पंजाबी कहानी
गढ़ी पठाणां 0 अजमेर सिद्धु
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
ज्येष्ठ माह की तपती दोपहर।
मैं ठेके पर
नौकर को बिठा कर अपने घर जा रहा था। जैसे ही मैं गढ़ी (छोटा किला) के पास से
गुज़रा, चार-पाँच
खूबसूरत युवतियां बन-संवर कर खड़ी थीं। मैंने बाद में देखा, उनके चेहरे बुर्कों से
ढके हुए थे। जैसे ही मैं उनके पास पहुँचा, उन्होंने बुर्के की जालीदार पट्टियां उठाईं और उन्हें
अपने सिर पर डाल लिया। मुझे ऐसा लगा मानों आसमां से परियां उतर आईं हों। मैं उनके
ज़रा और पास पहुँचा तो मुझे इत्र की खुशबू आई। यह खुशबू उनके भरपूर हुस्न की थी।
बुर्के के भीतर से भी, उनके गदराए बदन ने मेरी आँखों की मरुथलीय तृषा को मदमस्त कर दिया। मैं जी
भर कर उनकी तरफ देख भी नहीं पाया। मैंने अपनी गर्दन झुका ली। तेज़ी से चलता रहा। जैसे
ही उनके पास से गुज़रने लगा, एक युवती ने कटाक्ष के लहज़े में कहा -
“अरे हीरो! ज़रा
सर तो उठाईए।” मैं पहले ही घबरा गया था लेकिन डर के मारे खड़ा हो गया।
घबरा कर जब मैंने अपना मुँह उनकी तरफ घुमाया तो पहले वाली फिर बोली -
“हुज़ूर, कभी अपनी नशीली निगाहों से हम गुस्ताखों की तरफ भी देख लिया करें।” वे सभी खिलखिला
कर हँस पड़ीं।
“अल्लाह, की मार पड़े तुम पर, बेचारे को क्यों परेशान कर रही हो? जाईए! सरदार जी आप जाईए।” यह राबिया थी।
एक
दिन मैं ठेके के भीतर बैठा, ग्राहकों का इंतज़ार कर रहा था। पता ही न चला कि कब मैं अपने सामने लटके इश्तहार
वाली सुंदरी की प्यारी सी चितवन की तरफ खिंच गया। मुझे इसमें भी राबिया ही दिख रही
थी। सुबह ही कंपनी वाले इश्तहार लगा कर गए थे। इस ‘जाल’ से बाहर निकलने के लिए ठेके से बाहर निकल आया। इमली के
पेड़ की छाया में खड़ा हो गया और दूर तक निगाह दौड़ाई। बरखेड़ा के सौंदर्य और गंदगी
का संयोजन मेरी नज़रों के सामने था। ऊँचे तथा घने इमली और महुआ के पेड़ पंजाब के
शीशम का भ्रम दे रहे थे। जब बारिश के मौसम में ठेके के पास का नाला पानी से लबालब
बहता है, मुझे अपने गाँव चब्बेवाल का चो (पहाड़ी बरसाती नाला) याद आ जाता। बरसात
के दिनों में बरखेड़ा की काली मिट्टी फूल जाती। पिंडलियां इस कीचड़ में फंस जाती
है। पिता अक्सर कहते थे,
“यह मिट्टी सूख जाए तो लोहा, भीग जाए
तो गोहा (गोबर)।”
मैं
मिनट भर में पंजाब पहुँच जाता और मिनट में ही बरखेड़ा। दाना-पानी कहाँ खींच लाया? मैंने अपनी
तंद्रा को पंजाब और बरखेड़ा से अलग किया। सड़क की ओर चलते हुए, मैंने दिन – दहाड़े
हुस्न-परी के सपने देखने शुरू कर दिए। मैं अभी भी सपने में उसी सुंदरी से इश्क फ़रमा
ही रहा था, एक तेज आवाज़
ने मेरी तंद्रा भंग कर दी -
“बड़ी आपा ने
आपको घर पर बुलाया है।”
दस वर्षीया एक लड़की
मेरे सामने खड़ी थी, उस बच्ची की
बात सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया था। सबसे ज़्यादा घबराहट तो हर वक्त कड़ी नज़र रखने
वाली उसकी ताई बशीरा बेगम से थी। वह मुझे ज़्यादा ही कट्टर दिखाई देती थी। मैं न
हूँ, न हाँ कह पाया। उसी वक्त शराब लेने आए तीनों व्यक्ति हँस पड़े थे। उनकी हँसी
ने मेरी जान ही निकाल दी थी। सबसे पहले मैंने उन्हें बोतलें दीं। फिर मैं वापस बच्ची
के पास आ गया। मुझे ख़ामोश देख बच्ची ने फिर से वही शब्द दोहराए। मुझे उसका ठेके
के पास आना बहुत अजीब लगा।
‘अच्छा!’ मेरे मुँह से बस इतना ही निकला।
मेरी
हाँ सुनकर लड़की कुलाँचे मारती नौ - दो ग्यारह हो गई। मैं ठेके
के अंदर दाखिल हुआ और कुर्सी पर बैठ गया। उसी समय, दाढ़ी पर हाथ
फिराते हुए,
मेरे पिता भीतर आए। मैं उन्हें देखते ही सिकुड़ गया। वे अंधेरा
होने तक वहीं रहे और मुझे शराब बेचने का गुरुमंत्र बताते रहे। उनके रहते मैं ‘वहाँ’ से निकल जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। वैसे
भी मैं अभी जाने वाला नही था। बशीरा बेगम की आँखों की लाली से मैं डरता था और
मुन्ना पठान की राइफल सीधे सीने में धंसती थी। उस दिन ठेका बंद भी पिता जी ने ही
करवाया था। जब हम घर पहुँचे, तो मेरी माँ और
बहनें रसोई में रात के खाने की तैयारी में जुटी थीं। दादी पाठ करने में मशगूल थीं।
उन्होंने पाठ पूरा करने के बाद सबसे पहले मुझे गले लगाया। वो बशीरा बेगम भी मेरी
दादी जैसी क्यों नहीं बनतीं? यह सवाल मैंने अपनी दादी से मन ही मन पूछा था, पर
पिता जी की तरफ देख कर चुप हो गया था। दादी जी के पोथी सहेजने के बाद ही हमें खाना
मिला था।
खाने से याद आया, वह बच्ची अगले दिन फिर से ठेके के सामने बंद पड़ी दुकानों के पास आ धमकी थी। वह बहुत फुर्ती से इधर-उधर चक्कर काटने लगी। जब मैं उसके पास पहुँचा, तो उसने बड़े रौब से कहा - "सरदार जी, बड़ी आपा ने कहा है, अगर आप आज तशरीफ़ न लाए, तो वे आज भी खाना नहीं खाएंगी।"
उस वक्त ठेके
पर कोई ग्राहक नहीं था। नौकर भी घर चला गया था। वैसे मैं भीतर से पूरी तरह से डर
गया था, लेकिन बच्ची के सामने अपना डर नहीं ज़ाहिर होने दिया। सोच रहा था कहीं कल की
भाँति मेरे पिता जी न आ धमकें।
“ठीक है! मैं आज ज़रूर आऊंगा।” कहते हुए उसे
जल्दी से वहाँ से रवाना किया था।
वह चली गई, लेकिन उसके जाने के बाद मेरे लिए वहाँ वक्त गुज़ारना
मुश्किल हो गया था। यह राबिया की चचेरी बहन आशिया थी। हमारे ठेके से थोड़ी दूर
कस्बे की तरफ इन पठानों की अब्दाल नामक गढ़ी थी। यह गढ़ी दस - बारह एकड़ में फैली हुई
थी। चारों तरफ अकबरशाही ईंटों और चूने की चहारदीवार से घिरी हुई थी। चौड़ी चहारदीवार
दो-चार जगहों से टूटी हुई थी लेकिन टूटी जगहों को बेरी और अन्य झाड़-झंखाड़ ने ढक
रखा था। इस गढ़ी में पठानों के पच्चीस - तीस परिवार रहते थे। घर, मवेशियों के बाड़े और सब्जी की क्यारियां सब कुछ खुला – डुला
था। घने पेड़ों और फलदार वृक्षों के कारण यह जगह हरी-भरी लगती थी।
यह बरखेड़ा तब “सीहोर” जिले का एक
छोटा सा कस्बा हुआ करता था और भोपाल से सटा हुआ था। शायद पिता जी हमें पंजाब से
वहाँ कभी नहीं ले जाते अगर हमारे इलाके में इन्कलाबी नौजवानों की आतंकवादी गतिविधियां
तेज न होतीं। 60 के दशक के अंत में पंजाब के कॉलेजों में भी इन्क़लाब की गूंज शुरू
हो गई थी। अभी हमने उस समय माहिलपुर में कॉलेज जाना शुरू ही किया था। सौली वाले गोपी का
खाड़कू जत्था कॉलेज तथा पूरे इलाके में सक्रिय हो चुका था। हम में से कुछ कॉलजिएट
लड़के उनकी तरफ आकर्षित हो गए थे। पिता जी उस इलाके के एक जत्थेदार के रूप में जाने
जाते थे। उन्हें डर सताने लगा था कि कहीं मैं भी इस सशस्त्र आंदोलन से जुड़ कर
मारा न जाऊँ।
इस भय के कारण उन्होंने
भोपाल में मौसा जी से बात की। देश विभाजन से पूर्व, मौसा जी का परिवार सियालकोट जिले के नारोवाल तहसील के बद्दोमल्ली
गाँव में रहता था। मार-काट के दिनों में वे नारोवाल से सीधे भोपाल जा बसे। वहाँ वे
बुनाई का काम करते - करते कप
ड़ा व्यापारी बन गए। भोपाल में सरदारों के अच्छे - ख़ासे
व्यवसाय थे। उन्होंने बरखेड़ा और अहमदपुर में हमें दो शराब के ठेके दिलवा दिए। बना
- बनाया एक मकान भी खरीदवा दिया। मैंने वहाँ न जाने के बहुत बहाने बनाए परंतु मेरी
एक न चली। पिता जी बहुत कड़क मिजाज़ के थे। उन्होंने हर तरीका अपनाया। मैं उनके सामने
तो नहीं झुका लेकिन मुझे अपनी दादी जी की बात माननी पड़ी। पिता हम सबको वहाँ ले
गए। हमारे आस - पास सरदारों के और भी घर थे। पिता मुझे चब्बेवाल से इतनी दूर ले गए कि नवगठित
पार्टी से मेरी निकटता कैसे रहती? फिर तो पंजाब
मेरे लिए लाहौर से भी दूर हो गया था।
हमारा घर शहर
के भीतर था लेकिन यह अब्दाल गढ़ी बाहर की तरफ थी। हमारा ठेका गढ़ी से आगे था।
पठानों के खेत ठेके से काफ़ी आगे थे। चहारदीवारी के बाहर से यह गढ़ी एक पुराने किले
जैसी प्रतीत होती थी। इसके भीतर घूमते ऊँचे - लंबे पठानों से भय लगता था। राइफलें तो ये लोग ऐसे लिए घूमते जैसे सरहद पर
फौजी। उन दिनों मुन्ना पठान चार-पाँच लौंडों के साथ शिकार पर गया था तो वापसी में हमारे ठेके के
सामने आ रुका था।
“सरदार भाई! तीन बोतलें दे दो। आज हम कबाब के साथ नवाब
बनेंगे। तमाम कबीला आज दावत-ए-मुन्ना कबूल फरमाएगा।” उसने आस - पास
देखते हुए धीमे से कहा था। दरअसल गढ़ी के कुछ पठान चोरी - छिपे शराब पीते थे। कंधों पर टंगीं राइफलें
और हाथों में पकड़े शिकार से वह अपने कबीले का सरदार लग रहा था। उसके साथियों ने शराब
की बोतलें लेकर झोलों में छुपाई और चलते बने। यह राबिया के अब्बा थे।
उस दिन, परी जैसी जिस पठान
युवती की खूबसूरती सबसे ज़्यादा दिलकश लग रही थी - वह राबिया ही थी। मेरी राबिया! दमकता
गोरा रंग। मोटे गालों पर हल्की सी गुलाबी आभा। गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ। चाँद
सा चौड़ा माथा। अर्द्ध बिल्लौरी आँखें। सरु सा कद। बिल्कुल अपनी अम्मी बशीरा जैसी। मेरे मन में
समाई प्रतिमूर्ति सी। “अल्लाह की मार पड़े तुम पर, बेचारे....” सुनकर मैं तो
मर मिटा था। वह मुझे हर दूसरे - तीसरे दिन ‘दीदार’ करवाने लगी।
लगभग एक ही समय वह आती और मेरे नयनों की प्यास शांत कर जाती। जैसे ही मैं पैसों की
वसूली के लिए अब्दाल गढ़ी जाता तो संयोग से रबिया भी ऊँची ड्योढ़ी की दहलीज पर खड़ी होती। वह एक टक
मुझे तकती रहती। कई बार पास से गुज़रते समय मैं घबरा जाता। ख़ासतौर पर तब, जब बाज़ार
जाते समय उसकी अम्मी भी साथ होती। इस डर से ही मेरी नज़रें झुक जातीं। कई बार मैं
शेर बन जाता। मुँह पीछे घुमा-घुमा कर देखता रहता परंतु कुछ भी कहने की हिम्मत न
उसमें थी न ही मुझमें। यह तो अब उसने आशिया के मार्फत संदेसा भेज कर शुरूआत की थी।
बच्ची संदेसा
दे कर चली गई। मैं सोचने लगा कि राबिया के पास जाऊँ या नहीं। गढ़ी के पठानों के डील-डौल
और कंधे पर राइफलों के बारे में सोच बार-बार न में सिर हिलता रहा। राबिया के
भूखे-प्यासे होने का ख़याल आया तो मन पसीज गया। दादी की भाँति मैं हर रोज़ छत पर पंछियों
के लिए पानी रखता था और रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके डालता था। आख़िर ये पंछी
भी तो.... जाऊं या न जाऊं की उधेड़बुन में मन उलझा हुआ था। तब तक नौकर आया। मैंने
उसे ठेके पर बिठा कर गढ़ी में प्रवेश किया। गर्मी तो कहर ढा रही थी। आदमी तो क्या,
कोई कुत्ता या बिल्ली तक नज़र नहीं आ रहे थे। जैसे ही मैं सातवें घर के पास से
गुजरा, वह तुरंत गली में आ गई। मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
मेरा दिल धड़क रहा था। कहीं घर में अम्मी-अब्बा, भाई-भाभियां न
हों।
उनके बारे में सोचते हुए, मैं अंदर गया। कमरों की
दीवारें बहुत मोटी थीं और छत ज़रूरत से ज़्यादा ऊँची थी। कमरा बिलकुल ठंडा था। चारपाई
पर बैठते ही, कमरे की ठंडक ने तपते तन को राहत पहुँचाई। घड़े का पानी गटा-गट पी
गया। उसने भी पानी से मुँह सुच्चा किया।
“अजी हजूर! कितना
इंतज़ार करवाया आपने। हमारी नज़रें तो आपकी राहें तलाशती रहती थीं। आज परवरदिगार
के रहम – ओ – करम से आपके दीदार नसीब हुए हैं। आप ज़िंदगी हैं, मेरी साँसों की डोर।” उसने अपनी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं। और मैं डर
रहा था कहीं कोई आ न जाए।
“कहाँ गए सब लोग?”
“वे सभी आगरा
में बुआ के घर निक़ाह पर तशरीफ़ ले गए हैं। दो रोज़ के बाद आएंगे। मैं आपसे जी भर
कर बातें करना चाहती हूँ।”
यह सुनकर मेरे
कलेजे में ठंड पड़ गई और मैं भय मुक्त होकर राबिया को निहारने लगा। वह शरारे में
बहुत जंच रही थी। नहीं तो मैंने उसे हमेशा
बुर्के में ही देखा था। जिस दिन जिन चार-पाँच लड़कियों ने मुझे घेरा था, मैं उसी पर लट्टु हुआ था। जिसे मैं अच्छी तरह देखने को
तरसा करता था, वह मेरे सामने बैठी थी। दूधिया शरारे में यह लड़की चाँद की किरणों जैसी
लग रही थी। यह लंबी सी, मोटी-मोटी आँखों और लरहाते काले बालों वाली मुझे सबसे ज़्यादा
आकर्षित कर रही थी। मैंने उसके बालों में हाथ फिराया था। ऐसा लगा मानो उसके अंग-अंग
में थिरकन पैदा हो गई हो। वह बिखरे हुए बालों में भी किसी पोर्टेट की भाँति सुंदर
प्रतीत हो रही थी। बिलकुल वैसी ही जैसे ठेके पर लगे इश्तहार वाले मनमोहक चेहरे।
वह पाँच - सात मिनट मेरे पास बैठती थी, फिर खाने - पीने
के लिए कुछ न कुछ उठा लाती। मानो मैं सदियों से भूखा - प्यासा होऊँ। हम ऐसे बातें
कर रहे थे जैसे कि हम जन्म-जन्मांतरों से परिचित हों। मैं जीवन में पहली बार किसी युवती
को इतने करीब से देख रहा था।
“क्या हम फिर
मिल सकते हैं?”
चलते समय मैंने धीमे से पूछा था।
उसने न में सिर
हिलाया। पल भर के लिए नकली गुस्सा भी दिखाया। फिर खुल कर हँस पड़ी। उसने फिर से
आने का वादा लिया। चलते समय घर के सभी कमरे दिखाए। एक तरफ उसके भाई - भाभियों राशिद
मोहम्मद - लाडो बेगम और चाँद मियां - शबीना बेगम के कमरे थे। ये मुख्य दरवाज़े के
सामने थे। ये नए बने थे। दोनों माँ और बेटी दूसरी तरफ पुराने कमरों में ही सोती
थीं। राबिया का अपना अलग कमरा था। इसका छोटा दरवाज़ा खेत की तरफ खुलता था। उसकी अम्मी
बशीरा बेगम का कमरा बिलकुल साथ ही था। उसके पिता मुन्ना पठान ज़्यादातर खेत में ही
सोते थे। कभी - कभार अम्मा के कमरे की शोभा बढ़ाते थे।
“जिस दिन मुझे
आपसे मिलना होगा, आशिया को ठेके
पर भेज दूंगी। आप उस रात खेतों की तरफ से आ जाना। मैं कुंडी खोल दूंगी।” राबिया ने मासूमियत से मुझे चलते समय बताया था।
हाँ, फिर ऐसा ही होने लगा। पठानों की एक टोली जंगल में शिकार खेलने
जाती थी। वे तीन - तीन चार - चार दिनों तक वापस नहीं आते थे। मुन्ना पठान, राशिद मोहम्मद, चाँद मियां तो
शिकार पर जाते ही रहते थे। उन्हीं दिनों मेरा वहाँ जाने का दाव लगता था। मैं ठेके
से उठकर वहाँ चला जाता था। वह मेरा इंतज़ार
कर रही होती। उसके पास प्रेम – मुहब्बत की बातों का भंडार होता। उसकी बातें न
ख़त्म होतीं,
रात ख़त्म हो जाती। उसका चेहरा जितना खूबसूरत था, उसका तन उससे भी आगे....झिल-मिल करता। उसके अंगों की
गोलाईयां देखकर मैं उत्तेजित हो जाता, बेकाबू हो
जाता। जैसे ही मेरा हाथ उसके गले पर जाता, वह मेरा हाथ
पकड़ लेती और बहुत विनम्रता से कहती -
“नहीं, हुजूर! अभी नहीं। यह मेरी पाक मुहब्बत है। आपके साथ
निक़ाह तक पाक ही रहेगी।” ये शब्द उसके
भीतर की गहराई से निकलते, लेकिन मैं
तड़पता रह जाता। अंतत: मेरा शरीर बर्फ सा ठंडा पड़ जाता। हाथों की हरकत
रुक जाती। पास बैठकर उसकी खूबसूरती का रसास्वादन करने लगता।
वह रोज़े रखती।
दिन में पाँच वक्त नमाज़ पढ़ती। जिस रात मैं उसके साथ होता, कई बार वह ईशा वाली नमाज़ न पढ़ती। मैं उसे नमाज न पढ़ने
पर सवाल करता। वह मेरे होठों को चूम लेती- “जब आप मेरे
मुरशद मेरे पास हैं तो मैं नमाज़ क्यों पढूं?। आप ही नमाज़
हैं, आप ही मुरशद हैं।”
उसने
किसी स्कूल या मरदसे से पढ़ाई नहीं की थी। मौलवी घर आ कर ही बच्चों को उर्दू सिखा
देता था। वैसे भी पठानों में लड़कियों को स्कूल या मदरसे भेजना बुरा समझा जाता था।
वह उर्दू इतनी अच्छी बोलती थी कि मैं उसका मुँह देखता रह जाता। वह हर काम में बहुत
सुघड़ थी। उसके बनाए कबाब आज भी याद हैं। कई बार गर्म-गर्म कबाब का मीट ठेके पर आशिया
के हाथों भिजवा देती थी। वह हर तरह का गोश्त बनाने में माहिर थी। उसके घर में
ज़्यादातर जंगली जानवरों का ही गोश्त बनता था। दरवाज़े के भीतर पाँव रखते ही
मसालों से भुने मुर्गे और तीतरों की खुशबू आ जाती।
“अब पता चला
आपकी अच्छी सेहत और खूबसूरती का राज़।”
एक दिन मैंने उसकी ठुड्डी से
छेड़खानी करते हुए कहा।
“अजी छोड़िए। यह तो आपके आने से चेहरे पर रंगत आ जाती है,
वर्ना हम तो.....” उसने मुझे
आलिंगन कर लिया था। लालटेन की रोशनी में उसका चेहरा चाँद सा चमकता।
“पहले कुछ खा
लीजिए।” मेज़ पर कबाब रखते हुए उसने कहा। मैं चटनी लगा कर आधा
कबाब दाँतों से काट कर खुद खाता, बाकी बचा उसके मुँह में डाल देता।
“आपके घर में
कभी दाल-सब्ज़ी भी बनती है?” मैं पूछता।
“जिस दिन आप नहीं आते।” वह हँस पड़ी।
इनके घर की
बेटियां - बहुएं राबिया की भाँति खूबसूरत थीं। पके सेबों जैसे उनके रंग के सामने संध्या
के सूरज की लाली भी फीकी पड़ जाती। मोटी-मोटी बिल्लौरी आँखें सब का मन मोह लेती
परंतु गढ़ी की कोई भी बेटी और बहू बशीरा से ज़्यादा खूबसूरत नहीं थीं। बशीरा
राबिया की बड़ी बहन समान दिखती। उन्हें देख कर ऐसा लगता मानो सहेलियां जा रही हों।
राबिया के घर पर मुझे सिर्फ़ उसकी अम्मी से डर लगता। उसके अब्बा से मेरे सामना
यदा-कदा ही होता। हाँ, उसके भाई ज़रूर मुझसे बात करते। बड़ा चाँद मियां जब कभी - कभार
ठेके पर आता तो मेरे पास बैठ भी जाता। वह शिकार के किस्से बढ़ा-चढ़ा कर सुनाता। वह
इतना बातूनी था कि उसने मुझे भी पटा लिया। मैं भी कभी - कभी उसके साथ शिकार खेलने
चला जाता। दिन के वक्त मेरा उनके घर जाना पठानों के लिए अजीब नहीं था। मैं चाँद
मियां, रशीद मुहम्मद तथा अन्य पठानों के घर शराब पहुँचाने जाता ही रहता था। वे
गुप्त रूप से बोतलें घर पर ही मंगवा लेते थे। गढ़ी के कुत्ते भी मेरे वाकिफ़ हो गए
थे। राबिया ने घर के कुत्ते को भी मेरे बारे में समझा दिया था। अब मुझे इनसे डर
नहीं लगता था और अम्मी......
वैसे ते सभी
पठानों का हिंदुओं और सिक्खों से मेल-जोल तो था परंतु अम्मी सरदारों की महिलाओं से
बहुत घुल-मिल जाती थी। वे अक्सर घरों में फेरा मार जाती थी। पीछे ये हमारे ‘बार’ (पाकिस्तान का एक इलाक़ा) की निकलीं। दादी
अम्मा इनके पड़ोस में दूध लेने जाती थीं। वहीं से बशीरा से नाता ढूँढ लाई थीं।
दादी ने घर लौट कर पिताजी को बताया –
“मुन्ने पठाऩ की
घर वाली बशीरा बेगम भी हमारी बहावलपुर रियासत से है। चक्क नंबर 319 एच आर बताती
है। मैंने कहा, हम 74 एच आर से हैं। यह सुनकर फूली न समाई।”
“कहाँ मध्य प्रदेश का बरखेड़ा और कहाँ बहावलपुर? ये कैसे इतनी दूर ब्याहने चले गए ?” पिता जी के माथे पर त्योरी आ गई।
“कह रही थी भोपाल और बरखेड़े के पठान उधर ऊँटों पर मेवे
बेचने जाते थे।” जिनसे मैं दूध
लाती हूँ वह भी कह रही थी कि हमारी नारोवाल और सियालकोट में भी रिश्तेदारियां थीं। कोई बीच में नज़दीकी रास्ता होगा।
दूध लाने गई
दादी को बशीरा अपने घर ले जाती। इन्होंने मवेशी भी रखे हुए थे परंतु दूध नहीं
बेचते थे। दादी बताती थीं कि इन्होंने कारोबार के दम पर बहुत ज़मीन बना रखी है।
गुज़र आसानी से हो जाती थी। बशीरा दादी माँ को कभी - कभार लस्सी का डोलू भी भर कर दे देती थी। मक्खन
भी डाल देती उसमें। कभी - कभी साग, गाजर, मूली, शलगम, दालें भी दे देतीं। फिर दादी
बीमार हो गई। मेरी माँ जाने लगी। वे ज़रा शर्मीले स्वभाव की हैं, किसी के घर
ज़्यादा नहीं जातीं।
बशीरा अन्य सिक्खों के घरों में भी आती - जाती रहती थीं परंतु अचानक हमारे घर आना छोड़ दिया था। पता नहीं पिताजी न कुछ कह दिया हो या कोई और बात हो गई हो। उनके परिवार के बाकी सदस्य पहले की भाँति ही मिलते थे परंतु अब अम्मी के दर्शन रास्ते में ही होते। वे मेरी तरफ कनखियों से देखतीं तो कभी मुझे उनकी नज़रों में बेपनाह अपनत्व दिखाई देता तो कभी उदासी। राबिया के साथ जाते हुए कभी सीधे देखती रहतीं। मैं सोचता, कहीं अम्मी शक न करती हों। शायद इसी कारण हमारे घर से मेल - जोल कम कर दिया हो। उनका और राबिया का कमरा साथ - साथ था। जब मैं भीतर राबिया के पास होता तो मुझे अम्मी के उठने का ख़तरा बना रहता परंतु राबिया बिलकुल न घबराती। वह हँस कर कहती-
“जानेमन बेफ़िक्र रहो। अम्मी को मैं खूब दूध पिला देती हूँ। जगाने पर ही उठेंगी।”
राबिया की बात मुझे हज़्म न होती। साथ वाले कमरे में थोड़ी सी भी आवाज़ होती तो मैं फट से संभल जाता। कई बार उनके उठने की आवाज़ होती, मैं चारपाई के नीचे छुप जाता। वे गुसलखाने की तरफ जातीं, राबिया के कमरे की तरफ एक निगाह डालतीं। गुसलखाने से वापस लौट फिर चारपाई पर लेट जातीं और खर्राटे मारने लगतीं। मैं और राबिया प्यार में मदमस्त, एक-दूसरे की बाँहों में समा जाते। बेसुध किसी अलग ही दुनिया में। कई बार मुझे अंधेरे में कुछ दिखता। मैं सिकुड़ जाता। मेरी साँस भी रुक-रुक सी जाती। साया गायब हो जाता। राबिया हँसने लगती। मुझे संदेह होता कि माँ-बेटी आपस में मिली हुई हैं। यह सब कुछ दोनों की मिली - भगत से हो रहा है परंतु राबिया ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया। जहाँ मैं अम्मी से डरता वहीं राबिया बेपरवाह होकर मिलती। सारी - सारी रात उसकी प्रेम - कहानियां ख़त्म न होतीं। मैं उठ कर जाने लगता, वह ठेके की चाबियां छीन लेती। फिर एक दिन उसने अपने दिल की बात कह दी –
“मेरे साथ निकाह करोगे ?”
“तुम्हारे अब्बा मान जाएंगे ?” मैंने सवाल किया।
“गोली मार देंगे मगर निकाह नहीं करेंगे। हम घर से भाग कर निकाह करेंगे।” वह मेरे हाथ सहलाने लगी।
“तुम्हारी अम्मी मान जाएंगी ?”
“हाँ, मुझे यकीन है कि वे हमारा साथ देंगी।”
पर मुझे यकीन था कि वे नहीं मानेंगी। वे ज़रूर रोड़ा बनेंगी। कई बार वह कहती कि भाभियों के मार्फत भाईयों को मना लेगी परंतु मुझे पता था पठान पुत्तर कहाँ मानने वाले थे। किसी काफ़िर के घर अपनी बहन का निकाह ? तौबा......तौबा.... ! वे खून की नदियां बहा देंगें। लाशों के ढेर लगा देंगे। ये तो अपनी इज़्जत की ख़ातिर........!
इन्हीं दिनों इसके ताऊ जी की बेटी अफ़साना के निक़ाह का मामला उठा था। गुज्जर मुस्लिम लड़का उससे निक़ाह करना चाहता था। पठान मुस्लिमों को पसंद नहीं करते थे। वे नहीं मानें। गुज्जरों की एक टोली पठानों की गैर-मौजूदगी में अफ़साना को उठाने आ गई। राबिया की ताई और अम्मी लट्ठ लेकर खड़ी हो गईं। गुज्जरों की आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई। अगर ये लोग अपने मज़हब के लोगों में रिश्ते के लिए नहीं मानें तो फिर सिक्ख पृष्ठभूमि वाले के लिए क्यों मानेंगे ? हर बार मिलने पर यही सवाल मैं राबिया से ज़रूर करता। उसने भी कभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था परंतु मैं....
उस रात मैं राबिया के साथ सो रहा था। मुझे कोई सुध नहीं थी। अम्मी दबे पाँव राबिया के कमरे में आईं और गरज़ उठीं -
“हम पठान लोग हैं। तेरे जैसे काफ़िर को..... इतना कह कर उन्होंने मेरे सीने में खंजर घोंप दिया। मेरी चीख निकल गई। राबिया ने मेरे मुँह पर हाथ रखा। मुझे काफ़ी देर कुछ पता न चला। मेरी आँखों ने चारों तरफ हरकत की। कहीं भी अम्मी नहीं थीं और न ही सीने से खून का फ़व्वारा निकल रहा था। राबिया मेरा सीना दबा रही थी। उसने ही मुझे भयानक सपने से निकाला था।
“मेरी जान क्यों डरतो हो? मैं आपके पास हूँ न।” उस दिन तो उसने बचा लिया था परंतु ऐसे सपने मुझे अक्सर आने लगे। मैं उसके पास जाने से कन्नी काटने लगा। अगर न जाता तो वह मुँह फुला लेती। उसका प्यार खींच कर ले जाता। दूसरी तरफ अम्मी की आँखों में लाल-लाल डोरे उतरे दिखाई देते। राबिया मेरे माथे पर हाथ मारती। पता नहीं वह किस मिट्टी की बनी थी, डर उसके आस-पास भी नज़र नहीं आता था। उसे यकीन था कि उसकी पढ़ीं नमाज़ें अल्लाह पाक की दरगाह में अपना असर ज़रूर दिखाएंगी। अल्लाह हमारी मुहब्बत को ज़रूर परवान चढ़ाएगा।
फिर मैं अपने घरवालों के बारे सोचने लगता। क्या वे हमारे इस रुहानी रिश्ते को स्वीकार करेंगे ? मेरे पिताजी का इन्कार में सर हिलता प्रतीत होता। जब मैं और मेरी दोनों बहनें छोटे थे, पिताजी सिक्ख इतिहास के शहीदी साके सुनाते। वे मुसलमानों के अत्याचार को आँखों के समक्ष साकार कर देते थे। “ज़ालिमों ने गुरु अर्जुन देव जी को गर्म तवी पर बिठाया। नीचे आग जलाई। सर पर गर्म रेत डालने लगे परंतु हमारे सच्चे पातशाह तनिक भी विचलित नहीं हुए। हँस - हँस कर कुर्बान हो गए।” गुरु तेग बहादुर जी का शीश बलिदान करने और बंद - बंद कटवाने का इतिहास सुन कर हमारी आँखों से लहू उतर आता। मेरा क्रोध से खून खौल उठता। जी चाहता, कृपाण लेकर जाऊँ। मुसलमानों के टुकड़े-टुकड़े कर आऊँ। मेरी आँखों की लाली देख मेरी दादी मुझे शांत करती - “पुत्तर ! ये तो मुगल बादशाहों के कारनामे थे। राज करने वाले हिंदु हो, सिक्ख हों, मुसलमान हो या गोरे क्या फर्क़ पड़ता है ? ये तो लोगों पर जुल्म करते ही हैं। बेचारे आम मुसलमान तो हमारी तरह दु:ख भोगते थे। हमारी तरह गरीब थे। चौधरी करम इलाही और उसके बेटे भी तो मुसलमान थे। दंगों के समय अपनी जान पर खेल कर हमारे परिवार को बचाया। उन्हीं के कारण हम बहावलपुर से चब्बेवाल पहुँच पाए थे। बस एक.....।” पिताजी क्रोध से उठकर बाहर चले जाते थे। दादी माँ अपना व्याख्यान जारी रखतीं - “काका ! जब गुरु गोबिंद सिंह जी को चमकौर साहब की जंग में से सिक्खों ने बच कर निकल जाने का हुक्म दे दिया, वे कई दिनों तक माछीवाड़े के जंगलों में विचरते रहे। वहाँ के दो शायर भाई थे – नबी खाँ और गनी खाँ। जब गुरु साहब को दुश्मन सेना तलाश रही थी, ये मुसलमान नौजवान उन्हें माछीवाड़े से सुरक्षित निकाल कर ले गए थे।”
पिताजी हमें मुगलों के अत्याचारों की कहानियां सुनाते रहते थे। दादी माँ साईं मियां मीर से लेकर साहबज़ादों के हक में नारा बुलंद करने वाले मलेरकोटले वाले नवाब शेर खान तक का इतिहास सुना देतीं। हम बच्चे दुविधा में पड़ जाते। यह दुविधा जब मैं कॉलेज गया, गोपी ने दूर की।
“मज़हब बने थे, अच्छी जीवन शिक्षा देने के लिए! ज़बर का मुकाबला करने के लिए। गरीब और मजलूम की रक्षा करने के लिए। और अब राज करने वाले सियासी दलों के पास मज़हब ही एक ऐसा हथियार है, जिसके ज़रिए वे लोगों को लड़वाते रहते हैं और खुद लोगों को लूटते रहते हैं।”
मेरे पिताजी ने हमें सिक्खों पर हुए अत्याचारों की इतनी कहानियां सुना रखीं थीं कि मैं कभी भी राबिया की तरफ मुँह न करता परंतु मैं तो पूरे का पूरा उसी का हो कर रह गया था। उसका तो मैं हो गया था परंतु पिताजी की तलवार और राबिया की अम्मी के खंजर मेरे पीछा न छोड़ते। मुझे उनके डरावने सपने आते। वे हाथों में तलवार और खंजर थामें खड़े थे। उनके एक तरफ मैं होता और दूसरी तरफ राबिया। वे हमारे बीच लकीर खींच देते, जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच वाघे की लकीर। मैं दादी के पास पिता जी के विरुद्ध बोल पड़ता। एक दिन मेरे केश संवारते हुए वे फफक पड़ीं –
“काका ! तुम्हारे बुजुर्ग सुख-शांति से पश्चिमी पंजाब में रहते थे। फिर सैंतालीस के दौरान दंगे हुए। इन्सान, इन्सान का दुश्मन बन गया। आदमियों को मूली-गाजर की भाँति काट डाला गया। लड़ॉकियों की इज़्जतें..... ऐसा तो रब किसी दुश्मन के साथ भी न होने दे।” दादी ने हाथ जोड़े।
“उस वक्त तुम्हारी जीतो बुआ युवा थी। उसकी शादी तय कर रखी थी। जंगल-पानी गई थी कि मुसलमान हमलावर उठा ले गए। मेरी बेटी को किसी ने नहीं बचाया। हम रोते - धोते खाली हाथ इधर आए थे।”
दादी ने आसमान जितनी लंबी आह भरी। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली थी। उसने फिर कहना शुरू किया –
“लगभग डेढ़ साल बाद मेरी बेटी को भारतीय फौज ढूँढ लाई थी। वहाँ किसी ने ज़बरदस्ती रख छोड़ा था। सारा परिवार दरवाज़े पर खड़ा था, जब मिलिट्री वाले उसे घर लेकर आए थे। वह गर्भवती थी। सहमी हुई वह पेट को छुपाए जाए । फौजी अफ़सर ने उसे हमारे सामने किया। तुम्हारा दादा शर-ए-आम उसे अपनी बेटी मानने से मुकर गया। बोला, वह तो वहीं मर गई थी।” काफ़ी देर तक दादी से आगे बोला न गया। वह खड़ी हिचकियां लेती रही।
“पर मिलिट्री वाले जीतो को गाँव में छोड़ गए थे। बेटा, उनका तो रोज़ का काम था। लुटी-पिटी बेटियों को माता-पिता स्वीकार नहीं करते थे। वह तीन दिनों तक गाँव में घूमती रही थी। मैंने तुम्हारे दादा के सामने बहुत हाथ-पाँव जोड़े। बहुत रोई-कुरलाई। गुरुओं का वास्ता दिया परंतु तुम्हारा दादा टस से मस न हुआ। अचानक वह गाँव से गायब हो गई और चौथे दिन टीलों में उसकी लाश मिली। बस संस्कार कर दिया। तब कोई पूछता नहीं था। उन बरसों में लाखों आभागिनें ख़त्म हुई होंगी। किसी ने भी भोग नहीं डाला था।” दादी विलाप करने लगी। जीतो बुआ की व्यथा सुन कर मेरा भी गला रूंध गया था। मैं भी रोने लगा। दादी मुझे चुप करवा रही थी, मैं उसे। इसके बाद ही मुझे मुसलमानों के प्रति पिताजी का रवैया समझ आया था।
“फिर पुत्तर, तेरे बाप ने भी गिन-गिन कर बदले लिए।” दादी ने शायद व्यंग्य में कहा था।
“बदले पता किससे लिए ? जो बेचारी मुसलमान लड़कियां तुम्हारी बुआ जैसी लाशें बनी हुई थीं, जिन्हें घर वालों ने अपनाने से इन्कार कर देना था। तेरे बाप ने कुछ हिंदु-सिक्खों को लेकर जत्था बना रखा था। यह जत्था लोगों की बहन-बेटियों को उठा लाता। उनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करते फिर उन्हें मार देते या बेच देते।” यह सुन कर मैं ज़मीन में धंसता जाऊँ। दादी मेरी हालत भाँप गई थी। उसने बात निपटाई-
“देश के बंटवारे से जुड़ी दु:खद घटनाओं का शिकार सब से ज़्यादा औरत ही हुई है। बेशक वह किसी भी मज़हब से संबंधित थी। बेटा औरत ही हमेशा पिसती है।”
मेरी दादी बहुत सयानी थी। वह बछौड़ी वाले स्वाधीनता संग्रामी बब्बर की बेटी थी। उसे सियासत और इतिहास का थोड़ा ज्ञान था। जब दंगों के समय बेटियों-बहनों के साथ हुई अनहोनियों की कहानियां सुनाती तो सारी-सारी रात नींद न आती। मैं रात को अधसोया सा होता, बुआ मेरे पायताने खड़ी होती। मुझे डरावने सपने आते। अगली रात फिर उसका साया दिखता। वह टीलों की तरफ दौड़ पड़ती। मैं बुआ के डरावने सपनों से बचने के लिए जल्दी-जल्दी राबिया की तरफ जाने लगा। वहाँ यह डर बना रहता, राबिया की माँ बशीरा बेगम पता नहीं कब खंजर निकाल लाए। मैं कभी उससे डर कर उठ बैठता, कभी बुआ और पिता जी से।
फिर मुझे बशीरा बेगम से डर लगना बंद हो गया।
....यह घटना अहमदपुर में घटी थी। हमारा दूसरा ठेका था वहाँ। घटना वाले दिन मैं इस ठेके पर ड्यूटी कर रहा था। दरअसल हमारे सारे इलाके में दिनों के हिसाब से बड़े गाँवों में हाट लगते थे। ये एक तरह के साप्ताहिक बाज़ार हुआ करते थे। इसमें दुकानदार शहरों से घोड़ों और बैलगाड़ियों पर रोज़मर्रा का सामान ढो कर लाते। किराने और मुनियारी वालों के अलग हाट होते। कपड़े वाले ग्राहकों को घेर-घेर कर कपड़ा बेचते थे। बकरे और मुर्गे काटने वालों की तरफ बहुत रौनक होती। इस रौनक के कारण शराब खूब बिकती थी। उस दिन पिता जी मुझे इस ठेके पर भेज देते। मैं और नौकर ग्राहकों को बोतले पकड़ा रहे थे। अचानक मीट वाली दुकानों की तरफ से हंगामा शुरू हो गया।
“ये मुहम्मद युनुस गौ माँस बेचता है, हमारा धर्म भ्रष्ट करता है। इनको आज सबक सिखाना है।” भीड़ में से कोई ऊँची - ऊँची आवाज़ में बोल रहा था। मुहम्मद युनुस और उसका साला इन्कार में सर हिला रहे थे और हाथ जोड़ कर खड़े थे। लोगों ने “हर हर महादेव” के जयकारे लगाने शुरू कर दिए। मुहम्मद युनुस और उसका साला डर कर दौड़ पड़े। किसी के हाथ में लट्ठ, किसी के त्रिशूल, कृपाण जो भी मिला, लेकर पीछा करने लगे। वे अपने घर की तरफ भागे थे। लोगों ने उनके दरवाज़े के बाहर ही उन्हें गिरा लिया। जब तक हम पहुँचे भीड़ ने उनका काम तमाम कर दिया था। मुझे नौकर ने बताया था, युनुस कभी गौ माँस नहीं बेचता था। यह सिर्फ़ अफ़वाह थी। उनको मार कर भीड़ ने उनके घर को घेर लिया था। मैं बाहें फैलाकर दरवाज़े के सामने खड़ा हो गया।
“इन पापियों का एक भी प्राणी नहीं बचना चाहिए।” कृपाण और त्रिशूल वाले हर हाल में भीतर प्रवेश करना चाहते थे। मैं दरवाज़े के सामने खड़े होकर उन्हें रोक रहा था परंतु भीड़ तो क़त्ल करने पर उतारू थी। मैंने अपने नौकर को आगे किया।
“मैं भी हिंदु हूँ! ये लोग ऐसा अनिष्ट नहीं करते।”
कुछ लोग पीछे हट गए। कुछ तीखे और जोशीले नौजवान आगे बढ़े, उन्होंने घर को आग लगा दी। वे आग लगा कर जयकारे लगाते हुए भाग गए। आग ने घर को लपेटे में ले लिया था। मैं भीतर गया। सारे सदस्यों को सुरक्षित निकाला और पड़ोसियों के घर पहुँचाया। मेरा नौकर तथा अन्य लोग बाल्टियों से आग पर पानी फेंक रहे थे। उन्होंने जल्दी ही आग पर काबू पा लिया। मैं जब युनुस के परिवार को छुपा कर बाहर निकला तो कुछ लोग मेरी दाद दे रहे थे। बशीरा बेगम भी उनमें शामिल थीं। वे आगे बढ़ीं। मेरे सर प्यार से हाथ फेरा और आलिंगन में ले लिया। उस रात मैं और राबिया फिर मिले। मैं रात को ठेके से सीधे उसके घर चला गया था। इधर राबिया मेरे बालों में हाथ फिरा रही थी। मैं उसके प्यार में मदहोश पड़ा था। उधर ठेके के पास से राजपूतों की बारात गुज़री। बेशक वे शराब से टुन्न थे परंतु ठेका देख कर उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया। नौकर जग गया परंतु वह शराब कैसे दे ? चाबियां मेरे पास थीं। वह तो आँगन वाले कमरे में सो रहा था।
मैं कौन सा उसे बता कर आया था। जब बाराती पीछे ही पड़ गए, तो वह घर चला आया। नौकर मुझे घर पर न पा कर हैरान - परेशान था और पिता जी मेरे ठेके पर न होने के कारण। वे चाबियों का दूसरा गुच्छा लेकर आए। बारातियों को बोतलें दे कर खुद भी वहीं सो गए। जब सुबह मुर्गें की बाँग पर मैं ठेके पर पहुँचा तो पिता जी को ठेके पर देख मेरे होश-ओ-हवास उड़ गए।
“काका, अवतार सिंह! अब तुम जवान हो गए हो। मैं कुछ नहीं कहूंगा। सच-सच बता दो, कहाँ से आ रहे हो इस समय ?” पिता जी की आँखें दहक रहीं थीं। मैंने अपनी और राबिया की सारी प्रेम कहानी पिता जी को सुना दी और अपना फैसला भी –
“पिता जी वह मेरे लिए बनी है और मैं उसके लिए। मैं उसी से शादी करूंगा ।”
“बेटा! वे लोग हमारा बिस्मिल्ला पढ़ देंगे। सारा बिजनेस तबाह हो जाएगा। तुम्हारी माँ, दादी, तुम्हारी बहनें दर-दर ठोकरें खाती फिरेंगी।” पिता जी गुस्से से भरे पड़े थे।
“पिता जी! कुछ नहीं होगा। मैं धर्म बदल लूंगा।”
“वाह बेटा, वाह! बलिहारी जाऊँ तुम्हारे। औरत की ख़ातिर धर्म बदले लोगे? हमारे गुरुओं ने धर्म की ख़ातिर अपने परिवार न्योछावर कर दिए। और तुम सिक्खी से बेमुख हो जाओगे?” पिताजी क्रोधित हो गए थे।
“पिताजी, तो फिर राबिया सिक्ख धर्म अपना लेगी।” मैंने राबिया की तरफ से हामी भरी।
“औरत के धर्म परिवर्तन से क्या होता है? बात तो आदमी की है। हमारे पिता कहा करते थे – औरत लाख धर्म बदल ले। वह अपनी जड़ों से कभी नहीं टूटती।” पिताजी अपने इस प्रवचन पर अड़ ही गए थे।
उन्होंने मेरा ठेके पर जाना बंद कर दिया। घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी थी। दादी, माँ और बहनें मुझे समझाती रहती थीं। मेरा ठेके पर जाने को मन करता परंतु वे मुझे जाने न देतीं। मैं अपनी राबिया के बगैर अधूरा था।
जब मुझे बंदी बने दो हफ्ते हो गए, राबिया की अम्मी हमारे घर आईं। लगता है बात गढ़ी तक भी पहुँच गई थी। मुझे लगा, अब पठान राबिया को मार डालेंगे या मुझे। मैंने मन ही मन मरने के लिए तैयारी कर ली थी। वह सीधे मेरी दादी के पास आईं। काफ़ी देर तक गिट-पिट करती रहीं। जाते समय बोलीं –
“अवतार मेरे साथ हमारे घर चलो। मुझे तुमसे कोई खसूसी बात करनी है।” मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं क्या करूं? उनके घर जाऊँ या नहीं? दादी माँ ने उनको न तो हाँ और न ही न कही। सिर्फ़ मुझसे कहा –
“बेटा तुम वहाँ मत जाना। बेगानों का क्या भरोसा? कोई अनहोनी न हो जाए।”
मुझे लग रहा था, वे घर ले जा कर शिकार की भाँति टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। पठानों के लिए आदमी झटकाना मामूली बात थी। क्या पता, उनके दिल में क्या था? बशीरा आई थीं। यहाँ भी बात कर सकती थीं। क्यों नहीं की? बस मुझे मारना होगा? वे तो मुझे घर आ कर भी मार सकते थे। हो सकता है, हम दोनों को इकट्ठे मारना हो। पठानों द्वारा मुझे और राबिया को मारने के अक्सर सपने आते रहते थे। मुझे लगा, आज यह सपना नहीं रहेगा। हक़ीक़त में बदल जाएगा। मैं ने न दादी जी की सुनी, न माँ की और न ही बहनों की। उन्होंने मुझे बहुत रोका। पिता जी का डर भी दिखाया परंतु मैं नहीं माना। मुझे बाहर निकलते देख, दादी माँ ने बाबा नानक की तस्वीर की तरफ हाथ जोड़े थे - “मेहरां वाले, बच्चे के सर पर हाथ रखना।”
मैं राबिया के घर की तरफ चल दिया। उस दिन भी भरी दोपहरी थी। मेरे पास से सी. आर. पी. एफ. की गाड़ियां गुज़रीं। उन्होंने आस-पास की तरफ राइफलें तान रखी थीं। सरकार ने देश में एमरजेंसी लगा दी थी। किसी को भी गोली मारी जा सकती थी। किसी को भी जेल में डाला जा सकता था। इन्क़लाबी कारिंदों के बलिदान के दिन आ गए थे। दिन दहाड़े मुझे पठान ही सी. आर. पी. एफ. वाले प्रतीत होने लगे। “ससुराल में ही मारेंगे।” देश में गोपी जैसे इन्कलाबी कारिंदे अपने इन्कलाब वाले मकसद के लिए कुर्बान हो गए थे।
मैंने भी राबिया की मुहब्बत की ख़ातिर खुद को मर मिटने के लिए तैयार किया। तेज़ कदमों से उनके घर की तरफ चला जा रहा था। ज्यों ही उनके घर के भीतर प्रवेश किया, मैं मकान के कोनों की तरफ देखने लगा। किसी कोने में भाला पड़ा था और किसी कोने में कुल्हाड़ी। दीवारों पर कृपाणें और राइफलें टंगी थीं। पहले कभी इन हथियारों की तरफ ध्यान नहीं गया था। तब मुझे वहाँ सिर्फ़ राबिया ही नज़र आती थी। परंतु उस दिन.....
मैंने सोचा, गोली नहीं मारेंगे। कृपाण या कुल्हाड़ी से सर काट देंगे। राबिया की अम्मी ने मेरा सर सहलाया और चारपाई पर बैठने का इशारा किया। मैं हक्का - बक्का रह गया। राबिया दूध का गिलास ले आई। मुझे लगा, बकरे की बलि से पहले उसे खिलाया-पिलाया जा रहा है। मुझे ज़्यादा गुस्सा राबिया पर आया। कितनी दगाबाज़ निकली। बुरे वक्त में यह भी अपनी माँ के साथ मिल गई। साली कमीनी साहिबा बनेगी। दिल में तूफान उठा हुआ था। इतना बड़ा धोखा ? पिता जी ठीक कहते थे – मुसलमानों पर यकीन नहीं करना चाहिए। दूध का घूंट भरने लगा था तो रुक गया। कहीं दूध में ही ज़हर न डाला हो। औरत जात का क्या भरोसा? ये शब्द मेरे मुँह में ही थे। बशीरा फुर्ती से कमरे के भीतर गई। मुझे लगा, मेरा काम तमाम करने वाली है परंतु वह कपड़े की मटमैली सी थैली ले आई। उसके दूसरे हाथ में बताशे थे।
“बेटा ! तुम राबिया से शादी कर लो।” पीढ़ी पर बैठते ही कहा। राबिया की अम्मी की बात सुन कर मेरा मुँह खुले का खुला रह गया। उनकी बात मुझे हज़्म नहीं हुई।
“हम सिक्ख हैं और आप मुसलमान। पिताजी कहते हैं, हो नहीं सकता।” मैंने डरते-डरते कहा।
“मुहब्बत में बहुत कुछ कुर्बान करना पड़ता है।” उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा था।
“मेरे पिता जी नहीं मानने वाले। वे कट्टर सिक्ख हैं।”
“तो तुम राबिया को लेकर भाग जाओ। तुम्हें तो पता है कि तुम्हारे बिना मेरी बच्ची का जीना आसां नहीं है।” वे भड़क उठीं थीं।
“आपके लोग हमें नहीं बख्शेंगे। खूनो - खून कर देंगे। हमारा सारा कारोबार उजाड़ देंगे।” पता नहीं क्यों मैं पिताजी की भाषा बोलने लगा।
“मेरी बच्ची को तुम किसी तरह भी महफूज़ कर लो। ये मेरी प्यारी बच्ची है। अगर ये मर गई तो मैं इसके गम में मर जाऊँगी। मैं औरत हो कर एक औरत के जज़्बातों को खूब समझती हूँ। तुम नहीं समझोगे। मर्द हो न!”
वे रोने लगीं। राबिया दौड़ कर उनके पास आई। वह उन्हें चुप करवाने लगी। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि अम्मी शादी की पेश-कश करेंगी। वे सिसकियां ले-ले कर रो रहीं थीं। राबिया दुपट्टे से उनके आँसू पोंछते जा रही थी, साथ ही पानी पिला रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? मैं तो मरने के लिए आया था। मैं पागलों की भाँति न में सर हिलाए जा रहा था। वे पीढ़ी से उठीं। मेरे हाथ पर हाथ रख कर धीमे से बोली -
“बेटा! मैं बशीरा बेगम नहीं हूँ। बख्शीश कौर हूँ।” मेरे लिए अचंभे वाली बात थी। राबिया सहजता से बैठी रही, जैसे उसे सब कुछ पहले ही पता हो। अम्मी धरती पर नज़रें टिकाए बताने लगीं –
“जब सैंतालीस के दंगे हुए, हमारा काफ़िला बहावलपुर के चक तीन सौ उन्नीस से बीकानेर के लिए चला था। हमारे ज़्यादातर सगे वहीं बैठे थे। अभी किला अब्बास ही पहुँचे थे कि काफ़िले पर हमला हो गया। मिनटों में ही धरती लहू-लुहान हो गई। औरतों ने चीखना - चिल्लाना शुरू कर दिया। मेरे सामने ही मेरा सारा परिवार क़त्ल कर दिया। मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। इसी अफ़रा - तफरी में मुझे कोई उठा कर ले गया। पता नहीं कितने लोगों ने मेरे साथ ज़्यादती की। फिर मुझ अधमरी को सड़क पर ही फेंक गए। मुझे तो रब ने भी नहीं उठाया।”
मैं और राबिया सिसकने लगे। मेरी आँखों के सामने टीलों में ठोकरे खातीं जीतो बुआ की लाश थी। बख्शीश कौर की आबरू लूटी जा रही थी। दादी के बहते आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। औरतों की छातियां काटी जा रही थीं। उनकी सिसकियां थीं, आहें थीं। वे लुट रही थीं और बख्शीश कौर.....
अम्मी की आँखों में आँसू थे। लाल - लाल डोरे थे। अठाइस साल पहले घटित यह घटना कितनी भयानक होगी ? एक औरत के आँसू अंगारे बन गए थे। मैंने अम्मी के कंधों पर हाथ रखा था। वे आह भर कर बोलीं –
“जब मुझे होश आई, मैं राबिया के अब्बा के कब्ज़े में थी। तब ये उधर कहीं मेवे खरीदने गए हुए थे।”
“अम्मी, अब्बा जान भी हमलावरों के साथ थे? ” मेरी उत्सुकता अम्मी का दु:ख जानने में थी।
“रब ही जाने। कुछ कह नहीं सकती। मुझे तो यह भी नहीं पता, हमारा निकाह भी हुआ था या नहीं। उस वक्त सारा परिवार एक ही बात कहता था – अल्लाह ताला ने छप्पर फाड़ कर दी है हूर परी।” उन्होंने आँखें पोंछी और हमसे मुखातिब होते हुए कहा -
“अगर मुझे बख्शीश कौर से बशीरा बेगम बनाया जा सकता है तो यह राबिया से रविदीप कौर नहीं बन सकती? तुम इससे शादी कर लो। मेरी जड़ फिर से अपने धर्म में लग जाए।”
उन्होंने थैली में से भूरा हो गया काले रंग का धागा निकाला। काले धागे में डली दो छोटी कृपाणें और ‘बुगतियां’ राबिया के गले में डाल दीं और बताशे मेरे हाथ पर रख दिए।
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*‘बुगतियां’ – महाराजा रंजीत सिंह के समय का पाँच रुपए मूल्य का सोने का सिक्का। इससे बना कंठाहार।
लेखक परिचय
अजमेर सिद्धु
पेशे से अध्यापक। पंजाबी के चिरपरिचित कथाकार। पंजाबी पत्रिका विज्ञान जोत के संपादक। पाँच कहानी संग्रह, पाँच संपदित पुस्तकें, तीन जीवनीमूलक पुस्तकों सहित विज्ञान दर्शन पर आधारित एक पुस्तक के रचयिता। पंजाबी की लगभग सभी श्रेष्ठ पत्रिकाओं में नियमित रचनाएं प्रकाशित। अनेक आलेख तथा कहानियां विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल, दोआबा के प्रसिद्ध गाँवों के इतिहास व 1947 के स्वाधीनता आंदोलन पर शोध। संत राम उदासी मेमोरियल ट्रस्ट के महा सचिव। विदेशों में अनेक साहित्य़क कार्यक्रमों में शिरकत।
पुरस्कार –
भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता युवा पुरस्कार, कुलवंत सिंह विर्क पुरस्कार,
मोहन सिंह मान पुरस्कार, भाई वीर सिंह गल्प पुरस्कार, बलराज साहनी पुरस्कार।
करतार सिंह धालीवाल नव प्रतिभा पुरस्कार। प्रिंसीपल सुजान सिंह उत्साहवर्धक पुरस्कार।
अमर सिंह दुसांझ मेमोरियल पुरस्कार, माता गुरमीत कौर मेमोरियल पुरस्कार।
सादत हसन मंटो पुरस्कार, शाकिर पुरुषार्थी गल्प पुरस्कार व अन्य अनेक पुरस्कार। 0000
साभार - अक्षरा, मार्च, 2024
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