा? दोषारोपण? वह भी अरुण किसी पर नहीं करेगा। क्या फायदा? पिता को खोने का दर्द गहराई में उतर कर धीरे-धीरे जम कर पत्थर बन गया। जब उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया, तनिक भी सहानुभूति नहीं दर्शाई, तब खद ही खुद पर काबू पाना होगा। अरुण चुपचाप बासंती के सामने जा खड़ा हुआ। उससे अब बात तक करने में नफरत हो रही थी। हाँ, नफरत ही तो। किंतु कोई चारा भी तो नहीं था। बासंती उसकी पत्नी है। उसे रोक कर कितनी शान-शौकत से विवाह का अनुष्ठान किया गया - इसके बाद उसे कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? गंभीर स्वर में अरुण ने सिर्फ इतना ही कहा - ‘चलो। छलछलाती ऑंखों से बासंती ने जैसे ही अरुण की तरफ देखा, अरुण ने दुबारा कहा - इसी वक्त।’
बासंती को लेकर अरुण जब निकल रहा था, अलकनंदा, महीतोष और उमाप्रसाद तीनों में से कोई भी न कह सका कि तुम लोग मत जाओ। वह हिम्मत तीनों पता नहीं कहाँ गंवा बैठे थे। विस्मय की खुमारी छंट जाने के बाद सिर्फ यही महसूस किया कि घर लोगों से भरा होते हुए भी कैसा खालीपन सा महसूस हो रहा है।
सिविल लाइन्स के घर से बरेली क्लब होटल आए बासंती को पूरे चौबीस घंटे हो गए हैं। इस दौरान अरुण ने उससे एक बार भी बात नही की। बासंती से यह सहन नहीं हो रहा था। मन से लड़ते हुए तब वह थक चुकी थी। उसके बाद अरुण के पाँवों पर गिर रोते हुए गिड़गिड़ाने लगी - ‘मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हें छूकर .......’
‘ज़रूरत नहीं। दृढ़ स्वर में अरुण ने कहा - जीवन भर तुम्हारी नज़रों में अविश्वासी ही बने रहना चाहता हूँ। तुम मुझे अब कभी स्पर्श नहीं करोगी - कभी नहीं। मैं भी तुम्हें नहीं छुऊंगा। कभी नहीं।’
भीष्म की प्रतिज्ञा के मुकाबले अरुण गांगुली की वह छोटी सी प्रतिज्ञा किसी भी मायने में छोटी नहीं थी। एक साधारण नवविवाहित तरुण होकर भी अपने आदर्श और विश्वास से बिंदु मात्र भी न भटक उन्होंने जिस तरह सिर्फ सुंदर पत्नी ही नही बल्कि अपने ही हृदय के दूसरे अंश से जिस तरह ख़ामोश दूर हो गए, वह सचमुच आश्चर्य की बात है। यह भी क्या संभव है? एक ही घर में रहकर दिन, महीनों, और वर्षों बाद भी इस तरह बिना स्पर्श किए रहा जा सकता है क्या? जीवन की प्राकृतिक ज़रूरतों से में शरीर की प्रधान भूमिका होती है। पति-पत्नी का मिलन उसी प्यार-मुहब्बत की सांसारिक समृद्धि है। अरुण गांगुली ने कभी भी उस सुख-समृद्धि का स्पर्श करना नहीं चाहा। संकल्प की तेजस्विता इंसान को कितने कठिन मोड़ पर ले जा सकती है, उसी की मिसाल बन गए अरुण गांगुली। बासंती के साथ एक बिस्तर पर सोना तो दूर, उसे फिर कभी स्पर्श ही नहीं किया। मानो वे भले ही अपनी पत्नी हो। पत्नी होते हुए भी बासंती ने अविश्वास का जो बीज बोया था वह आज अरुण गांगुली के हृदय में विशाल बट-वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। नहीं, बरसती रात में कभी-कभार नींद टूट जाने पर भी अरुण गांगुली ने भयानक हवा के सुखद झोंके की भाँति पल भर के लिए भी कुछ अलग सा महसूस नहीं किया। उनके शरीर में कोई तरंग नहीं है। कोई ख़्वाहिश नहीं है। समुद्र की गहराई जहां अधिक हो वहाँ का पानी भी उतना ही शांत होता है। अरुण गांगुली भी उसी तरह शांत, गंभीर और विवेचनाबोध लिए समुद्र बने हुए हैं।
इन चौबीस-पच्चीस वर्षों में बासंती ने चार बार माफी माँगी थी। व्याकुल होकर रोते हुए कहा था - ‘मेरे एक दिन के अपराध के लिए तुम जीवनभर के लिए दीवार खड़ी कर दोगे। यही एक दिन सब से बड़ा हो गया। और वह दिन, जब तुम पर विश्वास कर बरेली क्लब होटल के कमरे में खुद को पूर्णत: तुम्हारे हवाले कर दिया था, उसका कोई महत्व नहीं? बोलो, बोलो, इतना ख़ामोश मत रहो, मुझसे और सहन नहीं होता।’ ये दबाव सहन न कर पाते हुए मैं और भी छोटी होती जा रही हूँ। अरुण गांगुली ने गंभीरता से एक बात कही - ‘तुम अपने कमरे में जाओ।’ आधी रात को भी बासंती एक-दो बार अरुण गांगुली के कमरे में आई थीं लेकिन वे अपने ही ख़्यालों में खोए हुए थे। मग्नता के उस आसन से वे नहीं लौट पाए। ज़रा भी टस से मस नहीं हुए। ध्यान में मग्न ऋषि की भाँति जवाब दिया -‘आधी रात को किसी के कमरे में प्रवेश करना ठीक नहीं।’
उसके बाद अरुण गांगुली ने कई बार सोचा, कहीं वे बासंती के साथ ज़्यादती तो नहीं कर रहे? खुद ही खुद को मुजरिम के कठघरे में खड़े कर हज़ारों सवाल किए। बार-बार एक ही जवाब मिला कि कोई ज़्यादती नहीं की। जिस आस्था को लेकर बड़े हुए तरुण और सजीव जीवन को बासंती ने बिलकुल स्तब्ध कर दिया था और एक मरणासन्न पिता की अंतिम इच्छा का अपमान किया, इन दो ज़िंदगियों की तुलना में ये सज़ा कोई बहुत बड़ी नहीं है। यह सज़ा उसे ज़रूर मिलनी चाहिए।
तो क्या अरुण गांगुली में प्यार नाम की कोई चीज़ शेष नहीं है? क्या इसीलिए वे इतने उदासीन हैं? ऐसा कहना होगा ग़लत होगा। अरुण गांगुली के सीने में वह प्यार बहुत मात्रा में है। शादी के बाद के अध्याय की बासंती को वे नहीं जानते। पत्नी के तौर पर उस बासंती के साथ उनका पैबंद सा रिश्ता है। उस टूटे रिश्ते के बारे में वे तनिक भी सिर नही खपाते। पूर्णत: उदासीन हैं। लेकिन शादी से पहले वाली बासंती? वही युवती तो अरुण गांगुली के दिल की साम्राज्ञी बनी हुई है। हर रात वे उस युवती के साथ जी भर कर बातें करते हैं। कुमारी बासंती की स्पर्श करते हैं। उसके बालों की, शरीर की महक यहाँ तक कि पसीने की महक को भी सीने में भर कर बार-बार पहुंच जाते हैं होटल बरेली क्लब के कमरे में। दिन था विजय दशमी यानी दशहरे का। उस दिन दोनों के मिलकर एक हो जाने का वह घनिष्ट दृश्य ही अरुण गांगुली जी भर कर देखते हैं, चित्रित करते हैं और फिर शुरू से उस आवर्त में वे मन ही मन खोए रहते हैं। यह बासंती हर रात उनके सीने पर लेटी रहती है। अरुण गांगुली जी भर कर बासंती चटर्जी को स्पर्श करते हैं, बासंती गांगुली को नहीं। उनके लिए बासंती गांगुली की कोई भूमिका नहीं। इसी कारण अरुण गांगुली ने अपनी पत्नी को कभी छूकर नहीं देखा, स्नेह का हाथ बढ़ा कभी भूल कर भी स्पर्श नहीं किया।
.....जारी।बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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