कहानी - 65 (पंजाबी) घर
0 ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल
अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’
जब खुदा बख्श मुन्नी का पिता जीवित था तब कुछ वजन था भी मेरा। अब तो एकदम
हल्की हो गई हूँ। बहू कुछ समझती ही नहीं। बेटा है और अपने में ही मस्त। जो जी चाहे
करें। मुझे न किसी से कुछ लेना, न कुछ देना। और अब मुझे पूछता भी कौन है। चारपाई
पर बैठ कर सारा दिन बच्चे खिलाती रहती हूँ।
मुन्नी से मिलने को बहुत जी चाह रहा था। पहले तो पौष माह गुज़रते ही आ जाती थी
वह। अब तो चैत्र ख़त्म होने को है। वह आई ही नहीं। मैं जब तक खुद जाने लायक थी,
जाकर मिल आया करती थी परंतु अब इस बूढ़े तन को कहाँ बसों में घसीटती फिरूँ? बेटे से कहा, जाकर ख़ैरियत पूछ आओ।
साली के घर चला गया था परंतु मुन्नी के लिए उसके पास फुर्सत ही नहीं।
मुन्नी के लिए मैं उदास भी जल्दी हो जाती हूँ। कंबख्त से मेरा लगाव ही बहुत
है। क्या करूं, माँ जो ठहरी। मुझे ही नहीं, हर माँ को बेटी से ऐसा ही मोह होता है।
इस मोह की वजह माँ का रिश्ता तो है ही, इस के अलावा दोनों में औरत होने की
साझेदारी भी है।
मैं जब कभी गाँव जाती तो माँ कहती,‘अभागी, इतनी देर लगा दी तूने?’
मैं कहती, ‘तुम तो माँ मानो बस मेरा ही इंतज़ार करती रहती हो।’
माँ माथा चूम कर कहती, ‘तो क्या ?’
अब जब खुद मैं मुन्नी के लिए उदास हो जाती हूँ तो माँ के मोह का अहसास होता
है।
पंद्रह – बीस साल हो गए मुन्नी की शादी को
परंतु अभी भी यह कल की बात प्रतीत होती है जब मुन्नी इस आँगन में उछल-कूद किया करती थी। जब मुन्नी की शादी की बात चली तो उसका पिता खुदा बख्श कहने
लगा, ‘सच ही कहते हैं बेटियां वृक्ष की
भाँति होती है। मुन्नी के युवा हो जाने का पता ही नहीं चला।’ फिर आह भर कर कहता, ‘रब ने जन्म से ही बेटियों का दाना-पानी पराए घरों में न लिखा होता तो माता-पिता उन्हें कभी अपने से अलग न होने दें।’
मैंने उसकी गंभीरता को तोड़ने के लिए कहा था, ‘हम भी तो इसी तरह अपने माता-पिता की आँखों का तारा थीं।’
जब मुन्नी को लड़के वाले देखने आने वाले थे, उससे एक दिन पहले मुन्नी की व्यस्तता देखने लायक थी। अपनी भाभी से आगे होकर उसने नए सिरे से घर की
सफ़ाई की थी। जब घर सज गया तो घर का नज़ारा ही कुछ और था। लगता ही नहीं था कि यह
पहले वाला ही घर है। फिर वह सहेलियों के साथ भीतर घुसी रही। बाहर से भले ही कुछ
नहीं दिख रहा था परंतु मुझे मालूम था कि भीतर क्या हो रहा है ? मुन्नी की सहेलियां उसे अलग-अलग पोशाकें पहना कर उसकी खूबसूरती
की बारे पूछ और बता रही होंगी।
जब मुन्नी को देखने वाले आए, उस दिन मुन्नी एक अजीब से अहसास
में घिरी हुई थी। कुछ निगाहें उस पर जमी हुई थीं। उसे अपनी-अपनी कसौटी की तराजू में तौल रही निगाहें। बेचारी मुन्नी।
लाज के महीन से आवरण में लपेट कर खुद को प्रस्तुत कर रही मुन्नी पर बहुत तरस
आया था उस दिन। मेरी माँ को भी मुझे पर उस दिन ऐसा ही तरस आया होगा। फिर मेहमानों
के विदा होने से पहले के कुछ क्षण, निर्णय के क्षण… जिनमें लड़की किसी भी रिश्ते से मुक्त सिर्फ़ एक नारी होती है। अगर उस समय
उसमें किसी को अपनी बेटी, बहन नज़र आए तो फिर इसकी आलोचना
कौन करे। सराहे जाने की उम्मीद के संग-संग अस्वीकृति का डर। जब मुन्नी की भावी सासू माँ ने जाते समय प्यार से मुन्नी
का सर पलोसते हुए उसकी हथेली पर शगुन धरा तो मेरे आँसू छलक आए। पता नहीं खुशी के
थे या ग़म के।
जब अभी मुन्नी की शादी नहीं हुई थी, वह इस घर का बहुत ख़याल रखती थी। क्या
मज़ाल, कोई चीज़ इधर से उधर हो जाए। अगर हो भी जाती तो वह लड़ने दौड़ती। बहुत बार
तो अपनी भाभी से ही उसकी कहा-सुनी शुरू हो जाती।
मैं कई बार मुन्नी को समझाती कि तुम क्यों इस घर की फ़िक्र करती हो? घर वाले संभाले, न संभाले, तुम्हें क्या ? तो वह फिर उलटा लड़ने बैठ जाती, ‘क्यों, मेरा घर
नहीं यह ?’
शादी के बाद मैंने एक बार मुन्नी से पूछा, ‘मुन्नी एक बात तो बता ?’
बोली –‘क्या ?’
मैंने कहा –‘अब जब तुम आती हो तो कमरों में धूल जमी होती है, चीज़ें इधर-उधऱ बिखरी पड़ी होती हैं। अब तुम
कभी हाथ नहीं लगाती ?’
बोली –‘माँ डर लगता है।’
मैंने पूछा –‘किस बात से ?’
उसने कहा –‘घर वालों से। कहीं कह न दें कि हमारा घर हम संभाले न संभाले, तुझे क्या ?’
मैं कहने को कह सकती थी कि तुम तो लड़ पड़ती थी कि मेरा घर नहीं यह ? और अब ? परंतु नहीं कहा मैंने। शायद इसलिए
कि मैं उसकी गंभीरता को बढ़ाना नहीं चाहती थी।
तराउंदा (शादी के बाद मायके की तीसरी फेरी) गुज़ारने आई मुन्नी से मैंने पूछा, ‘तुम्हारा जी तो लग गया न वहाँ ?’
हल्का सा मुस्कुरा कर कहा –‘हाँ, परंतु अभी सपनों में माहौल यहीं का होता है।’
मुन्नी अभी छोटी ही थी कि एक बार दौड़ती हुई आई और बोली- ‘माँ तुम्हें हँसी वाली एक बात बताऊँ ?’
मैंने कहा –‘बता।’
तो बोली –‘ताई ‘वांढे’ (किसी दूसरी जगह से घूम-फिरने जाना) से होकर आई है।
मैंने पूछा - ‘ताई किस गाँव से होकर आई है ?’
- ‘अपने गाँव से।’
और जब मैंने पूछा –‘यह किसका गाँव है ?’
तो बोली –‘ताऊ जी का।’
बात सुना कर मुन्नी की हँसी नहीं थम रही थी। जब किसी
महिला को तलाक का शब्द किसी जगह से बेदखल कर सकता हो तो वह उस जगह को अपना कैसे कह
सकती है ? मेरे मन में यह विचार आया परंतु मैंने मुन्नी से कहा
नहीं क्योंकि मैं उसे सोच-विचार में डाल उसकी हँसी नहीं
छीनना चाहती थी।
जब अभी मुन्नी की शादी को ज़्यादा समय नहीं हुआ था तो मैं कभी-कभी सोचती कि इस बार आई तो उसे पूरे छह महीने रखूंगी। पर फिर अपनी सोच पर हँसी
आ जाती। भला अब उस पर क्या अख्तियार है हमारा, फिर यह ‘बोली’ मेरे होठों पर मचल उठी –
‘माँ बाप
लाड से पाल-पोस कर बेटियों को
खुद ही हो जाते पराए।’
और मैं सोचती अब तो ससुराल वालों की मर्ज़ी, रहने दें, न दें। बेटियां तो ससुराल में ही
सोभती है।
एक बार मुन्नी के ससुर जी आए हुए थे उसे लिवा ले जाने के लिए कि तभी पड़ोस की
सलमा ससुराल से आ गई। मुन्नी की बचपन की सखी। अब मुन्नी का जी चाहे कि सलमा आई है
तो हम कुछ दिन एक साथ रह लें। एक दूसरे के संग बैठें, कुछ सुनें कुछ सुनाएं। मुन्नी चाह रही थी कि हम भेजने से अभी इन्कार कर दें
परंतु उसके ससुर जी पहली बार लेने आए थे, उन्हें खाली हाथ नहीं लौटाया जा सकता था। इसलिए मुन्नी को जाना पड़ा।
एक बार मुन्नी की मौसी आई हुई थी कि मुन्नी भी आ गई। मौसी कहे कि मुन्नी इस
बार हमारे यहाँ चलो। मैं कहने ही वाली थी कि न बहन, अब मुन्नी पराई अमानत है हम नहीं भेज सकते कि मुन्नी खुद ही बोल पड़ी –‘मैं ज़रूर जाती परंतु मौसी वहाँ जाने के बारे नहीं
पूछा। अपनी मर्ज़ी से चले जाओ तो फिर फिर वे लोग बुरा मान जाएंगे।’
अब जब आए तो मैं कहती हूँ, ‘अरे इतनी देर लगा दी ?’
तो कहेगी, ‘घर के कामों से फुर्सत ही नहीं मिलती।’
फिर मैं गुस्से की रौ में कहती –‘पता नहीं किन कामों में व्यस्त रहती है तू।’
वैसे भला ही मैं भीतर से शांत होती हूँ कि बेटी अपनी घर-गृहस्थी में अच्छी भली व्यस्त है।
बेटियों को जाते समय कुछ न कुछ देना बनता है। खाली नहीं भेजते। वे भी कौन सी
सदा यहीं खाती रहती हैं, परंतु मायके से एक उम्मीद होती है।
मायके की चीज़ की अपनी ही ठसक होती है। पिछली बार जब विदा होने लगी तो मैंने कहा, ‘रुको मुन्नी। थोड़ा सा गुड़ लेती जाओ।’ मैंने कहते हुए बहू की तरफ देखा, जिसका मतलब था कि वह उठकर गठरी बाँध दे परंतु वह हिली तक नहीं। जब मैं खुद
उठकर भीतर गई तो मुन्नी ने कहा –‘नहीं माँ....। रहने दो, मैं कहाँ बोझ ढोती फिरूंगी।’ और दहलीज़ से बाहर हो गई। शायद मुन्नी को कुछ समझ आ गया था।
वह घर जो कभी मेरा घर था, अब मेरी बहू का घर है। मुन्नी की
भाँति मुझे भी डर लगता है। घर की किसी वस्तु को हाथ लगाते समय मैं भीतर से काँप
जाती हूँ।
-----
साभार - नवनीत भवन्स, सितंबर 2025
लेखक परिचय -
ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल - पाकिस्तान के पंजाबी
रचनाकारों की चौथी पीढ़ी के लेखकों में महत्वपूर्ण लेखक। पूरबी पंजाब (भारत) में भी बेहद
लोकप्रिय। पाकिस्तान और भारत दोनों देशों
की पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित।
पंजाबी की प्रतिष्ठित पत्रिका शबद ने दिसंबर 2020 में ख़ालिद
फरहाद धालीवाल पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किया।
‘कथा इक कलयुग दी’ कहानी संग्रह गुरमुखी व शाहमुखी दोनों में प्रकाशित।
पाकिस्तान के सियालकोट में निवास।
00000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें