पाकिस्तानी पंजाबी कहानी
साभार : कथाक्रम (जनवरी - मार्च 2024)
0 असगर नदीम सईद
अजीब लीला है भगवान !
उधर पाकिस्तान से वाघा बॉर्डर से आप प्रवेश
करते हैं और अटारी पहुँच जाते हैं। दोनों तरफ दो वी. आई. पी. एक जैसा प्रोटोकोल लिए, सीना चौड़ा किए
प्रवेश कर जाते हैं। दोनों मुल्कों के अफ़सर मन ही मन कुछ समझते हैं – उनके भीतर मन नामक कोई चीज़ भी होती है। मैं जब दो मुल्कों की सरहद के भीतर “नो
मेन्स लैंड” पर आकर रुका और इधर-उधर देखा कि
कि हमने यह खूनी दरिया लांघ कर पाकिस्तान बनाया था। अब वहाँ खून की एक बूँद भी
नहीं थी – शायद इतनी बरसातों ने उन्हें धो
डाला था। मैं कुछ पल वहाँ खड़ा रहा... और अचानक मुझे ख़याल आया कि अच्छी-ख़ासी, खुली-डुली जगह है, मैं वहाँ अपना बिस्तर लगाऊँ और रहना शुरू कर दूं – “इसलिए कि न तो मैं
पाकिस्तान में हूँ, न हिंदुस्तान
में। यह जगह किसी और की नहीं, अल्लाह
की ज़मीन है। जिस पर किसी भी मुल्क़ का क़ानून न तो लागू है और न ही लागू हो सकता
है। इतनी ज़मीन तो है ही कि खेती-बाड़ी कर सकूं
और अपना पेट पाल सकूं। बारिशें तो होती ही हैं।” अचानक मुझे “टोभा टेक सिंह” याद हो आया - मुझे लगा, कहीं मैं वही तो
नहीं। शायद टोभा टेक सिंह ने मेरे रूप में दूसरा जन्म ले लिया हो और यह उसकाख़्वाब
हो। अचानक मुझे हिंदुस्तान वाले सुरक्षा अधिकारी ने घूर कर देखा और मेरे पास आ
गया। मैंने पूछा, “आप सआदत हसन मंटो को जानते हैं ?”
उसने इन्कार में सर हिलाया। मैंने बताया कि वह कहानीकार था।
“तो फिर?”
“तो फिर कुछ भी
नहीं। उसका एक किरदार था, टोभा टेक सिंह
या शायद वह खुद ही था। वह इस जगह, जहाँ मैं खड़ा
हूँ, आ कर अटक गया था और गिर कर मर गया था।”
“कब की बात है ?” “?”
“यह नहीं मालूम
क्योंकि उस घटना की किसी पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट नहीं लिखाई गई थी।”
“तो फिर साहब
इतना सोचने की क्या बात है – आपका कुछ लगता था क्या वह..... ?”
“हाँ, वह हम सबका कुछ न कुछ लगता था।”
“तो फिर आप आगे
बढ़ें, हमारी नौकरी को क्यों ख़तरे में डाल
रहे हैं।”
सरदार हरनेक सिंह घड़ोवा मेरी अगवानी के लिए आए
हुए थे। मुझे गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में वक्तव्य देना था
और कुछ दोस्तों से मिलना था...और एक अमानत टोभा टेक सिंह की बेटी तक
पहुँचानी थी। उसका नाम जो भी होगा बताउँगा क्योंकि
पाकिस्तान के सरकारी खातों में उसके कई नाम थे। आप यूं समझ लें कि टोभा टेक सिंह
एक नहीं, एकाधिक भी हो सकते हैं। मेरे पास बहुत बड़ी अमानत
थी... और अटारी से निकलते ही गाड़ी पाँच से सात मिनटों में एक खूबसूरत कॉलोनी में दाखिल
हो गई। हरनेक सिंह ने कहा, “आइए जी, घर आ गया।” मैं हैरान कि “मैं अपने डिफेंस
कॉलोनी के घर से निकला और बीस मिनटों में हरनेक सिंह के घर पहुँच
गया। इतना समय तो डिफेंस कॉलोनी के एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक में जाने में लग जाता
है।” मैं नाश्ता करते हुए हैरान सा था और सोच रहा था कि अगर यूरोप की भाँति यहाँ
भी सरहदें बस नाम-मात्र की हों और दोनों तरफ के वाहन बिना शिनाख़्त के
आ-जा सकें तो मैं दिन में दो चक्कर हरनेक सिंह के घर के लगा सकता हूँ। परंतु दोनों
तरफ जज़्बातों की खेती ने अच्छी-ख़ासी तरक्की कर ली थी और नफ़रत की मंडियां नकद
भुगतान पर दिन दूनी, रात चौगुनी
तरक्की कर रही थीं। अचानक कोई बाहर आया तो हरनेक सिंह ने मुझे बताया कि “बाहर, दारू सिंह आया है।”
“दारू सिंह.... क्या मतलब ? यह उसका असली नाम है ?”
“नहीं। पता नहीं
उसका असली नाम क्या है.....सभी उसे दारू सिंह कहते हैं बस।”
“मुझसे मिलने आया
है ?”
“क्योंकि आप ही
आज इस कहानी को ख़त्म कर सकते हैं। नहीं तो यह चलती रहेगी।”
“क्या कहानी है ?”
“वह खुद बताएगा।”
एक दारू सिंह भला कैसे अपनी कहानी सुनाएगा।
कहानी के दौरान वह कई बार गिरेगा। कई बार भूलेगा। कई बार लड़खड़ाएगा।
“उसकी एक कहानी
है, जो हम सुनते आ रहे हैं।”
“दारू सिंह दारू
पीता है ?”
“नहीं, दारू उसे पीती है।”
अब इंतज़ार हुसैन की भाँति मेरा भी माथा ठनका।
वैसे मेरा माथा छोटा सा है। जब ठनकता है तो मुझे बहुत तकलीफ़ होती है। फिर भी मैंने कहा, “उसे ले आइए।”
दारू सिंह के केश ऊपर से नीचे देवेंद्र
सत्यार्थी की भाँति बेतरतीब बढ़े हुए थे। अब अगर कोई देवेंद्र सत्यार्थी को नहीं जानता
तो वह इस कहानी को न पढ़े क्योंकि देवेंद्र सत्यार्थी लाहौर में खूब घूमा-फिरा है
– टी हाउस से लेकर उर्दू बाज़ार तक उसके किस्से बहुत मशहूर रहे हैं। मेरे
दोस्त हमीद ने तो उसे दाढ़ी और केश रहित भी देखा है और इस बारे में लिखा है कि “एक दिन मैं उर्दू बाज़ार से गुज़र रहा था तो
देखा कि देवेंद्र सत्यार्थी प्रकाशक के दफ्तर में बैठा था। मैं गया तो प्रकाशक ने चाय
की चुस्कियां लेते हुए पूछा – क्या इन्हें पहचानते हैं? मैं
चाय के साथ ऐसा सलूक कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मैं सिलोट, बर्मा
और साउथ इंडिया की चाय के स्वाद को अपने भीतर लिए फिरता हूँ। मैंने बेदिली से प्रकाशक
से पूछा कि कौन है? प्रकाशक
ने बताया कि ये देवेंद्र सत्यार्थी हैं।”
“अच्छा तो वे
सिर्फ़ दाढ़ी-मूछें थीं, भीतर से तो
रुंड-मुंड सा निकल आया है।”
ख़ैर, दारू
सिंह सामने आया। मैं परेशान कि अमृतसर में यह मेरा कोई प्रशंसक है या कोई मुखबिर।
या अल्लाह, क्या माज़रा है। दारू सिंह सर से पाँवों तक
दाढ़ी और बालों में रचा-बसा था जिस कारण देवेंद्र सत्यार्थी जैसा लगता था। मैंने मेजबान
से पूछा, “इसे मुझसे क्या काम है ?” तो उसने एक कहानी शुरू कर दी। मैंने कहा –
“किस्से सुनना-सुनाना आज के युग में वाजिब नहीं क्योंकि किसी के भी
पास वक्त ही नहीं है।”
दारू सिंह खुद बोला – “मेरा
नाम दारू सिंह था – ठीक है। फिर मुझे अपनी कहानी का स्टार्ट मिला.....यानी कि अपनी
भी तो कोई स्टोरी हो सकती है कि नहीं?”
“बिलकुल हो सकती
है।”
“हाँ, तो स्टोरी स्टार्ट होती है – 1947 में हिंदुस्तान का बंटवारा हो गया। मेरी माँ
और बापू मुल्तान में मुहल्ला टिब्बी शेर खाँ में रहते थे। बापू का नाम था
हरनाम सिंह। माता का नाम प्रीत कौर था। वह मुहल्ला हिंदुओं का था। इक्का-दुक्का सिक्ख
ही काम-काज के लिए वहाँ आबाद थे।”
मैंने उसे टोका, “रुकना, रुकना ज़रा। आपको किसने बताया कि मेरा जन्म
मुहल्ला टिब्बी शेर खाँ में हुआ था ?”
“लो जी फिर, मिलाइए हाथ। लोग मुझे यूं ही दारू सिंह नहीं
कहते। मैं तो साधु-संत हूँ। कैसे पहचाना मैंने ? एक
बार फिर
मिलाइए हाथ।”
“ख़ैर आप बात
पूरी कीजिए।”
“लो जी, मैं पहुँच गया जहाँ जाना था – मेरे बापू को
मुस्लिम युवती से इश्क हो गया। जब मैं माँ के गर्भ में आया, बापू ने केश साफ करवाए,
मुस्लिम बन कर उस युवती से निकाह कर लिया।”
“दारू सिंह, आपकी पैदाइश बॉर्डर के इस पार पाकिस्तान बनने
के बाद हुई क्या?”
“न – न महाराज, मेरी पैदाइश पाकिस्तान बनने के बाद नहीं, हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद हुई।”
“क्या यह एक ही
बात नहीं, सरदार जी?”
“हमारे लिए
पाकिस्तान का बंटवारा असली हादसा है....हाथ दीजिए।”
“अच्छा फिर, असली बात बताइए – फिर क्या हुआ? बापू मिला कि नहीं?”
“बापू को मैंने
नहीं देखा – मैं उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच गया हूँ।”
“सरदार जी, आप पाकिस्तान की उम्र के हमउम्र हो गए हैं।”
“नहीं-नहीं जनाब।
पाकिस्तान मेरा हमउम्र हो गया है, मैं नहीं।”
“चलो ऐसा ही सही
– फिर मैं क्या कर सकता हूँ आपके लिए?”
हरनेक सिंह घड़ोया ने बताया कि “जब उसे पता चला
कि उसके पिता ने मज़हब और उसकी माँ को छोड़ दिया तो उसका दिमाग़ घूम गया। जब से उसने होश
संभाला है, दिन में यह पाकिस्तान की तरफ मुँह करके
पिता को गालियां देता है और फिर रात को दारू पी कर सरहद पर आ जाता है।
ज्यों ही रात के बारह बजते हैं यह खाली बोतल सरहद की तरफ फेंक मारता
है और पिता की ऐसी-तैसी कर देता है फिर से। पाकिस्तान से आने वाले कलाकारों और
अदीबों से पूछता है कि उसका बापू कहाँ है? आज
इसने आपको घेर लिया है।”
“वह बात भी तो
बताइए न...हमने, अपनी गाड़ी अटारी के बॉर्डर से निकाल
कर पाकिस्तान के बॉर्डर के फाटक में जा मारी – और हम टुन्न पकड़े गए।”
“हाँ – हाँ, यह घटना तो सुन रखी है। सारी मीडिया में आई थी।
अच्छा तो वह दारू सिंह आप ही थे ?”
“तो और कौन कर
सकता है ? वह तो वाहेगुरु की मेहर हो गई जो
बॉर्डर सिक्योरिटी वाले मुझे अच्छी तरह जानते थे। हम फेमस जो हो चुके हैं।”
“फेमस होने के
कारण नहीं छोड़ा। टुन्न खिलाड़ी इधर बहुत गंदगी फैलाते हैं और भारत सरकार को यह
गंदगी साफ़ करनी
पड़ती है।” हरनेक सिंह ने बात को संक्षिप्त कर दिया।
“हाँ सरदार जी, सारे लोग गंदगी मचाते हैं – जब मिल-जुल कर
गंदगी में अपनी हिस्सेदारी करते हैं तब आप ससुरों को याद नहीं रहता, बस एक दारू सिंह ही प्रॉब्लम बन गया है।” दारू
सिंह ने टोका।
“ओए होश में आओ, स्टॉप लगाओ अब।”
“नहीं, तो दारू सिंह जी अब आप चाहते क्या हैं? मैं पाकिस्तान से आया हूँ और मेरा जन्म उसी
मुहल्ले में हुआ है जहाँ आपके पिता रहते थे, आपकी माता के साथ।”
“माता गुज़र गई
तो मैंने शपथ ली कि बापू को माफ नहीं करूंगा। मर्डर कर दूंगा। मैं रोज़ बापू का
मर्डर करता हूँ....कभी
कृपाण से, कभी फायर से, कभी
तो मैं उसका मर्डर दाँतों से चबा-चबा कर, कर
देता हूँ। आप इस कहानी को ख़त्म कर सकते हैं... बताइए मेरा बापू ज़िंदा
है? कहाँ
है?”
मैने माहौल देखा। पूरी बात मेरी समझ में आ चुकी
थी – दारू सिंह का मसला ही बहुत बड़ा मसला बन गया था – राजनैतिक मसलों की भाँति कि जो बंटवारे
के बाद अब तक टाले जाते रहे हैं। अब उन सब में दारू सिंह का मसला भी शामिल हो
गया था। कम से कम मेरी अब यह जिम्मेदारी बन गई थी कि मैं उन मसलों में से एक मसला
सुलझा सकता हूँ तो ज़रूर सुलझाऊँ। और मैं इस मसले को सुलझा सकता था।
फ्लैश बैक में कहानी गई तो मैंने देखा कि मैं ननिहाल के घर में हूँ मुहल्ला
टिब्बी शेऱ खाँ में और घर में एक पात्र का नाम शाम से ज़रा पहले गूंजा करता था
‘नामां’। उस
पात्र में मेरी बहुत दिलचस्पी हुआ करता थी क्योंकि शाम होते ही वह नाना के घर के
बिलकुल सामने, एक घर के चबूतरे पर आ हाज़िर होता था। सारा दिन
वह मुझे कभी भी कहीं दिखाई नहीं देता था। शाम के वक्त वह उस चबूतरे पर अपना
लोहे का देगचा लगाता था जिसमें मसूर की दाल होती थी। वह सफेद तहमद, सफेद कमीज़ और सफ़ेद पगड़ी बाँधता थाजो ज़रा
ढीली सी हुआ करती थी। उसकी मूँछें बड़ी थीं। नामां हमारे मुहल्ले का मशहूर किरदार
था कि शाम होते ही प्रत्येक घरसे कटोरियां और कटोरे लेकर बच्चे और बड़े निकल आते
थे और वह अपने बड़े से कड़छे से सब की कटोरियां और कटोरे भरता रहता
था। उस दाल की लज़्ज़त और खुशबू से सारा मुहल्ला महक जाता था। हर रात घरों में
खाना नहीं बनता था। नाना जी हर घर में खाना भिजवाते थे। एक घंटे
में वह फारिग हो जाता और फिर गायब भी हो जाता था। किसी ने नहीं देखा था कि वह
दिन के बाइस घंटे कहाँ रहता है?
मैंने अपनी नानी से पूछा कि “यह नामां कौन है?” तो नानी ने कहानी सुनाई कि यह नामां नहीं हरनाम
सिंह है। इधर इसका खानदान था। इसे चुगताईयों की लड़की से
इश्क हो गया था जो सामने वाले चौबारे में रहती थी। अब मैं इतना बेवकूफ तो
था नहीं कि चुगताईयों के खानदान को न जानता होऊं। उस खानदान के नैन-नक्श हॉलीवुड
को मात दे सकते थे। “तो फिर नानी अम्मा, क्या
हुआ ?” और फिर नानी अम्मा ने मुझे उस शहज़ादी
की कहानी सुनाई जो रात को नींद में सो रही थी और जिस पर एक दैत्य आशिक हो गया था। और
मैं नानी से पूछ बैठा कि “नानी अम्मा वह शहज़ादी किस कमरे में सो रही थी?”
नानी अम्मा ने नाराज़ होकर कहा था कि “शहज़ादी बेशक कहीं भी सो रही हो दैत्य को आशिक होना ही होता है।” तो ऐसा ही कुछ टिब्बी शेर खां में हुआ कि हरनाम सिंह आशिक हो गया, नींद में सोई चुगताई खानदान की युवती पर। वहाँ पहुँचा कैसे, यह सिर्फ़ एक संयोग था। ख़ैर, बेकार की बहसबाज़ी को छोड़ते हैं। बस फिर क्या होना था। इधर हरनाम सिंह भी ऊँचे कद-काठी का, सुंदर नैन-नक्श वाला सरदार था। युवती भी कैदी शहज़ादी थी। इश्क का जवाब इश्क में दे दिया परंतु युवती समझदार थी, शर्त रख दी। केश कटवा कर इस्लाम कबूल कर लो। हरनाम सिंह ने जब चुगताईयों की लड़की को दिलचस्पी से बात करते देखा तो ड्योढ़ी के अंधेरे में युवा बदन को बाँहों में भर कर देख लिया कि इस क़यामत के साथ क़यामत के दिन गुज़ारे जाने में कोई हर्ज़ नहीं है... तो इलाके की मस्ज़िद में जा पहुँचा। मौलवी मुहम्मद रमज़ान ने देखा पाकिस्तान बनने वाला है, पाकिस्तान की बरकत से एक सिख उसके हाथों मुसलमान बनने वाला है तो यह पाकिस्तान के नज़रिये से मजबूत नींव हो सकती है। उसने तारीख़ में नाम लिखा और हरनाम सिंह, नामां बन गया।
“आपने मेरे बापू
को देखा है... उसने तो कभी दाल नहीं बनाई थी। माँ कहती थी,
वह सूतर (धागा) मंडी में दुकान करता था।”
“दारू सिंह, मैंने तो बस उसे छुटपन में देखा था। फिर मैं
नाना के घर से शिफ्ट हो गया था।”
“तो फिर कहानी
ख़त्म कैसे होगी ?”
“हाँ, तो ग़ौर से सुनिए... जब आपके बापू ने अपना मज़हब बदला तो पाकिस्तान बनने वाला था। फिर क्या हुआ कि उसने चुगताइयों की बेटी को घर से भगाया और निक़ाह के लिए ले गया किसी मस्ज़िद में। उस मस्ज़िद पर हिंदुओं का हमला हो गया। मुश्किल से हरनाम सिंह ने महबूबा की जान बचाई पर फिर क्या हुआ कि ?...”
“ओ जी आगे बताइए
न क्यों सस्पेंस बना रहे हैं।”
“फिर वह महबूबा
को लेकर निकला, परंतु चुगताइयों का ख़ानदानी खून काम
कर चुका था। वे कुल्हाड़ियां, गंडासे, अंग्रेजी पिस्तौलें और बंदूकें लेकर अपनी लड़की
को बचाने के लिए निकल पड़े और उन्होंने हरनाम सिंह को आ घेरा।”
“चूँकि हरनाम
सिंह ने मुस्लिम बन कर निक़ाह कर लिया था इसलिए चुगताइयों ने हरनाम सिंह को क़त्ल
नहीं किया। उसे
इस शर्त पर बख्श दिया कि वह तलाकनामे पर दस्तख्त कर दे। हरनाम सिंह ने महबूबा की
तरफ देखा जिसने नज़रें झुका रखी थीं। हरनाम सिंह समझ गया और
तलाकनामे पर दस्तख्त कर दिए और उसके बाद पता नहीं वह लड़की और उसका खानदान
कहाँ गया। हरनाम सिंह अब मुसलमान बन चुका था। वह पीछे नहीं लौट सकता था। उसे एक
मुस्लिम खानदान ने पनाह दे दी। उसने शादी नहीं की। बस दाल का
देगचा लेकर आ जाता था और फिर गायब हो जाता। और फिर मर गया।”
दारू सिंह ने कहानी सुनी, उसकी कहानी पूरी हो चुकी थी।
“बापू को रोज़
क़त्ल होने का शौक था। हमें सपने में आकर बता जाता कि मैं नहीं रहा, तो हम रोज़ रात को क़त्ल का शो
न करते। चलो जी, ड्रामा ख़त्म हो गया। हम जाकर कोई और
मज़मा लगाते हैं। वाह बापू ! दग़ा दे गए, बेवफाई
कर दी। ठीक
नहीं किया। यह नाटक हमें रोज़ रात को ऐनर्जी दे रहा था। टुट गई तड़क्क करके। ओ
बापू, हमारी तो साँसें ही ख़त्म हो गईं।
नहीं, अब जीने का मज़ा नहीं आएगा। चल दारू
सिंह वहाँ चलें, जहाँ न बापू न बापू की जात हो।” दारू
सिंह नज़रें झुका कर निकल गया।
अगले दिन मैंने गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में
वक्तव्य दिया। सवाल-जवाब का दौर चला। ज़्यादा सवाल बंटवारे के बारे में
ही हुए....और उस वहशत और बर्बरता पर हुए जो सआदत हसन मंटो ने कहानियों के माध्यम
से ज़ाहिर की थी। मैंने कहा कि आपने अपने बुजुर्गों से क्यों नहीं
पूछा कि उन्होंने पहले से ही शापित इस धरती पर एक और जलियावालां क्यों बनने दिया? क्या यह खूनी होली धरती की प्यास बुझाने के लिए
काफ़ी नहीं थी? परंतु उन्होंने तो जवाब नहीं दिया एक
खूबसूरत बैरिस्टर
सुक्खी सिंह ऐडवोकेट सामने आया। हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करता था। बहुत नाम था
उसका पंजाब और दिल्ली में।
सुक्खी सिंह ने मुझसे समय माँगा कि वह मुझे
दावत के आमंत्रण के साथ-साथ एक बहुत ज़रूरी मसले के निपटारे के लिए बात-चीत
का आमंत्रण देने आया है और उसके मुताबिक सिर्फ़ मैं ही उसे मसले को निपटा सकता था।
मेरा माथा ठनका कि बड़ी मुश्किल से तो दारू सिंह से छुटकारा पाया
और अब यह सुक्खी सिंह आ गया है। मैंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। सुक्खी सिंह
बहुत पैसे वाला बैरिस्टर है। परंतु पहले एक बात बताना ज़रूरी है ताकि मैं भूल न
जाऊँ कि मैंने यूनिवर्सिटी के सवाल-जवाब सत्र के दौरान बताया कि आप पंजाब वालों को
पता ही नहीं कि आपने विभाजन में कौन-कौन सा ख़ज़ाना पाकिस्तान को सौंप
दिया है। मैंने बताया कि हम जो नगीने यहाँ से ले गए हैं - वे हैं ख़्वाजा खुर्शीद
नूर, सैफ-उल-उद्दीन सैफ़, ए. हमीद, इश्फाक़
अहमद, नासिर काज़मी,
हफ़ीज़ होशियारपुरी, शहज़ाद अहमद, मुजफ्फर अली सय्यद, सआदत
हसन मंटो, बारी अलीग, हफीज़
जालंधरी, उस्ताद अमानत अली, उस्ताद फ़तेह अली ख़ान परिवार, तफ़ील नियाज़ी, ए.
हमीद संगीतकार, ज़फर अली कश्मीरी, उस्ताद
सलामत अली खान परिवार तथा अन्य भी कई नाम थे। श्रोता हैरानी से मुझे देखते रहे
मानो उन्हें साँप सूँघ गया हो। फिर उनमें से एक सज्जन उठे और उन्होंने
जवाब दिया कि जो ख़ज़ाना विभाजन में उधर से हम लाए हैं, वह
भी बेशकीमती
है। उन्होंने जब बताया कि कामिनी कौशल, बलराज
साहनी, बी. आर. चोपड़ा, यशपाल, खुशवंत
सिंह, देव आनंद, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, गोपी
चंद नारंग और... मैंने रोक दिया कि इस तरह तो दोनों तरफ के गहरे राज़ खुल जाएंगे
और पाकिस्तान
तथा हिंदुस्तान के रिसर्च स्कॉलरों के लिए नया मैदान बिछ जाएगा। एक ने सवाल कर
दिया कि कुर्तुल-ऐन-हैदर, बड़े गुलाम
अली ख़ाँ और आबिद अली, साहिर लुधियानवी
पाकिस्तान छोड़ कर क्यों आए? तो मैंने कहा कि
ये नाम बहुत कम हैं, और भी लोग थे जो पाकिस्तान गए परंतु
हिंदुस्तान लौट आए थे और अगर मौक़ा मिलता तो और भी बेशुमार नाम इस में शामिल
हो जाते।
सुक्खी सिंह मुझे अपनी दावत में ले गया। जहाँ बार पी क्यू में फिश टिक्का, चिकन टिक्का, कबाब और इस तरह के बेशुमार पकवान मौजूद थे। जहाँ बड़े-बड़े जज, वकील, स्थानीय कलाकार, शायर, लेखक और पत्रकार लोग और साक्षात्कारकर्ता मौजूद थे। कुछ कैमरे भी लगे हुए थे। मैंने सुक्खी सिंह से माफी माँगी कि मैं लोकल मीडिया ट्रेंड को जानता हूँ। दावत के बाद सुक्खी सिंह मुझे अपनी कोठी (बंगले) के पिछले हिस्से के एक कमरे में ले गया जहाँ उनके दादा जी जो कि सौंवे पायदान पर थे, एक चारपाई पर गठरी सी बने लेटे हुए थे। सुक्खी सिंह ने लाइट जलाई तो उनके जिस्म में हरकत हुई। सुक्खी सिंह उनके क़रीब गया और कहा, “दादू पाकिस्तान से मेहमान आए हैं।”
वे बिजली की गति से उठ बैठे। मेरा हाथ पकड़ कर बोले, “एक बात बताने के लिए मैंने अपनी साँसें
रोक रखी हैं। मेरे गाँव से विभाजन के समय सभी मुसलमानों को अपने हाथों ट्रेन में बिठाया
था। बाद में ट्रेन का क्या बना? इसकी जिम्मेदारी
मेरी नहीं थी।” मुझे मंटो की कहानी गुरमुख सिंह की वसीयत याद हो आई परंतु मैं चुप रहा। उन्होंने
मेरा हाथ कस कर पकड़ते हुए कहा –
“मैं इसलिए
ज़िंदा हूँ कि किसी पाकिस्तानी को बता सकूं कि मेरे गाँव में किसी मुसलमान का
क़त्ल नहीं हुआ। एक लड़की डर के मारे उपलों वाले गहीरे में छुप
गई थी। कई दिनों तक सबसे छुपी रही। जब अमन-चैन हुआ तो उसके घर का कोई
भी सदस्य न मिला। गाँव वालों ने उसकी इच्छा जाननी चाही, उसने
कहा कि वह यहीं रहेगी। किसी ने उससे धर्म बदलने के लिए नहीं कहा। बाद में ऐसा हुआ कि
उसे सरदार अमरीक सिंह के युवा बेटे हरमीत से प्यार हो गया तो उसकी उससे शादी हो
गई। उसने धर्म नहीं बदला था। पाँच वक्त नमाज़ पढ़ती। चार बच्चों को उसने जन्म
दिया। अच्छी सेहतमंद थी। साल भर पहले उसका स्वर्गवास हो गया। आप चाहें
तो उसकी बेटियों से मिल सकते हैं, बेटे तो
टोरांटों पहुँच गए हैं।”
मैं चुप रहा और सुक्खी सिंह को चलने का इशारा किया। उसने दादा जी से
कहा –
“दादू, यह पाकिस्तानी सब कुछ समझ गया है, अब जा सकता है?”
“हाँ, एक बात पूछनी बाकी है। इससे पूछो कि इसने मेरा
ऐतबार किया या नहीं?”
“मुझे पूरा ऐतबार
हो गया है दादा जी। आपने जो कहा है मेरे दिल में बस गया है।”
“अच्छा तो फिर रब
राखा। अब मैं अंतिम साँस ले सकूंगा।”
और उन्होंने अंतिम साँस ली और वे जैसे गठरी सी
बने हुए थे – वैसे ही गठरी में शांत हो गए और अगले दिन मुझे उनके अंतिम संस्कार में शामिल होना
पड़ा। सुक्खी सिंह शांत हो चुका था और उसका बरसों का बोझ मैंने हल्का कर दिया था। अब
मेरी बारी थी। मैंने उससे कहा कि अब मेरे दिल का बोझ हल्का कर दो। मुझे एक अमानत
एक महिला को सौंपनी है।
सुक्खी सिंह पेशे से वकील बल्कि बैरिस्टर, अब
उसका माथा ठनका, “जो हुक्म महाराज।?”
“सारा इतिहास
सिर्फ़ आपके यहाँ ही विश्राम नहीं करता, कुछ इतिहास ने हमारे वहाँ भी पनाह ले
रखी है।”
वह एकटक मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कहा, “मैं कोई बात नहीं करूंगा। मुझे इस पते पर ले
चलो, जहाँ एक भद्र
महिला रहती हैं। उन्हें उनकी अमानत सौंपनी है।”
सुक्खी सिंह सच्चा व्यक्ति है। उसने कुछ नहीं
कहा। कहा तो बस इतना कहा, “शाह जी, जो पता आपने दिया है, वहाँ
का तो आपके पास वीज़ा नहीं है।” मैंने कहा, “वह
जगह है तो इसी पंजाब में न?” उसने कहा, “हाँ
है तो सही, परंतु यहाँ का पंजाब भी अब दो टुकड़ों
में बंट गया है। हरियाणा प्रांत बन गया है और चंडीगढ़ अलग से तीन प्रांतों का केंद्र
बन गया है।”
मैंने सुक्खी से कहा,
“यह तुम लोगों ने अच्छा किया। काश हमारे पंजाब के नेता भी अपने पंजाब
के तीन हिस्से कर लें। मिसाल तो आप लोगों ने काय़म कर ही दी है।”
मैंने सुक्खी सिंह से कहा, “आप कैसे बैरिस्टर हैं जो मुझे वीज़ा का ख़ौफ़
दिखा रहे हैं। आप आइए पाकिस्तान में तो इतज़ाज़ हसन तो दूर की बात है, मैं आपको बिना वीज़े के पूरा पाकिस्तान घुमा
सकता हूँ। अगर यकीन न हो तो, 1985 में किशवर
नाहिद और मैं शमीम हनीफी की बेगम और बेटियों को बिना वीज़ा लाहौर से इस्लामाबाद, फिर नाराण, कागाण
और नबिया
गली मरी से होते हुए लाहौर वापिस लाया था।”
सुक्खी सिंह अपना यार है, वह मान गया। मुझे उस गाँव के सामने ला खड़ा
किया। मैंने कहा, “सुक्खी सिंह, आपने पूछा नहीं कि मुझे किसे अमानत सौंपनी
है?”
सुक्खी सिंह ने कहा, “शाह
जी हम सरदार है। हम जब किसी के साथ चल दिए तो समझो हमें भरोसा है।”
अब मैंने कहानी शुरू की...
लाहौर में मुझे एक दिन टेलीविज़न के एक अफ़सर ने अपने पास बुलाया और एक नाटक लिखने के लिए अच्छा-ख़ासा मुआवज़ा पेश किया। मैंने कहा, नाटक कौन सा लिखना है। उन्होंने कहा, शाम को एक जगह जाना पड़ेगा। हम वहाँ पहुँचे। खिचड़ी दाढ़ी वाले एक सरदार जी यानी कि बीच से काली और आस-पास से सफेद और बहुत ही घनी-लंबी दाढ़ी। सर पर सरदारों वाली पगड़ी। सारी पोशाक सरदार जी पर जंच रही थी। हम वहाँ पहुँचे। यह लाहौर का नया इलाका था परंतु इतना भी अजनबी या दूर नहीं था। हम वहाँ बैठे तो मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि मुझे करना क्या है। सरदार जी के तीन से अधिक नाम थे। यह मुझे वहाँ पता चला। उस वक्त खुफ़िया वालों ने उनका जो नाम रखा था वह था – गुरबचन सिंह। वह बहुत ही खूबसूरत और सात फुट ऊँचा सरदार मुझे भीतर ले गया। किचन में उसने मेरे लिए मटन-कड़ाही बनाया था। ख़ैर हम कहानी की तरफ लौटते हैं - यह इंदिरा गांधी के आपातकाल के बाद का ज़माना था, गुरबचन सिंह गोल्डन टेंपल के अनादर के कारण इतना बागी हो गया कि उसने तीन-चार पुलिस वालों का क़त्ल कर दिया और फिर उसके घर पर ज़ुल्मों के पहाड़ टूट पड़े। यूं समझ लें कि हमारे गुलज़ार साहब ने अपनी फिल्म ‘माचिस’ में सारी कहानी कह दी। परंतु यह अलग ही कहानी थी। गुरबचन सिंह के तीन नाम खुफ़िया वालों ने रख दिए थे। मेरे लिए यह मुश्किल हो गया कि मैं उसे किस नाम से पुकारूं। ख़ैर, मैं उससे मिलता रहा। वह नाटक तैयार करके कनाडा भेजना चाहता था ताकि कनाडावासी सिख खानदानों में इंदिरा गांधी के आपातकाल और गोल्डन टेंपल पर हमले के खिलाफ़ जज़्बा पैदा हो और वे हिंदुस्तान से संबंध तोड़ने के लिए नफ़रत पैदा करने की जद्दो- ज़हद करें। मैंने न तो इन्कार किया, न ही इकरार कि मैं ऐसा काम नहीं करना चाहता। मेरे नाटक इन्सानियत की सीख देने के लिए होते है न कि नफ़रत फैलाने के लिए। परंतु गुरबचन सिंह का मसला मैं समझ गया था और मैं यह भी समझ गया था कि वह पहले दर्ज़े का कैदी है – न वह पाकिस्तान से बाहर जा सकता है और न यहाँ आने वाले सिख मुसाफ़िरों से मिल सकता है। अब वह एक ऐसा राज़ था जिसे सीने में छुपा कर ही रखा जा सकता है और वह पाकिस्तान के सीने में मौजूद था।
मैं इतना व्यस्त रहता हूँ कि मेरे पास ऐसे
कामों के लिए वक्त ही कहाँ हैं परंतु गुरबचन सिंह या गुरमीत सिंह या कोई
भी सिंह मेरे लिए एक सवाल था – क्योंकि वह एक इन्सान भी तो था। मैं सारी बात समझ
गया था कि वह न तो अब मुल्क़ से बाहर जा सकता है, न ही वापस अपने मुल्क़ जा सकता है क्योंकि वह
एक राज़ है और कोई भी मुल्क अपना राज़ अपने मुल्क की सीमाओं से बाहर नहीं
जाने दे सकता। गुरबचन सिंह यह बात और अपनी ग़लती समझ चुका था। मैं कभी- कभार
उससे मिलने जाता रहता था। वह फोन कर सकता था, पकवान
बना सकता था, लाहौर में घूम सकता था – परंतु ज़ाहिर है
उस पर नज़र रहती थी क्योंकि वह एक खुफ़िया राज़ था। उसके परिवार के कुछ लोग स्वीडन
में पनाह ले चुके थे। वह स्वीडन नहीं जा सकता था। उसके पास किसी भी
मुल्क़ का पासपोर्ट नहीं था।
मैं कभी-कभार मिलता तो मुझे भी डर लगता कि कहीं
मैं दोनों मुल्क़ों की नज़रों में संदेहास्पद न बन जाऊँ। मैंने मिलना
छोड़ दिया। एक दिन अचानक एक रेस्तरां में मुलाक़ात हो गई। कहा, ‘महाराज हम अगर पागलखाने में होते तो टोभा टेक
सिंह बन कर पागलों के बंटवारे में भारत के हिस्से में आ जाते।’ मैंने
उससे कहा कि ‘लाहौर खूबसूरत शहर है, इसे
अपना घर समझें। मटन कड़ाही और चिकन टिक्का आपको पसंद है।
मेरी मानिए तो यहाँ एक ढाबा खोल लें। वक्त
अच्छा गुज़र जाएगा।’ वह समझ रहा था कि मैं ऐसा क्यों कह रहा था। मेरे पास
उसके लिए कोई मरहम नहीं था। अब वह केवल अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा था। कहता था, ‘काश मैं युद्धबंदी होता तो किसी न किसी दिन जेनेवा कन्वेंशन के
ज़रिए अपने मुल्क़ वापस चला जाता। अब तो मेरा स्टेटस कुछ भी नहीं।’ मैंने उसे समझाया
कि ‘तुम दो मुल्कों की लड़ाई में उगी घास हो। तुम दो मुल्कों की सरहद के बीच टोभा
टेक सिंह हो।’
फिर समय के साथ-साथ मैं उसे भूल गया। वह मेरी स्मृतियों से फिसल गया। मैं उस दौरान हर साल भारत आता-जाता रहा। कभी उसका ख़याल नहीं आया। एक दिन अचानक.....
हाँ, वह भी एक ख़ामोश दिन था। किसी मुजरिम को किसी जेल में फाँसी नहीं हुई थी। कोई बड़ा हादसा भी नहीं हुआ था। सफ़ेद पोशाक में एक कर्मचारी मेरे पास आया और संदेसा दिया कि ‘गुरबचन सिंह जिसके तीन नाम थे, कल गुज़र गया।’ तुरंत स्मृतियों से निकल वह सात फुट ऊँचा सरदार सामने आ खड़ा हुआ। फिर कर्मचारी ने उसकी वसीयत बताई कि ‘मेरी राख मेरी बहन दलजीत कौर तक पहुँचा दी जाए और आपका नाम लिखा हुआ कि उन्हें दे दी जाए, वे यह काम कर देंगे। आख़िरी दिनों में आपका बहुत ज़िक्र करते थे। यह उनकी अमानत है और यह रहा पता।’ यह कह कर कर्मचारी चला गया।
सुक्खी सिंह ने राहत की साँस ली कि एक और कहानी
का अंतिम संस्कार हो गया है। मैंने सुक्खी सिंह से कहा, “आप
अब यहीं रुकिए, मैं यह अमानत
अकेला ही दलजीत कौर को दूंगा। बीच में कोई ज़रिया नहीं होना चाहिए।”
सुक्खी सिंह दूसरी तरफ मुँह घुमा कर दस कदम पीछे
चला गया। मैंने पर्ची पर लिखे पते वाले मकान का दरवाज़ा खटखटाया। मेरे हाथ में मिट्टी का बना
राख वाला बर्तन था। मिट्टी को मिट्टी में ही पेश करना चाहिए। भीतर से दलजीत कौर
सादी पोशाक में दरवाज़ा खोल कर सामने आई और जल्दी-जल्दी पूछा – “वीरे आ गए हो। देर नहीं लगा दी। इंतज़ार
करते-करते मुंडेर के पंछी भी चोंचें छुपा कर परों के नीचे सो गए हैं।”
“आपको मेरा
इंतज़ार था? किसने बताया था कि मैं आने वाला हूँ?” मैंने हैरानी से कहा।
“वीरे, मैंने तुमसे नहीं मिट्टी के इस बर्तन में माटी
हुए अपने वीरे से बात की है।”
“तो मैं समझा कि
कि वह तीन नामों वाले अपने भाई से बात कर रही है।”
“वीरे ! क्यों
गया तू परदेस, गोली ही खानी थी तो क्या यहाँ सीना
सिकुड़ गया था या आँगन तंग हो गया था?”
“बहन मैं
पाकिस्तान से तुम्हारे भाई की अंतिम रस्म की राख लाया हूँ। यह मेरा फर्ज़ था कि
इसे तुम तक पहुँचा दूँ।”
“वीरे सब्र नहीं
होता तुमसे – भाईयों का जब अंतिम संस्कार होता है तो धरती का कलेजा काँप जाता है।
ला, दे मुझे, मेरा
वीर मेरे हवाले कर। मैं जी भर कर बातें करूंगी।”
मैंने मिट्टी का वह बर्तन उसे पकड़ा दिया।
दरवाज़ा बंद करते हुए उसने मुझे यह कहते हुए ताना
सा दिया, “जब किसी के घर आते हैं तो मेहमान बन कर
नहीं
आते, अपना बन कर आते
हैं।”
मैंने महसूस किया कि मुझसे ग़लती हो गई है। मेरे पाँव वहीं जम गए। बिलकुल टोभा टेक सिंह की भाँति मैं भी मानो सरहद पर खड़ा था। मुझे महसूस हुआ मानो मैंने खुशवंत सिंह की राख मिट्टी के बर्तन में हड़ाली ज़िला सरगोधा पहुँचा दी है। यह राख इधर से उधर और कभी उधर से इधर आती रहेगी – परंतु बहुत सालों तक नहीं। बस एक-आध अंतिम पागल सरदार बाकी बचा होगा।
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