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शुक्रवार, सितंबर 12, 2025

तीन द्वारों वाला मंदिर - गुरबचन सिंह भुल्लर

 कहानी - 64  (पंजाबी)  

                                  तीन द्वारों वाला मंदिर

                                               

                                    ० गुरबचन सिंह भुल्लर

                                अनुवाद :नीलम शर्मा अंशु

 


                                       प्रथम द्वार

 

      एक स्तन पर हाथ और दूसरा स्तन होठों में। मेरे इस चंचल शिशु को नींद इसी तरह आती हैं। ऐसे समय में आँखें तो उसकी जगते हुए भी मुंदी रहती है, सोए होने का अहसास तो तब होता है जब मेरे स्तन से खेल रहा इसका हाथ धीरे-धीरे सुस्त होता जाता है और दूसरे स्तन पर होठों की पकड़ ढीली। अक्सर मुझे अजीब सा अहसास होता है। तन की वीणा में झंकार उत्पन्न होती है। मन की स्थिरता में चंचलता। दिल चाहता है हौले से हाथ और होठ हटा दूं थोड़ा परे हट कर कुर्त पहन कर खुद भी ढलते पहर की नींद ले लूं। परंतु बाल हठ का क्या चारा! कभी तन तपने और मन मचलने लगता है। पर संभलती हूँ, संकोच करती हूँ और सोचती हूँ कि आहिस्ता से उठ जाऊं और खुद को दूसरे काम में व्यस्त कर लूं। परंतु ऐसा कुछ भी संभव नहीं हो पाता। यह झट से जाग जाएगा। पहले से भी ज़्यादा कस कर मुझसे लिपट जाएगा और ऐसे अवसर पर इसके जगे हुए बाल-हठ के कारण होने वाली परेशानी में ही जानती हूँ।

      वैसे भी उठकर मुझे करना क्या है? बाहर बारिश हो रही है और इस तरह लेटे-लेटे मन के भीतर यादों की रिमझिम होने लगती है। बारिश होती है तो भी सरबजीत याद आ जाती है और इसकी बालसुलभ हरकतों के कारण भी सरबजीत की ही याद आती है।

       कॉलेज के हॉस्टल में सरबजीत मेरे कमरे में मेरे साथ रहा करती थी। बहुत ही अच्छी लड़की, प्यार करने वाली और जज़्बाती, शरीफ तथा सुंदर।

            हमारी साझी वर्षा ऋतु की पहली बदली छाई तो वह सब कुछ भूलकर खिड़की में जा बैठी। मैंने उसे छेड़ा - विरहन को मेघदूत की मार्फत् किसके संदेसे का इतज़ार है?’ मैंने तो यह बात यूं ही, बिना किसी विशेष अर्थ या महत्व से कही थी। परंतु वह और भी गंभीर हो गई। मेरी तरफ देख वह हौले से मुस्कराई। मुस्कराते हुए उसका चेहरा उदास हो गया। हल्की सी आह भरकर कोई जवाब दिए बगैर ही वह फिर से बादलों की तरफ देखने लगी। पहली बौछार गिरी तो मानो उस पर कोई जादू सा छा गया। छम-छम बारिश होने लगी तो वह अचानक मेरी बाँह पकड़कर मासूमियत से बचकाने से स्वर में कहा - चलो, छत पर चलते हैं। सारे कपड़े उतार कर जी भर कर नहाएंगे। मेरा मुँह खुले का खुला रह गया। मैंने उसे कंधों से पकड़कर झिंझोड़ा, ‘पागल हो गई हो? और अगर किसी ने देख लिया तो?’

       कौन देखेगा?’ उसने मिन्नत की। बसाहट से तो कितनी दूर है अपना हॉस्टल। और छत का जंगला भी काफ़ी ऊँचा है। और हॉस्टल की सभी लड़कियां बारिश के कारण......

      मैंने सख्ती से रोका तो वह निराश और उदास होकर मेरे पास बैठ गई और मेरा हाथ पकड़कर बोली- मनिंदर मेरे इस तन में एक प्राणी और रहता है। एक नन्हीं सी बालिका।

      साथ लेटी नन्हीं सी जान की साँसें गहरी नींद की गवाही देती हैं। काया के केन्द्र में से मोह-ममता की लहर उठती है। इसके जग जाने के भय से, आहिस्ता से, सूक्ष्मता से, हल्के से स्पर्श से इसके चेहरे को दुलारती हूँ। इसके खुले पंखों वाली काल्पनिक उड़ानों के लिए खुले आसमाँ जैसी आँखों को। इसके गहन गंभीर चिंतक मस्तिष्क को। बाणी जैसे बोल उच्चरित करने वाले होठों को। इसके गोल-मटोल गालों को। और फिर इसके तन की प्रौढ़ता की प्रतीक रेशमी दाढ़ी में उंगलियों की पोरे फिराने लगती हूँ। जी चाहता है, कभी इनसे कहूँ, मन को समझाओ। यह भी जन की तरह अवचेतन बाल्यावस्था की यात्रा संपन्न कर सचेतन प्रौढ़ता के मार्ग पर कदम रखे। परंतु कहती नही हूँ। प्रौढ़ तन में बाल मन ही तो इसकी प्रकृति से पार जाने वाली विशेषता और विलक्षणता है। इसका माथा चूम लेती हूँ। नारीयल की कच्ची गरी जैसा स्वाद मुँह में घुल जाता है। खिलने वाली कली जैसी मीठी-मीठी सुगंध साँसों में रच जाती है। जी चाहता है कि तन की सीप बन जाए और उसमें इस मोती को बंद कर लूं। इसका चेहरा ममता के उछाल से हृष्ट-पुष्ट हुए अपने स्तनों के बीच टिका लेती हूँ। शायद इसकी जन्मदात्री माँ मेरे तन में मेरे साथ रहती है। ज़रा इसकी उगलियां, इसके होंठ मेरे स्तनों को स्पर्श करते हैं तो मेरे सपूर्ण तन में एक अनोखी सरगम सी झंकृत हो उठती है। और फिर मानो दूध की धाराएं फूट निकलती हैं। दूध की धाराएं सचमुच फूट पड़ती है कि नहीं, मैं नहीं जानती, परंतु इतना अवश्य जानती हूँ कि मेरे अंतर से ममता की धाराएं प्रवाहित हो इसके पपीहे जैसे प्यासे होठों से लगातार बहती रहती है।

      ऐसे समय में मेरा अंतर बोल उठता है - तेरे तन को ही नहीं सरबजीत, शायद प्रत्येक तन को ही अपने भीतर एकाधिक प्राणी बसाने का शाप मिला हुआ है।’ और फिर मैं कहीं दूर छूट चुकी सरबजीत से पूछती हूँ - पर मेरी बहना, यह जिसे तू शाप कहा करती थी, कहीं यह एक मानव देह को अपने भीतर कई प्राणी बसाने का वरदान तो नहीं?’

 

                                    द्वितीय द्वार

 

      आनंद नहा रहा है। उसे गुसलखाने में गए काफ़ी वक्त हो गया है और काफ़ी देर तक वह बाहर नहीं निकलने वाला। यहाँ यह भी बता दें कि आनंद इसका नाम नहीं। न ही नाम के साथ जुड़ा कोई गोत्र या उपनाम। यह नहा कर, खा-पीकर, चित्र बना चुकने के बाद अपना दांया हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा कर कहता है आनंद’ इसका कहना है कि आदमी या तो कोई काम न करे, अगर करे, तो पूजा की तरह करे जिसमें से आनंद उत्पन्न हो सके। और हर काम में यह पूजा भाव ही इसे आनंद विभोर किए रखता है। उसके गुसलखाने में जाने के बाद मैंने बेडरूम और सिटिंग रूम में आवश्यक वस्तुए रख दी हैं। यह दाएं वाले बेडरूम में नहीं लेटेगा, जहां मैं शिशु के साथ लेटी थी। उसे यह ममता का मंदिर’ कहता है। मैंने उस बेडरूम की रजाई तह कर दी है और दाएं वाले बेडरूम में डबल कंबल खोल दिया है। ताज़े फूल-पत्तों की तश्तरी, धूपदानी में मोगरा अगरबती की दो सीखें, चाँदी के कटोरे में चंदन लेप, सब कुछ मैंने तिपाई पर रख दिया है।

       सिटिंग रूम में सेंट्रल टेबल पर अपने लिए नींबू पानी का गिलास रख दिया है और उसके लिए व्हिस्की तथा शहद। व्हिस्की इसे शहद डाल कर ही अच्छी लगती है। कहता है इस तरह यह ज़िंदगी की भाँति एक ही समय में मीठी तथा कड़वी हो जाती है। यूं तो व्हिस्की पीते वक्त यह कुछ विशेष खाता नहीं है, परंतु मेज पर कुछ रखा ज़रूर होना चाहिए। मैंने किशमिश और छुहारों वाला तीखा नमकीन रख दिया। नमकीन भी इसे ऐसा ही पसंद है जिसमें कुरकुरा और तीखापन भी हो तथा मिठास और ठंडक भी।

       रात को ख़ास कर जब थोड़ी सी पी रखी हो, यह कम ही खाता है। और यह आता है तो पीता तो है ही।

    फ्रिज खोल कर मैने ब्रेड, मक्खन, जैम देख लिए हैं। इधर मैं इन कामों से फारिग होकर सोफे पर बैठी हूँ, उधर गुसलखाने का दरवाज़ा खुलता है। रेशमी दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए यह बाहर आया है और साथ ही खुशबु का एक झोंका भी। यूंतो इसकी हस्त्री ही सदा तरो-ताज़ा व महकती रहती है। परंतु स्नान के बाद इत्र-फुलेल लगा कर इसकी कांति ओस से धुले पुष्पों जैसी हो जाती है। मैं स्वागतम् के तौर पर पूछती हूँ स्नान ध्यान हो गया?’ वह हाथ उठाकर मुस्कराता है, आनंद’ और सोफे पर मुझसे सट कर बैठते हुए, मेरा हाथ दबा कर मेरी उंगलियों की पोरों को चूम कर हँसते हुए कहता है व्हिस्की की जगह तुम्हारा वही नींबू पानी। थोड़ी सी इसी में डाल लो। यह ईश्वरीय देन मनुष्य के आनंदावस्था में प्रवेश को सहज बना देती है। मुझे मालूम है, वह ऊपरी मन से ऐसा कह रहा है। अगर इसे पीने के लिए साथ की ज़रूरत महसूस हो, तो सच कहती हूँ मुझे भला क्या ऐतराज़ हो सकता है। अगर इसके साथ जीवन की मिठास का रसास्वादन करती हूँ तो इस मामूली सी कड़वाहट से भला कैसा संकोच। वह मेरी निःशब्दता को चूम लेता है। अपने होठों पर जीभ फिरा कर सोचती हूँ, इसने तो अभी गिलास मुँह से भी नहीं लगाया, परंतु इसके होठों की नमी में ठहरी हुई शराब का तीखा नशा कहाँ से आ गया? एक चम्मच शहद मेरे नींबू पानी में मिलाते हुए आह जैसी लंबी साँस लेकर कहता है,कड़वाहट मेरे हिस्से और मिठास हम दोनों की साझी।

       मैं उठ कर सिटिंग रूम की सभी बत्तियां बुझा देती हूँ और स्टैंड पर पहले से ही लगाई हुई मोमबत्ती जला देती हूँ। गहन बाहु-पाश में आबद्ध मोम के स्त्री-पुरुष के सर पर रोशनी की छोटी सी ज्योति नृत्य करने लगती है। यह मोमबत्ती की तरफ अपना गिलास बढ़ा कर कहता है-

                           शमा ने आग रखी सर पे कसम खाने को।

                        या खुदा मैंने नहीं जलाया तेरे परवाने को ॥

       घूँट भर कर आनंद’ कहकर गिलास मेज पर रख देता है। साथ ही मैं भी अपना नींबू पानी रख देती हूँ। धीमी आवाज़ पर सेट किया कैसेट प्लेयर चला देती हूँ। किशोरी अमोनकर का जादुई स्वर अपना जादू बिखेरने लगता है। यह आलाप लेती है- 'आ....आ.....आ... मानो समूची सृष्टि को श्रोता बनने का निमंत्रण दे रही हो। उसकी स्वर लहरियां लरज़-लरज़ कर फैलने लगती है। मानो अमृत सरोवर में पुष्प अर्पित किया गया हो। उसके शब्दों से चारों तरफ निःशब्दता छा जाती है, मानो सब कुछ थम सा गया हो। इस निःशब्दता में उसके शब्द उभरते हैं:

 

                            मेहा झर – झर बरसत रे

       हृदय रस-रंग के झर-झर बरस रहे मेघ से विभोर हो उठता है।

                                            इत बरसत के फिर नहीं बरसत

                        मन कछु नहीं समझत रे

                        मेहा झर-झर बरसत रे.....

      अंधेरे में नन्हीं-नन्हीं लहरों की तरह फैल रही मोमबत्ती की रोशनी में कैसेट प्लेयर अदृश्य हो जाता है और सामने बैठी किशोरी अमोनकर हमारे प्रेम मंडप में सिर्फ़ हमारे लिए गा रही हैं।

                           'भीजे सिगरी देही मोरी

                           मन आनंद जग्यो रे

                           मेहा झर-झर बरसत रे....'

      मोम के स्त्री-पुरुष धीरे-धीरे ढल रहे हैं, जल रहे हैं, एक-दूसरे के अस्तित्व में विलीन हो रहे हैं। सराबोर मन के साथ-साथ तन भी सराबोर होने लगता है। यही वह समय है जो अस्तित्व और अस्तित्वहीनता, दोनों से ऊपर उठ जाता है, दोनों से पार। सभी सीमाओं से मुक्त होकर हमने सृष्टि की संपूर्णता और अस्तित्व तया अस्तित्वहीनता के सत्य को मु‌ट्ठीबद्ध कर लिया है। इस सहज-आनंद की कल्पना वही कर सकता है जिसने उसे स्वयं भोगा हो, महसूस किया हो। तन की सभी आकाक्षाएं, हृदय की सभी ख्वाहिशें एक ही आनंद का रूप धारण कर लेती है -

                             मन आनंद तन आनंद

                        आनंद आनंद उमगत रे

                        मेहा झर-झर ररसत रे.......

      किशोरी अमोनकर का गायन समाप्त होता है, परंतु उसके सुर-मंत्र की बौछार काफ़ी देर तक होती रहती है और हमें मंत्र-मुग्ध किए रखती है। अंततः आशीर्वाद की मुद्रा में आनंदकहते हुए आनंद स्वयं भी किशोरी के जादू से बाहर निकल आता है और मुझे भी यथार्थ संसार में वापस बुला लेता है। किशोरी के गायन के बाद शब्दों की समाप्ति। रसोई में जाने से पहले निःशब्द संगीत लगा दो।

      पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का बाँसुरी वादन लगा देती हूँ। ट्रे लेकर रसोई से लौटती हूँ तो आनंद मदमस्त होकर झूम रहा है। पंडित जी की बाँसुरी की तान में गोपियों के लिए आमंत्रण है और हूक में हीर के लिए रांझे का बुलावा। तान और हूक, आध्यात्म और सांसारिकता, परलोक तथा लोक एक-दूसरे में दूध और शहद की भाँति घुल- मिल रहे हैं। वादक ऐसा प्रभाव उत्पन्न कर रहा है मानो बाँसुरी की तान गोकुल के वनों से भी आ रही हो और हीर के गाँव झंग सियाल के जंगलों से भी।

       लोई ओढ़ते हुए आनंद कहता है, शॉल ले लो, कुछ देर के लिए छत पर चलते हैं।’ उसने दाई बाजू मेरे गिर्द लपेट ली है। काफ़ी देर तक हम छत पर टहलते रहते हैं। शाम की बारिश से धुली आहिस्ता आहिस्ता चल रही हवा हमारी साँसों को ताज़गी से भर देती है। मुझे अचानक मोहन सिंह की कविता याद हो आती है, कोई तोड़े,मेरीकलाई को मरोड़े। मुझे आश्चर्य होता है कि मोहन सिंह को पुरुष होते हुए स्त्री की सुरा से लबरेज वाली अवस्था का अहसास क्योंकर था! एक आँख की तृप्ति और दूसरी की अतृ‌प्ति से मैं रात के अ-प्रकाश में आनंद का प्रकाशमय चेहरा देखती हूँ। कायनात स्थिर शांत और ख़ामोश है, मानो हर शय हमारी शहंशाही के समक्ष रुक कर, झुक कर और सोंसे रोक कर खड़ी हो गई हो। शब्दों से पार-तट पर घूमते हुए काफ़ी समय गुज़र चुका है। इसहिसाब-किताब का ध्यान किसे है?

       सिटिंग रूम में मोम के स्त्री-पुरुष ने कण-कण ढल कर क़तरा-क़तरा जल कर अपना साझा अस्तित्व खो दिया है। बस, थोड़ा सा पिघला हुआ मोम बाकी रह गया है। बेडरूम में आकर हम दोनों मिलकर एक-एक अगरबत्ती जलाते हैं। आनंद तश्तरी उठाता है और फिर हम चादर पर फूल पत्तियां बिखेरते हैं। यह इस पलंग को कृपालू बाबा आदम और कृपा लोक अम्मा हव्वा का मंदिर कहता है जिनकी कृपा से संसार को मानव नस्ल की सर्वोतम नेमत प्राप्त हुई। चाँदी की कटोरी से यह मेरे माथे पर चंदन का तिलक लगाता है और मैं इसके माये पर। यह आनंदकहकर उसी मुद्रा में मुझे आलिंगन में ले लेता है जैसे कण-कण ढल चुके, क़तरा- क़तरा जल चुके मोम के पुरुष ने स्त्री का आलिंगन कर रखा था। और किसी जादुई प्रभाव से मेरी बाँहें भी मोम की स्त्री वाली मुद्रा में कसती चली जाती हैं, जो मोम के पुरुष के साथ कण-कण कर ढल गई थी, क़तरा-क़तरा जल गई थी।

       पलंग पर बिठाते हुए और बैठते हुए आनंद कहता है, यह जो मानव देह है न, मानवीय शरीर, स्त्री शरीर, पुरुष शरीर, इसकी महिमा अवर्णनीय है। सर्जक की सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है यह, एक अद्वितीय ईश्वरीय चमत्कार। इस समय हमारे शरीर आदम-हव्वा के मंदिर की प्रतिमाएं हैं जिनके समक्ष बाहर से दीप जलाने की ज़रूरत नहीं। मिलन की चाहत के तेल में भीगी हुई शरीररूपी बाती जब विह्वल होकर दूसरे शरीर की दहकती हुई चिंगारी को स्पर्श करती है, शरीर रूपी प्रतिमाओं का अंतर-बाहर आत्म-तेज से प्रकाशित हो उठता है। पत्थर की प्रतिमा की कोई भी पूजा इस रुहानी क्षण तक नहीं पहुँच पाती। इसकी प्राप्ति तो केवल कलोल-कुशल उपासकों द्वारा लहू-माँस की प्रतिमा की आरती द्वारा ही संभव है, और, इस उपासना का प्रसाद होता है आनंद परम् आनंद। मनोवृत्ति एकाग्र कर, ख़ामोशी से ज्यों-ज्यों मैं आनंद का प्रवचन सुनती जाती हूँ शरीर रूपी बाती मिलन-आकांक्षा के तेल में भीगती जाती है, डूबती जाती है और उसके शरीर की दहकती चिंगारी के स्पर्श से प्रकाशमान होने के लिए विह्वल हो उठती है। यही वह क्षण है जब संपूर्ण अस्तित्व आधा हो जाने को व्याकुल हो उठता है ताकि यह एक और संपूर्णता से बने एक और अर्थ से मिल कर एक नई संपूर्णता का सृजन कर सके। स्त्री और पुरुष मोम के हो या हाड़-माँस के, अपना अस्तित्व खोकर प्रियतम से अभेद हो जाना, प्रियतम में लीन हो जाना ही अत्यंत आनंदकी प्राप्ति का मार्ग है।

 

                                    तृतीय द्वार

 

      सुबह का ताज़ा कच्चा दूध रसोई में रखकर ड्रॉइंगरूम में आती हूँ तो मानोचित्रकार मेरे इंतज़ार में उतावला हुआ बैठा है। तेजस्वी चेहरा, पीछे की तरफ संवारे लंबे बाल, इक्का-दुक्का सफेद बालों वाली रेशमी दाढ़ी, भूरे रंग का कमीज़-पाजामा और जैकेट, रुद्राक्ष की माला। उठ कर मेरे सर पर आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ रखता है।

       चित्रकार आज बहुत खुश है। कल शाम की बारिश से धुले और रात की हवा से बादलों रहित आकाश से तेज़ बिखेर रहे सुबह के सूरज जैसा तेज़इसके विशाल मस्तक पर है। उसकी यह खुशी संतुष्टि से उपजी है और संतुष्टि सृजन से। इसने अपने चित्रों की त्रयी पूरी कर ली है। बहुत समय, बहुत जतन, बहुत से भावुक पल समर्पित किए है इन चित्रों को। और अब जल्दी ही इनकी प्रदर्शनी की योजना बना रहा है।

       त्रयी का पहला खंड ममता’ इस जज़्बे को अलग-अलग माध्यमों द्वारा प्रकट करता है। इस श्रृंखला केदो चित्रों पर से तो निगाह मानो हटती ही नहीं। एक चित्र में माँ का एक स्तन शिशु के दूध से भीगे होठों में हैऔर तने हुए दूसरे स्तन से दूध की बूंदें खुद-ब-खुद फूट रही हैं। लगता है इन बूंदों से कैनवस भीग जाएगा। जितनी संतुष्टि शिशु के चेहरे पर है, उतनी ही माँ के चेहरे पर भी। दूसरे चित्र में काल-कोठरी में दुःख और भूख से दुर्बल हो कर मृत्यु-द्वार तक पहुँच चुके बागी बुजुर्ग को हुकू‌मती रुकावटों से खाली हाथ गुज़र कर आई नन्हें शिशु वाली उसकी नौजवान बेटी लौह-सीखों में से अपना स्तनपान करवा कर जीवन-दान देती है। तुम चंदन हम पानी’ नामक दूसरी चित्र श्रृंखला स्त्री-पुरुष के शारीरिक रिश्ते को समर्पित है। उस चित्र पर तो निगाहें जमी रह जाती हैं जिसमें आकाश और धरती के प्रतीकों का प्रयोग कर पुरुष और स्त्री कामिलन न होते हुए भी क्षितिज पर मिलना और क्षितिज पर मिलाप दर्शाते हुए भी न मिल पाना चित्रित किया है। वात्सल्य’ नामक तीसरी श्रृंखला के केन्द्रीय चित्र में एक वृक्ष जड़ों से निकल तने से लिपटी गुई एक लता को गर्म-ठंडी हवाओं से, आँधी-तूफान से, सूखे-बरसात से बचा कर फलने-फूलने, प्रफुल्लित करने के लिएसहारा बना खड़ा है। मानो एक हाथ लता के सर पर रख और दूसरे से अपने सीने से लगा कर यह वात्सल्य के जज़्बे की निराकारता को साकार कर रहा हो।

      इन सभी चित्रों को मैंने तूलिका से निकल कैनवास पर स्पर्श-दर-स्पर्श नक्श ग्रहण करते और चित्रित होते देखा है और सर्जक के अनुभव-मंथन को प्रस्तुत करने वाले इसपूर्ण गतिशील रचना-कार्य में इसे जिस पीड़ा से गुज़रना पड़ा, मैं उसकी साक्षी रही हूँ और उस पीड़ा से उत्पन्न प्राप्ति की भी।

       प्रदर्शनी का उद्घाटन तुम्हें करना है, यह सहजता से कहता है। मैं इसका मुँह तकती रह जाती हूँ परंतु यह मेरी ख़ामोशी का अभिप्रायः समझ लेता है। हाँ तुम्हें। इसमें आश्चर्य कैसा?तुम मेरी तीनों चित्र श्रृंखलाओं के साझे सार-तत्व को साकार करने वाले मुख्य चित्र का अनावरण करोगी, तभी बाकी चित्रों में सत्यकी साँसों का संचार होगा, वर्ना वे कैनवस पर निर्रथक रंगों का व्यर्थ खेल बनकर रह जाएंगे।

       मुख्य चित्र?’मैं एक प्रश्न बन जाती हूँ।

       हाँ, मुख्य चित्र, जिसे तुम भी अनावरण के पश्चात् पहली बार देखोगी।

      वह मुस्कराया, ‘एक यही तो चित्र है, जो मैंने तुमसे छुपाकर, केवल तुम्हारी कल्पना करके रचा है। तुम्हारा और मेरा साझा चित्र अब इसलिए बता दिया ताकि तुम्हारी बाल सुलभ उत्सुकता जाग उठे तथा यह उत्सुकता उद्घाटन के समय तक बनी रहे।

       हमारा?हमारा दोनों का साझा चित्र ?’

       हाँ, एक मानवीय आकार, आधा तुम्हारा आधा मेरा। अर्द्धनारीश्वर की हमारी पूज्यनीय परंपरा। बहुत मुश्किल काम था। एक अर्द्ध स्त्री और एक अर्द्ध-पुरुष को जोड़कर कैनवास पर एकाकार करना परंतु बड़ा आसान रहा तुम्हारे अर्द्ध और मेरे अर्द्ध को एक अटूट इकाई बनाना। निजी अनुभूति को दृष्टिगोचर करने में भला कैसी कठिनाई? दर्शक कोशिश करके भी वह सीमा नहीं ढूँढ पाएगा जहाँ मैं समाप्त होकर तुम शुरू होती हो या तुम समाप्त होकर मैं आरंभ होता हूँ। मैं और तुम घुलते-मिलते यूं एकाकार हो जाते हैं जैसे संगम पर यह पता नहीं चलता कि गंगा का पानी कौन सा है और यमुना का कौन सा?’

       मुझे लगता है, मेरे शैशव के अस्तित्व की नदी और चित्रकार के परिपक्व अस्तित्व के दरिया का संगम स्थल तो कहीं बहुत पीछे छूट गया है। अब तो दोनों पानियों का अस्तित्व खो जाने के बाद एक ही निर्मल धारा बह रही है जिसमें अलग पहचान की कोई गुंजाइश नहीं।

       कॉफ़ी पीकर यह जाने के लिए उठ खड़ा होता है। मैं भी उठ खड़ी होती हूँ। यह मेरे पास आता है। मैं एक नन्हीं सी बालिका, और मेरे सामने कितना परिपक्व, कितना ऊँचा, कितना संपूर्ण महापुरुष। यह दायां हाथ मेरे सर पर फिराता है और बांया मेरे कंधे के गिर्द लपेट कर कहता है, ‘अमित अवर्णीय योगदान है तुम्हारा, मेरे इन चित्रों की रचना में। अगर मैं अपनी तलाश, प्राप्ति और कीर्ति को तुम्हारा ही प्रताप कहूँ, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सोचता हूँ, तुम्हारा ऋण कैसे चुका पाउंगा? चुका भी पाउंगा या नहीं।

       मैं सिमट कर अपना सर इसके कंधे पर रख देती हूँ। इसके विशाल और स्थिर सीनेसे जीवन देने वाला वात्सल्य मेरे शरमाते और ज़ोर-ज़ोर से धड़कते सीने में निरंतर रम रहा है। इसकी बात के जवाब में मैं बस अपनी शैशवी बाँहें इसके गिर्द डाल देती हूँ।

            यह मुस्करा कर मेरी आँखें अपनी तरफ करते हुए उनमें गहराई से झाँकता है, परंतु तुम्हारा ऋण तो वास्तव में मैं चुकाना भी नहीं चाहता। असंख्य मुक्तियों से भी प्रिय है तुम्हारे ऋण का यह बंधन।

            मेरे चेहरे को दोनों हाथों में कसकर यह झुककर पहले मेरा मस्तक चूम लेता है और फिर इस क्षण के आनंद को अपने भीतर समेट लेने के लिए बंद हो गईं मेरी दोनों आँखें चूमता है। इसके होंठों की वात्सल्यपूर्ण नमी चंदन लेप की भाँति शीतल भी है और पवित्र भी, मानो ऋषि ने वन-कन्या के मस्तक और नयनों को पितृमोह से चूम लिया हो।



अंतिका-आदिका

 

यह जाने लगता है तो मेरा तन एकाग्र दृष्टि बन कर द्वार की दहलीज से लग जाता है। और मेरे इस एक एकाकी तन में बसी माँ, प्रेमिका और बालिका जा रहे इस शिशु, प्रेमी और महापुरुष को तृप्त मन से विदा करते हुए अतृप्त हृदय से उसके पुनार्गमन की आकांक्षा में दूर तक निहारती रहती है।

                     साभार - छपते - छपते उत्सव विशेषांक -2024, कोलकाता।

                

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                                  लेखक परिचय

                                गुरबचन सिंह भुल्लर

 

 

18 मार्च 1937 को गाँव पित्थो, जिला बठिंडा (पंजाब) में। पंजाबी के नामचीन कहानीकार। कविता, यात्रा-वृत्तांत, अनुवाद, संपादन, पत्रकारिता, रेखा-चित्र, आलोचना, बाल साहित्य आदि अनेक विधाओं में सृजन। 2005 में अग्नि कलश कहानी संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार। दिल्ली में निवासरत।


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