श्री एजाज़ रचित यह कहानी अक्षर पर्व पत्रिका के मई 2017 अंक में प्रकाशित हुई है।
आवाज़ें
एजाज़
अनुवाद - नीलम शर्मा अंशु
पहली
आवाज़ –
हम रिफ्यूज़ी हैं परंतु यहाँ इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं है। यहाँ हम
खुशहाल जीवन गुज़ारने आए थे। तब हमें यह थोड़े ही पता था कि यहाँ तो हमसे भी बदतर
हालात है।
हम वापिस जा नहीं सकते, कम से कम मैं तो नहीं जा सकती। वैसे भी मैं अकेली कैसे
लौट सकती हूँ। मुझे अपने घर से बाहर निकलने की मनाही थी, मैं दूसरी लड़कियों की
भाँति कभी घर से बाहर नहीं निकली थी। हम तीनों बहनें आँगन में स्टापू, गीटे या
किकली खेल लिया करते थे, मन बहला लिया करते थे। मुझे सबसे बड़ी होने के कारण माँ
चशमे से पीने के पानी भरने के लिए रोज़ अपने साथ ले जाया करती थी। चशमे से घर तक
का रास्ता, इससे ज़्यादा मुझे कुछ याद नहीं।
दूसरी आवाज़ –
यह किसी के साथ कोई बात नहीं करती। इसी तरह सहमी-सहमी, गुम-सुम और डरी-डरी
रहती है हर पल। हम इसके मुँह से चीखें, विलाप या रूदन ही सुना है। अब यह बिलकुल ही
न के बराबर बोलती है, मानो गूंगी हो। बड़ी गुणवाण महिला थी जी यह... घर को
संभालने-सहेजने वाली। इसका शौहर यहाँ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था, बहुत ही शरीफ
और सीधा-साधा व्यक्ति था वह। हँसमुख और मिलनसार। पिछले तीन बरसों में मैंने कभी
उसके माथे पर त्योरी नहीं देखी थी। न ही गुस्से में उसे किसी के साथ ऊँची आवाज़
में बात करते सुना था।
इनके दो बेटे थे। छोटा इंजीनियरिंग कर रहा थ और बड़ा कहीं जॉब करता था।
इन्होंने बड़े बेटे की शादी तय कर दी थी। इस शहर का तो आपको पता ही है, यहाँ हालत
ख़राब होने में कौन सा वक्त लगता है। बस हम तो तड़-तड़ चलती गोलियों की आवाज़ें
सुन इधर भागे....
प्रोफेसर साहब की लाश दरवाज़े में पड़ी थी। इनके दोनों बेटे अपने-अपने कमरों
में चिरनिद्रा में विलीन पड़े थे। यह शायद वॉशरूम में थी या बेड के नीचे। यह बच
गई। तब से इसकी यही हालत है। यह किसी के साथ बात कम ही करती है। मुँह से कुछ बोलती
ही नहीं। बस चुपचाप सुनती रहती है। इनका मकान मालिक कहता है कि यह झंग के पास के
किसी गाँव से है। इनका पंजाबी होने ने ही इन्हें मरवाया है।
तीसरी आवाज़ –
मेरा नाम मुहम्मद नसीर है। मैं लियारी से हूँ। मैं यहाँ भुट्टे बेचता हूँ। मैं
पठान तो नहीं हूँ परंतु यहाँ ज़्यादातर लोग मुझे पठान ही समझते हैं। शुरु-शुरु में
आप भी धोखा खा गए थे,है न, हा हा हा हा...... अक्सर ऐसा ही होता है। शायद इसलिए कि
मैं खुद भी ऐसा हुलिया बनाए रखता हूँ। सलवार, कमीज़, वास्कट, पिशौरी टोपी और
गुरगाबी। मैं यह पोशाक किसी को धोखे में रखने के लिए नहीं पहनता। यह मुझे बचपन से
ही बहुत पसंद है इसलिए।
चौथी आवाज़ –
भाई साहब, यहाँ कोई भी सेफ नहीं है। हम यहाँ खुलकर अपनी भाषा भी नहीं बोल
सकते। यहाँ पंजाबियों को न तो भाई लोग पसंद करते हैं और न ही पठान। यहाँ हर
मुहल्ले में उनके अनेक मुखबिर हैं। आपकी एक-एक गतिविधि नोट करते हैं। कब जगते हैं,
आपके सोने, काम-काज पर जाने-आने सब पर इनकी नज़र है।
यहाँ सेटल होने से पहले ही मेरे एन. जी. ओ. वालों ने मुझे ताकीद की थी, अगर तुम्हें यहाँ रहना है,
तब तो तुम्हें अपनी भाषा त्यागनी पड़ेगी। यहाँ पंजाबी का झंडा उठाए फिरने से बात
नहीं बनेगी। यह पंजाब नहीं है, कराँची है भाई कराँची।
पाँचवी आवाज़ –
यहाँ हम रेहड़ी लगाने वालों को भी हफ्ता देना पड़ता है। भाई के साले रोज़
चक्कर लगाते हैं इधर का और पल-छिन में उड़ा ले जाते हैं हमारे दिन भर की कमाई।
यहाँ लोगों ने दुकानों के सामने लोहे के केबिननुमा छज्जे बनवा रखे हैं। हम तो कैदी
बन कर गए हैं बंद मकानों के भीतर। कुछ पता नहीं कि घर से निकलने के बाद वापिस
लौटेंगे भी या नहीं।
(2)
पहली आवाज़ -
नहीं....नहीं.....मैं नहीं छोड़ सकती, यह शहर। यहाँ मेरा शौहर दफ़न है। मेरी
छोटी बेटी की कब्र भी यहाँ ही है। मैं किस तरह छोड़ सकती हूँ यह जगह ? जहाँ
मेरे प्यारे सोये हुए हैं, वैसे भी वहाँ
कौन सा सकुन है? वैसे मैं अब वापिस भी किसके लिए लौटूं ? माँ-बाप और छोटों को तो उड़ा दिया। दुश्मनों ने एक
ही हमले में भी..... पहाड़ की चोटी पर बड़ी ही रीझ और शौक से बनाया इतना सुंदर घर
मिनटों-सेकेंडों में जल कर ख़ाक हो गया। अब
आप यह बताएं कि मैं किस लिए वापिस जाऊँ?
दूसरी आवाज़ –
मुझे लग रहा है कि इसे ये बातें सुनकर गुस्सा चढ़ा रहता है और यह मुसल्सल दाँत
पीसती रहती है। आगे भी जब यह गुस्से में हो तो इसी तरह दाँत पीसती रहती है लगातार।
मुहल्ले के बच्चों के लिए तो यह एक खिलौना है। वे इसे छेड़ते हैं और आगे से ये
जवाब देती है -
हमारी मुट्ठी में कितने दाने ?
किसने खाए......चिड़िया ने।
चिड़िया कहाँ बैठे.......पीपल पर।
पीपल
किसने काटा ....... लोहार ने ।
लोहार
की झोली में क्या......... टल्लियां।
ठाँय-ठाँय
बंदूकां चल्लियां।
ठाँय-ठाँय
बंदूकां चल्लियां।
तीसरी आवाज़ –
ये पठानों को अपना विरोधी समझते हैं। इन्हें लगता है कि मुल्क़ में आए दिन
होने वाले बम धमाकों में इन्हीं का हाथ है। ये देशद्रोही हैं। इन्हें किसी की
चढ़ी-उतरी से कोई मतलब नहीं। जितने नशीले पदार्थ यहाँ लियारी में बिकते हैं, यह सब
इनकी देन है। मतलब के समय ये इंडियन्स के साथ भी साँठ-गाँठ कर लेते हैं। रोज़ नए
से नया असलहा, पोस्त, चरस, भाँग, शराब ये ही बॉर्डर से इधर-उधर करते हैं। यहाँ कोई
भी गड़बड़ी हो जाए, पुलसिए मुझे ज़रूर पक़ड़ेंगे। पहले-पहल तो बहुत मुश्किल होती
थी, अब तो आदत हो गई है।
इधर अब ज़रा तब्दीली ज़रूर है कि एक-आध रात हवालात में गुज़ारने के बाद मेरी
जान छूट ही जाती है क्योंकि शिनाख़्त कार्ड में मेरे पिता का नाम देखने के बाद कुछ
ले-दे कर छुटकारा मिल जाता है। अब तो थाने वाले मेरे राज़दार रहो गए हैं। वे थोड़ी
देर पूछ-पड़ताल के बाद खुद ही छोड़ देते हैं।
चौथी आवाज़ –
न जी न..... यह शहर अगर एक अलग सूबा बन गया तो क़यामत आ जाएगी। ये तो अभी ही
जीने नहीं देते। जब पूरे सूबे में इनका ही राज हुआ तब तो रब जाने क्या क़यामत हो।
ये तो इलेक्शन वाले दिन मृतकों, क़ैदियों और नाबालिगों के वोट डालने से नहीं
झिझकते। अपने लीडर को खुद ही मरवा कर, फिर रोने-पीटने लगते हैं। अगर सूबा बन गया
तो इस शहर पर क़यामत आ जाएगी.....क़यामत। फिर तो इन्हीं का राज होगा।
पांचवी आवाज़ –
हफ्ता लेने वाले हमारे पैसों से ही असलहा खरीद कर हमीं पर चला देते हैं। दु:ख
तो इस बात का है कि ये मारते किसे हैं ? पता
नहीं कौन से दुश्मन हैं जो इन्हें बढ़ावा देकर आगे कर देते हैं और खुद पीछे बैठ कर
तमाशा देखते हैं। कितने अफ़सोस की बात है, मारने वाले भी मुसल्ले और मरने वाले
भी.......अगर आज जिन्नाह ज़िंदा होता तो फूट-फूट कर रोता…… गधो, मैंने इसलिए यह मुल्क़ अंग्रेजों से आज़ाद नहीं
करवाया था कि आप लोग आपस में ही लड़-लड़
मरते रहो।
(3)
पहली आवाज़ –
मुश्किलें तो बहुत हैं परंतु अब करें तो क्या करें ? वापिस लौटने की तो इच्छा नहीं है। यहाँ टिके रहने में वजूद है। बच्चे स्कूल
जाते हैं तो बाद में चैन नहीं पड़ता। रब जाने सही सलामत घर लौट भी सकेंगे या
नहीं...... मैं अक्सर सोचती हूँ। अगर मुझे कपड़े सिलने न आते तो मैंतो मर ही जाती। साथ ही तीनों छोटे
बच्चों कि भी भूखा मारती। यह तो शुक्र है कि मेरी स्वर्गवासी माँ मुझे हरेक घरेलू
काम सिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी जो किसी भी गृहिणी के लिए सीखना ज़रूरी है।
दूसरी आवाज़ –
ठहरो.... मैं इसे बाहर छोड़ आऊं। यह न हो कि वह हमारी बातों से तंग आ कर
बच्चों की भाँति हमारी भी पिटाई न कर दे। गुस्से में यह उलटी-सीधी हरकतें करती है।
कई बार तो टट्टी-पेशाब भी कपड़ों में ही कर लेती है। फिर कपड़े उतार कर नग्न ही
गली में घूमती रहती है। कभी-कभी जब ख़ामोशी का दौर टूटता है तो बहुत गंद बकती है,
गालियां देते नहीं थकती, मुहल्ले के बच्चे, बड़े भी डरते हैं इससे। सॉरी, मैं इसे
छोड़ कर आता हूँ। फिर हम खुल कर बातें करेंगे।
तीसरी आवाज़ –
मुझे मछलियों से बहुत सड़ांध आती है। यह बदबू भीतर तक समा जाती है। इस पार से
मैंने अपना खानदानी पेशा छोड़कर ये भुट्टे बेचने का काम शुरु किया। इसमें मुश्किलें
तो बहुत हैं। दिक्कतें तो मछलियाँ पकड़ने वाले काम में भी बहुत होती हैं। कितना
अजीब सा लगता है कि आप शैदाईयों की तरह सारा-सारा दिन जाल फेंकते रहो, कब कोई मछली
आपके हत्थे चढ़े और फिर........ भुट्टे जैसे- तैसे बिक ही जाते हैं। मछली बेचना
जोखिम भरा काम है। इसमें जो बड़े व्यवसायी हमसे जुड़े हैं वे बहुत घपले करते हैं
और जगह-जगह डंडी मारते हैं साले। ये सभी बाहर-भीतर एक जैसे हैं।
चौथी आवाज़ –
यहाँ किसी को मौत का डर नहीं है। यह तो एक होनी है जो होकर रहेगी। यहाँ जिसका ज़ोर चलता है वही
प्रधान है। आज आप हैं, कल कोई और है। सरकार अब यहाँ क्य़ा क्या करे? जब
यहाँ के लोग ही अमन नहीं चाहते।
अंतिम आवाज़ –
न जी न.....यह बात तो झूठ है कि यहाँ के बाशिंदे अमन नहीं चाहते। अमन तो सभी
चाहते हैं परंतु यहाँ अमन इसी बात में है कि आप दिन-रात मेहनत करके कमाएं और फिर
अपना सारा रुपया-पैसा हफ्ते की भेंट चढ़ा दे। यहाँ जीने का भी टैक्स चुकाना पड़
रहा है लोगों को। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको हथियार उठाना पड़ेगा। अब आप अगर
हथियार नहीं उठाएंगे तो मुफ्त में बेगुनाह किसी दूसरे के हाथों मारे जाएंगे और अगर
उठाएंगे तो रेंजर्स और पुलिस आपको नहीं छोड़ेगी।
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आवाज़ें हैं कि आती जा रही हैं। पिता माँ को डाँट कर खुश हो रहा है, फूफी रसोई
में बैठी रो रही है, दादी चापराई पर पड़ी बार-बार खाँसे जा रही है। कोई बाहर का दरवाज़ा खोल रहा है, मुंडेर पर
पखेरू उड़ान भर रहे हैं, तेजी से जा रही रेल की आवाज़ भी शामिल हो गई है।
धीरे-धीरे कुछ अन्य आवाज़ें भी सर उठा रही हैं।
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लेखक परिचय
एजाज़
जन्म 25 फरवरी 1990 खरड़ियां वाला लायलपुर (फ़ैसलाबाद) पाकिस्तान में। जन्मजात शायर। छोटी उम्र में ही साहित्य जगत को तीन पुस्तकें भेंट। उनकी रचनाएं दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं। अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित। सरकारी डिग्री कालेज गुजरखान रावलपिंडी में प्रोफेसर। ऑनलाइन पत्र अनहद के साथ-साथ पंजाबी में प्रकाशित पत्र कुकनुस का संपादन-प्रकाशन।
अनुवादक परिचय
नीलम शर्मा ‘अंशु’
हिन्दी से पंजाबी, पंजाबी, बांग्ला से हिन्दी में अनेक साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र
लेखन। आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो इंडिया में रेडियो जॉकी।
विशेष उल्लेखनीय -
सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ वर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट
सेलर रही। कोलकाता के रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास ‘लाल बत्ती’ का हिन्दी अनुवाद।
संप्रति – केंद्रीय सरकार सेवा,
दिल्ली में कार्यरत।
साभार - अक्षर पर्व, मई 2017
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