डायन
– मात्र कविता नहीं।
- परितोष पुरकायस्थ
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
मुखिया
के कहने पर अर्धनग्न युवती को जला कर मार डाला उन्होंने
उन्होंने
यानी ग्रामवासियों ने।
युवती
का अपराध – वह डायन है।
सोच
कर आश्चर्य होता है, मुखिया ने इस युवती से विवाह रचाना
चाहा था
पर
नहीं मानी लछ्मी।
लछ्मी
बन गई डायन।
अभावों
की मार से संथाली युवती के यौवन पर पड़ा डाका
सांवली
सलोनी सी युवती की कजरारी आँखों में आँखें डाल
मुखिया
ने उसके यौवन को ग्रस लिया था
पर
नहीं ग्रस पाया उसके मन को
अत: वह डायन घोषित कर दी गई।
फिर.....
लछ्मी
के तन की ज्वाला से उसका तन नहीं जल रहा था
जल
रहे थे हमारे समाज के मुखियागण।
लछ्मी
की जलती चिता के पास संथाल युवक खड़े हैं –
परंतु
प्रतिवाद नहीं किया।
वजह
थी वही मुखिया।
अभागी
लछ्मी के लिए एक बूंद आँसू
भी नहीं टपका
विवेक, बुद्धिरहित मानव नामक प्राणियों की आँखों से।
परंतु
लछ्मी का किस्सा सुनकर हम विवेक-बुद्धि संपन्न लोग
तनिक
सा सर झुकाएंगे
और
मुखिया का किस्सा सुन
कम
से कम थोड़ा सा प्रतिवाद तो करेंगे।
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परितोष पुरकायस्त जी की कविता डायन का बहुत सटीक अनुवाद किया है नीलम शर्मा जी ने । शोषण के विरूद्ध कोई आवाज़ नहीं उठा सकता । उठाएगा तो डायन करार दे कर उसे समाप्त कर दिया जाएगा । सच में रोंगटे खड़े करने वाला वाक्या । अनुवाद भी सटीक है ।दोनों को बधाई ।
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