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शुक्रवार, मार्च 01, 2024

कहानी श्रृंखला - 47 रोज़ डे - सिमरन धालीवाल (पंजाबी)

                                          रोज़ डे


 

              0 सिमरन धालीवाल

            अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु

 

तब उसने हँस कर ही तो कहा था, नवराज सर, कोई अच्छी सी ग़ज़ल सुनाइए न।

यह दूसरा मौक़ा था जब हमारा आपस में कलाम हुआ था। पहला, तब जब वह पहले दिन कॉलेज आई थी। उसकी हेड ने स्टाफ रूम में हमारा परिचय करवाया था।

ये रोज़ी मैम हैं। विक्रम सर की जगह पर आई हैं।फिर उन्होंने मेरी तरफ हाथ करके कहा था, नवराज सर, म्युज़िक डिपार्टमेंट। यह बलकरन सर पंजाबी वाले। स्टाफ रूम में हम दोनों ही थे। बलकरन ने हँस कर कोई बात कहनी चाही थी परंतु न तो उसकी हेड ने कोई हामी भरी और न ही रोज़ी ने। मुझे  लगता है बाद में हेड ने निश्चित रूप से कह भी दिया होगा - रोज़ी, ये पंजाबी वाले को ज़्यादा मुँह मत लगाना। फिर मत कहना कि बताया नहीं।

दूसरी बार तब, जब कॉलेज के फांउडेशन डे पर गाने के लिए मैं बच्चों को गुरबाणी के शबद तैयार करवा रहा था।

स्टाफ में से कभी-कभी कोई ऑडीटोरियम में आ जाता था। उस दिन वह भी अंग्रेज़ी की कश्यप मैम के साथ आई थी। पता नहीं मेरी गायकी के बारे में उसे किसने बताया था।  उसने नि:संकोच हो कर दूसरी ही बार मुझसे ग़ज़ल की फ़रमाइश कर दी।

अलज़बरा पढ़ाने वालों को ग़ज़लें समझ आती हैं ?”  मैंने भी हँस कर परंतु झिझकते हुए कह दिया।

समझ तो बहुत कुछ आता है सर ! अभी आप ग़ज़ल सुनाइए। उसने पहले से भी ज़्यादा शरारती लहज़े में कहा।

मैंने हारमोनियम पर हाथ चलाया। सुर पकड़ा और गाने लगा।

तेरे आने की जब ख़बर महके....

माहौल शांत हो गया। वह आँखें बंद किए सुनती रही। जब मैंने ग़ज़ल ख़त्म कर उसकी तरफ देखा, उसके चेहरे पर कुछ अलग सा तिलिस्म था।

झिझक नाम की चीज़ इसमें है ही नहीं। सबसे बातें तो ऐसे करती  है मानो इसी कॉलेज में पैदा हुई हो। तुम देखना एक न एक दिन कोई पटाखा ज़रूर फूटेगा। इसकी नथनी बताती है। स्टाफ रूम वाली मुलाक़ात से अगले दिन, बलकरन ने कैंटीन में कहा था।

नथनी वाली बात समझाइए उस्ताद जी फिज़ीकल वाले गिल ने चाय की चुस्की लेते हुए आँखें नचा कर पूछा था।

यह नुक्ता बच्चों को नहीं बताया जाता। बलकरन ने कहा तो सभी हँस पड़े थे। बलकरन भी अपनी बात पर खीं-खीं करके हँसता रहा। छोटी-छोटी सी आँखों को पूरी बंद करके।

रोज़ी ने आँखें खोलीं।

वाह! नवराज सर आप तो कमाल का गाते हैं। पता है यह मेरी पसंदीदा ग़ज़ल है।

मैंने देखा ऑडिटोरियम में जल रही मध्यम सी रोशनी में उसकी नथनी चमक रही थी। मुझे बलकरन की कही बात याद आ गई।

अपनी तारीफ़ सुन कर मैं बस हल्का सा मुस्कुराया।

आइए फिर कॉफी तो बनती है न अब ?” उसने और भी हँसते हुए कहा तो मुझसे मना करते न बना। बच्चों को ब्रेक दे कर मैं रोज़ी और कश्यप मैम कैंटीन में जा बैठे।

आप लोग बैठिए और मैं आई। पलों में ही वह कॉफी का ऑर्डर देकर आ गई।

रोज़ी मैम, सचमुच, आप इतनी संगीत प्रेमी होंगी, आई कांट बिलीव। मैं मानो उसे जानने के लिए आतुर था पर भीतर से कहीं से बलकरन बोल उठा, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता, इसीलिए मैं तुम्हें जानना नहीं चाहता। वह कहा करता है जो आदमी अच्छा लगे उसे जानना नहीं चाहिए। जब जान लिया तो फिर अच्छाई फीकी पड़ जाती है और आदमी की बुराइयां नज़र आने लगती हैं।

मैं मन ही मन अपनी इस बात पर मुस्कुरा उठा। सोचा, मैंने इसे पाया ही कहाँ है ? जो खोने का डर हो।

सर मैं बहुत म्युज़िक सुनती हूँ। इनफैक्ट अच्छा म्युज़िक, किताबें पढ़ती हूँ, ऐक्चुयली आई एम आर्ट लवर।

वाह! क्या बात है। फिर यह अल्फा बीटा गामा से माथापच्ची क्यों ?”

रोज़ी की ख़ातिर सर जी, रोटी के लिए। और गाना कौन सुनता मेरा ?”

अच्छा, गाती भी हैं? तो हो जाए ज़रा कोई तराना फिर। मैंने इस बार सारी झिझक दूर करके कहा।

सब कुछ एक ही दिन सुन लेंगे ?  क्यों फिर कभी कॉफी पीने का इरादा नहीं है क्या ?” मैंने उसकी इस बात को मित्रता का आमंत्रण समझ लिया।

 

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       काफ़ी दिनों बाद धूप निकली थी।

मैं स्टाफ रूम के सामने वाले लॉन में बैठा था। वह पता नहीं किधर से चलते-फिरते मेरे पास आ बैठी।

सर इस तरह अकेले या तो फ़कीर बैठते हैं या फिर....। फ़कीर तो आप हैं नहीं, सो.... मेरी आँखों में झांकते हुए वह हँस पड़ी।

अकेला कहाँ ?  मैं तो आपके ख़यालों की किताब लिए बैठा था। मेरा मन तो चाहा कि यही कहूँ, परंतु डर गया।

हम तो फ़कीर ही हैं रोज़ी मैम मैं ज़्यादा खुलने से शरमा जाता परंतु जवाब देने की कोशिश करता।

चलिए अगले चालीस मिनट फ़कीरों के नाम सही। जगह तो दीजिए। उसने बेंच की तरफ इशारा किया।

रोज़ी जी, बेंच का क्या है हम तो दिल में जगह देने को तैयार हैं कहना तो मैं यही चाहता था परंतु कहने की हिम्मत न हुई। अपनी डायरी उठा कर उसके बैठने के लिए जगह बनाते हुए मैं थोड़ा सा सरक गया। उसने बेंच पर बैठते हुए लंबी साँस ली।

नवराज सर, कोई सुंदर सी बात सुनाइए। उसने हँस कर कहा। नाक की नथनी धूप में चमक रही थी।

मेरा फिर जी चाहा कि कह दूं, रोज़ी जी सुंदर लोगों के सामने सुंदर बातें भी फीकी होती हैं। परंतु मन की बातें मन में दबा कर मैंने अपनी डायरी खोल ली।

एक ग़ज़ल सुनिए। दास ने आज ही लिखी है, थोड़ी देर पहले। मैंने अपनी लिखी ग़ज़ल सुना कर उसके चेहरे की तरफ देखा, अपनी रचना का प्रभाव जानने के लिए।

वाह!! बस उस्ताद बन जाइए इस ख़ाकसार के। वह खिल उठी। उसे खिली-खिली देख कर मैं भी खिल उठा।

हमने चाय पी। बातें कीं। गीत-ग़ज़लें सुनी-सुनाईं। वह मेरे क़रीब होती गई। मैं इस दोस्ती के गहराते जाने से नशे में सराबोर सा था।

आज खाना कब खाएंगे गुरुदेव। मुझे भी बुला लीजिएगा एक साथ खाएंगे। जिस दिन उसने यह पूछा मैं झूम उठा।

बारह पैंतीस पर। मैंने फ्री लेक्चर का हिसाब लगा कर बताया था। उस दिन के बाद मैं और वह हर रोज़ एक साथ खाना खाने लगे।

तुम्हारा नमक एक दिन हराम हो कर रहेगा देख लेना तुम। मैं जितना उसके क़रीब होता, बलकरन की कोई न कोई बात मुझे उतना ही डरा देती।

ये नथनी वालियां बलाएं होती हैं। बच कर रहना, देखना पानी तक नहीं माँगने देगी। मैंने बलकरन की बातों से ध्यान हटा कर अपना सारा ध्यान उसकी तरफ मोड़ा। उसे  कोई बात पूछनी होती, मुझसे पूछती। कोई बात बतानी होती, कॉलेज में मुझे ढूँढती फिरती।

गुरु जी क्या कर रहे हैं?” एक दिन उसका फोन आया। मैं बहुत व्यस्त था परंतु उसे नहीं बताया।

गुरु जी, तो एग्ज़ाम हॉल में आ जाइए। मेरी जगह ड्यूटी पर। मेरी न कॉपियां पड़ी हुई चेक करने को। उसने इतने मोह से कहा कि मैं अपना ज़रूरी काम छोड़ उसकी जगह ड्यूटी करने चला गया।

मैं बस पंद्रह मिनट में आई। कह कर खुशबुएं बिखेरती हुई वह कमरे से निकल गई। पंद्रह मिनट गिनते-गिनते पूरे तीन घंटे गुज़र गए परंतु वह न लौटी। हॉल खाली हो गया। बच्चे घरों को चले गए। मैंने पेपर समेटे। जमा करवाए और स्टाफ रूम में आ गया। मेरे आने तक वह स्टाफ रूम में मैडमों के साथ संतरे खा रही थी।

गुरु जी आ गए आप?” उसने इतनी सहजता से कहा कि मानो कुछ हुआ ही न हो। पंद्रह मिनट कह कर उसने मुझसे पूरे तीन घंटे अपनी जगह ड्यूटी करवाई थी परंतु एक बार भी इस बात के लिए मेरा शुक्रिया अदा नहीं किया। मुझे एक पल के लिए बुरा भी लगा परंतु फिर जब वह अपनी संतरा पार्टी छोड़ कर मेरे साथ वाले सोफे पर आ बैठी, मेरा गुस्सा कहीं हवा हो गया था। हम अपनी बातों में खो गए। स्टाफ के होते हुए भी अकेले। मैंने नोट किया कि सामने सोफे बैठी मैडमें आँखों-आँखों में बतिया रही थीं। मैं जानता था वे बातें भी हमारी ही कर रही थीं। वे क्या पूरा स्टाफ हमारी बातें करने लगा था। बलकरन से मुझे सारी बातें पता लगती रहती थीं। उसके सामने तो मैं ऐसी बातें करने वालों को गालियां देता परंतु मन ही मन जैसे खुश होता। अपने नाम के साथ उसके नाम का जुड़ना मुझे अच्छा-अच्छा सा लगता। यह बात और भी अच्छी लगती कि लोगों को लगता है कि हमारे बीच कुछ है। मैं सोचता काश! यह अफ़वाह सच हो जाए और कभी-कभी लगने लगता कि सचमुच हमारे बीच कुछ है। उसकी बातें मेरा मन मोह लेतीं।  मेरी बातों की वह क़ायल हुई रहती। वह मुझे ढूँढती, मैं उसे ढूँढता। खाली लेक्चर हम इकट्ठे गुज़ारते। मेल स्टाफ के साथ मेरा उठना-बैठना छूट गया था। मर्द हमारे बारे में जो बातें करते वह बलकरन मुझे सुना देता।

भाई या तो मोर्चा जीत लो वर्ना फिजूल की तोए-तोए मत करवाना। बलकरन हौंसला भी दे जाता और चिंता में भी डाल देता।

गुरुदेव एक चिंता आ गई है।  किसी छुट्टी वाले दिन उसका फोन आ गया। फोन तो उसका अक्सर आता ही था परंतु चिंता वाली बात ने मुझे चिंता में डाल दिया।

हम हैं तो क्या ग़म है। बताइए जनाब हर चिंता हर लेंगे। मैंने बड़े शौक से कहा था।

दस हज़ार रुपयों की ज़रूरत पड़ गई बस। कह कर उसने अपनी चिंता का पहाड़ माने मुझ पर लाद दिया हो। जितने जोश से मैंने डायलॉग मारा था न कहने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। पलों में ही मैंने सारा जोड़-घटाव कर लिया। दस हज़ार उसे देकर मेरा अपना बजट गड़बड़ा गया।

सचमुच आप से ही उम्मीद थी। उम्मीद क्या एक गर्व सा महसूस होता कि मैं गुरुदेव से माँग लूंगी पैसे।

फिर कई दिन गुज़र गए। दिनों महीनों में। उसने पैसों की बात ही न की। मैं मन ही मन उधेड़-बुन में रहा। कभी सोचता पैसे माँग लूं, कभी लगता वह खुद ही लौटा देगी। अंतत: इसी उधेड़-बुन में मैंने एक दिन सोच लिया, पैसे माँग ही लेता हूँ। मैं क्लास ख़त्म करके आया था। सामने वह बैठी थी। मैं साथ वाले सोफे पर बैठ गया। पैसों की बात करने के लिए मुँह खोलने ही जा रहा था कि उसने अपना ए.टी.एम. कार्ड मेरी तरफ बढ़ाया,इसे जेब में रख लीजिए, अब कहाँ पर्स में रखने जाऊँ। हफ्ता भर ए.टी.एम. मेरे पास ही पड़ा रहा। एक शाम उसका मैसेज आया कि कल कॉलेज आते समय उसके कार्ड से पैसे निकलवा कर लेता आऊँ। साथ ही ए.टी.एम. का पिन नंबर भी था। मैंने जाकर कार्ड और पैसे उसकी तरफ बढ़ाए। उसने कार्ड मुझे लौटा दिया और पैसे मुट्ठी में भींच लिए।

यह तो आप रख लीजिए। फिर ले लूंगी। कार्ड मेरे पास रहा। वह पैसे बता देती, मैं निकलवा देता। मुझे कुछ और ही तरह का महसूस होता। मन में सोचता, नवराज सिंह, कहाँ बाँटा कुछ ?  भूल जाओ दस हज़ार को। वह तो खर्च के लिए पैसे भी तुम्हारे हाथों लेती है।

मैं मानों हवा में उड़ता फिरता।

कॉलेज में हमारी बात उड़ती फिरती। मैं इस उड़ती बात की बात रोज़ी से करता। वह बड़ी लापरवाही से कहती, कुछ तो लोग कहेंगे, परवाह नहीं करते। आइए हम कॉफी पीते हैं लोगों को दिखा कर। उसकी बात से मेरा हौंसला बढ़ जाता। मन ही मन सोचता, नवराज सिंह, उसके मन में कुछ तो है तुम्हारे लिए। ऐसे ही कौन सी लड़की बदनाम होना चाहती है ?”

हम दोनों एक-दूसरे के साथ बदनाम हुए फिरते।

वह फुर्सत का हर पल मेरे साथ गुज़ारती। मैडमें इस बात से परेशान थीं। कोई चाय या खाने के लिए  पूछती तो वह मना कर देती। पास से गुज़रती कोई दूसरी फब्ती कस जाती, वह भला हमारे साथ चाय पीती है?”  और रोज़ी उससे भी ज़्यादा करके दिखाती, हाँ, यह बात तो है। एक काम कीजिए न फिर मेरी और नवराज सर की चाय भी कह दीजिएगा कैंटीन में।

फब्ती कसने वाला चित्त हो जाता।

हम किसी की परवाह न करते। 


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मैं धीरे-धीरे मोह-मुहब्बत की बात करने लगा। आने-बहाने से उसका मन पढ़ने की कोशिश करता। वह भी जब कोई पास न होता तो सरकार सरकार करती फिरती। कभी हाल पूछता तो हँस कर कहती, हाल तो आपके साथ है। मैं सोचता, मन में कुछ तो है इसके भी परंतु खुल कर कुछ भी कहने से डरता। बलकरन जब भी मिलता कह देता, इस जैसी खुद ही शोर मचा दिया करती हैं।

मेरा जी चाहता पत्थर से बलकरन का सर फोड़ दूं। वह जब भी रोज़ी के बारे कुछ बुरा-भला कहता, मेरा मूड उखड़ जाता। मैं सब बातें भुला कर अपना ध्यान मुहब्बत की बात पर लगाता।

 

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फरवरी का महीना था। मौसम खुशनुमा सा था। किसी-किसी दिन ठंड होती, कभी कड़क धूप, कभी सर्द हवाएं चलतीं। वैलेंटाइन सप्ताह शुरू हो गया। मैंने मन में सोच लिया कि प्यार के इस हफ्ते में प्यार की बाज़ी जीत ही लेनी है। मैं उसके समक्ष इज़हार की योजनाएं बनाता। कॉलेज में उस दिन कोई छुट्टी थी। रोज़ी का संदेसा आया। उसने यू. टी. मार्केट में मिलने के लिए कहा था। मैं विशेष रूप से तैयार हुआ। बढ़िया सा परफ्यूम लगा कर यू. टी. मार्केट पहुँच गया। वह सामने खड़ी थी। हाथ में सुर्ख़ गुलाब लिए। उसे देख याद आया कि आज तो रोज़ डे है। मन ही मन पछताया कि काश ! मैं भी उसके लिए गुलाब लेता आता।

       हम एक बेंच पर बैठ गए।

जनाब एक बेहद ख़ास बात करनी है आज मुझे आपसे। उसने गला साफ करते हुए कहा।

       मैं मन ही मन मुस्कुराया। इंतज़ार करने लगा कब यह महकता गुलाब मेरी तरफ बढ़ेगा।

आप कलाकार हैं। बताइए मुहब्बत के बारे में आप क्या सोचते हैं?” मुहब्बत का सवाल उसने मेरी तरफ उछाल दिया।

  मेरे लिए तो मुहब्बत दुनिया की सबसे बड़ी चीज़ है। अहसासों की साझेदारी। मीठा सा सरूर। मैंने कुछ ज़्यादा ही विशेषण जोड़ते हुए कहा।

  मेरे लिए भी यही है मुहब्बत की परिभाषा। मैं भी इस अहसास को जीना चाहती हूँ। उसने आँखें फैलाते हुए कहा।

मैं और भी खुश हो गया परंतु साथ ही मन ही मन खुद को डाँटा। ओए बड़े कलाकार तुमसे इज़हार नहीं हो पाया। लड़की को देखो मुहब्बत के इज़हार के लिए हाथ में गुलाब थामे खड़ी है।

तो रोका किसने? जी लीजिए। सोचती क्या हैं ?”

जिससे मुहब्बत है उसने तो कभी जताई नहीं। दिल टूटने से डरती हूँ।

हो सकता है वह सामने वाला कह ही न पाता हो। मुहब्बत तो वह भी बेपनाह करता होगा। मैं अपने मन की हालत बयां करने लगा।

मतलब यह कि अब इज़हार करने की हिम्मत भी मैं ही करूं?” उसने गहरी साँस लेते हुए कहा।

कर लीजिए, यह न हो कि गुलाब मुर्झा ही जाए। मैं गुलाब लेने के लिए उतावला था।

हाँ, क्या पता सामने वाला गुलाब देगा भी या नहीं!” मुझे लगा उसने यह बात मेरे खाली हाथों को देख कर कही है।

चलिए एक पहल आप कर लीजिए, फिर तो.... मैंने अभी आधी ही बात कही थी। वह बेंच से उठी।

तो फिर गुरु जी आप लीजिए विशाल कॉलोनी का ऑटो, घर पहुँचिए। वह आने वाला है। प्रेमकथा मैं आपको कल कॉलेज आ कर सुनाऊँगी। वह इतनी जल्दबाज़ी में थी मानो मुझे धकेल कर यू. टी. मार्केट से बाहर निकाल देना चाहती हो।

कौन आने वाला है ?  किसकी बात कर रही हैं ?”

वही जिससे मुझे अपनी मुहब्बत का इज़हार करना है। यह गुलाब जिस गेंदे को देना है। मेरा स्कूल टाइम का दोस्त है। वह खिल-खिला कर हँस पड़ी।

गुरुदेव, हर मुश्किल समय में आप ही मेरी नैय्या पार लगाते हैं। चलिए कल मिलते हैं। कॉफी पीयेंगे इस रोज़ डे की खुशी में। और बताउँगी कि क्या कहा मेरे रांझे ने। उसने आँख दबा कर कहा। मैं हल्का सा मुस्कुराया। बाय कह कर मेन रोड की तरफ चल दिया। बेध्यानी में पाँव पत्थर से टकराया। पाँव में बहुत दर्द हुआ परंतु मैं दर्द दबा कर आगे चल पड़ा।


   साभार - कृति बहुमत, फरवरी, 2024

 

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