पंजाबी कहानी इश्क मलंगी
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हुसैन अनुवाद – नीलम
शर्मा ‘अंशु’
लाहौर
में दाता दरबार के सामने पटरी पर बैठी महिलाएं और पुरुष छोटे-छोटे पिंजरों में
चिड़ियां और तोते लेकर ग्राहकों का इंतज़ार करते रहते हैं। अक़ीदतमंद और
श्रद्धालु दाता गंज बख्श की मज़ार पर हाज़िरी देने के बाद चिड़ियां और तोते खरीद कर उन्हें पिंजरों से आज़ाद कर पुण्य
कमाते हैं। यह दृश्य देख कर मुझे अपना यार गामा नाऊ याद हो आया, जिसकी दुकान जम्मू
के उर्दू बाज़ार में थी। उसकी दुकान की छत पर एक छोटा सा चिड़ियाघर था, जिसमें
चिड़ियां, कबूतर, तोते और बंदर पाल रखे थे। नाऊ के काम के साथ-साथ गामा बंदरों और
कबूतरों को सुधारने और उन्हें करतब सिखाने में भी माहिर था। कई मदारी उससे बंदर
ख़रीद कर ले जाते और अपनी रोज़ी कमाते। एक बंदर को गामा ने ऐसा सुधारा कि हजामत
बनाते हुए भी वह उसके कंधों पर सवार रहता। गामी को चरस वाले सिगरेट पीने की आदत
थी। वह चरस वाले सिगरेट का धुआं बंदर के नथुनों में डाल देता और बंदर के साथ ऐसे
ही दिल्लगी करता रहता। कभी-कभी तो वह अपने पालतू बंदर को सिगरेट का कश भी लगवा
देता। इसी तरह धीरे-धीरे गामी चरसी का बंदर चरस के धुएं का अभ्यस्त हो गया और उस
पर दिन-रात ख़ुमारी छाई रहती। दो-तीन बंदरों
को उसने ऐसा सुधारा कि जो भी खरीद कर ले जाता, वह बाद में पछताता क्योंकि आठ-दस
दिनों बाद बंदर गामी के पास लौट आता। गामी ने अपने पालतू बंदर का नाम भमीरी रखा था
और भमीरी गामी की सिखाई फ़नकारी का एक एकमात्र नमूना था। वह कई बार पड़ोस की दुकान पर चला जाता और
दुकानदार की नज़र बचा कर चवन्नी, अठन्नी और रुपए का सिक्का मुँह में डाल लेता और
दो-चार छलांगें मारते हुए अपनी दुकान में आ घुसता और पैसे गामी को पकड़ा
देता। गामी पैसे अपने खीसे में डाल लेता।
इस तरह गामी की पौ-बारह थी। एक बार गामी दो दिनों के लिए रिश्तेदारी में किसी शादी
में जगानू चला गया और दुकान अपने शागिर्द और भमीरी के सुपुर्द कर गया। दो दिनों तक चरस के सिगरेट का धुआं न मिलने के
कारण भमीरी का सारा बदन टूट रहा था और वह निरा निढाल सा दुकान के एक कोने में पड़ा
था। गामी के आते ही वह कूद कर उसकी गोद में बैठ गया और उसकी जेबें टटोलने लगा।
गामी पूरी बात समझ गया। उसने चरस की सिगरेट सुलगाई और धुआं भमीरी को सुंघाने लगा।
पांच सात कशों का धुआं भीतर जाते ही भमीरी चुस्त-दुरुस्त हो गया। गामी का एक घनिष्ठ दोस्त था, जिसका नाम था –
काले ख़ान। उसका सिर्फ़ नाम ही काले ख़ान था, बल्कि वह गोरा-चिट्टा, ऊँचा-लंबा और
खूबसूरत पठान था। वह कोचवान था और उसके पास अपना ताँगा और घोड़ा था। वह रोज़
गुम्मट अड्डे से और कभी पंज तीर्थों से सवारियां लेकर नहर या सतवारी के तीन चार
चक्कर लगा कर गामा नाऊ की दुकान पर आ बैठता। अपना तांगा-घोड़ा वह कभी खटीकों के
तालाब के पास सरदार अकरम ख़ान दुर्रानी की हवेली के पास या फिर मुहल्ला जीवन शाह
वाले चौक पर खड़ा करके, घोड़े के सामने दाना-पानी रख कर खुद गामे की दुकान पर
गप्पबाजी के बजाय आँखें सेकने आ बैठता था क्योंकि फिरोज़ा बाई का चौबारा गामी की
दुकान के बिलकुल सामने था। काले खान फिरोज़ा का आशिक था और उसके साथ नज़रबाज़ी
करता रहता। वह एक सीधा-सादा आदमी था परंतु उसकी आँखों में फिरोज़ा को हासिल करने
के सपने नाचते रहते थे। मैं भी दफ्तर से छुट्टी के बाद गामी की दुकान पर आ जाता।
हम दोनों काले खान का मज़ाक उड़ाते रहते।
उर्दू
बाज़ार में सन् सैंतालीस से पहले बहुत रौनक हुआ करती थी। यहाँ तवायफों और डेरेदारनियों के चौबारे थे और
चौबारों के नीचे फूलों, इत्र, पान, सिगरेट, चाय, दूध-दही, मिठाई तथा नाश्ते की
दुकानें थीं। चूड़ियों, परांदों, शीशे, कंघी और छल्लों तथा अंगूठियों की छाबड़ियां
थीं। बर्फ़, कुल्फी, शर्बत और सोडे की बोतलों की रेहड़ियां थीं। अफ़ीम, चरस, गांजा
और शराब बेहिसाब मिलती थी। इस बाज़ार में मलिका पुखराज, उसकी बुआएं नीलो और फीलो,
ममेरी बहन ज़ुबैदा, भागो पेरनी(बंजारन) की बेटी गौहर जान, इकबाल बाली, ताजी,
ज़मुर्द, सरदार बेगम और मोती जान अपने हुस्न के जलवे बिखेरती थीं और शौकीन नौजवान,
खिज़ाब और मेंहदी से बालों को रंगे आशिकों की जेबें हल्की करतीं। रोज़ शामें
सजतीं। गाने-बजाने की महफिलें रतजगा करतीं। मोतिये, गुलाब और चमेली के फूलों की
खुशबू ग्राहकों को मस्त कर देती। अल्हड़ युवतियां और सुरीली आवाज़ों का संगम
क़यामत ढाता और मनचले फरिश्तों को तरसाता।
यह शायद सन् चालीस या इकतालीस की बात है कि पटियाला
घराने के प्रसिद्ध गायक और शास्त्रीय संगीत के माहिर ख़ान साहब उस्ताद आशिक अली
खान पटियाला से जम्मू आए। उन्होंने रेसीडेंसी रोड पर बनी कश्मीर सोप फैक्टरी की छत
पर गीत-संगीत की महफिल में शिरकत की और अपनी गायकी का कमाल दिखाया। उस्ताद आशिक
अली ख़ान साहब को सुनने वालों में मलिका पुखराज, गौहर जान, सरदार बेगम और मोती जान
भी थीं। गौहर जान और सरदार बेगम ने अकीदत के तौर पर खान साहब के पाँव भी दबाए।
वहाँ किसी ने ख़ान साहब से कुंदन लाल सहगल की राग गांधारी में गाई ठुमरी, ‘झुलना झुलाओ री, अंबवा में कोयल
बोले ’ सुनाने की फ़रमाइश की। ख़ान साहब हल्का सा मुस्कुराए और
फिर उन्होंने गंधारी शुरु की और अपनी आवाज़ से महफ़िल को मस्त बना दिया, और बताया –
भई गंधारी का असली रूप क्या है और पटियाला घराने की लयकारी किसे कहते हैं। फिर
उन्होंने एक दादरा गाया। बोल थे – ‘कहाँ गिरी रे मोरे माथे की बिंदिया। ’ महफ़िल ख़त्म हुई। ख़ान साहब को मान-सम्मान से नवाज़ा
गया। उनकी इज़्जत अफ़ज़ाई की गई और कई रईसज़ादों के घरों में उनकी दावतें हुईं। मलिका
पुखराज ने उनकी बाक़ायदा शागिर्दी अख्तियार की और फिर संगीत की दुनिया में अपनी एक
अलग पहचान बनाई।
परंतु
काले खान को न तो गीत-संगीत की महफ़िलों में बैठने की चाह थी, न ही गश्तियों और तवायफों
संग रबाब बजाने का शौक। वह तो सिर्फ़
फिरोज़ा का अलगोज़ा था। फिरोज़ा के लिए उसकी मुहब्बत एक नूरानी कलमा थी। रुह का
साज़ था और दिल की आवाज़। वह फिरोज़ा के सिर पर इज्ज़त की चादर डालना चाहता था।
उसे अपनी हमसफ़र बनाना चाहता था। तभी वह गामे की दुकान पर बैठ कर अपनी आँखों को
फिरोज़ा के चौबारे का तुआफ़ करवाता रहता, साथ ही मध्यम स्वर में माहिये गाता रहता।
वैसे तो काले खान निरा अनपढ़ था परंतु इश्क-ए-किताब के अक्षर उसके दिल ने खूब पढ़े
थे। वह बेचारा चाहता था कि फिरोज़ा मुहब्बत की गाजनी से उसके दिल की तख्ती को पोच
दे और मोह के लेप लगाए और उसकी रूह को सुकुन बख्शे। फिरोज़ा के लिए उसने अपनी
आँखों में हया का सुरमा डाले रखा और हृदयरूपी घोड़े की लगाम कस कर थामे रखी और उसे
बेकाबू न होने दिया। काले खान फिरोज़ा के हुस्न का सौदाई था और कहता था कि रब ने
आशिक को इश्क दिया और माशूक को हुस्न। जब दोनों एक हो जाएं तो कच्चे घड़े भी पार
लग जाते हैं। फिरोज़ा को देखते ही काले
खान के मन की बगिया में सरसों खिल जाती और दिल बाग-बाग हो जाता। वह मन ही मन फिरोज़ा
के लिए पीपल पर झूला डालता, उसे झूला झुलाता और गाता – “झूला झूल रहे हैं दोनों ओए, आशिक
और माशूक वे माहिया ।” परंतु दीये का नाम लेने से भला
कभी अंधेरा मिटता है उसके लिए तो दीप
जलाना पड़ता है, जो अभी तक नहीं जला था। काले खान, गामे की दुकान पर बैठ
कर फिरोज़ा के दीद की ईद मनाता परंतु बात-चीत करने से घबराता। गामी जानता था कि जब
से काले खान ने फिरोज़ा से आँख लगाई है तब से उसकी आँख नहीं लगी और वह खोया-खोया
सा रहने लगा था परंतु वह उसे कुछ नहीं कहता था और सिर्फ़ इश्क नज़ारा देखता रहता। धीरे-धीरे
फिरोज़ा को पता चल गया कि काले खान नामक कोचवान उसे गामी नाऊ की दुकान से तकता
रहता है। एक दिन उसने गामे नाऊ को अपने चौबारे पर बुलाया और काले खान के बारे में
पूछ-ताछ की। जब गामी ने बताया कि काले खान एक शरीफ़ व्यक्ति है और अपने दिल की
सुरमेदानी से उसकी आँखों में इश्क का सुरमा डालना चाहता है और उसे अपना बनाना
चाहता है तो फिरोज़ा को गुस्सा आ गया और कठोरता से बोली –
“वह हीन और घटिया कोचवान मुझे हासिल
करने के ख्वाब देख रहा है। छुछुंदर के सर पर चमेली का तेल। बस इस बात को यहीं
ख़त्म करो, किसी और के साथ बकवास मत करना। मेरे चौबारे पर रईसज़ादे, बड़े लोग और
जागीरदार दौलतें लुटाते हैं। वह तांगेवाला मुझे भला क्या देगा?
उसकी औकात क्या है? उसे समझा दो कि मेरे ख्वाब देखना छोड़ दे और यहां से
चला जाए नहीं तो गुंडों से ऐसा पिटवाऊँगी कि खुद ही अक्ल ठिकाने आ जाएगी।”
फिरोज़ा
की बातें सुन कर गामे ने कहा – “फिरोज़ा बीबी, काले खान तुम्हारा सच्चा आशिक है, वह
तुम्हें दिल की दौलत दे सकता है, ज़िंदगी तुम्हारे नाम कर सकता है, उसका प्यार
बांग की भांति पाक़ है। उसे तुम्हारे हुस्न ने ठग लिया है। उसकी आँखों को तुम्हारे
दीदार का चस्का लग गया है। वह तड़पता फिरता है। उसकी ज़िंदगी मिट्टी में मत मिलाओ,
नहीं तो उसके दिल की चौगाठ को दीमक खा जाएगी और आँखों का चौबारा छलकने लगेगा। वह
हमेशा तुम्हारा साथ देगा। फिरोज़ा बेगम, यौवन के दिन चार, फिर न मिलते यार और जब तनरूपी
तंबूरे की तान ढीली पड़ जाएगी न, तब उम्र उसे कस नहीं पाती। परंतु काले खान तपती
दोपहरी में तुम्हारे लिए घनी छाया और सांध्य बेला में बैसाखी बनेगा। बाई, रूप
सौंदर्य की माया का अभिमान, यह सब छल-फरेब है, परंतु उसका प्यार सच्चा और पाक़ है,
बिलकुल अंबरी सेब जैसा। फिरोज़ा तुम्हारी दुनिया झूठ है और उसकी सच, और झूठ से
बड़ा छल कोई नहीं और सच से मीठा फल कोई नहीं। ये रईसज़ादे और बड़े लोग तन के भूखे
होते हैं परंतु काले खान तुम्हारी रूह से गहरा रिश्ता जोड़ना चाहता है। तुम उसके
साथ रिश्ते की शुरूआत तो करो, लगाव खुद ही हो जाएगा। हुस्न का अभिमान मत करो, यह
मिट्टी में मिल जाएगा और बाक़ी सिर्फ़ रब का नाम रहेगा।”
“गामी, मुझे शब्दों के जाल में न
उलझाओ। शब्द काग़ज़ों पर नाचते अच्छे लगते हैं। जिंदगी के पन्नों पर इनका कोई अर्थ
नहीं होता। प्यार, इश्क, मुहब्बत की बातें करना कंबख्त मर्दों की मसखरियां होती
हैं। तुम यह नौटंकी छोड़ो और फूट लो यहाँ से।” वह कड़वा बोलती रही। गामी सुनता रहा, उस की कोई दलील
कबूल न हुई। अंतत: उसने घुटने टेक दिए और फिरोज़ा के चौबारे की सीढ़ियां
उतर आया। कुछ देर बाद काले खान भी तांगे के फेरे लगा कर गामी की दुकान पर आ पहुंचा।
गामी ने उसे फिरोज़ा से हुई बात-चीत बताई और समझाया।
“काले खान तुम मेरी दुकान पर बैठ कर
फिरोज़ा को तकना छोड़ो। वह बड़ी हठीली महिला है। तुम्हारी शक्ल से भी नफ़रत है उसे
और तुझे गुंडों से मरवाना चाहती है। वह आग उगल रही थी और मुझे कुतिया की भाँति काट
खाने को दौड़ रही थी। वह तुम्हारे दीदे निकाल कर तुम्हारे हाथ पर धरने की बात कर
रही थी। इसलिए तुम फिरोज़ा का ख़याल दिल से निकाल दो। तुम्हें नहीं पता कि रंडी की
भंडी ठीक नहीं होती। तुम्हें फिरोज़ा के
सर पर इज्जत की चादर चढ़ाने का शौक़ चढ़ा है परंतु यहाँ उर्दू बाज़ार की रीत ही
अलग है। यहाँ औरतें नंगे सर रहती हैं परंतु सारंगियों को गिलाफ़ चढ़ाती हैं ताकि
साज़ आबाद रहें।”
गामे नाऊ
की बातें काले खान के पल्ले नहीं पड़ीं। उसने अब तांगे के फेरे लगाने भी कम कर दिए
थे और सारा – सारा दिन गामे की दुकान पर बैठा रहता और फिरोज़ा के चौबारे की तरफ
तकता रहता ताकि उसकी झलक दिख जाए। दुकानें
बंद हो जाने के बाद भी वह चबूतरे पर बैठ जाता। आपको भी पता होगा कि गाँव शाम को
जल्दी सो जाते हैं, और मुर्गे की बांग पर जग जाते हैं परंतु शहर रात को जगते हैं
और दिन को सोते हैं, ख़ास कर जम्मू के उर्दू बाज़ार के निवासी। इसलिए जब तक उर्दू
बाज़ार जगता, काले खान भी जगता रहता और तड़के घर पहुँचता और दुकानें खुलने पर
बाज़ार में आ जाता। उसकी नींद उससे रूठ गई थी। वह
भटकी हुई गाय की भाँति पगला गया था। जल्दी ही काले खान की प्रेम कहानी
कहावतों की भाँति मशहूर हो गई थी। चारों तरफ बदनामी
हो रही थी। उसके संगी-साथी उसे समझाने लगे।
“काले खां ! तुम्हारी करतूत के बारे सुनकर मेरी तो सुध-बुध ही खो गई।
काफ़ी देर तक तो होश ही नहीं रही। दोस्त, तू यह किस चक्करघिन्नी में फंस गया? तुझे क्या हो गया? क्या तुम्हारी मत मारी गई है? ओए, कंजरी से नेह लगा लिया, किस
बला को हाथ लगाया। यहाँ जम्मू में लड़कियों का अकाल है क्या ? एक से बढ़कर एक खूबसूरत हैं। तुम
जिस युवती की तरफ इशारा करते, उससे तुम्हारा निकाह पढ़वा देते।” सलीम पांडी कह रहा था। उसकी बात
अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि शीदा कसाई बोल पड़ा –
“तुझे इश्क के कौन से जिन्न ने जकड़
लिया है। तूने तांगा-घोड़ा किराए पर दे दिया और खुद फिरोज़ा बाई के चूल्हे की खाक़
छानता फिर रहा है। शर्म कर, कुछ तो शर्म कर। इन कोठेवालियों के चक्कर में न पड़।
क्यों इस मोह की आग को हवा दे रहा है। क्यों भीतर ही भीतर टूटा पड़ा है। होश कर।
अक्ल से काम ले। दिल के तार खरोचने बंद कर दे। ख्वाहिशों की बस्ती में सदा अंधेरा
ही होता है। इसलिए ख़्वाहिशों को लगाम दे और उसका पीछा छोड़। हौंसला कर और तांगा चला।
हम आज ही तेरे लिए रिश्ता ढूंढते हैं। तेरी शादी करते हैं। अपनी गृहस्थी बसा और
मौज मना।”
“शीदे यार! फिरोज़ा के लिए मेरे दिल का पंछी
फड़फड़ाता रहता है परंतु तुम लोग इश्क की रमज़ क्या जानो। यह जो ज़िंदगी है न, यह
एक सुई है और इस सुई में इश्क का धागा कोई सोच-समझ कर नहीं पिरोता। दूसरी बात यह
कि शीदे, इश्क मांगने से नहीं मिलता। यह तो रूहों पर नाज़िल होता है, मेरी रूह
फिरोज़ा के दिल के द्वार पर दस्तक दे रही है। आगे मेरी किस्मत। अगर मेरी किस्मत
में विरह की सजाएं लिखी हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता। मुझे अपने दु:ख का बोझ खुद बर्दाश्त करना है क्योंकि हम बिरहा के जाये हमें बिरहा ही मिटाए।
शीदे, तुम लोग जानते होगे कि इश्क का सफ़र कभी ख़त्म नहीं होता। एक राही चला जाता
है तो दूसरा चल पड़ता है। मजनूं, फरहाद, पुन्नू, महीवाल, मिर्जा और रांझा सभी इस
पथ के राही हैं। मैं भी इस राह पर चल पड़ा हूँ। आगे मेरे करम। तुम लोग मेरी फिक्र
मत करो। होगा वही जो रब ने रच रखा है। तुम लोगों ने मेरी खोज-ख़बर ली, तुम सबका
शुक्रिया।”
एक दिन
जब काले खान की ख़्वाहिशों ने ज़ोर मारा तो उसने फिरोज़ा के चौबारे पर हाज़िरी
देने की सोची। उसने गामे नाऊ की दुकान की दहलीज़ लांघी और सड़क के पार चौबारे की
सीढ़ियां चढ़ गया।
“तू क्या लेने आया है?” फिरोज़ा गरज उठी।
“मैं दिल का कहा मान कर तुझसे प्यार
की ख़ैरात मांगने आया हूँ।” काले खान ने कहा।
मुझे
अपनी मोहब्बत का शर्बत पिला और कलेजे को ठंडक पहुँचा, तुझे बिस्मिल्लाह का पुण्य
मिलेगा। मेरे दिल की कुटिया में बहुत सीलन है तू अपने मोह की गर्माहट से मुझे कर
निहाल।
क्या
बकवास करते हो ? तुझे गामे ने नहीं समझाया, क्यों मरने के लिए यहाँ आ गया ? सुअर का पुत्तर कहीं का। तुझे
इतना पिटवाऊंगी कि पैरों पर चल कर जा नहीं सकेगा।। ये इश्क-मुश्क के चोंचले छोड़
और दफ़ा हो जा यहाँ से। सारी मर्द जाति काम का कीड़ा होती है, इनका प्रेम छलावा,
धर्म छलावा और कर्म छलावा। ये बाहर से
प्यार की कसमें खाते हैं परंतु भीतर सुलगे काम का लावा। मैं सारे लच्छन समझती हूँ।
“फिरोज़ा ! तू बेशक मुझे मार डाल। गिद्धों को
मेरा माँस खिला। कुत्तों को हड्डियां परोस। फिर भी मैं ज़िंदा रहूंगा। मेरी कहानी
जग में अमर गीत बनेगी, क्योंकि मेरा इश्क जुनून है और जुनून का कोई इलाज नहीं।
फिरोज़ा तेरे बाज़ार में हँसी कौड़ियों के दाम बिकती है। दाँतों की खिलखिलाहट बिकती है। नैनों के इशारे
बिकते हैं। तन के नज़ारे बिकते हैं। तू भी तो तन बेचती है। परंतु मैं ख़रीददार
नहीं। अगर मैं काम का रोगी होता तो तेरा भोगी होता पर मैं तो तुझ बेशर्म से निकाह
के कलमे पढ़वाना चाहता था और तुझे अपनी बनाना चाहता था परंतु तू बेहयाई का चोला
उतारना नहीं चाहती। याद रख फिरोज़ा, सदा न बाग में बोले बुलबुल, सदा न रहतीं
बहारें, सदा न रहते मता-पिता हुस्न जवानी, सदा न सोहबत यारां। तू मेरी बात गाँठ बांध ले कि एक वक्त ऐसा भी आएगा,
जब तेरा दर्द बांटने वाला कोई नहीं होगा। उस वक्त मेरा इश्क तेरा संगी होगा। इसलिए
नौटंकी छोड़। आँखें न तरेर और मेरा हाथ थाम। मुझे सोच कर जवाब दे, मैं फिर आऊंगा।”
“ख़बरदार, जो फिर इधर पैर धरा तो
हराम की औलाद। बहन के खसम, तू जाता है यहाँ से या बुलाऊँ में तेरे..... ”
फिरोजा की ऊँची आवाज़ सुनकर एक दल्ला आया और उसने काले
खान को धक्के मार-मार कर निकाल दिया। वह बेचारा निराश सा लौट फिर गामी की दुकान पर
आ बैठा। काले खान को देख गामी ने पूछा - “फिरोज़ा के चौबारे में क्या लेने
गया था?”
“ज़ाहिर है, दरूद पढ़ने तो नहीं गया
था। उसे अपना सीना चीर कर उसमें उसकी तस्वीर दिखाने गया था परंतु अन्य औरतों की
तरह फिरोज़ा की अक्ल भी उसके टखनों में दिखी। उसकी आँखें भी कोरी हैं और दिल भी।
उसने मुझे दिल का दरवाज़ा खोलने ही नहीं दिया।”
“मैंने तुझे समझाया था न कि उन
तिलों में तेल नहीं है। फिजूल ही पत्थरों से टक्करें मत मार, पर तू बाज नहीं आया।
तुझे तो इश्करूपी नाग ने डस लिया है और ज़हर तेरे तन में फैल चुका है। पता नहीं
तुझे किस पीर ने इश्क का लांबू लगाया है और तूने अपनी ज़िंदगी का मकसद ही फिरोज़ा
को बना लिया। तू क्यों नहीं समझता कि नार चाहे दिखाए जितने रंग, एक ही लज़्ज़त
एक ही ढंग। फिर चाहे वह फिरोज़ा है, ज़ुबैदा हो या रोज़ी। सुन काले खान नार
सफेद झूठ है। नार बेवफ़ा मक्कार है और आग की अंगार है, इसलिए मेरी बात मान और खुद
को इस आग में मत झोंक। फिरोज़ा को भूल जा और
नए रिश्ते की दीवार खड़ी कर। ब्याह करके अपना घर बसा, पर तू मानता नहीं। इतनी
बेइज़्ज़ती और फटकार के बावजूद तेरी आँखें भंवरे की तरह फिरोज़ा के चौबारे की तरफ
उड़ती रहती हैं।”
काले खान गामी की बातें सुनता रहा और लंबी साँस लेकर बोला – “’गामी यार! तू तो अखर घड़तल (आखर सर्जक) है तुझसे भला कौन जीत सकता है, पर मैं अपने दिल का क्या करूं?”
“काले खान ! तू भी क्या कोल्हू के बैल की तरह एक ही खूंटे से बंधा
घूम रहा है। खुद पर रहम कर। क्यों इस जून में दु:ख भोगने आया है। मुझे तेरे दु:ख का बहुत ही दु:ख है, इसलिए मेरी मान ले और उस
कमीनी जात के लिए अपनी ज़िंदगी मत बर्बाद कर।”
“गामी ! मुझे मेरे हाल पर
छोड़ दो। मेरा इश्क मेरा रब है और मेरी फरियाद भी उसी से है। मुर्शद कहता है.....
रब्बा मेरे हाल का महरम तू, तू ही ताना तू ही बाना, रोम-रोम में तू।”
सूरज
रोज निकलता रहा और ढलता रहा। आस का दीया जलता रहा पर फिरोज़ा नहीं आई। काले खान के
मुँह से आहें निकलती रहीं और वह मलंग हो गया। इस इश्क मलंगी में उसे दुनिया की कोई
सुध-बुध न रही। उसे पता ही नहीं चला कि देश में अंधड़ कब चला और क्यों चला। धरती
के दो टुकड़े क्यों हुए। इतना बड़ा भूचाल कैसे आया कि जिस की तीव्रता को मापना
रिक्टर स्केल के वश से बाहर हो गया और कैसे इस भूचाल ने मानवता की आँखें अंधी कर
दीं। लाखों लोगों की मार-काट हुई। लाखों अपने घरों से बेघर हो गए। काले खान हैरान
था कि भई यह कैसा फसाद था जिसे कोई सुलझा नहीं पाया, जब कि सिर्फ़ एक कलमें का
फ़र्क नहीं था, नहीं तो हिंदु-मुस्लिम प्यार में डूबे थे। शायद धर्म अपने अस्तित्व
का बंधक होता है तभी तो तबाही मचाता है। फसादियों ने हद पार कर ली, सब कुछ
लूट-खसूट लिया गया। भगदड़ मच गई, लोग सांसों के भूखे भाग-दौड़ गए। जुलाका मुहल्ला, दल-पत्तियां मुहल्ला, पीर
मिट्ठा, खटीकां का तालाब, मुहल्ला अफगानां और उस्ताद मुहल्ले की बस्तियां खाली हो
गईं। तवी, उझ और बसंतर का पानी लाल हो गया। बच्चा सिक्का (एक ऐतिहासिक किरदार) की
भाँति चील-कौवों और गिद्धों को भी कुछ दिनों का राज मिला। कच्चा माँस खाने वाली यह प्रजाति बहुत खुश थी,
क्योंकि इन्हें पहली बार एक अलग किस्म का स्वादिष्ट माँस खाने को मिला था। लाशों
का व्यापार हो रहा था। लाशें आ रहीं थीं और लाशें जा रही थीं। लोगों की आवा-जाही
लगी हुई थी। एक पल के फैसले में हमारी रहतल खो गई। मार-काट और आवा-जाही का यह सिलसिला लंबे समय तक
जारी रहा और फिर आँधी, तूफान, अंधड़ थम गया। जम्मू की ख़ाली बस्तियां नए लोगों ने
आबाद कीं। गामी और काले खान का कुछ पता न चला। फिरोज़ा, ज़ुबैदा, बाली, ताजी और
गौहर जान.... किसी का भी अता-पता न मिला। तबले, हारमोनियम, घुंघरू, ढोलक, तूंबी,
बांसुरी, सारंगी और सितार सब ख़ामोश हो गए। उर्दू बाज़ार भी उजड़ गया। रौनकें
ख़त्म हो गईं। सब बिखर गए। उर्दू बाज़ार के बाशिंदों ने शायद सरहद पार कोई नया
बाज़ार बसा लिया हो क्योंकि जहां गया बनिया वहाँ गया बाज़ार। कुछ समय के बाद
आने-जाने वालों से मुझे गामे नाऊ की ख़ैरियत का संदेसा मिल गया था। उस ने सियालकोट
के पूरन नगर में सेलून खोल लिया था और बाकी के शौक़ भी पाल रहा था, पर काले खान के
बारे कुछ पता न चला कि वह ज़िंदा है या मर खप गया था। जम्मू फिर से पहले की भाँति
रचने-बसने लगा। उर्दू बाज़ार, राजिंदर बाज़ार बन गया। तवायफों और डेरेदारनियों के
चौबारे सरकार ने कब्ज़े में ले लिए थे, मुहाज़रों के मकान, ज़मीन-जायदाद उधर से आने
वाले शरणार्थियों को अलॉट कर दी गईं। आबादी बेशक बर्बाद हुई, परंतु खुदा की खुदाई आबाद रही। फिर एक बार मैं
भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच देखने लाहौर गया और वहाँ के जम्मूवासियों से मिला। सभी
अपनी-अपनी दु:खद गाथाएं सुनाने लगे और जम्मू के बारे पूछने लगे। अपने
घरों के बारे, मुहल्ले, बाज़ारों के बारे, गलियों पगडंडियों के बारे, यार-बेलियों
के बारे, सगे-संबंधियों के बारे में बातें होती रहीं, आँखें भींगती रहीं। मुझे ऐसे
लगा कि विभाजन की तबाही अभी और तीन-चार पीढ़ियों तक हमें चुभती रहेगी। फिर मैंने
उनसे काले खान के बारे में पूछा पर कोई उसे नहीं जानता था। दूसरे दिन मैं चुप-चाप
सियालकोट जा पहुंचा और काले खान का अता-पता ढूंढने लगा। गामे की मौत हो चुकी थी और
उसकी जगह उसका बेटा काम करता था। मैं वहाँ भी जम्मू वालों से मिला। उर्दू बाज़ार
के एक पान वाले से जिसने सियालकोट के किले के पास पान, सिगरेट की दुकान खोली थी,
मुझे बताया कि काले खान ज़िंदा है और नारोवाल में रहता है। मैं पूछते-पुछाते
नारोवाल गया और काले खान को एक सड़क पर पत्थर तोड़ते हुए जा पकड़ा। उसे देख कर दिल
को गहरी चोट पहुंची थी। वह खजूर से छुहारा बन चुका था। उसके बालों में चांदी चमक
रही थी। मुझे देख कर उसकी आँखें चमक उठीं। उसने मुझे कस कर आलिंगन में लिया। हम
दोनों ने जी भर कर आँसू बहाए। जब मन हल्का हो गया तो मैंने पूछा – “काले खान! फिरोज़ा का कुछ पता चला ? वह तुझे मिली या नहीं ?”
“जहां गई फिरोज़ा, वहीं गया
तांगा-घोड़ा। मुझे उसकी कोई ख़बर नहीं मिली। मैंने उसे सियालकोट, झेलम, मीरपुर और
लाहौर के रिफ्यूज़ी कैंपों में ढूंढा। लाहौर की हीरा मंडी से लेकर पिंडी, पेशावर
और कराची के मीना बाज़ारों में ढूंढा परंतु उसकी कोई ख़बर न मिली। मैंने कोशिश नहीं छोड़ी और अपने मोह की गठरी को उठाए
जगह-जगह फिरता रहा। तलाशता रहा। दुआएं मांगता रहा परंतु मुरादें पूरी हों, ज़रूरी
तो नहीं। बाबू जी, बुल्ले और दुल्ले के इस कंबख्त मुल्क़ में आकर मुझे कोई
सुख नसीब नहीं हुआ। बस कुढ़ना और रोना मेरी किस्मत में था और बिछोड़ा मुझे मार
गया। दिलों के सौदे में मुझे बहुत घाटा हुआ। बाबू जी, मैं तो रांझा बन गया पर फिरोज़ा
हीर न बन सकी, जिसका मुझे गहरा दु:ख है। अंतत: मैंने अपने इश्क का जनाज़ा खुद पढ़ा और नारोवाल आ गया।
यहाँ मैं पाँच पीरों की दरगाह के हुजरे में रहता हूं। दरगाह पर अगरबत्तियां और मोमबत्तियां जलाता
हूँ। झाड़ू लगाता हूँ और जब मन बहुत उदास हो जाता है तो सड़क पर बैठ कर पत्थर
तोड़ता रहता हूँ पर मेरी आँखें सोते-जागते फिरोज़ा के चौबारे का दीदार करती रहती
हैं।”
मैंने
देखा कि काले खान इश्क की तपिश को अभी भी झेल रहा था। हम काफी समय तक वक्त को पीछे
मोड़ते रहे। वह अपनी पीड़ा खुरचता रहा, मैं मरहम लगाने का जतन करता रहा। फिर मैंने
उससे लाहौर वापस जाने की इजाज़त माँगी। जब मैं चलने लगा तो काले खान ने मुझे रोका
और बोला –
“बाबू जी, ये पत्थर तो मैं तोड़
लेता हूँ पर फिरोज़ा के दिल का पत्थर मुझसे टूट नहीं सका और इस बात का दु:ख मरते दम तक मेरे अंदर ज़िंदा
रहेगा।”
मैंने
उसे गले लगाया। उसके आँसू पोंछे और वहाँ से चल दिया। काले खान दूर तक मुझे जाते
देखता रहा। मैंने नारोवाल से लाहौर की बस पकड़ी और दूसरे दिन बाघा बॉर्डर पार कर
जम्मू आ गया, पर काले खान के शब्द रास्ते भर
मेरा पीछा करते रहे – “फिरोज़ा के दिल का पत्थर...... ”
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ख़ालिद हुसैन
पुरस्कार – 2021 में पंजाबी कहानी संग्रह “सूलां दा सालन” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार। 2014
में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा शिरोमणि पंजाबी साहित्यकार सम्मान।
कला, संस्कृति और भाषा अकादमी, जम्मू तथा कश्मीर द्वारा “ते जेहलम वगदा रेहा” और “गोरी
फसल दे सौदागर” कहानी संग्रहों के लिए प्रथम पुरस्कार प्राप्त।
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साभार - साहित्य अमृत, अप्रैल 2024
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