मेरा कोई कसूर नहीं
0 जिंदर
अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु'
मैं कहानी के अंत पर आकर रुक गया था।
आई पैड को मैंने अपने दाहिनी तरफ पड़े टेबल पर रख दिया। रसोई में चला गया। मैगी बनानी शुरू की। मेरी निगाहें फ्राइंगपैन पर लगीं थीं। ध्यान ज्ञान सिंह की तरफ। जब मैंने ज्ञान सिंह को लेकर कहानी लिखनी शुरू की थी, मेरे सामने पंजाब के तीन दौर थे। पहला, 1984 के आतंकवाद में बर्बाद हुई जवानी, दूसरा मादक पदार्थों से लड़के-लड़कियों के सुन्न दिमाग, तीसरा ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा, अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देशों की तरफ लड़के-लड़कियों की अंधा-धुंध दौड़। मैं तीनों को एक श्रृंखला में पिरोना चाहता था परंतु जब मैंने कहानी लिखनी शुरू की, मैंने जो कुछ चिंतन-मनन कर रखा था वह सब मेरे बस में न रहा। यह तो और ही कहानी बन गई थी। मैं ऐसी कहानी नहीं लिखना चाहता था। दो घंटो में जो लिखा था, उसे पढ़कर मेरे भीतर से आवाज़ आई, इसे ही तो सृजन कहते हैं। बेड पर बैठते ही मैंने आँखें मूंद लीं। आत्म-मंथन चलता रहा। काफ़ी देर तक कहानी के संग-संग चलता रहा। कहानी भी मेरे संग-संग चलती रही। हम दोनों एकाकार हो गए। मैंने फिर आई पैड उठा लिया। कहानी का अंतिम पैरा लिखने लगा। लिख लिया। अपने लिखे को पढ़ने लगा। ज्ञान सिंह मुझे कचोटने लगा – ‘यार ! मैं ऐसा नहीं था जैसा तुमने मुझे बना दिया।’ सिमरन ने कहा – ‘आपने मेरे पात्र को छोटा कर दिया।’ सबसे ज़्यादा नाराज़ तो लवजीत हुई, ‘आपको कहानी तो ज्ञान सिंह – सिमरन की लिखनी थी। मुझे क्य़ों बेकार में बीच में घुसेड़ दिया। कसूर, मेरा नहीं, मेरे डैडी का है।’ मैं चुप रहा। मेरी ख़ामोशी से उकता कर वे आपस में तर्क-वितर्क करने लगे। बात हाथा-पाई तक पहुँच गई। मैं उनका तमाशा देखता रहा। एक समय ऐसा आया कि इतने ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे कि मुझे कानों में उंगलियां देनी पड़ीं। उन्होंने मेरी तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा। मैं उनकी तरफ देखने लगा। होठों ही होठों में मंद–मंद मुस्कुराया। वे भी मेरी नकल करने लगे। मै गंभीर हो गया। वे भी गंभीर दिखे। फिर उन तीनों ने एक स्वर में पूछा । क्या पूछा – इसे राज़ ही रहने दें। मैंने उन्हें क्या जवाब दिया, इस विषय में मैं आपको कुछ नहीं बताउंगा। अब मेरे ओझल होने का वक्त आ गया है। आप सीधे ही उनसे जुड़ें।
***
मुख्य सड़क से लगभग पंद्रह मील दूर गाँव है बागपुर। अगर कपूरथला की तरफ जाना हो तो बेंई का पत्तन लाँघना पड़ता है। घुटनों-घुटनों पानी में से होकर। अगर नकोदर जाना हो तो दो रास्ते थे। एक वाया नूरपुर, दूसरा वाया कोटला। वाया कोटला बड़ा गंदा रास्ता था। चालीस-पचास फुट तक अच्छी-ख़ासी सड़क आ जाती थी और उसके बाद सौ फुट ऊबड़-खाबड़, जगह-जगह गड्ढे। वाया नूरपुर थ्री व्हीलर वाला दिन में दो चक्कर लगाता। उसका कोई निश्चित समय न था। इतना ज़रूर होता कि उसके थ्री-व्हीलर की आवाज़ दो फर्लांग से ही सुनाई देने लगती। इस गाँव का ज्ञान सिंह दो रातों के रतजगे की नींद पूरी करने के लिए अभी बिस्तर पर लेटा ही था कि उसे मास्टर जगदीश सिह का कल आया फोन याद हो आया। मास्टर ने उसे बहुत ही रूखे स्वर में पूछा था – ‘तुम क्या सोचकर लड़की को कैनेडा भेज रहे हो ?’ काम के झमेलों में फंसे होने के कारण मास्टर की बात दिमाग से उतर गई थी। पिछले तीन दिनों से वह भमीरी की भाँति घूमता रहा था। घर में वह अकेला पुरुष सदस्य था। पैंतीस सौ काम करने थे। उसने तारो से बहुत कहा था –‘छोड़ो घर को। हम गुरुद्वारे में ही अखंड पाठ रखवा लेते हैं। वहाँ काफ़ी जगह है, खाने पीने की बढ़िया व्यवस्था हो जाएगी।’ तारो ने कुछ और ही सोच रखा था, ‘नहीं हम घर पर ही रखेंगे, इसी बहाने महाराज के चरण घर में पड़ जाएंगे। घर पवित्र हो जाएगा। तुम काम की चिंता मत करना। मैं अपने भानजों को बुलवा लूंगी। उन्हें काम समझाने की ज़रूरत है, फिर तुम खुद बेशक महाराज बन बैठे रहना।’ जब से कुलवंत का ऐक्सीडेंट हुआ था - वह तीन दिन अस्पताल में रह कर उन्हें अकेला छोड़ गया था। तब से उसने बहुत कुछ तारो और सिमरन पर छोड़ दिया था। वे नौ करें या तेरह उसने पूछ-ताछ करनी छोड़ दी थी। बेटे की मौत ने उसकी कमर तोड़ दी थी। 10+2 में पढ़ता था कुलवंत। यह तो सिमरन थी जिसने उसे डोलने नहीं दिया था – ‘पापा जी, भईया चला गया तो यह कौन सा अपने बस की बात थी। उसे होनी खींच कर ले गई। देख लीजिए, मिंदा मोटरसाइकिल चला रहा था, भईया पीछे बैठा था। मिंदे ने बचाव के लिए इतनी ज़ोर से ब्रेक लगाई कि भईया उछल कर बस के सामने जा गिरा और मिंदा एक तरफ। उसके केवल घुटने पर खरोंच सी आई। मुझे पता है कि अब मैं ही आपका बेटा हूँ, मैं ही बेटी। मुझे थोड़ा सा समय दीजिए। मैं सब कुछ संभाल लूंगी।’ वह मैट्रिक में पढ़ती थी। पढ़ने और घर के कामों में निपुण थी। उसके ज़ोर डालने पर ज्ञान सिंह ने धीमान पेपर मिल में नौकरी करनी शुरू की थी। ‘आप जितना खुद को काम में व्यस्त रखेंगे, उतना ही तंदरुस्त रहेंगे। अपने चार खेतों को संभालने में कितना समय लगता है। आषाढ़-सावन की फसल सरबजीत से ट्रैक्टर से खेत जुतवा कर बो लिया करेंगे। दो भैंसों के लिए चारा काट कर लाने में कितना समय लगता है। पैसे घर आएंगे। लोग हमें क्या देंगे। अपने काम से मतलब रखें। काम पर जाएंगे तो आपकी एक रूटीन बनेगी। यह क्या बात हुई भला कभी किसी के पास खड़े हो गए, कभी किसी के पास जाकर बैठ गए। उल्लू की भाँति एक दूसरे को देखते रहो। बेसिर-पैर की बातें करते रहो।’ वह अपने पापा को समझाती तो वह सिमरन को आलिंगन में ले लेता, ‘मेरा बच्चा समझदार हो गया है।’ वह कहती, ‘बस मेरी पढ़ाई मत छुड़वाना।’
वह वादा करता, ‘ज़रूर।’
सिमरन अपने मन की बात बताती, ‘मैंने सोच रखा है कि 10+2 के बाद आईऐल्टस (IELTS) करना है। कैनेडा जाना है। फिर आप लोगों को अपने पास बुलाना है।’ वह कहता, ‘सब कुछ तुम्हारा है। अब तुम्हारे सिवा हमारा कौन है ? मैं तुम्हें ज़रूर भेजूंगा।’
उसने छुटपन में ही देख लिया था कि सिमरन पढ़ाई में बहुत
तेज़ निकलेगी। एक बार उसे जालंधर जाना था। नकोदर बस स्टैंड से बस बाहर की तरफ निकल
कर मेन रोड पर आ खड़ी हुई। सिमरन बाईं तरफ खिड़की के पास बैठी थी। वह बाहर बैंक की
बिल्डिंग की तरफ देखने लगी। एक-एक अक्षर पढ़ने लगी – बी ए एन के, बैंक। उसने कहा, ‘अब
पहले वाले अक्षर बोलो।’ उसने पढ़ा, ‘एस
टी ए टी ई।’ उसने कहा, ‘बोलो – स्टेट।’ फिर आगे पढ़ा – ‘ओ एफ – ऑफ।’
फिर वह आगे पढ़ने लगी, ‘पी ए टी आई ए एल ए।’ उसने सिमरन को बताया कि यह पटियाला बन गया। सिमरन ने सारे अक्षर जोड़ कर बोला, ‘स्टेट बैंक ऑफ पटियाला।’ सामने वाली सीट पर बैठे
बाबू ने पीछे मुड़कर देखा। प्यार से सिमरन का सर पलोसा। फिर कहा, ‘सरदार जी, जीवन में आप भले ही कष्ट उठा लें परंतु इस बच्ची की पढ़ाई मत
छुड़ाना। सुबह का वक्त है, मेरा कहा याद रखना। यह बच्ची बहुत तरक्की करेगी।’ उन दिनों वह दूसरी कक्षा में पहुँची थी। घर आकर उसने तारो को बताया तो वह
बहुत खुश हुई। उसने अपने पड़ोसी रमेश कुमार की बहू के पास सिमरन की ट्यूशन लगवा
दी। वह दो बजे स्कूल से आती। तीन से साढ़े चार बजे तक ट्यूशन पढ़ती। तारो ने
मैट्रिक तक यह रूटीन टूटने नहीं दी।
दिन गुज़रते
कौन सा पता चलता है। सिमरन ने टचस्टोन आईऐल्टस (IELTS) सेंटर से कोचिंग
ली। सात बैंड लिए। कंडा ट्रैव्लस, नकोदर
वालों की मार्फत् टोरांटो के ट्रीवन कॉलेज में दाखिले के लिए आवेदन कर दिया। वह जो
कुछ करती रात को अपने पापा को बताती। बहुत सी बातें उस के सर के ऊपर से गुज़र
जातीं। वह कह देता, ‘बेटा! मुझ जैसे
अनपढ़ आदमी को कुछ समझ नहीं आता। तुझे जैसे अच्छा लगे, करती रहो, पैसों का प्रबंध
करना मेरी ज़िम्मेदारी है। बाकी तुम माँ-बेटी जानो।’ पहले
सिमरन ज़मीन बेचने के पक्ष में नहीं थी। उसका अध्यापक दीपक अरोड़ा समझाया करता था
कि जो चीज़ एक बार हाथ से निकल गई, उसे फिर प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाता है। वह
कहती, ‘कभी मेरा मन चाहता है कि बैंक से लोन ले लिया जाए।
स्टडी के लिए लोन मिल जाता है परंतु जसवीर बता रही थी कि बैंक वाले चक्कर बहुत
लगवाते हैं। कभी सोचती हूँ कि लोन पर किसी से पैसे लेने से अच्छा है कि ज़मीन बेच
दें। मुझे विदेश में सेटल होना है, फिर आप लोगों को भी वहाँ बुला लूंगी। पीछे
ज़मीन और घर कौन संभालेगा। जो भी एक बार बाहर चला जाता है, कमोबेश ही लौट कर आता
है। सभी मेहमानों की भाँति मिलने आते हैं। एक महीने बाद लौट जाते हैं।’ ज्ञान उसे बीच में ही टोकता - ‘तुम शेखचिल्ली की
भाँति ज़्यादा स्कीमें मत घड़ा करो। सोचा मत करो। मैंने और तुम्हारी मम्मी ने बेंई
की तरफ का खेत सरदार फुम्मण सिंह को बेचने का फैसला कर लिया है।’ वह अपने पापा को कस कर आलिंगन में ले लेती है, ‘मैं ऐसे ही थोड़ा कहती
हूँ कि मेरे पापा आम लोगों जैसे नहीं हैं।’
सिमरन के कैनेडा जाने की खुशी में ज्ञान ने अखंड पाठ
रखवाया था। उसने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया था। मिलने-जुलने वालों और स्कूल
के अपने दोस्तों को भी बुलाया था। तारो ने एक ही रट लगा रखी थी, ‘लडकी
विदेश चली जाएगी, हम उधर ही उसकी शादी कर देंगे। यह मान लीजिए कि इस घर में हमारा
अंतिम उत्सव है। हम काफ़ी धूम-धाम से आयोजन करेंगे। किसी चीज़ की कमी नहीं रहने
देंगे।’
उसने सिमरन को बहुत बंदिशों में नहीं रखा था। 10+1
में दाखिला लेते ही ऐक्टिवा ले दी थी। सिमरन अपनी मम्मी को ऐक्टिवा के पीछे
बिठाती। घर का सामान नकोदर से खरीद लाती। यह उसे पता होता कि बिजली बिल कहाँ
चुकाना है। ऐक्टिवा की अगली किस्त कब देनी है। जब हरनाम सिंह धीमान को पता चला कि
सिमरन ने आईऐल्टस (IELTS) में सात बैंड
हासिल कर लिए हैं तो उसने ज्ञान को अपने केबिन में बुलवाया था। बधाई दी थी, ‘वाहेगुरू
का शुक्राना अदा करें कि लड़की ने सात बैंड ले लिए है। वहाँ बहुत से बच्चे ऐसे हैं
जो कॉनवेंट स्कूलों से पढ़े हैं। उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जिन्होंने पहली बार में
सात बैंड लिए हों। यह अपना मलियां वाला स्कूल उनके सामने तो कुछ भी नहीं। अपनी
बिटिया परिश्रमी है। मेरी माता जी बता रही थीं कि अपनी सिमरन के मैट्रिक में बयासी
प्रतिशत अंक आए थे। मुझे जानकर बहुत खुशी हुई। मुझे पता है कि हमारे मुल्क में
बच्चे को सेटल करना बहुत कठिन हो गया है। आपके पास चार खेत है। रोटी-रोज़ी चल रही
है। अगर आपको अपनी तनख्वाह से घर चलाना हो तो बहुत कठिन है। अब तो गैस सिलेंडर भी
एक हज़ार का हो गया है। आजकल दस-बारह हज़ार से क्या बनता है दुनिया बड़ी तेज़ी से
बदल रही है। खुद को समय के साथ बदलो।’
***
उसने खुद से
कहा कि मास्टर जगदीश सिंह की बात का सीधा सा जवाब है कि दूसरे बच्चों की भाँति
उसकी बेटी भी स्टडीबेस पर बाहर जा रही है। दो साल पढ़ाई करेगी। फिर उसे वर्क परमिट
मिलेगा। पी आर मिलेगी। शादी करवाएगी। उसका अपना घर होगा। आगे के बारे वह जाने या
उसका जीवनसाथी। यदि हमें साथ रखने के लिए सहमत होंगे तो चले जाएंगे नहीं तो वे
अपने घर राज़ी और हम अपने घर।
जब मास्टर का फोन आया था, तब उसने सोचा था कि वह मास्टर
से पूछे कि उसने ऐसा क्यों कहा था? बधाई क्यों नहीं दी थी?
अखंड पाठ पर न आ सकने के बारे में मास्टर ने कहा था – ‘यार
मेरे, नाराज़ मत होना। मैं उस दिन नहीं आ पाऊँगा, मेरी साली के ससुर का भी उसी दिन
अंत्येष्टी भोग है। मेरा वहाँ जाना ज़रूरी है। मैं किसी और दिन आऊंगा बिटिया को
आशीष देने और तुम्हें समझाने। वह महाराज की हुजूरी में बैठा था। बहुत धीमे स्वर
में हूँ – हाँ कहा था। मास्टर को लंबी बात करने की आदत है। उसने बताया था, ‘भजन सिंह माथा टेकने आया
है। पहले उसे प्रसाद दे दूं। फिर बाहर आकर तुम्हें फोन करता हूँ।’ दो मिनट बाद वह बाहर आया तो करतारा हलवाई आया बैठा था। कल के कामों की
सेटिंग में वह ऐसा उलझा कि मास्टर की बात भूल गया।
उसने टाइम पीस
में समय देखा, नौ बज कर सतरह मिनट हो गए थे। उसका जी चाहा कि वह मास्टर को फोन
करके पूछे कि उसके कहने का मतलब क्या है। अभी वह जग ही रहा होगा। कोई पुस्तक पढ़
रहा होगा या टीवी पर डिस्कवरी चैनल जैसा कोई चैनल देख रहा होगा। ग्यारह बजे से
पहले वह सोता नहीं। उसकी आदत है कि वह बढ़ा-चढ़ा कर बात नहीं करता। न ही किसी की
चुगली। फोन आए या दो महीनों बाद खुद फोन कर ले तो मास्टर अपने ज्ञान का पिटारा खोल
लेता है।
उन दोनों ने आर्य स्कूल, नकोदर से मिडल पास की थी। फिर
मास्टर फौज में भर्ती हो गया। ज्ञान ने खेती-बाड़ी संभाल ली। मास्टर ने फौज में
बी. ए. की, बी. एड भी कर ली। वह ज्ञान को मेरठ छावनी से पत्र लिखता। ज्ञान जवाब
देने में आलस कर जाता। तब तक मास्टर का एक और पत्र आ जाता। एक-आध पंक्ति में
घर-परिवार का कुशलक्षेम पूछ वह नई देखी जगहों के बारे लिखता, अपने साथियों के बारे
में बताता। छुट्टी आने पर ज्ञान के लिए रम की बोतल भी लाता। ससुराल जाने पर ज्ञान
पहले उसके पास जाता। मास्टर की ज्ञानपूर्ण बातें सुनते-सुनते वह कहता – ‘मैं
तो कुएँ का मेंढक ही रह गया।’
मास्टर कहता, ‘हम
जब घर से निकलेंगे, तो नए लोगों से पाला पड़ेगा। मेरे घर वाले मेरे फौज में भर्ती
होने को अच्छा नहीं समझते थे। यह तो मुझे पता है कि मैंने फौज में आकर क्या कुछ
सीखा। तू अपना जीवन क्यों ख़राब कर रहा है। दो-चार खेतों और दो भैंसों को संभालने
में कितना वक्त लगता है। खाली बैठ मक्खियां मारता होगा। प्राइवेट तौर पर बी. ए. कर
ले। तू गाँव से बाहर निकल। इस पिछड़े गाँव से कुछ नहीं मिलने वाला।’ वह कह देता, ‘अच्छा सोचता हूँ।’
उसे लगता कि मास्टर बहुत समझदार हो गया है। उसके पास रोज़ नई-नई बातें होती हैं।
अपनी बात मनवाने पर ज़ोर न देता, ‘मैं तो तुम्हारे भले की
बात कर रहा हूँ। अच्छी लगे तो अमल कर लेना।’
चलो क्यों बेकार ही मन पर बोझ रखना, फोन
कर मास्टर से पूछ ही लिया जाए।
उसने फोन उठाया ही था कि तारो आ गई। उसे जगा देख पूछने
लगी, ‘तुम अभी सोए नहीं। मैं तो धीमे कदमों से आई हूँ कि कहीं मेरी पदचाप सुनकर
तुम्हारी नींद न खुल जाए। तुम तो जग रहे हो।’
‘सोने ही जा रहा था कि सोच में पड़ गया।’ ज्ञान ने कहा।
‘अब सोचने वाली कौन सी बात रह गई सब कुछ तो अच्छे से निपट
गया।’
उसने तारो को मास्टर के फोन के बारे बताया तो वह बोली- ‘हमारे
गाँव में उनके परिवार को समझदार परिवार माना जाता है। पहले दादा मास्टर था बार
(पाकिस्तान का एक इलाका) में। बेटा भी मास्टर बना। अब जगदीश सिंह फौज से पेंशन
लेकर बीर गाँव में मास्टर लग गया है।’
‘आज तो खूब तारीफें कर रही हो अपने गाँव के मास्टर की।’
‘एक गली में रहते हुए कौन सी बात छुपी रहती है। मुझे बताओ तो
मैंने उस भले मानुष के बारे कब बुरा कहा।’ उसने तारो की इस
बात का कोई जवाब न दिया। कल की बात के बारे पूछा – ‘तुम रात
को मालड़ी वाली रानी के साथ खूब बतिया रही थी। मैं गया तो रानी चुप हो गई थी। कुछ
ख़ास बात थी क्या?’
‘एक
बात थोड़े ही है। उसके पास तो बातों का पिटारा है। लगभग दो महीने पहले अपनी भतीजी
लवजीत को कैनेडा में मिल कर आई है।’
‘कोई
ख़ास बात है तो मुझे भी बता दो। अब मेरी नींद उचट गई, जल्दी नहीं आने वाली।’ वह उठ कर दीवार से टेक लगा कर बैठ गया।
पहले यह
लिफाफा सिमरन को दे आऊँ। इसे वह अपने अटैची में रख ले। जिसके पास जाना है, उसीका
सामान अगर यहाँ छूट गया तो क्या करेंगे, यह तो मुझे लेटते समय याद आ गया। मैं उसी
वक़्त उठ कर आ गई।’
तारो ने पैक
किया हुआ एक हल्के रंग का पैकेट उठाया और चली गई।
ज्यों-ज्यों
सिमरन के जाने का समय निकट आ रहा था त्यों-त्यों वह ज़्यादा सोचने लगा था। अकेली
लड़की कहाँ रहेगी। जहाँ जाकर उसे रहना है, वहाँ से उसका कॉलेज कितनी दूर होगा? काम पर जाएगी, वहाँ जाने में
कितने घंटे लगेंगे ? चार दिन कॉलेज,
तीन दिन काम पर। पता नहीं कितनी बार उसने सिमरन से इस बारे में पूछा था। सिमरन
बताते हुए न ऊबती, ‘आपको किस बात की चिंता है? पहले यह बताएं कि आपको मुझ पर भरोसा है या नहीं।’
वह ‘हाँ’ में सिर हिला देता। फिर वह
अपनी प्लैनिंग के बारे में बताने लगती – ‘मुझे एयरपोर्ट से
मेरी जंडियाले वाली फेसबुक फ्रेंड रजनी अपने पास ले जाएगी। मैं उसके साथ कमरा शेयर
करूंगी। रजनी भी उसी कॉलेज में पढ़ती है। वह मुझसे एक साल सीनियर है। मैंने एक बात
देखी है कि आजकल रिश्तेदारों की तुलना में फ्रेंड सर्कल ज़्यादा काम आता है।’ बाप-बेटी की बातों में तारो भी शामिल हो जाती, ‘जिन्हें
हम अपना क़रीबी समझते हैं, सबसे ज़्यादा ईर्ष्या उन्हें ही होती है कि कहीं हमसे
आगे न निकल जाए।’
सिमरन को
लिफाफा पकड़ा वह उसके पास आ बैठी। उसने कुछ पल आँखें बंद कर रखीं मानो सोच रही हो
कि रानी वाली बात बताए या नहीं।
‘अब किस उधेड़बुन में फंस गई हो ?’
उसने तारो को बाँह से पकड़ कर झकझोरा।
‘मैं सोच रही थी कि हम भी कितने पागल हैं। पच्चीस-पच्चीस लाख
खर्च कर अकेली लड़की को बेगाने मुल्क़ में भेज रहे हैं। हमारा वहाँ न कोई
रिश्तेदार, न कोई परिचित। मैंने कभी सिमरन को शाम को अकेले कहीं नहीं भेजा। भले ही
कितना ज़रूरी काम क्यों न हो। अब वह परदेस में अकेली रहेगी। फिर बाद में पता नहीं
कितने पैसे भेजने पड़ेंगे।’ तारो की आवाज़ बैठने लगी थी।
‘अगर हम लोगों की बातों पर जाएं तो कैनेडा वालों का बिजनेस
है। तरसेम लाल बता रहा था कि वहाँ की सरकार ने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को मदद
देनी बंद कर दी है। कॉलेज और यूनिवर्सिटी बंद होने के कगार पर थे कि उन्हें नया
विचार सूझा। उन्होंने एशिया के बच्चों के लिए कॉलेज और यूनिवर्सिटियों के द्वार
खोल दिए। बच्चे धड़ा-धड़ जाने लगे। बीस-तीस लाख खर्च हो गया। हवाई जहाज़ों को
सवारियां मिल रही थीं। फिर बच्चों के माता-पिता जाएंगे। इधर की ज़मीन-जायदाद बेच
कर पैसा उधर चला जाएगा। उन्हें सस्ती लेबर मिल जाएगी। माता-पिता पक्के होने के लिए
मिन्नतें करेंगे। पता नहीं इसके पीछे और क्या चल रहा है। मेरे जैसे को कुछ समझ
नहीं आता। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि अच्छे भले की मति मारी गई है।’ वह भी उठ कर बैठ गया। उनको अगर सिमरन के विदेश जाने की खुशी थी तो साथ ही
चिंता के पिटारे का वज़न भी कम नहीं था। पल-पल बढ़ रहा था। उसने तारो से कहा, ‘मैंने सब कुछ रब पर छोड़ दिया है। उसकी वही जाने। तुम रानी के बारे बताने
वाली थी।’
तारो ने बताना शुरू किया, ‘रानी
के भाई सुरजन की गोहीरां वाली साली सत्या की बड़ी बहू हरकीरत स्टडी बेस पर कैनेडा
गई थी। सारा खर्च इन्हीं लोगों ने उठाया था, शादी सहित। लड़की गरीब घर की थी।
माता-पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि आईऐल्टस (IELTS) में साढ़े सात बैंड अर्जित करने वाली अपनी बेटी को
विदेश भेज सकें। सत्या ने लालच कर लिया। पहले बहू जाएगी, फिर बीए में दो बार फेल
हो चुका बेटा। फिर पूरे परिवार का दाँव लग जाएगा। सत्या ने बहू पर खुला खर्च किया।
पहले-पहल बहू के दिन में दो-तीन बार फोन आते रहे। फिर दिनों से दिन, हफ्ते से
महीना-महीना भर गुज़रने लगा। अगर ये लोग इधर से फोन करते तो बहू कहती, ‘ड्यूटी
पर हूँ।’ फिर बहू ने फोन रिसीव करना छोड़ दिया। विधवा सत्या
ने चालीस लाख खर्च किए थे। बेचारी सोच-सोच कर पागलों जैसी हो गई। वह सुरजन के पास
आ फूट-फूट कर रो पड़ी, ‘भाई साहब, हमारी बहू ने हमें कंगाल
कर दिया। समझ नहीं आता अब क्या करें। आप समझदार हैं, कोई रास्ता निकालें। गुरप्रीत
का उदास चेहरा मुझसे देखा नहीं जाता। जवान बेटा कोई गलत कदम न उठा बैठे। जब मैं
बेटे के बारे सोचती हूँ तो मुझे रात-रात भर नींद नहीं आती।’
सुरजन के परिवार में सबसे समझदार और पढ़ी-लिखी रानी है। उन्होंने रानी को फोन कर
अपने पास बुलाया। सुरजन की पत्नी सुखजीत ने कहा – ‘बहन जी
आपके पास कैनेडा का वीज़ा है। सत्या टिकट ले देगी। आप जाकर हरकीरत को समझाइए कि वह
गुरप्रीत को अपने पास बुला ले। आप तो जानती ही हैं कि शादी के बाद लड़के के लिए
अकेले रहना कितना कठिन होता है है। अपने दो काम हो जाएंगे। आप अपनी लवजीत से भी
मिल लेंगी।’ रानी को बात जम गई। कैनेडा जाने को किसका जी
नहीं चाहता भला? उसके पास दस सालों का वीज़ा था। उसका बेटा
जसप्रीत किसी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई कर लौट आया था। जिनकी इधर अच्छी खेती-बाड़ी है,
कामकाज है। उन लड़कों का उधर जी नहीं लगता। तारो ने लंबी आह भरी।
‘रानी
सीधे अपनी भतीजी लवजीत के पास गई। लवजीत अपने दोस्त के साथ उसे एयरपोर्ट पर रिसीव
करने आई। जब लवजीत ने अपनी बुआ को आलिंगन में लिया तो उसे उसके मुँह से शराब की बू
आई, परंतु उसने ज़ाहिर नहीं किया। उसने हरकीरत के बारे पूछा तो लवजीत ने लापरवाही
से कहा – ‘बुआ जी, यहाँ किसके पास वक्त है कि किसी से मिले,
किसी की खोज़-ख़बर रखे। सभी आज़ाद हैं, अपनी आज़ादी में किसी की दखल-अंदाज़ी पसंद
नहीं करते।’ उसके दोस्त ने कहा – ‘अच्छी
बात यही है कि एयरपोर्ट पर उतरते ही हमें इंडिया को भूल जाना चाहिए। जिस कंट्री ने
हमें रोज़गार नहीं दिया, हमारे भविष्य के बारे में नहीं सोचा, उसके बारे सीरीयस
होने की क्या ज़रूरत है। मैंने यहाँ आकर यह सीखा कि खूब मेहनत से काम करो। फिर
खाओ-पीओ, घूमो-फिरो’ रानी ने कहा – ‘पीछे
घरवाले जाएं भाड़ में।’ लवजीत अपने दोस्त के साथ सामने वाली
सीट पर बैठी थी, रानी पिछली सीट पर। उसका दोस्त बोला – ‘मैं
आपको दो बातें बताता हूँ। पहली तो यह कि किसी को पी. एस. सी. या आई. ए. एस. बनने
की उतनी खुशी नहीं होती जितनी अमरीका या कैनेडा आने की होती है। मेरे डैडी का
क्लासफेलो सुखविंदर परमार, पंजाब रोडवेज़, चंडीगढ़ में वर्क्स मैनेजर था। उसके
मातहत गुरमुख लाल ड्राइवर था। अपनी रिटायरमेंट के बाद दोनों अपने बेटों के पास आ
गए। मैंने दोनों को एक ही स्टोर में बतौर सिक्युरिटी गार्ड काम करते देखा। दूसरी
बात मेरे साथ बीती है। पहले मैं, अलबर्टा में रहता था। हमारा पाँच लड़कों और पाँच लड़कियों
का ग्रुप था। चारों विवाहित थीं। कुछ समय तक वे घर वालों से जुड़ी रहीं। आखिर उनकी
भी ज़रूरतें थीं। मेहनत वे करें, बारह-बारह घंटे काम करें। सोचें पीछे वालों के
बारे में। यह कहाँ का कानून हुआ। ऊब कर उन्होंने अपने पतियों के फोन सुनने बंद कर
दिए। कैंटी ने बताया था कि उसके साथ उसके पति ने इसलिए शादी रचाई थी कि उसने
आईऐल्टस (IELTS) में साढ़े चार
बैंड लिए थे। उसके पीछे लग कर वह भी इधर आ जाएगा। जब जी आर मिल जाएगी कैंटी को
तलाक देकर इंडिया जाएगा। अपनी मनपसंद लड़की से फेरे लेगा। मुझे बताइए कि जब शादी
की नींव ही स्वार्थ पर रखी जाए, वहाँ प्यार कैसे पनपेगा।’
रानी को लगा कि उसकी इंग्लिश की मास्टर डिग्री इन बच्चों के सामने कुछ भी नहीं है।
‘तीसरे
दिन ही रानी का दम घुटने लगा। जो महिला अपनी एक बीघे में बनी बड़ी सी कोठी में रही
हो, उसका यहाँ कबूतरखाने में कहाँ दिल लगेगा? अगर वह बाहर
निकलती तो ठंड में कंपकंपी छिड़ जाती। जब वह मॉन्ट्रियल में अपने बेटे से पास आई
थी, उसके पास तीन कमरों का घर था। दो
लड़कों के साथ मिलकर किराए पर लिया था। उसे वहाँ अजनबीयत महसूस नहीं हुई थी। यहाँ
बेसमेंट में बाहरी हवा नहीं लगती। बुआ-भतीजी एक ही गद्दे पर करवटें बदलती रहतीं।
लवजीत के कॉलेज की छुट्टियां थीं। उसकी दो सप्लीमेंट्री आई हुई थीं। रानी ने इस
बारे में पूछा तो लवजीत ने लापरवाही से कहा, ‘तो क्या हुआ?’ रानी ने पूछा कि इसका मतलब क्या हुआ? लवजीत ने गुस्से से कहा – ‘जब हम आपको एयरपोर्ट पर लेने गए थे, बताया था न कि अब हमें बंदिशों में
रहना पसंद नहीं।’ रानी ने प्यार से कहा – ‘बेटी! अपने बाप के बारे में सोचो, रुपयों की गठरी
खर्च करके तुम्हें इधर भिजवाया। लवजीत की टोन न बदली – ‘अगर
इंडिया में मेरी शादी करते, अपनी नाक बचाने के लिए इससे ज़्यादा खर्च करना पड़ता।’ रानी को लगा कि लड़की नहीं मानने वाली। वह हरकीरत को ढूँढने आई थी परंतु
यहाँ तो उसकी अपनी भतीजी ही खो गई थी।
सोच-सोच कर उसका सर फटने लगता। वह पैनाजोल की टैबलेट खाती। दुपट्टे से कस
कर सर बाँध लेती। एक-दो बार सत्या का फोन आया था कि वह हरकीरत से मिली या नहीं।
उसने कहा - ‘जिस दिन लवजीत फ्री होगी, वे हरकीरत के पास
जाएंगे।’ हरकीरत मिसीसागा रहती थी। लवजीत मिल्टन में। रानी
ने हरकीरत का पता लगा लिया था। समस्या थी कि उसे वहाँ कौन लेकर जाए।
लवजीत पाँच दिन काम करती, जब तक कमरे में होती
उसके कान से मोबाइल लीड न उतरते। रानी डर के मारे कुछ न पूछती कि पता नहीं सामने
से लड़की क्या जवाब दे बैठे। लोहड़ी वाले दिन उसने इस फिल्म का ट्रेलर देखा।
घर के पिछवाड़े लॉन में 8 लड़के-लड़कियों ने धूनी जलाई।
धूनी के इर्द-गिर्द बैठ गए। एक लड़के ने व्हिस्की की बोतल खोल ली। एक आदमी बोतल को
मुँह से लगा कर बड़ा सा घूँट भरता। फिर दूसरे को पकड़ा देता। बोतल आठों के बीच
घूमती रही। एक ख़त्म हुई तो दूसरी खोल ली गई। लवजीत ने मोबाइल पर गाना लगा दिया, ‘तू
नहीं बोलदी रकाने, तू नहीं बोलदी, तेरे ‘चों तेरा यार बोलदा।’ सभी नाचने लगे। जोड़ियां बन गईं। वे अपनी दुनिया में खोये रहे, गुम होते
रहे। होश में आते रहे। भूरे रंग की कमीज़
वाले लड़के ने ‘हम दुनिया की परवाह करे क्यों?’ गीत लगाया तो रानी ने हेडफोन
कानों में लगा लिया। उसने सुबह बाहर जाकर देखा। पाँच खाली बोतलें इधर-उधर पड़ी
थीं। इसका मतलब कि लवजीत आधी बोतल पी गई थी। सुबह नौ बजे लवजीत उठी। चाय बनाई। दो
ब्रेड पीस जैम लगाकर जल्दबाज़ी में खाए और कहा, ‘अच्छा बुआ
रात को मिलते हैं।’ उसने यह न पूछा कि बुआ आपका आज का क्या
प्रोग्राम है? मेरे बाद आप क्या खाएंगी? उसका यहाँ कोई परिचित भी नहीं था। वह तो बेसमेंट तक सीमित होकर रह गई थी।
खाली बैठी वह इधर-उधर पड़ी चीज़ों को सहेजने संवारने लगी। गोलियों और निरोध के
पैकेट को हाथ लगाते ही वह सिहर उठी। तारो के बदन में झुरझुरी आ गई। उसे गैस का
ध्यान आ गया – ‘एक मिनट ठहरो, कहीं मैं गैस तो जलती नहीं
छोड़ आई।’
तारो रसोई की तरफ भागी। ज्ञान को अपने सहकर्मी मलियां
वाले भगवंत की कैंटीन में बताई बात याद हो आई। एक दिन दोनों कैंटीन में चाय पी रहे
थे। भगवंत ने बात छेड़ी थी - ‘विदेशों में भी हमारे जैसे लोग ही हैं,
जिनके बढ़िया काम-काज हैं, कारोबार हैं, उनका जीवन सहज है। आर्थिक रूप से कमज़ोर
तो हम से भी गए गुज़रे हैं। मैं एक बार इंग्लैंड हो आया हूँ अपने साले की बेटी की
शादी पर। हमारे गाँव का लैंभर बर्मिंघम में रहता है। मुझे उसका फोन आया कि अंकल जी
मिल कर जाएं। मैं आपको एक दिन घुमा-फिरा दूंगा। मेरे साले साहब ने मुझे हीथरो
एयरपोर्ट पर बर्मिंघम वाली कोच में बिठा दिया। वहाँ बस को कोच कहते हैं। आगे मुझे
लैंभर ने रिसीव कर लिया। उसके ठौर की तरफ जाते वक्त रास्ते में एक पाउंड वाली
दुकान आई। लैंभर ज़ोर डालने लगा कि अगर कोई चीज़ चाहिए तो यहाँ से ले लें। मैंने
कहा, कोई बात नहीं, कल देखेंगे। लगभग दो फर्लांग दूर चलकर वह दुकान पर बने कमरे
में ले गया। तीन-चार टीवी पड़े थे। मैंने पूछा कि ये इतने सारे क्यों पड़े हैं। उस
ने बताया कि जिस घर में वे एलसीडी पहुँचाने जाते हैं, वे लोग उठवा देते हैं। उसका
फेंकने को जी नहीं चाहता। वह यहाँ लाकर रख देता है कि हममें से किसी भाई के काम आ
जाएगा। और भी बहुत सी पुरानी चीजें पड़ी थीं। शाम को वह व्हिस्की की एक बोतल ले
आया। रात को उसके दो साथी आ गए। उन्होंने मुर्गा पकाया। हम पेग लगाते रहे। गाँव की
बातें करते रहे। नीचे बिछाए गद्दों पर लमलेट हो गए। टूटी सी चारपाई पर कब कौन आ
लेटा, मुझे पता ही नहीं चला। सुबह चाय पीते समय लैंभर ने बताया – ‘अंकल जी, हमने आज आपके आने पर खाना बनाया है। नहीं तो एक वक्त सिंह सभा
गुरुद्वारे से लंगर छक आते हैं। दूसरी बेला रविदासियों के गुरुद्वारे से।’ इंडिया से उसके बेटे फीटे का फोन आ गया। उसने मेरे बारे में बताया तो
फीटे ने कहा, ‘यह तो बहुत अच्छा हुआ। इनके हाथ मेरे लिए
रीबोक के शूज़ भेज देना।’ उसने फीटे को एक अच्छी सी गाली दी
– ‘माँ आपणी दा खसम। रीबोक के जूते चाहिए। हम गुरुद्वारे से
खाना खाकर अपना गुज़ारा कर रहे हैं।’ फीटे ने आह सी भरी तो
लैंभर का दिल कैसा-कैसा होने लगा। उसने कहा, ‘कोई बात नहीं
बेटा। तुम्हें जो चाहिए मैं भेज दूंगा। तुम अपनी मम्मी का ध्यान रखना।’ मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुसा तो टब टेढ़ा हुआ पड़ा था। पता नहीं
आख़िरी बार कब इसे साफ़ किया गया था। बदबू
आ रही थी। ट्वॉयलेट का भी यही हाल था। मैं हाथ-मुँह धोकर निकल आया। लैंभर ने मेरे
लिए काम से छुट्टी ली थी। वह मुझे घुमाना चाहता था परंतु मेरा मन नहीं माना।
उनकी पिछली तरफ बैठा कांगणे वाला मंजीत उठ कर उसके पास आ
बैठा था। कहने लगा, ‘एक तो हमारे लोग ज़्यादा सोचते भी नहीं।
भगवंत के गाँव में मेरी ननिहाल है। मैं प्यारे के लड़के बबलू को अच्छी तरह जानता
हूँ। जब बबलू विदेश जाने के लिए कमर कसे फिर रहा था, उसने इस बारे में मुझसे भी
पूछा था। मैंने उसे समझाया कि उसके 10-11 खेत हैं। बाहर जाकर कौन सा मोर्चा मार
लेगा। जो तुम पैंतीस-चालीस खर्च करके गैरकानूनी रूप से जाने को फिरते हो, उतने की
तो पचास-साठ भैंसे आ जाएंगी। डेयरी खोल लो। शहर में जितना दूध जाता है, वह भी कम
ही होता है। दूध की हमेशा ज़रूरत रहती है। दो सालों में तुम स्टैंड कर जाओगे। जिसे
बाहर जाने की आग लगी हो उसे सच्ची बातें भी झूठ लगती हैं। अब गैरकानूनन गया है,
धक्के खाता फिरता है। पीछे घरवाली के लच्छन भी.... लड़के बिगड़ैल बन गए सो अलग।
जाए तो वह जिसका यहाँ गुज़ारा न होता हो। फिर बच्चे समझदार हों तो घर को संवार
देते हैं। हमारे गाँव का प्रकाशराम सोनीभगत, उसका काम ऐसा-वैसा ही रहा औलाद बहुत
समझदार निकली। पहले बड़ी बेटी कैनेडा गई पढ़ाई के लिए। उसने बैंक से लोन लिया था
पढ़ाई के लिए। कुछ उसकी ननिहाल वालों ने सहायता की थी। उनका काम बढ़िया है। लड़की
ने तीन साल बाद अपने छोटे भाई को बुला लिया। प्रकाशराम के दिन फिरने लगे। लड़की की
माँ ज़िद करने लगी कि गाँव में शानदार कोठी बनानी है। सरपंच से भी बढ़िया। लड़की
ने अपनी माँ को समझाया कि जब आपको गाँव में रहना ही नहीं तो फिर कोठी पर पैसे
लगाने का क्या फायदा ? आप लोग एक बार यहाँ से गए, फिर पीछे
लौटने का नाम नहीं लेंगे।’
मंजीत की बात ख़त्म हुई तो शाहकोट वाला रमेश कुमार शुरू
हो गया, ‘यह
तो भला हो विदेशी सरकारों का जिन्होंने हमारे बच्चों के लिए अपने देश के दरवाज़े
खोल दिए हैं। नहीं तो हम जिन नेताओं को दौड़-दौड़ कर वोट देते थे, उन्होंने हमें
आश्वासनों के झुनझुने ही थमाए रखने थे। इन लोगों के पास धर्म के अलावा कोई दूसरा
मुद्दा है ही नहीं। मैंने कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना की रिपोर्ट पढ़ रखी थी कि
पंजाब के गेहूँ का एक भी दाना नहीं बचा जिस पर खादों या दवाओं का असर न हो। शहरों
में इतना प्रदूषण फैला है कि भगवान ही मालिक है। नशों के बारे आप सभी जानते हैं।
मैं तो कहता हूँ जिसके पास चार पैसे हैं या अन्य साधन है वे अपने बच्चों को
विदेशों में भेज दें। एक पीढी को ज़रा तकलीफ़ होगी परंतु उनके नाति-पोतों का जीवन
संवर जाएगा। यहाँ तो आगामी 20 सालों तक पानी ख़त्म हो जाएगा – फिर देखना क्य़ा होता
है।’
‘मेरे दिमाग को पता नहीं क्या होता जा रहा है, अब कुछ याद
नहीं रहता।’ तारो ने रसोई से आकर कहा।
‘तुम बता रही थी कि रानी ने लड़की के सामान की तलाश लेनी
शुरू की।’ ज्ञान ने छूटी हुई बात का सिरा जोड़ने के लिए
बताया।
‘शुक्रवार रात को लवजीत ने अपनी बुआ से कहा कि वह बाहर जा
रही है, इतवार शाम को आ जाएगी। रानी ने उसे याद दिलाया कि कल उन्हें हरजीत के पास
जाना था। लवजीत बोली, हमारा वीकेंड का प्रोग्राम पहले से ही बना होता है, मुझे
जाना पड़ेगा। अगर मैं नहीं गई तो हमारे ग्रुप वाले लेने आ जाएंगे। उसने अपनी बुआ
की तरफ देखा तक नहीं। चली गई। रानी के मन में एक बात आए, एक जाए। एक बार सोचा कि
वह सुरजन से कहे कि तुम अपनी साली की चिंता छोड़ो, अपनी बेटी के बारे सोचो। दूसरा
विचार कहे, अभी तेल देखो और तेल की धार दखो। उसने खुद पर नियंत्रण जारी रखा।
जैसे-तैसे शनिवार-इतवार गुज़ारा। तीसरे दिन रात के लगभग नौ बजे लवजीत आई। उसके बाल
बिखरे हुए थे। कपड़े भी अस्त-व्यस्त से ही। मुँह से शराब की बू आ रही थी। उसे अपनी
सुध तक नहीं थी। बेसिर-पैर की बातें कह रही थी। धड़ाम से आधी गद्दे और आधी फ़र्श
पर गिर पड़ी। रानी ने उसे घसीट कर गद्दे पर लिटाया। उसका ध्यान लड़की की बाईं बाजू
पर गया। वहाँ अंकित था – जगदीश कुमार रत्तू। पढ़ते ही उसके मुँह से चीख
निकलते-निकलते बड़ी मुश्किल से बची। जैसे-तैसे उसने रात गुज़ारी। सुबह चाय बनाकर
लड़की को जगाया। अधजगी सी लड़की बोली – मुझे सोने दीजिए। उसे कह दीजिए - मैं आज सुक्खे ड्राइवर के साथ नहीं जा पाउँगी।
वह तो साला हब्शियों जैसा है। पाँच सौ डॉलर भी दे तो भी नहीं जाती। फिर काफ़ी देर
तक बेसिर-पैर की बातें करती गई। रानी ने उसे नहीं उठाया। वह दोपहर बाद जगी। रानी
ने उसके बाल बनाए। उसके सर को अपनी गोद में रख कर उसकी पढ़ाई और जॉब के बारे बातें
कीं। जब उसे लगा कि लड़की उसकी बातों के जवाब ठीक तरह से दे पा रही है तो उसने
लाल-पीली होते हुए पूछा – ‘तू बाँह पर रत्तू का नाम लिखवाए
घूम रही है?’ लड़की
ने कहा – ‘हाँ, यह मेरा ब्वॉयफ्रेंड है।’ रानी ने पूछा – ‘लोहड़ी वाले दिन कोई और लड़का था,
तुमने क्या सोच कर यह राह अख्तियार की ?’ वह उठ कर बैठ गई।
खा जाने वाली निगाहों से अपनी बुआ की तरफ देखा। रानी की रुलाई फूट पड़ी। उसने
रोते-रोते कहा – ‘लड़की कुछ तो अपने बाप की इज़्ज़त का ख़याल
किया होता।’ लड़की
पत्थर की तरह ख़ामोश रही। उसने अपनी बुआ को किसी बात का जवाब नहीं दिया। घंटे भर
बाद कोने में पड़ी बोतल से अधिए का पैग बनाकर एक ही साँस में गटक लिया। फिर कहा – ‘मैं क्यों किसी के बारे सोचूं ? सच आपसे देखा नहीं
जाता। न आप लोग सच सुन सकते हैं। अब मैं किसी साले की परवाह नहीं करती।’ रानी को लगा कि लड़की रिश्तों के पार चली गई है। उसने अपनी ही दुनिया गढ़
ली है। रानी मंझधार में फंस गई। उसकी सगी भतीजी का मामला था। अपना खून प्रहार कर
रहा था। इस बारे में किससे बात करे। कौन उसे समझाए?
रानी मजबूर थी। वह लड़की के सामने जितना रोई थी, तड़पी
थी, ऐसे क्षण उसके जीवन में पहले कभी नहीं आए थे। फिर वह लड़की का मूड देख बात
करती। एक दिन उसने फिर लड़की को समझाना शुरू किया, ‘ये जो तुमने लड़के बदलने की
आदत बना ली है, जिससे तू शादी करेगी, उससे जुड़ने नहीं देगी। अपने आने वाले जीवन
के बारे में गंभीरता से सोचो। बताओ, तुम चाहती क्या हो ?’ लवजीत ने बताया कि उसे शादी की ज़रूरत नहीं
पड़ेगी। शादी किस लिए करनी, यहाँ हज़ारों लड़के-लड़कियां बिना शादी किए रह रहे
हैं। रानी ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। उसने लड़की से कहा – ‘सारी उम्र ऐसे नहीं गुज़रती। यह तो वही बात हुई कि चार दिनों की चाँदनी,
फिर वही अंधेरी रात।’
फिर उसने कहानियां सुनानी शुरू की। गांधारी के पिता ने
अंधे धृतराष्ट्र से उसकी शादी कर दी। गांधारी ने चूं तक नहीं की। कहा – जो पिता ने
किया, अच्छा ही किया होगा। उसने अपनी आँखों पर काली पट्टी बाँध ली। ज़िंदगी भर
पट्टी नहीं खोली। लड़की ने पूछा – ‘इस बात का मुझसे क्या संबंध
है ?’ रानी ने कहा –
‘हमारे समाज में पति परमेश्वर होता है। लड़की स्वयं को पति
के लिए संभाल कर रखती है।’ लड़की ने कहा – ‘बकवास है यह सब।’
रानी ने एक और कहानी सुनाई – ‘पट्टी
शहर में दूनीचंद नामक एक क्षत्रिय रहता था। उसके पास बेइंतहा धन-दौलत और ज़मीन थी।
उसकी पाँच बेटियां थीं। एक दिन उसने पाँचों बेटियों को सामने बिठा लिया। पूछा कि
वे किस का दिया खाती हैं। चार ने कहा – पिता का दिया। पाँचवी लड़की रजनी ने कहा,
परमात्मा का। परमात्मा सभी प्राणियों को रिजक देता है। पिता को क्रोध आ गया। उसने
रजनी का विवाह एक कुष्ट रोगी से कर दिया। रजनी ने निश्चय किया कि यदि उसके पिता ने
उसका विवाह कुष्ट रोगी से किया है तो वह उसका साथ कभी नहीं छोडेगी। उसका इलाज
करवाएगी। वह उसे वहिंगी में बिठा कर अलग-अलग हकीमों के घर जाने लगी। चलते-चलते
हरमंदिर साहब जा पहुँची। उसने अपनी पति को एक बेरी के नीचे बिठा दिया। खुद लंगर की
सेवा करने लगी। एक दिन उसके पति ने देखा कि काले कौवे ने सरोवर में डुबकी लगाई। जब
वह बाहर निकला तो उसका रंग सफेद था। वह भी घिसटते-घिसटते सरोवर में जा पहुँचा।
उसका कुष्ट दूर हो गया। अब भी लोग रजनी को पतिव्रता नारी के रूप में नमस्कार करते
हैं।’ लड़की ने ‘हाँ’ में सर हिलाया। रानी ने कहा, ‘ तुम्हारे डैडी ने भी
तुम्हारे लिए बहुत कुछ सोच रखा है। बड़ी धूम-धाम से शादी करेंगे। उसे कौन सी
पाँच-सात बेटियां ब्याहनी हैं। मुझे कह रहा था कि लड़की को अगर वहाँ कोई लड़का
पसंद आ गया तो हम कैनेडा जाकर उसका विवाह कर देंगे। तू समझदारी से काम ले। तेरे
साथ ही तुझसे छोटे का जीवन जुड़ा है।’
लड़की पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी कि उस पर कोई असर
ही नहीं हो रहा था। उसके लिए समझाइशें बेकार थीं। ऊबकर रानी ने लवजीत से पूछा – ‘अच्छा
! मुझे एक बात तो बता कि किस कंजर ने तुझे यह रास्ता दिखाया
है ?’ लवजीत ने कहा कि पिता और भाई ने। रानी ने पूछा – ‘कैसे ?’ लड़की का जवाब था कि उसके बाप ने उसे जहाज़ में चढ़ाने के बाद एक भी पैसा
नहीं भेजा। जब भी उसने यहाँ के खर्चों के बारे में बताया तो आगे जवाब मिला कि जैसे
दूसरे बच्चे काम करके खर्च पूरा करते हैं, तुम भी करो। फिर छोटे भाई कुलजिंदर से
जब भी फोन पर बात होती, वह वेन्यु सुपर मॉडल कार लेने के लिए पैसे मांगता। उसे
क्या पता कि यहाँ कैसे-कैसे खर्च हैं। मैंने उसे उसकी पसंदीदा कार खरीदने के लिए
पैसे भेज दिए। ऐपल 13 लेकर दिया। पैसे कहाँ से आए – यह सब आपके सामने है। बात
ख़त्म कर लड़की फूट-फूट कर रो पड़ी।
अब ज्ञान की समझ में आया कि मास्टर यह क्यों कह रहा था –
‘तुम
क्या सोच कर बेटी को विदेश भेज रहे हो?’ उसने तारो के आँसू
पोछे। अपना हाथ फैला कर कहा कि ‘यह देखो, पाँचों उंगलियां एक
जैसी नहीं होती। सिमरन के खर्च के लिए अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं दूसरा खेत भी बेच
दूंगा।’
उसने तारो को दिलासा दे दी थी परंतु सारी रात लवजीत का
चेहरा उसकी निगाहों से एक पल के लिए भी
ओझल नहीं हुआ।
*****
साभार - छपते छपते, उत्सव विशेषांक 2023
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