(यहां प्रस्तुत है बांग्ला के जाने-माने लेखक श्री समीरण गुहा साहब के उपन्यास का हिन्दी रूपातंर गोधूलि गीत। बांग्ला में तो उनके एक से बढ़कर एक उपन्यास मौजूद हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हिन्दी पाठकों से वे पहली बार रू-ब-रू हो रहे हैं ताकि हिन्दी भाषा के विशाल फलक के माध्यम से उनका लेखन जन-जन तक पहुंचे।)
गोधूलि गीत
0 समीरण गुहा
रविवार सुबह से ही अरुण काफ़ी बेचैन सा हो उठा था। जबकि बासंती का आना निश्चित नहीं था। आ भी सकती है, नहीं भी। फिर भी अरुण ने आना निश्चित समझ लिया।
लगभग घंटा भर अरुण बालकनी में खड़ा रहा। आख़िर बहुत निराश होकर वह कमरे में लौट बिस्तर में मुँह छुपाए लेटा रहा। होटल के बॉय ने आकर एक बार फिर चाय के लिए पूछा तो अरुण ने मना कर दिया कि आज उसे चाय की ज़रूरत नहीं।
शायद दस मिनट भी नहीं गुज़रे होंगे। धीमे-धीमे क़दमों से बासंती कमरे में आ खड़ी हुई। अरुण को उस तरह लेटे देख पूछा, ‘क्या बात है, सो रहे हैं क्या?’
सुनते ही अरुण उछल कर बिस्तर छोड़ बासंती के सामने आ खड़ा हुआ। खुशी से उसका गला भर आया फिर भी किसी तरह जवाब दिया, ‘मैं बिलकुल नहीं सो रहा था।’
‘मैं भी तो यही सोच रही थी। मुझे बुलाकर आदमी पड़े-पड़े सो रहा है।’
‘इतनी देर तक आपका इंतज़ार करने के बाद जब लगा कि शायद आप....’
‘तभी बिस्तर पर जा लेटे!’
‘बड़ी अच्छी बात कही आपने, अरुण हँसने लगा। आप से जब कुछ छुपाना संभव नहीं तो खुली बात-चीत ही करनी चाहिए। इससे कम से कम सरलता की उपाधी तो मिलेगी। बात ख़त्म करते ही अरुण ने घंटी बजाई। दरवाज़ा खोल जैसे ही रामदेव अंदर झाँका और चाय-नाश्ते का ऑर्डर मिलते ही उसकी हैरानी की सीमा नहीं रही। मासूमियत से कहा - ‘साब, अभी-अभी तो आपने चाय पीने से इन्कार कर दिया था....’
‘तो क्या हुआ?’ सवाल दाग कर अरुण उसके मुँह की तरफ देखता रहा। रामदेव क़ाफ़ी शैतान है। वैसे वह बहुत अच्छा लड़का है लेकिन शरारती बुद्धि में वह सबसे तेज़ है। होटल का एक और बॉय है, रामखिलावन। उसे रामदेव पहुत तंग करता है। बरेली क्लब होटल के सभी बोर्डर रामदेव को पसंद करते हैं, प्यार करते हैं इसलिए उसी स्नेह के चलते वह सबके साथ खुले तौर पर न सही लेकिन ...... हँसी-ठिठोली कर ही लेता है। जैसा कि अभी-अभी जो उसने किया। बासंती नामक इस सुंदरी के न आने के कारण ही अरुण ने अब तक चाय-नाश्ता कुछ भी नहीं लिया था। जबकि उसे देखते ही ऑर्डर देने का उत्साह कई गुणा बढ़ गया। लेकिन यह तो अरुण रामदेव से नहीं कह सकता न। जो भी हो, है तो साहब ही न। फिर भी बेवकूफ़ बन जो नहीं कहा था, कह बैठा।
अरुण ने सोच कर देखा कि उसके साथ सहजता से ही बात करना ठीक है। रामदेव जो सुनना चाहता है वही उसने और सपष्ट रूप से कहा, ‘तब तक मेमसाहब नहीं आईं थीं न, अकेले पीना अच्छा लगता है भला?’
‘यह बात बिलकुल सही कही।’
‘अभी तुम मेहरबानी करके कुछ तो लाओ।’
प्लेट सजा कर लाने में रामदेव का कोई जवाब नहीं। बहुत काम का लड़का है। बासंती आज यहाँ पहली बार आई है। अत: होटल बरेली क्लब की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए जो सब करना चाहिए रामदेव ने वैसा ही किया। बहुत कम समय में दो व्यक्तियों का नाश्ता तैयार कर लाया। टेबल पर नाश्ता सजा रामदेव ने हंसते हुए कहा, ‘अब तो मेरी छुट्टी मंजूर।’ और पल भर भी इंतज़ार किए बगैर वह तूफान की गति से कमरे से बाहर निकल गया। दरअसल उसकी सूझ-बूझ गज़ब की है। किसके पास कितनी देर रुकना चाहिए, यह वह दूसरों को भी सिखा सकता है।
रामदेव के कमरे से बाहर जाते ही वहां अचानक उन दोनों के बीच ख़ामोशी सी छा गई। ज़रा सा मुस्कराते हुए अरुण ने कहा, ‘चलिए शुरू कीजिए।’
‘सो तो ठीक है। लेकिन,’ बासंती ने हंसते हुए उत्तर दिया - ‘खा-पी चुकने के बाद तुरंत निकल पड़ना मुझे पसंद नहीं है लेकिन इस वक्त यही करना पड़ेगा।’
‘इतनी जल्दी!’
‘काका घड़ी लिए बैठे हैं। माँ और पिताजी को तो कुछ भी कहकर समझाया जा सकता है लेकिन दो मिनटों की जगह पाँच मिनट होते ही काका.....’
‘यानी वे सीधे-सादे नहीं हैं।’
‘अरे! ऐसी बात है, लेकिन मैंने यह तो नहीं कहना चाहा। दरअसल क्या है कि आज तो कॉलेज बंद है। छुट्टी का दिन है। अत: देर होने पर काका के सवालों का मीटर भी बढ़ता जाएगा। यही तो डर की बात है।’
‘यानी कि आप झूठ बोलने की कोई गुंजाईश नहीं।’
‘कोशिश की थी पकड़े जाने के बाद से....’
‘कैसे?’
‘एक बार सहेलियों के साथ सिनेमा देखने गई थी। पता नहीं क्यों उस दिन काका के बड़ी गंभीरता से पूछने पर झूठ बोलकर बचना चाहा था। एक झूठा लंबा-चौड़ा भाषण देना पड़ा था। सहेली का जन्मदिन था, उसके घर गई थी इसलिए देर हो गई। काका ने क्या जवाब दिया, पता है ? जज साहब के निर्णय सुनाने की भंगिमा में बोले - लिबर्टी सिनेमा तुम्हारी सहेली का घर है यह मुझे भी आज ही पता चला। इंट्रवल के समय गोलगप्पे खाकर जन्मदिन मनाते भी देखा। अब तुम सचमुच बड़ी हो गई हो। काका के अंतिम वाक्य ने मुझे सचमुच बहुत शर्मिंदा किया।’
‘आज भी क्या सच ही बताएंगी?’
‘नहीं, इसकी कोई गुंजाईश नहीं।’
‘क्यों?’
‘अपनी निजी कुछ बातों को तो राज़ रखना ही चाहिए। कहकर अचानक बासंती ने धौंस जमाई, महोदय आपने तो अच्छी बहस शुरू कर दी। या देर करवाना चाहते हैं?’
‘बिलकुल नही। यहाँ बैठे-बैठे आपके काका से जो डर लगने लगा है, तिस पर अब देर करवा दूं? घर जाकर हो सकता है सुनने को मिले कि काका गंभीर स्वर में आपसे पूछ रहे हैं कि, होटल बरेली क्लब भी शायद तुम्हारी सहेली का घर है?’
‘बहुत खूब कहा। तो अब चलूं?’
‘सचमुच चली जाएंगी?’ अरुण का चेहरा उदास हो गया। उसके चेहरे की तरफ देख बासंती भी मानो ज़रा सी उदास हो गई। दरअसल इस वक्त यहाँ से उठने को उसका भी जी नहीं चाह रहा। लेकिन क्या किया जा सकता है? कॉलेज खुला होता तो थोड़ी देर और रुका जा सकता था। छुट्टी के दिन यह कैसे हो सकता है? और फिर घर लौटकर काका के हज़ारों सवालों का सामना करने पर जो घबराहट होती है कि क्या कहा जाए। अत: कम में ही संतोष करना अच्छा है। जितने समय के लिए मुलाक़ात हुई है उतने समय के संतोष की सुरभी मानों तुरंत ही ख़त्म न हो जाए। उससे पहले ही घर पहुँचना ज़रूरी है।’ बासंती के उठ खड़े होते ही अरुण ने मायूस स्वर में कहा, ‘ठहरिए मैं आपको छोड़ आऊँ।’
‘आप क्यों तकलीफ उठाकर इतनी दूर चलेंगे?’
‘हाँ, जाने में ज़रूर कोई तकलीफ़ नहीं होगी - हाँ लौटते समय होगी।’ अरुण की बात ख़त्म होते ही बासंती उसके चेहरे की तरफ देखती रही। चाहकर भी कुछ नहीं कह पाई। मन में कौन सा खेल शुरू हो गया? ऑंखों की कजरारी पलकें बार-बार झपक रहीं थीं। दोनों होंठ भी काँप रहे थे।
अरुण ने पता नहीं क्या सोचा। फिर बासंती की ऑंखों की तरफ देखते हुए अचानक बोल उठा ‘क्या हम ‘तुम’ कहकर एक दूसरे को संबोधन कर सकते हैं?’
‘बहुत असुविधा हो रही है?’ बासंती की ऑंखों में पाईन वृक्ष का साया था।
अरुण ने कहा, ‘सिर्फ असुविधा नहीं-तकलीफ भी हो रही है।’
‘तो कह डालिए।’
‘सिर्फ़ मैं?’
‘सो क्यों?’ बासंती ने तनिक भी संकोच न करते हुए सहजता से ही जवाब दिया, ‘इच्छा तो दोनों की ही है।’
‘आप आज बहुत अच्छी लग रहीं हैं।’
बासंती ने मज़ाक से कहा, ‘अनुमति दे दी इसलिए क्या?’
‘पता नहीं। लेकिन आप मेरा मतलब है तुम बिलकुल भी पराई नहीं लग रही हो।’
बासंती हँस पड़ी।
सड़क की उस तरफ देख अरुण के इशारा करते ही एक रिक्शा उनके सामने आ खड़ी हुई। अरुण ने बासंती सहित रिक्शा पर सवार होते हुए कहा, ‘सिविल लाइन्स चलो।’
‘तीन रुपए लगेंगे साहब।’ रिक्शावाले की हिमाकत देख हैरान होकर भी अरुण ने उसे माफ कर दिया। बासंती जैसी एक साम्राज्ञी जब उसके साथ बैठी हो तो शायद रिक्शावाला थोड़ी सी हिमाकत और दिखा सकता था। उसके अधिकार क्षेत्र में कितना विशाल ऐश्वर्य है यह वह कैसे समझ सकता है?
रिक्शा चल पड़ी। बासंती के लावण्यमयी चेहरे की तरफ अरुण ने जो कहना चाहा था, वह लगभग भूल ही गया। बहुत गंभीर होकर उसने खुद को रिक्शा के एक कोने में छुपा लिया। अचानक इस बदलाव ने अरुण का ध्यान खींचा। उसने मज़ाक करते हुए कहा, ‘लगता है मैं अपनी दादी अम्मा के साथ हँ।’
सुनते ही बासंती अरुण की ऑंखों की तरफ देख हँस पड़ी। मन के दबे बादलों को अनदेखा कर उसने भी मुँह खोला - ‘तुम्हारे जैसा पोता मिलने पर हर दादी अम्मा ही.....’
‘मजाक छोड़ो।’ अब मानो अरुण के गंभीर होने की बारी थी।
‘आख़िर हुआ क्या?’
‘रिक्शा में बैठते ही तुम इतनी गंभीर हो जाती हो, यह पता नहीं था। बिलकुल ही कुछ की कुछ बन जाती हो।’
‘दरअसल यह बात नहीं है’ - बासंती की हँसी में अपनेपन की झलक थी। ‘मैं कुछ सोच रही थी - तुम्हारे बारे में ही।’
‘मेरे बारे में?’
‘और नहीं तो क्या? उस दिन घर से थोड़ा पहले ही रिक्शा छोड़ दी थी। तुम्हे साथ नहीं ले जा पाई। वही ग़लती आज नहीं करूंगी लेकिन इससे बहुत तूफान उठ खड़ा होगा। कहाँ तक संभाल पाऊंगी, यही सोच रही थी।’
अरुण की मुखाकृति बदल गई। थोड़ी देर पहले की नरमी पर सख्त आवरण सा छाने लगा। दोनों भौंहें सिकुड़ गई थी और सिकोड़ कर पूछा, ‘तूफान क्यों उठ खड़ा होगा? ’
बासंती हँसे या गंभीर मुद्रा ही बनाए रखे, यह वह तय नहीं कर पाई। आवाज़ को धीमे करते हुए धीरे - धीरे बोली, ‘जानते हो हमारे घर में सबसे ज़्यादा गुस्सैल व्यक्ति है मेरे काका। जबकि वे ऐसे गुस्सैल कतई नहीं थे। दीदी की मृत्यु के बाद से काका बदलने लगे।’
‘तुम्हारी दीदी..... ’
‘आत्महत्या की है।’
‘क्यों?’
‘हमारे घर पर एक लड़का आता था। अनुदेब दा। चार सालों तक दीदी के साथ घूमने-फिरने के बाद दीदी की ही सहेली टीलू दी से शादी कर ली। किसी और ने भले ही यह अपमान सह लिया हो, परंतु दीदी के लिए यह ज़िंदगी और मौत का सवाल था। दीदी की मौत के बाद से ही काका किसी भी युवक को देखते ही शक करने लगते हैं। मेरे घर से निकलते ही या लौटते ही भाँति-भाँति की पूछताछ शुरू हो जाती है।’ कुछ देर खामोश रहने के बाद बासंती ने फिर कहा, ‘तुम्हारे बारे में क्या करूं , सोच नहीं पा रही हूँ। मैं चाहती हूँ कि काका को पता चले। जो देखना है देखें। लुकाछिपी मुझसे नहीं खेली जाएगी।’
बिना सोचे-समझे, कुछ कहते-कहते रुक गया अरुण। और भी सहजता से कहा, ‘उन्हें पहले से बगैर कुछ बताए तुम्हारे घर जाना उचित होगा क्या? उससे.....’ अरुण अपनी बात ख़त्म नहीं कर पाया। एक उदास दृष्टि से बासंती उसे निहार रही थी। उन ऑंखों की तरफ देखते-देखते ही अरुण ने बासंती के दाहिने हाथ पर अपना हाथ रख दिया। गंभीर स्वर में कहा, ‘कोशिश करके भी मैं अनुदेव दा नहीं बन सकता। तुम मुझ पर विश्वास कर सकती हो।’ एक गहरी साँस छोड़कर बासंती ने अरुण के कंधे पर सिर रखा। असीम स्नेह से कहा, ‘थोड़ी देर पहले तुम्हें विश्वास की बात कही थी न, ज़िंदगी भर तुम मुझे आजमा कर देख सकते हो।’
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बासंती के कॉलेज के वार्षिकोत्सव में यद्यपि अभी देर है, फिर भी पूरे ज़ोर-शोर से रिहर्सल शुरू हो चुकी है। स्वभाविक रूप से वह व्यस्त है। एक तो वह कॉलेज यूनियन की सेक्रेटरी है और इसके अतिरिक्त कार्यक्रम का जिम्मा उसी पर है। हर तरफ उसे विशेष ध्यान रखना पड़ रहा है। समय न मिल पाने के कारण पाँच-छ: दिनों से बासंती अरुण से मिल नहीं पाई। आज सुबह से ही तय कर रखा है कि चाहे जैसे भी हो उससे एक बार मिलेगी ही, लेकिन इतना समय निकाल कर जिससे मिलने गई वह होटल में ही नहीं था।
बासंती ने रामदेव को खोज निकाला। रामदेव ने कुछ ऐसा बताया, ‘गांगुली साहब के पिता की तबीयत ख़राब है। टेलिग्राम मिलते ही वे चले गए। कब लौटेंगे कुछ निश्चित नही।’
बातें सुनकर बासंती चिंतित हो उठी। मन शिथिल हो गया, और कोई उपाय भी नहीं था। यह स्थिति और भी यादा कष्टदायक थी। रामदेव ने धीमे स्वर में कहा - ‘मेमसाहब, मुझे साहब का पता मालूम है, आपको दे दूं ?’
रामदेव की तरफ देखा बासंती ने। लड़का कितना अच्छा है, उसके मन की बात जान ली। इस क्षण वह बहुत यादा अपना, बहुत ही विश्वसनीय और परम शुभचिंतक सा जान पड़ा। बासंती ने सिर्फ़ कहा, दे दो..........
इसी बीच बारह-तेरह दिन गुज़र गए। अरुण के पिता अब अच्छे हो गए हैं। बासंती को ख़त में सब कुछ लिखा है अरुण ने। यह भी बताया है कि अगली नौ तारीख को शाम की गाड़ी से वह बरेली पहुंच रहा है। अत: दस तारीख की शाम बासंती उससे एक बार होटल में ज़रूर मिल ले। अगर असुविधा न हो तो। अगर न भी आ सके तो मन खराब करने जैसी कोई बात नहीं क्योंकि घर पर काका हैं, और यह फ़िक्र उसके दिमाग में स्थाई रूप से बैठ गई है।
ख़त को बासंती ने कई बार पढ़ा है। उसके पिता के स्वास्थ्यलाभ के विषय जानकर जहाँ खुशी हुई, मन ही मन हँस पड़ी बासंती क्योंकि काका की फ़िक्र अरुण के दिमाग से किसी भी तरह नहीं निकली। उसे निकालना ज़रूरी है। अरुण आए तो इस बार उसे घर ले जाना ही पड़ेगा। इतने आतंकित होकर जीना अब मुश्किल है।
आज नौ तारीख है, यानी अरुण के आगमन का दिन। एक काम क्यों न किया जाए। बासंती कल होटल जाने के बजाय यदि आज ही स्टेशन चली जाए तो अरुण हैरान रह जाएगा। अचानक मिलने वाली थोड़ी सी खुशी भी बहुत बड़ी होती है। लगभग दौड़ते हुए इधर-उधर से बचते हुए भीड़ ठेलते हुए बासंती जब बरेली स्टेशन पर पहुंची, दून एक्सप्रेस तब प्लेटफार्म पर प्रवेश कर रही थी। चारों तरफ इतने लोग हैं और गाड़ी से जो इतने लोगों का हजूम उतरेगा उनमें अरुण को खोज पाना आसान नहीं होगा। तेज कदमों से चलते हुए बासंती स्टेशन के मेन गेट के पास आ रुकी। उसकी नज़रों से बचकर अरुण यहाँ से नहीं जा सकेगा। जनस्त्रोत की चलती भीड़ पर नज़रें टिकाए बासंती जब थक गई तभी देखा अरुण धीमे-धीमे कदमों से आगे बढ़ा आ रहा है।
थोड़े से फ़ासले से बासंती ने आवाज़ दी, ‘रुको।’ जिसके लिए यह पुकार थी अवश्य वह सुन ही नहीं पाया। जिस गति से चल रहा था उसी गति से चलता रहा। अब बासंती ने आवाज़ न देकर पीछे से ही शर्ट पकड़कर खींची।
‘तुम !’ विस्मय और खुशी से व्यग्र हो उठा अरुण। तुम स्टेशन पर आओगी मैं तो सोच भी नहीं सकता।
’अब क्या सोच रहे हो?’
‘इतनी बड़ी दुनिया में मुझसा भाग्यशाली और कोई नहीं है।’
बसंती हँस पड़ी। बहुत धीमे से कहा - ‘तुम बातों से ही आदमी को घायल कर देते हो।’
‘पिता जी कैसे हैं?’
‘अच्छे हैं।’
‘क्या हुआ था?’
‘’स्ट्रोक। इस बार बचाव हो गया। फ़िलहाल चिंता की कोई बात नहीं, लेकिन कब क्या हो जाए.... तुम स्टेशन क्यों चली आई? काका घर पर नहीं हैं क्या?’
‘हैं। संभवत: स्टेशन पर भी आ जाएं।’
‘डरा रही हो, या खुद ही डर रही हो?’
‘मेरा डर क़ाफूर हो चुका है।’
‘सच!’
‘हाँ, काका ने वह भी सिखा दिया है।’
स्टेशन से बाहर निकल एक ऑटोरिक्शा में बासंती से सटकर बैठते हुए अरुण ने धीमे स्वर में कहा, ‘कितना सीखा है देखते हैं।’
बाधा पड़ने पर निश्चित रूप से ज़िद बढ़ती है। डर भी तेज़ी से मन से भाग जाता है। अरुण से मिलने के चार महीनों में बासंती में यही बदलाव आया है। मगर हाँ, यह बदलाव बहुत ही सूक्ष्म रूप से आया है।
शाम को घर से निकलने के समय उमा प्रसाद यानी बासंती के काका अचानक भतीजी को हुक्म सुना गए, आज घर से कहीं नहीं जाओगी। उमाप्रसाद को जो कहना होता है सीधे और स्पष्ट रूप से कहते हैं। उनके जाने के काफ़ी देर तक बासंती दुविधा में पड़ी रही। काका को अगर कुछ आभास हो गया हो तो अब उसके पीछे हटने की ज़रूरत नहीं है। और आज तो वह अरुण के पास एक बार जाएगी ही। वजह है, थोड़ी देर पहले माँ ने अनानास काटा था। बाज़ार से खरीदा हुआ नहीं उनके अपने बागान का। बहुत मीठा है। रसीला अनानास अरुण को बहुत पसंद है। होटल में कई दिन उसे अनानास खाते देखा है। बाद में पता चला कि अनानास अरुण का पसंदीदा फल है। अत: उसे बगैर खिलाए बासंती का खाने को जी नहीं चाहा।
जैसा सोचा था, वैसा ही काम किया। कटे अनानास को टिफिन बॉक्स में डाल चुपचाप घर से निकल गई बासंती। रिक्शा से देर हो जाएगी सोचकर ऑटोरिक्शा ही ले लिया। ड्राईवर से कहा, ‘होटल बरेली क्लब।’
बासंती के आने से पाँच मिनट पहले ही अरुण लौटा है। शर्ट और मोजे उतार कर अभी वह ईज़ीचेयर पर बैठा ही था कि तूफान की तरह कमरे में प्रवेश करते हुए बासंती ने एक ही साँस में कहा, ‘यह खा लो।’
‘क्या है इसमें?’
‘ज़हर।’
‘आहा! ज़िंदगी में कभी ज़हर नहीं खाया - देखें तुम्हारा दिया हुआ ज़हर अमृत बनता है या नहीं।’
टिफिन बॉक्स खोल उसमें रखी चीज़ें देख हैरानी से अरुण गूंगा सा हो गया। बाद में मोहक दृष्टि से बासंती की तरफ देखते हुए कहा, तुम बहुत अपना सा बना लेती हो, बहुत ही अपनापन उड़ेलती हो।’
‘इतने से अनानस के लिए मुझे इतना बड़ा बना दिया।’
‘बड़ा बना नहीं दिया - तुम में बड़प्पन है।’
‘वो सब बातें छोड़ो, झट से अनानास खा लो। आज बहुत जल्दी में हूँ।’
‘यह तो रोज़ ही कहती हो।’ बासंती की बात को महत्व न देते हुए अरुण ने अनानास का एक टुकड़ा बासंती की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘तुम नहीं खाओगी तो मैं कैसे खा लूंगा।’ बासंती ने समय बर्बाद नहीं किया। टुकड़ा मुँह में डाल कर कहा, ‘यकीन मानो सचमुच जल्दी में हूँ। काका को शायद कुछ आभास हो गया है इसलिए कड़ाई चल रही है। सिर्फ़ तुम्हें अनानास खिलाने के लिए आई हूँ।’
‘इसके लिए मुसीबत में भी आना पड़ा।’
‘आई तो!’ बासंती ने मुस्कराते हुए कहा, ‘आज अब बातें नहीं। कल शाम चार बजे पॉवर हाउस के गेट के सामने इंतज़ार करना। कॉलेज से छुट्टी के बाद वहीं जाऊंगी।’
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अगले दिन पॉवर हाउस के गेट के सामने अरुण खड़ा था। बासंती तब तक आई नहीं थी। हाँ, समय भी तो नहीं हुआ था। उसने चार बजे आने की बात कही थी - अभी पौने चार बजे हैं। पंद्रह मिनट पहले से ही अरुण इंतज़ार कर रहा है। खुशी की बात यह है कि उसे फिर लौटकर पॉवर हाउस नहीं जाना होगा। बासंती अगर आधे घंटे बाद भी आए तो क्या हर्ज़ है? बासंती जब आती दिखी तब अरुण की घड़ी में चार बजकर दो मिनट हो रहे थे। रास्ता पार कर बासंती के इस फुटपाथ पर आने से पहले ही अरुण आगे बढ़कर उसके पास पहुँच गया। छूटते ही पूछा - ‘कल कुछ हुआ तो नहीं?’
‘नहीं।’
‘तब जो कह रही थी।’
‘मामला ठीक से समझ नहीं आया। घर लौट कर काका ने दो बार बड़े ग़ौर से मुझे देखा लेकिन कुछ पूछा नहीं।’
बासंती और अरुण जब खड़े बातें कर रहे थे उनके सामने एक ऑटो ठिठक कर आ रुका। भीतर उमा प्रसाद बैठे थे। उन दोनों की तरफ गंभीरता से देखा। इस आकस्मिक घटना पर बासंती गूंगी सी हो गई। हाँ, थोड़ी देर के लिए। फिर बासंती ने खुद को संभाला। अपने लिए नहीं - अरुण के लिए उसे स्वभाविक और साथ ही थोड़ा साहसी भी बनना पड़ेगा। इस समय विचलित होने का अर्थ है अरुण का अपमान। यह बासंती भला कैसे होने देती? वह सीथे काका की तरफ देखती रही। उमा प्रसाद ने कहा - ‘आओ बैठो।’ बासंती ने हिचकिचा कर अरुण की तरफ देखा तो उमा प्रसाद ने फिर कहा, ‘तुम दोनों बैठो।’ घर पहुँचकर उमा प्रसाद अरुण को लेकर अपने कमरे की तरफ चले और बासंती से कहा, ‘तुम अपने कमरे में जाओ।’ उमा प्रसाद बड़े ही स्वभाविक रूप से अरुण से बातें करने लगे। जो-जो पूछना चाहिए कुरेद-कुरेद कर पूछा। जैसे नाम, कब पढ़ाई पूरी की, कब से नौकरी कर रहे हो, पदोन्नति का क्या स्कोप है, घर कहाँ है, परिवार में कौन-कौन है, असली घर कहाँ है आदि प्रश्न। उसके बाद ही असली प्रश्न किया - ‘बासंती से कब से परिचय है ?’
‘चार-पाँच महीनों से।’
‘मकसद? मुहब्बत या मौज करना?’ उमा प्रसाद की बात सुनकर अरुण सकुचा सा गया। इतने सीधे रूप से तथा ऐसी भाषा में पूछ बैठेंगे अरुण ने सोचा ही नहीं था। शुरू से ही अगर कोई उसे मुजरिम बनाना चाहे तो वह क्या कर सकता है? फिर भी अगर किसी को ग़लतफहमी हो तो उसे दूर कर देना चाहिए। अरुण ने तनिक भी संकोच नहीं किया। उमा प्रसाद से भी स्पष्ट जवाब दिया, ‘बासंती से मैं प्यार करता हूँ।’
‘उससे शादी कर सकोगे?’
‘क्यों नहीं? दोस्ती तो इसीलिए की है।’
अरुण के तेजपूर्ण स्वर को सुनकर क्या उमाप्रसाद को विश्वास हुआ? एक बार विश्वास कर ठगे जा चुके हैं। दूसरी बार फिर दिल चाहता है। इन्सान के मन पर बहुत जल्दी असर पड़ता है। इस लड़के की आत्मविश्वास भरी बातों ने उन्हें मोह लिया। फिर भी एक बात तो रह ही जाती है। अंतत: सब कुछ ओस कणों की भाँति गायब तो नहीं हो जाएगा। उमा प्रसाद ज़रा नर्म पड़े। शांत स्वर में कहा - ‘रास्तों में घूमना-फिरना मुझे पसंद नहीं। तुम घर पर ही आ जाया करो। फिर भी तुम एक बात जान लो, बासंती का मुँह देख कर मैं कुछ भी सहन कर सकता हूँ - सिर्फ नहीं सहन कर पाउँगा......’
‘आप मुझ पर विश्वास रखें।’
‘विश्वास! ’ उमा प्रसाद ने गंभीर स्वर में कहा - ‘मैं तो इंसान पर विश्वास करना चाहता हूँ...’
‘मुझ पर विश्वास करके आज तक किसी ने धोखा नहीं खाया।‘’
‘बहुत दिनों से किसी ने मुझसे ऐसी आत्मविश्वास भरी बातें नहीं की।’ उमा प्रसाद मुग्ध होकर अरुण को देखते रहे। सारी शंकाओं का ज़हर शायद इसी वक्त दुनिया से समाप्त हो गया है। ऐसा सोचना कितना अच्छा लग रहा है। उमा प्रसाद ने अपराधी की तरह कहा, ‘कितनी ग़लत बात है। मैंने अब तक तुम्हारे लिए चाय लाने को भी नही कहा। यह बासंती ही भला क्या कर रही है? बासंती, अरी बासंती।’ उमा प्रसाद ने भतीजी को पुकारते हुए कमरे से बाहर की तरफ कदम बढ़ाए। उमा प्रसाद के बड़े भाई अर्थात् बासंती के पिता महीतोष और माता अलकनंदा दोनों ने आकर अरुण के साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया। वे दोनों ही इस तरह बातें कर रहे थे कि लग ही नहीं रहा था कि अभी-अभी उनका अरुण से परिचय हुआ हो। लेकिन अलकनंदा बात-चीत करते हुए एक विह्वल दृष्टि कहीं खो सी जाती थीं। शायद उनकी बड़ी बेटी और अनुदेव का वाक्या ही उन्हें बार-बार उलझा दे रहा था। फिर भी नए सिरे से ज़िंदगी के ख्वाब देखना अच्छा लगता है।
बासंती का घर एक मंजिला है। पक्के ऑंगन के चारों तरफ कतारबद्ध कमरे हैं। पश्चिमी कोने का कमरा बासंती का है। अरुण अब उसी कमरे में बैठा है। खाने-पीने की चीज़ें लेकर बासंती के अपने कमरे में प्रवेश करते ही अरुण का ध्यान भंग हुआ। काफी हैरान होकर उसने सीधे-सीधे पूछा - ‘बताओ तो, बात क्या है? काका के बारे में तुमने जिस तरह डरा दिया था, मुझे तो ऐसा कुछ नहीं लगा।’
अरुण के बातचीत के लहज़े पर यद्यपि बासंती हँस पड़ी, बाद में काफी गंभीर होकर कहा, ‘सच कह रही हूँ, मैं भी ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ। लड़कों को देखते ही जो काका शक की ज्वाला में जला मारते थे, वे इतने सरल हैं। सारा मामला ही मुझे अविश्वसनीय लगता है।’
बहुत दिनों से खो चुके मन को फिर नए सिरे से काम में डुबो दिया अलकनंदा ने। असीम स्नेह भरी नज़रों से अरुण को देख बेटी के सुनिश्चित भविष्य की तस्वीर कैद कर ली। सब महिलाए ऐसा ही सोचती हैं। उन्होंने आज उमा यानी बासंती को रसोई में काम करने नहीं दिया। अपने हाथों से सारे काम कर रही हैं। अरुण रात का खाना खाकर जाएगा। उमा को बुलाकर उन्होंने सिर्फ़ शाम की चाय और नाश्ता ले जाने के लिए कहा।
रसोई से चाय और नाश्ता लाने में बासंती ने तनिक भी देर नहीं की। उसकी इस कार्यदक्षता का लुत्फ़ उठाया अरुण ने। लेकिन रसोई से अलकनंदा की ‘ए उमा’ कहकर पुकरने पर बासंती की तरफ देख हँसते हुए पूछा, ‘घर पर तुम्हें उमा कहकर पुकारते हैं ?’
‘जी हाँ। क्यों नाम तुम्हें पसंद नहीं आया ?’
‘बहुत। इतना बढ़िया नाम सोचा ही नहीं जा सकता।’
‘मज़ाक मत करो। बासंती ने ज़रा सा गुस्सा दिखाने की कोशिश की लेकिन गुस्सा करने के क्रम में उसे हँसी आ गई।’
‘तो क्या कहूँ, बताओ? एक खूबसूरत युवती का नाम है उमा।’
‘तो तुम बासंती कहकर ही बुलाना।’ बीस वर्षीया युवती अब कुछ ज़्यादा ही गंभीर थी। बासंती की ऑंखों में ऑंखें डाल अरुण ने भारी सी आवाज़ में जवाब दिया, ‘जो भी कहो उमा नाम का अपना अलग ही माधुर्य है।’
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आज बासंती के कॉलेज में वार्षिकोत्सव है। बरेली पब्लिक हॉल भाड़े पर लेकर काफी बड़े पैमाने पर आयोजन हो रहा है। गीत-संगीत, नाटक, आवृत्ति सब कुछ हो रहा है। फिर भी इस तरह के आयोजन अरुण को आकर्षित नहीं करते। वह इसे शिक्षानवीसों के हल्ले-गुल्ले से ज्यादा कुछ नहीं समझता लेकिन बासंती के कॉलेज का उत्सव बड़ी बात नहीं है - बासंती का वहाँ होना बड़ी बात है। बासंती की एक झलक के लिए वह घड़ियां गिनता है और मिलने पर लगता है कि समय कितना क्षणिक है।
उस आयोजन में बासंती के पिता, काका में से कोई नहीं आया। सिर्फ़ अलकनंदा आई थीं। और अलकनंदा के साथ वाली कुर्सी पर बैठ धीमे स्वर में उनकी इक्का-दुक्की बातों का जवाब देते हुए अरुण कार्यक्रम देख रहा था। अचानक बासंती को सितार उठाए स्टेज पर जाते देख वह चौंक उठा। वह वहाँ क्या करेगी? बजाएगी? लेकिन इन कुछ महीनों के परिचय में सितार का प्रसंग तो कभी नहीं आया। उनके घर पर भी अरुण ने कभी सितार की शक्ल तक नहीं देखी। अत: और चाहे जो भी हो रातों-रात व्यक्ति सितार बजाना तो नहीं ही सीख सकता। शायद बासंती उसे स्टेज पर पहुँचा रही है, बजाएगा कोई और।
लेकिन नही - बासंती ही बजाने बैठी। और सचमुच बहुत ही शानदार बजाई। सितार के बारे में अरुण को जो थोड़ी-बहुत जानकारी है, उससे तो यह स्पष्ट है कि वह नियमित अभ्यास करती है। बासंती ने अनायास ही स्वर झंकार से अकेले ही सबकी प्रशंसा बटोर ली।
स्टेज से उतर कर बाहर आते ही अरुण से सामना हुआ बासंती का। वह हैरान होकर देखे जा रहा है। बासंती ने हौले से मुस्कराकर पूछा, ‘क्या हुआ, बात नहीं करोगे?’
‘तुम ने अन्याय किया है बासंती।’
‘कैसे ?’
‘इतनी बढ़िया सितार बजा लेती हो, यह तो पहले कभी नहीं बताया।’
‘बताने जैसी बात नहीं थी इसीलिए।’
‘आज तुमने बजाया उसके पीछे तुम्हारी साधना है। मैं हैरान हूँ कि तुम बजाती कब हो? तुम्हारे घर पर तो सितार भी नहीं देखी।’
होंठों को दबाए अद्भुत भंगिमा से हंसने लगी बासंती।
‘तो देखा कैसी कलाकार हूँ मैं।’
‘समझ रहा हूँ विनम्रता का आवरण तुम नहीं उतारोगी, ज़िंदगी भर इसे बरकरार रखोगी तो?’
‘क़तई नहीं। ज़िंदगी भर सिर्फ़ तुम से झगड़ती रहूंगी।’
‘वह नोंक-झोंक प्यारी सी होनी चाहिए।’ अरुण बासंती की ऑंखों पर से नज़रें नहीं हटा पा रहा था। बासंती भी गहरी नज़रों से पता नही क्या तलाशने लगी। फिर उत्साहित स्वर में कहा, ‘इसकी तुम अवश्य उम्मीद कर सकते हो।’
जारी।
जारी।
बांग्ला से अनुवाद – नीलम अंशु
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन,
6, महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ से प्रकाशित (2009)।
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