कहानी - 63 (पंजाबी) द पिंक केक
- अरविंदर कौर धालीवाल
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
लोहा बीनने वाले हाथ कूड़े में से अचानक चमके काले लिफाफे के स्पर्श से ठिठक गए। दिल काँप उठा। ‘कहीं बम न हो’ सोचते हुए दाहिना हाथ अपने आप पीठ के पीछे जा लगा। रजनी ने चुंबकीय छड़ी से लिफाफे को ठकोरते हुए चारों ओर देखा।
रॉन्टी, उसका छोटा भाई उन लड़कों की टोली के पास दूर खड़ा था जो कूड़े
में से कुछ मिलने के कारण आपस में नोंक-झोंक कर रहे थे। शंकर, जिन्हें दोनों भाई-बहन चाचा कहते हैं
जे. सी. बी. के ड्राइवर से बात करने में व्यस्त था। रजनी ने अनुमान लगाया, ‘वह कूड़े से अलग किए गए प्लास्टिक को
इकट्ठा करेगा और शाम को आने वाले कबाड़ी को बेच देगा।’
पुराने कूड़े के ढेर पर कागज और लोहा छांटने वाले नए आए
कूड़ाबीनों का कोई अधिकार नहीं होता है बल्कि उन्हें तो पुराने पहाड़ों के पास फटकने
की भी अनुमति नहीं है। रजनी लोग यहाँ नए नहीं हैं इसलिए उन्हें यहाँ से लोहा
इकट्ठा करने की अनुमति है। उसका ध्यान चमचमाते काले लिफाफे पर गया। उसके दाहिने
हाथ में तेल, घी, सब्जी और चायपत्ती के अवशेष की जो
गंदगी चिपक गई थी,उसे उसने दूसरे हाथ से साफ किया। हाथ लगाने पर लिफाफे में कोई
डिब्बा बंद सी वस्तु प्रतीत हुई। उसके मन में विचार कौंधा, ‘हो न हो! कोई सुंदर चीज़ हो इसमें।’ लेकिन ऊपर-ऊपर कुछ कागज़ से ठूंसे लग
रहे थे। अच्छी तरह से टटोलने पर लिफाफे के अंदर भी, कई लिफाफे प्रतीत हुए जिनमें कई सख्त
गठानें दी गई थीं। ‘क्या पता
चूड़ियाँ हों, कोई श्रृंगार
का सामान हो?’ अपने मन की
जिज्ञासा को शांत करने के लिए उसने लिफाफे को झाड़-पोंछकर अपनी बगल में दबा लिया।
पीछे मुड़कर देखा तो रॉन्टी अभी भी पीछे की टोली में मगन
था। ‘लिफाफे के अंदर
क्या हो सकता है?’ यह धुकधुकी सी
लग गई।
उसके क़दमों ने उसके बेचैन दिल की रफ़्तार पकड़ ली, और वह अपनी बस्ती की तरफ चल पड़ी। ‘कहीं लिफाफे में कोई विस्फोटक सामग्री
न हो, कोई बम शम न हो
जो उसके बगल के हिस्से से लगा लगा हीन फट जाए और उसके चीथड़े उड़ जाएं।’ कुछ साल पहले स्थानीय स्टेशन के बाहर
फटे बम का दृश्य मन में साकार हो गया, तो कदम अपने-आप तेज़ हो गए।
बम फटने से कुछ देर पहले ही उसे वहाँ प्लेटफार्म पर एक साहब से गुलाबी
रंग का मुलायम-मुलायम सा स्वादिष्ट केक खाने को मिला था जिसके डिब्बे को उनकी गर्ल
फ्रेंड शायद मुँह पर मार ऊँची हील वाली जूती पहने पाँव पटकते हुए गुस्से में वहाँ
से चली गई थी। रजनी रॉन्टी को अपनी गोद में उठाए पास ही खड़ी थी।वह साहब
जल्दीबाज़ी में केक वाला डिब्बा रजनी की तरफ उछाल तेजी से अपनी उस मित्र के पीछे
दौड़े।
जब रजनी ने डिब्बा खोला तो उसमें एक पिचका हुआ गज़ब का केक था। रजनी ने ऐसा केक पहली बार देखा
था। वे दोनों भाई-बहन पागलों की भाँति केक पर टूट पड़े थे, क्योंकि केक का गुलाबी रंग और उससे आ
रही खुशबू भला कहाँ तक उन्हें रोक सकती थी। केक की परतों में मीठी कुरकुरी सी
लाल-लाल स्ट्रॉबेरी का स्वाद आज भी मानो जीभ में घुला हुआ प्रतीत हो रहा था।
केक को याद करते-करते उसके स्वाद में खोई रजनी अपनी झुग्गी के दरवाजे पर जा पहुँची।
झुग्गी के टीन के दरवाज़े का तार खोल कर भीतर प्रवेश कर
रही रजनी को पड़ोस की झुग्गी से नंदनी ताई ने आवाज़ दी, ‘छोरी, इत्ती जल्दी। तू ठीक तो है?’
पहले ‘हाँ’ फिर ‘नहीं’ में सिर हिलाते हुए वह झुग्गी में दाखिल हुई। टीन का
दरवाज़ा बंद किया। धड़कते दिल से तख्तपोशनुमा चारपाई के पास ज़मीन पर बैठ गई। फटी
पुरानी चादर ठीक की। झट से लिफाफा बगल से निकाल कर बिस्तर पर रख दिया। हिम्मत जुटाकर
उससे अपना कान सटा कर देखा, नहीं टिक-टिक की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। लिफाफे पर
लगी गंदगी को कपड़े के टुकड़े से साफ किया। चाकू से गठानें काटीं। लिफाफे के भीतर से
तीन और लिफाफे निकले। एक-दो-तीन-चार... उत्सुकतावश उसे अपने दिल की धड़कन स्पष्ट
सुनाई दे रही थी। वह चौंककर उठी मानो बिच्छू ने डस लिया हो। आँखें मलीं, फिर देखा। भीतर जो कुछ था, इसका अंदाज़ा तो उसने सपने में भी नहीं
लगाया था। फिर वह साहस करके पास बैठ गई। उसके दोनों हाथ लिफाफे से पाँच-पाँच सौ के
नोटों की गड्डियां निकालकर बाहर रखने लगे।
एक-दो-पाँच-आठ-दस। दोबारा गिना। उसे न तो अपनी आँखों पर
विश्वास हो रहा था और न ही अपनी किस्मत पर। बिस्तर पर रखी नोटों की गड्डियों को
अपनी उंगलियां रख-रख कर फिर से गिना। दस गड्डियां थीं। उसे नहीं पता था कि हरे
नोटों की इन गड्डियां में कुल कितने रुपये होंगे, इसकी गिनती उसे नहीं आती थी। वह
बार-बार कभी नोटों को छूती तो कभी खुद को चिमटती। उसने रॉन्टी की तलाई जो उन्हें पिछले
साल कूड़े में ही मिली थी, कोने से उठा कर नोटों पर ला बिछाई और खुद उस पर लेट गई।
कुछ ध्यान आया तो उसने तलाई का कोना उठा दिया। ‘पाँच-पाँच सौ’ के हरे रंग के वही नोट थे जो आजकल चलन में थे। वरना नोटबंदी के बाद रातों-रात पुराने करार दिए गए नोटों से भरे
झोले कई बार शंकर कोकूड़े में मिलते रहे थे। शंकर चाचा ने बदलवाने के लिए कई जगह
हाथ-पाँव मारे थे लेकिन सफल नहीं हो सका। हारकर उन्हें उन ‘पाँच-पाँच’ सौ और एक हजार के नोटों को चूल्हे में
जलाना पड़ा।
रजनी ने गड्डी से एक नोट बाहर निकाला, देखा। ‘पाँच सौ’ रुपए के इस हरे नोट पर महात्मा गाँधी
की तस्वीर छपी हुई थी। गाँधीजी के चेहरे के सामने हरे रंग के छह चमकीले बॉक्स बने हुए
थे। झिर्री से बाहर से आ रही रोशनी में
उसने नोट को उलट-पलट कर देखा। गाँधी जी की पीठ के पीछे यह लाल किला उनके स्कूल के
दिनों की इतिहास की पुस्तक में भी हुआ करता था। गाँधी जी के चश्मे पर भी ‘स्वच्छ भारत’ लिखा हुआ था। नगर पालिका स्कूल से
उसने इतना तो पढ़ना सीख ही लिया था। यह सोचकर झुरझरी सी आ गई कि कूड़े के ढेर से ‘स्वच्छ भारत’ वाले नोट शायद उसे बापू गाँधी की कृपा
से मिले थे।
उसने गाँधी जी की तस्वीर को चूमकर ‘बापू गाँधी की जय’ कहा और झुग्गी की छत के पास बने ताक
पर रखी गणपति की मूर्ति की तरफ देखा। यह वह मूर्ति थी जिसने गणपति विसर्जन के दिन
समुद्र में विसर्जित होने से इन्कार कर दिया था। रजनी को वहाँ मिली यह मूर्ति अपने
भाग्य-विधाता गणपतिजी की प्रतीत होती थी। उसने नोट को मोड़कर गणपति जी की मूर्ति के
नीचे रख दिया और हल्के से शीश नवाया।
‘वह इन पैसों से क्या-क्या कर सकती थी’ वह असमंजस में खोई वह बिस्तर पर आ लेटी। लेकिन वह रॉन्टी का क्या करे, ...उसे बताए या न बताए, वह तो निरा भोंपू है, यह विचार उसे परेशान करने लगा। रॉन्टी
ने शंकर चाचा से कभी कुछ भी नहीं छुपाया। आख़िर उस्ताद ने ही तो दोनों भाई-बहन को
पाला-पोसा था। लेकिन चाचा को तो बिलकुल भी नहीं बताना। उसने यही निर्णय लिया।
फिर अचानक वह दुबारा उठी और अपने कुर्ते के पिछले हिस्से को सामने
की तरफ लाकर देखने लगी। महीने के मुश्किल दिन चल रहे थे, कहीं नोटों पर कोई दाग ही न लग गया हो।
नज़र सामाने तिरपाल से चिपके टूटे हुए
शीशे में खुद से मिली। वह मुस्कुरा उठी। यह याद करके कि पिछली दीपावली पर जब उसे
पहली बार मासिक धर्म हुआ था, तो सोते हुए ही उसके कपड़े खून से लथपथ हो गए थे। बिस्तर
पर इतना खून देखकर रॉन्टी खून-खून कह कर चिल्ला उठा था। संयोग से शंकर चाचा बाहर
गए हुआ था। सामने वाली नंदिनी ताई, जिसका शंकर के साथ टांका भी था, ने रॉन्टी को डाँट कर चुप कराते हुए मौक़ा
संभाल लिया था। कितना चतुर है शंकर। चाचा कहने को उसका जी नहीं चाहा। वह बुदबुदाई, ‘अपनी लड़की होती तो क्या ऐसे रखता’। लोहा बेचने की कमाई को जिस तरह शंकर
रोज़ उससे छीन लेता था, उसके मन में उसके
प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया।
‘साला।’ कहते हुए उसने थूक दिया।
इतनी देर में रॉन्टी उछलता-कूदता लपक कर भीतर आ गया। इससे पहले कि रजनी कुछ कह पाती, वह धड़ाम से बिस्तर पर चढ़ गया।
‘इतनी जल्दी क्यों आ गई।’ रॉन्टी की बात में एक प्रश्ननुमा आश्चर्य
था।
‘फिर मुझे बुखार हो गया था, धूप में सर चकराने लगा तो चली आई।’ रजनी ने बेदिली से कहा।
मुँह से लार टपकाते हुए रॉन्टी ने कहा, ‘शंकर चाचा ला रहा है खाना, अभी होटल
वाली गाड़ी आई थी, बहुत कुछ है
उसमें।’ उसके हाथ में
रंग-बिरंगी डिबियों वाला टूटा-फूटा प्लास्टिक का रूबिक क्यूब था। वह दोनों हाथों से उसे जोड़ते-जाड़ते गुनगुनाने
में मस्त था।
होटलों का बचा हुआ खाना अक्सर इन कबाड़ियों का भोजन हुआ
करता है। कभी-कभी लोहा या प्लास्टिक बेचकर चार पैसे बन जाने पर वे खाना पकाने का सामान
भी ले आते थे।
सुरमई शाम रात में बदलती जा रही थी। रजनी असमंजस में बिस्तर पर करवटें बदल
रही थी। शंकर चाचा के खाना ले आने पर भी बिस्तर को खाली न छोड़ने के डर से वह बुखार का बहाना करके वहीं पड़ी रही। शंकर और रॉन्टी ने
तो खाना खा लिया लेकिन वह टस से मस नहीं हुई। वह सोच रही थी कि रॉन्टी को कैसे
बताए कि वे लोग कितने अमीर हो गए हैं। वह शंकर को बिलकुल भी पता नहीं चलने देना
चाहती थी।
दूर कहींसे गाना गूंजा, ‘अपना टाइम आएगा...अपना टाइम आएगा...’ रजनी को लगा कि उसकी किस्मत के गणपति
ने उसके सौभाग्य का द्वार खोल दिया है। वह विचारों में डूबने-उतराने लगी - उसका ‘अपना घर’होगा। वह रॉन्टी को अच्छे स्कूल में भेजेगी।
वह रोज सुबह रॉन्टी को स्कूल बस में चढ़ा कर आया करेगी। उनके घर के बगीचे में लाल
गुलाब के फूल उगेंगे। उसके नथुने फूलों की सुगंध से मतवाले हो गए। नौकर-चाकर, गाड़ियां, बंगले विचारों में साकार होने लगे। वह
खुद एक लंबी चमचमाती काली कार से सुनहरे ऊँची एड़ी के जूते पहने उतरी। उसके गुलाबी
गाउन से गुलाब की खुशबू की लपटें उठ रही थीं। उसका गाउन अकस्मात् उसके ही जूते की
एड़ी में फंस गया और किसी फिल्मी हीरोनुमा व्यक्ति ने उसे गिरते हुए थाम लिया।
बेमिसाल हुसैन लाजवाब इश्क़ की बाँहों में थे। किसी हीरो-हीरोइन की भाँति दोनों
परकैमरे के फ्लैश चमक रहे थे। वह अपने पुरुष साथी की आँखों में प्यार का इज़हार
पढ़ रही थी। उसने अपने पुरुष साथी की बाँहों में कितना सुरक्षित महसूस किया था। दोनों
ने इस प्रेम-पल को खामोश निगाहों से स्वीकार कर लिया था। उनके चेहरे इतने करीब आ
गए कि वे एक-दूसरे के दिल की तेज़ धड़कनें सुनाई दे रही थी।रजनी की साँसें धौंकनी की
भाँति चलने लगीं।उसने अपने पास पड़े बिल्ली के तार-तार हो चुके खिलौने को पकड़ कस कर सीने
से लगा लिया।
‘पैसे-पैसे-पैसे’ का शोर सुनकर वह झट से उठ गई।
सुबह हो चुकी थी। शंकर बाहर जा चुका था। रॉन्टी के एक हाथ
में ‘पाँच सौ का नोट लहरा रहा था। दूसरे हाथ में गणपतिजी की मूर्ति थाम रखी थी।
उसने झट से रॉन्टी के हाथ से गणेश जी की मूर्ति और नोट छीन लिया और तलाई का एक कोना
उठा दिया। रॉन्टी की आँखें फटी की फटी रह गईं। मुँह खुले का खुला रह गया। रजनी ने
अपने बाएं हाथ में रखी गणपति की मूर्ति से रॉन्टी की ठुड्डी दबाकर उसका मुँह बंद
कर दिया। रॉन्टी हैरान-परेशान सा होकर देख रहा था।
रजनी ने उसे सहजता से अपने पास बैठा लिया। कल शाम जल्दी
वापस लौट आने का कारण बताया। साथ ही कसम भी दिलाई कि वह अब और शोर नहीं मचाएगा।
रजनी को एहसास हो गया था कि वहाँ रहना ख़तरे से खाली
नहीं होगा।
उसके हाथ उसके दिमाग से भी तेज़ चलने लगे। नोटों की सारी
गड्डियां इकट्ठी कर लीं। उन्होंने उसी काले लिफाफे को नोटों के नीचे से निकाला और
उसमें गड्डियां सजा दीं। लिफाफे को बगल
में दबा लिया। उस पर अपने भाई के कपड़े
दबा कर डाल दिए।उसने रॉन्टी को चुप रहने का इशारा किया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर
बाहर की तरफ चल दी। टीन का दरवाज़ा बंद करने से पहले उसने झुग्गी के भीतर सरसरी
नज़र डाली। एक बार तो सिर पर ताप सा महसूस हुआ। अगले ही पल चारों पाँव बाहर सड़कें
नाप रहे थे। वे हर कदम फूँक-फूँक कर उठा रहे थे। इस उम्मीद से कि वे वहाँ कभी वापस
नहीं लौटेंगे। पैरों की रफ्तार मानो मोटर गाड़ियों को भी मात दे रही थी।
जानी-पहचानी सड़कों को पार करते हुए ये चार पैर रेलवे
स्टेशन के पास पहुँचे। स्टेशन के बाहर फुकरा हवलदार दिखा। ‘मनहूस!’ दिहाड़ी बर्बाद करेगा। रजनी की पारखी निगाहों के भाँपते ही वह बायीं
तरफ मुड़ गई। वह फुकरे की आँखों की भूख को पहचानती थी।
धूप तेज़ हो रही थी और पेट की भूख भी। वह पूरे रास्ते रॉन्टी
को यही समझाते हुए आई थी कि किसी भी जाने-अनजाने आदमी को तनिक भी शक नहीं होना
चाहिए, हमें हर कदम
सोच-समझकर उठाना है।
अंतिम कदम एक बेकरी के सामने आकर रुके। रजनी ने आदमकद काँच
के दरवाज़े को ऊपर से नीचे तक देखा। उस पर एक बड़े से केक की तस्वीर लगी हुई थी।
उसने रॉन्टी को वहीं बाहर खड़े रहने की सलाह दी। अपना पूरा आत्म-विश्वास जुटाकर उसने शीशे का दरवाज़ा भीतर की तरफ धकेला। भीतर प्रवेश कर मुट्ठी में भींचे नोट को और ज़ोर से भींच लिया। मीठी-मीठी खुशबू नथुनों से टकराई। उसने गहरी साँस ली ताकि सारी मीठी सुगंध को अपने भीतर समो सके। विविध केकों, बिस्कुटों और रंग-बिरंगे लिफाफों का चारों तरफ अंबार लगा हुआ था। खुशबू और रंग नें एक साथ मिल कर बाहरी हवा और रोशनी के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी थी।
रजनी ने हिचकिचाते हुए सिर हिला कर
हामी भरी। तनी हुई भौंहों ने कैश काउंटर की तरफ इशारा किया। रजनी ने मुट्ठी में
भींचें मुड़े-तुड़े हरे नोट को इशारे से कैश काउंटर वाले को दिखाया। कैश काउंटर की
तरफ से भुगतान करने का इशारा किया गया। कैश काउंटर और तनी हुई भौंहों वाले की आपस
में नज़रें मिलीं। दोनों में शरारत के भाव का संचार हुआ।
कैशियर तक का चार कदमों
का फासला नए ग्राहक के लिए कठिन हो रहा था। कई तरह के विचारों ने दुविधा में डाल
रखा था। कुछ मिनटों बाद बाहर बैठ कर खाए जाने वाले केक से लेकर जीवन में आने वाले
अच्छे दिनों के सपनों ने हलचल मचा रखी थी।
नए ग्राहक का बायां हाथ
झिझकते-झिझकते काउंटर पर नोट पकड़ाने के लिए आगे बढ़ा। दायां हाथ केक का डिब्बा
पकड़ने के लिए आगे बढ़ा।
कैशियर की आँखों में तुरंत चालाकी खेल गई।
अचानक जैसे कोई विस्फोट हुआ।
कैशियर चिल्लाया, ‘अरे छोरी! सुबह-सुबहधंधा खोटा करती
है.,... रुक ज़रा... रुक साली! नकली नोट देती है!’
कैशियर दाँत पीसते हुए चिल्लाया।
पलक झपकते ही रजनी बाहर थी। उसे ‘नकली... नकली...नकली...’के अलावा उसे कुछ भी सुनाई नहीं दिया।
कैश-काउंटर और तनी हुई भौंहों वाली नज़रें फिर मिलीं।
दोनों नेकुटिल सी मुस्कान बिखेरी और अच्छा भला पाँच सौ का नोट कैश बॉक्स में डालने
की बजाय अपनी जेब में रख लिया।
रजनी ने बिना समय बर्बाद किए रॉन्टी की कलाई पकड़ उसे
अपने साथ खींच ले गई। दोनों भाई-बहन बिना रुके वापस कूड़े के ढेर की ओर भागे। नए
कूड़े के छोटे से पहाड़ के पास पहुँच कर उन्होंने दम लिया। गीले चिपचिपे कूड़े के
अलावा वहाँ आस-पास कोई और नहीं था।
रजनी ने बेकरी में हुई आप-बीती कह सुनाई।
निराशा के भाव से उदास रॉन्टी का मुँह लटक गया। पहाड़ की तरफ
ताज़ा कूड़े का बड़ा सा ट्रक आ लगा था। एक बड़ा कूड़ा उठाने वाला ट्रक आ रहा था।
ट्रक से नृत्य संगीत की ध्वनि सुनाई दी। रजनी ने बगल में छिपाए नोट निकाले। दोनों
भाई-बहनों ने गड्डियों पर लगी सफेद कागज की चिप्पियां उखाड़ फेंकी संगीत की धुन पर थिरकते
हुए, वे एक-दूसरे पर
असली नोट की बौछार ऐसे करने लगे, मानो वे किसी बारात में बतौर बाराती नाच रहे हों।
नोट पैरों तले कींचड़ में मसले जाते रहे। उनकी हँसी की गूँज कूड़े के ढेर की परली
पहाड़ियों तक सुनाई देती रही।
वे पल भर के लिए उदास हुए थे, निराश नहीं।
इस बीच, गुलाबी केक अपनी ठंडी कैंडी में जा टिका था।
रजनी और रॉन्टी तब तक नाचते रहे जब तक बगल के सारे नोट
उड़ाकर ख़त्म नहीं कर दिए गए। इससे निपट करवे उस तरफ चल दिए जहाँ होटल वाली गाड़ी
थोड़ी देर तकहोटल का पिछली रात का बचा खाना लाने वाली थी।
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(साभार - मधुमती, नवंबर, 2024)
अरविंदर कौर
धालीवाल
एम. ए. पंजाबी,
प्रवासी नाटक और रंगमंच विषय पर पी एच डी। उर्दू तथा फारसी भाषाओं की ज्ञाता। अनेक
आलोचनात्मक पुस्तकों सहित खसमाखाणियां, बुल्ला, तीसरी दस्तक, बॉर्डर-बॉर्डर,
झांझरां वाले पैर (कहानी संग्रह) उल्लेखनीय।
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। झांझरां वाले पैर
कहानी संग्रह के लिए दलबीर चेतन स्मृति पुरस्कार 2021 तथा ढाहां अंतर्राष्ट्रीय
पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय।
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