पंजाबी कहानी (पश्चिमी पंजाब - पाकिस्तान से)।
बाजी
0 एजाज़
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
तब मेरी उम्र पाँच या सात
बरस रही होगी जब पहली बार अम्मी मुझे बाजी के पास पढ़ने के लिए उनके घर छोड़ने गई
थीं।
उसका नाम तो कुलसुम था परंतु
छोटे-बड़े सभी उसे बाजी ही कहते थे। हम ही नहीं बल्कि आस-पास की सभी छोटी, बड़ी,
अधेड़, युवा, शादीशुदा औरतें सबकी
वह बाजी ही थी। शायद इसी कारण कई बड़ी उम्र के विवाह योग्य लड़के-लड़कियाँ ही नहीं
बलकि कई शादीशुदा भी उसे बाजी ही कहा करते थे। वह उस दौर में हमारे गाँव की एकमात्र
ऐसी लड़की थी जो भी बी. ए. तक शिक्षित थी। हालांकि तब हमारे इधर लड़कियों को
बिलकुल भी स्कूल नहीं भेजा जाता था।
बाजी
के शागिर्द कम ही फेल होते। इसीलिए गाँव में बाजी के गुणों और शिक्षित होने की
चर्चा ज़्यादा थी।
माँ प्यार से मेरे बालों में
हाथ फिराते हुए कह रही थीं – ‘देख बेटी, मेरा एकमात्र बेटा है यह। मैँ इसे तुम्हारे पास
छोड़न आई हूँ, इसे अच्छी तरह पढ़ाना। तुम्हारी जो भी फीस होगी, मैं इलाही मुहर
दूंगी। रब करे यह पढ़-लिख कर बड़ा अफसर
बने, ताकि इसके पिता को राहत की साँस मिल सके। वह बेचारा अकेला कब तक.....’
‘आंटी, आप इसकी बिलकुल भी फिक्र न करें। मैँ आपको शिकायत का
मौका नहीं दूंगी।’ बाजी
ने अम्मी की बात बीच में काटते हुए कहा।
‘देखो बहन मुमताज़, यह तो बच्चों पर बहुत मेहनत करती है, अब
आगे बच्चे पर भी निर्भर करता है कि वह कितनी जल्दी इसकी बात को समझता है। इसने कौन
सा कुछ घोलकर पिलाना होता है। मेरा बेड़ा बेटा मीराह तो पढ़ाई में चलता ही नहीं था
परंतु जब से मैंने इसे इधर भेजना शुरु किया है अब तो गणित क्या अंग्रेजी भी फर्र-फर्र
पढ़-लिख लेता है।’ मेरी
हमउम्र अपनी भतीजी सदरा और छोटे बेटे वलीद की ख़ैर-ख़बर लेने आई नासिर की अम्मी मेरी
माँ को बाजी की खूबियां गिनवाने लगीं।
इतने में ही बाजी की छोटी बहन नीलम चाय और बिस्कुट ट्रे में
लिए हमारी तरफ बढ़ी। बाजी ने बड़े दुलार से मेरा दायां गाल थपथपा कर मुझे एक
बिस्कुट थमाते हुए सदरा के पास बोरे पर बैठने का इशारा किया।
धीरे-धीरे
मेरा बाजी के घर आना-जाना रोज़ का नियम बन गया। अब मैं पढ़ाई में पहले से तेज़ और
सबक जल्दी याद कर लेता था। धीरे-धीरे मेरी गिनती बाजी के चहेते और काबिल शागिर्दों
में होने लगी।
पहली,
दूसरी और तीसरी कक्षा में मेरी प्रथम श्रेणी पर रहने का सारा श्रेय बाजी को दिया
जा रहा था। माँ उसकी तारीफें करते न थकती। वह बाजी को दुआएं देतीं। उसकी काबिलियत
का गुणगान करते न थकती। मेरी हर कक्षा का परिणाम बढ़िया आने पर माँ मिठाई का एक
डिब्बा और एक सूट बाजी को ज़रूर देती। इसकी शायद एक वजह यह भी थी कि माँ जानती थी
कि इस तरह बाजी मेरे लाडले को और भी ध्यान ओर विशेष जतन से पढ़ाएगी।
यहीं
पर अपना स्कूली सबक रटते और याद करते हुए मैंने एक सबक और पढ़ा। वही सबक जिसे
पढ़ते समय कैश के हाथों पर उसके उस्ताद ने छड़ियां मारी थीं। और उसकी मार के निशान
मासूम लीला के तन पर पड़े थे। इस बारे में बात करते हुए हमारे गाँव का कॉमरेड चमन
लाल कहा करता – ‘यह तो
वह सबक है बीबा जो इन्सान को कब्र की दीवारों तक याद रहता है। इसी ने मौजू जाट के पुत्र
धीदो को झंग के सियालों की बेटी हीर के कारण राँझा बनने पर मजबूर कर दिया था। तभी
तो फिर वह कान पड़वा कर जोगी बन गया था। इसमें सफल होने वालों की संख्या बिलकुल ही
न के बराबर है जबकि असफल होने वालों की तादाद गिनने लायक भी नहीं।’ आपने ठीक अंदाज़ा लगाया है मैंने अपने अल्हड़ प्यार का सबक
भी बाजी के घर पर ही
रटा था।
यहाँ
पता नहीं कब, किस तरह, किस वक्त मेरी आँखें चार हुईं और मैं ज़िंदगी भर के लिए
ज़ख्मी हो कर रह गया। मुझे सदरा पहले दिन से ही भा गई थी। उसकी गोल-मटोल आँखें,
छोटे-छेटे हाथ, खूबसूरत होंठ, तीखी सी नाक, सेब जैसे लाल गाल। उसके बारे तो मैँ
निश्चित नहीं हूँ कि क्या मैं भी उसे अच्छा लगता था या नहीं।
जबकि
मुझे उसकी एक-एक
अदा, एक-एक हरकत, एक-एक शरारत बहुत अच्छी लगती थी तभी तो मैं रोज उसे अपने बोरे पर
बैठने देता था। वह अपनी कॉपी-पेंसिल लिखने-पढ़ने के लिए दे दिया करती थी। मैं भी
अगर घर से खाने की कोई चाज़ लेकर जाता तो बाक़ियों से छुपा कर उसे भी दे दिया
करता।
सदरा पढ़ने में होशियार नहीं
थी। इसलिए बाजी ने उसे मेरे पास एक बोरे पर बैठने को कहा और मुझे उसे रोज़ एक सबक
याद करवाने की ताक़ीद की। मेरे बहुत परिश्रम के बाद भी जब उसे सबक याद न होता तो
मैं शर्मिंदा हो जाता। पता नहीं क्यों मुझे उसकी पिटाई होते देख रोना आ जाता।
बाज़ी मुझे समझातीं, ‘लो
इसमें तुम्हारा क्या कसूर है झल्ला कहीं का.... ’
अपनी
काबिलियत और मामूली से हाज़िर दिमागी के चलते ज़रा विशेष और चहेते शागिर्दों में
से एक होने के कारण बाजी मुझे छुट्टी के बाद घर के काम-काज के लिए रोक लिया करती
थीं। मेरे हाथों चाचा शौक़ी की दुकान से सौदा-सुल्फ़ मंगवा लेना या कभी-कभार अपनी
दोस्त माछियों की लड़की समीरा से डायजेस्ट या अन्य किताबें मंगवाना। बाजी की छोटी
बहन नीलम भी अक्सर बाहर से मुझसे कुछ न कुछ मंगवाने को उतावली रहती। वह मुझे इमली,
सब्ज़ी या फिर सुर्खी पाउडर के लिए पैसे थमा देती। मैं उनके सारे काम बड़े शौंक से
जल्दी-जल्दी कर देता ताकि मैं उनके दिलों में और भी विशेष जगह बना सकूं। उनका
विश्वास और ज़्यादा जीत सकूं।
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एक दिन बाजी के घर में जश्न
का माहौल था। सर्दियों की छुट्टियों के बाद करीब आठ-दस दिनों बाद वहाँ पढ़ने जा
रहा था। इस दौरान मैं अपनी माँ के साथ ननिहाल गया हुआ था परंतु लौटने पर तो वहाँ
दस दिनों में दुनिया ही बदल गई थी। मैं बाजी के घर में काफ़ी बदलाव देख रहा था। उनके
पूरे घर की लिपाई की गई थी, बाहरी दरवाज़ा जिसे दीमक लगी थी, अब उसकी जगह नया
दरवाजा घर की शोभा में चार-चाँद लगा रहा था। खुरे की दीवार की जो ईंटे ढह गई थीँ,
उनकी भी मरम्मत कर दी गई थी। मवेशी जो अमूमन बाहर गली में बंधें रहते थे, आज बाहर
नही दिखाई दे रहे थे। पहले भी ईद या शबृ-ए बरात आदि त्योहारों पर उन्हें अपने ताऊ
की हवेली में बाँध देते थे। आँगन में ही नहीं बाहर बाज़ार में भी दरवाज़े के सामने
साफ-सफाई थी । मुझे कुछ ख़ास जानकारी नहीं थी कि यह बदलाव किस लिए किया गया था।
मैं इधर-उधर नज़र दौड़ा रहा था। मुझे ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों में से कोई भी नज़र
नहीं आ रहा था। मुझे आँगन में इस तरह हैरान खड़ा देख रसोई में काम कर रही बाज़ी की
छोटी बहन नीलम ने तुरंत कहा – ‘बाबू आज आप सबकी छुट्टी है। तुम्हें किसी ने बताया नहीं आज
हमारे घर कुछ ख़ास मेहमान आने वाले हैं।
छुट्टी
शब्द सुनते ही मानो मुझ में जान आ गई हो। मैं बाजी से मिले बिना ही घर लौट आया।
उसी
दिन शाम को पूरे इलाके में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई थी कि आज शाहकोट से जो
ख़ास मेहमान बाजी को देखने आए थे, वे उसकी छोटी बहन नीलम की हथेली पर शगुन धर गए
हैं। मेहमानों के बारे में यह भी बताया जा रहा था कि वे बड़े अमीर और शरीफ लोग हैं
तभी तो बाजी के पिता ने इतना शरीफ़ रिश्ता हाथ से निकल जाने के डर से उनके कहे की
लाज रख ली। और बाजी की जगह नीलम का हाथ उनके लड़के के हाथ में देने की ठानी।
यूं
जो मंगनी बाजी की होना थी, वह होते-होते रह गई और नीलम बाजी मार ले गई।
हम
सभी हैरान थे कि यह क्या हुआ ? उन्होंने मंगनी के साथ दिन भी तय कर लिया था। मेरी माँ
बाजी के लिए बहुत फ़िक्रमंद दिखाई दे रही थी। उसे उसकी सारी जमा पूंजी जो उसने इस
गाँव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर या फिर लोगों के कपड़े सिल कर इकट्और घुल-मिल
जाने वाले गुणों की मालिक बाजी आए दिन चिड़-चिड़ी, मुँहफट और बड़बोली क्यों होती
जा रही थी। नीलम की शादी के बाद पहले तो काफ़ी दिनों तक उसने ट्यूशन पढ़ाना छोड़
रखा था। फिर मुहल्ले की कुछ औरतों के कहने पर, जिनमें मेरी माँ भी शामिल थीं, वह
फिर से हमें पढ़ाने लगी।
हम
आए दिन बाजी के सर के सफेद बालों की संख्या बढ़ते देख रहे थे। जब कि उसकी आँखों के
गिर्द बन रहे घेरे और काले, गहरे होते जा रहे थे। मानो वह दिन-रात अपनी बहन नीलम
के विरह की आग की तपिश में जल रही हो।
बाजी
के चेहरे पर जहाँ आठों पहर हल्की सी मुस्कान और रौनक सजी रहती थी, अब उनकी जगह माथे पर त्योरी, बेरौनक
और उक्ताहट रोज़ का नियम बन गई थी। बाजी जिसने कभी किसी बच्चे को सबक न आने पर कान
पकड़ाने के सिवा कभी हाथ तक नहीं लगाया था, अब वह बच्चों के प्यार से समझाने की
बजाय खा जाने वाली निगाहों से देखती रहती। वह रोज़ किसी न किसी को पीट देती रही
है। बाजी बच्चों की छोटी-छोटी हरकतों और शरारतों से आग की लपटों की भाँति दहकती
रहती।
एक
दिन जब मैं अपने पास बैठी सदरा के पैर पर अपने हाथ में पकड़े तिनके से शरारत कर
रहा था और वह मस्त होती हुई अपने में सिमटती जा रही थी। मेरे दिल में उसे छूने की
ख्वाहिश जगी तो मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में ले प्यार करने लगा। बाजी ने मुझे
उसका हाथ चूमते देख लिया।। इस से पहले कि वह मुझसे कोई पूछ-ताछ करती, उसने मुझे
पीटना शुरू कर दिया। उस दिन के बाद सदरा
अपना अलग बोरा लाकर बाजी के पास ही बैठने लगी। मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था
कि काश मैंने ऐसा न किया होता तो शायद सदरा उस तरह मुझसे अलग होकर न बैठती। भीतर
ही भीतर कहीं टीस सी उठती और मैं कुढ़ने लगता। मैंने कभी सोचा भी न था कि वह इस
तरह बाजी के पास बैठा करेगी और मैं उसके पास बैठने के लिए, उससे कोई बात करने के
लिए भी इतना तरस जाऊंगा।
नीलम
के जाने के बाद कुछ भी पहले जैसा न था। बलकि धीरे-धीरे कितना कुछ बदल गया था। इस
बदलाव में बाजी के सर के सफेद बालों की बढ़ रही संख्या के अलावा उसकी तबीयत में
चिड़चिड़ापन, कड़वाहट और बैरौनकी भी शामिल थी। दूसरी तरफ मेरे और सदरा के जुस्सों
के उतार-चढ़ाव में भी आश्चर्यजनक बदलाव हो रहा था।
सदरा
बाजी की निकटता और शफ़कत का भरपूर फ़ायदा उठा कर पहले से अधिक लायक, हाज़िर दिमाग,
तेज और होशियार होती चली जा रही थी जबकि मैं आए दिन और भी नालायक, सुस्त और
भुलक्कड़ बनता जा रहा था। मैं यूं ही हर वक्त सदरा के सीने में उठ रहे तूफान के
बारे घंटों सोचता रहता था कि आख़िर आजकल वह क्या खा रही है जिस कारण वह हर दिन और
तेज़, चुस्त, चालाक, शोख और खूबसूरत होती जा रही थी। मैं जब भी उसकी तरफ प्यार भरी
निगाहों से निहारता, वह नाक-भौं सिकोड़ती मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरा करती।
वह मुझे इस तरह लगातार घूरते हुए मुँह में बड़बड़ाती रहती। एक-दो बार बाजी ने मेरी
हरकत पर गौर करते हुए कुछ न कहा, परंतु जब उसे मैं पीछे हटता न दिखा तो उसने मुझे
आड़े हाथों लिया - क्या बिटर-बिटर ताकते
रहते हो उसकी तरफ, बेशर्म कहीं के। कैसे आँखे फाड़-फाड़ कर देखता है। मेरे बेइज्ज़ती
पर सदरा मन ही मन खुश हो रही होती, शायद वह भी यही चाहती थी कि बाजी मुझे इस तरह
देखने पर डांटे क्योंकि अब मैं न तो बाजी के किसी काम का रह गया था और न ही सदरा के। अब मैं बाजी के चहेते शागिर्दों
में नहीं रहा था और न ही बाजी मुझे छुट्टी के बाद घर के कामों के लिए रोकती थी।
पहले-पहल
मुझे लगा कि मैं लड़का हूँ और सदरा लड़की, शायद इसी लिए बाजी अब उसे ज़्यादा और
मुझे कम पसंद करने लगी है। परंतु कभी-कभी मुझे अपने और सदरा के जिस्मों में बढ़
रहे बदलावों को लेकर तरह-तरह के ख़याल आते रहे हैं।
उन दिनों गर्मियों की
छुट्टियों में मैं ननिहाल जाने के लिए माँ के कहने पर बाजी को बताने गया था। उनके
घर जाते समय सदरा को भी उधर जाते देखा। मैं कुछ देर के ले बाहर गली में रीछ का
तमाशा धेकने के लिए रुक गया था परंतु तुरंत ही मैं वहाँ से बाजी के घर चला गया।
उनके आँगन में मुझे कोई प्राणी नज़र नहीं आया तो मैं बाजी के कमरे की तरफ बढ़ा। मैं
असमंजस में था कि अभी तो मैंने सदरा को इधर आते देखा था, और अब वह किधर गायब हो गई
थी। वह मुझे अभी दुबारा नज़र नहीं आई थी। मैं चुप-चाप आगे बढ़ा तो मुझे बरामदे में
बाजी के कमरे में से खुसर-पुसर की आवाज़ सुनाई दी, ज़रा पास गया तो मुझे किसी के
सिसकने, आह भरने की आवाज़ सुनाई दी। मैं वहीं खड़ा हो गया।
आगे
बढ़ कर मैंने उस कमरे की खिड़की से सटकर झिर्रियों में भीतर देखने की ठानी। यह
देखने के बाद एक मुँहज़ोर साँप मेरे भीतर फुफकारता हुआ मुझे दिनों-दिन आवारगी,
पागलपन और नालायकी के बहाव में बहाए लिए जा रहा था।
साभार - वांग्मय (अलीगढ़ से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका, जनवरी-मार्च - 2018)।
संपादक - डॉ. एम. फ़िरोज़ अहमद
***
लेखक परिचय
एजाज़ - जन्म 25 फरवरी 1990 खरड़ियां वाला लायलपुर (फ़ैसलाबाद) पाकिस्तान में। जन्मजात
शायर। छोटी उम्र में ही साहित्य जगत को तीन पुस्तकें भेंट। उनकी रचनाएं दोनों
पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं। अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित। सरकारी
डिग्री कालेज गुज्जरखान रावलपिंडी में प्रोफेसर। ऑनलाइन पत्र अनहद के साथ-साथ पंजाबी
में प्रकाशित पत्र कुकनुस का संपादन-प्रकाशन।
नीलम शर्मा ‘अंशु’ - हिन्दी से पंजाबी, पंजाबी, बांग्ला से हिन्दी में अनेक साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र
लेखन। आकाशवाणी दिल्ली एफ. एम. रेनबो इंडिया में रेडियो जॉकी।
विशेष उल्लेखनीय -
सुष्मिता बंद्योपाध्याय लिखित ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ वर्ष 2002 के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट
सेलर रही। कोलकाता के रेड लाईट इलाके पर आधाऱित पंजाबी उपन्यास ‘लाल बत्ती’ का हिन्दी अनुवाद।
संप्रति – केंद्रीय सरकार सेवा, दिल्ली में कार्यरत।
नीलम शर्मा अंशु ने पाकिस्तान के युवा पंजाबी लेखक एजाज की कहानी ‘बाजी”का अनुवाद इतनी खूबसूरती से किया है कि मूल कहानी जैसा ही आनंद आता है. इस कहानी में नायक का स्वाभाविक प्रेम उस समय कैसे उसे आवारगी और पागलपन की ओर ले जाता है ,जब बाजी और उसकी प्रेमिका सदरा को वह समलैंगिकता की गिरफ्त में देखता है .वैसे इस घटना को लेखक ने बड़ी ख़ूबसूरती से अंजाम दिया है .
जवाब देंहटाएंइस कहानी ने पाकिस्तानी पंजाबी लेखकों तथा वांग्मय के ऐसे विशेषांक को पढ़ने की हसरत जगा दी है .
ऐजाज को,नीलम को तथा वांगमय की पूरी टीम को मेरी आन्तरिक बधाई और शुभकामनायें …
# रावेल पुष्प, कोलकाता.