(दोस्तो, पंजाबी के जाने-माने लेखक तथा 2022 के साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता श्री सुखजीत का 13 फरवरी, 2024 को निधन हो गया।
सुखजीत जी से पहली मुलाकात पिछले साल (2023) साहित्य अकादमी पुरस्कार समारोह के दौरान दिल्ली में हुई थी। फोन पर कई बार बात-चीत हो चुकी थी। अक्तूबर 2023 में कलकत्ता से लौटते समय वहाँ सहेज कर रखी हुई कई चीज़ें साथ लेतीआई थी। इसमें मेरे एक पत्र के जवाब में सुखजीत जी का 20 साल पुराना पोस्टकार्ड भी था जिसके माध्यम से उन्होंने मुझे बर्फ़ कहानी का अनुवाद करने की अनुमति दी थी। मुझे वह वाक्या बिलकुल भी याद नहीं था। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने वर्ष पहले हमारा राबता हो चुका था। मैंने उस पोस्टकार्ड की फोटो खींचकर उन्हें भेजी तो उन्होंने भी आश्चर्य और प्रसन्नता व्यक्त की कि आपने मुझे अतीत में ले जाकर एक अमूल्य उपहार दिया है। पिछले मार्च (2023) में इनसे रू-बरू होने का मौक़ा मिला था और इस बार मार्च 2024 से पूर्व ही फरवरी में सदा के लिए बिछुड़ने की खबर.... "क्या भरोसा है ज़िंदगानी का, आदमी बुलबुला है पानी का।" रब उनकीआत्मा को शांति प्रदान करे।
मैं अयन घोष नहीं, मैं जैसा हूँ वैसा क्यों हूँ, हुण मैं एन्जॉय करदी हां, अंतरा, रंगां दा मनोविज्ञान आदि पुस्तकों से पंजाबी साहित्य को समृद्ध किया। उनके कहानी संग्रह मैं अयन घोष नहीं को 2022 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। उनकी कहानियां बेहद चर्चित रहीं और सराही गईं। अनेक सम्मानों से समादृत।
उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनकी कहानी मैं अयन घोष नहीं का हिन्दी अनुवाद।)
मैं अयन घोष नहीं
0 सुखजीत
पंजाबी से अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
“डॉक्टर साहब व्यक्ति कोई महान नहीं होता, महान तो चुनौतियां होती है.....। ?”
मैं हाँ में सर हिलाते हुए सोचता हूँ कि यह विचार इसने कहाँ से लिया होगा। इसका यही काम है, कहीं से भी कुछ पढ़े सुने, दूसरों पर रोब गाँठने के लिए रट्टा मार लेता है। पास बैठे मरीज़ों के चेहरे भी पढ़ता रहता है कि उसकी इस विद्वता का उन पर क्या प्रभाव पड़ा। मैंने इसका नामकरण विद्वान कर रखा है। शुक्र है आज ज़्यादा दिमाग़ नहीं चाटा, चला गया परंतु दिमाग़ तो चटेगा ही, ये बैठे हैं मरीज़ जो जानते हैं कि मैं एम. बी. बी. एस. हूँ, प्रसिद्ध एम. डी., सीरत अस्पताल चलाता हूँ परंतु ये भी समझाने से नहीं चूकते। किसी सवाल का सीधा जवाब नहीं देते, बोलते ज़्यादा हैं, बताते कम हैं और छुपाते ज़्यादा हैं। दिखाते ऐसा है मानो सारी डॉक्टरी जानते हों। गुस्सा आता है, फिर सोचता हूँ
- “छोड़ो यार किस-किस से माथापच्ची करते रहोगे।” असल में मैं ही मिसफिट हूँ यहाँ। बहुत समय पहले पहाड़ों से देवदार का पौधा लाकर यहाँ लगा लिया, देख-भाल से वह सूखा तो नहीं परंतु फला-फूला भी नहीं। पराई मिट्टी में फलना-फूलना भी संभव नहीं होता।मैं तो मेडिकल में
दाखिला ही नहीं लेना चाहता था परंतु हेडमास्टर बाप ने सख्ती का ऐसा चश्मा पहनाया
कि इधर-उधर देखने ही नहीं दिया। बाप ही कम नहीं होता और तिस पर अगर बाप हेडमास्टर
भी हो तो तौबा-तौबा। स्कूल में उनकी हिदायत के अनुसार ‘हेड सर’ कहने के अभ्यास ने घर
पर भी पापा जी या डैडी न कहने दिया। गाँव
हमारा हिमाचल की सीमा से लगता है, पहाड़ों की गोद में बेहद खूबसूरत, शरीफ़ और
अच्छे लोगों वाला, किसी भी शहर से दूर। मेरा मन खेतों में रमता था, फसलों में,
खेती करने में और ख़ास तौर से पौधे लगाने में परंतु हेड सर ने स्कूल, कॉलेज,
होमवर्क, ओवर टाइम, ट्यूशनें, इतनी सख़्ती की कि न चाहते हुए भी एम. डी. बन गया।
डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए गाँव से शहर आकर रहा तो हेड सर की भाँति मेरी निगरानी
उनके दोस्त एम. एस. गरेवाल ने की। गरेवाल साहब ने अच्छे वक्तों में डॉक्टरी करके
अस्पताल बना लिया था, अपनी इकलौती बेटी के नाम पर ‘सीरत अस्पताल’।
हेड सर के साथ मिल कर मुझे डॉक्टरी में फंसाने वाले, डॉक्टर गरेवाल की पूरी कोशिशों के बावजूद उनकी बेटी ने डॉक्टरी नहीं की पर वे उसकी तारीफें बहुत करते थे। जब भी मैं उनके घर जाता कहते, “शी इज़ वेरी इंटेलीजेंट! बेशक डॉक्टरी नहीं की इसने परंतु कहती है कि देखना पापा मैं इतनी एम. ए., पी. एच. डी. जैसी डिग्रियां लूंगी कि आप अपनी डॉक्टर बेटी सीरत गरेवाल पर गर्व करेंगे।”
उस वक्त मेरा एम. बी.
बी. एस. और सीरत का बी. ए. का अंतिम वर्ष था परंतु हेड सर के दबाव या देहाती होने
के कारण मैं उससे बात भी नहीं कर पाता था। यह दुनिया भर की बातें करती। मुझे कुछ न
सूझता। ऊपर से बेहद खूबसूरत। हेड सर की भाँति, डॉक्टर गरेवाल के साथ-साथ मानों
सीरत गरेवाल का भी मुझ पर आतंक छा गया हो। मैं एम. डी. करके आया तो सीरत पी. एच.
डी. शुरू कर रही थी। एक दिन हेड सर ने कहा, “सुनिए डॉक्टर....।” अब वे मुझे डॉक्टर ही कहकर पुकारते, मेरे साथ-साथ
बीजी को भी अजीब लगता। मैं सतर्क हुआ तो उन्होंने कहा, “मैंने और गरेवाल ने निर्णय किया कि
तुम्हारी और सीरत की ‘शादी’ कर दी जाए।” उन्हें कुछ
पूछना नहीं बल्कि बताना होता है और मुझे ‘येस सर’ कहना होता है परंतु इस बात की मुझे खुशी हुई क्योंकि
सीरत मुझे अच्छी लगती थी। वैसे हेड सर ने सोचा था, इकलौती बेटी है, नौकरी के
साथ-साथ डॉक्टर गरेवाल का जमा-जमाया काम भी मिल जाएगा। डॉक्टर गरेवाल ने सोचा, “इकलौता बेटा है, शरीफ़ परिवार है, इतना पढ़-लिखकर
गाँव में तो रहेगा नहीं, शहर में रहेगा हमारे ही पास।” बीजी ने ज़रूर उदास सी हँसी हँस कर कहा था, “हम लड़की नहीं, वे लड़का ब्याह कर ले जाएंगे।”
हेड सर ने वैसे ही कहा
जैसे स्कूल में कहा करते थे, “अक्ल से काम लो, लड़के
के ‘भविष्य’ के बारे में सोचो,
गंवारों जैसा पागलपन मत करो।” फिर जैसा-जैसा वे और डॉक्टर गरेवाल चाहते गए, वैसा-वैसा ही होता गया। अंतत: मैं डॉक्टर गरेवाल द्वारा बेटी के लिए बनवाए गए
बंगले में पहुँच गया, जिसके गेट पर ‘सीरत गरेवाल’ के नाम का
पत्थर लगा हुआ है। ऐसा ही पत्थर सीरत अस्पताल के गेट पर है जहाँ मैं डॉक्टर गरेवाल
के साथ वाले कमरे में बैठता हूँ।
“डॉक्टर साहब शादी नामक संस्था
सड़-गल चुकी है। अब तो हम इसका शव ढो रहे हैं।”
विद्वान फिर आ धमका है।
इसकी यह ख़ासियत भी है, जब मैं जिस हालात से दो-चार हो रहा होऊं तब-तब वैसा ही
विचार लेकर आएगा, एकदम सटीक। उसके जाने के बाद मैंने सोचा, बात तो सही है,
ज़्यादातर शादियां अब ढोने वाली बात ही है। कई लोग आते हैं मेरे पास, ‘टेंशन’ और ‘डिप्रेशन’ वाले, अधिक लोगों की
समस्या पति और पत्नियां ही हैं। दवाई के साथ-साथ इन के मन का इलाज़
मैं बात-चीत से भी करता हूँ। कईयों को ठीक किया है। बहुत खुशी मिलती है, जब कहते
हैं, “डॉक्टर साहब, आपने हमारी गृहस्थी बचा दी।”
“परंतु मेरी उजड़ रही है।” यह सोच कर मैं रुआंसा हो जाता हूँ कि अपने घर को
बचाने के लिए क्या-क्या नहीं किया मैंने। लोगों में मेरे बारे में मशहूर है कि
डॉक्टर बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक है। मन की बात जान लेता है परंतु सीरत को नहीं जान
पाया मैं। मुझे लगता था जैसे मैं उसे टूट कर चाहता हूँ, वह भी मुझे चाहती है,
परंतु नहीं......।
शुरू-शुरू में इस तरफ
ध्यान ही नहीं गया। मेरे जीवन में आने वाली पहली लड़की थी यह, बेहद खूबसूरत,
समार्ट। मैं पगलाया सा इसमें खोया रहा परंतु इसके नाज़-नखरे इतने कि मैं इसके मन
तक पहुँच ही नहीं पाया। यह जो कहती, मैं वही करता। रोब तो इसका मुझ पर शादी से
पहले ही पड़ चुका था। शादी के बाद तो इसका गुलाम बनता चला गया। इसने अपने नाम के
साथ से गरेवाल हटाने से इन्कार कर दिया। कहती, मैं मिसेज सीरत राय नहीं लिखूंगी,
बल्कि आप भी ‘राय’ मत लिखा करें।”
मैंने कहा, “ठीक है”, जब मैंने कारण भी नहीं पूछा तो इसने खुद ही बताया, “बुरा मत मानना, हैं तो जाट परंतु हमारे एक-दो
प्रोफेसर राय हैं, दो-तीन अफसरों के बारे भी पढ़ा है जो अपना सरनेम राय लिखते हैं
परंतु वे सभी ‘दूसरे’ हैं, समझे? मेरी सहेली सेखों भी पूछ रही थी कि भई राय जाट
होते हैं? इसलिए ऐसे ही ‘भ्रम’ सा बना रहता है।”
उस वक्त मुझे इतने स्पष्टीकरण
की ज़रूरत भी नहीं थी। मेरे लिए इतना ही काफ़ी था कि सीरत ने कहा है। इसने दूसरा
निर्णय सुनाया, “हमें तीन-चार साल तक बच्चा
नहीं चाहिए।”
मैंने कहा, “ठीक है।”
मेरी सास कहा करती - “पहले इसे बाप ने सर चढ़ाए रखा, अब बेटा तुम चढ़ाए जा
रहे हो, पछताओगे।” मैं हँस देता। तब
प्यार में महान बनने का भूत सवार था मुझ पर।
इस रिश्ते में आँखें मूंद कर विश्वास करने का जुनून। नहीं पता था कि यह
अंध-विश्वास, महान बनने की तरफ नहीं बल्कि झुड्डु (झंडु) बनने की तरफ पहला कदम
होता है। इसे अपने सर से मिलने जाना होता, मैं सौ काम छोड़ कर ले कर जाता। यह बहुत
ज़ोर देती, “आइए आप भी मिल लीजिए सर
से, देखिए तो सही सर से मिल कर, बहुत जीनियस हैं....।” अपने सर के बारे में यह श्रद्धा से इस तरह बातें
करती जैसे नया-नया चेला गुरु के बारे में करता है परंतु मेरी वही महान बनने की
इच्छा कि इसके जीवन में बिलकुल भी दखल नहीं देना है, मेरी किसी हरकत से इसे यह न
लगे कि मैं शक करता हूँ। कहता, “कोई बात नहीं सीरत, तुम
आराम से काम करो, बताओ कब लेने आऊँ ?” यह कहती, “दो घंटों तक।” तो मैं अस्पताल आ कर
मरीज़ कम देखता और घड़ी ज़्यादा। ठीक दो घंटों बाद सर के दर पर जा हाज़िर होता।
अगर कभी सास सीरत को घूरती कि क्या सर-सर लगा रखी है, कभी पति का भी ख़याल कर लिया
करो। विद्वान मुहावरा बोल देता, तो शकरूपी नाग फन उठाता। फिर मन की तसल्ली के लिए
विद्वान का कोई दूसरा कथन ढूंढता और सीरत से मिलते ही, जिस्मों के मेल में शकरूपी
नाग का फन कुचला जाता परंतु जिस दिन सीरत ने बताया कि सर इनका टुअर ले जाना चाहते
हैं, ‘सप्ताह भर का सुन कर, सहा न गया।’ पहली बार सीरत के बिना एक सप्ताह रहना, दिल बैठ सा
गया। मैंने कहा, “मैं तो साथ ही जाऊँगा।”
इसने कहा, “अलाउड नहीं है।”
मैंने कहा, “मैं अलग होटल में रह लूंगा।”
इसने कहा, “यह नहीं हो सकता।” मैं बहुत डिस्टर्ब हो
गया परंतु टुअर वाले दिन, इसने उदास हो कर कहा कि यह नहीं जा रही है। मैं खुश हुआ
परंतु इसकी उदासी देख कर मेरे भीतर का ‘महान व्यक्ति’ जाग उठा। मुझे बुरा लगा कि मैं इसे पिंजरे में कैद
कर रहा हूँ। मैंने कहा, “नहीं–नहीं सीरत तुम
ज़रूर जाओ, मैं रह लूंगा जैसे-तैसे। मुझे तुम्हारी खुशी प्यारी है।” इसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं दुनिया का अंतिम
झुड्डु होऊं और ठंडी आह भर कर कहा, “सर नहीं जा रहे, मैडम
टुअर लेकर जा रही हैं। हमने सर को बहुत मनाया परंतु वे माने नहीं। मैंने कहा, फिर
मैं भी नहीं जाऊंगी।” ज़हर से लगे इसके
शब्द, मानो भीतर बहुत गहरे तक कुछ टूटा हो। इसने मेरा सच्चा-झूठा मान भी न रखा।
पहली बार सीरत बुरी लगी, पहली बार अस्पताल का बहाना बना कर घर से निकला, यह सोच कर
कि सीरत को कुछ बुरा-भला न कहा जाए। सड़कों पर बेमतलब गाड़ी दौड़ाता रहा। फिर यूनिवर्सिटी
चला गया, पता नहीं क्या सोच कर इसके सर के दरवाज़े पर जा गाड़ी खड़ी की परंतु भीतर
जाते-जाते भी लौट आया। घर पहुँचा तो सीरत परेशान थी, “कहाँ गए थे? पता है कितनी देर हो
गई.... आपका फोन भी बंद था....अस्पताल में आप थे नहीं....।”
कई सवाल एक साथ। इसे
परेशान देख कर मेरा महानता चैनल चल पड़ा, सीरत कितनी सच्ची है, साफ़ और स्पष्टवादी
है, यदि इसके मन में मैल होती तो सर वाला सच न बताती, झूठ बोल कर मुझे खुश कर
देती। मैं सचमुच झुड्डु हूँ। इसे मेरी कितनी
फ़िक्र है। मैंने सब कुछ भूल कर इसे आलिंगन में ले लिया, “सीरत हम कहीं घूमने चलें? ” मैंने पूछा तो इसने अनमने से कहा, “आपके मरीज़ों का क्या होगा? ”
“मैं कल का दिन लगा कर सेटिंग कर देता हूँ, चलो कहीं
हफ्ता भर लगा आते हैं।” मैं जोश में आ गया
परंतु वह उदास हो गई, कहा, “कल मैं सर से पूछ कर
बताऊंगी।”
“सर से क्यों? ” मुझे समझ नहीं आया
परंतु मैंने कहा, “चलो अब पूछ आते हैं
तुम्हारे सर से।” उसने एकदम मेरी तरफ
देखा। चेहरे पर चमक आ गई परंतु अगले ही पल माथे पर त्योरी डाल कर कहा, “अभी?... मेरे सर? ......मतलब क्या है आपका? ”
मैं बगलें झांकने लगा।
“नहीं, आप क्या समझते हैं कि मेरा सर के साथ कोई
रिलेशन है?”
मैं घबरा गया, “नो-नो सीरत मेरा मतलब यह नहीं, दरअसल मेरा जी करता
था, सर से मिलने को। मैं गया भी था अभी...।” घबराहट मैंने और ही
चाँद चढ़ा दिया। सीरत उठ कर खड़ी हो गई, “क्या आप सर के पास गए
थे? ”
“नहीं-नहीं, मैं तो....।” मुझसे न झूठ बोलते बने, न सच। वह मेरी तरफ ऐसे देख
रही थी मानो कच्चा चबा जाना चाहती हो। मैं पलंग के कोने पर ऐसे उकड़ू हुआ बैठा था
जैसे कभी हेड सर के सामने बैठता था, डर कर। लगा कि वह मुझे कान पकड़ने के लिए
कहेगी और मैं मुर्गा बन जाऊँगा पर उसने साथ वाले कमरे में घुस कर कुंडी लगा ली।
कितनी ही देर तक तो मैं उसी तरह भौचक्का सा बैठा रहा, फिर उठ कर दरवाज़ा खटखटाने
लगा। साथ ही सफ़ाई भी देता रहा परंतु मैं क्या कह रहा था? मुझे भी समझ नहीं आ रहा था। पता तो तब लगता जब मुझे
अपनी ग़लती का पता होता। अचानक पलंग पर रखा सीरत का फोन बजने लगा, ‘तुम दिन को अगर रात कहो, तो रात कहेंगे...।’ आज तक मैं समझता था कि ये शब्द मेरे लिए हैं परंतु आज
भीतर कहीं बिजली कौंधी, ‘नहीं ये मेरे लिए नहीं
है।’ मन में यह भी आया कि इसका फोन चेक करूं, वर्ना आज तक
मैंने इसके फोन और पर्स को हाथ तक नहीं लगाया था। यह बाथरूम में हो, इसका फोन
बज-बज कर बंद हो जाए, मैं देखता तक न था, परे हो जाता। तब भी जब यह कितनी-कितनी
देर तक फोन पर बातें करती हँस-हँस कर, फुस-फुसा कर तो मैं इतनी दूरी बना लेता कि
कुछ न सुनाई दे।
सीरत फटाफट भीतर से
निकली, लगभग झपटने की भाँति फोन उठाया। मेरा मन चाहा कि मैं कान पकड़ कर उठक-बैठक
करने लगूं परंतु उसने इतने ज़ोर से, “हाँ क्या...... ?” कहा कि मैं घबरा गया। “हाँ, कहाँ हो तुम लोग? ‘एग्जेक्ट लोकेशन’ बताओ.....।” उसने फोन पर पूछा और
सीधे मुझसे मुख़ातिब हुई, “गाड़ी निकालिए हरि अप” मैं चाबी की
तरफ लपका तो फोन पर कहते सुना, “यू बिच, मेरी जान लोगी
तुम...उफ्फ!” उसने राहत की
साँस लेते हुए मुझसे कहा, “रहने दीजिए कुछ नहीं
हुआ।” फिर खुद ही बताने लगी, “सेखों का फोन था, पहले कहा हम सर को मना कर ले आई
हैं, सर हमारे साथ टुअर पर.... फिर कहा, मैं तो तुम्हें टीज़ कर रही थी।”
फिर उसने कोई नंबर
मिलाया, शायद सर का था, बंद था। दो-तीन
फोन और मिलाए, परंतु बात नहीं हुई। देख रहा था, वह बहुत बेचैन, उलझी हुई, परेशान
सी परंतु आज मैंने ‘महानता चैनल’ बंद किए रखा। वैसे जान
गया था कि वह टुअर पर सर का जाना कन्फर्म करना चाहती है, अगर सर टुअर पर होते तो
वह ज़रूर अभी ही वहाँ पहुँचती। इस समय गाड़ी लेकर मुझे ही जाना पड़ता, ड्राइवर तो
रात को अपने घर चला जाता था।
अगले दिन इसने खूब पागलपन
दिखाया। सुबह-सुबह अपनी माँ को बुलवा कर खाने तैयार करवाती रही, रसोई से खुशबुएं
आएं, साथ ही मुझे सासू माँ की बड़बड़ाहट भी सुनाई दी। समझ गया कि यह सब मेरे लिए
नहीं, सर के लिए बन रहा है। पहले मैं इसे यूनिवर्सिटी छोड़ कर अस्पताल जाता, आज
इसने हुक्म सुनाया - “ड्राइवर पहले आपको छोड़ आएगा, मुझे ‘प्रोजेक्ट’ का सामान लेकर
यूनिवर्सिटी जाना है।” जानता था इसके ‘प्रोजेक्ट’ के बारे में, साहित्य
की पी. एच. डी में खाने का कौन सा ‘प्रोजेक्ट?’ सासू माँ हमारे मुँह ताक रही थी मानो कुछ कहना चाहती
हों परंतु चुप ही रहीं। मुझे पीठ पीछे उनकी आह सुनाई दी, मानो कह रही हों, ‘यह बेचारा देहाती भोला पंछी कहाँ आ फंसा।’
आज मुझे लगा कि ड्राइवर
भी कुछ कहना चाहता है परंतु उसने रात को बस इतना ही कहा, डॉक्टर साहब मैं आपकी
ख़ातिर गाड़ी घर ले आया। और चाबियां थमा सत श्री अकाल कह चला गया। अपना पागलपन तो
सीरत ने खुद ही बताया, यह जब सर के लिए तैयार किया टिफिन ले कर बड़े चाव से
यूनिवर्सिटी पहुँची तो सर सचमुच टुअर वालों के साथ थे। इसके तो तन-बदन में आग लग
गई। सेखों की इतनी जुर्रत। उसे फोन पर बुरा भला कहने लगी। उसने यह कह कर फोन बंद
कर दिया कि उसे तो सर ने कहा था कि सीरत को मत बताना। यह और भी आग-बबूला हो गई।
ड्राइवर को लेकर उनके पीछे निकल पड़ी परंतु सर ने, मैडम ने या लड़कियों ने पता
नहीं किसने कौन सी चकरी घुमाई कि यह घूम-घाम कर थक गई परंतु इसे टुअर न मिला।
रास्ते में कहीं ड्राइवर ने खाने के लिए रुकने के लिए कहा तो यह उसके गले ही पड़
गई, एक दिन नहीं खाने से जान नहीं निकल जाएगी तुम्हारी। इतने में इसने मुझे एक ‘मैसेज’ किया, ‘मैं ठीक हूँ, देर से घर आऊँगी।’
उस हफ्ते यह खुद तो
अंगारों पर लोटती रही ही, साथ ही मुझे भी भून डाला। वैसे मैं तो अब तक भुन ही रहा
हूँ पर सी तक नहीं की। क्या बताऊं मेरे इसी स्वभाव ने ही तो यहाँ तक पहुँचाया है।
विद्वान कहता है, “विनम्र और शरीफ आदमी को
हर कोई दबाता चला जाता है।”
हफ्ते भर बाद यह मुझे
आधी रात को जगा कर कहने लगी, “पता लगा है, सर अभी
लौटे हैं, यूनिवर्सिटी चलना है मिलने।” इसकी साँस फूल रही थी,
मन में आया, यह मुझे समझती क्या है, सुबह दिन नहीं निकलेगा क्या, अभी ही क्या आग
लगी है, सर मेरे बारे में क्या सोचेंगे, “साला भोंदूराम ले कर चल
देता है....।” यही सब सोचते हुए पता
ही नहीं चला कब आँखों पर पानी के छींटे मार गाड़ी गैरेज से निकाल ली। रास्ते में
फैसला किया कि आज इसके साथ भीतर ही जाऊँगा, देखूं तो सही कैसे मिलती है सर से।
परंतु सर के दरवाज़े पर पहुँच कर इसने कहा, ‘“आप यहीं रुकिए, मैं देख
लूं सर कहीं आराम न कर रहे हों।” मेरे गाड़ी घुमाने तक यह लौट भी आई। खुश भी थी
और उदास भी। खुद ही बोले जा रही थी, “सर बहुत खुश हुए, बोले
मैं थका हुआ हूँ आराम करना चाहता हूँ, कल मिलते हैं।” ऐसे वक्त में मेडिकल में पढ़ा
मनोविज्ञान बहुत परेशान करता है। जान जाता हूँ कि यह क्या कहना और क्या छुपाना
चाहती है। हामी भरते हुए गाड़ी बढ़ा देता हूँ कि यह अचानक बोल उठती है, “रुकिए-रुकिए मैं तो भूल ही गई थी, सर
के लिए पैकेट लाई थी।” मैं तिरछी नज़र से सिगरेट का पैकेट
देख लेता हूँ। भीतर एक छुरी सी चल गई है, परंतु मुस्करा देता हूँ। मेरा सिगरेट
पीने को बहुत जी चाहता है। एक बार मैंने मन की बात सीरत को बताई तो यह हल्ला मचाने
लगी। सिख के लिए सिगरेट कितनी बुरी और शर्मनाक है, इसने भयंकर भाषण दिया था। अपने
माता-पिता के अमृतधारी होने की डर भी दिखाया। इसे सिगरेट से कितनी नफरत है, उसके
बारे में मुँह बना कर, नाक-भौं सिकोड़ कर बताती रही परंतु आज सर के लिए कैसे चाव
से उनका मनपसंद ब्रांड उठाए घूम रही है।
वह जैसे भागी-भागी भीतर गई थी, वैसे ही लौट आई। आते ही शुरू हो गई, जानती है न
कि मेरे मन में सवाल उठ रहे होंगे, “सर सचमुच जीनियस हैं.... आउट ऑफ वर्ल्ड एंड डाउन टू अर्थ.... पूरी
यूनिवर्सिटी का केंद्रबिंदु... सरकार चलाने वाले भी उनसे मशवरा लेते हैं..... आप
कभी उनकी ऑरा देखना... बिलकुल अवतार पुरुष सा....जब पढ़ाते हैं न इतने ट्यून-अप
होते हैं कि बस.... वह खोये-खोये बोले जा रही है, मानो कृष्ण बाँसुरी बजा रहे हों
और स्टुडेंट..... दूसरों का तो पता नहीं, पर मुझे फील होता है कि जैसे मैं राधा
होऊँ.....।” कुछ देर रुक कर फिर कहती है, “हमारे रिश्ते पर शक मत कीजिएगा,
बहुत पाक और पवित्र है हमारा रिश्ता.....।” जानता हूँ सब काम के
रंग हैं। वह अभी भी कुछ न कुछ कहे जा रही है सर के बारे में। सब समझता हूँ मैं
इसकी पहुँच में हूँ। प्राप्य वस्तु और सर अप्राप्य, मुझमें और सर में कोई ज़्यादा
फ़र्क नहीं। विद्वान बोल उठा, “कृष्ण भी तो यही थे पहुँच
से बाहर, अप्राप्य...।” फिर विद्वान सीधे मुझे संबोधित हुआ, कुछ व्यंग्य
से, “डॉ. साहब आप अयनघोष को जानते हैं? आपको अवश्य जानना चाहिए उसे ऐनी कहते थे।” परंतु मैं सर के बारे सोच रहा था कि सर भी चीज़ हैं, ये आधी रात को मिलने आई
उसने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। यही कमाल है उसका, तभी तो सीरत जैसी कितनी ही उसके
पीछे पागल हुईं फिरती हैं। अटैच ऐंड डी-अटैच सब समझता हूँ और किसी बात में सर से
कम नहीं हूँ मैं, ज़रा ज़्यादा ही होऊंगा। वैसे औरत के मामले में हरेक बंदा खुद को
फन्ने खाँ समझता है, पर्दा हमसे भी रखेंगे, डॉक्टरों से भी पर हम लोग समझ जाते हैं
जब सामने वाला कहता है, डॉक्टर साहब कोई बढ़िया सी दवा दें, ज़रा टेंशन के
कारण.... वैसे तो शरीर पूरा फिट है जी....। परंतु मैं जानता हूँ कि औरत से हर आदमी
डरता है, यदि न डरता हो तो ताकतों के बादशाह के विज्ञापन से अख़बार और दीवारें न
भरी हों। हर समय दिमाग़ में यही चलता है कि औरत की बस करानी है परंतु भोले मानुष
यह नहीं जानते कि यदि इसकी बस करा सकते तो यह कोठे पर न जा बैठती, जहाँ हर कोई
दारू, अफीम और बकवास गोलियां, कैप्सूल खा कर औरत की बस करवाने गया, अपनी बस करा कर
लौट आता है। यह तो औरत ही है कि आदमी का पर्दा ढके रखती है। जानता मैं बहुत कुछ
हूँ परंतु मेरे दिमाग़ पर भी यही छाया रहता है कि सीरत को अधिक से अधिक सुख कैसे
दूं? अपना ख़याल नहीं करता। बस बिछ जाता
हूँ पूरे का पूरा। सर संतुलन बना कर रखता है। सीरत और उसकी सखियों में से हरेक
सोचती है कि सर उसका है परंतु वह किसी का भी नहीं। यह सब कैसे करता है वह, यह मैं
जानता हूँ परंतु मुझसे होता नहीं। और कोई कमी नहीं है मुझमें। हाँ, यह भी पता है
मुझे कि हमें अपने गुण-दोषों के बारे समझ नहीं होती। विद्वान फिर चक्कर मार गया
है, “दूसरों की ख़बर रखने वाला अपने
बारे में बेख़बर होता है” परंतु मैं यह भी जानता हूँ कि पिछले समय ने मुझे खुद को फासले पर खड़े होकर
देखना सिखा दिया है। इसीलिए जानता हूँ कि कोई ऐसी कमी नहीं है मुझमें कि सीरत को
सर के पास जाना पड़े।
परंतु विद्वान कहता है कि औरत को समझना संभव नहीं। डॉक्टर साहब कभी-कभी तो
लगता है कि द्रौपदी स्त्रीवाद का चरम है, गहरी और विशाल जो पाँच पति नहीं, अपने
पति में पाँच गुण चाहती है। युधिष्ठर जैसा सत्यवादी। भीम जैसा ऊँचा-लंबा पत्नी
द्वारा बनाए गए भोजन को खुश होकर खाने वाला। अर्जुन जैसा हुनरमंद, युद्धकौशल में
माहिर। नकुल जैसा खूबसूरत और सहदेव जैसा विद्वान – बात-चीत में निपुण। ऐसी नारी की
संतुष्टि सिर्फ़ काम वासना से नहीं होती। आज तो विद्वान कथा छेड़ कर ही बैठ गया।
अब आदमी उसे क्या बताए कि सीरत, द्रौपदी नहीं है। कई बार मैं यह सोचता हूँ कि इसने
मुझसे शादी ही क्यों की? उसी समय इन्कार कर
देती। फिर सोचता हूँ कि इसे पढ़ा-लिखा स्टेटस वाला झुड्डु चाहिए था, वह मैं मिल
गया, ‘परफैक्ट’। विद्वान के कहे अनुसार ‘अयनघोष।’ आज जाते-जाते विद्वान
अयनघोष के बारे भी बता गया, सुन कर अपने आप पर शर्म भी आई और गुस्सा भी। ऐसे समय
में मैं देवदार के पौधे के पास जा बैठता हूँ, लॉन में। यहाँ मैंने अपने शौक के लिए
गुलाब और रात की रानी जैसे पौधे लगाए थे, खुशबुएं बिखरने वाले परंतु एक दिन सीरत
ने यूनिवर्सिटी से माली बुला कर वे सारे उखाड़वा दिए और उनकी जगह अंग्रेजी नामों
वाले कारनेशन लगवा दिए। सब के सब खुशबू रहित। देवदार भी मेरी तरह इनमें घिरा-घिरा
महसूस करता है। बेइंतहा दु:खी होकर मैं इसके पास आ
बैठता हूँ। वैसे सर जैसे भी हों, परंतु मेरे जैसे चाहने वाला सीरत को कहीं नहीं
मिल सकता। बेइंतहा प्यार करने वाला। यह क्यों नहीं समझती कि ऐसा इन्सान नफ़रत भी
हद से बढ़ कर करता है परंतु विद्वान का कहना है कि, ‘यह युग असीम होने का युग नहीं है। थोड़े-थोड़े का युग
है, थोड़ा-थोड़ा प्यार, थोड़ा-थोड़ा गुस्सा, थोड़ी-थोड़ी निकटता, थोड़ी-थोड़ी
दूरी। असीम होने का युग नहीं है।’ यह सब कुछ तो मैं
मरीज़ों को समझाता हूँ परंतु खुद नहीं समझता।
दु:खी तो इस बात से भी होता हूँ कि जानता तो बहुत कुछ
हूँ परंतु मेरी समझदारी ने मेरा संवारा कुछ नहीं। अब तो कभी-कभी लगता है कि सब कुछ
कहने की बातें हैं, आदमी के हाथ में कुछ नहीं होता।
अगले दिन सीरत फिर सुबह
जल्दी उठी। माँ को बुलवाया सर भगवान के लिए भोग तैयार करवाया और यूनिवर्सिटी चली
गई। उसने सारा दिन मुझसे कोई बात नहीं की और न ही मैंने फोन किया। मैं देर से घर
लौटा। बेडरूम में आया, सीरत गहरी नींद सो रही थी, सर से मिल कर आई संतुष्ट। यह कभी
भी ऐसे नहीं सोती। इसकी नींद बहुत पतली है, ज़रा सी आवाज़ पर खुल जाती है। गहरी
नींद मेरी बीजी सोती हैं, पहले से ही निश्चिंत, हाथ-पैर फैला कर। हेड सर लड़ते,
तुम्हें कपड़ा ओढ़ने की भी होश नहीं रहती। सीरत बहुत ध्यान रखती है, चारों तरफ
लपेट कर, मुँह ढक कर सोती है। उंगली भी खुली नहीं रहने देती, फिर भी उसकी नींद
गहरी नहीं होती। कोई आवाज़ न भी हो, सपने से ही जग कर बैठ जाती है। मैं इसका
मनोविज्ञान समझता हूँ। पापा से मिली आज़ादी, अपने बड़े आदमी होने, गरेवाल जाट होने
और इज़्जत का बार-बार दोहराव और माँ की समझाइशों वाले माहौल में जवान हुई लड़कियां
इश्क करती है परंतु चोरी-छिपे। बदनामी नहीं होने देती। हर बात में छुपाव, पर्दे पर
पर्दा। दिखाना यह कि कुछ भी नहीं छुपाया, सब कुछ साफ़ है। बड़े सच छुपाने के लिए,
छोटे-छोटे सच उजागर करते रहना। बताना और दिखाना कि वह खुली किताब है परंतु विद्वान
कहता है, “ऐसी खुली किताबों के वाक्य पढ़ तो सभी लेते हैं,
समझता वही है जिसे ‘बिटवीन द लाइन’ पढ़ना आ जाए।”
आहिस्ता से उठता हूँ,
दबे पाँव छत पर आ जाता हूँ। शहर में चाँद उतना निर्मल और शीतल सा नहीं लगता, जितना
हमारे गाँव के खेतों में लगता है। अपना गाँव याद आते ही वही ख़याल फिर हावी हो
जाता है कि अगर डॉक्टरी ही करनी है तो अपने लोगों में क्यों नहीं, यहाँ शहर में तो
सैंकड़ों एम. डी. हैं। मेरे गाँवों में तो दूर-दूर तक एक भी नहीं। दिल की इच्छा
कभी पूरी ज़रूर करूंगा। चाँद की तरफ देखने
पर बीजी बहुत याद आई हैं, अक्सर आ जाती हैं। याद तो हेड सर भी बहुत आते हैं परंतु
कुछ तल्खी से। मुझे दाव पर लगा खेली बाज़ी में वे जीत अवश्य गए थे परंतु मेरा हाल एक
बार भी नहीं पूछा। कभी बताया मैंने भी नहीं। वे जितनी बार भी आए पहले से ज़्यादा
संतुष्ट होकर गए कि डॉक्टर अच्छा नाम कमा रहा है। बीजी हिचकिचाते हुए मेरी सासू
माँ से इशारों में बच्चे के बारे पूछती। सासू माँ जितना जानती हैं, गोल-मोल बात
करतीं। विद्वान कहता है, “ये तो इनसे पहले की
महिलाओं ने हमारे पूर्वजों के हाथों बहुत जुल्म सहे और दु:ख उठाए हैं परंतु यह युग आज की महिला से हमारे दु:ख सहने का युग है। आज की महिलाएं हमारे पूर्वजों का
बदला हमसे लेंगी।” मुस्करा देता हूँ, ठीक
है ऐसा है तो ऐसा ही सही। पूर्वजों की विरासत संभाली है तो सज़ा भी सही।
मुझे तो हेड सर ने पहले
ही बड़ी सज़ा दी है, अपने गाँव, घर, खेतों, माँ और यार दोस्तों से दूर। तिस पर देहाती समझे जाने की सज़ा। अब तो मैंने
कवर कर लिया है, पहले तो कपड़े, जूतों से लेकर अंग्रेज़ी बोलते समय भी इडियट
कहाना, वह भी अपनी पत्नी से। कहती तो बड़ा छुपा के सलीके से है परंतु शूल की भाँति
चुभता है।
हेड सर की दी सज़ा तो
सह रहा हूँ, और भी सह लूंगा, महिला तो वही सब लौटा रही है जो हम सदियों पहले उसे
देते आए हैं। ‘सह लेंगे – सह लेंगे’ चुटकी बजाता गुनगुनाता
हूँ। चाँदनी का असर हो रहा है शायद, पूनम की रात है। अचानक सर याद हो आते हैं।
चुटकी बंद और ‘हाँ’ में हिलता सर अपने आप ‘न’ में हिलने लग जाता, “नहीं सर नहीं.... सर सहन नहीं होता। साले का काम तमाम
करने में मिनट भर भी नहीं लगेगा मुझे, आख़िर डॉक्टर हूँ, पोस्ट मार्टम में कुछ
नहीं आएगा।” अगले पल विद्वान कहते सुनाई देता, “सांस्कृतिक समझ कुछ क़त्ल करने में नहीं, काबू करने
में है।” किसे, सर को
नहीं, सीरत को। क़त्ल का ख़याल छोड़ देता हूँ। छोड़ना ही था, यह नहीं तो कोई और
बहाना ढूँढ लेता हूँ, इतना दिलेर नहीं मैं। हैरान हूँ, इतना घटिया कैसे सोच गया
कहीं पूर्ण चंद्र के कारण तो नहीं, वर्ना
ज़िंदगी देने वाले हाथ किसी को मौत नहीं दे सकते। खुद से ही पल में तोला, पल में
माशा होते जा रहा हूँ। कितना अपसेट और दु:खी कर दिया है सर ने।
नहीं सर ने नहीं, सीरत ने। बुजुर्गों की बात न मान कर दु:ख पाया है। वे कहते हैं कि महिला को तो आने के
संग-संग बच्चों में उलझा दो और मैं सीरत की मान कर चला था ‘महान बनने।’ ‘महान व्यक्ति को दु:ख सहने ही पड़ते हैं’ विद्वान खचरी हँसी हँसता है। और भी दु:खी हो जाता
हूँ यह सोच कर कि सीरत तो आराम से सो रही है। सारा दिन पता नहीं क्या-क्या करती
रही होगी सर के साथ, बस अब और नहीं, दो साल होने जा रहे हैं, अब बच्चा चाहिए।
बच्चा ही सीरत को बांधेगा। ‘गर्भवती’ सीरत मुझे घर की चहारदिवारी में घूमती-फिरती नज़र आ
रही है।
विद्वान ने फिर दिल पर
छुरी चलाई है, “संतान तो औरत उसी की
पैदा करना चाहती है...जिसे प्यार करती हो।” ‘धत्त तेरी की,’ विद्वान भी जान लेकर
ही रहेगा। क्या अर्थ है इसका? फिर शादी, भाँवरे, गुरु ग्रंथ साहिब, मर्यादा
कोई अर्थ नहीं रखते। नहीं इतनी निराशाजनक स्थिति नहीं है। जल्दबाज़ी में सीढ़ियों
की तरफ बढ़ता हूँ, अभी जगाता हूँ सीरत को, अभी पूछता हूँ। अटक जाता हूँ, रुक जाता
हूँ, समझदार होकर यह क्या कर रहा हूँ। ज़िंदगी के इतने बड़े फैसले गुस्से में नहीं
लिए जाते। वैसे भी यह रात का वह पहर है, जिसमें बहुत अपराध होते हैं। नहीं अब नहीं
सुबह। शांति से, सुबह हर हाल में, बस अब और नहीं बना जाता अयनघोष।
अन्य सुबहों जैसी ही है
यह सुबह भी। शांत परंतु मेरे लिए आम से अलग। मैंने बहुत कुछ भूलने का मन बना लिया
है। सीरत के लिए खुद चाय बना कर लाया हूँ। उसे प्यार से जगाया। चाय पीते हुए उसके
स्वास्थ्य का हाल-चाल पूछा। छोटी-मोटी बात-चीत की। अंतत: प्यार से कहा, “सीरत यह घर अब बच्चे के
बिना सूना-सूना सा लगता है।”
“हूँ.....तो....।” वह ऐसे ही मेरी बातें
सुनती है, बेध्यानी से परंतु आज मैं उसका पूरा ध्यान चाहता हूँ, “देखो सीरत अपने ‘पेरेट्स’ को ही नहीं, अब हमें भी बच्चे की ज़रूरत है।”
“बच्चा तो सर जैसा हो।” वह पता नहीं कहाँ खोयी
हुई है।
“क्या.... ?” मैं पहली बार इतनी ज़ोर से बोला।
वह घबरा गई, “मेरा मतलब है जीनियस...।”
“तुम्हारा मतलब है, मैं कुछ नहीं।”
“आप अपनी जगह और सर अपनी जगह।” अपने में ही मग्न वह बोली।
“सर साला।”
“शट अप....।” मेरी बात मुँह में ही
रह गई। उस पर भी गुस्सा हावी हो गया। कहा न कि “वे मेरे भगवान हैं,
उनके बारे कुछ नहीं कहना, समझे।” वह उठी और बाथरूम चली
गई, मानो बात ख़त्म हो गई हो। मेरा दीवार से सर टकराने को जी चाहे। सारी महानता,
सहने का माद्दा, माफ कर देने की भावना, सब कुछ मानो उड़ गया। सारी विद्वता और
ज्ञान मानो मुहब्बत के वेग के समय धरा-धराया रह जाता है, वैसा ही नफ़रत ने किया।
बाहर गया, कुदाली मिल
गई और बोरा भी। इस बोरे में बीजी मेरे लिए गन्ने लेकर आई थीं। अब समझा कि मैंने उस
वक्त उसे क्यों संभाल कर रख लिया था? कुदाली और बोरा ही क्यों? ये बेल्टों
वाली ख़ास कुर्सी, ‘सर्जिकल नाइफ’, व्हिस्की की बोतल, सिगरेट और लाइटर ला-ला कर कब
स्टोर में सहेजे? आज समझ आया कि दो
सालों से कितना दु:खी था मैं।
सामान सेट किया। बहुत
समय से छोड़ रखा कुर्ता-पायजामा पहना, पुराने स्टाइल में पगड़ी बाँधी और बोतल थाम
रसोई में जा घुसा। ऐसा कुछ मैंने पहले कभी नहीं किया था। पता नहीं आज मेरे भीतर
कौन घुस आया था या बहुत समय से सोया पड़ा जाग उठा था। दारू और पानी का आधा-आधा
गिलास भर कर बड़ा घूँट भरा, ज़ोर की खाँसी आ गई। घूँट सिंक में फेंकना पड़ा। ‘फिटे मुँह, साले तुम कुछ नहीं कर सकते।’ अंतर्मन ने कहा। खीझ कर गिलास मुँह से लगाया, एक ही
बार में भीतर उड़ेल लिया, झुरझुरी सी आ गई परंतु एक गिलास और भर लिया। दाँत भींच
कर, आँखें बंद करके वह भी भीतर उड़ेल लिया। जी मिचलाने सा लगा, जल्दी से मर्तबान
से आम का अचार निकाल कर चूसने लगा। जेब से सिगरेट निकाल सुलगाई। कश भीतर न खींच
पाया परंतु मुँह से धुएँ के छल्ले निकालते हुए, हाथ में बोतल थामे बाहर आया। सीरत
यूनिवर्सिटी जाने के लिए तैयार हो रही थी। मेरी तरफ देख मानो सकते में आ गई। अवाक
मेरी तरफ देख रही थी।
“न, तुम उसका बच्चा पैदा करोगी? उस साले कुत्ते सर का?” मैंने धुएँ के साथ आग
उगली।
“आप.... यह क्या.... आगे न पीछे....
फॉर गॉड सेक.... क्या सीन क्रियेट कर रहे हैं?” परंतु मैंने उसका मिनमिनाना न सुना।
स्टीरियो में जो
म्युज़िक चला कर वह वाहयात डांस करके मुझे दु:’खी करती थी, वही उससे
भी ज़ोरदार आवाज़ में चला कर मैं बीट की धमक पर ज़ोर-ज़ोर से पाँव पटकते हुए उसकी
तरफ बढ़ा,
“हाँ, तुम फिर उस बहन.... का बच्चा पैदा करोगी? हाँ....?”
वह भीतर ही भीतर डरी
हुई परंतु मुझे चमकाने के लिए ज़ोर से बोली - “ख़बरदार अगर सर को बीच
में लाए तो....।”
“वह बहन का खसम बीच में से गया कब है? उसे तो बाद में देखूंगा.... पहले तुम्हारी बहन.....। ”
“नॉनसेंस, दिखा दी न अपना ब्लडी बैकवर्ड खानदानी असलीयत।” वह पूरी नफ़रत से बोली।
मैंने बोतल मुँह से
लगाई मुश्किल से दो ही घूंट भरे, मैंने खांसी को तो रोक लिया परंतु गुस्सा आँधी की
भाँति दिमाग को चढ़ा। बोतल एक तरफ रख मैंने उसे बालों से जा पकड़ा। कंघी हाथ से
छीन परे फेंक मारी। “अच्छा मैं बैकवार्ड, देहाती,
जाहिल और तुम लोग.... ? गुस्से में मुझे सही
शब्द भी नहीं सूझा। ..... और तुम लोग बहन के यार, पाखंडी, साले आए बड़े शहर
वाले... उस खसम के लिए सिगरेटें और मेरे लिए लेक्चर.... सालो गुरुओं को भी अपने
मतलब के लिए इस्तेमाल करते हो... तुम लोगों की बहन की तो....।” सिगरेट का
कश ले धुआँ उसके चेहरे पर मार शब्दों को चबा-चबा कर मैंने कहा।
“बास्टर्ड छोड़ो मुझे।” वह गुस्से में चीख रही
थी।
परंतु मैंने उस बालों
से खींच, कुर्सी पर घसीट, बेल्ट से बाँध दिया। चीख और गालियां दे रही थी वह, उसके
गाल पर एक तमाचा दे मारा। “तेरी बहन की.....
भौंकती है साली कुतिया..... ?”
उसे मानो अभी समझ आया
हो, वह परेशान और सुन्न सी होकर आँखें फाड़-फाड़ कर मेरी तरफ देख रही थी कि क्या यह
वही आदमी है।
“क्यों? अब लगा दु:ख, लगा न? ऐसा ही लगता है
यहाँ.... यहाँ।” मैं सीने पर ज़ोर-ज़ोर
से हाथ मारने लगा दिल पर। “मेरा कलेजा, भून-भून कर
खाया तुमने डायन....।” मैंने अपने गिरेबान
में दोनों हाथ डाल ज़ोर से कुर्ता खींचा, तड़क्क तड़क्क बटन टूटे और कुर्ता नाभि
से नीचे तक फटता चला गया। बहुत अच्छा लगा - “यह देखो, देखो... चीर
कर दिखाऊँ, कितने टुकड़े किए हैं तूने मेरे दिल के....”
मैंने सर्जिकल चाकू से
छाती पर चार-पाँच चीरे लगाए – “यह देख, यह देख....।” कहते ही परंतु उसने पहले चीरे पर ही ज़ोर से चीख कर
आँखें बंद कर ली और इधर-इधर सर मारते हुए कहने लगी– “नो – नो प्लीज़ स्टॉप इट।”
खून बहुत निकला परंतु
डॉक्टर के सधे हुए हाथ थे कि गहरा घाव एक भी नहीं लगा। अपना खून देख गुस्से से मैं
रोमांचित हो उठा, “आँखें खोल राधा तुझे
दिखाऊँ कि दु:ख क्या होता है, अभी ही आँखें बंद कर लीं, अभी तो तुम्हें एक-एक पल
का हिसाब देना है और खून पी...।”
मैंने बाँह पर चीरे
लगाए और बाँह उसके मुँह से लगा दी – “ले और पी, चुड़ैल पी
मेरा लहू... और पी।”
कस कर बंधे होने की वजह
से वह जितना हिल सकती थी उतना छटपटाते हुए बोली- “स्टॉप इट प्लीज़, बंद
करो यह, प्लीज़ हरिंदर...।”
“हरिंदर सिंह राय।” मेरा गुस्सा एक दम
बढ़ा, “सालो तुम गरेवाल ही श्रेष्ठ जाट हो... और हम राय,
दूसरे....।” उसकी आँखें झुक गईं। मैंने कहा – “और सुनो, दूसरे, तीसरे का तो पता
नहीं परंतु मेरे बारे में अगर तुम्हारे मन में हो कि तुम्हारी प्रॉपर्टी की झेंप
के कारण नहीं बोला तो दिल से निकाल दो, मेरे बार हेड सर को कोई लालच होगा परंतु
मैं थूकता भी नहीं ऐसी प्रॉपर्टी पर।”
“फिर इतने समय तक चुप क्यों रहे?” उसने व्यंग्य
से ऐसे कहा जैसे कोई ज़ख्मों पर नमक छिड़के।
‘“चुप रहा प्यार के कारण जिसके बारे तुम कुछ भी जानती
परंतु मैंने सिर्फ़ तुम्हें प्यार किया। और सिर्फ़ तुम्हारे लिए....।” मेरा दिल रुआँसा हो आया परंतु उसके सामने मैं रोना
नहीं चाहता था। इसलिए चुप हो गया।
“और मैं.... मैं भी तो तुम्हारे बिना..... ”
“और वह सर?” मैं संभल गया।
“सर के बारे मैं पहले ही बता चुकी हूँ..... ” वह नर्म पड़ी।
“हाँ हाँ राधा-कृष्ण.... ओ रब भला करे तुम लोगों का,
काम के कीड़ो, सालो पाखंडियो।” मैं फिर से गर्म हो
गया। वह भी ज़ोर से बोली – “मुझे सफ़ाई देने की
ज़रूरत नहीं।....हाँ हैं वे कृष्ण.... मेरे गुरु भी और सखा भी... हाँ हूँ मैं उनकी
राधा....।”
“तो फिर मेरी भी सुन लो, वह सर
तुम्हारा, वह होगा कृष्ण तुम्हारा, और तुम होगी राधा परंतु मैं अयनघोष नहीं....।”
“अयनघोष....?” उसने हैरानी से कहा, “यह अयनघोष कौन है?”
“यही तो दु:ख है कि राधा भी नहीं जानती कि भई
अयनघोष कौन है?” अयनघोष राधा का पति, बेचारा ‘ऐनी।’
“राधा का पति भी था?” वह आश्चर्य के शिखर पर थी।
“था नहीं..... ! अब भी हैं! बहुतेरे हैं बेचारे ‘ऐनी’.....।”
मैंने कहा तो उसने व्यंग्य से कहा – “जब पत्नी की कमाई खानी है, उसके ज़रिए तरक्की लेनी है तो अयनघोष तो बनना ही
पड़ेगा....मैं भी जानती हूँ बहुतेरों को जो बेचारे नहीं, जान-बूझ कर अयनघोष बने
हुए हैं।”
“परंतु मैं नहीं। मैं नहीं उन
कंजरों में से....।” मैं चीख उठता हूँ, “हाय रे हेड सर.... तूने किस युग का बदला लिया रे.... कहाँ फंसा दिया, इन कमीने
लोगों में...।” मैं गुस्से में दु:ख से पागल हो रहा हूँ। सीरत बहुत डरी हुई है “प्लीज़ प्लीज़.... बस करो
हरिंदर.... बस!” कहते हुए रो रही है।
आख़िर मैं रुक जाता हूँ, आँखें पोंछ देता हूँ, कुर्सी के पास जा बेल्ट खोल कर
कहता हूँ –
“यह लो सीरत गरेवाल! मैं तुम्हें सदा के लिए मुक्त
करता हूँ। जाओ, जो जी चाहे करो। मैं जा रहा हूँ यहाँ से।”
“कहाँ?” वह अपना चेहरा पोंछते हुए हैरानी से पूछती है।
“तुमसे दूर.... वहाँ अपने लोगों
में... हाँ सचमुच।” फिर मुझे ज़बरदस्ती गुस्सा आता है। “सुनो डायवोर्स कोर्ट में नहीं होगा
क्योंकि शादी कोर्ट में नहीं हुई थी।” उसे मानो समझ नहीं आया हो। वह हैरानी
से बोली, “क्या मतलब?”
“मतलब यह कि जितने लोग शादी में आए
थे उन सभी को इक्ट्ठा करूंगा। उसी तरह प्रकाश होगा गुरु ग्रंथ साहिब का। ग्रंथी से
कह कर एक-एक भाँवर को उधेड़ूंगा। एक–एक समझी!”
वह अजीब तरह से मेरी तरफ देख रही थी। मैं भीतर जा कर हाथ-मुँह धो, कपड़े बदले
कर आता हूँ। फिर कुदाली और बोरा पकड़ कर बाहर आ जाता हूँ। फिर गंभीरता से कहता हूँ
- “ कोई और आए चाहे न आए, भाँवर
उधेड़ते समय तुम्हारे और मेरे माँ-बाप के साथ, तुम्हारे सर को ज़रूर बिठाऊंगा......।”
बाहर आकर, लॉन में कुदाली से देवदार का पौधा उखाड़ कर बोरे में लपेट गाँव की
ओर चल देता हूँ।
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