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सोमवार, जुलाई 21, 2025

कहानी श्रृंखला (62) आई लाचा - अनेमन सिंह अनुवाद – नीलम शर्मा ‘अंशु’


    पंजाबी कहानी  

                                        आई लाचा



                                                                                                                          0 अनेमन सिंह


                                                                                                        अनुवाद – नीलम शर्मा अंशु

             

आई लाचा कोनो छोडो... ...ऊदो करोप ए... कोना बाकी बचो...ऊहाँ देखो... ऊह आ गई... ऊह नपी जो... नपी जो.... !”

बुड्ढा फिर चिल्लाने लगा है। अब इसके चिल्लाने की तरफ मुझसे गौर नहीं किया जाता .....इसकी तो यह आदत बन गई है। सारा दिन चारपाई पर पड़ा रहता है।... हड्डियों की गठरी सी बन कर... इसकी उम्र बीत गई है....इसके साथ हर रोज़ कैसे माथापच्ची करूं... चारपाई पर बैठे से खाया नहीं जाता।

भला इस उम्र में तो आदमी रब का नाम लेने लगता है... पर यह ऐसा नहीं करता। ... जब से इधर आया है तब से ऐसा ही करता है। मन में पता नहीं क्या-क्या लिए फिरता है।

सारा दिन आई लाचा...आई लाचाबड़बड़ाता रहता है। मुझे बुड्ढे की यह बात अच्छी नहीं लगती। मैं इससे कैसे सहमत हो सकती हूँ

भला आई लाचा क्यों किसी से नाराज़ होने लगी... वह बेचारी क्यों किसी का बुरा करने लगी... उस परभी तो कम मुसीबतों का पहाड़ नहीं टूटा थापरंतु इसके भीतर यह बात घर कर गई है... यह बात इसका पीछा नहीं छोड़ रही।

अब वह समय कहाँ रहा। अब तो सब कुछ बदलता जा रहा है। अब इसे यह बात छोड़ देनी चाहिए।

मम्मी....ये हमारे संस्कार हैं.... आदमी का अंत तक पीछा नहीं छोड़ते.... मुझे मेरी बेटी रूपन की कही बात याद आ जाती। सच ही तो कहती है रूपन। मैं भी कहाँ बीते वक्त को भुला पाई हूँ। माँ-बाप, बहन-भाई...गाँव...गलियां....। कितना कुछ है, जो किसी फिल्म के दृश्य की भाँति हमेशा भीतर चलता रहता है। परंतु इस बुड्ढे को अब शोक मनाने की क्या ज़रूरत है।

किसी चीज़ की मैंने इसे कमी नहीं होने दी। रूपन भी फ्रूट, ड्राई फ्रूट, रीयल जूस ले आती है घर पर। कहेगी लीजिए बापू जी, खाइए...पीइए...तंदरुस्त रहेंगे....और यहाँ से क्या ले जाना है।

मुझे कभी-कभी रूपन पर गुस्सा भी आ जाता है कि वह क्यों बुड्ढे का इतना ख़याल रखती है परंतु मैं इसे अपने भीतर ही छुपाए रखती हूँ। बाहर से झूठी हँसी चेहरे पर सजाए रखती।

यह बुड्ढा चारपाई पर लेटा उसके सिर पर झूठ-मूठ का हाथ फिराता.... जैसे रूपन उसकी सौतेली पोती हो...। मुझे यह देख कर गुस्सा चढ़ जाता तो मैं रूपन को दूसरी बातों में उलझा लेती थी।

रूपन के ड्यूटी पर चले जाने के बाद यह फिर अपना विलाप शुरू कर देता।.... आई लाचा कोना छोडै.... ऊहां...ऊह... ऊह आ गई....ऊहाँ......

बुड्ढे को अब तो यह बात छोड़ देनी चाहिए।...परंतु नहीं... यह गोकुल... सॉरी...सॉरी....यह बुड्ढा,...सॉरी....सॉरी मेरा ससुर... छोड़ ही नहीं रहा इस बात को।

मैंने तो डॉक्टर को भी दिखाया था, रूपन के कहने पर। वह कहता हैआप फिक्र न करें... नींद की दवा लिख देता हूँ... अच्छी नींद लेने से सब ठीक हो जाएगा...

परंतु यह ठीक होने के बजाय और भी ज़्यादा बड़बड़ाने लगा है।

कई बार अकेली बैठी मैं इसे देख सोचने लगती हूँ कि क्या सचमुच आई लाचा हम पर कुपित है.... भला वह क्यों किसी को परेशान करेगी...। मेरे बच्चों के बारे सोच कर तो वह खुश होती होगी।... फिर वह क्यों बुरा सोच  सकती है?

परंतु बुड्ढे की भी मति शायद बुढ़ापे में और ज़्यादा सठिया गई है। इसीलिए इस तरह दु:खी होता रहता है...

अब मेरा ध्यान उसकी बड़बड़ाहट की तरफ नहीं जाता। अनदेखा कर देती हूँ। बेकार में क्य़ों इसके बारे में सोच-सोच कर कौन अपना दिमाग खपाए। इसका तो दिमाग खराब हो गया है... जिसके हाथ-पैर काम करने से जवाब दे जाएं, उस का यही हाल होता है।

कभी-कभी इसे देख मन में दया भी आ जाती है...आखिर औरत का मन जो ठहरा।....इतने बड़े घर में ज़्यादातर हम दो प्राणी ही रहते हैं। या फिर तीसरी जागर की तस्वीर है, फूल मालाओं से लदी दीवार पर टंगी है। इतने बड़े घर में कई बार मन परेशान भी हो उठता है मेरा...। फिर अपनी बेटी रूपन और बेटे सिप्पी के बारे सोच कर सहज हो जाती हूँ। शुक्र है बाबा रामदेव और जागर का जिनकी बदौलत यह समय देखना नसीब हुआ।...नहीं तो बाकियों की तरह इसी तरह मरते-खपते विदा हो जाता मेरा परिवार इस संसार से...

मरते-खपते ही तो आ रहे थे।.....पता नहीं कितने बरसों से...। और यह सफ़र था कि जो अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था। कितने ही लोग इस सफ़र के दौरान मर-खप गए थे हमारे कबीले के...परंतु यह सफ़र है कि अभी भी जारी है।

मुझे अपनी बेटी और बेटे सिप्पी की याद आ जाती है। वह हमेशा किताबों से पढ़ कर कोई न कोई बात मुझे सुनाती रहती थी। कहती, मम्मी... आपको पता है कि अपनी कौम कितनी दृढ़ कौम थी...राजपूत वंश से हैं हम... जिसने कभी पीठ नहीं दिखाई...। हमारा बहुत बड़ा इतिहास है...महाराणा प्रताप, राजा उदय सिंह, जयमल और फत्ता जैसे वीर योद्धे अपनी कौम में है पता है...मम्मी जी....

क्या...! हमारे कबीले के...?”  हैरान होकर उनकी बातें सुनती। ये बातें मुझे दिलचस्प लगतीं। मैं सोच-विचार में डूब जाती। मुझे हमारे कबीले के लोग याद आने लगते।.....मेरे अपने... मेरे पुरखे... जिनके बारे में अपने कबीले के लोगों के मुँह से कहानियां सुनी थीं। इन सब में से ही किसी कोने में बैठी मेरी माँ मुझे नज़र आती। बेचारी कितने-कितने दिन गली-गली भटकती रहती बहनो ले लो चिमटे, खुरचने... अरे कोई लगवा लो न पीपे को ढक्कन... माँ का चेहरा याद आते ही मेरी आँखें आँसुओं से भर गईँ।  कितनी अच्छी और दरवेश रूह थी मेरी माँ शरबती जिसने हम चार भाई-बहनों को पाला-पोसा। उन दिनों हमने हरियाणा के रतिये में डेरा डाल रखा था। बड़ा गाँव था, मंडी का भ्रम होता। ... माँ का हाथ थामें बालपन में उसके साथ चलते-चलते मैं तो बेशक थक जाती थी परंतु माँ कभी भी नहीं थकी थी अरे ले लो भई...तकले खुरचने.... !’

उसके स्वभाव और बातों में कोई जादू था जो घरों की महिलाओं को मोह लेता था। वह कभी खाली हाथ नहीं लौटी थी। डेरे लौटते समय उसके पास आटा, दलिया के अलावा मरम्मत आदि का कितना ही सामान होता।

मेरा बापू फुलिया और बड़ा भाई चूको ठीहे पर बैठे लोहे के साथ लोहा होते रहते...। दिन के ढलते ही डेरे के सभी लोग हुक्का लेकर इकट्ठे घेरा बना कर बैठ जाते। बीच में पड़े हुक्के की गुड़गुड़ के साथ पुरखों की बातें करते। फिर कोई बाबा राम देव के जीवन और उनके बहादुरी से भरे चमत्कारी किस्सों की बातें छेड़ लेता। राम देव बाबा की कबीले के लोगों में काफ़ी मान्यता थी। कोई काम करना होता तो पहले बाबे का नाम ही लिया जाता। किसी बात का विश्वास न होता तो अगले को बाबा राम देव की सौगंध दिलाई जाती। कबीले का कोई भी व्यक्ति बाबा की झूठी सौगंध नहीं खाता था। रुणेचा राजपुताना में बाबा की समाधि पर कार्तिक पूर्णिमा को हर साल बहुत बड़ा मेला लगता है, जहाँ कबीले के लोग जा कर तीन दिन विश्राम करते हैं। वहाँ अपनी मन्नत पूरी होने का शुक्राना करते हुए प्रसाद चढ़ाते हैं। कबीले का हर व्यक्ति बाबा राम देव के नाम की पातली (चिहन्) अपने गले में डाल कर रखता है। मान्यता थी कि राम देव हर विपत्ति, दु:ख और संकट के समय रक्षा करते हैं। बाबा राम देव के किस्सों को हम बड़ी हैरानी से सुनते।

कबीले की औरतों के समूह में मैं अपनी माँ की गोद में बैठी उनकी बातें भी सुना करती थी, जो ज़्यादातर पहरावे या आभूषणों पर केंद्रित होतीं। घाघरा, चोली, कुर्ती या फिर साज-सज्जा हँसली, नौ गुच्छा, कांठली या अंगूठी-छल्ले आदि के बारे में होतीं।

ज़रा और बड़ी हुई तो और भी कितना कुछ पता चला। कबीले की बोली, औरतों के कई गुप्त राज़... परंतु रहतीं सभी डेरे की मर्यादा में ही। कबीले के लोगों ने कई वर्जनाएं भी लगा रखी थींऔर डेरे के लोग इनका आदर और पालन करते थे। अगर कोई कबीले के नियम भंग करता तो उसे बड़ी सज़ा मिलती या फिर उसे बिरादरी से बहिष्कृत कर दिया जाता था।

मुझे आज भी याद है कि एक बार हम सभी डेरे वाले किसी नई जगह डेरा जमाने के लिए बैलगाड़ियों पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में रात को शराब के नशे में किसी ने किसी अन्य परिवार की महिला के साथ गलत हरकत कर दी थी, जिस कारण उसकी कई लोगों द्वारा लानत-मलामत की गई थी और कबीले से बहिष्कार के लिए पंचायत बुलाई गई थी। इस अपमान को बर्दाश्त न करते हुए उसने बड़ी नहर में छलांग लगा कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी।

कबीले की तरफ से निर्धारित नियम बहुत सख्त थे, जिनका कबीले के स्त्री और पुरुष पालन करते थे। हाँ, कुछ छूट भी थी जैसे डेरे से बाहर काम पर जाते समय स्त्रियां बेगाने मर्दों के साथ हंसी-मज़ाक भी कर सकती थीं। ग्राहक को प्रभावित करने के लिए वह अपनी चुलबुली अदा का प्रदर्शन भी कर सकती है ताकि मरम्मत करने के लिए सामान मिल जाए या बना सामान ग्राहक खरीद ले। कबीले की महिलाओँ की खूबसूरती और पहरावे के कारण गाँव के लोग पहले ही लट्टु हुए रहते थे। और जब कोई ऐसी अदा से बात करती तो वे ज़बरदस्ती खेती में कामआने वाले किसी सामान को बनाने के लिए कह देते। इसी तरह घर की महिलाओं को भी हमारी महिलाएं मीठी-मीठी बातें करके भरमा लेती थीं और उनको अपनी बनाई कोई न कोई चीज़ जैसे तकला, खुरचना, चिमटा आदि बचेने में सफल हो जातीं थीं।

ऊदो करोप है... ऊहां... ऊहां... ऊह... आ गई.... आई... लाचा।... छोडो किसी को भी नो... बुड्ढे की बड़बड़ाहटसे मेरी यादों की श्रृंखला टूट गई है। यह वॉशरूम की तरफ जा रहा है। मोबाइल पर टाइम देखती हूँ दोपहर के साढ़े बारह बज रहे हैं।

बुड्ढा वॉशरूम से लौटर कर अपने बेड पर आ गिरा। आज यह जल्दी लौट आया। पहले तो कितनी-कितनी देर तक फ्लश की सीट पर बैठा रहता। पता नहीं क्या सोचता रहता था। रूपन ने इसके लिए अलग बढ़िया वेस्टर्न सीट वाली फ्लश बनवा दी थी। पहले-पहले इसे बैठने में काफ़ी कठिनाई होती थी परंतु अब इसने सीख लिया है।

मैंने ड्रॉइंगरूम में दीवार पर लगे एल सी डी को ऑन कर दिया है। खाली व्यक्ति का दिल बहलाने का यह बढ़िया सहारा है। कभी मन करता है तो कोई राजस्थानी सीरियल देख लेती हूँ। ये मुझे अच्छे लगते हैं। रूपन के साथ मैंने बालिका वधु भी खूब देखा है। इसमें सास का किरदार निभा रही बुढ़िया तो मुझे बिलकुल मेरी सास जैसी प्रतीत होती। उसकी दस साल की उम्र में शादी हो गई थी। वह जब भी मेरे साथ बातें करती, अपने बारे में, अपने परिवार के बारे या फिर इस बूढ़े गोकुल के बारे में... मेरा मतलब है मेरे ससुर के बारे तो बातें करते हुए उसके चेहरे पर एक खुशी सी पसर जाती थी। उससे मैं कबीले के बारे में काफ़ी बातें और किस्से सुना करती थी।

यह बूढ़ा गोकुल और मेरा पिता रूगा दोनों तब बैलों की ख़रीद-फ़रोख्त का काम करते थे।...दोनों नगौरी बैलों के अच्छे पारखी थे। हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में वे कितने-कितने दिन घूम-फिर कर बैल खरीदने और बेचने जाते थे। वे सस्ते दामों पर बैल खरीदते और उनकी देख-भाल कर उन्हें ऊँचें दामों पर बेच आते। नगौरी बैलों के वे अच्छे जानकार थे। बैल का ऊँचा कद, लंबी पूंछ और मुड़े हुए सींग तथा सुंदरता को वे तुरंत भांप लेते थे।

पशु मंडियों में दोनों के इक्ट्ठे जाने के कारण मेरे पिता ने मेरी शादी गोकुल के बेटे नरैणा के साथ कर दी। मैं अब अपना डेरा छोड़ भवानीगढ़ के पास गोकुल के डेरे में नरैणा की पत्नी बन कर आ गई थी। इन लोगों के पास तब तीन गाड़ियां थीं।  एक में उसकी दोनों बेटियां और उसकी माँ सोते। एक गाड़ी के नीचे मैं और नरैणा और ऊपर उसका बड़ा भाई रूपो तथा उसकी पत्नी सोते थे। तीसरी गाड़ी गोकुल और उसकी बुढ़िया की थी जिसके नीचे उसका तीसरा बेटा सोता था। बरसात के दिनों में यहीं ठीहा रख कर लोहार का काम भी होता था। रात को यही गाड़ियां सभी के सोने की जगह और दिन में रसोई बन जाती थीं।

रसोई शब्द गुनगुनाते हुए याद आया कि गोकुल की चाय का वक्त हो गया है। इसे बेढंगी आदत है, चाय के साथ दवा लेने की। डॉक्टर कहता है जैसे भी ले, दवा दे दिया करो। मैं उसकी चाय बनाने के लिए रसोई में आ गई हूँ। किचन की खूबसूरती देख मन झूम उठता है। हमारे कबीले में से अब जबभीकोई मेरे पास आता है तो मेरे घर-बार और रहन-सहन को देख दंग रह जाता है। मैंने कभी किसी को खाली हाथ नहीं भेजा। कुछ न कुछ देकर ही विदा करती हूँ।

अब सभी मुझसे मेल-जेल रखते हैं। सुख-दु:ख में बुलाते भी हैं। मैंने भी कभी उनसे मुँह नहीं मोड़ा।

तीन बर्नरों वाला ऑटोमैटिक ओवन है। रूपन को नौकरी मिलने के बाद जब हम रुणेचे राजपुताना में मन्नत चढ़ाने गए थे तो कबीले के लोगों ने खुश होकर अपनी तरफ से रूपन को यह तोहफा दिया था। बटन दबाओ तो यह खुद ही ऑन हो जाता है। पहले मैं चलाने से डरती थी। रूपन मेरा हाथ पकड़ कर रसोई में ले आई और बटन घुमाते हुए बोली, मम्मी जी, देखिए ऑन हो गया।

मैंने उस वक्त उसे आलिंगन में ले लिया था।

कद-काठी में रूपन पूरी तरह अपने पिता नरैणा पर गई है और रंग-रूप में मुझसे भी चार चाँद अधिक...

इसका पिता नरैणा भीपूरा ऊँचा-लंबा जवान था परंतु ज़िंदगी थोड़ी मिली थी। बड़ी मूँछें और सर पर अंगोछा लपेट कर रखता था वह। जब कभी गोकुल के साथ हिसार पशु मंडी जाता तो मुझे सबसे छुपा कर कोई न कोई हँसली, कंगन, अंगूठी वगैरह लाकर देता था।

तब मैं रतीये गई हुई थी। माँ बीमार थी, उसकी खोज-ख़बर लेने गई थी। ...जब रूपन के पिता की मौत की ख़बर सुनी थी मुझ पर तो कितने दिनों तक बेहोशी छाती रही। कबीले वालों ने मिल-जुल कर उसकी अंतिम रस्में निभाई थीं। पूरे ग्यारह दिन शोक प्रकट किया गया था। तब मुझे सभी औरतों ने संभाला था।

उस दिन नरैणा गाड़ी के नीचे सो रहा था। गोकुल और बुढ़िया ऊपर। किसी विषैले नाग ने सो रहे गोकुल के पाँवों पर डस लिया जिसका पता सुबह तब लगा जब वह बुलाने पर नहीं बोला। नरैणे का सारा शरीर नीला पड़ा देख सभी ने अंदाज़ा लगाया कि नरैणे को किसी साँप ने डस लिया है।

नरैणे के चले जाने के बाद मेरे प्रति सबका रवैया बदल गया। कुछ समय तो वे लोग ठीक-ठाक रहे परंतु जल्दी ही मुझे ताने देने लगे। रूपन के दो ताऊ और ताईयां, बुढ़िया और गोकुल भी मेरे साथ कठोरता से पेश आते। हमेशा माथे पर त्यौरियां डाले रखते।

मैं रूपन और सिप्पी को बुढ़िया के पास छोड़ खुद गाँव की गली में मेरी जेठानियों के संग सामान बेचने जाने लगी।... मेरी माँ शरबती का मेरे सिर पर हाथ था। मैं लोगों से खुशी-खुशी अपनी माँ जैसा व्यवहार करती और घरों के पुरुषों के साथ अलग अदा से बात करती, जिस कारण मुझे जेठानियों से ज़्यादा काम मिल जाता था। कोई महिला तकले, खुर्चने ले लेती तो कोई बाल्टियों के तले लगाने के लिए मेरी झोली दानों से भर देती और कोई आटा या किसी और चीज़ से।

मेरी जेठानियां इस कारण मुझसे जलने लगीं। जलन के कारण वे डेरे लौट कर मेरी सास फूलो और गोकुल के कान भर देतीं। कभी कहतीं- बीबी, यह आदमियों से बहुत कलोल करती है...आँखें मटकाती है...खिलखिला कर हँसती रहती है....

हाँ बीबी, यह बदचलन औरत पराए मर्दों के साथ ग़लत काम करती है। दूसरी भी उसके साथ सहमति जताती।

मैंने बाबा राम देव की खूब कसमें खाईं परंतु सभी मुझे गलत ठहराते रहे। गोकुल और मेरी सास मुझसे क्लेश करने लगे। मैं अपनी गाड़ी के नीचे बैठ बच्चों को सुला कर खुद सारी-सारी रात रोती रहती।

एक दिन उसी तरह बच्चों को बुढ़िया के पास छोड़ उदास मुखड़ा लिए गाँव की फेरी लगाने गई। मेरी जेठानियां किसी घर की मालकिन के साथ बातों में लग गई। मैंने कितनी ही गलियां छान मारीं परंतु मुझे किसी ने आवाज़ नहीं दी। निराश होकर मैंने गाँव की फिरनी पर जागर के नए बने मकान के पास जाकर आवाज़ लगाई ले लो भई कोई तकला, खुरचना... बाल्टी का तला लगवा लो कोई....

क्या हुआ, आज तो तेरा चेहरा उतरा हुआ है संदली...। पहले जैसे नूर नहीं दिखता...?’ जागर ने दरवाज़े की दहलीज़ में खड़े होकर पूछा था।

अब हमारे चेहरे पर नूर कहाँ से आएगा सरदारा... अब तो रब ने चमक फीकी कर दी... ले लिया करो तुम भी कभी चिमटा-खुरचना... मैं उदासी में बड़ी मुश्किल से ही कह पाई।

मैं तो चिमटे-खुरचनों का ढेर लगा दूं... अगर तुम कभी हाँ कहो तो... उसने कहा तो मैं सर झुकाए आगे बढ़ आई।

यह जागर मुझे पहले भी कई बार मिलता था। कोई न कोई मसखरी करता... कभी मूँछों को ताव देता... मुझे दूर तक जाते हुए..... देखता रहता... एक-दो-बार तो दाईं आँख भी दबा कर इशारा सा कर गया था।...मैं कुछ न कहती।....पता नहीं क्यों इसमें मुझे नरैणा ही दिखता।.... और उसे ऐसा करते देख मेरे चेहरे पर भी मुस्कान फैल जाती।

सारे गाँव में जागर अविवाहित नशेड़ी के रूप में जाना जाता था। घर में माँ-बेटा ही थे। दो भाई और थे, वे विवाहित थे और अलग हो गए। दो एकड़ ज़मीन भी है। इसके पिता का नंबरदारों के साथ ज़मीन को लेकर झगड़ा था। खेत को जाते समय उन लोगों ने घेर कर काट डाला। बाकी दो भाई तो चुप रहे। यह बेशक उस समय बारह साल का था परंतु स्वाभिमानी बहुत था। सो रहे नंबरदार को यह तब तक चाकू से गोदता रहा, जब तक उसकी जान न निकल गई। पुलिस इसे ले गई। जेल हुई। जब छूट कर आया तो भाई-भाभियों ने मुँह न लगाया। माँ की दुर्गति देख इसने रूड़ी (गोबर, खाद वाली जगह) वाली अपनी खाली जगह में दो कमरे बना लिए। अब ये दोनों माँ-बेटा यहीं रहते हैं।

अगली बार जब मैं गाँव की फिरनी से गुज़री तो मुझे इसकी माँ ने रोक लिया, अरी संदली... सुनो तो सही... मुझ अकेली के साथ भी दो बातें कर लिया कर...

हाँ अम्मा कैसी है तू... तुम माँ-बेटा कुछ लेते ही नहीं... मैं कैसे आऊँ...?’ मैं उसके पास चारपाई पर बैठ गई थी।

अरे संदली लेने वाले बनें....तब तो लें...। तुझे पता तो है सब कुछ। मैंने तो जागर को तुम्हारे लिए तरसते देखा है...अगर मेरी मानो तो आ जा मेरे घर....तुझे बेटी बना कर रखूंगी... कोई कमी न रहने दूंगी... इसके भाई-भाभियों और गाँव वालों को मैं भी दिखा सकूं कि मेरे जागर ने घर बसा लिया है हूर परी लाकर... वह बोले जा रही थी।

ऐसे कैसे हो सकता है, तुम हमारे कबीले वालों को नहीं जानती अम्मा... मैं तो पहले ही अभागन हूँ... और अगर ऐसा हो गया तो कहीं के लायक नहीं रहूँगी... मेरे बच्चे दर-दर की ठोकरें खाएंगे। मेरी आँखें नम हो आईं। मुझसे और वहाँ बैठा न गया।

अच्छा माई कह कर तेज़ कदमों से मैं डेरे की तरफ लौट पड़ी।

डेरे से पहले जागर मिल गया-संदली, जाट वादा निभाएगा चाहे जब मर्ज़ी आजमा लेना...मुझसे बीमार माँ का बहू के लिए तरसना देखा नहीं जाता। वह बोलता रहा परंतु मैं बिना कुछ कहे सर झुकाए डेरे लौट आई थी।

अगली बार जब फिर उधर से निकली तो उसकी माँ मेरी मिन्नतें सी करने लगी- तेरे बच्चों को अपनों से बढ़कर मानूंगी बेटी... वह तेरे लिए तरसता फिरता है... सोच-विचार ले तेरे सर पर भी छत हो जाएगी...देख ले ज़िंदगी भर तेरी सेवा करेगा।

गोकुल और बुढ़िया ने मेरे साथ फिर बखेड़ा किया। जेठानियों ने सीधे ही जागर के साथ मेरे नाजायज़ संबंधों का इल्ज़ाम लगाया। परंतु मैंने इस बार बाबा राम देव की सौगंध नहीं खाई थी। मेरे भीतर भी आग भड़क उठी थी।

अच्छा अगर यही बात है तो ऐसा ही सही। मैं बच्चों को गोद में ले अपने कपड़े, चाँदी आदि उठा कर सदा के लिए डेरे को अलविदा कह आई। उन लोगों को मुझसेऐसी उम्मीद नहीं थी।

हमारे कबीले में चारों तरफ यह बात फैल गई कि गोकुल की छोटी बहू संदली अपने बच्चे ले किसी जाट के घर जा बैठी। सभी मुझे बदचलन कहने लगे। गोकुल और नरैणे के भाइयों ने कबीले केभरोसेमंद लोगोंके साथ पंचायतें कीं। परंतु मैंने जागर के घर रहने का पक्का निश्चय कर लिया था। जागर के नशेड़ी और ज़िद्दी स्वभाव का डेरे और गाँव वालों को पहले से ही पता था।

गाँव के सरपंच ने डेरे वाली पंचायत की हाज़िरी में मुझे बुलाया था। मैंने डट कर जागर के घर रहने का अपना फैसला सुना दिया। उन्होंने रूपन और सिप्पी को अपने साथ ले जाने की ज़िद की थी परंतु मैंने दो टूक सुना दिया मेरे बच्चे हैं, मेरे साथ ही रहेंगे। मैं ही पालूंगी।

डेरे के सभी लोग मुँह लटका कर लौट गए थे। कुछ दिनों के बाद डेरे वाले बदनामी के कारण वहाँ से डेरा बदल सुनाम चले गए थे।

जागर के घर पर पहले-पहले तो मेरा दिल नहीं लगा। काम-काज करते समय मैं झिझकती भी रही परंतु उसकी माँ से मिले प्यार के कारण जल्दी ही मेरा उस घर से अपनत्व हो गया। जागर और उसकी माँ मेरे बच्चों को भी बहुत प्यार करते। मैं जागर के साथ खेतों में भी काम करवाने चली जाती। माँ की देख-भाल भी करती। चूल्हा-चौका भी संभालती। अगर कुछ समझ नहीं आता तो माँ जी से पूछ भी लेती। वे बहुत लाड से समझा देतीं।

मेरे कहने पर जागर दो भैंसे भी खरीद लाया। मैं भैंसों को भी संभालती। घर की ज़रूरत लायक दूध रख कर बाकी जागर के हाथों डेयरी भिजवा देती। घर की गुज़र-बसर अच्छी चलने लगी और कुछ बचत भी होने लगी।

जागर जब मुझे प्यार से बुलाता तो मुझे उसमें नरैणा ही दिखता। ऐसे समय में मैं उसे अपनी शोख अदा के रंग में रंग लेती थी। उससे मिल रहे शारीरिक सुख और दुलार के कारण मैं जल्दी ही नरैणे को भी भूल-भाल गई थी।

माँ जी ने अपनी पेटी खोल मेरे सामने नए सूटों का ढेर लगा दिया। मैंने पहली बार सूट सिलवा कर पहना तो पूरी तरह फब रही थी।

देखना रब जी, मेरी संदली को नज़र न लगा देना... मुझे देख माँ जी ने कहा था।

जागर ने डेयरी में दूध दे-देकर जैदी मोटर साइकिल भी ले ली। वह गाँव में जब जैदी पर निकलता तो दूर तक इसकी आवाज़ हवा के साथ गूंजती रहती। माँ जी ने हमे तलवंडी जाकर माथा टेकने के लिए कहा। हम बच्चों सहित दमदमा साहब माथा टेकने गए। ज़िंदगी में पहली बार मोटर साइकिल पर बैठी थी। गुरुद्वारे जाकर मुझे कबीले की याद आ गई। वहाँ हम रुणेचे और दुगरी जाया करते थे। पूजा करने या मन्नत पूरी होने पर।

जागर ने रूपन और सिप्पी को स्कूल में दाखिल करवा दिया था। पहले रूपन को गोकुल परिवार ने रूपो और सिप्पी का सीपा नाम रखा था। जागर का कहना था नाम सुंदर रखने चाहिए जैसे तुम्हारा नाम कितना सुंदर है, संदली।  उसने स्कूल में रूपन चौहान और सिप्पी चौहान लिखवा दिया। मुझे भी नाम बहुत अच्छे लगे थे। पिता का नाम उसने नरैणा ही लिखवाया था, मैंने इस बात का गिला भी किया था।

वह कहता- जब तू मेरी है तो और क्या चाहिए मुझे।

ऐसा कह कर मुझे चुप करवा देता। ऐसे समय में जब हम एक दूसरे के करीब होते तो मैं इसे कहती, जागर, मैं अपनी कोख से तुम्हारे बच्चे को जन्म देना चाहती हूँ।

परंतु यह ऐसा करने से मना कर देता। कहता रूपन और सिप्पी भी तो मेरे बच्चे हैं।

रूपन ने स्कूल की खेलों में हिस्सा लेना शुरू किया तो जागर ने उसे खूब प्रोत्साहन दिया। गोला फेंक और दौड़ने में इसकी बहुत दिलचस्पी थी। दसवीं में रूपन ने ब्लॉक स्तर, बारहवीं में ज़िला स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त किया था। जागर खुद इसके साथ जाता इसे प्रोत्साहित करने के लिए।  जब बी. . में कॉलेज जाने लगी तो इसने यूनिवर्सिटी में दौड़ और गोल फेंक प्रतिस्पर्धाओं में गोल्ड जीत कर पूरे गाँव और हमारा नाम रोशन किया था। सिप्पी पटियाला पीजी में रह कर आईलैटस् कर विदेश जाने के फ़ॉर्म भर रहा था।

बाबा राम देव ने मेरी किस्मत में कितना भला आदमी दिया था। मैं उसके प्यार की गर्माहट में कोई कमी न आने देती। माँ जी के गुज़र जाने के बाद इसने सारी ज़मीन रूपन और सिप्पी के नाम बराबर-बराबर वसीयत में लिख दी। मैंने ऐसा करने से रोका तो उसने कहा- नहीं, बच्चे पढ़-लिख जाएं, आगे बढ़ें...और क्या चाहिए?’

मुझे इस पर रश्क आता।

संदली, जाट वादे निभाने जानता है...जब जी चाहे आज़मा लेना।

मुझे उसकी कही बातें याद आती हैं। रूपन को इस मुकाम पर पहुँचाने में जागर का ही तो योगदान रहा। यह सब सोच कर मेरी आँखें आँसुओं से तर हो जातीं।

माँ जी के जाने के बाद जागर बच्चों में मशगूल रहता। उनकी हर ख़्वाहिश पूरी करता।

बेचारा बच्चों की शादियां भी नहीं देख पाएगा... इस बात का कहाँ अंदाज़ा था मुझे।खेत सींचने गया था कि मोटर चलाते समय करंट लग गया। उसकी मृत देही ही घर आई थी। बच्चों का रो-रो कर बुरा हाल था। मुझे तो जैसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। यह क्या घटित हो गया था।

आख़िर रब की एक और मर्ज़ी मान बच्चों को देख कर मैं जीने की कोशिश कर रही थी।

बी.. करते ही निकली रिक्ति में खेल कोटे में झट रूपन का चयन हो गया। मेरी तो खुशी की सीमा न रही। आख़िर मेरी बेटी पुलिस में ए. एस. आई. बन गई थी। जब कबीले वालों को रूपन के चयन के बारे पता चला तो बाहर से भले ही वे अडिग रहे परंतु भीतर पश्चाताप ज़रूर कर रहे थे। चोरी-छुपे मुझसे मिलने आई डेरे की एक महिला ने बताया था। आभागा जागर अगर ज़िंदा होता तो उसे कितनी खुशी होती।

आँखों से आँसू गालों पर ढुलक आए हैं। दुपट्टे से आँसू पोंछते हुए मैंने खुद को रसोई में पाया। चाय खौल रही थी। मैंने गिलास में चाय छान कर दवा के पत्ते से गोलियां निकाली और बुड्ढे को दे आई। वह गोलियां निगल कर सुड़क-सुड़क कर चाय पी रहा है। मैं गौर से बुड्ढे को देख रही हूँ।

कभी-कभी बुड्ढे पर तरस भी आ जाता है। बेचारे को इस उम्र में बेटों ने घर से निकाल दिया है। कबीले के लोगों ख़ास कर अपनों के हाथों ऐसी दुर्गति होते देख बुड्ढा अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। काम-काज की तलाश के थपेड़ों ने गोकुल के बड़े बेटों का खून भी पतला कर दिया। उन्हीं बहुओं ने उसे पागल करार दे कर निकाल दिया था।

रूपन को जब पता चला तो वह इसे घर ले आई। मैंने गुस्सा दिखाना चाहा तो उसने रोक दिया कोई बात नहीं मम्मी जी.... घर में एक सदस्य और बढ़ जाएगा... आप भी तो अकेली रहती हैं... बड़ों का आसरा होता है।

यह सुनकर मैं चुप हो गई थी। मेरी बेटी कितनी सयानी और समझदार हो गई है।

ऊहो...ऊं...कोना छोडै...आई.....लाचा...नपी जो... नपी जो... ऊहदो करोप.... चाय पीकर सोने के बजाय बुड्ढा फिर अपना राग छेड़ कर बैठ गया है।

कुछ नहीं कहती तुम्हारी आई लाचा... सो जाओ...कुछ देर...अब तुम्हारी यह चीख कोई नहीं सुनेगा। चाय का खाली गिलास उठा वापस लौटते हुए मैंने कहा था। बुड्ढा दुबक कर लेट गया है।

बीस-पच्चीस बरसों में ही कितना कुछ बदल गया था।  यह बुड्ढे तो क्या मेरी भी समझ से परे की बात है। बुड्ढे ने अपने जीवन में जो देखा-सुना था, वह सब तो अब सपनों की बातें थीं। बीते पल उसे इस उम्र में तकलीफ दे रहे हैं...

...और नए संसार की चकाचौंध ने इसे पागलों जैसा बना दिया था। मुझे इस पर तरस आता। इस दुनिया ने सब कुछ तो छीन लिया...चित्तौड़गढ़ के किले से अपने प्राण बचाते पुरखे वहाँ से निकल आए.... परंतु आज तक भी कहीं ठौर न मिली...  ...तब भी इन पर कायरता के इल्ज़ाम लगे थे....कबीले के कितने ही लोगों ने दुश्मन फौज के हाथों अपनी जानें गंवाईं थीं...

इसी अपमान से आज तक घूमते आ रहे हैं कबीले के लोग। कभी इधर और कभी उधर......और अब इस नए युग ने इनको बिलकुल ही लपेटे में ले लिया है। लोहार का काम ठप हो गया है। लोहे का सामान बनाने के नए कारखाने लग गए हैं हर तरफ...। मलेरकोटला तो पक्का गढ़ ही बन गया है। हरेक चीज़ बनने लग गई है। यहाँ से कितने ही लोग हर रोज़ टरैक्टर-ट्रॉलियों, पीटर रेहड़े, कैंटर, रेहड़ियों आदि पर माल भर कर सारे पंजाब, हरियाणा तक पहुँच जाते हैं गाँव-गाँव में सामान बेचने। खेती के आम औजार तो अब हर मंडी की दुकानों और गाँवों में आम तौर पर मिलने लगे हैं।... और बैल तो अब हर शहर, गाँव की अली-गली में आवारा घूमते फिरते हैं।

मेरे दोनों जेठ रीपर फैक्टरी में मज़दूरी करने लगे हैं।... गोकुल के भाई का परिवार स्थाई तौर पर साथ वाले गाँव में बस गया है। वे किसानों के साथ खेतों में दिहाड़ी करते हैं।

सुनाम की तरफ ब्याही गोकुल की बेटियों ने बड़े शहरों में जा कर अब देह व्यापार का धंधा शुरू कर दिया है। मेरी बहन की बेटियां बठिंडा में ऑर्केस्ट्रा में डांस कर रोज़ी-रोटी कमा रही हैं। कबीले के लड़के शहर में जाकर अलग-अलग कामों में मज़दूरी करते हैं। नए लड़के मूंछे और सर पर अंगोछा नहीं रखते। बल्कि बाल कटवा कर, क्लीन शेव रहते हैं। बड़े जेठ का लड़का बदमाशी करने लगा है। सारा दिन मोटर साइकिल पर घूमता रहता है और कभी किसी का पर्स तो कभी मोबाइल छीन कर भाग जाता है। एक बार पुलिस ने पकड़ भी लिया था। काम-धंधों के साथ लोगों का पहरावा भी बदल गया है। कुर्ती, चोली, लहंगे के बजाए लड़कियां अब जीन, टॉप, प्लाजो और शरारा

पहनती और बाल भी लड़कों जैसे कटवा कर रखती हैं।... और लड़के भी कम नहीं, वे भी पैंट, शर्ट पहने रहते हैं...

आई लाचा.....आई लाचा करता तभी तो यह बुड्ढा परेशान होता आ रहा है।

जिस आई लाचा की यह दुहाई देता है उसका कभी कबीले के लोग नाम लेने से भी डरते थे। मेरी माँ तब कथा सुनाया करती थी कि आई लाचा एक राजा वीरमाल की कुंवारी बेटी थी, जिसे ऊगम सिंह नामक नौजवान से प्यार हो गया था। दोनों राजपूत थे परंतु गोत्र नहीं मिलते थे। दोनों की निकटता के कारण आई लाचा गर्भवती हो गई थी। परिवार और कबीले वालों के डर के कारण उसने ऊगम को शादी के लिए अपने पिता से बात करने के लिए कहा। ऊगम आई लाचा के पिता के पास विवाह की बात करने गया परंतु यह बात सुनते ही वह आग-बबूला हो गया और बंदूक ऊगम की तरफ तान दी। और सदा के लिए निकल जाने की चेतावनी दी। ऊगम अपनी शादी के लिए मदद मांगने चित्तौड़गढ़ के राजाओं के पास गया परंतु वहाँ चल रही जंग के कारण किसी को भी अपनी व्यथा नहीं सुना पाया। हार कर वहीं रह कर लोहार का काम करने लगा। इधर उसका इंतज़ार करते-करते आई लाचा ने एक खेत में ही बच्चे को जन्म दे दिया। खेत में जन्म होने के कारण उसका नाम खेतला रखा गया। एक कुंवारी लड़की के माँ बनने से हर तरफ हुए अपमान के कारण आई लाचा ने ऊगम सिंह के साथ-साथ सारे कुल को ही श्राप दे दिया कि इनका नाश हो जाए.... ये लोग इसी तरह सारी उम्र भटकते हुए ही मर जाएं। ऐसा कह कर खुदकुशी कर ली।

कबीले के लोग मानते हैं कि उनके इस तरह दर-दर भटकते रहने का कारण आई लाचा का श्राप ही है। इसीलिए वे उसकी और उसके पुत्र की पूजा करते हैं।

बुड्ढे के भीतर भी यह कथा घर कर गई प्रतीत होती है।

अचानक डोर बेल की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी है। मैं गेट खोल कर देखती हूँ। सामने पुलिस की वर्दी में रूपन खड़ी जंच रही है। उसकी टोपी और कंधों पर लगे स्टार अच्छे लगते हैं।

मम्मी... आज मैं आपको एक सरप्राइज़ दूंगी। वह मुझसे लिपटते हुए कहती है।

अरे, कौन सा सरप्राइज़?” मैं भी चौंक जाती हूँ।

सिप्पी वीरे का वीज़ा लग गया है... दस दिनों बाद उसकी फ्लाइट है कैनेडा के लिए। बर्फी का एक टुकड़ा मेरे मुँह में ठूंसते हुए कहती है।

अच्छा, यह तो बड़ी ख़बर सुनाई तूने। अभी मैंने कहा ही था कि बुड्ढा बड़बड़ाने लगता है ऊहां...ऊह...ऊह आ गई आई लाचा....ऊह नपी जो... नपी जो।

मैं बर्फी वाला डिब्बा रूपन से ले बुड्ढे के पास आ गई हूँ, कुछ नहीं कहेगी तुम्हारी आई लाचा... यह देखो तुम्हारी पोती ए. एस. आई. बन गई है...और अब तुम्हारा पोता भी जहाज़ चढ़ कर कैनेडा जा रहा है...यह लो तुम भी मुँह मीठा करो।

बर्फी मुँह में डालते ही पता नहीं बुड्ढे गोकुल में कैसा जोश आ गया। वह झूम-झूम कर नाचने लगा मानो चित्तौड़गढ़ का किला फतेह कर लिया हो।

 

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लेखक परिचय

                                                                    अनेमन सिंह

 

मानसा (पंजाब) में  निवास।  चार कथा संग्रह, 9 संपादित कथा संग्रह, तीन सह-संपादित पुस्तकें,

7 अनूदित पुस्तकें, दो बाल कहानी संग्रह व अनेक बाल उपन्यासों तथा कहानी संग्रहों का अनुवाद।

गली नंबर कोई नहीं, नूरी, आई लाचा चर्चित कहानी संग्रह।



                        साभार ः ककसाड़ मासिक पत्रिका दिल्ली, जून - 2025

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